वैज्ञानिक गांधी
पराग मांदले
भारत में जो लोग गांधी को गहराई से नहीं समझ पाते हैं, वे अक्सर उनका उल्लेख और विश्लेषण आमतौर पर एक अव्यावहारिक, अतिशय आदर्शवादी और स्वप्नदर्शी महात्मा के रूप में करते हैं.
एक ऐसा व्यक्ति जिसने संन्यासी या वैरागी लोगों के लिए सदियों से लागू किये जाने वाले भारतीय अध्यात्म के सिद्धांतों को पूरे समाज पर लागू करने की कोशिश की.
एक ऐसा व्यक्ति जो वैज्ञानिक प्रगति और आधुनिक विकास की अवधारणाओं का विरोधी था.
इससे बिलकुल उलट आधुनिक जगत की अनेक समस्याओं के समाधान के लिए दुनिया भर के लोग आशा भरी निगाहों से गांधी की ओर देख रहे हैं और यह सोचकर आश्चर्य कर रहे हैं कि आज से एक सदी से पहले गांधी ने इन समस्याओं का न केवल अनुमान लगा लिया था, बल्कि उनके समाधान के तरीके भी सुझाए थे.
वास्तव में गांधी के आधुनिकता और विज्ञान का विरोधी होने का आरोप हमें तभी सही प्रतीत होता है, जब हम गांधी को उन चश्मों के पीछे से देखने की कोशिश करते हैं जो अक्सर हमें उपलब्ध कराए जाते हैं. लेकिन जिस दिन हमारी आँखों पर से ये चश्मे उतर जाते हैं, उस दिन जिस गांधी के हमें दर्शन होते हैं, वह गांधी इन धारणाओं से पूरी तरह से विपरीत दिखाई देता है.
दरअसल गांधी को आधुनिक सभ्यता और वैज्ञानिक प्रगति का विरोधी माने जाने की मुख्य वजह वर्ष १९०९ में अर्थात् दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए १९१५ में भारत लौट आने के भी छह वर्ष पहले प्रकाशित उनकी एक छोटी-सी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य’ में व्यक्त विचार हैं. ऐसे विचार कि ३० वर्ष बाद भी जिनका एक शब्द भी वह बदलना नहीं चाहते थे.
इस पुस्तक के वर्ष १९१४ में प्रकाशित दूसरे गुजराती संस्करण की भूमिका में गांधी लिखते हैं:
‘मैं तो यूरोप की आधुनिक सभ्यता का शत्रु हूँ और हिंद स्वराज्य में मैंने अपने इसी विचार को निरूपित किया है. और यह बताया है कि भारत की दुर्दशा के लिए अंग्रेज नहीं बल्कि हम लोग ही दोषी हैं, जिन्होंने आधुनिक सभ्यता स्वीकार कर ली है.’
आगे वह लिखते हैं कि
‘हिंद स्वराज्य को समझने की कुंजी इस बात में है कि हमें दुनियावी प्रवृत्ति से निवृत्त होकर धार्मिक जीवन ग्रहण करना चाहिए.’
यहाँ हमें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि जब गांधी धार्मिक जीवन की बात करते हैं तो वे किसी खास धर्म, पंथ या संप्रदाय के कर्मकांडों की बात नहीं करते बल्कि तमाम धर्मों, पंथों और संप्रदायों के उन मूलभूत तत्वों और मूल्यों की बात करते हैं, जो समान हैं और सबके लिए हितकारी हैं.
जाहिर है, तब भी और अब भी इस तरह की बातें कहने वाले को प्रतिगामी विचारों वाला या विज्ञान विरोधी कहना बहुत आसान है. लेकिन इससे यही साबित होता है कि विज्ञान को लेकर हमारी समझ बहुत छिछली है और हम आधुनिक यंत्रों-उपकरणों और उनकी प्रौद्योगिकी को ही विज्ञान का पर्यायवाची समझते हैं.
गूगल पर जब आप विज्ञान की परिभाषा को खोजते हैं तो उसमें कई तरह की अलग-अलग परिभाषाएँ सामने आती हैं. उनमें से कुछ इस प्रकार हैं–
१. विज्ञान अध्ययन का वह क्षेत्र है जो हमारे आस-पास की दुनिया को देखने और प्रयोग करने के माध्यम से खोजने और उसका वर्णन करने से संबंधित है. (www.vocabulary.com)
२. अध्ययन या ज्ञान की एक शाखा जिसमें सामान्य नियमों या सत्यों का अवलोकन, जाँच और खोज शामिल होती है जिन्हें व्यवस्थित रूप से परखा जा सकता है. (www.vocabulary.com)
३. किसी भी वस्तु के बारे में जानकारी ग्रहण करना और जानकारी को सही तरीकों से लागू करना एवं किसी भी वस्तु का सही अवलोकन करना एवं उसका विश्लेषण करना ही विज्ञान है. वि का अर्थ है विकास करना और विज्ञान का अर्थ हुआ विकास करने वाला ज्ञान. (विकिपीडिया)
४. विज्ञान, साक्ष्य पर आधारित व्यवस्थित पद्धति का अनुसरण करते हुए प्राकृतिक और सामाजिक विश्व के ज्ञान और समझ की खोज और अनुप्रयोग है. (sciencecouncil.org)
गांधी विचारों और सिद्धांतों की वैज्ञानिकता को जाँचने और समझने के लिए विज्ञान की सही परिभाषा या अर्थ समझना बहुत महत्वपूर्ण है. विज्ञान को समझे बिना हम यह नहीं जान सकते कि दरअसल विज्ञान की कसौटी पर न केवल गांधी विचारों को पूर्णतः वैज्ञानिक सिद्ध किया जा सकता है बल्कि यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि आधुनिक समय की अधिकांश प्रगति दरअसल विज्ञान विरोधी है.
इसे समझने के लिए सबसे पहले मूल बात की ओर ध्यान देना चाहिए. विज्ञान के तमाम सिद्धांत और विज्ञान की तमाम खोजों का मूल आधार प्रकृति और प्रकृति में घटने वाली घटनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण और विश्लेषण है. वह चाहे न्यूटन का ग्रेविटी का सिद्धांत हो या आइंस्टाइन का सापेक्षता का सिद्धांत या फिर हमारे अपने जगदीश बसु का पौधों की संवेदनशीलता का सिद्धांत. इन सबका मूल स्रोत दरअसल प्रकृति ही है.
प्रकृति में घटने वाली तमाम घटनाएँ दरअसल विज्ञान के किसी न किसी सिद्धांत के आधार पर ही घटती हैं. उन्हीं का निरीक्षण करके विज्ञान के तमाम सिद्धांतों की खोज की गई है.
अब आप एक बार इस बात पर विचार कीजिए कि प्रकृति का निरीक्षण हमें जीवन के अस्तित्व के किस सबसे बड़े सिद्धांत के बारे में बताता है? वह सिद्धांत है- हमारी प्रकृति में मौजूद जीवन के सारे प्रकार एक कड़ी से जुड़े हुए हैं और किसी न किसी प्रकार से एक-दूसरे पर निर्भर हैं.
प्रकृति में उसके हर एक घटक का पृथ्वी के इस सृष्टिचक्र को निरंतर गतिमान रखने में अपना महत्व है, बिना किसी छोटे-बड़े के भेद या वर्गीकरण के. इसमें से किसी एक घटक का नष्ट या असंतुलित होना, इस पूरे सृष्टिचक्र को प्रभावित और असंतुलित करता है.
परस्पर निर्भरता का यही सूत्र किसी भी मानव समाज के मामले में भी उतना ही सत्य है. कोई भी मानव समाज उसके सभी घटकों की परस्पर निर्भरता और संतुलन से ही संभव और सशक्त होता है. किसी देश, राज्य, शहर या गाँव के विभिन्न जाति, समुदाय और वर्गों के मामले में भी पारस्परिक निर्भरता का यह नियम लागू होता है. इसमें किसी भी प्रकार का असंतुलन समाज के संतुलन को प्रभावित करता है, उसे कमजोर बनाता है.
अब यदि आप इस शाश्वत सिद्धांत के आलोक में गांधी विचार या सिद्धांतों पर दृष्टि डालें तो पाएँगे कि गांधी विचार के केंद्र में भी ठीक यही सिद्धांत सक्रिय है. गांधी के सारे विचार, सारे सिद्धांत, सारी अवधारणाएँ और सारी शिक्षाएँ इस परस्पर निर्भरता के सिद्धांत पर ही टिके हुए हैं.
सर्वसमावेशिता गांधी विचार का सबसे मूलभूत और सबसे महत्वपूर्ण गुण है. गांधी नकार के नहीं, स्वीकार के उद्घोषक है. जब आप अपने जीवन और अपने अस्तित्व में प्रकृति के शेष अन्य सभी व्यक्तियों, जीवों और तत्त्वों की आवश्यकता को मान्य करते हैं तो सहज है कि आप न तो उनके प्रति किसी प्रकार का द्वेष रख सकते हैं और न कभी उनमें से किसी के भी विनाश की कल्पना या प्रयास कर सकते हैं.
परस्पर निर्भरता और सर्वसमावेशिता का यह मूलभूत सिद्धांत गांधी जीवन के हर क्षेत्र में लागू करते हैं. यही वजह है कि अंग्रेजों का विरोध करते हुए भी कभी वे उनके नष्ट होने की कामना नहीं करते. वह बार-बार जनता को यह समझाते हैं कि राजा का अस्तित्व प्रजा के अस्तित्व पर निर्भर है. इसी तरह वह मिल मजदूरों की हड़ताल के समय बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि मजदूरों के बिना कोई मिल मालिक नहीं बन सकता, इसलिए उसे मजदूरों के हितों का पूरा ध्यान रखना चाहिए. यदि सारे व्यक्ति मजदूर बनने से इंकार कर दें तो किसी भी मिल या उद्योग के मालिक का अस्तित्व टिके रहना असंभव है. मिल मालिक और मजदूर दोनों का सम्बन्ध दोनों वर्गों के लिए उपयोगी साबित होना चाहिए.
गांधी का अपनी जरूरतों को सीमित रखने का विचार भी प्रकृति के इसी सिद्धांत पर आधारित है कि सृष्टि में जीवन के संतुलन के लिए आदान-प्रदान की प्रक्रिया सतत गतिशील रहती है. मनुष्य को छोड़कर सृष्टि के बाकी सभी घटक इस व्यवस्था में अपना निश्चित योगदान देते रहते हैं. लोभ और लालच प्रकृति के शाश्वत सिद्धांतों के विपरीत है. यह सृष्टि के निर्बाध संचालन में गतिरोध पैदा करते हैं. हमें प्रकृति से सिर्फ उतनी ही चीजों को लेना चाहिए, जो हमारे अस्तित्व के लिए अनिवार्य है और जिसे किसी न किसी रूप में हम प्रकृति को वापस लौटा सकें.
यदि हम इस मूलभूत सिद्धांत का पालन करें तो सृष्टि का यह चक्र अबाधित रूप से निरंतर चलता रहेगा. लेकिन हम देखते हैं कि इंसान ने अपने लोभ के लिए विज्ञान पर आधारित प्रौद्योगिकी का सहारा लिया और उसके दुरुपयोग के द्वारा वह प्रकृति को निरंतर नोचने-खसोटने के उपाय खोजता रहता है.
गांधी इंसान की इसी दुष्प्रवृत्ति का विरोध करते हैं, जो आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता में पायी जाती है और जिसका वह स्वयं को शत्रु मानते हैं. गांधी विज्ञान की सहायता से निर्मित उन यंत्रों, मशीनों और उपकरणों का विरोध करते हैं, जिनका उद्देश्य मनुष्य के जीवन को आसान बनाना न होकर केवल मुनाफा कमाना है. वे इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों के असीमित दोहन का विरोध करते हैं. मगर उनके इस विरोध को दुर्भावनापूर्वक विज्ञान का विरोध समझ लिया जाता है.
गांधी ने भारत की संस्कृति से ही इस जीवन मूल्य को पाया था. भारतीय और पाश्चात्य विचारधारा में मूलभूत अंतर शायद यही है कि भारतीय विचारधारा अपने अस्तित्व के लिए दूसरों के अस्तित्व को न केवल मान्यता देती है, बल्कि उसका सम्मान भी करती है, जबकि औद्योगीकरण के बाद की आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा में अपने फायदे के लिए दूसरों का केवल उपयोग करने की स्वार्थी मानसिकता को बढ़ावा दिया जाता है. इसे एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है.
भारतीय संस्कृति जीवो जीवस्य जीवनम् के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी इस बात से अनजान नहीं है कि प्रकृति ने इस सिद्धांत के सुचारु संचालन के लिए विभिन्न प्रकार के जीवों की संख्या में संतुलन की तकनीक को अपनाया है. प्रकृति सहज रूप से अपने संतुलन के लिए भक्ष्य जीवों की संख्या भक्षक जीवों की तुलना में ज्यादा रखती है. लेकिन पश्चिम ने अपनी लोभमय वृत्ति प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों में भी अपने अस्तित्व को बचाये रखने वाले सबल की उत्तरजीविता (Survival of fittest : Charles Darwin ) के सिद्धांत का मनमाना अर्थ इस तरह से करती है कि उसमें कमजोर या असहाय के लिए समाज में कोई जगह ही नहीं रहती. इसी का विकृत रूप हमें हिटलर की आर्य-श्रेष्ठत्व की अवधारणा में दिखाई देता है.
गांधी हर उस व्यवस्था या तरीके के विरोधी हैं, जिसमें किसी का भी किसी भी रूप में शोषण शामिल है. गांधी के चिंतन के मूल में सामान्य मनुष्य और उसकी अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं और इनकी कीमत पर कुछ लोगों की सम्पन्नता का वे तीखा विरोध करते हैं. वह यह तो मानते हैं कि कुछ लोगों की सहज वृत्ति धन कमाने की होती है मगर अपने ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के माध्यम से वह इस वृत्ति पर भी एक नैतिक अंकुश लगाते हैं और यह सुझाव देते हैं कि समाज के बल पर धन कमाने वाले अपनी जरूरतों की पूर्ति के बाद शेष धन को समाज की धरोहर समझें और उसका उपयोग समाज की भलाई के लिए ही करें.
गांधी इस धन कमाने की वृत्ति को लोभ से मुक्त रखने का आग्रह करते हैं. गांधी उन तमाम आधुनिक यंत्रों का विरोध करते हैं जिनका आविष्कार मनुष्य मात्र की भलाई के लिए न होकर अधिकाधिक उत्पादन कर अधिकाधिक मुनाफा कमाने और बड़ी संख्या में लोगों को बेरोजगार बनाने के लिए होता है.
हरिजन सेवक के २०.०९.१९३५ के अंक में वह लिखते हैं:
‘हिंदुस्तान के सात लाख गाँवों में फैले हुए श्रम करने वाले ग्रामवासियों के विरुद्ध इन जड़ यंत्रों को प्रतिद्वंद्विता में नहीं लाना चाहिए. यंत्रों का सदुपयोग तो यह कहा जाएगा कि उससे मनुष्य के प्रयत्न को सहारा मिले और उसे वह आसान बना दे. यंत्रों के मौजूदा उपयोग का झुकाव तो इस ओर ही बढ़ता जा रहा है कि कुछ इने-गिने लोगों के हाथ में खूब संपत्ति पहुँचाई जाए और जिन करोड़ों स्त्री-पुरुषों के मुँह से रोटी छीन ली जाती है, उन बेचारों की जरा भी परवाह न की जाए.’
गांधी के लिखे के करीब नब्बे साल बाद क्या हम कदम-कदम पर उनकी इस आशंका को अपनी संपूर्ण भयावहता के साथ मूर्त रूप में उतरा हुआ नहीं देख रहे हैं? एक ओर जहाँ देश में गरीब और गरीब होता जा रहा है, बेरोजगारी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है और दूसरी ओर चंद लोग दुनिया के सबसे ज्यादा अमीरों की सूची में लगातार ऊपर चढ़ते जा रहे हैं. आज हम अपने देश की अर्थव्यवस्था के आँकड़े बढ़ाने के लालच में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हमारे देश के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का निरंतर दोहन करके अपरिमित लाभ कमाकर ले जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं.
गांधी बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण की जगह आत्मनिर्भर गाँवों का सिद्धांत सामने रखते हैं, जिसमें हर गाँव अपनी अधिकांश जरूरतों की पूर्ति खुद करके आत्मनिर्भर रहे और ऐसी चुनिंदा वस्तुएँ, जिनका निर्माण गाँव में नहीं किया जा सकता है, उनके लिए राज्य के स्वामित्व में सीमित मात्रा में उद्योग लगाए जाएँ ताकि उनमें मुनाफे के लिए काम करने वाले मनुष्यों का शोषण और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन होने की संभावना शेष न रहे.
प्रकृति परस्पर निर्भरता के सुनहले सिद्धांत के जरिए जिस तरह सृष्टि की अपनी व्यवस्था को कायम रखती है, ठीक वही वैज्ञानिक व्यवस्था गांधी समाज और देश के लिए चाहते हैं. आधुनिक यंत्रों के प्रति उनका विरोध नहीं है, मगर उनकी उपयोगिता को लेकर गांधी की सोच एकदम स्पष्ट है :
‘यंत्रों का भी स्थान है. लेकिन मनुष्यों के लिए जिस प्रकार की मेहनत करना अनिवार्य होना चाहिए, उसी प्रकार की मेहनत का स्थान यंत्रों को ग्रहण न कर लेना चाहिए. घर में चलाने लायक यंत्रों में सुधार किए जाएँ, तो मैं उसका स्वागत करूंगा.’
(हिंदी नवजीवन, ०५.११.१९२५)
दरअसल इस सारी बहस के केंद्र में एक सीधा-सा सवाल होना चाहिए कि हम जिस वैज्ञानिकता का समर्थन और पोषण करें, उसके केंद्र में क्या होना चाहिए? मनुष्यता और पर्यावरण या फिर येन-केन प्रकारेण मुनाफा, मुनाफा और सिर्फ मुनाफा?
आप अठारहवीं शताब्दी में यूरोप से शुरू हुई औद्योगिक प्रगति के पिछले दो-तीन सौ सालों के सफर पर दृष्टि डालिए. तमाम तरह की वैज्ञानिक खोजों के केंद्र में अधिकांशतः मानव-कल्याण न होकर उनका व्यावसायिक उपयोग कर अधिकाधिक धन कमाना ही है. वास्तव में नये-नये आविष्कारों की खोज के लिए बड़े पैमाने पर संसाधनों की जरूरत, उन संसाधनों को बड़ी कंपनियों द्वारा उपलब्ध कराना, आविष्कारों की खोज के बाद उनका पेटेंट, पेटेंट के जरिए उनके निर्माण और बिक्री पर नियंत्रण, इस नियंत्रण के द्वारा अधिकाधिक मुनाफा, इस मुनाफे के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन और पर्यावरण का नाश, लागत में कमी के लिए कर्मचारियों-मजदूरों का शोषण, अधिक बिक्री के लिए झूठे विज्ञापनों के जरिए कृत्रिम जरूरतों का निर्माण और फिर अंततः सारे मुनाफे का कुछ कंपनियों या लोगों के बीच में सीमित हो जाना– सारी दुनिया इसी दुष्चक्र में फँसी हुई हैं.
इस बात को हम आधुनिक विज्ञान का एक वरदान माने जाने वाली पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति अर्थात् एलोपैथी के उदाहरण से समझ सकते हैं. एलोपैथी में रोगों के निदान और उपचार के लिए बड़ी मात्रा में तकनीकी का उपयोग किया जाता है. दरअसल जिन बातों के लिए एलोपैथी का गुणगान किया जाता है, उसका बड़ी हद तक श्रेय अभियाँत्रिकी को है, जिसने इस विधा में रोगों का निदान और उपचार आसान बना दिया है. इसे एक बार नजरअंदाज भी कर दें तो हम आज जब अपने चारों ओर निगाह दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि चिकित्सा हमारे देश के ही नहीं, दुनिया के सबसे बड़े उद्योगों में से एक बन गयी है. आज अनेक जानलेवा बीमारियों की चिकित्सा तो उपलब्ध है मगर यह भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है कि उन बीमारियों की चिकित्सा इतनी महंगी है कि इस देश का आम नागरिक यदि उसकी चपेट में आ जाए तो इलाज में उसका घर-बार बिकने की नौबत आ जाती है.
आज इस देश की अधिकांश जनसंख्या की मासिक आय २० हजार रुपये महीने से कम है, जबकि किसी भी सामान्य से अस्पताल में भरती होने पर सामान्य उपचार पर ही कम से कम २० हजार रुपये प्रतिदिन का खर्च बहुत साधारण बात है, यदि बीमारी बड़ी हो तो फिर यह खर्च कई गुना ज्यादा हो जाता है.
डॉक्टर, अस्पताल, विभिन्न रोगों की जाँच के लिए खुली हुई लेबोरेटरी, दवा की कंपनियाँ– इन सबका एक विशाल नेक्सस आज के समय की कड़वी सच्चाई बन चुका है. झूठी जाँच, अनावश्यक दवाइयाँ, जरूरत न होने पर भी अनेक प्रकार की शल्यचिकित्साएँ – इनके जाल में फँसने के बाद किसी भी व्यक्ति का सही-सलामत बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है. इसके अलावा अपनी कंपनी की दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए जान-बूझकर विभिन्न प्रकार के वायरस के प्रसार के आरोप भी कई कंपनियों पर लगते रहते हैं.
गांधी अस्पतालों की निरंतर बढ़ती संख्या को किसी भी समाज के लिए एक धब्बा मानते थे. उनका मानना था कि हमारी जीवनशैली इतनी प्रकृति के अनुकूल हो कि हमें अस्पतालों की कम से कम जरूरत पड़े. लेकिन दुर्भाग्य से कोई इस बात पर ध्यान नहीं देता कि किसी भी देश में बड़ी संख्या में खुले हुए अस्पताल दरअसल उसके बीमार होने का परिचायक है, प्रगति का नहीं.
दिल्ली में तिब्बिया कॉलेज के उद्घाटन के अवसर पर दिनांक १३.०२.१९२१ को दिए अपने भाषण में गांधी ने कहा था :
‘मैं अस्पतालों की वृद्धि में सभ्यता की उन्नति नहीं देखता. इसको मैं अवनति का स्वरूप ही समझता हूँ. जैसे कि पिंजरापोलों की संख्या बढ़ने से यही मालूम पड़ता है कि लोगों में मवेशी की भलाई की ओर उदासीनता ही है. इस कारण मुझे आशा है कि यह विद्यालय लोगों को रोगों से बचाने का विशेष प्रयत्न करेगा और रोगी को नीरोग करने की कम फिकर करेगा.’
यह सच है कि कुछ गंभीर बीमारियों के निदान और इलाज के लिए भी आधुनिक उपचार पद्धति निश्चय ही वरदान स्वरूप सिद्ध हो सकता है. मगर किसी जमाने में हमारे घरों में दादी-नानी के माध्यम से उपलब्ध सामान्य बीमारियों के घरेलू उपचार की परंपरा को आधुनिकता के नाम पर खत्म कर दिया गया है. जाहिर है, यह परंपरा भी वर्षों के निरीक्षण, परीक्षण और उससे उपजे अनुभव की ही देन थी.
गांधी बीमारियों के सस्ते और सरल उपचार की पद्धतियों की खोज के लिए विज्ञान के इस्तेमाल के हिमायती थे. उन्होंने स्वयं खान-पान और प्राकृतिक चिकित्सा सम्बन्धी अनेक प्रयोग किए और उनसे अपना और अपने अनेक सहयोगियों का सफल उपचार भी किया.
वास्तव में बारीकी से देखा जाए तो सहज ही इस बात को स्वीकार किया जा सकता है कि गांधी की सिर्फ सोच ही नहीं, पूरा जीवन ही वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा उतरता है. प्रकृति की समयबद्धता, निरंतर क्रियाशीलता और परिणामों के प्रति अनासक्तिपूर्ण तटस्थता को गांधी ने अपने जीवन में अक्षरशः उतार लिया था. प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के प्रति उनका आग्रह उनके पर्यावरणीय भान और वास्तविक विज्ञान की उनकी गहरी समझ का पता देता है.
इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम इंटरनेट पर vigyanjyoti.com नामक वेबसाइट पर दी गई वैज्ञानिकता की चार मूल कसौटियों-
अनुभववाद (Empiricism),
वस्तुनिष्ठता (Objectivity),
पुनरुत्पादन क्षमता (Reproducibility) और
मिथ्याकरणीयता (Falsifiability)
पर गांधी के विचारों को और उनके जीवन को कसकर देख सकते हैं.
इन चार कसौटियों में पहली कसौटी या सिद्धांत है– सत्य को अनुभव के माध्यम से ही प्रमाणित किया जा सकता है. गांधी की सत्य की खोज की यात्रा ठीक इसी सिद्धांत के अनुरूप ही जीवन भर चलती रही. उन्होंने तो अपनी आत्मकथा का नाम ही सत्य के साथ मेरे प्रयोग रखा था. गांधी ने अपने विचारों को बार-बार अनुभव की कसौटी पर कसा और जब उन अनुभवों के माध्यम से किसी सत्य को प्रमाणित पाया तभी उसे बाकी संसार के सामने रखा.
इसी तरह गांधी ने सत्य की खोज की अपनी यात्रा में तटस्थता या निष्पक्षता को हमेशा सर्वोच्च माना. एक कट्टर सनातनी हिंदू परिवार में जन्म और उसके संस्कारों के बावजूद उन्होंने सत्य को किसी एक विचार या पद्धति तक सीमित न मानकर सभी धर्मों, पंथों और विचार-प्रणालियों का अध्ययन किया और जहाँ-जहाँ उन्हें अपने सत्य की पुष्टि मिली, उसे स्वीकार किया. इसी तरह जहाँ उन्हें अपने धर्म में भी इस सत्य की पुष्टि नहीं मिली या विरोधाभास दिखा, वहाँ उन्होंने उसे प्रकट करने में कोई संकोच नहीं किया, बल्कि उसमें सुधार का आग्रह किया. अस्पृश्यता का विषय उनकी इसी दृष्टि का परिचायक है, जिसे उन्होंने किसी भी धार्मिक आधार पर जायज ठहराने से स्पष्ट इंकार किया. अंधानुकरण उनका स्वभाव नहीं था और धार्मिक व्यक्ति होने के बावजूद शास्त्रों में कही गई बातों को वह विवेक की कसौटी पर कसे बिना स्वीकार नहीं करते थे. उन्होंने कहा भी था कि मैं शास्त्रजाल में पड़कर भरमाने वाला व्यक्ति नहीं हूँ.
विज्ञान का तीसरा सिद्धांत कहता है कि वैज्ञानिक प्रयोगों को दुहराया जा सकता है और उनके परिणामों को सत्यापित किया जा सकता है. जाहिर है, इसके लिए कुछ आवश्यक शर्तें भी लागू होती हैं. गांधी ने अपने जीवन में जो सत्य और अहिंसा के प्रयोग किए, उनको बार-बार दोहराया और इसे हर बार खरा पाया. और बात सिर्फ गांधी की ही तो नहीं है. गांधी के विचारों को अपनाकर दुनिया भर में लोगों ने बड़े-बड़े राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों में असंभव लगने वाली विजय पायी है. वहीं लगभग हर क्षेत्र में गांधी विचारों को सफलतापूर्वक लागू करके निसर्गस्नेही और समाजोपयोगी जीवन की नींव रखने वालों की भी देश और दुनिया में कोई कमी नहीं है. यह बताता है कि गांधी-विचार और सिद्धांत समय की कसौटी पर बार-बार खरे सिद्ध होते हैं.
विज्ञान का चौथा सिद्धांत कहता है कि कुछ भी अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता. नये साक्ष्यों के आधार पर पुराने सिद्धांतों का खंडन किया जा सकता है. गांधी के मामले में यह बात पूरी तरह से लागू होती है. गांधी को दरअसल महात्मा बनाने वाली सबसे बड़ी विशेषता ही यही थी कि वह जड़ नहीं थे, निरंतर परिवर्तनशील थे. मगर यह परिवर्तनशीलता दिशाहीन नहीं थी. गांधी अपने प्रयोगों के परिणामस्वरूप हासिल अनुभवों को सत्य मानते थे मगर नये तथ्यों के आलोक में अपनी पुरानी धारणाओं में परिवर्तन से संकोच नहीं करते थे.
हरिजनबन्धु में दिनांक ३०.०४.१९३३ को गांधी लिखते हैं:
‘मेरे लेखों का मेहनत से अध्ययन करने वालों और उनमें दिलचस्पी लेने वालों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे हमेशा एक ही रूप में दिखाई देने की कोई परवाह नहीं है. सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें मैं सीखा भी हूँ. उमर में भले मैं बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आन्तरिक विकास होना बन्द हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बन्द हो जाएगा. ….इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने.’
एक ओर गांधी जहाँ खुद को सतत विकासशील मानते हैं, वहीं वह किसी तरह की संपूर्णता या अन्तिम सत्य का भी कोई दावा नहीं करते हैं. अपनी आत्मकथा की प्रस्तावना में गांधी कहते हैं :
‘अपने प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की संपूर्णता का दावा नहीं करता. जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियमपूर्वक, विचारपूर्वक और बारीकी से करता है, फिर भी उनसे उत्पन्न परिणामों को अंतिम नहीं कहता, अथवा वे परिणाम सच्चे ही हैं इस बारे में भी वह सशंक नहीं तो तटस्थ अवश्य रहता है. अपने प्रयोगों के विषय में मेरा भी वैसा ही दावा है.’
अपनी इसी वैज्ञानिक दृष्टि को विस्तार देते हुए इसी प्रस्तावना में गांधी आगे कहते हैं कि
‘मैं चाहता हूँ कि मेरे लेखों को कोई प्रमाणभूत न समझे. यही मेरी विनती है. मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि उनमें बताये गये प्रयोगों को दृष्टांत रूप मानकर सब अपने-अपने प्रयोग यथाशक्ति और यथामति करें.’
विज्ञान का लेबल लगा देने से हर बात वैज्ञानिक सिद्धांतों से सुसंगत नहीं हो जाती. पिछले करीब तीन शताब्दियों में हमने आधुनिक विकास के नाम पर प्रकृति से प्राप्त विज्ञान के सिद्धांतों की सहायता से इस पूरी सृष्टि के विनाश के उपकरण तैयार किए हैं. अपने-आप को वैज्ञानिक रूप से उन्नत कहने और समझने वालों देशों ने सिर्फ मुनाफे की खातिर मानवता और प्रकृति का जितना बुरा किया है, उतना पिछले तीन हजार सालों में भी नहीं किया जा सका था. गांधी ने बहुत पहले यह बात कही थी कि प्रकृति इस पृथ्वी पर रहने वाले सभी लोगों की आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकती है मगर किसी एक व्यक्ति के भी लोभ या लालच को पूरा नहीं कर सकती. मगर दुर्भाग्य से आज अधिकांश लोग इस लोभ और लालच के चंगुल में कैद हैं. दूसरों पर नियंत्रण और अंतहीन मुनाफा कमाने की हवस में सारी दुनिया उस व्यक्ति में बदल गई है, जो जिस डाल पर बैठा था, उल्टी तरफ से उसी को काट रहा था. और विडंबना यह है कि ऐसा करने वाले वैज्ञानिक दृष्टि वाले और आधुनिक कहलाते हैं जबकि प्राकृतिक विज्ञान के खरे सिद्धांतों के अनुरूप अपना पूरा जीवन जीने वाले गांधी को आधुनिकता और विज्ञान का विरोधी माना जाता है.
आज सारी पृथ्वी के सामने जिस तरह के पर्यावरणीय और नैतिक संकट खड़े हो गए हैं, उनसे बचाव का एकमात्र मार्ग वैज्ञानिक विचारधारा की कसौटी पर खरे उतरने वाले गांधी के विचारों को अपनाना है. इसी में इस सुंदर पृथ्वी की रक्षा के सूत्र छिपे हैं और इससे ही गांधी के साथ पिछली करीब आठ शताब्दियों से किये जा रहे अन्याय का प्रतिकार भी होगा.
_____
पराग मांदले सात वर्षों तक पत्रकारिता के बाद से भारतीय सूचना सेवा में |
गांधी जी मनुष्य चेतना के बड़े वाहक थे. उनमें निरंतर सुधार और परिष्कृत करने की प्रवृत्तियां एक अलग दृष्टिकोण देती है हमें.
Parag Mandle भाई ने एक अलग दृष्टिकोण से गांधी जी को निरूपित किया है. यह अलहदा दृष्टि हमें एक बार फिर गांधी के क़रीब लाती है.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जिन आधार पर गांधी जी को रखने का प्रयास है लेखक बहुत हद तक सफल है. इस प्रयास की सराहना होनी चाहिए.
महत्वपूर्ण लेख
बहुत अच्छा तर्क सम्मत आलेख है पराग मांदले का।वास्तव में पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह गांधी जी को छांट और बांट रहे हैं उससे उंन्हे समझने की उत्कंठा आज और भी फैल रही है।
गाँधी कथित अर्थों में वैज्ञानिक कभी नही हो सकते।चिकित्सा हो या मूल्य-दृष्टि उन्होंने देशज अवधारणाओं के महत्व को रेखांकित किया और अपने तईं
प्रयोग-परीक्षण भी।आज जिस तरह देशज जीवन पद्धतियों का तिरोहण हुआ है और समूचे विश्व में व्यापक स्तर पर उपभोक्तावाद का संजाल फैला है-वह गाँधी के उन इशारों की ओर एक बार नए सिरे से दृष्टिपात करने को विवश करता है।
सबसे पहले तो डार्विन को इस बात के लिए दोष देना गलत है कि उन्होंने survival of the fittest शब्दावली का इस्तेमाल किया था। यह हरबर्ट स्पेंसर ने इस्तेमाल किया था। डार्विन की यह मंशा कभी नहीं थी कि कमज़ोर को जीवित नहीं रहना चाहिए। उन्होंने natural selection की बात की थी जो species पर लागू होती है, ना कि व्यक्ति पर। बाद में उन्होंने आम लोगों के लिए लिखी पुस्तक में इसे इस्तेमाल करके भूल की।
बीसवीं सदी के इस मौलिक विचारक, डार्विन, को नकार कर गांधी को वैज्ञानिक साबित करना है तो आप करें। इतना बता दीजिए कि आज बाघ का तो अस्तित्व खतरे में है लेकिन मच्छर, जिसे चुटकी में मार सकते हैं, क्योंकर पनप रहे हैं? यह डार्विनिज्म है। सरलीकरण कोई प्रशंसा योग्य चीज़ नहीं है।
परस्पर सहयोग या परस्पर निर्भरता में कौनसी नई बात है? सब जानते हैं। पश्चिम वाले भी जानते थे और डार्विन सबसे ज्यादा इसे जानते थे।
पूंजीवाद को पाश्चात्य करार देना क्या वर्गों के अस्तित्व को पूर्व और पश्चिम जैसे पहचानोंं के आवरण से ढांकना नहीं है? मिल मालिक मज़दूर के लिए पितृ तुल्य हो यह कितनी वैज्ञानिक बात है, रोज दिख रहा है।
विदेशी पूंजीपतियों के खिलाफ राष्ट्रीय पूंजीपतियों के आंदोलन को गांधी ने असरदार नेतृत्व दिया, इसमें शक नहीं। तथ्य है कि बिड़लाजी का समर्थन था, उनके घर में रहे, वहीं उनकी दुखद और निंदनीय हत्या हुई। इसे पूर्व पश्चिम की निगाह से देखना कहां तक उचित है?
भारतीयता में इतने सद्गुण थे तो अंबेडकर से विवाद की वजह क्या रही होगी? जातियों की परस्पर निर्भरता के सिद्धांत पर ही तो अंबेडकर ने उन्हें चुनौती दी। अंबेडकर का कहना था कि एक दूसरे के लिए ज़रूरी मान कर जातियों को अपना धर्म निभाने की सलाह देना भेदभाव को बनाए रखना है।
यह सच है कि अपने यहां भी बहुत कुछ ऐसा था जिससे पश्चिम को सीखना चाहिए था और उन्होंने सीखा। उनसे भी हमने सीखा।
गांधी की वैज्ञानिकता का सबसे बड़ा प्रमाण कस्तूरबा के अपेंडीसाइटिस के मामले में मिलता है। डॉक्टर ने सर्जरी की सलाह दी। मगर वह पश्चिमी विज्ञान था। गांधी नमक से इलाज करते रहे और वे चल बसीं। बाद में मनु की उन्होंने सर्जरी करवा ली। इतना सीखा ज़रूर।
अतीत के रूमानीकरण का यह रुझान यथार्थ को देखने, परखने और बदलने की राह में बाधा है।
वैज्ञानिक पदावलियों के हवाले से गांधी को परखने की कोशिश दिलचस्प है और नई भी। लेखक ने तर्कसंगत तरीके से अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। यह प्रशंसनीय है।