अगम बहै दरियाव सत्ता की देशज संरचना का आख्यान नरेश गोस्वामी |
अगम बहै दरियाव पर केंद्रित चाक्षुष और मुद्रित चर्चा में इसे ग्रामीण जीवन का दस्तावेज, उसके लोकरंगों का प्रतिबिंब आदि कहा जा रहा है. उपन्यास के पिछले आवरण पर छपी परिचयात्मक टिप्पणी भी कुछ ऐसा ही कहती प्रतीत होती है :
“इस कथा में समूचे उत्तर भारत के किसानों और मजदूरों की व्यथा समोयी हुई है. इस दुनिया में सब शामिल हैं- अगड़े, पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक सब. और सब इसमें बराबर के हिस्सेदार हैं. जिन्दगी के विविध रंगों, छवियों और गीत-संगीत से समृद्ध इस उपन्यास में ‘लोक’ की छटा कदम-कदम पर दृश्यमान है, और ग्रामीण जीवन की शान्त सतह के नीचे खदबदाती लोभ लालच, प्रेम-प्यार, छल-प्रपंच और त्याग- बलिदान की धाराएँ भी जो जमाने से बहती आ रही हैं.”
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मेरा निवेदन है कि यह उपन्यास ग्रामीण जीवन की उत्सवधर्मिता या रुमानियत का राग न होकर उसकी स्थानिक और चतुर्दिक फैली सत्ता-संरचना को ज़्यादा उद्घाटित करता है. अगर यहाँ लोक-गीतों और लोक की बोली-बानी का इस्तेमाल किया गया है तो इसका आशय यह नहीं है कि शिवमूर्ति इस उपन्यास में ग्रामोत्सव मनाने निकले हैं. इन उपादानों की उपस्थिति शायद इसलिए है कि इनके बिना कथा की ज़मीन, जगह, परिवेश और स्थानिकता का रचाव संभव नहीं हो पाता. इसलिए, देखा यह जाना चाहिए कि उपन्यासकार इन घटकों और कडि़यों का इस्तेमाल केवल सरसता की मिकादार बढ़ाने के लिए कर रहा है या ऐसे तमाम उपादन कथा के स्थापत्य और भूदृय में उन अनिवार्य गलियारों का काम करते हैं जिनके बगैर कथा के एक प्रसंग से दूसरे प्रसंग, एक घटना-क्रम से दूसरे घटना-क्रम तक नहीं पहुँचा जा सकता था.
ज़ाहिर है कि उपन्यास के गाँव बनकटा के सामाजिक जीवन को रूपायित करने के लिए उसकी भाषा-बोली, रीति-रिवाजों और लोगों के हास-परिहास को दरकिनार नहीं किया जा सकता. हमारे विचार में यह रचनाकार का सहज सामाजिक-बोध है- वह अपने द्वारा देखे, अनुभूत, संचित और व्याख्यायित को उसकी समस्त भौतिक-सांस्कृतिक वास्तविकता में प्रस्तुत करता है. लेकिन, अंतत: देखा यह जाना चाहिए कि उपन्यास का गुरुत्व-केंद्र कहाँ स्थित है. ग़ौर करें कि यह उपन्यास किस दृश्य से शुरू होता है?
“…पूरब के आसमान से काले-भूरे बादलों के पहाड़ उमड़ते-घुमड़ते चढ़े आ रहे थे. मन्द-मन्द बहती पुरवा में मिट्टी की सोंधी गन्ध समाई हुई थी. बादल इतने नीचे आ गए थे कि लगता था पहाड़ी के जंगल से निकले आ रहे हैं. चील का एक जोड़ा बादलों को छूता हुआ पंख फैलाए तैर रहा था. मोर प्या-ओं… प्या-ओं… करते खेतों में उतर आए थे और जगह-जगह पंख फैलाए नाच रहे थे. तीतरों की टिलो-टिलो से दिशाएँ गूँज रही थीं. बादलों के घटाटोप से फिर अँधेरा छाने लगा. कौवे, किलहँटी, पपीहे, पेंड़की और तोते शोर मचाते हुए इधर-से-उधर उड़ने लगे.” (पृष्ठ11)
प्रकृति के लिए यह सृजन का क्षण है. लेकिन, थोड़ी देर बाद जब संतोखी अपने खेत में बुवाई के लिए पहुँचता है तो हम देखते हैं कि उसके खेत पर क्षत्रधारी सिंह का क़ब्ज़ा हो गया है. मतलब यह कि इस गाँव में वंचित और निर्बल की मौजूदा और संभावित खुशियाँ असल में एक सत्ता-संरचना की कृपा पर निर्भर करती हैं.
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि गाँव की इस सत्ता-संरचना के सामने दो समवर्ती और आधारभूत चुनौतियाँ खड़ी हो गयी हैं. इनसे हमारा आशय उत्तर भारत की राजनीति में उभरी पिछड़ों और दलितों की निर्णायक भागीदारी तथा इसी दौरान राज्य की दूरगामी नीति के तौर पर लागू की गयी नव-उदारतावादी अर्थव्यवस्था से है. इसलिए, एक तरह से देखें तो यह उपन्यास उत्तर भारत के एक गाँव- बनकटा की कथा में सत्ता के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आधारों में आ रहे बदलावों की कथा भी बयान करता करता है.
निस्संदेह, यहाँ यह भी पूछा जा सकता है कि सामाजिक-आर्थिक बदलावों को जानने-समझने के लिए तो तमाम तरह की रिपोर्ट, लेख और शोध-अध्ययन पहले से मौजूद हैं तो फिर इन परिवर्तनों को दर्ज करके यह उपन्यास कौन-सा नया और महत काम करता है? मेरा कहना है कि एक तो ऐसे लेखन में मिलने वाले ब्योरे अधिकतर सरकारी सूत्रों और सूचनाओं पर निर्भर करते हैं. दूसरे, उनमें वह घटनात्मकता नहीं होती जिनसे किसी सूचना और तथ्य को मानवीय अनुभव में अंतरित होने की कारकता मिलती है.
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अगम बहै दरियाव में सत्ता की संरचना अपरिवर्तनीय या स्थिर नहीं है. उसका केंद्र प्रकट और वास्तविक, दोनों अर्थों में सवर्ण टोले के हाथ में है परंतु उसका यह नियंत्रण निर्विवाद नहीं है. वहाँ दमन है ही इसलिए कि इस नियंत्रण को चुनौती मिल रही है. मसलन, उपन्यास की शुरुआत में ही इलाक़े की दलित महापंचायत यह तय कर देती है कि खेतों में काम करने वाले मज़दूर (पृष्ठ 47) तीन सेर की मज़दूरी से कम पर काम नहीं करेंगे. गाँव की सवर्ण सत्ता के लिए यह एक बड़ा धक्का है. उसे यह बर्दाश्त नहीं होता कि दलित जातियाँ ऐसा निर्णय कैसे ले सकती हैं.
गतिरोध का हल ढूंढने के लिए सबसे पहले पारस सिंह पहल करता है. वह झूरी नामक व्यक्ति के पास जाता है. पारस और झूरी का यह संवाद ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए. इससे पता चलता है कि परंपरा और आपसदारी की उक्तियों के पीछे सत्ता और जाति की श्रेष्ठता का दंभ किस क़दर तन कर खड़ा है:
पारस सिंह : देखो काका. हमें अकेले फैसला लेना होता तो आज से ही बढ़ा देते लेकिन सारे गाँव की मरजी के बाहर नहीं जा सकते. आप रात में आकर मन-दो मन धान बखार से ढो लाइए. तीन किलो के हिसाब से काट लीजिएगा. बस किसी से कहिएगा नहीं.”
झूरी : यही तो नहीं हो सकता राजा. जो आपकी मजबूरी है वही हमारी है. आप दो किलो ही दीजिए, लेकिन चार आदमी के सामने कह दीजिए कि तीन किलो दे रहे हैं.
कुछ देर तक दोनों तरफ मौन पसरा रहा.
पारस सिंह : जिद मत करिए काका. खेत परती पड़े रह गए तो क्या हम खाएँगे क्या तुम खाओगे.
झूरी : यही तो तय करना मुश्किल है राजा कि कौन जिद कर रहा है.
पारस : बाप-दादा के जमाने से चले आ रहे रिश्ते पर एक किलो धान के लिए पानी मत फेरो.
झूरी : यही तो मेरा भी कहना है बाबू.
झूरी के इस अडि़यल रुख़ का परिणाम यह होता है कि अभी घड़ी पर पहले ‘बाप-दादा के जमाने से चले आ रहे रिश्ते’ की नज़ीर देने वाला पारस भयावह गाली-गलौज करते हुए झूरी को लात मारने लगता है. इसकी जवाबी कार्रवाई में झूरी के बेटे पारस सिंह से भिड़ जाते हैं. मारपीट में पारस मारा जाता है. लेकिन, इसके बाद दलित टोले के साथ जिस तरह की संगठित हिंसा की जाती है उसकी यह झांकी झुरझुरी पैदा कर देती है:
“अनाज से भरे घड़े गर्मी पाकर फट गए हैं. अधजला अनाज जमीन पर बिखरा है. उसमें से अभी भी धुआँ निकल रहा है. जली हुई झोंपड़ियों के बीच एकाध अधजली लकड़ी अभी भी सुलग रही है. नंगी दीवारें काली पड़ गई हैं. गाय और भैंस खूँटा उखाड़कर भाग गईं लेकिन चार बकरियाँ और एक पँड़िया खूँटे पर बँधी-बँधी मर गईं. उनकी लाश फूलने लगी है. कपड़े लत्ते, कथरी-गुदरी, सूप- दौरी राख हो गए. छप्पर में खोंसे कागज-पत्तर और रुपये भी. बर्तन काले और टेढ़े-मेढ़े हो गए.” (पृष्ठ 55)
उपन्यास का मुख्य खल-पात्र क्षत्रधारी सिंह लंबे समय से गाँव की प्रधानी संभालता रहा है. लेकिन, बोधा उर्फ विद्रोही जी उसे लगातार चुनौती दे रहे हैं. पहली बार विद्रोही जी क्षत्रधारी के छल के आगे मात खा जाते हैं. लेकिन, दूसरी बार क्षत्रधारी की नहीं चलती. विद्रोही जी प्रधान बन जाते हैं. (पृष्ठ 209) छत्रधारी अपनी पहुँच से प्रधान विद्रोही के प्रशासनिक और वित्तीय अधिकार निरस्त करवा देता है. विद्रोही को जेल भी जाना पड़ता है लेकिन आखिर में प्रधान के रूप में उनके तमाम अधिकार बहाल हो जाते हैं. (पृष्ठ 247) इसी तरह, जब गाँव की प्रधानी दलित वर्ग के लिए आरक्षित हो जाती है तो क्षत्रधारी और उसके समर्थकों के तमाम तिकड़मों के बावजूद तूफानी की माँ दहभंगा जीत जाती है. (पृष्ठ 304)
सवर्ण सत्ता के सामने लगातार गंभीर होती जाती इस चुनौती का एक उदाहरण उस घटना में देखा जा सकता है जहाँ टीडी सिंह के खेतों में धान की कटाई पर जाने वाली दलित लड़कियाँ ऐन मौक़े पर यह कहकर मुकर जाती हैं कि आज हम ‘जशन’ मनाएंगे क्योंकि आज हमारी बिरादरी की नेता सूबे की दुबारा मुख्यमंत्री बनी है. (पृष्ठ 337)
लगता है कि यह साहित्य समीक्षा के राजनीतिक अवचेतन का मामला है. समीक्षकों का एक कुल यह स्वीकार नहीं करना चाहता कि कोई भी अर्थवान रचना समाज की गहरी संरचनाओं और ऐतिहासिक परिस्थितियों के बीच आकार लेती है. यह भी कि रचना की सतह पर तैर रही घटनाओं, प्रसंगों और प्रश्नों का तल या आधार कहीं नीचे होता है. लेकिन, कई दफ़ा समीक्षक का अपना अवचेतन उसे इन कारकताओं के उद्घाटन की ओर नहीं जाने देता.
समीक्षक का अपना प्रकट मानस जिन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं और निजी पसंद-नापसंद के बीच निर्मित व स्थिर होता है, उसका एक अप्रकट भी होता है जहाँ इन्हीं प्रक्रियाओं के बीच बने उसके पूर्वाग्रह और छनित्र स्थित होते हैं जो उसे रचना के वास्तविक स्वरूप तक पहुँचने से बरज देते है. इसलिए, कोई समीक्षक क्या देखता और कहता है- इसका फ़ैसला पहले ही हो चुका होता है. वह इस ख़तरे को समझता है कि रचना की सतह और समग्रता को पकड़ने की उसकी कोशिश उसके अब तक अर्जित बोध और व्यक्तित्व को ख़ारिज कर देगी. इसलिए, बहुत-से समीक्षक रचना के मर्म को चिह्नित करने के बजाए उसके किसी ऐसे आयाम को केंद्रस्थ कर देते हैं जिससे किसी को ख़ास एतराज़ नहीं होता. शायद इस उपन्यास के के साथ भी- सायाय या अनायास कुछ ऐसा ही किया जा रहा है. मतलब यह कि इस उपन्यास की मूल संवेदना जहाँ इशारा करती है, वहाँ न देखकर द्वितीयक और आनुषंगिक आयामों पर ज़्यादा चर्चा की जा रही है.
यह साफ़ देखा जा सकता है कि इस उपन्यास का गुरुत्व-केंद्र ग्रामीण समाज की सत्ता संरचना में स्थित है. लेकिन, सत्ता की यह संरचना इकहरी नहीं है. उपन्यास में इसके दो रूप दिखाई पड़ते हैं. इसका एक रूप वह है जिसमें सत्ता स्थिर रहती है; उसके छल-प्रपंच] जातिगत दमन, ताक़त और व्यवस्था में उसकी पहुँच को कोई चुनौती नहीं मिलती, लेकिन इसका दूसरा चरण वह है जिसमें लोकतांत्रिक चेतना की दूसरी लहर के प्रभाव स्वरूप उभरी सामाजिकता के चलते सत्ता की इस संरचना का रूप पहले जैसा नहीं रह गया है. लेकिन सामाजिक व्यवहार और अनुभव में ये दोनों रूप एक साथ बनकटा के सामाजिक जीवन में व्याप्त तनाव का मूल कारक शायद यही बदलाव है.
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सत्ता की यह संरचना ऐसी है कि इसमें पीड़ित और वंचित को जेल बाहर की दुनिया से बेहतर नज़र आती है. मसलन, पारस सिंह कांड के बाद जब झूरी के परिवार और उससे संबंधित बारह लोगों को जेल हो जाती है तो जंजाली और परमेसरी का वार्तालाप देखिये :
जंजाली : “…अरे जेल जाने से वे डरें जो महलों में रहते हैं… हम क्यों डरें? बस एक ही बंधन है कि घर नहीं आ सकते. “
“घर?” परमेसरी बोल पड़े- “यह घर है कि नरक कुंड. मेरा मतलब जेल के मुकाबले, जहाँ-जहाँ आठ-आठ रोटियाँ हैं. पक्के फ़र्श हैं. कंबल है अस्पताल है. वह तो हम लोगों जैसे अतातपंखी गरीबों के लिए सोझै बैकुंठ है. बैकुंठ तो उनको मिलता है जो बहुत पुन्य का काम करते हैं.”
“बस यह है कि बाहर कोई बन्धन नहीं है. कहीं भी आने-जाने के लिए सुतंत्र हो.”
“यहाँ हम लोग सुतंत्र हैं भूख और बीमारी से मरने के लिए. जाड़े में बोरा ओढ़कर रात काटने के लिए. दबंगों की गाली खाने और आँसू पीने के लिए. कोई पूछने नहीं आता कि पेट में अन्न का दाना पड़े कितने दिन हो गए.”( पृष्ठ 66-67) .
कारावास की यह परतंत्रता उन्हें बकौल जंजाली इसलिए लुभाती है क्योंकि ‘कायदे से रहने पर जेल में ही लोग हवलदार-जमादार तक बन जाते है’.
क्या उनकी दुर्दशा का कारण यह नहीं है कि अगर झड़ लग जाए तो खाने के लाले पड़ जाएं. बच्चे रात को ठाकुरों के खेतों से शकरकंदी मटर या गन्ना उखाड़ कर लाते हैं. उन्हें पड़ोसी से धान माँगकर लाना पड़ता है. और तो और, परमेसरी को सोलह सत्रह साल का पप्पू तीन डंडे मार जाता है.
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सत्ता-संरचना के प्रसंग में यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि उसमें सवर्ण वर्गों का श्रेष्ठता-बोध और उनकी स्वेच्छाचारिता एकमात्र घटक नहीं है. दूसरे, वह केवल स्थानीय या स्थानबद्ध परिघटना नहीं है. यह सब इसलिए चलता है और इसे इसलिए प्रश्रय दिया जाता है कि इस स्थानीयता से परे राष्ट्र के स्तर पर जनता के अधिसंख्य हिस्से- दमित, दलित और सवर्ण समुदायों के भी तमाम साधनहीन लोगों को बड़ी पूंजी के मातहत रखना होता है.
इसलिए, बनकटा की इस सत्ता-संरचना को केवल जातियों की दर्जाबंदी तक सीमित करके नहीं देखा जा जाना चाहिए. दरअसल, इसे राज्य के व्यापक तंत्र से काटकर नहीं समझा जा सकता. मसलन, संतोखी का उदाहरण लें. अपनी ज़मीन पर दुबारा क़ब्ज़ा हासिल करने में संतोखी को बत्तीस साल लग जाते हैं. क़ानून की इस प्रक्रिया में वह जिस यातना, अपमान और दरिद्रीकरण से गुज़रता है उससे यह रहा सहा शक भी सच में बदल जाता है कि क़ानून और पुलिस का पूरा ढ़ांचा ताक़तवर समूहों के पक्ष में झुका रहता है.
न्याय मिले या न मिले, लेकिन संतोखी को हर सुनवाई पर वकील की फ़ीस का इंतज़ाम करना पड़ता है. संतोखी की आर्थिक दशा में जी रहे व्यक्ति के लिए क़ानून की शरण में जाना, उससे राहत की उम्मीद करना कितना विसंगतिपूर्ण है- एक ओर उसके उत्पादन के साधन यानि ज़मीन का अपहरण कर लिया गया है और दूसरी ओर अपनी इस भयावह विपन्नता के बावजूद क़ानून से राहत पाने के लिए उसे पैसों का प्रबंध करना पड़ता है. कई दफ़ा तो लगता है कि क़ानूनी प्रक्रिया की अतिशय जटिलता और लेटलतीफ़ी न्याय की धारणा और उसके औचित्य को ही निष्प्रभावी कर देती है.
इस संदर्भ में संतोखी के मामले को ग़ौर से देखें:
कहने को तो संतोखी क़ानूनी प्रक्रिया के पहले चरण से ही सफल होने लगता है. मुंसिफ कोर्ट से प्रतिपक्षी क्षत्रधारी सिंह को नोटिसी की तामीली हो जाती है. इसके बाद वह नायब, मुंसिफ, एसडीएम और सत्र न्यायालय से भी जीत जाता है. इक्कीस बरसों के क़ब्ज़े के बाद संतोखी को अपना खेत वापस हासिल करने की उम्मीद बंधती है. लेकिन, जब वह अपने खेत पर कब्जे के लिए पहुँचता है तो पता चलता है कि क्षत्रधारी हाई कोर्ट से स्टे ले आया है.
इसके बाद स्टे को हटवाने के लिए उसे एक दूसरी दरख़्वास्त डालनी पड़ती है. यानी यहाँ उसे फिर ख़र्च वहन करना पड़ता है. इस दौरान हाथों में कंपन की बीमारी के चलते वह बाल काटने का काम छोड़कर लाई-चना बेचने लगता है. उपरोक्त घटना के सात साल बाद हाई कोर्ट का फ़ैसला आता है. संतोखी को फिर खेत पर क़ब्ज़े का मौक़ा मिलता है. अब तक, कुल मिलाकर अट्ठाईस साल बीत चुके हैं. इस दौरान क्षत्रधारी लगातार खेती की बुवाई करता रहा है. लेकिन, संतोखी को हाई कोर्ट के फ़ैसले से भी न्याय नहीं मिलता. वह खेत पर क़ब्ज़ा लेकर बुवाई ही कर पाता है कि क्षत्रधारी उसकी फ़सल को उलट देता है. क्षत्रधारी का भतीजा न केवल संतोखी को बंदूक दिखाकर आतंकित करता है बल्कि संतोखी की पीठ पर लात भी मारता है. यहाँ से देखें तो संतोखी का अट्ठाईस बरसों का धैर्यपूर्ण संघर्ष यहाँ एक क्षण में स्वाहा हो जाता है. इस प्रकरण से साफ़ ज़ाहिर होता है कि हमारे यहाँ क़ानून का शासन एक किताबी मिथक ज़्यादा रहा है. इस घटना के बाद संतोखी को थाने में और एसडीएम के यहाँ दुबारा दरख़्वास्त लगानी पड़ती है. वह थाने में जाता है तो थानेदार उलटा उसे ही हड़काने लगता है.
संतोखी और थानेदार का यह संवाद बताता है कि एक साधारण व्यक्ति जब सहानुभूति और न्याय की आशा में इन संस्थाओं के पास जाता है तो उसके साथ कैसा बर्ताव किया जाता है :
संतोखी : “सरकार हम हर अदालत से जीते हुए हैं. वे नाजायज कर रहे हैं. एक बार हमारे ऊपर और दया करें, हुजूर.”
थानेदार : “ताकि वह फिर उलट दे तो हम फिर क़ब्ज़ा दिलाने चलें. बस यही करते रहें साल-भर ?”
संतोखी : “नहीं सरकार. इस बार अगर वे न माने तो हम अपने ऊपर मिट्टी का तेल डालकर उसी खेत में जल मरेंगे.”
थानेदार : “तो अभी इसमें क्या दिक्कत आ रही है ?”
थाने के एक अन्य दृश्य में इंचार्ज संतोखी की काग़ज़ी कार्रवाई से चिढ़कर उसे यह कहकर फिर बेइज़्ज़त करता है कि ‘तू एक दरखास्त और लिख, कप्तान साहेब के नाम कि सिर्फ तुझे कब्जा दिलाने के लिए एक थाना और खोलवा दें!’
ख़ैर, आखिर में बत्तीस बरसों के बाद संतोखी को न्याय मिलता है. उसे अपने खेत पर वाक़ई कब्जा मिल जाता है. लेकिन, यह न्याय कल्याणकारी राज्य से नहीं बाग़ी हो चुके जंगू के हस्तक्षेप के बाद मिलता है.
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शिवमूर्ति का उपन्यासकार उस सामाजिक मनोविज्ञान की पड़ताल भी करता है कि सत्ता की इस संरचना के संचालक-प्रबंधक इसे कैसे जीवन की सहज और सामान्य व्यवस्था मानकर चलते हैं.
दलितों की पंचायत द्वारा मजदूरी की दर बढ़ाने की घोषणा के बाद हल की मूठ थामने को अपवित्र या अस्पृश्य काम मानने वाले सवर्ण किसानों की पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि ‘तीन किलो मजदूरी देने का तो सवाल ही नहीं है. जो आज तक नहीं हुआ वह अब कैसे हो जाएगा?’ (पृष्ठ 48).
इसके बाद जब पारस सिंह झूरी जैसे हलवाहों को मनाने में विफल हो जाता है और वापस अपने टोले में लौट आता है तो सजातीय बंधुओं की प्रतिक्रिया कुछ ऐसी होती है :
“कर आए सरेंडर? हो गई धोती ढीली? क्या जरूरत थी उन ससुरों के टोले में जाने की? बिरादरी की हेठी करा दिए. यह इलाका हमारा अभयारण्य है. यहाँ हमारा हुकुम चलता आया है. ब्रिटिश राज तक में चला है तो अब ए ससुरे पिद्दी हमें चैलेंज करेंगे? ये दर-हरामी हैं. इन्हें दाने-दाने को मोहताज करना पड़ेगा”. (पृष्ठ 49)
इसके आगे अन्याय और क्रूरता को जायज़ ठहराने के लिए यह तर्क दिया जाता है :
“ऐसा नहीं है पारस सिंह कि हमारे भीतर दया-माया नहीं है. लेकिन मामला जिन्दा रहने का है, गाँव का जीवन-संघर्ष दो पहलवानों की कुश्ती जैसा है. जो पहलवान नीचे पड़ गया वह तब तक ऊपर नहीं आ सकता जब तक ऊपर वाले पहलवान की पकड़ ढीली नहीं पड़ जाती. ढीली पड़ते ही नीचे वाला उसे पलटकर उसकी छाती पर सवार हो जाएगा. दलितों को हम इसीलिए दबाए रखने को मजबूर हैं कि वे हमारी छाती पर सवार न हो जाएँ. जिन्दा रहने भर को ही मजदूरी देना भी उन्हें दबाए रहने का एक दाँव है.” (पृष्ठ 51)
पारस सिंह की दलील प्रकटत: पीडि़तों के पक्ष में खड़ी दिखती है परंतु अंतत: उन्हें पशु-योनि में ही देखना चाहती है :
“लेकिन यह तो अन्याय हुआ. हमें उनके साथ कम-से-कम ऐसा व्यवहार तो करना चाहिए जैसा अपने बैलों के साथ करते हैं. उन्हें काबू में रखने के लिए उनकी नाक में नथ पहनाते हैं. लेकिन उन्हें भरपेट खिलाते भी हैं. उन्हें मोटा-ताजा देखकर खुश होते हैं.”(पृष्ठ वही)
आखिर में यह विचार-विमर्श इस निर्णय पर जाकर समाप्त होता है :
“यही नीति ठीक रहेगी. इतना दीजिए कि मरें भी न और मोटाएँ भी न.” (पृष्ठ वही)
शिवमूर्ति की नज़र इस तथ्य पर भी है कि सामाजिक सत्ता की यह संरचना स्वयं को कैसे पुनरुतपादित करती है- वह अपनी संतानों को इस संरचना के संरक्षकों और प्रतिनिधियों के रूप में प्रशिक्षित करती है. गजाधर के कुशाग्र बेटे जंगू का पैर इसलिए तोड़ा जाता है ताकि भविष्य में पढ़ाई-लिखाई करके वह इस संरचना से बाहर न जा सके. लेकिन, तमाम विपत्तियों, अपमान और अवमानना के बावजूद जब जंगू स्कूल में एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी के रूप में सम्मानित होने लगता है. उसे कक्षा में मॉनीटर बना दिया जाता है तो सामाजिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे वर्ग के बच्चे उससे चिढ़ने लगते हैं. उसका सहपाठी कौशलेंद्र ख़ुद कुछ नहीं करता लेकिन कक्षा के दूसरे बच्चों को जंगू के विरुद्ध उकसाता रहता है. उसे यह क़तई बर्दाश्त नहीं कि उसकी जगह जंगू मॉनीटर बन जाए. वह अपने सहपाठियों से उसे स्कूल के रास्ते में अपमानित करवाने लगता है. कौशलेंद्र का बड़ा भाई सुरेंद्र जो आठवीं कक्षा में पढ़ रहा है, एक दिन जंगू को उसकी माँ और मुख्तार के कथित संबंध का अश्लीलता के साथ जिक्र करके उसे प्रताडि़त करता है. जंगू उससे भिड़ जाता है. जब एक राहगीर उन्हें अलग करता है और सुरेंद्र को इस बात के लिए डपटता है कि उसने इतने छोटे बच्चे को क्यों मारा तो सुरेंद्र इसका यह जवाब देता है:
“मेरे बाबा कहते हैं कि सालों को बचपन से ही मारते-गरितयाते रहना चाहिए. तभी इनके अंदर डर बैठेगा. बिना गुनाहन के चार गोदाहन. यानी चार डंडे तो बिना किसी गलती के ही मारने का नियम है, इनको कंट्रोल में रखने के लिए.”
इस प्रसंग में यह तथ्य अलक्षित नहीं जाना चाहिए कि कौशलेंद्र और उसके भाई का यह व्यवहार एक सीखा हुआ व्यवहार है. उन्हें इस अन्यायपूर्ण संरचना के संरक्षण का प्रशिक्षण दिया जा रहा है. एक तरह से कहा जाए तो इन दोनों बच्चों को क्षत्रधारी सिंह बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है. दूसरे शब्दों, सामाजिक सत्ता का अवचेतन अपनी हैसियत को लेकर इतना सजग है कि अपना वर्चस्व बरकरार रखने के लिए उसकी हर पिछली पीढ़ी नयी पीढ़ी को तैयार कर रही होती है. जंगू को पहले विकलांग बनाया जाता है. फिर वह हर कोशिश की जाती है कि जंगू पढ़ाई छोड़ दे. आखिर यह इतनी सजगता किस लिए है?
वर्चस्व की इस संरचना को जंगू की प्रतिभा में अपने लिए खतरा दिखाई देता है. यानी अपने हितों और अस्तित्व को लेकर वह इतनी चाक-चौबंद है कि वह बच्चों से बच्चों के जरिये निपटती है और वयस्कों से वयस्कों के स्तर पर.
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जंगू को इस बात का एहसास जेल में जाकर होता है कि उसके साथ जो अन्याय हुआ है वह दरअसल अन्याय की उसी दीर्घ परंपरा का निजी अनुभव है. ग़ौरतलब है कि उसे अन्याय की यह संरचना तब समझ में आती है जब वह खेत मजदूर संघर्ष समिति के कार्यकर्ता गोबरधन के संपर्क में आता है. वह गोबरधन से इस संरचना के बारे में आधारभूत सवाल करता है :
“हमारे शरीर में ऐसी कौन-सी चीज घुसी हुई है जिससे वे हमें छूने से परहेज करते हैं?” (पृष्ठ 196)
“सारे खेत-बाग भी उन्हीं लोगों के पास हैं, क्यों ? हमारे हिस्से के खेत-बाग कहाँ गए?” (वही)
“हमारा हिस्सा कब वापस मिलेगा?” (वही)
“अगर हम इतने नीच हैं, खराब हैं, तो भगवान ने हमें पैदा ही क्यों किया?” (वही)
गोबरधन इन सवालों के जो जवाब देता है, वह असल में एक नयी सत्ता-मीमाँसा है. यह मीमाँसा सत्ता की उपरोक्त संरचना के घटकों को अलग-अलग करके रख देती है. मसलन, इस संरचना को वर्ण-व्यवस्था से जोड़ते हुए गोबरधन बताता है कि निर्बल और बलवान की लड़ाई प्रकृति में हमेशा चलती आई है. दुनिया के बाक़ी हिस्सों में लोगों की हर पीढ़ी आमने-सामने लड़ती आई है. इसमें हर पीढ़ी के दोनों पक्षों को नुकसान उठाना पड़ता है. लेकिन, बकौल गोबरधन :
“हमारे यहाँ के लोग ज्यादा चतुर निकले. उन्होंने शरीर को नहीं, सीधे दिमाग को काबू में करने का इंतजाम किया. वर्ण-व्यवस्था दुनिया की सबसे ज्यादा अन्यायी, शातिर और स्थायी व्यवस्था है. दिमाग को ही बंधक बना लो. पैदा होने के दिन से. हाथ-पैर बांधने की जरूरत ही न रहे … वर्ण-व्यवस्था बनाई ही गई है इस बदनीयती से कि दूसरों का हक मारकर और दूसरों की मेहनत लूटकर मौज की जाए. पूरी दुनिया में बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों का हिस्सा हड़पते हैं, लेकिन हिंदुस्तान में अल्पसंख्यक सवर्ण बहुसंख्यक कमेरी जातियों का हिस्सा हड़पते हैं इसी वर्ण-व्यवस्था के हथियार से’’.(पृष्ठ 200)
जंगू और गोबरधन का यह संवाद ख़ासा लंबा है. इसमें वे सारे सवाल-जवाब हैं जिनसे वंचित और पीडि़त को लाजि़मी तौर पर टकराना पड़ता है. मसलन, संविधान द्वारा प्रदत्त समानता की व्यवस्था के बावजूद समाज में इतनी ऊंच-नीच क्यों है? न्यायपालिका की बहुस्तरीय व्यवस्था के बावजूद छोटी जातियों को न्याय क्यों नहीं मिल पाता? यहाँ सबूतों को नष्ट करने तथा अपराधियों को संदेह का लाभ देकर बरी कर देने, न्यायपालिका के ऊंचे स्तरों पर फैले भाई-भतीजावाद जैसी विसंगतियों का उल्लेख है.
जंगू के यह पूछने पर कि अगर व्यवस्था ऐसी विसंगतियों की शिकार है तो फिर बराबरी के कानून बनाने से क्या फायदा हुआ है. इस पर गोबरधन कहता है कि इससे फायदा तब होगा जब छोटी जातियों के लोग पुलिस और अदालतों में जगह बनाएंगे. गोबरधन इसके लिए शिक्षा और संघर्ष पर ज़ोर देता है. लेकिन, जंगू को यह प्रक्रिया बहुत लंबी लगती है. वह त्वरित न्याय का रास्ता ढूंढना चाहता है. लेकिन, इस पर गोबरधन आगाह करता है कि यह सोच कारगर नहीं हो सकती क्योंकि बदलाव के हिंसक एजेंडे को कुचलना सत्ता के नियामकों के लिए मुश्किल काम नहीं होता. इसलिए अंतत: रास्ता वही निकालना होगा जिसके आगे सरकार निरुत्तर हो जाए. गोबरधन इसे एक नारे के रूप में पेश करता है:
“पढ़ो लड़ाई करने को, लड़ो समाज बदलने को”.(पृष्ठ 200-203)
कहना न होगा कि जंगू और गोबरधन की यह बातचीत मूलत: इस आशा से प्रेरित है कि अगर छोटी जातियों को व्यवस्था में उचित प्रतिनिधित्व मिल जाए, अदालतों में डायवर्सिटी का सिद्धांत लागू हो जाए, व्यवस्था के कार्यकारी ढांचे में उनकी सहभागिता सुनिश्चित हो जाए तो अन्याय और दमन का यह चक्र थम जाएगा. इस संवाद से यह धारणा भी उभरती प्रतीत होती है कि औपनिवेशिक व्यवस्था छोटी जातियों और दलितों के लिए एक कल्याणकारी व्यवस्था थी. गोबरधन अंग्रेजों के हवाले से कहता है कि ऊंची अदालतों में बैठे ज़्यादातर लोगों के पास न्यायिक चरित्र ही नहीं है.
इस संवाद में औपनिवेशिक शासन के प्रति सराहना का भाव दिखाई देता है. यह लगभग आधे पृष्ठ का बयान है जिसमें गोबरधन अंग्रेजों की न्यायप्रियता, उनके द्वारा दलितों के उत्थान हेतु 1795 में संपत्ति रखने, 1813 में पढ़ने-लिखने और 1860 में समान दंड संहिता लागू करने जैसे क़दमों की सराहना करता है. वह राष्ट्रीय आंदोलन की इस दलील को भी ख़ारिज करता है कि अंग्रेजों को भगाना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि वे देश की दौलत लूट रहे थे. गोबरधन का तर्क है कि यह दौलत तो वही थी जिसे इस समाज के सवर्णों ने ग़ैर-सवर्णों से हज़ारों सालों की अवधि में लूटा था. वह यह भी कहता है कि दलितों को ‘जानवर से आदमी बनाने की शुरुआत’ का श्रेय अंग्रेजों को ही जाता है और ‘अफसोस यही है कि वे देर से आए और जल्दी चले गए. और सौ साल तक रह जाते तो हमारे जैसे लोगों का और भला कर जाते… अब तो डर लगने लगा है कि कहीं यह वर्णवादी मनुवादी विचारधारा हमारे संविधान को ही न निगल ले’. (पृष्ठ 208)
ऐस लगता है कि औपनिवेशिक शासन का यह महिमामंडन असल में भारत के आधुनिक इतिहास का एक अस्मितावादी पाठ है जो भारतीय राज्य के स्वतंत्रोत्तर स्वरूप और उसकी अभिजनमूलकता से निराश होकर औपनिवेशिक शासन में त्राण ढूंढने लगता है. लेकिन, औसत सच यह कि औपनिवेशिक शासन दुनिया के किसी भी भूभाग में जनकल्याण का वाहक नहीं रहा है. उसने उपनिवेशों के सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में जो भी क़दम उठाए उनका उद्देश्य शोषण के ढांचे की हिफाजत और निरंतरता सुनिश्चित करना था.
एक सीमा तक यह पाठ इस धारणा पर भी टिका है कि स्वतंत्रता के बाद भारत का पिछला राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ पूर्णतः बदल चुका है जबकि हम जानते हैं कि पिछले सात-आठ दशकों के दौरान विद्वानों ने अलग-अलग कोणों से विचार करके बताया है कि शैक्षिक, प्रशासनिक, क़ानूनी, सांस्कृतिक संस्थाओं के स्तर पर भारतीय राज्य का अधिकांश ढ़ांचा औपनिवेशिक चरित्र से ज़्यादा आगे नहीं बढ़ा है.
उदाहरण के लिए, समाजशास्त्रियों में एम.एन. श्रीनिवास ने बहुत पहले दर्ज किया था कि स्वतंत्रता आंदोलन भारतीय समाज की बुनियादी संरचना को नहीं बदल पाया. उनका कहना था कि अधिकांशतः ऊंची जातियों से निकले राष्ट्रीय नेतृत्व जाति-व्यवस्था को ख़त्म करने में कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई. इसी प्रकार आंद्र बेतेई भी यह बात 1965 में कह चुके थे कि भारत में भू-स्वामित्व का ढांचा आज़ादी के बाद भी पूर्ववत् रहा जिसके चलते सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया कभी प्रबल नहीं हो सकी. इस क्रम में, आशिष नंदी भी इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि अधिकारी-तंत्र, शिक्षा तथा शासन आदि के मामले में उत्तर-औपनिवेशिक भारत का सत्य औपनिवेशिक भारत से ज़्यादा भिन्न नहीं था, इसीलिए यहाँ किसी गहरे सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया शुरु नहीं हो सकी.
इसी बात को पार्थ चटर्जी ने कुछ और ब्योरों के साथ उठाया है. पार्थ राष्ट्रीय नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना करते हैं उसने सत्ता की औपनिवेशिक संरचनाओं को नव-स्वाधीन राष्ट्र पर लगभग ज्यों का त्यों लागू कर दिया. उनके मुताबिक राष्ट्रवादी अभिजन समूहों का ध्यान वंचित वर्गों की दिक़्क़तों को दूर करने पर नहीं राजनीतिक सत्ता हासिल करने पर ज़्यादा केंद्रित था.
इसलिए, जैसा कि गोबरधन मानता है, अंग्रेजों का शासन-काल छोटी या दलित जातियों के लिए कोई स्वर्णिम काल नहीं था. यह धारणा मुख्यत: इस तथ्य से मज़बूत हुई है कि आज़ादी के बाद भारतीय राज्य वंचितों की ऐतिहासिक-संरचनात्मक बाध्यताओं को दूर करने के बजाय हर क्षेत्र के ताकतवर समूहों के पक्ष में झुकता गया है.
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बहरहाल, अच्छी बात यह है कि यह उपन्यास गोबरधन की सरलीकृत धारणाओं, निष्कर्षों और सूत्रों का अतिक्रमण करते हुए दलित राजनीति के एक नए यथार्थ की शिनाख़्त करता है. इस यथार्थ के भुक्तभोगी का नाम तूफानी है. तूफानी बनकटा गाँव में प्रधान रह चुकी कद्दावर महिला दहबंगा का बेटा है जो घर और समाज की तमाम प्रतिकूलताओं के बीच वकालत की पढ़ाई पूरी कर लेता है.
तूफानी सजग है और प्रतिभाशाली भी. वह दलित राजनीति का समर्पित कार्यकर्ता है. उसकी सक्रियता देखकर पार्टी उसे जनजागरण और संगठन की जिम्मेदारी देती है. मान्यवर खुद भी उसके काम से प्रभावित होते हैं. एक समय वह भी आता है कि मान्यवर उसे पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाना चाहते हैं. तूफ़ानी भी अपनी वकालत के मुकाबले पार्टी के काम को ज्यादा तवज्जोह देता है. ग़ौरतलब है कि वह पार्टी का काम उस समय कर रहा है जब पार्टी ज़मीन से उठ भर रही है.
वह संगठन के लिए दीवारों पर नारे लिखता है. पार्टी के सदस्यों के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर गाँव में बौद्धिक प्रशिक्षण की बैठकें आयोजित करता है. एक बार तो जब वह गाँव में संगठन के सदस्यों को ब्राहम्ण धर्म के मुख्य देवताओं की पूजा न करने की शपथ दिला रहा होता है तो सभा पर गाँव के सवर्ण हमला कर देते हैं. लोगबाग अंधेरे में ही जहाँ-तहाँ भागकर जान बचाते हैं.
तूफ़ानी ख़ुद एक सूखे कुएं में गिर जाता है. उसका हाथ टूट जाता है. लेकिन पार्टी के लिए उसका जज्बा कम नहीं होता. वह गाँव में अंबेडकर की मूर्ति की स्थापना के लिए भी संघर्ष करता है. बाज़ार में जुलूस निकालता है. पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं को सम्मेलन के लिए राजधानी ले जाता है. उसकी पार्टी जब चुनावों में अपने प्रत्याशी उतारती है तो तूफानी अपने दलबल के साथ दिन रात काम करता है. और विरोधी दल के प्रत्याशी की कारगुजारी के चलते लगभग मरते-मरते बचता है.
वैसे, मान्यवर और बहन जी उसे व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं. उसका सम्मान करते हैं. उसे जिले का कॉर्डिनेटर बनाया जाता है. लेकिन, धीरे-धीरे पार्टी के बुनियादी उसूल बदलने लगते हैं. राजधानी में सामाजिक न्याय के प्रणेता पेरियर की मूर्ति लगनी है. कार्यकर्ताओं को इस बात का संदेश पहुँचाया जाता है. तूफानी भी अपनी तैयारी करता है. लेकिन बहन जी की सत्तारूढ़ पार्टी की सहयोगी- रामवादी पार्टी इसे हिंदू आस्था के लिए अपमान की बात मानती है. अंतत: कोई समझौता होता है और मूर्ति की स्थापना के कार्यक्रम को मीडिया द्वारा फैलाई गयी ग़लतफ़हमी बताकर रद्द कर दिया जाता है. तूफानी को पहला सबक मिलता है:
सत्ता के लालच और विचार की निष्ठा को एक साथ नहीं साधा जा सकता.
तूफानी को अगला आघात तब लगता है जब पार्टी के एक विधायक की मृत्यु के कारण खाली हुई सुरक्षित सीट पर उसके बजाय रिटायर्ड कमिश्नर की पत्नी, पेट्रोल पंप और गैस एजेंसी की मालिक कमला चौधरी को टिकट दे दिया जाता है. कमला चौधरी पार्टी के फंड में सुबह एक करोड़ रुपये जमा करती है और दस घंटे बाद उसका टिकट पक्का हो जाता है. तूफानी ने विधानसभा के इस क्षेत्र में जीवन के बीस वर्ष खपाए हैं. वह इस आघात से उबर भी नहीं पाता कि उसे ‘राजरानी’ के जन्मदिन पर दो लाख रूपये की राशि जमा करने का टारगेट दिया जाता है.
वह बर्थडे राशि का संग्रह करने वाले विधायक से कहता है कि दलित पार्टी का कैडर लखपति नहीं होता. हद यह है कि जन्मदिन पर दी जाने वाली इस राशि के साथ यह शपथ-पत्र भी देना पड़ता है कि भुगतानकर्ता यह राशि बिना किसी जोर-जबरदस्ती या दबाव के दे रहा है. (पृष्ठ 505-507)
विधानसभा के अगले चुनाव तक पार्टी का पूरा कायाँतरण हो जाता है. पार्टी द्वारा जारी की गई सूची में एक तिहाई नाम ब्राह्मणों के होते हैं. प्रत्याशी की योग्यता यह तय की जाती है कि वह बाहुबली हो और पार्टी के कोष में मोटी रकम जमा कर सकता हो. स्थिति यह बन चुकी है कि आरक्षित सीट के लिए भी रकम का जुगाड़ करना अनिवार्य हो गया है. ज़ाहिर है कि पार्टी के नये विन्यास में केवल पिछले नारे ही नहीं बदले, तूफानी जैसे ज़मीनी कार्यकर्ताओं को भी ठिकाने लगा दिया गया.
पार्टी का नया थिंक टैंक ‘दूसरे की शक्ति और बुद्धि को अपने हित में प्रयोग’ करने को क्रांतिकारी कदम बता रहा है. (पृष्ठ 552) इस क्रांतिकारी कदम की एक बानगी यह है कि शिक्षा माफिया चंद्रकांत ओझा जो 1991 में यह कह रहा था कि ‘हिंदुस्तान को चमारिस्तान’ नहीं बनने देंगे, पाँच साल पहले रामवादी पार्टी से चुनकर शिक्षा मंत्री बना और वहाँ से निकाले जाने के बाद बहन राजरानी की पार्टी में शामिल कर लिया गया है. तूफानी को इसी आदमी का प्रचार करने की जिम्मेदारी दी गयी है.
आखिर में, तूफानी को न केवल पार्टी से निष्कासित कर दिया जाता है बल्कि अख़बारों में यह खबर और तस्वीर छपवाई जाती हैं कि उसने विधायक कमला चौधरी के खाली फ्लैट पर क़ब्ज़ा कर रखा था. खबर में तूफानी पर ड्रग से पैसा कमाने और उसके खिलाफ़ जाँच बैठाने का भी जिक्र किया जाता है.
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उपन्यास में किसानी और उसके संकट की कथा एक समानांतर आख्यान है. एक मायने में किसानी की यह कथा उपन्यास में इस क़दर निविष्ट है कि जब तक भगवत पांडे आत्महत्या नहीं कर लेते तब तक पाठक का इस बात पर अलग से ध्यान ही नहीं जाता कि छोटी जोत के किसान के लिए खेती जीविका के बजाय मौत का जाल बनती जा रही है.
उपन्यास के गाँव बनकटा में खेती से जुड़े दो वर्ग हैं. एक, वह जिनके पास छोटी या मझौली जोत की ज़मीन है और दूसरा वह खेतिहर मज़दूर वर्ग जो जीवनयापन के लिए इन्हीं किसानों पर निर्भर करता है. दलित जातियाँ इसी वर्ग में आती हैं. देश के बाकी क्षेत्रों से यहाँ की खेतिहर व्यवस्था इस अर्थ में अलग है कि यहाँ सवर्ण जातियाँ खुद खेती नहीं करती. एक सीमा तक इसका संरचनात्मक परिणाम यह होता है कि खेती के संकट का उन पर सीधा असर नहीं पड़ता क्योंकि खेती उनके जीवनयापन का मुख्य स्रोत नहीं होती. अस्तित्व का संकट उन्हीं समूहों के सामने पैदा होता है जिनके पास खेती के अलावा अन्य वैकल्पिक साधन नहीं होता.
शिवमूर्ति इस संरचना के स्थानीय और वृहत्तर सूत्रों को सजीव ब्योरों के साथ खोलते हुए दिखाते हैं कि खेती से जुड़े पात्रों का जीवन, उनकी नियति और अंतत: उनकी दुर्गति गाँव की स्थानीय और उसके चतुर्दिक फैली वृहत्तर सत्ता-संरचना से अलग नहीं है. इस प्रक्रिया में, वे किसान की जाति और क्षेत्रबद्ध निष्ठाओं के उस संजाल पर उंगली रखते हैं जिसके चलते उसके भीतर वह चेतना ही विकसित नहीं हो पाती कि वह राज्य के सामने एक सजग और संगठित समूह के रूप में खड़ा हो पाए. इस संदर्भ में उपन्यास की एक घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है-
उपन्यास में पहलवान नामक एक अहम पात्र सरकारी क्रय केंद्र पर धान बेचने जाता है. सरकारी केंद्र पर पहुँचने से पहले उसे रास्ते में उसके बचपन का मित्र और कस्बे का आढ़ती सेठ नथमल कांटा लगाए मिलता है. नथमल पहलवान से कहता है कि सरकारी केंद्र पर धक्के खाने से बेहतर है कि वह अपना माल यहीं बेच दे. वह पहलवान का धान चार सौ अस्सी रुपये कुंटल खरीदने को तैयार है. आखिर में वह पाँच रुपये और बढ़ाने की बात करता है. लेकिन पहलवान नहीं मानता. वह सरकारी सेंटर की ओर बढ़ जाता है. सेंटर की हालत यह थी कि वहाँ कई ट्रालियाँ लाइन में खड़ी थी. बोरे ख़त्म हो जाने के कारण खरीद रुक गयी थी. इससे किसानों और खरीद केंद्र के कर्मचारियों के बीच कहा-सुनी चल रही थी. एक किसान पूछ रहा था कि जब महीनों खरीद चलनी है तो बोरे चौथे-पाँचवें दिन क्यों खतम हो जाते है? इसका जवाब दूसरा किसान यह देता है कि यह किसानों को टरकाने का बहाना है ताकि वे अपना माल आढ़तियों को सस्ते दाम पर बेच दें और वही आढ़ती बाद में उसी माल को सरकारी खरीद में बेच दें. सेंटर का इंचार्ज यह सब दूर बैठे सुनता रहता है. वह किसानों को डपटता है, लेकिन किसान भी अड़े रहते हैं. उनकी शिकायत है कि सेंटर पल्लेदारी किसानों से क्यों वसूलता है या हर कुंटल पर दस रुपये की ‘दस्तूरी’ क्यों काटी जाती है?
इसी दौरान एक बड़ी ट्रॉली आती है जिस पर साठ-सत्तर बोरा धान लदा है. ट्रॉली ड्राइवर सीधा इंचार्ज के पास पहुँचता है और उसके पैर छूकर वहीं एक कुर्सी पर बैठ जाता है. किसान इस घटना को दूर से देख रहे हैं. वे समझ गए हैं कि यह माल किसी आढ़तिया का है. यह दृश्य आधे घंटे तक चलता है. इसके बाद सेंटर का कामदार पल्लेदारों को तौलाई-भराई के काम में लगा देता है. यह देखकर किसान तैश में आ जाते हैं. एक किसान मुठ्ठी भर धान उठाकर कहता है कि इतना पंचमेल धान किसान का तो कतई नहीं हो सकता. इंचार्ज सफ़ाई देता है कि इस पर पाँच किसानों का माल लदा है और पाँचों की खतौनी भी लगी है.
इस प्रकरण के बाद पहलवान की इंचार्ज से भिडंत होती है. वह कहता है :
“एक तो सरकार समर्थन मूल्य इतना कम तय करती है कि किसान की लागत नहीं निकलती. फिर आप मनमानी कटौती करके लूटते हैं. सेंटर जब अपनी जेब भरने के लिए दस रुपये कुंटल हमसे लेता है तो फिर पाँच-छह किलों की कटौती क्यों करता है?” (पृष्ठ 415)
पहलवान इंचार्ज की हर बात का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे रहा है. इंचार्ज उसके माल को घटिया साबित करने पर तुला है. आखिर में इंचार्च पहलवान से प्रति कुंटल नौ किलो कटौती का प्रस्ताव देकर चला जाता है. पहलवान इधर उधर देखता है. वहाँ उसके गाँव के दो दलित पल्लेदार भी खड़े हैं. पहलवान को लगता है कि उसको डांट खाते देखकर वे मंद-मंद मुसकुरा रहे हैं. वह फिर आसपास देखता है. उसके मन में खयाल आता है कि अगर उसके गाँव का एक भी किसान यहाँ होता तो वह इंचार्ज को यहीं पटक देता. लेकिन, वह जानता है कि दूसरे गाँव के लोग बात बढ़ने पर साथ नहीं देंगे.
अगर इस पूरे दृश्य को अलग-अलग फ्रेम में रखकर देखा जाए तो किसान, राज्य और बाज़ार का संक्षिप्त परंतु सघन दस्तावेज़ तैयार किया जा सकता है. मसलन, ऐसा नहीं है कि सरकारी सेंटर के इंचार्ज को सेठ नथमल की जानकारी नहीं है. यह भी नहीं है कि बोरों का वाक़ई टोटा हो गया है. दरअसल, यह एक बहुस्तरीय व्यवस्था है जिसमें किसान के उत्पाद में अलग-अलग स्तर पर कटौती की जाती है. जब कोई किसान पहलवान के रूप में किसी इंचार्ज से सवाल-जवाब करने की ठानता है तो पाता है कि उसके आसपास खड़े लोग उसकी तरफ़ मुसकुरा रहे हैं. (पृष्ठ 411-415)
सही मायने में यह उन लोगों का दोष भी नहीं है क्योंकि वे भू-स्वामी नहीं है. वे तो बाज़ार में अपना श्रम बेच रहे हैं. ग़ौर करें कि पहलवान एक सीमा के बाद इसलिए भी प्रतिवाद नहीं कर पाता क्योंकि वहाँ उसके गाँव का एक भी आदमी नहीं है और दूसरे गाँव के किसानों को उसके विवाद से कोई मतलब नहीं है.
बाद में ऐसा ही एक प्रकरण और घटित होता है जब नहर विभाग द्वारा गाँव पर नहर की पटरी काटने के आरोप में मुकद्दमा दायर कर दिया जाता है. लेकिन, जब इसके खिलाफ़ धरने-प्रदर्शन का आयोजन किया जाता है तो उसे इसलिए रद्द कर दिया जाता है कि उसमें केवल चार ट्रैक्टर और तीस-बत्तीस आदमी पहुँचते हैं. खेलावन को लगता है कि ठाकुर और ब्राह्मण इसलिए नहीं आए कि इस धरने का नेतृत्व पिछड़ी जाति का व्यक्ति कर रहा था. लेकिन, यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि इन तीस-बत्तीस लोगों में भी उक्त दोनों जातियों के लोग शामिल थे. दूसरे शब्दों में, इन परिस्थितियों में कोई भी जायज़ प्रतिरोध इसलिए सफल नहीं हो पाता क्योंकि घटना-स्थल पर खड़े लोगों के बीच पहले से ही एक फांक मौजूद है.
जिन किसानों के बीच सहज सहकार होना चाहिए था वे इसलिए एक दूसरे का साथ नहीं देते क्योंकि अगर उनकी कोई निष्ठा है तो मुख्यतः अपनी जाति और शेष मामलों में अपने क्षेत्र के साथ होती है. इसलिए, यह अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि किसानों के प्रतिरोध की बहुत-सी संभावनाएं इन्हीं अंतर्विरोधों से टकराते-टकराते ख़त्म हो जाती हैं.
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जैसा कि हमने पीछे इंगित किया था, शिवमूर्ति का उपन्यासकार केवल स्थानीय सत्ता के निरूपण पर नहीं रुक जाता. वह उसके लगातार बदलते, जटिल और अबूझ होते वृहत्तर चरित्र की अक्कासी भी उसी मर्मभेदी सजगता से करता है.
उपन्यास में कई प्रसंगों से पता चलता है कि खेती से बैल की विदार्इ हो रही है. उसकी जगह ट्रैक्टर लेता जा रहा है. लेकिन, विचित्र है कि तकनीकी तौर पर एक उन्नत उपकरण खरीदने के बावजूद किसान के जीवन में कोई नयी खुशी जन्म नहीं लेती. इसके बजाय होता यह है कि वह व्यवस्था के नए वित्तीय टोटकों में फंसता चला जाता है.
नव-उदारतावादी अर्थव्यवस्था बैंकों को एक लक्ष्य थमा देती है कि उन्हें किसानों को ट्रैक्टर के लिए लोन देने का एक निश्चित आंकड़ा पूरा करना है. भगवत पांड जैसे छोटी जोत के किसान बखूबी जानते हैं कि उनके लिए ट्रैक्टर किसी भी तरह उपयोगी नहीं है लेकिन उन्हें संपन्नता के सपने दिखाए जाते हैं. बैंक के कर्मचारी और एजेंट किसानों के घर जाकर बताने लगते हैं कि अगर ट्रैक्टर खरीद लोगे तो ढुलाई और दूसरे किसानों के यहाँ जुताई करके ज़्यादा पैसा कमाने लगोगे. लेकिन, बैंक के कामकाज तरीक़ा यह है कि अगर किसान लोन की किस्तें समय पर नहीं चुका पाता तो इसकी सूचना तहसील में दे दी जाती है. फिर तहसील का अमला किसान की ज़मीन पर कुर्की की कार्रवाई शुरू करता है.
इस कार्रवाई को स्थगित करवाने या समय-सीमा बढ़वाने के फेर में पटवारी से लेकर तहसीलदार के यहाँ भेंट देने के साथ सिर भी झुकाना पड़ता है परंतु किसान को इसके बावजूद राहत नहीं मिलती.
भगवत पांडे के साथ यही होता है. वित्त की इस लीला में बैंक को कोई आर्थिक नुकसान नहीं होता क्योंकि लोन की राशि वापस हासिल करने के लिए उसके साथ स्थानीय अधिकारी-तंत्र पहले से खड़ा रहता है.
भगवत पांडे का बेटा दिवाकर वित्त लीला के इसी विज्ञापन-प्रचार तंत्र का शिकार बनता है. वित्त का यह लीला तंत्र विनिमय और पारदर्शिता के दावे तो बहुत करता है लेकिन उसी के इर्दगिर्द एक गोरखधंधा चलता रहता है जिसमें एजेंट कहे जाने वाले खुर्राट लोग ऐसे दाव-पेंचों से अनभिज्ञ किसानों का शिकार करते रहते हैं.
रामलाल के साथ ऐसा ही होता है. खतौनी उसके खेत की लगाई जाती है जबकि ट्रैक्टर कोई दूसरा राम लाल ले जाता है. अब लोन की किस्त चुकाने की जिम्मेदारी उस रामलाल की है जिसकी खतौनी पर लोन दिया गया है. वित्त का यह जंजाल ख़ास तौर पर नव-उदारतावादी अर्थव्यवस्था के साथ पला-पनपा है जो ऋण देते वक्त तो लाभार्थी से ज़्यादा पूछताछ नहीं करता लेकिन अगर एक बार प्रक्रिया पूरी हो जाए तो व्यक्ति उससे बाहर नहीं निकल सकता.
ज़ाहिर है यह काम राज्य की विभिन्न एजेंसियों की प्रच्छन्न भूमिका के बिना संभव नहीं होता. हम जानते हैं कि पिछले वर्षों में राज्य ने व्यक्ति की पहचान से संबंधित विभिन्न प्रकार के दस्तावेज़ों का इतना मुकम्मल इंतज़ाम कर लिया है कि उसकी एजेंसियाँ संबंधित व्यक्ति तक कभी भी पहुँच सकती हैं.
किसानों और सत्ता की वृहत्तर संरचना के संधान में शिवमूर्ति ने चीनी मिलों की कार्यप्रणाली का बड़ा चुस्त चित्रण किया है. उपन्यास के पाठ से पता चलता है कि चीनी मिलों और किसानों के टकराव का मूल कारण यह है कि मिलें किसानों का गन्ना तो तत्परता से उठा लेती हैं लेकिन भुगतान करने में आनाकानी करती हैं. किसानों का अनुभव यह है कि मिल उनसे गन्ना लेकर और चीनी बनाकर कभी का लाभ कमा लेती है. लेकिन किसानों को उनका मूल्य देने का समय आते ही मिल का प्रबंधन हाई कोर्ट में यह याचिका लेकर पहुँच जाता है कि सरकार ने किसानों के वोट हासिल करने के लालच में गन्ने का रेट ज्यादा कर दिया है. एक समय मिल मालिकों ने सरकार द्वारा मूल्य निर्धारित करने के अधिकार को ही चुनौती दे डाली थी और इस पर हाई कोर्ट का यह निर्णय आया था कि राज्य सरकार को गन्ने का मूल्य तय करने का अधिकार नहीं है. उसका आदेश था कि किसानों को राज्य सरकार के बजाय केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य दिया जाए. (पृष्ठ 561) यानी अमूमन यह होता है कि अदालत सरकार के फैसले का सीधे रद्द कर देती है या उस पर पुनर्विचार करने के लिए कमेटी गठित करने का आदेश थमा देती है.
कभी हाई कोर्ट की एक पीठ जो आदेश पारित करती है, उसे दूसरी पीठ रद्द कर देती है. ऐसे मामलों में जब तब सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल जाती है. लेकिन, कुल मिलाकर देखें तो किसानों के लिए यह तनाव का प्रश्न बना रहता है.
किसानों के साथ मिल प्रबंधन कैसा मनमाना बर्ताव करता है, इसका सुबूत इस बात से चलता है कि सीजन शुरु होने पर सबसे पहले वह मिल से दूर पड़ने वाले गाँवों का गन्ना उठाता है. शुरुआती महीनों में पर्ची पाने के लिए जोड़-तोड़ करनी पड़ती है. और कई दफ़ा यह होता है कि किसानों का सैंकड़ों बीघा गन्ना खेत में खड़ा रहता है, उन्हें पर्ची भी बाँट दी जाती है लेकिन मिल का प्रबंधन यह दलील देकर पेराई सत्र की समाप्ति की घोषणा कर देता है कि गर्मी में ग्लूकोज की जगह सुक्रोज बनने लगा जिससे चीनी का उत्पादन कम हो गया है.
मिल ऐसे फैसलों की जानकारी सही समय पर नहीं देती जिसका नतीजा यह होता है कि किसान अपने गन्ने का किसी अन्य उत्पाद के लिए भी इस्तेमाल नहीं कर पाते. गन्ना पैदा करने वाले किसानों की इस दुर्गति पर पहलवानिन रोष में कहती है :
‘’आगे से गन्ना बोना बन्द. लू और धूप में गोड़ाई, सिंचाई करिए. कटाई, छँटाई, लदाई, ढोवाई के लिए मजदूरों की मिन्नत करिए. खरीद सेंटर पर किराए की ट्राली लिये भूखे-प्यासे दो-दो दिन तक काँटा कराने का इन्तजार करिए. घटतौली सहिए. भुगतान के लिए धरना-प्रदर्शन करिए. लाठी खाइए. यह सब सहने के लिए तैयार रहिए, तब भी खेत में जलाना पड़ रहा है. नहीं पालना ऐसा जी का जंजाल! धान, गेहूँ बोकर ही राजी रहेंगे.” (पृष्ठ 533)
बहरहाल, किसान जब भुगतान की माँग के लिए मिल पर प्रदर्शन के लिए पहुँचते हैं तो मिल का एक अधिकारी मंच पर आकर भरोसा देता है कि मिल-प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सौ फीसदी पालन करेगा. लेकिन, इसके लिए ज़रूरी है कि पहले सरकार द्वारा निर्धारित राहत पैकेज की रकम हमारे खाते में पहुँच जाए. प्रदर्शन-स्थल पर जुटे किसान भुगतान से कम चीज़ पर राज़ी नहीं है. तभी मंच पर मिल के अंदर से ढेले पड़ते हैं. भगदड़ मच जाती है. और पुलिस जिसको भी देखती है, उसी पर डंडे बरसाने लगती है. कई किसानों के सिर फट जाते हैं. लेकिन, अगले दिन अख़बारों में खबर छपती है- हिंसक भीड़ को काबू में करने के लिए न्यूनतम बल प्रयोग करना पड़ा ! (पृष्ठ 517)
दमन के इस उदाहरण से यह बात एक बार फिर साबित होती है कि सत्ता-संरचना चाहे स्थानीय हो या राष्ट्रीय, उसमें सभी नागरिकों की हैसियत एकसमान नहीं होती. इसलिए अगम बहै दरियाव की कथा में ‘अगड़े, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक- सब मौजूद तो हो सकते हैं. लेकिन, यह कथा जिस सत्ता-संरचना में सांस लेती है उसमें सब बराबर के हिस्सेदार नहीं हो सकते.
इसमें क्षत्रधारी सिंह के हलवाहे महादेव का बेटा समस्त योग्यता के बावजूद क्षत्रधारी के बेटे अपरबल के बराबर नहीं हो सकता. अपने पिता को खो चुका और क़दम-क़दम पर बेइज़्ज़त होती माँ का बेटा जंगू पूरी मेहनत और प्रतिभा के बाद कौशलेंद्र के बराबर नहीं हो सकता. बेटे की इच्छा से लाचार होकर किस्तों पर ट्रैक्टर खरीद कर अपनी ज़मीन गंवा देने वाले और अंत में महुए के जिस पेड़ पर कभी बचपन में झूला करते थे उसी पेड़ से झूलकर फांसी लगा लेने भगवत पांडे संपन्नता के सपने दिखाने वाले वित्तीय प्रबंधकों के बराबर नहीं हो सकते.
यह उपन्यास यहाँ से प्राप्त करें.
नरेश गोस्वामी सम्प्रति: |
बहुत ही गहन पाठ और सामाजिक सजगता से ऐसी आलोचना उपजती है। नरेश जी की यह समीक्षा इस साल की ऑफ़लाइन और ऑनलाइन पत्रिकाओं में छपी विभिन्न समीक्षाओं में सबसे बेहतरीन समीक्षा है।
नरेश जी खुद सिद्धहस्त कथाकार हैं। वे कितने मनोयोग से पढ़ते हैं, यह भी उनसे सीखा जा सकता है।
उपन्यास के बारे में कहा जाता है कि वह साहित्यिक संरचना के साथ ही सामाजिक संरचना होता है.
इसलिए उपन्यास पर नरेश जी जैसे समाजवैज्ञानिक के लिखे का अतिरिक्त महत्त्व है.
बावजूद इसके उपन्यास और उस पर की गई आलोचना से यह सुनिश्चित करना कठिन है कि यह आज के उत्तर भारत के गाँव की कथा है या दो या तीन दशक पूर्व के गाँव की कथा. वजह यह कि आज बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड की और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की राजनीतिक सरगर्मियों के कारण सवर्णों की पुरानी दबंगई में कुछ कमी ज़रूर आयी है. कुछ क्षेत्रों में तो मध्यवर्ती कही जाने वाली जातियों के ऊपर के तबके की दबंगई की भी खबर है.
इस संदर्भ में समाजवैज्ञानिकों को किस तरह के आंकड़े मिले हैं, उसका पता इस निबंध से भी नहीं चलता. अयोध्या समेत कुछ अन्य धर्मस्थानों से जुड़े चुनावी क्षेत्र में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की विजय से उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में परिवर्तन के कुछ नए संकेत मिलते हैं या नहीं और इस बदलती हुई सामाजिक संरचना को यह उपन्यास किस हद तक व्यक्त करता है, इस बारे में समझविज्ञानं से सीधे जुड़े मित्र ज़्यादा बता सकते हैं.
शिवमूर्ति जी की कथा यात्रा का यह उपन्यास निकष भी है, समवेत भी। इस पर यह एक अच्छा आलेख संभव हुआ है।
नरेश गोस्वामी को पढ़ गया। ‘अगम बहे दरियाव’ का उन्होंने समग्र मूल्यांकन और पड़ताल करने की कोशिश की है। उपन्यास में जिस कोण से सत्ता संरचना का चित्रण किया गया है, नरेश जी को उसे पकड़ने में कामयाबी हासिल हुई है। वे बिलकुल सही लिखते हैं कि शिवमूर्ति जैसे कथाकार या अगम बहे दरियाव का मूल्यांकन किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर संभव नहीं है। नरेश जी के मूल्यांकन को पढ़ते हुए अहसास होता है कि यह उपन्यास उत्तर भारतीय समाज की एक महागाथा है जो पिछले पचास वर्षों की घटनाओं का लेखा जोखा प्रस्तुत करता है। अगम बहे दरियाव का समाजशास्त्रीय मूल्यांकन उसे और महत्वपूर्ण साबित करता है।
रघुवीर सहाय के घर में कई बिल्लियों के बच्चे थे। उन्हीं के साथ-साथ उनके बच्चे भी बड़े हो रहे थे। रघुवीर सहाय जी इस संबंध में एक बाल उपन्यास लिखना चाह रहे थे। संभावना से उनका अनुबंध भी हो गया था, लेकिन दुर्भाग्य से वह लिखा नहीं जा सका।
नरेश गोस्वामी का लिखा बहुत सुचिंतित और सूक्ष्मता से लिखा होता है। वह अपने लिखे में परकाया प्रवेश की कला में सिद्धहस्त हैं।