समकालीन संस्कृत कविताएँ बजरंग बिहारी तिवारी |
भारतीय जीवन में संस्कृत का विशेष स्थान होने के कारण संस्कृत कविता से भी विशेष अपेक्षाएँ की जाती हैं. इन अपेक्षाओं में कहीं दूरारूढ़ कल्पनाएँ विराजती हैं और कहीं पूर्वग्रह सक्रिय होते हैं. वस्तुस्थिति का ज्ञान बहुत कम लोगों को होता है. कवि और अध्येता कौशल तिवारी द्वारा अनूदित प्रतिनिधि संस्कृत कविताओं का संग्रह ‘अवधूत कापालिकों का मार्ग और अन्य कविताएँ’ इस अनभिज्ञता को कम करने का सराहनीय यत्न करता है. यों तो संस्कृत कविता का रेंज पर्याप्त विस्तृत है लेकिन कौशल ने अपने संग्रह हेतु अनुवाद के लिए उन्हीं कविताओं को चुना है जो मुक्तच्छंद में हैं. कविताओं का चयन अनुवादक ने बहुत सूझ-बूझ से किया है.
कौशल के पास अपनी विचार-दृष्टि है और उससे उपजी व रची साहित्य-दृष्टि. यह संग्रह साबित करता है कि संस्कृत कविता अन्य भारतीय भाषाओं के काव्य-जगत के साथ हमक़दम होकर चल रही है. विश्व में चल रही घटनाएँ इसे भी संवेदित करती हैं और यह भी स्वयं को अद्यतन करती चलती है. यह देश और दुनिया अभी विकट विषम स्थितियों में है. इस विकट विषमता का अनुभव संग्रह से गुज़रते हुए बारंबार होता है. कदाचित इसी विषमता की झलक हमें चयनित कवियों और कविताओं की संख्या में मिल जाती है. कवि और कविताएँ दोनों विषम संख्या में हैं- सत्रह कवियों की 73 कविताएँ! राधावल्लभ त्रिपाठी की एकादश कविताओं से संग्रह का आरंभ होता है. इतनी ही कविताएँ हर्षदेव माधव की भी हैं.
अपने व्याख्यानों में राधावल्लभ जी तीन कवियों का विशेष रूप से स्मरण करते हैं- कालिदास, तुलसीदास और जयशंकर प्रसाद. इस महादेश की अन्तश्चेतना का अधिकांश इन महाकवियों की वाणी में अंतर्भूत है. ये तीनों ही रचनाकार मनुष्य की नियति को शेष-सृष्टि से जोड़कर देखते हैं. प्रकृति उनके यहाँ निर्णायक है. अभिज्ञानशाकुन्तल के मंगलाचरण में गोचर किंवा प्रत्यक्ष प्रकृति को ही परमतत्त्व का प्राकट्य माना गया है.
प्रसाद जी रचित महाकाव्य ‘कामायनी’ में देव-सभ्यता तब नष्ट होती है जब वह स्वयं को प्रकृति का शास्ता समझ लेती है और अपने सुख के लिए उसका अगाध-अनियंत्रित दोहन करती है-
सुख, केवल सुख का वह संग्रह, केन्द्रीभूत हुआ इतना;
छाया पथ में नव तुषार का, सघन मिलन होता जितना.
अपने को पंचमहाभूतों का मालिक मानकर विलासिता में डूबी देव-सभ्यता को प्रकृति बड़ी निष्ठुरता से नष्ट कर देती है-
पंचभूत का भैरव मिश्रण, शंपाओं के शकल-निपात,
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ खोज रही ज्यों खोया प्रात.
‘धरती’, ‘आकाश’ और ‘बीज’ शीर्षक कविताओं में राधावल्लभ सुख-संग्रह में व्यस्त गुमान-भरी मानव-जाति को आसन्न संकट का भान कराते हैं-
ऐसा नहीं हुआ था कि
दुर्दान्त दानव की तरह यह सागर
अपने सींगों को पैना करके
दौड़ पड़े इस धरती को ही
निगलने के लिए,
यह सागर तो नहीं है
जाना-पहचाना,
कभी नहीं देखा इसने
सागर का ऐसा भयावह रूप,
इस सागर का क्या करे यह धरती?
मानसिक शांति हेतु विस्मृति का आह्वान करते ‘कामायनी’ के मनु प्रलयकाल को याद करने से खुद को रोक नहीं पाते-
सबल तरंगाघातों से उस क्रुद्ध सिंधु के, विचलित-सी
व्यस्त महा कच्छप-सी धरणी, ऊभ-चूभ थी विकलित सी.
आशा करनी चाहिए कि प्रकृति को तेजी से तबाह करती जा रही ‘विकासोन्मुख’ दंभी सभ्यता कवि की चेतावनी पर ध्यान देगी.
हर्षदेव माधव ने अकेले संस्कृत कविता का इतना विस्तार किया है कि उतना कई कवि मिलकर भी नहीं कर सकते. वे सिद्ध कवि हैं. आधुनिक जीवन के नवीनतम चित्र उनके यहाँ देखे जा सकते हैं. हर्षदेव अपने शैल्पिक नवाचारों के लिए उचित ही ख्यात हैं. उनकी निगाह विश्व-प्रपंच में उतनी नहीं रमती जितनी गृहस्थी के समीकरणों, विधानों में. वे अकेले पड़ते जा रहे बुजुर्गों की पीड़ा का संज्ञान लेते हैं और दुखों, प्रत्याघातों से जूझती गृहणी की व्यथा को वाणी देते हैं. अपनी ‘अनुपस्थिति’ के परिणामों की चर्चा करते हुए वे घरेलू माहौल को पूरी बारीकियों के साथ जीवंत उपस्थिति में ला देते हैं. ‘डस्टबिन’, ‘स्नानघर’ और ‘क्योंकि’ शीर्षक कविताओं में हम इसी घरेलूपन का विस्तार देख सकते हैं. रचते जाने की आंतरिक बेचैनी हर्षदेव माधव से प्रभूत साहित्य का उत्पादन तो करवा रही है लेकिन उस बेचैनी की रिक्ति का अहसास भी दे रही है जो सच्चे कवियों को पढ़ने पर होती है. ‘साड़ी’ शीर्षक कविता-शृंखला में उनकी पश्चगामी दृष्टि के दर्शन होते हैं-
जब साड़ी
बन जाएगी किंवदन्ती
तब संस्कृति भी हो जाएगी
वैकुण्ठ-वासिनी.
मृत्यु-महिमा का गायन करने वाले देवदत्त भट्टि उस शहर की भी पहचान करते हैं जो आदमी की पहचान छीन लेता है, जो जल्दी भूल जाता है, जो अपनी धुन में अपनों को बिसार देता है. देवदत्त की ‘हम’ नामक कविता परिचित और प्रचलित अवसाद की सुघड़ अभिव्यक्ति है. ‘याचना’ में उनका वाचक अधिकार-बोध संपन्न है. यह ‘सह नाववतु. सह नौ भुनक्तु.‘ की औपनिषदिक परंपरा में होते हुए भी नवीन प्रस्थान वाली है. अरुणरंजन मिश्र की कविताओं में प्रेमानुभव के हृदयग्राही चित्र हैं. ‘सूर्यशिखा’ में नैरेटर की प्रेयसी भीषण और कोमल दोनो स्थितियों में बनी रहकर अपनी अनिवार्यता रेखांकित करती है. उसकी मनःस्थिति का समान प्रतिसाद देता हुआ नायक प्रेमकथा को समतल बनाता है.
लक्ष्मीनारायण पाण्डेय की ‘सूचना’ कविता में आया कवि अपने आस-पास की दुनिया से प्रतिश्रुत है. परम्परा-प्राप्त कवि-समय विकराल यथार्थ के सम्मुख सूख रहा है. ऐसे में मानसरोवर का राजहंस भग्नहृदय लिए वापस जाने को तैयार है. विवसना नदी सूख गई है. भँवरा अब पत्थरों को अपना गान सुनाता है. चाँद रोटी में बदला जा चुका है. भूखे बच्चे को देखकर खिन्न रात डूब रही है. शब्द चाहते हैं कि कवि उन्हें न पढ़कर लोगों के चेहरे पढ़े. जिंदगी के लिए मर रहे लोग चिंतामग्न कवि को जगाए रखते हैं. जाग्रत कवि इस दुनिया को त्यागकर अपने सुरक्षित किंतु काल्पनिक जगत में नहीं जाएगा. ‘हे राजन’ कविता में वह नाउम्मीदी तोड़ने के लिए कटिबद्ध नज़र आता है. सभाकवि बनकर उसे मांसल शृंगार की कविताएँ करना नामंज़ूर है. प्रवेश सक्सेना ‘आज़ादी के दिन’ शीर्षक कविता में शब्दाडंबर से कटु यथार्थ को ढँकने में माहिर प्रधानमंत्री की तस्वीर एक ‘कंट्रास्ट’ में पेश करती हैं. लालकिले की प्राचीर से बोली जाने वाली मोहक और लच्छेदार शब्दावली अपना सत्त्व और स्वत्व खो चुकी है. अपनी शेष कविताओं में वे संकटग्रस्त स्त्री जीवन के दृश्य उपस्थित करती हैं.
सरोज कौशल ‘आम्रपाली’ शीर्षक कविता में काव्य-नायिका (आम्रपाली) की जीवन-यात्रा को पूरी सहानुभूति के साथ उकेरती हैं. वे बुद्ध को उनकी अप्रतिम करुणा के लिए याद करती हैं. रीता त्रिवेदी अपवित्र इरादे से किए जाने वाले अतीत-उत्खनन के भयावह परिणामों से सावधान करती हैं. ‘क्षण विशेष’ कविता में वे भूलने का महत्त्व बताती हैं लेकिन पुनः स्मृति के सम्मोहन की ओर मुड़ जाती हैं. उनकी ‘मंदिर’ शीर्षक कविता एक बार फिर ‘शाकुंतल’ के मंगलाचरण की याद दिलाती है. पहाड़ों को तोड़कर, पीसकर, जंगलों का सफ़ाया करके जो शहर बसाया गया और उसके मध्य स्वर्ण-कलश मंडित भव्य मंदिर खड़ा किया गया; क्या वहाँ रहने ईश्वर आएगा?
दूर-सुदूर स्थित ईश्वर
देखता है
निःश्वासों के साथ,
सोचता है कि
कहाँ रहूँगा अब मैं?
हे इंसान!
दे दो मुझे वापस
अपना घर..
प्रमोद कुमार नायक की वैचारिकी बड़ी पुख्ता प्रतीत होती है. वे वर्गबोध से संपन्न कवि हैं. सम्पत्ति की निर्णायक भूमिका से वे अवगत हैं. ‘सेठों का सूअर’ कविता में वे धनहीन मनुष्यों की दुर्गति और सेठाश्रित सूअर की सुगति का यथार्थ प्रस्तुत करते हैं. सम्मानित वह जो सम्पन्न है, जो उच्च वर्ग से संबंधित है जबकि
चिताग्नि में
जल जाता है
ग़रीब का शरीर
लेकिन रहती है
वैसी की वैसी ही
ग़रीबी उसकी, उसकी वसीयत में
अथवा
लेनदार के खातों में.
समय बदला. राजनीति बदली. दूसरों को ठगने में राजा और माहिर हुआ. जितना अधिक झूठ उतनी सत्य पर दावेदारी. शारंगरव का यह कथन अब भी कितना यथार्थ है-
परातिसन्धानमधीयते यै-
र्विद्येति ते सन्तु किलाप्तवाचः.–
ठगविद्या को एक शास्त्र के रूप में हृदयंगम करने वाले परम सत्यवादी हो गए. जब कवि सभा में विराजता था तो वह राजा के अनुचित कृत्यों पर सीधे कुछ नहीं कहता था. वह वक्रोक्ति, अन्योक्ति का सहारा लेता था. पुराने समय में राजा और राजनीति पर बहुत-सी टिप्पणियाँ अन्योक्तियों में हैं. कवि-धर्म का पालन और अपने जीवन की रक्षा इसी तरह की जाती थी. राजनीतिक कविता के इतिहास पर बात करते समय इस युक्ति का संज्ञान लिया जाना चाहिए. एक रास्ता महाकवि कालिदास दिखा गए हैं.
‘मालविकाग्निमित्र’ नाटक का नान्दीपाठ (मंगलाचरण) राजनीतिक कविता का ही उत्तम उदाहरण है. ऐसा राजा जो जनता की गाढ़ी कमाई को अपनी मँहगी पोशाकों के शौक पर उड़ाता हो, जिसमें वासना कूट-कूट कर भरी हो, जो दंभ का पुतला हो उसे आईना दिखाने के लिए देवाधिदेव शिव का उदाहरण प्रस्तुत किया जाना समीचीन था. प्रमोद कुमार नायक ने इस युक्ति का सदुपयोग करते हुए उसका बड़ा सामयिक अन्यथाकरण अपनी ‘आत्मप्रतिष्ठा’ कविता में किया है. राजा आत्ममुग्ध हो, तानाशाह हो, षड्यंत्र-निपुण और क्षमाभाव से रहित हो तो ऐसी युक्ति अपनाई जाती है. ‘आत्मप्रतिष्ठा’ के द्वारकाधीश बड़े मित्र-वत्सल हैं. वे अपने बालसखा सुदामा की बड़ी आवभगत करते हैं. भरी सभा में सपत्नीक उनके पाँव धोते हैं. यह सब कुछ ‘स्क्रिप्टेड’ है, पूर्वयोजनानुसार है. राजा की कैमरा टीम हर गतिविधि कैप्चर करने के लिए सन्नद्ध है. अखबारों में हर दिन राजा को अपनी फोटो दिखनी चाहिए. निकटस्थों को नेस्तनाबूद करने वाले नरेश को प्रजावत्सल, सखावत्सल दिखना चाहिए. अपने नाम का जयकारा लगाने वाली सुनियोजित भीड़ को, ज्ञानी प्रशस्तिकारों को, चरणचुंबक रिपोर्टरों को समय-समय पर अवसर भी उपलब्ध करवाते रहना है. सुदामा का सत्कार-आयोजन ऐसा ही एक अवसर है. इस प्रवृत्ति को अनावृत करना कवि का दायित्व है. वह जोख़िम उठाकर यह काम करता है. सम्मोहित जनता देर-सबेर समझेगी-
सखि रे!
आत्मप्रतिष्ठायै एषा एव उत्तमा सरणी,
अनिच्छयापि, साध्यते दरिद्रपूजनम्.
प्रवीण पण्ड्या आचार्य-कवि हैं. पर्यवेक्षण संवलित, शास्त्रमंडित विदग्धता उनकी कविता को विशिष्ट बनाती है. ‘सप्तपदी’ कविता में वे जेंडर-संवेदी पुरुष की माँग करते हैं. प्रियतमा की तरफ से की जाने वाली यह माँग कांतासम्मित काव्य का नवीन उदाहरण है-
पुरुष!
नदी बनकर
खो जाना चाहती हूँ तुम में
तुम भी तो दिखाओ मुझे
लहरों से युक्त
अपना समुद्र्पन..
ऋषिराज जानी अपनी कविता के लिए ऐसे शब्दों की खोज में हैं जो निष्कलुष हो, अनघ हो. उनके काम्य शब्दों का अब तक दुरुपयोग ही हुआ है. आदिवासियों को लेकर उनकी चिंता संस्कृत कविता में एक बड़े अभाव की पूर्ति करती है. नितेश व्यास नई हृदयहीन राजनीति को समझते हैं. वे इसीलिए राजा की पालकी को कभी अपने कन्धों पर उठाने वाले जड़ भरत से वर्तमान भारत त्याग देने को कहते हैं. नए राजा को उसके कर्तव्य का बोध कराना अपने लिए संकट आहूत करना है. धर्म की जो नई संस्कृति रची गई है वह असहिष्णु है, उन्मादी है, हिंसक है. वह किसी विवेकवान व्यक्ति को बर्दाश्त नहीं कर सकती-
मत सिखाओ
राजा को उसका कर्तव्य,
मत दिखाओ उसे दर्पण,
वह तोड़ देगा उसे
और जोत देगा तुम्हें
किसी नए जुये में.
तुम बस चले जाओ,
मत आओ
श्रीमद्भागवत के
किसी प्रसंग में भी
कि भजन गाती-झूमती
कथा-मंडली को
चुभती है
तुम्हारी जाग्रत-जड़ता
चले जाओ
स्मृति से भी..
कौशल तिवारी प्रश्नाकुल कवि हैं. वे परंपरा से प्रश्न करते हैं. वर्तमान से सवाल पूछते हैं. अपनी कविताओं में वे जातिसत्ता, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता और राजसत्ता से प्रश्नधर्मी संवाद चलाते हैं. जरत्कारु से पूछे गए उनके सवाल संततिक्रम और स्वर्ग-नरक की अवधारणाओं पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करते हैं. ‘अप्सरा’ शृंखला की कविताओं में उन्होंने देवत्व को कटघरे में खड़ा किया है और अप्सराओं को मानवी बनाने, मानने की माँग की है. ‘दलितों से संवाद’ करते हुए वे आत्मग्लानि की उद्विग्न, ज्वलनशील प्रक्रिया से गुज़रते हैं और आत्म-प्रक्षालन का रास्ता बनाते हैं. अनुभव के आलोक में सत्य को स्वीकारने का साहस कौशल में है. वे समतामूलक, न्यायप्रिय, प्रेमपूर्ण समाज बनाने के पक्ष में अपनी कलम चलाने वाले संभावनाशील कवि हैं.
मुझे उम्मीद है कि व्यापक पाठक वर्ग इस अनूदित काव्य-संग्रह को उत्सुकतापूर्वक पढ़ेगा और प्रासंगिक मुद्दों पर बहस करेगा. मैं कौशल तिवारी को उनके इस कार्य के लिए साधुवाद देता हूँ.
अवधूत कापालिकों का मार्ग और अन्य कविताएँ
चयन और संपादन : कौशल तिवारी
पुस्तकनामा/ गाजियाबाद उत्तर प्रदेश
मूल्य: 250
बजरंग बिहारी तिवारी जाति और जनतंत्र : दलित उत्पीड़न पर केंद्रित (2015), दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा (2015), भारतीय दलित साहित्य: आंदोलन और चिंतन (2015) बांग्ला दलित साहित्य: सम्यक अनुशीलन (2016), केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य (2020), भक्ति कविता, किसानी और किसान आंदोलन (पुस्तिका, 2021) आदि पुस्तकें प्रकाशित. भारतीय साहित्य: एक परिचय (2005), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी कहानियां (2012), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (2013), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी आलोचना (2015) आदि का संपादन |
बहुभाषाविद्, मर्मज्ञ विद्वान्, श्री कौशल जी तिवारी को सुंदर अनुवाद हेतु बहुत-बहुत साधुवाद।
कौशलजी कीविता पसंद करने की दृष्टि सराहनीय है।उन्होंने मार्मिक सहृदय हो कर कविता को चुना है।
आदरणीय बजरंगजी आधुनिक विवेचकों में ख्याति प्राप्त है ।वे संस्कृत साहित्य के भी मर्मज्ञ विद्वान हैं ।
यह संग्रह आधुनिक कविता की बडी उपलब्धि है।
निसंदेह यह कविता संग्रह आधुनिक संस्कृत की प्रगतिशीलता का द्योतक है
यह अनुशासनात्मक काव्य देववाणी संस्कृत भाषा एवं हिंदी भाषा के सामंजस्य की प्रगतिशीलता का नवीन मार्गदर्शक हैं। कौशल जी को इस नूतन प्रयोग के लिए साधुवाद 🙏🙏🙏💐
बजरंग का यह रूप (सँस्कृत साहित्य के पारखी वाला रूप) देख जान कर मुदित और आश्चर्यकिचकित हूँ।
नये जमाने के नामवर सिंह बनें, ऐसी मनोकामना और विश्वास है।
समीक्षा पढ़ कर लगा कि मूल पुस्तक पढ़ना बेहतर होगा।