युवाल नोआ हरारी से गिरीश कुबेर की बातचीत हिन्दी अनुवाद : उषा वैरागकर आठले |
आप लगातार ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ के नियमन की माँग कर रहे हैं. ‘नेक्सस’ इसकी आवश्यकता को प्रमाणित कर रही है. आपकी किताब प्रकाशित हुई और अमेरिका में ट्रम्प जीतकर आए. क्या ट्रम्प और एलॉन मस्क की जोड़ी ‘एआई’ का नियमन करने देगी?
सच कहूँ तो चुनाव के पहले भी ‘एआई’ के नियमन संबंधी क़ानून बनाए जाने की संभावना नहीं थी. परंतु चुनाव के बाद तो इसकी संभावना पूरी तरह समाप्त हो गई है. यह नया प्रशासन नियमन का … और वह भी ‘एआई’ के नियमन का विरोध करता है. अमेरिका तो ठहरी ‘एआई’ के क्षेत्र की महासत्ता. उसे ‘एआई’ के नियमन के लिए वैश्विक समझौते या सहयोग आदि की ज़रूरत महसूस न हो तो.
तो क्या अब दुनिया के अनेक देशों को अमेरिका से समझौता करना होगा? आगे क्या होगा? आपकी किताब ‘डिजिटल पर्दा’ आदि की चर्चा करती है. यह पर्दा अगर वास्तव में आता है तो भारत जैसे देश क्या करेंगे?
‘एआई’ के क्षेत्र में फ़िलहाल महासत्ता-पद के लिए दो ही दावेदार हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता. एक अमेरिका है और दूसरा है चीन. दुनिया के अन्य देश बहुत पीछे हैं. उनके पास अमेरिका और चीन से प्रतिस्पर्धा करने लायक़ संसाधन नहीं हैं. भारत का ही उदाहरण लें. सबसे अधिक जनसंख्या और आर्थिक क्षेत्र में अपना प्रभाव निर्माण करने की चाह रखने वाला यह देश है. मगर भारत अपनी ख़ुद की ‘सिलिकॉन वैली’ भी निर्मित नहीं कर पाया. अन्य छोटे देशों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. चाहे वे श्रीलंका, बांग्लादेश हों या पुर्तगाल, ग्रीस हों; ये देश डिजिटल प्रतियोगिता में कहीं नहीं ठहरते.
किसी एक देश को ‘एआई’ महासत्ता होने से अगर रोकना हो तो इन सभी देशों को एकजुट होना ज़रूरी है. मान लीजिए कि भारत ने यूरोप से अगर हाथ मिला लिया और ब्राज़ील जैसा देश भी उनके साथ आ गया, इसी स्थिति में एक साथ कुछ किया जाना संभव हो सकता है. अन्यथा इन बड़े देशों की डिजिटल अधीनता स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा. दुनिया का इतिहास गवाह है. किसी भी महासत्ता का लक्ष्य ही होता है ‘डिवाइड एंड रूल’. ‘एआई’ बाबत भी यही हो सकता है. औद्योगिक क्रांति के युग में भी हमने यही बात देखी है. उस समय छोटे देश बड़े देशों को रोक नहीं पाए. इसलिए बाद में एक सदी तक इन ‘बड़ों’ ने दुनिया पर राज किया. यही कारण है कि ‘एआई’ के मुद्दे पर भी बड़े देशों को रोकने के लिए परस्पर सहयोग ही एकमात्र रास्ता है.
अगर ऐसा नहीं हो पाया तो … तो क्या पहले की तरह दुनिया इन दोनों के बीच बँट जाएगी? पहले सोवियत संघ और अमेरिका थे, अब अमेरिका और चीन होंगे.
यह एक संभावना है. दुनिया डिजिटल डिवाइड का अनुभव करेगी, जिसमें एक ओर होगा अमेरिका और दूसरी ओर होगा चीन. पूरी दुनिया इन दो ध्रुवों में विभाजित हो जाएगी और इसका आधार होगा ‘एआई’. ‘एआई’ हमारे जीवन को नियंत्रित करेगा. व्यक्तिगत आर्थिक निर्णय हों या किसी देश की सुरक्षा का मुद्दा हो, सब कुछ ‘एआई’ ही करेगा. वर्तमान तकनीकी कालबाह्य साबित होगी.
कल सभी लड़ाकू जहाज़ों पर तैनात प्रक्षेपणास्त्र ‘एआई’ द्वारा नियंत्रित होंगे. हवाई जहाज़ ‘एआई’ द्वारा चलाए जाएँगे. कारें तो अभी से उसकी मदद से दौड़ने लगी हैं. कल तमाम क्षेत्र ‘एआई’ के हाथों खेलेंगे. इस तकनीकी की वृद्धि की गति इतनी तेज़ और प्रचंड है कि अगर दुनिया जल्दी नहीं चेतेगी और उनके बीच इस बाबत वैश्विक स्तर पर कोई संधि-समझौते नहीं हुए तो चीन और अमेरिका के इर्द-गिर्द सभी को चक्कर काटने पड़ेंगे.
जी, यह तो एक पहलू हुआ. दूसरा पहलू यह है कि ‘एआई’ में दन्तकथा निर्माण करने की, फेक न्यूज़ फैलाने की ज़बर्दस्त क्षमता है. ‘ब्रेग्ज़िट’ इसका बेहतरीन उदाहरण है. ‘एआई’ की इस क्षमता का फ़ायदा निश्चित रूप से सत्ताधारियों को मिलता है. इस परिप्रेक्ष्य में ‘एआई’ को नियंत्रित करने की बात क्या ये चाहेंगे?
वही तो असली चुनौती है. लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा ‘एआई’ से ही होने वाला है. परस्पर संवाद किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होता है. मनुष्य का मनुष्य से मुक्त संवाद इसीलिए महत्वपूर्ण है. लोकतंत्र में बड़े-बड़े जन-समूह परस्पर बातें करते हैं, उनमें संवाद होता है. उसमें देश के बारे में, अपने समाज के बारे में निर्णय लिए जाते हैं. यह मानव-संवाद किसी न किसी भाषा में होता है. पहले इस मानव-भाषा में बात करने वाला कोई नहीं था. उस समय मनुष्य का संवाद सिर्फ़ मनुष्य से ही होता था. अब ‘एआई’ भी इस भाषा में बात कर सकता है. इतना ही नहीं, वह मनुष्य से अधिक आकर्षक और विश्वसनीय वाद-विवाद कर सकता है.
इन संवादों का नियंत्रण अभी ही कुछ मात्रा में ‘एआई’ के हवाले हो गया है. इतने दिनों तक किसी चौक में, सभागार में लोग संवाद के लिए इकट्ठे होते थे. अब बहुसंख्या में वे सोशल मीडिया के माध्यम से परस्पर बात करने लगे हैं. इसमें से कुछ संवाद ‘एआई’ की मार्फ़त होता है. अर्थात् लोगों को पता ही नहीं चलता कि जिससे वे बातचीत कर रहे हैं, वह जीवंत व्यक्ति है या बॉट है. अब इसमें अगला चरण आ गया है. अब तो मूल मज़मून तक ‘एआई’ ही तैयार करेगा और उस पर बातचीत या संवाद भी वही करवाएगा. इसे नियंत्रित करने के लिए जल्द से जल्द कदम उठाए जाने की ज़रूरत है. ऐसा न किए जाने पर लोकतंत्र का विनाश अवश्यंभावी है. क्योंकि उस समय मानव-संवाद समाप्तप्राय हो चुका होगा. संवाद में बड़ा हिस्सा होगा यंत्र-मानवों का.
कल्पना कीजिए कि दस-पंद्रह लोग किसी विषय पर कोई बात कर रहे हैं. मगर कल उसमें कुछ मनुष्यों के स्थान पर मनुष्य की तरह दिखने वाले हाड़-माँस के रोबो सहभागी होंगे और ज़ोर-ज़ोर से, गले उतरने वाली बहसें करने लगेंगे तो आप क्या करेंगे? वह मानव-संवाद का अंत होगा. वर्तमान में ही सोशल मीडिया पर मानव-संवाद ग़ायब होने लगा है. जब आप ट्विटर पर जाते हैं और देखते हैं कि किसी मज़मून को बहुत लाइक्स मिले हैं. आपको लगता है कि जब इतने लोगों को वह बात पसंद आई है तो हमें भी पढ़नी चाहिए. मगर यह बात आपको नहीं पता होती कि इनमें से कितने बॉट्स हैं और कितने ‘सचमुच’ के मनुष्य हैं.
कभी-कभी तो वह समूचा ट्रैफिक ही बॉट्स द्वारा निर्मित होता है और आप उसे फॉरवर्ड करते रहते हैं और अनजाने में उसमें सहभागी भी हो जाते हैं. आपकी देखा-देखी और कुछ लोग उसमें शामिल हो जाते हैं. जबकि प्रत्यक्ष में यह सब बॉट्स द्वारा किया-कराया होता है. अर्थात्, लोगों को क्या पढ़ना चाहिए, किस मुद्दे पर बहस करनी चाहिए, यह सब कुछ अब बॉट्स ही तय करने लगे हैं. अभी यह सब सोशल मीडिया पर घटित हो रहा है, कल को प्रत्यक्ष जीवन में भी घटने लगेगा. मानव-संवाद का सिमटना ही लोकतंत्र का संकट साबित होगा. अगर हम इसे टालना चाहते हैं, तो सबको एक साथ आकर ‘एआई’ के नियमन पर विचार-विमर्श करना होगा. कोई एक नियम भी अगर वैश्विक स्तर पर सबके द्वारा बनाया गया तो भी फ़र्क़ पड़ेगा. यह नियम हो सकता है – “‘एआई’ द्वारा मनुष्य होने का नाटक न किया जाए.” ट्विटर पर अगर किसी बॉट ने कुछ रीट्विट किया हो, तो इसके बारे में लोगों को स्पष्ट पता होना चाहिए कि … यह बॉट है … मनुष्य नहीं.
क्या किसी डिस्क्लेमर जैसा कुछ …?
हाँ वैसा ही. मेरा कहना यह नहीं है कि ‘एआई’ को अपनी ज़िंदगी से बाहर ही निकाल देना चाहिए. मेरा कहना है कि ‘‘एआई’ का दखल कहाँ है, यह हमें बताया जाए.
तो फिर अब हम आपके द्वारा प्रस्तुत किए गए मुद्दे पर आते हैं. इंटेलिजेंस विरुद्ध कॉन्शन्स. बुद्धिमत्ता विरुद्ध संवेदना. अब सवाल यह भी है कि ऐसी संवेदना हासिल किए जाने से ‘एआई’ कितनी दूरी पर है?
इस सवाल का जवाब देने से पहले हम इंटेलिजेंस और कॉन्शन्स के बीच का फ़र्क़ समझते हैं. कई लोग इसे लेकर भ्रमित होते हैं. ‘एआई’ बहुत बुद्धिमान है इसलिए लोगों को लगता है कि उसमे संवेदना भी आ जाएगी. मगर ऐसा नहीं है. जटिल समस्याओं को सुलझाने की क्षमता ही बुद्धिमानी होती है. उदाहरण के लिए, ‘एआई’ शतरंज में विश्व-विजेता हो सकता है या फिर कार चला सकता है, परंतु संवेदना मतलब ‘एबिलिटी टू फील थिंग्स’. ‘एआई’ को शतरंज में न तो जीतने की ख़ुशी होगी और न हारने का दुःख. उसमें आनंद, प्रेम, वेदना आदि कुछ भी नहीं होता. मनुष्य और अन्य प्राणियों में इंटेलिजेंस और कॉन्शन्स, ये दोनों बातें एक साथ पाई जाती हैं. हम में भावना होती है इसलिए हम कुछ रचनात्मक काम करते हैं. उसमें प्राप्त सफलता-असफलता पर खुश या दुःखी होते हैं. ‘एआई’ में इंटेलिजेंस और कॉन्शन्स को एक साथ लाना अभी तक तो संभव नहीं हुआ है.
क्या भविष्य में ‘एआई’ में कॉन्शन्सनेस विकसित हो सकती है? हम इसके बारे में कुछ कह नहीं सकते. हम अभी तक यह नहीं जानते कि हम में भावनाएँ कहाँ से आती हैं. मस्तिष्क में हज़ारों न्यूरॉन्स एक ही समय में संदेश भेजते हैं और हम दुःखी होते है, खुश होते हैं, हम में प्रेम की भावना जागृत होती है. यह कैसे होता है, हमें अब तक इसका ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है. इसीलिए ये कॉन्शन्सनेस ‘एआई’ में विकसित की जा सकेगी या नहीं, इस पर अभी ही निश्चित तौर पर कहना मुश्किल है. मगर एक अन्य बात हम निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि ‘एआई’ भावनाओं की नक़ल, भावना होने का अभिनय निश्चित तौर पर कर सकता है. वर्तमान में ही कई लोग ‘एआई’ के प्रेम में फँसने की घटनाएँ सामने आई हैं. ‘एआई’ से रिश्ते-नाते निर्मित होने लगे हैं. ये हो रहे हैं क्योंकि उनका वैसा होने के पीछे संबंधित कंपनियों के हित-संबंध होते हैं. धीरे-धीरे ‘एआई’ का यह अभिनय इतना परिष्कृत होता जाएगा कि लगने लगेगा मानो उसमें सचमुच भावनाएँ हों.
अर्थात्, अगर मैं ‘एआई’ से पूछता हूँ कि ‘क्या तुम प्रेम के बारे में जानते हो?’ वह कहेगा, ‘हाँ.’ मगर मुझे उस पर विश्वास नहीं होगा. मेरे अविश्वास को देखते हुए ‘एआई’ दुनिया का सबसे अच्छा प्रेमकाव्य सुना देगा. कोई भी प्रेमी, चाहे वह कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो, अपनी प्रेमिका के लिए दुनिया भर के सभी प्रेमकाव्यों को याद नहीं कर सकता. मगर ‘एआई’ कर सकता है. प्रेम क्या है, किसी से प्रेम करना क्या होता है आदि बातों को वह इतने बेहतरीन तरीक़े से समझाएगा कि हम आश्चर्यचकित होकर रह जाएँगे. अब तो उसका भाषा पर भी प्रभुत्व स्थापित हो ही चुका है. इसलिए वह भावना का नाटक शानदार तरीक़े से कर सकता है. प्रेम को ‘महसूस’ न करने पर भी वह प्रेम का अभिनय बहुत अच्छी तरह कर सकता है. तात्पर्य यह कि, ‘एआई’ का कॉन्शन्सनेस का अभिनय क्रमशः बेहतर होता चला जाएगा और तब यह एक गंभीर समस्या बन चुकी होगी. तब वह अवस्था आ जाएगी कि हमें क्या असली है और क्या नक़ली, क्या सच है और क्या झूठ, इसे पहचानना मुश्किल हो जाएगा. यहाँ से हम भावी वास्तविक गंभीर समस्या तक पहुँच जाएँगे.
यह समस्या है इंटेलिजेंस और कॉन्शन्सनेस दोनों से युक्त ‘एआई’ को मानव का दर्ज़ा दिया जाएगा या नहीं; क्योंकि यह सवाल न्याय-व्यवस्था और सरकार के सामने खड़ा होगा. बुद्धिमत्ता और चेतना हो तो ‘एआई’ की गणना जीवधारियों में न करना मुश्किल होगा. मतलब उसे मानव-अधिकार देने होंगे. मानव-अधिकार वर्तमान में ही दुनिया का काफ़ी विवादित विषय रहा है. कुछ देश मानव-अधिकारों को मानते हैं; कुछ नहीं मानते. फिर उसमें ‘एआई’ के मानव-अधिकारों का एक नया आयाम जुड़ जाएगा. कल्पना करके देखिए … अगले बीस, पच्चीस या पचास सालों में अगर कुछ देश ‘एआई’ को मनुष्य का दर्ज़ा दे देते हैं, तो शेष देशों के सामने कैसी समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी. उस समय यह एक नया संघर्ष होगा.
तो क्या ‘एआई’ को मतदान का अधिकार मिल जाएगा?
क्यों नहीं? जब एक बार ‘एआई’ के पास चेतना और बुद्धि दोनों है, इस बात पर एकमत हो जाए तब उसे मतदान का अधिकार देने से इंकार कैसे किया जा सकेगा? और अगर एक बार ‘एआई’ साकार हो गया तो फिर उससे करोड़ों ‘एआई’ आसानी से तैयार किए जा सकेंगे. इससे उनकी संख्या बढ़ जाएगी. संभव है कि कुछ देशों में मनुष्य कम और ‘एआई’ ज़्यादा जैसी स्थिति पैदा हो सकती है. (हरारी हँसते हैं. यहाँ भारत में कम से कम तीन बच्चे पैदा करने का सुझाव शायद इसी दूरदृष्टि से दिया गया है, उन्हें यह बात बताने का मोह मैं टाल देता हूँ.)
आपके समूचे लेखन में ‘कहन’ शैली का अत्यधिक महत्व है. कहानी कहना इतना महत्वपूर्ण हो सकता है, इस बात की ओर, आपके द्वारा बताए जाने तक कभी ध्यान नहीं गया … और ये कहानियाँ फैलाने में ‘एआई’ का बहुत बड़ा हाथ होगा … जल्दी ही ‘एआई’ ख़ुद का कथानक … नेरेटिव्ज़ अभी का लोकप्रिय शब्द है … तैयार कर सकेगा…
ऐब्सोल्यूटली. मनुष्य कहानी, कथानक रच सका, क्योंकि उन्होंने भाषा अर्जित कर ली थी. अब ‘एआई’ ने भी यह कौशल प्राप्त कर लिया है. मानव-संस्कृति का विकास इन्हीं चीज़ों के कारण हुआ है. मनुष्य स्वयं द्वारा निर्मित की गई चीज़ों पर ही बहुत विश्वास करता है. उन पर निर्भर रहता है. देवी-देवता, भूत-पिशाच आदि सब कहानियाँ ही तो हैं! आजकल जब मैं अपने महाविद्यालय के विद्यार्थियों को कुछ लिखने के लिए कहता हूँ, तब काफ़ी विद्यार्थी ‘एआई’ की मदद लेते हैं. हालाँकि इसमें अब तक सर्वोत्कृष्ट विद्यार्थी शामिल नहीं हुए हैं. मगर यह सब तो समय की महिमा है. भावी काल में बढ़िया बातें, चाहे वे उपन्यास हों, फ़िल्म की कहानियाँ हों …‘एआई’ उनका लेखन आसानी से कर लेगा. यहाँ तक कि, वह धार्मिक कहानियाँ भी आराम से लिख लेगा, क्योंकि उसे धर्मग्रन्थ मौखिक याद होंगे.
उदाहरण के लिए, ज्यूडिज्म या इस्लाम के धर्मग्रंथों में कहाँ क्या लिखा हुआ है, यह बात किसी सजीव मनुष्य की अपेक्षा ‘एआई’ को स्वाभाविक रूप से ज़्यादा याद रहेगी. सामान्यतः धर्मगुरु या धर्म-भाष्यकार पहले ख़ुद कुछ पढ़ते हैं, उसका संदर्भ-अर्थ समझ लेते हैं, मगर उन्हें सब कुछ याद नहीं रहता. ‘एआई’ के साथ ऐसा नहीं होगा. कोई भी एक व्यक्ति ज्यूडिज़्म के ग्रंथ पढ़कर याद नहीं रख सकेगा, परंतु ‘एआई’ को यह समस्या नहीं होगी. ‘एआई’ ख़ुद ही सब कुछ पढ़कर, ख़ुद ही उसके संदर्भ-अर्थ निकाल सकता है. उस पर अविश्वास कैसे किया जा सकेगा? फलतः सभी मामलों का नियंत्रण ‘एआई’ के हाथ आ जाएगा, यह तयशुदा बात है.
मैं हमेशा कहता हूँ कि मनुष्य द्वारा रची गई सबसे बड़ी कथा-कहानी पैसा है. पैसा सिर्फ़ एक कहानी है. ट्रम्प के चुनाव जीतते ही बिटकॉइन के साथ क्या हुआ, इस पर दृष्टिपात करें. बिटकॉइन की क़ीमत ट्रम्प की जीत से लाखों गुना बढ़ गई. वैसे देखा जाए तो बिटकॉइन का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है और उसकी कोई रूपाकृति भी नहीं है. मगर लोगों ने ट्रम्प और बिटकॉइन-संबंध का अर्थ स्थापित कर लिया और बिटकॉइन की क़ीमत बढ़ने लगी. अगर एक बार कहीं ‘एआई’ के हाथ में तमाम सूत्र चले गए तो बिटकॉइन जैसी अनेक आभासी मुद्राएँ (क्रिप्टोकरेंसी) वह आसानी से तैयार कर लेगा. इन नई आभासी मुद्राओं का अर्थ सिर्फ़ ‘एआई’ ही समझ पाएगा और ‘एआई’ ही उसकी आपस में ख़रीदी-बिक्री शुरू कर देगा. अगर ऐसा हुआ तो फिर कुछ भी हो सकता है.
हाथी का उदाहरण लें. वह हमसे कई गुना शक्तिशाली होता है, यह बात सब जानते हैं. फिर भी हम उसे नियंत्रण में रख सकते हैं. कैसे? क्योंकि हमारे पास पैसा है और हाथी के पास नहीं है. पैसे से हम नई-नई साधन-सामग्री तैयार करते हैं और हाथी को बंधन में रखते हैं. इतना ही नहीं, हम हाथी की आँखों के सामने उसका स्वामित्व तक बदल सकते हैं. हाथी देखता रहता है … किसी ने किसी को कुछ दिया और मेरा स्वामी बदल गया. यह बात, जो आज हाथी के बारे में हो रही है, वह आनेवाले कल को ‘एआई’ की आभासी मुद्रा की सहायता से मनुष्य के बारे में भी हो सकती है. हमें पता तक नहीं चलेगा …
अब मैं एक नये मुद्दे पर बात करूँगा. इन सब मुद्दों से अलग. देखिए, मनुष्य की उत्क्रांति के हरेक चरण में दुनिया के समाप्त होने संबंधी अनेक भविष्यवाणियाँ व्यक्त की जाती रही हैं, वे सब ग़लत साबित हुईं. तो अब आपकी इस भविष्यवाणी पर विश्वास क्यों रखा जाना चाहिए …? मानवजाति में अपने-आप को टिकाए रखने की बड़ी-भारी क्षमता होती है, इसलिए ‘एआई’ का मुक़ाबला करने के लिए भी तो कुछ होगा …
एक बात पर ध्यान दें, मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वह सब वैसा ही होगा, इस बात का मेरा कोई दावा नहीं है. ऐसा हो सकता है … भविष्य में यह ख़तरा पैदा हो सकता है, मैं सिर्फ़ यही बता रहा हूँ. हम वर्तमान में क्या निर्णय लेते हैं, इस बात पर इसका भविष्य निर्भर करेगा. मैं कोई देवदूत नहीं हूँ भविष्य बताने वाला. यह सिर्फ़ एक चेतावनी है. दुनिया डूबने या प्रलय (एपोकैलिप्टिक) की कथाओं पर मेरा कोई विश्वास नहीं है. मेरी कोशिश है कि आगामी काल के ख़तरे से अधिक से अधिक लोगों को आगाह करूँ. यह बात जितने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचेगी, उतनी ही इसमें से रास्ता निकलने की संभावना बढ़ेगी. ज़्यादा जानकारी बेहतर निर्णय लेने के लिए मददगार ही होगी. स्वास्थ्य, विज्ञान, अन्वेषण जैसे अनेक क्षेत्रों में ‘एआई’ का सकारात्मक उपयोग हो ही रहा है! होना भी चाहिए. सवाल है इन अंतर्वर्ती ख़तरों का. तो इन पर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है.
अब आप पर की जानेवाली आलोचना पर बात करते हैं. ख़ासकर ‘नेक्सस’ के बाद. आपके द्वारा ‘सेपियंस’ लिखने के बाद और अब ‘नेक्सस’ के प्रकाशित होने पर क्या आपके और बुद्धिजीवियों के संबंधों में बदलाव आ गया है? (संक्षेप में, क्या आप लोकप्रियता के शिकार हो गए हैं, विद्वान ऐसा सोचते हैं?)
(हँसते हैं … सवाल का रुख़ पहचानते हैं) … जी, बताता हूँ, मैं अभी भी एक विश्वविद्यालय का प्राध्यापक हूँ. मेरे लिए अपनी वही भूमिका ज़्यादा महत्वपूर्ण है. मगर एक प्राध्यापक, इतिहास-संशोधक के रूप में जो कुछ मेरे हाथ लगता है, उसे सरल करके सर्वसाधारण को बताना भी तो मेरा प्राथमिक कर्तव्य है न …? पुरातत्व या उत्खनन मेरा काम नहीं है. मेरे लिए वह संभव भी नहीं है. मगर जिस किसी ने वह काम करके साक्ष्य-प्रमाणों के आधार पर शोधपरक लेखन किया हो, उसका अध्ययन कर, उसके अर्थ-संदर्भों के साथ उसे लोगों को बताना भी तो ज़रूरी है.
मैं अपने-आप को एकेडमिया से पृथक नहीं मानता. मगर मेरा काम ही है अध्ययन करना, प्राप्त ज्ञान का संश्लेषण (सिंथेसाइज़) करना और उसे लोगों को मुहैया कराना … वह लोकप्रिय हो जाता है, क्योंकि सामान्य पाठक पुरातत्व विभाग के प्रतिवेदन आदि पढ़ने तो जाएगा नहीं. इसलिए उसे इनका अर्थ बताया जाना चाहिए. अकादमिक दुनिया और जनता के बीच की मैं सिर्फ़ एक कड़ी हूँ! इतिहास सिर्फ़ इतिहास के प्राध्यापकों, जीवशास्त्र सिर्फ़ जीवशास्त्रियों तक सीमित रखने से कैसे काम चलेगा? विद्वत्ता सिर्फ़ विद्वानों तक सीमित रहे तो उसका क्या उपयोग? क्या ज्ञान कोई बैंक में जमा धनराशि है कि उसे ताले में बंद रखा जाए? कई विद्वान भारी-भरकम भाषा में लिखते हैं. सामान्य लोगों को वह समझ में नहीं आता. मैं अपनेआप को ‘पॉपुलर’ विद्वानों में शामिल मानता हूँ. हालाँकि इसमें भी एक प्रकार है, जो (‘पॉपुलर’ विद्वान) वैज्ञानिकता को महत्व नहीं देता. जो मन में आता है, वह लिखता हैं. मैं ऐसा नहीं करता. मैं हरेक शब्द वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही लिखता हूँ. विद्वत्ता और लोकप्रियता के बीच का मध्य साधना आना चाहिए.
विद्वान दो प्रकार के होते हैं. पहले प्रकार में शामिल हैं प्रयोगशाला में, विश्वविद्यालय में गहन-गंभीर अध्ययन-अध्यापन करने वाले, और दूसरे होते हैं जो जनसाधारण की समझ के अनुसार बताते हैं … भारत में सरल लिखने वालों को सतही माना जाता है. आपकी प्रस्तुति आइंस्टाइन के नज़दीक महसूस होती है …
संभवतः आइंस्टाइन इसके लिए उचित उदाहरण नहीं होगा. क्योंकि भौतिकशास्त्र काफ़ी कठिन विषय है. उसमें आइंस्टाइन का सापेक्षतावाद का सिद्धांत कितने लोग समझ पाते हैं? भौतिकशास्त्र रोज़मर्रा के जीवन में उस तरह लोगों को महसूस नहीं होता. मगर मेरे इतिहास के बारे में ऐसा नहीं है. उसे तथ्य, प्रमाणों के आधार पर आसानी से समझाया जा सकता है.
मैंने आइंस्टाइन का उल्लेख विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के संदर्भ में किया था … उनके पहले और बाद में भी अनेक वैज्ञानिक हुए, मगर आइंस्टाइन की लोकप्रियता तक और कोई नहीं पहुँच पाया.
फिर ठीक है … फिर भी तुलनात्मक रूप में मेरा विषय आसान …
आसान कैसे? भौतिकशास्त्र किसी भी चीज़ का ठोस जवाब देता है, मगर इतिहास में तो जैसे चाहे वैसा अर्थ निकालने की छूट होती है. क्या यह ख़तरनाक नहीं है? मैंने यह सवाल इसलिए पूछा कि हमारे यहाँ इतिहास को नये सिरे से गढ़ने की प्रक्रिया चल रही है …
(मेरी बात काटते हुए …) ये बहुत ख़तरनाक है. प्रामाणिक इतिहासकारों को घटनाएँ ख़ुद की कल्पना में नहीं गढ़ना चाहिए. सिर्फ़ घट चुकी घटनाओं की व्याख्या उन्हें करनी चाहिए. उसके प्रतिपादन के लिए प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिए … जो सच हों … नो वन हैज़ राइट टू इन्वेंट फैक्ट्स … और प्रमाण कैसे खोजे जाएँ, इसका शास्त्र सीख लेना चाहिए. इतिहास में किसी ने कुछ लिखकर रखा है इसलिए उसे तुरंत सच नहीं मानना चाहिए. अगर कोई राजा लिखता है … उसने युद्ध में दूसरे राज्य के हज़ारों सैनिक मारे. अब ये बात राजा ने लिखी है, इसलिए सच नहीं मानी जा सकती. यह बात सच है, इसे सिद्ध भी किया जाना चाहिए. आप उपन्यास में कुछ भी लिख सकते हैं … मगर इतिहास मौखिक या श्रुत पर आधारित नहीं हो सकता.
मगर ऐसा करना है तो सच को सामने लाना होगा और आप तो कहते हैं कि सच बहुत बोरिंग और कष्टप्रद होता है…
सही है. लोगों को सच बताने के बाद भी वे विश्वास नहीं करना चाहते. उदाहरण के लिए, गाज़ा पट्टी में ठीक-ठीक क्या चल रहा है, वहाँ के लोग कैसे जी रहे हैं, इसे समझने में न तो इज़राइलों की रुचि है और न फ़िलिस्तीनी इज़राइलों का पक्ष समझने के लिए तैयार हैं. सच का सामना कोई नहीं करना चाहता. इस परिस्थिति में सच अत्यंत महँगा मगर उतनी ही महत्वपूर्ण चीज़ बन गया है.
यह सवाल इसलिए किया क्योंकि असत्य एक्साइटिंग होता है. उसे सुनकर मज़ा आता है. इसलिए झूठी कहानियों पर विश्वास करने की लोगों की क्षमता और उसमें ‘एआई’ का जुड़ना, यह मुद्दा भारतीय परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्वपूर्ण है … यह जोड़ी अत्यंत विस्फोटक साबित हो सकती है…
बिलकुल सही. इसीलिए आप देखेंगे तो ध्यान में आएगा कि वर्तमान में ‘द वर्ल्ड इज़ फुल ऑफ़ एक्साइटमेंट’. सब लोग मानो उत्साह में उफन रहे हैं. सच कहा जाए तो लोग एक्साइटमेंट शब्द के सही अर्थ को भूलते चले जा रहे हैं. एक्साइटमेंट अच्छी होती है. जब परिचित दोस्त मिलता है, हम खुश होते हैं… यह ठीक है. अर्थात् इस एक्साइटमेंट के कारण अपना शरीर और मन दोनों उद्दीपित हुए हैं. मगर जब प्राणियों को ज़्यादा समय के लिए उद्दीपित अवस्था में रखा जाता है तो वे मर जाते हैं. मनुष्य भी एक प्राणी ही है, इस बात पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है. एक्साइटमेंट किसी ‘जंक फ़ूड’ जैसी है, जिसे अनेक लोग पसंद करते हैं. मगर जिस तरह वही ख़ाना खाते रहें तो हम जल्दी मर सकते हैं, वैसे ही एक्साइटमेंट बार-बार चाहने लगेंगे तो हमारा भी वही हाल होगा. डोनाल्ड ट्रम्प चुनाव में जीते, तुरंत एक्साइटमेंट! और फिर ट्रम्प तो एक्साइटमेंट पैदा करने में ज़रा ज़्यादा ही माहिर हैं. पर अब दुनिया को एक्साइटमेंट की ज़रूरत नहीं है. अब हमें बोरिंग राजनेता चाहिए. बोरिंग राजनेता, बोरिंग खबरें और इसी तरह की बोरिंग बातें. दुनिया अभी एक्साइटमेंट में लहालोट हो रही है. मगर अब शांति की आवश्यकता है. मौन की आवश्यकता है. मस्तिष्क को आराम की ज़रूरत है.
यही फ़र्क़ है प्राणी और ‘एआई’ में. हम प्राणी ही हैं. सभी प्राणी जैविक होते हैं. वे जीवन-चक्र का पालन करते हैं. वे हमेशा एक्साइट नहीं रहते. ‘एआई’ में यह बात नहीं होती. वह मानव नहीं है … इसीलिए वह हर-हमेशा एक्साइट रह सकता है और हमें एक्साइट कर सकता है … यह बताने पर बोरिंग राजनेता, बोरिंग खबरों का महत्व लोग समझ पाएँगे.
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यह साक्षात्कार 15 दिसंबर 2024, रविवार के अंक ‘लोकरंग’ में मराठी में छपा है. मराठी से इसका हिंदी अनुवाद उषा वैरागकर आठले ने किया
है. समालोचन लोकरंग के प्रति आभार व्यक्त करता है.
गिरीश कुबेर मुंबई से प्रकाशित मराठी दैनिक ‘लोकसत्ता’ के संपादक हैं. girish.kuber@expressindia.com |
उषा वैरागकर आठले
सन् 1985 से निरंतर मराठी से हिंदी अनुवाद और स्वतंत्र लेखन. राकेश वानखेडे का उपन्यास ‘पुरोगामी’, अण्णा भाऊ साठे का ‘फकीरा’, दि.के.बेडेकर की दो किताबें – ‘धर्मश्रद्धा : एक पुनर्विचार’ तथा ‘धर्मचिंतन’ के हिंदी अनुवाद प्रकाशित. ‘छत्तीसगढ़ी लोक-साहित्य और रंगकर्म’ तथा ‘जशपुर की लोक-संस्कृति’ पुस्तकें प्रकाशित. वर्तमान में इप्टा की राष्ट्रीय सचिव. |
एआई की महासत्ता भी शक्ति संरचनाओं के काम की है। उसे भी प्रभु सिस्टम ही चलाएगा।उगाही में,युद्ध में और प्रेशर टैक्टिक्स में इस्तेमाल कर ले जाएगा।कई जगहें होंगी जहां दोनों देश मिल कर, एक दूसरे के इरादों को संरक्षण देते दिखाई देंगे और हम कहेंगे,सब माया है!
बहुत रोचक बातचीत है। एआई और मनुष्य के अंतर्संबंधों और एआई के भयावह विकास के बीच मनुष्य के भविष्य पर अत्यंत तार्किक विमर्श पढ़ने को मिला। युवाल नोवा हरारी की यह बात बहुत रोचक लगी कि एआई में भले ही भावनाएं न हों वह भावनात्मक होने का अभिनय बहुत अच्छी तरह कर सकता है। उसमें प्रेम की अनुभूति भले न हो वह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कविता सुनाकर विश्वास दिला सकता है कि उसे प्रेम करना आता है।
बातचीत का अंत बहुत प्रभावी जहां वे बताते हैं कि एआई सतत एक्साइटमेंट में रह सकता है, लेकिन मनुष्य मन को एक्साइटमेंट के साथ सुकून भी चाहिए। वे कहते हैं, “एक्साइटमेंट किसी ‘जंक फ़ूड’ जैसी है, जिसे अनेक लोग पसंद करते हैं। मगर जिस तरह वही ख़ाना खाते रहें तो हम जल्दी मर सकते हैं, वैसे ही एक्साइटमेंट बार-बार चाहने लगेंगे तो हमारा भी वही हाल होगा। डोनाल्ड ट्रम्प चुनाव में जीते, तुरंत एक्साइटमेंट! और फिर ट्रम्प तो एक्साइटमेंट पैदा करने में ज़रा ज़्यादा ही माहिर हैं। पर अब दुनिया को एक्साइटमेंट की ज़रूरत नहीं है। अब हमें बोरिंग राजनेता चाहिए। बोरिंग राजनेता, बोरिंग खबरें और इसी तरह की बोरिंग बातें। दुनिया अभी एक्साइटमेंट में लहालोट हो रही है। मगर अब शांति की आवश्यकता है। मौन की आवश्यकता है. मस्तिष्क को आराम की ज़रूरत है। ”
हमारे यहां भी तो सतत एक्साइटमेंट देने वाली एक जोड़ी है। पर अभी लोग उनके एक्साइटमेंट के नशे में हैं। नशा टूटेगा तो बोरिंग नेता की बोरिंग बातों को भी तवज्जो मिलेगी।