कोरोना समय में मजदूरों को यह जो जगह-जगह से खदेड़ा गया जिसे पलायन जैसे नरम शब्द से ढँक दिया गया है, मनुष्य इतिहास की बड़ी त्रासदी है. दुनिया वैसी ही है. २१ वीं सदी पर पुरानी सदियों का वैसा ही अमानवीय बोझ है. न जाने कब इस महादेश में मजदूरों को ‘नागरिक’ होने का सम्मान मिलेगा.
एक कवि जो रेलवे में ओहदेदार है और जो शहर राजकोट में इस प्रपंच के बीच उनका खदेड़ा जाना देख रहा है. बंदिशों के बीच संभव मदद भी कर रहा है और लिख रहा है. ये कविताएँ इस चीख, पुकार, प्रार्थना के बीच लिखीं गईं हैं. इसमें भोक्ता और सृजक के बीच अपेक्षित सम्मानजनक दूरी नहीं है. कविताएँ किसी सिद्धांत की मोहताज नहीं रहतीं.
परमेश्वर फुंकवाल की ये कविताएँ प्रस्तुत हैं.
परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ
प्रस्तावना
इसमें न जीवनन कोई ऊर्जान खुद बढ़ सकने की हैसियतन जीवित न मृतन दृश्य न अदृश्यकिसी देवासुर कथा केतिलिस्म जैसाआसुरी चाह लिएयह निर्जीव कणजीवन की कोशिकाओं परतानाशाह बनकर हो गया है क़ाबिज़किसके दुखों सेकिन यातनाओं केप्रतिशोध मेंजन्मायह रसायनयह सूक्ष्मआरएनए का कणप्रोटीन की परत में लिपटाअपने काँटों सेछलनी करता पूरी पृथ्वी को?
पलायन
वे श्रमिक थेवे पैदल ही पार कर सकते थेप्रतीक्षाओं के पुलवे प्रतीक्षा नहीं कर सकते थेवे अँधेरे में चल रहे थेपर उन्हें भरोसा था उजाले परइस समय चलना ही ज़रूरी थाबात करना भीजिसके कंधे पर गठरी थीउसने बिटिया को गोद में उठाये राह चर से प्रश्न कियाकहाँ जाओगेउसे पता न थावह बस चल रहा थाहज़ार मील की दूरी पर जो घर वह छोड़कर आया थापता नहीं वह अब हो कि न होअब वहां पहुँच भी सकेगा कि नहींकौन जाने उसके दरवाजे खुले भी होंगे उसके लिएउसके गले में उत्तर में प्रश्न पूछने की भीआर्द्रता शेष नहीं थीसब कह रहे थेयह लड़ाई हम जीतेंगेयह लड़ाई समय मांगती हैदुनिया लड़ रही है शोध चल रहे हैंउसे बस चलते रहना है यही पता थाजिन उजालों की आस में वे चल रहे थेउसी की दस्तक परवह बच्ची अपने पिता को जगाने की जद्दोजहद में थीवह अपनी लड़ाई लड़ चुका थाअपनी दूरी चल चुका थापिछली रात इतना थक चुका थावह अब बस सोना चाहता थाउसे चिंता का बुखार थावह आवाज़ देना चाहता थाउसकी बंद साँसों में सूखी खांसी थीउसे कोरोना नहीं था.
वापसी (1)
वे जा रहे थेकिसी ने कहा था अब लौट चलोअपने वतन में जीना मरना जो भी होगा ठीक ही होगाराजकोट के प्लेटफोर्म पर दूर बने गोलों पर कतारों में खड़ेवे क्या सोच रहे थे?दो बच्चे प्लेटफोर्म पर लेटे आकाश को घूर रहे थेकेतन भाई ने उनके माता पिता को खाने के पैकेट दिएउनके लिए खिलौने भीकुछ टोफीयों के साथझाबुआ की बस्ती मेंया फिर काम परकहीं नहीं हुआ था उनका इस सब से सामनाउलट पुलट कर उसे बार बार देखकोशिश में थे कि पहचानें क्या हैऔर डर में कि कहीं कोई छीन न लेचेहरे को कपड़े से ढँक कर वे लौट रहे थेपर उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया थाक्या वे फिर लौटेंगे?केतन भाई कहते हैं हाँउनकी आंखें कहती हैं नहींपर स्टेशन पर यह बिदाईउनसे भुलाई नहीं जाएगीवे शायद फिर कभी सौराष्ट्र न आयेंउनकी यादों में सौराष्ट्र अवश्य आएगा.केतन भाई शायद इसे ही उनकी वापसी मानते हैं.
वापसी (2)
मैं जब वतन ले जाने वाली पहली गाडी पर गयाकेतन भाई उत्साह से मिलेउनका एक एन जी ओ हैकानुडा यहाँ कान्हा को कहते हैंउन्ही के नाम सेकहने लगेइन बारह सौ मजूरों काखाना पानी सबकी व्यवस्था कर दी हैफिर पूछने लगे अगली गाड़ी कब जाएगी?मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि परकहने लगे जितनी गाड़ियाँ जाएगीहम संभालेंगेवे स्टेशन पर उन्हें विदा जरूर कर रहे थेपर असल में वेउनकी वापसी पक्की करने आये थे.
वापसी (3)
उनके घर थे, चाल थीभरी पूरी गली थीतम्बू थेये धरती उनकी थीआसमान उनका थाकुछ बिहार थाकुछ यूपीथोड़ा बंगाल थोड़ा उडीसाथोड़ा थोड़ा मिलकर इन सबसे भीगुजरात बनता थाबच्चे जब घुल मिलकर खेलते थेएक ऐसा रसायन बनता थाजिसकी महक सेसौराष्ट्र की मिट्टी सौंधी हो उठती थीअब वीराने में कुत्ते भोंक रहे हैंबस्ती में अचानकएक रात आये अकेलेपन परउनके पास खाने को कुछ नहींसूनी दीवारेखाली आलेखुले दरवाजों से समय की गिलहरीकर रही है अन्दर बाहर आवाजाहीपीपल के पत्ते उस मीठे गीत की तलाश मेंजो मुंह अँधेरे चल पड़ा हैअनमने अमलतास और गुलमोहरबस्ती की धूल से अपनी उदासीकहने के लिए झर रहे हैंवे ऐसे गए हैंजैसे अब कभी नहीं लौटेंगेकौन जानता थाइन बस्तियों में इतने सूबे रहते थेरंगीले राजकोट के कितने ही रंगअचानक फीके हो गए हैंयह जो ट्रेन उन्हें लेकर जा रही हैखुश है उनके वतन लौटने की खुशी सेउधर से खाली लौटेगीऔर अपनी उदासी किसी से न कह सकेगी.
वापसी (4)
रात में किसी ने आवाज़ दीजाना चाहते हो?तम्बू के बाहर कोई पुलिस थामेघ नगर की ट्रेन कल सुबह लगेगीअपना पूरा सामान बांध करवे ट्रेन में बैठे थेमेघ नगरयही स्टेशन थाजहां से कभी चले थेउसे वे भूल बैठे थेअब वह उन्हें याद कर रहा थावे क्यों लौट रहे थे उन्हें नहीं पताऔर सच पूछें तोउन्हें आज लग रहा थावे अपना वतन छोड़कर चल पड़े हैंवे लौट रहे थेपर वे फिर लौटना चाहते थे
वापसी (5)
ऐसा भी नहीं था कि इतने दिनों यहाँकोई ख़ास मुश्किल थीरहने को जगहखाने को दो टाइम भोजनअब भी दुगुनी मजदूरी देने की बात थीपर अब उन्हें अपनी मिट्टी की गंध याद आ गई थीधरती और आकाश का खुलापनउनकी स्मृतियों में तैर रहा थाअम्मा की फोन पर भरभराती आवाज़उनके कानों में पसरे शोर को चीर रही थीअब उन्हें कोई नहीं रोक सकता थागंगा के कछारहूगली के तटउन्हें याद कर रहे थेवहां की हवा अब उनकी देह को भिगो रही थीएक-एक कर गिर रहे थेपेड़ों के पत्तेपर उनकी जड़ेंअभी भी जीवित थींवनों की हरियाली उनकी जड़ों में लौट रही थीसाठ दिनों की बंदी मेंपहली बाररोटी के अलावाउन्होंने कुछ सोचा थापहली बार जेहन में आया किभूख और प्यास के सिवा भीउनके पास कितना कुछ थाजो उनका अपना थाजिसके पास किसी भी समय लौटा जा सकता था
वापसी (6)
वह एक सौ सड़सठ वर्षों से चल रही थीवह रुकी तो इसलिएहम बचे रह सकेंउसके रुकने सेजैसे यह धरती ही निश्वास हो उठीइसका चलनाधमनियों में खून का चलना हैपटरियों का लोहापहियों की गति से प्रेम करता हैइस संक्रमण काल मेंकितने ही हैंचाबीवाले, कांटेवालेकोई अनाम फिटरसिग्नल मेंटेनरस्टेशन मास्टर गार्डलोको पायलटसुरक्षा प्रहरीटिकट परीक्षकसब लौट रहे हैंये रुके हुए हैं अपने काम परइनके रुकने सेचल पड़ी हैयह दुनियास्टेशन से रवाना होने वालीट्रेन परये करतल ध्वनि से विदा कर रहे हैंअपने जैसे कइयों कोकि अपनों कोप्लेटफोर्म को सूना छोड़ जाती ट्रेनइनकी आँखों की नमी मेंधुंधली होती जाती हैट्रेन से एक अबोध बालक इनकी ओर देख हाथ हिलाता हैइनके नाम मैं हजारों सलाम लिखता हूँ.
उपसंहार
जानाऐसे जैसेमिट्टी के ही पासअंततः चले जाते हैंसाँसों के कणअग्नि के पास चली जाती हैदेह में घुली सारी राखआकाश में चला जाता हैप्रकाशनदी में चला जाता हैबारिश का सारा जलजानाएक नए जन्म के लिएपर लौट कर आनाऔर तब देह के स्पर्श से नहींकरुणा और प्रेम से तरआत्मा से छूनाकोई आस की दवाकोई बाकी रह गया आसीसले आनायही रहे हैं हमेशा भारीहर आततायी परइस बार भी पड़ेंगेजीवन के इन करोड़ों प्रतिकणों परएक सौ पच्चीस नेनोमीटर केइस विषाणु के पहले और बाद कीदुनियाओं के बीचयह विशाल फांकजो लील रहीकितने ही अपनों कोहमसे ही पाटी जाएगीहमारी ही आँखों में होगीवह रोशनीजो इस अंधी सुरंग के पार है.
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