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Home » कौंध : नरेश गोस्वामी

कौंध : नरेश गोस्वामी

आकार में छोटी कहानी कैसे बड़ी हो सकती है, नरेश गोस्वामी की कहानी ‘कौंध’ इसका अच्छा उदाहरण है. इसके विस्तार की इसमें संभावनाएं थी, पर नरेश ने अन्तर-कथाओं को पाठकों पर छोड़ दिया है. यह ‘स्पेस’ ही इसे बड़ा बनाती है. कौटुम्बिक-व्यभिचार की कौंध में घर की अनगिनत चीखें शामिल हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
July 10, 2024
in कथा
A A
कौंध : नरेश गोस्वामी
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कौंध 
नरेश गोस्वामी

रात का तीसरा पहर चल रहा था. जनजीवन की आवाज़ें कभी की बंद हो चुकी थीं. कभी घेर के बाहर सड़क पर कोई मोटरसाइकिल गुज़रती या दूर किसी गली में कोई कुत्ता भौंकता तो रात की निस्तबधता थोड़ी देर के लिए चटक जाती.

आज चौधरी रामपत अपने पोते राजेश को घर के पुराने ढोर-डंगरों के क़िस्से बता रहे थे. चौधरी रामपत का इस ग्रामीण कस्बे में बड़ा नाम था. जिस दौर में नामवर परिवारों की जोत घटकर दस-पंद्रह बीघे पर सिमट आई थी, रामपत ने अपनी करामातों से सौ बीघे से ऊपर का रकबा खड़ा कर लिया था. उसके बारे में पूरे क़स्बे में मशहूर था कि वह जिसके कंधे पर हाथ रख देता था उसके घर, जोरू और ज़मीन पर रामपत का क़ब्ज़ा हो जाता था.

रामपत के बारे में एक बात और मशहूर थी कि वह कभी सीधी बात नहीं करता‌. उसकी हर बात कहानी की तरह होती थी. सुनने वालों को उसकी कहानी के अलग-अलग और दिलचस्प ब्योरे तो याद रह जाते थे लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आता था कि रामपत की बात का कुल मतलब क्या है.

बचपन से लेकर मूंछें फूटने तक राजेश बाबा की बतकहियों और उलटबांसियों से अच्छी तरह वाक़िफ हो चुका था. धीरे-धीरे उसका यह यक़ीन मज़बूत होता गया था कि बाबा की बात में हमेशा कोई तिरछी चाल होती है.

बाबा अब बुढ़ाने लगे थे. राजेश दिनों-दिन  उनके लिए ज़रूरी होता गया था. लेकिन वह अपने अब तक के अनुभव से भलीभांति जान गया था कि वह जिस खेल को समझना चाह रहा है वह बाबा के मुंह से नहीं उनके किसी क़िस्से के बीच से ही निकलेगा‌.

 

आज बाबा स्मृतियों में डूबे थे. उनके  किस्सों में जब तब ऐसे प्रसंग भी चले आते कि परिवार में किस बेटे-बेटी की शादी कब हुई या कौन-सा बच्चा कब पैदा हुआ था. राजेश का ध्यान इस बात पर लगातार बना हुआ था कि उसके अपाहिज पिता का इन बातों में एक बार भी ज़िक्र नहीं आया है- घर-परिवार के इन किस्सों में एक वही अनुपस्थित थे.

राजेश ने अपने पापा को कभी हाँ या ना के अलावा कुछ और बोलते नहीं देखा था. बचपन से आज तक वह यही देखता आया था कि उसके पापा सुबह खेत से वापस आते हैं. पशुओं का सानी-पानी करते हैं. फिर दोपहर के समय घेर के एक कोने में पड़ी झिंगला खाट पर बैठकर खाना खाते हैं. और शाम के समय एक बार फिर पशुओं को नहला-धुलाकर और एक थैले में रात का खाना रखकर दुबारा खेतों की ओर चले जाते हैं.

 

राजेश सुनता आया था कि उसके पापा बिल्कुल संत स्वभाव के हैं. घर-परिवार और समाज में उनका ज़्यादा मन नहीं लगता. इसलिए ज़्यादा समय अपने खेतों में ट्यूबवैल के साथ बनी एक कोठरी में रहते हैं.

ख़ैर, रात के तीसरे पहर में चल रही बाबा की इस क़िस्सागोई में राजेश जब तब नींद में झूल जाता. लेकिन बाबा के साथ वह बरसों से घेर में सोता आ रहा था और इस बात को बख़ूबी समझ चुका था कि उनकी बातों पर कब हुंकारा भरना होता है. नींद की झपकी से वापसी के एक औचक क्षण में उसने अपने जगे होने की तसदीक करने के लिए यूं ही पूछ लिया:
“बाबा, आज लंगडे बैल वाला क़िस्सा दुबारा सुनाओ‌. मैं आज तक उसे ठीक से पूरा नहीं सुन पाया.’

बाबा ने हुक्के का एक लंबा कश खींचा और उसकी नै दूर खिसका दी. उन्होंने खंखारते हुए एकबारगी अंधेरे में पोते की ओर कनखियों से देखा.
‘लंगड़े बैल की मुझे आज भी याद आवै…’

बाबा बैल का क़िस्सा नागौर के मेले से शुरू करके उसे घर तक लाने ही वाले थे कि राजेश को अपने भीतर एक अजब-सी कौंध महसूस हुई. उसे लगा जैसे बरसों से बंद पड़ा कोई दरवाज़ा अचानक खुल गया है.

बाबा कह रहे थे:
‘बैल क्या बस यूं समझो पिछले जन्म का कोई भगत ही था! पर एक बार क्या हुआ कि मैं सोने से पहले उसे खूंटे से बांध कर अंदर वाले घर के कुंडी-दरवाज़े बंद करने गया. बमुश्किल दो-चार क़दम ही भीतर गया हूंगा कि वह खूंटा तुड़ाकर धड़धड़ाते हुए मेरे पीछे घुस आया. बहू डरकर पलंग के नीचे छुप गयी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसे अचानक क्या हो गया है. मेरे हाथ में कुछ नहीं था. वह बार-बार मुझ पर झपटता. अचानक मेरा ध्यान कोने में पड़े लोहे के एक झांबे पर गया. डर के मारे मैंने वही उठा लिया और पूरी ताक़त से उसके पैरों पर दे मारा. भगवान की कसम खाकै कह रहा हूं उस दिन मैंने ख़ुद को बहुत रोका पर आख़िर में सब उलट-पलट हो गया. दूसरे वार में मैंने उसे दर्द से चिहुंकते देखा. उसके पैरों से ख़ून का फ़व्वारा फूट निकला था. फिर वह तेज़ी से पलटा. मैं भी उसके पीछे भागा लेकिन वह बरामदे को एक ही फलांग में पार कर ओझल हो गया.

बेटे, उसके बाद बहुत पछतावा हुआ मुझे. मैंने उसे धरती-पाताल- हर जगह ढुंढ़वाया… कई बार सुनने में आता था कि किसी को वह पच्छिम वाले खेत में मिला था. कोई कहता था किसी ने उसे नहर पर देखा है. पर बेटा, मुझे वह कभी दिखाई नहीं दिया’.

बाबा की बात सुनते हुए राजेश का चेहरा  अदृश्य रस्सियों में जकड़ता जा रहा था. उसने अपने माथे को छूकर देखा- उसकी दोनों भौंहें आपस में सिल गयीं थीं. वह बरबस पूछ बैठा :

‘बाबा, लेकिन उसने आप पर हमला क्यूं किया. क्या उसे आपसे कोई खुन्नस थी’ ?
सवाल सुनते ही बाबा को लगा जैसे चलते-चलते वे अचानक किसी चीज़ से टकरा गए हैं. उनका चेहरा स्याह हो आया. उन्होंने अजीब-से डर और हैरानी से पूछा:

‘म्मम् मु…झे नहीं पता उस दिन उस पर क्या सवार हो गया था… हो सकता है कि उसे मेरी कोई हरकत चुभ गई हो.’
बाबा ने अंधेरे में पोते की ओर टटोलती नज़र से देखा.

राजेश इस जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ. बाबा को उसकी सांसों की थरथराहट से महसूस हुआ वह कुछ और पूछना चाहता है.
‘बाबा, उसे क्या ग़लतफ़हमी हुई होगी? क्या आपने उसके साथ कुछ ग़लत कर दिया था? कहीं उसे यह एहसास तो नहीं हो गया था कि इस घर में कुछ ग़लत चल रहा है?’

बाबा का चेहरा फक्क पड़ गया. उन्हें लगा कि उनका गला यक़ायक सूखने लगा है.
‘तू समझ नहीं रहा है…’

बाबा ने अनजाने बोझ से दरकती आवाज़ को जैसे-तैसे जोड़ते हुए कहा.

‘नहीं, उसे सब पता चल गया था. इसीलिए जैसे ही आप अंदर जाने के लिए  खाट से उठे वह… सच यह है  कि उसे पता चल चुका था कि… ‘.
राजेश ने तपाक से कहा.

बाबा सनाका खा गए. उनसे करवट नहीं बदली गई.

‘आप कह रहे हैं कि उस रात वह एक ही छलांग में बरामदे से बाहर निकल गया‌ लेकिन, उसकी तो एक टांग तो बिल्कुल ही ख़राब थी. आप ही बताते हैं कि यहां  आकर उसे कोई रोग हो गया था.’

‘आख़िर तू किसकी बात कर रहा है?’
बाबा की आवाज़ किकियाहट में बदलने लगी थी.

‘मैं उसकी बात कर रहा हूं जिसे मैं रोज़ यहीं देखता हूं. जो कई बार मुझे अपने सपनों में दिखाई  देता है… जो अपनी उखड़ती सांसों के बीच मुझसे कोई बात कहना चाहता है… मैं उसकी बात कर रहा हूँ जो हर सुबह सारे डांगरों को चारा खिलाता है. दोपहर में उन्हें नहलाता है और शाम के समय आपका हुक्का भर कर खेतों की ओर चला जाता है’.
बाबा को पोते की आवाज़ ट्यूबवैल की नाल से यकायक छूटे पानी की छपाक  सरीखी महसूस हुई.

इस दौरान राजेश उठकर अपनी चारपाई पर बैठ गया था. वह पूछ रहा था :
‘बाबा, कहीं यह उस आदमी की कहानी तो नहीं है जिसे उसके बाप ने बैल बना दिया था और जो एक दिन दुबारा आदमी बनकर लौट आया था… और’.

बाबा को लगा कि इस बार पोते की आवाज़ ने उसे चीथ कर रख दिया है. उन्होंने देखा कि राजेश धम्म से चारपाई से हांफता-सा उठा और घेर से बाहर निकल गया‌.

फिर रात का सन्नाटे गहराता रहा. जब तब कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आती रहीं.

बाबा की छाती के नीचे कभी बिजली कड़कती, कभी भूकंप आने लगता.

कभी लगता उन्हें लगता कि वे गले तक कीचड़ में धंस गए हैं और उनके गले से घुटी-घुटी आवाज़ें आ रहीं हैं.

फैलती बिखरती सांसों के बीच एक बार अचानक उनकी आँखें खुली. बहुत देर तक उन्हें कुछ समझ नहीं आया. आख़िर में, आदतन उनका ध्यान पूरब वाली खिड़कियों की ओर गया- बरामदे की दीवारों के ऊपरी हिस्से पर उगते सूरज की रोशनी झिलमिला रही थी. चौधरी रामपत की आँखें इस रोशनी को सहन नहीं कर पाई. उन्होंने अपनी आँखों को दोनों हथेलियों से कसकर बंद कर लिया.

 

नरेश गोस्वामी
समाज विज्ञानी और हिंदी के कथाकार
‘स्मृति-शेष: स्मरण का समाज विज्ञान’ पुस्तक और अनुवाद आदि प्रकाशित. वर्षों तक प्रतिमान का संपादन. 

सम्प्रति:
डॉ. बी.आर. अंबेडकर युनिवर्सिटी के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र में अकादमिक फ़ेलो.
naresh.goswami@gmail.com

Tags: 20242024 कहानीकौंधनरेश गोस्वामी
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Comments 13

  1. बजरंग बिहारी says:
    10 months ago

    मुद्दा महत्त्वपूर्ण हैै। इस पर चर्चा कम ही होती है यद्यपि वास्तविकता से सब परिचित हैं। परिवार संस्था की पवित्रता आड़े आती है।
    नरेश जी को ऐसी कहानी के लिए धन्यवाद।
    कहानी सायास न लगती तो और प्रभावशाली होती।

    Reply
  2. भूपिंदर प्रीत says:
    10 months ago

    इस कहानी में कविता सा रहस्य है। जो चाभी नरेश जी ने पाठक को पकड़ाई है, उससे कहानी को खोलते समय जो
    एकदम से ना खुलने का आनन्द है, वही सर्बश्रेष्ठ है।

    Reply
  3. अमित राय says:
    10 months ago

    ‘बाबा, कहीं यह उस आदमी की कहानी तो नहीं है जिसे उसके बाप ने बैल बना दिया था और जो एक दिन दुबारा आदमी बनकर लौट आया था… और’.
    यह इस कहानी का बीज वाक्य है!
    अद्भुत!

    Reply
  4. वागीश says:
    10 months ago

    बहुत प्रभावशाली कहानी बनी है. जैसा कि कहानी में कहा गया, “सुनने वालों को उसकी कहानी के अलग-अलग और दिलचस्प ब्योरे तो याद रह जाते थे लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आता था कि रामपत की बात का कुल मतलब क्या है.” इस कहानी में उसके उलट, ‘कुल बात’ पहले समझ में आ जाती है और ‘दिलचस्प ब्यौरे’ पाठकों की कल्पना के लिए छोड़ दिए जाते हैं. मेरे लिए यह बात इस कहानी को खास बनाती है। बेहतरीन!

    Reply
    • R.P..singh says:
      10 months ago

      Vagish ji is kahani pe aapka comment bahut hi mhatvpooran lgaa.

      Reply
  5. ललन चतुर्वेदी says:
    10 months ago

    यह चेतना को झकझोर कर रख देने वाली कहानी है। आदमी अपनी ही औलाद को इस स्थिति में पहुँचा देता है ,यह जानकार दुख और आश्चर्य दोनों होता है। कहानी में विस्तार से बचकर नरेशजी ने अच्छा ही किया है। यह एक प्राणवान कहानी है।

    Reply
  6. पूनम मनु says:
    10 months ago

    इस तरह की कहानियों को लिखने के लिए बहुत संयम की अवश्यकता पड़ती है। कहानी में डिटेल्स कहानी की रोचकता कम कर देते हैं। ये कसी हुई कहानी है। सीधी सरल। नरेश जी को हार्दिक साधुवाद।

    Reply
  7. राजाराम भादू says:
    10 months ago

    कहानी की अन्तर्वस्तु के लिए उपयुक्‍त संरचना और प्रविधि प्रयुक्त की गयी है। बधाई नरेश !

    Reply
  8. विनोद पदरज says:
    10 months ago

    बिना लाउड हुए संकेतों में बहत कुछ कहती कहानी,मारक बेधकता कितने कम शब्दों में। इसका विषय हमारे समाज के घृणित चेहरे को दिखाता है ।

    Reply
  9. केशव शरण says:
    10 months ago

    बेहद पठनीय कहानी है। प्रवाह और कसाव दोनों है। संवाद की नाटकीयता भी बढ़िया है। कथ्य या कथावस्तु अल्प है पर संवेदनात्मकता ने विस्तार पाया है। कहानी का अंत, मेरी समझ से अगर फैलती-सिकुड़ती साँसों के बीच बाबा के हार्ट अटैक से होता तो और अच्छा तथा अर्थवान लगता।

    Reply
  10. Ashutosh Kumar says:
    10 months ago

    सांकेतिकता में ही इस कहानी की सार्थकता है। यह कहानी कौटुंबिक व्यभिचार के बारे में उतनी नहीं है, जितनी भारतीय परिवार के उस सामंती पितृसत्ताक ढांचे के बारे में है जिसे जानते सभी हैं लेकिन जिसकी चर्चा कोई नहीं करता।। जिसके वजूद की हमेशा अनदेखी की जाती है। जिसे हमेशा इस तरह बरता जाता है जैसे वह हो ही नहीं। जहां प्यार की आड़ में एक अदृश्य आतंक हर किसी पर हावी रहता है। जैसा कि रामपत की सुनाई कहानी में भी है।

    Reply
  11. Kinshuk Gupta says:
    10 months ago

    ख़ैर मैं तो यह कभी नहीं समझ पाता हूं कि कैसे कोई विषय अलग से महत्त्वपूर्ण होता है। हां, विषय अनछुआ हो सकता है। जिस भी विषय पर कहानी लिखी जाती है, चाहे उसी विषय पर पहले कितनी मर्ज़ी कहानियां लिखी जा चुकी हों, महत्त्वपूर्ण होता है। अब बात रही इस कहानी की, तो क्या विषय इसी विशेषता है, मैं कहूंगा नहीं। तमाम कहानियां इस विषय पर लिखी जाती रही हैं।

    किसी भी कहानी की ख़ासियत उसके ब्योरों में होती है। कहानी के कुछ संकेत—बाबा का रोशनी देखकर आंखें झिपा लेना, उनकी टूटे ट्यूबवेल से छपाक से बहते पानी की सी आवाज़—उन सूक्ष्म मनोभावों को उद्घाटित करने में सफ़ल होते हैं जिसे बाबा का एक चित्र खिंचता दिखाई पड़ता है। यह कहानी का मजबूत पक्ष है।

    पर जितना कहानी बाबा का चरित्र गढ़ने में मेहनत करती है क्या उसका अंश भर भी राजेश का चरित्र गढ़ने में करती है? राजेश वो सब कहता है जो उसकी उम्र के बच्चे को समझ में आ ही नहीं आ सकता? और समझ आए भी तो बच्चा ऐसी बात बोलने से भी घबराएगा। और वह बोलेगा भी तो क्या इस तरह के संकेतों में बोलेगा? यह मामूली चाइल्ड साइकोलॉजी की समझ की बात है। और बात वह भी नहीं है, ज्यादा बड़ी समस्या यह है कि बड़ी आराम से यह समझ में आता है कि लेखक जो खुद कहना चाहता था, जो संकेत पाठकों के लिए छोड़ना चाहता था, वह सब राजेश के माध्यम से कहानी में प्रविष्ट होते हैं, और इसलिए वह पात्र पात्र न रहकर, कार्डबोर्ड कट आउट बनकर रह जाता है। यह जो संकेत हैं यह कहानी का सबसे बड़ा नुकसान करते हैं। बैल का आक्रमण और बाबा द्वारा आक्रमण एक व्यापक संकेत बन सकता था, जो केवल कुछ पंक्तियों को काट देने से संभव हो जाता। कहानी और बड़ी हो सकती थी।

    अभी भी कहानी अच्छी है। शिल्प प्रभावित करता है।

    Reply
  12. सच्चिदानंद सिंह says:
    8 months ago

    छोटी, घनी कहानी.

    Reply

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