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समालोचन

Home » मेरा दोस्त दानिश : तनुज सोलंकी

मेरा दोस्त दानिश : तनुज सोलंकी

इस कहानी को पढ़ने के बाद मैंने खुद को यह याद दिलाने की कोशिश की कि साँस कैसे ली जाती है. इसमें जितना योगदान इस कहानी का है, उतना ही इसके अनुवादक का भी. तनुज सोलंकी भारतीय अंग्रेज़ी कथा-साहित्य की बड़ी संभावना की तरह हैं. यह कहानी मुज़फ़्फरनगर जैसे छोटे शहर के दो दोस्तों की है, जिनमें से एक का नाम दानिश है. यह कहानी आपको बेचैन करती है, विह्वल करती है और सोचने पर मजबूर कर देती है. यह एक बड़ी कहानी है—प्रस्तुत है.

by arun dev
May 24, 2025
in अनुवाद
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मेरा दोस्त दानिश : तनुज सोलंकी
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मेरा दोस्त दानिश
तनुज सोलंकी


अनुवाद : भारतभूषण तिवारी

मेरी सोलहवीं सालगिरह के चार महीने बाद पापा ने मेरे लिए होंडा एक्टिवा ख़रीदी थी. इस बात की मुझे कानों-कान ख़बर न थी जब तक वे उसे चलाते हुए नहीं आए और अहाते में खड़ा न कर दिया. पहले कुछ क्षण तो मुझे लगा कि उन्होंने वह स्कूटर ख़ुद के लिए ख़रीदा है. यह भी ख़ुश होने की ठीक-ठाक वजह थी क्योंकि मैंने कल्पना कर ली थी कि गाहे-बगाहे वह स्कूटर मैं भी चला सकूंगा. फिर उन्होंने मुझे पास बुलाया और उसका इलेक्ट्रिक स्टार्ट मेकेनिज़्म कैसे काम करता है, यह दिखलाया.

गाड़ी में एक मद्धम गुरगुर होने लगी. इस बीच मम्मी ने हेडलाइट के ठीक ऊपर अपनी उँगलियों से सिन्दूरी स्वस्तिक बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी. एकबारगी वे पापा की तरफ़ देखकर मुसकुराईं और चूँकि उन दोनों के बीच मुस्कुराहट आम बात न थी, मैं तुरंत समझ गया कि यह लम्हा ख़ास था. फिर दोनों ने मेरी तरफ़ देखा और हँस पड़े और मुझे पता चल गया कि एक्टिवा मेरे लिए थी.

मुझे पता था कि स्वास्तिक आँख की किरकिरी बना रहेगा लेकिन यह बात मैंने मम्मी से नहीं कही क्योंकि मेरे हिसाब से उन्हीं की वजह से स्कूटर मुमकिन हो पाया था. पिछले साल उन्होंने कई मौक़ों पर पापा के सामने यह रट लगाई थी कि मैं कैसे अपनी साइकिल पर सारे शहर की ख़ाक छानता हूँ, कैसे हाँफते हुए स्कूल से पहले एक ट्यूशन फिर वहाँ से दूसरे और फिर तीसरे पहुँचकर थका-माँदा नौ बजे घर लौटता हूँ और उस वजह से फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स की पढ़ाई में ज़ोर नहीं लगा पाता. मम्मी की नसीहतों के बरअक्स पापा का जवाब यह होता कि अपने ज़माने में वे ख़ुद कैसे बसों के पीछे लटके-लटके स्कूल पहुँचा करते थे, कैसे तब ट्यूशन नहीं होते थे, कैसे अध्यापक पढ़ाने नहीं आते थे वगैरह-वगैरह. मगर फिर मैंने ग्यारहवीं में टॉप किया और सूरतेहाल बदल गई.

मेरे नतीजों ने मेरे माता-पिता के मेरे आइआइटी चयन के ख़्वाब जगा दिए थे और इस तरह वह स्कूटर एक इनाम कम और अति महत्त्वपूर्ण बारहवीं कक्षा को लेकर निवेश अधिक था. अब यह बात उन्हें नहीं पता थी कि मेरी टॉप पोज़िशन पीसीएम नंबरों के कारण नहीं बल्कि अंग्रेज़ी में औरों के मुक़ाबले मिले दस अंकों के कारण मुमकिन हो पाई थी (अंग्रेज़ी में मुझसे ज़्यादा नंबर केवल भारत गोयल के आए थे लेकिन दूसरे विषयों में उसका प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा था और वैसे भी उसकी शोहरत स्कूल की वार्षिक पत्रिका में बड़े दिखावटी अंदाज़ में ‘बी’ नाम से कविताएँ भेजने वाले की थी).

एक और बात यह थी कि दसवीं के बाद क्लास में टॉप करना उतना मुश्किल नहीं रह गया था क्योंकि कोई ढंग का प्रतिद्वंद्वी बचा ही नहीं था. आम रवायत थी कि दसवीं के बाद मुज़फ़्फ़रनगर के प्रतिभाशाली छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए बेहतर कोचिंग की तलाश में कोटा, मेरठ और दिल्ली चले जाते हैं. हालाँकि सबका अंजाम ख़ुशनुमा नहीं होता, कुछ हौलनाक कहानियाँ भी थीं. जैसे होली एंजेल्स कॉन्वेंट स्कूल के टॉपर रहे शिवांग गुप्ता का मामला जो इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए कोटा गया था मगर बोर्ड की परीक्षाओं में पास भी नहीं हो पाया.

अफ़वाह तो यह भी थी कि उसने शराब पीना और गुटखा खाना भी शुरु कर दिया था. दसवीं के बाद दिल्ली चली जाने वाली एक लड़की ख्याति शर्मा एक लफ़ंगे के साथ भाग गई थी. साल में एक न एक ऐसी कहानी तो सुनने को मिल ही जाती थी और उन्हीं का असर मेरे माता-पिता पर पड़ा होगा.

‘तुम हमारे साथ मुज़फ़्फ़रनगर में ही रहोगे, सुरक्षित और स्वस्थ,’
शहर छोड़ने का सवाल उठने पर मम्मी ने कहा था.

‘तुम्हें अपने आप पढ़ने की आदत डालनी होगी,’
पापा ने आगे जोड़ा था.

और मुझे मुज़फ़्फ़रनगर में रह जाने में कोई दिक्कत नहीं थी. उस वक़्त माता-पिता से अलग रहना मेरे तसव्वुर से बाहर की बात थी और मैं अगले दो साल और घर में बने रहने को लेकर ख़ुश था.

दो)

मम्मी के अनुष्ठान संस्कार पूरे हो जाने पर पापा और मैं स्कूटर का चक्कर लगा आए. मैंने जाट कॉलोनी की तंग गलियों में स्कूटर चलाया. एकबारगी एक गाय की पूँछ हेडलाइट को छू गई. इसे छोड़कर और कोई वाक़या नहीं हुआ. और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कॉलोनी में कुछ मकानों के सामने ठीक सड़क पर गायों के लिए शेड बना लिए गए थे और स्कूटर निकाल ले जाने के लिए कभी-कभी बँधी हुई गाय के एकदम क़रीब से जाना पड़ता.

तंग गलियों में मेरी ड्राइविंग से मुतमइन होकर पापा ने मुझे गाड़ी महावीर चौक की तरफ़ मोड़ने को कहा.
‘देखते हैं कि तुम ट्रैफ़िक वाली जगह में चला पाते हो या नहीं,’

वे बोले. मैंने गोल चक्कर लगाया और फिर मुड़ने वाली राह पकड़ी जो सदर बाज़ार जाती थी. दसेक मिनट के बाद पापा बोर हो गए और कहने लगे,
‘छह साल तक साइकिल चलाकर तुम्हारी ट्रेनिंग पक्की हो गई है. मुझे लगता है तुम ठीक-ठाक स्कूटर चला लेते हो. ’

‘कोई दिक्कत नहीं होगी,’ मैंने सहमति जताई.

उसके बाद कुछ देर हम ने कोई बात नहीं की. घर पहुँच कर अहाते में स्कूटर पार्क करते समय पापा ने कहा,
‘ख़याल रहे कि कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं करनी है इसके साथ.’

‘मतलब ऊबड़-खाबड़ जगहों पर ले जाना? गड्ढ़ों वाली सड़कों पर? या रेत पर?’
मैंने मज़ाक की ग़रज़ से पूछा.

‘मतलब तुम अच्छी तरह जानते हो,’
पापा बोले.

लगता है कि मैं जानता था उनका मतलब. मुज़फ़्फ़रनगर अमूमन एक शांत क़स्बा था, बस उन मौक़ों को छोड़कर जब उसका बदसूरत चेहरा नुमायां हो जाता. और ऐसे अपवाद बहुत हुआ करते. अल्हड़ उमर के लड़के लड़कियों से जुड़े हुए लफ़ड़ों को सुलझाने का उस क़स्बे का अपना ख़ास और एकदम सीधा तरीक़ा था. चार साल पहले ग्यारहवीं के एक लड़के ने जोश में आकर ट्यूशन क्लास के आगे एक लड़की के पीछे की तरफ़ चिकोटी काट ली थी तो जो ख़ून-ख़राबे से भरा क़हर बरपा हुआ था उस से आख़िरकार एक अनकहा नियम स्थापित हुआ: लड़के और लड़कियों के ट्यूशन का वक़्त अलग-अलग रखा जाए.

लड़के-लड़कियों को एक ही वक़्त बुलाने का ख़तरा ट्यूशन मास्टर विरले ही उठाते और जब ऐसा किया जाता तो वे एहतियात बरतते कि दोनों ग्रुप एक-दूसरे से सुनिश्चित दूरी बनाए रखें.

दसवीं कक्षा के बाद जो अनिवार्य परिवर्तन मेरे लिए हुआ वह था स्कूल का बदलना. दसवीं तक मैं होली एंजेल्स कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ता था जिसे प्रौढ़ा मलयाली सिस्टरें चलाया करतीं जो किसी बड़े से ईसाई मिशन (जिसका नाम मुझे याद नहीं) से जुड़ी थीं. हालाँकि वे बिना किसी सवाल-जवाब के लड़के लड़कियों को आपस में घुलने-मिलने देतीं लेकिन एक उम्र के बाद लगातार घुलना-मिलना उनके हिसाब से एक प्रशासकीय चुनौती थी जो मिशन के लिए ख़तरनाक भी हो सकती थी. इसीलिए दसवीं के बाद वह स्कूल कन्या विद्यालय होकर रह जाता. लड़कों को स्कूल छोड़ने को कहा जाता जो हमारे लिए अच्छी बात नहीं थी क्योंकि होली एंजेल्स ज़िले में सर्वश्रेष्ठ माना जाता था जो मेरठ और हरिद्वार जैसे पड़ोसी ज़िलों के अंग्रेज़ी मीडियम स्कूलों को कड़ी टक्कर दे सकता था. जो लड़के शहर नहीं छोड़ते, उन्हें सनातन धर्म (एस.डी.) पब्लिक स्कूल में जाना पड़ता क्योंकि जिसे अंग्रेज़ी मीडियम में ही बने रहना हो उसके लिए एस. डी. पब्लिक ही सबसे अच्छा विकल्प था.

इस बदलाव के कारण होली एंजेल्स की हमारी दोस्त लड़कियाँ, जिनके साथ हम किंडरगार्टन से बड़े हुए थे, छूट जाया करतीं. लम्बी दोस्तियाँ तो टूटती हीं, कुछ पनपते रोमांस भी दम तोड़ देते. दरअसल होली एंजेल्स का आख़िरी महीना बाहर जाने वाले बैच के लिए ख़ासा नाटकीय होता. अफ़वाहें गर्म होतीं कि बास्केटबॉल कोर्ट के पीछे वाले शेड में कुछ लड़कियाँ अपने बॉयफ्रैंड्स को बोसों से नवाज़ती हैं.

मुझे याद है कि गुंजन को, जो हमारे बैच की सबसे हसीं लड़की थी, उसी समय मेरे दोस्तों की तरफ़ से बहुत से प्रपोजल (आख़िर किस चीज़ के प्रपोज़ल मैं सोचा करता) मिले थे.

जो भी हो स्कूलों के बदलने से हमें अपने लड़के और लड़कियाँ होने का अहसास हो जाता. मुश्किल यह थी कि यह तब होता जब हमारे अपने शरीर इस फ़र्क़ को साबित करने पर आमादा होते.

एस.डी. पब्लिक स्कूल में होली एंजेल्स से आए प्रवासियों के लिए चीज़ें मुश्किल थीं. हम सब को एक ही सेक्शन में भर दिया जाता. चूँकि अब वहाँ हमारे इर्दगिर्द लड़कियाँ नहीं थीं, हमें वाक़ई इस बात का इल्म न था कि एक-दूसरे के साथ कैसे रहना है. जैसे-जैसे यह साफ़ हुआ कि हमारे आपस के बहुत से समीकरण दरअसल लड़कियों की मध्यस्थता की वजह से थे, हमारे बीच की दोस्तियाँ हिल गईं.

अपूर्व, अंकुश और तरुण सब जो मेरे अच्छे दोस्त थे, उनके साथ मेरी मित्रता बदल गई. इस नए माहौल में मैं दानिश के करीब आया जिसके साथ मेरे सम्बन्ध होली एंजेल्स में बिताए सालों में बस सौहार्दपूर्ण थे. यह कहना ग़लत न होगा कि मैं तब उसे बस दूर से देखा करता.

पढ़ाई-लिखाई के कारोबार को लेकर दानिश के यहाँ एक कूल-सी बेपरवाही थी जिसका मैं क़द्र-दाँ था. वह दीगर छोटी-छोटी चीज़ों में भी कूल था- कैसे वह सारे विषयों के नोट्स बेतरतीब ढंग से एक ही नोटबुक में लेता; कैसे वह अपने बॉलपेन से, अपने अँगूठे पर लगातार घुमाते हुए, खेला करता; थोड़ी-थोड़ी देर में कैसे अपने बालों में उंगलियाँ फेरता; कैसे क्लास में अपने मोबाइल से खेलता (यह वह दौर था जब पूरी क्लास में दो या तीन छात्रों के पास ही मोबाइल हुआ करता और मैं उनमें नहीं था).

वह बेहद हैंडसम था जबकि बाक़ी हम हद से हद क्यूट कहलाने लायक़ थे. होली एंजेल्स की हमारी कुछ दोस्त लड़कियाँ उसे दाडोनिस बुलातीं. गुंजन निश्चित ही उसके प्रति आकर्षित थी और यह पता चलने पर मायूस हुई होगी कि दानिश उस हजूम का हिस्सा नहीं था जो उस पर दिलोजाँ लुटाने पर आमादा थी.

वह हमेशा अच्छी-ख़ासी मात्रा में डिओडोरेंट का इस्तेमाल करता और उसी की वजह से मैंने ख़ुद ग्यारहवीं से डिओडोरेंट इस्तेमाल करना शुरू किया, अपने माता-पिता को यह यक़ीन दिलाकर कि साइकिल चलाने से बेहद पसीना आता है और अन्य छात्र शिकायत करते हैं कि मेरा बदन महकता है. हालाँकि स्कूटर हासिल हो जाने के बाद भी डिओडोरेंट का इस्तेमाल बदस्तूर जारी रहा.

एस.डी. पब्लिक स्कूल में ग्यारहवीं में हमारा इंजीनियरिंग भविष्य दाँव पर लगा था और पढ़ाई-लिखाई का कारोबार दिन पर दिन गरमा रहा था. ट्यूशनों से बच पाना नामुमकिन था. दानिश और मैं एक सी ट्यूशन क्लासों में जाया करते. वह स्कूल से कभी गैर-हाज़िर नहीं रहता लेकिन ट्यूशन में उसकी उपस्थिति कभी नियमित नहीं होती. ट्यूशन मास्टरों को इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं थी. वे अपनी दुकानें अपने घरों के छोटे कमरों में चलाते जिनमें तीस छात्र बैठने की जगह के लिए ठेला-ठाली करते, तो उनके लिए यह बेहतर ही था कि कोई क्लास में न आए.

ट्यूशन गुल करने के बाद दानिश जाता कहाँ है, यह किसी को पता नहीं था. ग्यारहवीं की शुरुआत से ही उसके पास रॉयल एनफ़ील्ड बुलेट थी जिस पर वह शाहाना अंदाज़ में बैठा करता, उन दीगर लड़कों की तरह झुक कर नहीं जिनके पास मोटरबाइकें थीं और जो समझते थे कि मोटरबाइक पर झुक कर बैठना कूल है.

वह सारे मुज़फ़्फ़रनगर के छात्रों में इकलौती बुलेट थी और ट्यूशन मास्टर के घर के सामने खड़ी अन्य मोटरबाइकों के बगल में दैत्याकार नज़र आती. कभी-कभी जब दानिश को ट्यूशन क्लास पहुँचने में देर हो जाती तो सड़क से आनेवाली उसकी धड़धड़ाती आवाज़ से सब कुछ रुक सा जाता और छोटे से क्लासरूम में उसके दाख़िल होने तक ट्यूटर को इंतज़ार करना पड़ता.

आख़िरकार बारहवीं में जब मुझे स्कूटर मिला तब तक दानिश के साथ मेरी दोस्ती ख़ासी गहरी हो चुकी थी. ट्यूशनों के दरमियाँ मेरी एक्टिवा की बगल में वह अपनी बुलेट पर होता और हम इंग्लिश प्रीमियर लीग के बारे में बातें करते जिसमें हम दोनों की दिलचस्पी थी. तिस पर हम दोनों मैनचेस्टर यूनाइटेड के फैन थे और दानिश अक्सर मुझे उस हफ़्ते हुए मैचों में क्लब के प्रदर्शन के बारे में बताता रहता. वे मैच मैं इसलिए नहीं देख पाता था क्योंकि अपने माता-पिता से इसकी इजाज़त माँगने पर जो असहज करने वाली स्थिति बनेगी, इसका मुझे अंदाज़ा था. मुझे लगता है कि दानिश को भी मुझसे बातें करना पसंद था क्योंकि मेरा स्कूटर आने के बाद से ट्यूशनों में उसकी हाज़िरी सुधर गई. फिर एक वजह यह भी रही होगी कि मैंने ग्यारहवीं में टॉप किया था.

दानिश पढ़ने में बहुत अच्छा न था मगर इस बात से वह भी वाक़िफ़ था कि बारहवीं में गड़बड़ नहीं की जा सकती. वह जब-तब मेरी मदद माँगता और स्कूल में या ट्यूशनों के दरमियाँ अपनी गाड़ियों के पास खड़े-खड़े उसकी मदद करने में मुझे कभी कोई दिक्कत नहीं थी. दानिश के प्रति मेरे आकर्षण की वजह थी कि वह ऐसा था जैसा मैं नहीं हो सकता था. वह ऐसी चीज़ें जानता और करता था जो मैं और मुझ जैसे और लड़के, जिन्हें पढ़ाई -लिखाई से ज़्यादा किसी और चीज़ को तरजीह न देने की ट्रेनिंग अपने परिवारों से मिली थी, नहीं कर सकते थे. दुनिया को लेकर उसके पास जो व्यावहारिक क़िस्म की जागरूकता और इल्म था, उससे मैं हमेशा अचंभित होता क्योंकि मेरे मन में सवाल उठता कि ये सब चीज़ें जान पाना मेरे लिए क्यों नामुमकिन रहा.

मसलन यह सच है कि वह प्रकाश विवर्तन के पीछे के सिद्धांतों को नहीं समझा सकता था, वह नहीं जानता था कि पोलरॉइड लेंस असल में कैसे काम करता है, लेकिन उसे यह पता था कि सूरज की तेज किरणों से बचने के लिए दिन के किस समय शहर की कौन सी गलियों से होकर गुज़रना चाहिए.

शॉर्टकट ढूँढ़ निकालने में उसकी ख़ास रुचि थी, वह अकेले देहरादून हो आया था और एक दफ़े अपनी बुलेट से दिल्ली जा चुका था.
वह कच्चे तेल को रिफ़ाइन करने की प्रक्रिया नहीं समझा सकता था मगर सभी कारों और मोटरसाइकिलों का माइलेज जानता था. जब वह कहता दस किलोमीटर ऐसा लगता जैसे कि वह अच्छे से जानता था, दस किलोमीटर असल में कितने होते हैं मानो उन दस किलोमीटर में समाए हर एक मीटर से वह वाक़िफ़ था.

इंटरनल कम्बशन इंजन कैसे काम करता है या पेट्रोल और डीज़ल इंजन के बीच या टू-स्ट्रोक और फोर-स्ट्रोक इंजन के बीच असल फ़र्क़ क्या होता है, यह वह नहीं समझा सकता था मगर उसे पता था कि मोटरसाइकिल में स्पार्क प्लग कहाँ होता है और दुपहिया गाड़ी में क्या ख़राबी है, वह यह उसके इंजन की आवाज़ से समझ जाने वाले लोगों में से था.

मुझे याद है कि कैसे मेरी एक्टिवा की ज़िन्दगी के शुरुआती कुछ महीनों में सर्विसिंग के समय वह मेरे साथ होंडा के सर्विस स्टेशन जाता और मिस्त्रियों को चुनिंदा हिदायतें देता- यह देख लेना, वह देख लेना, यह बदल देना, वह टाइट कर देना वगैरह-वगैरह. वे सब बातें तो मेरे लिए अबूझ भाषा जैसी थीं फिर भी मुझे उसे सुनना अच्छा लगता क्योंकि मुझे पता चलता कि दुनिया में दूसरे क़िस्म का ज्ञान भी होता है. उन दिनों मैं अपना स्कूटर सर्विस स्टेशन पर छोड़ देता और दानिश की बुलेट पर पीछे बैठ कर ट्यूशन क्लास जाता.

किसी एक दुपहरी को फ़िज़िक्स के ट्यूशन से केमिस्ट्री के ट्यूशन की ओर जाते हुए हमारी बातचीत उस तरफ मुड़ गई कि कैसे ऑर्गेनिक केमिस्ट्री निहायत ही बोरिंग है और कैसे कच्ची-से-पक्की-धातु बनाने की प्रक्रिया अपनी असल ज़िन्दगी में हमारे काम आएगी, इसकी सम्भावना बेहद कम है. दानिश उन्हें ‘बेकार के फंडे’ कहता था और उनसे उसे कोफ़्त होती थी.
फ़िज़िक्स का अकेला चैप्टर जो उसे अच्छा लगा था, वह था एलेक्ट्रोस्टैटिक्स जिसमें एक मटिरिअल से दूसरे मटिरिअल को रगड़ने पर पैदा होना वाला स्टैटिक चार्ज का हिस्सा था जिसकी मदद से क्लास में एकाध को मस्त-सा झटका दिया जा सकता था.

एक बार दानिश ने मुझे पूछ लिया: ‘आज क्लास बंक करें?’

मैंने हैरत से उसकी तरफ़ देखा.‘मैंने ऐसा कभी किया नहीं है. बंक कर के करेंगे क्या?’ मैंने कहा.

‘कुछ भी.’

‘क्या?’

‘संगम के दोसे खा सकते हैं. कोका कोला के साथ. ’

‘जब ट्यूशन नहीं आते हो तो तुम यही करते हो?’

‘कभी-कभार. कभी-कभार दूसरी चीज़ें करता हूँ?’

‘जैसे?’

‘जैसे…मटरगश्ती करना, अपनी मोटरसाइकिल पर घूमते रहना. कभी-कभी मीनाक्षी में पिक्चर देख लेता हूँ. ’

‘और टीचर ने घर पर फ़ोन कर तुम्हारे ट्यूशन न आने की शिकायत कर दी तो?’

‘तुम्हें लगता है उन्हें कुछ पड़ी है? मेरे घर तो कभी फ़ोन नहीं किया. ’

उन्होंने तुम्हारे घर कभी फ़ोन नहीं किया क्योंकि तुम मुसलमान हो, मैं कहना चाहता था मगर नहीं कहा. मैंने क्लास बंक करने के लिए हामी भर दी.

इस से याद पड़ता है कि एक और फ़र्क़ था जिसका अहसास मेरे जैसे लड़कों को दसवीं के बाद होता – हिन्दू या मुसलमान होना और उसके मानी.

ऐसा माना जाता था कि मुज़फ़्फ़रनगर के मुसलमान, जो वहाँ की आबादी का लगभग आधा हिस्सा थे, अपने बच्चों का ऐसे स्कूल में पढ़ाना नागवार समझते थे जिसके नाम में ‘सनातन धर्म’ हो. कान्वेंट स्कूल में बच्चों को भेजने में कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि वेस्टर्न यूपी में ईसाइयत नगण्य मज़हब था (हालाँकि सरवट गेट पर जो चर्च था वह ईसाई बनने वालों को अच्छा पैसा दिया करता और यह बात हमें तब पता चली जब होली एंजेल्स के हमारे गणित टीचर कुंदन से क्रिस्टोफर बन गए), मगर एस.डी. कम स्वीकार्य था. ऐसा इसलिए कि एस.डी. पब्लिक स्कूल एक हिन्दू स्कूल था और भले ही मज़हबी सन्देश दिए जाने में होली एंजेल्स से शायद ही आगे था मगर उनका तरीक़ा कुछ ऐसा था जो उसे अधिक ज़ाहिर बना देता. होली एंजेल्स में सुबह की प्रार्थना हिन्दी या अंग्रेज़ी में हो सकती थी जिनमें स्तुतियाँ या गीत बारी-बारी से सेकुलर और धार्मिक-कैथोलिक क़िस्म के होते.

एस.डी. में सुबह की प्रार्थना लगभग हिन्दी में ही होती बावजूद इसके कि वह अंग्रेज़ी मीडियम का स्कूल था और वे सब हिन्दू देवताओं की स्तुति में होतीं. होली एंजेल्स में हर क्लासरूम में सलीब पर टंगे ईसा मसीह की बेहद छोटे आकार की प्रतिकृति टंगी होती जिस पर हमने कभी ग़ौर नहीं किया शायद उसके आकार की वजह से या हमें उन क्लासरूमों की बहुत आदत पड़ गई थी, इसलिए. एस.डी. के सभागार में विराजमान देवी सरस्वती की प्रतिमा इतनी बड़ी थी कि उस पर नज़र न पड़े ऐसा सम्भव ही नहीं था. और छात्रों में से ज़्यादातर के घरों में भी वे ही विराजमान थीं, ईसा मसीह नहीं. होली एंजेल्स में सिर्फ़ एक नियम यह था कि प्रार्थना के दौरान हाथ जोड़ने हैं- कोई एक हाथ की मुट्ठी बाँध कर उस पर दूसरा हाथ रख देता, कोई खुली हथेलियाँ जोड़ देता और कोई हाथों की उँगलियों को आपस में फँसा लेता. एस.डी. में मगर लगभग हर कोई हथेलियाँ जोड़ कर प्रार्थना करता. दानिश और मुझ जैसे होली एंजेल्स के लड़के, जो एस.डी. में अल्पसंख्यक थे, किसी के कुछ कहे बिना ही इस सबके अभ्यस्त हो गए.

ऐसी चीज़ों के बारे में कोई बात नहीं करता था. हम अपने-आप ही उन्हें समझने लगे थे, इस अहसास के साथ कि दूसरे भी उन्हें समझते हैं. होली एंजेल्स में गुज़ारे लड़कपन के सालों में, जहाँ हिन्दू और मुसलमान के बीच का फ़र्क़ कोई बड़ी चीज़ नहीं रही, मेरे बहुत से मुसलमान दोस्त थे मसलन दानिश आलम, मोहम्मद उस्मान, काशिफ़ बिलाल, सैयद अली अकबर, सैयद अली मेहदी और बक़र अब्बास. इन में से बस दानिश और उस्मान मेरे साथ एस.डी. में ग्यारहवीं में आए. बाकी सब मुज़फ़्फ़रनगर से बाहर चले गए और वजह पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी नहीं थी. अब सोचने पर मैं पाता हूँ कि मुसलमान छात्रों के लिए पढ़ाई-लिखाई की वजह हो भी नहीं सकती थी क्योंकि उन में से कोई भी पढ़ने में बहुत अच्छा नहीं था. उनकी प्राथमिकताएं अलग लगती थीं. शायद उनके परिवारों की दीगर चिन्ताएँ रही होंगी. या फिर मेरी समझ ग़लत है.

लेकिन इसी वजह से मैं मानता था कि ट्यूशन मास्टर दानिश के माँ-बाप को कॉल करने की कभी नहीं सोचेंगे.

दानिश और मैं उस दिन गोल मार्केट गए- संगम में दोसा खाने और कोक पीने. जब खुले आसमान के नीचे रसोइया दोसा बना रहा था, दानिश ठीक उसके बगल में खड़े होकर उसे हिदायतें देता रहा. ऐसा लग रहा था कि वह जानता है कि कौन सी चीज़ डलने का क्या असर होगा. दुनियावी बातों के उसके ज्ञान से पाकशास्त्र भी अछूता नहीं है, यह जानकर मैं प्रभावित हुआ.

संगम में बिताए गए घण्टे भर के समय ने मुझे एक अजीब से अहसास से भर दिया और जब हमारे इर्दगिर्द शाम गहराने लगी तो मुझे लगा जैसे ये मेरी ज़िन्दगी की पहली शाम है. शायद पूरे दो साल के बाद मैं दिन ढलने के समय आसमान को निहार रहा था.

उस पहले मौक़े के बाद तो दानिश के साथ मेरा बंक करना काफ़ी बढ़ गया. अगर हम फ़िज़िक्स या मैथ्स की क्लास गोल कर रहे होते तो कभी-कभी उस्मान और अंकुश भी हमारे साथ आते क्योंकि केमिस्ट्री के ट्यूशन के लिए वे किसी और क्लास जाते थे. अंकुश को सिगरेट पीना पसंद था. क्लास गोल करने से उसे सिगरेट पीने और फिर उसकी बू मिटाने के लिए एक घण्टा मिल जाता. हम बड़ी एहतियात बरतते: किसी एक विषय की क्लास कभी लगातार बंक नहीं करते. हम हमेशा रेस्तराँ भी नहीं जाते, बस यूँ ही एक छोटी सी गली में फुटबॉल और क्रिकेट के बारे में या होली एंजेल्स में पीछे छूट गई लड़कियों के बारे में बातें करते हुए टाइम पास करते. कभी-कभार कोई बड़ी क्लासमेट अपने ट्यूशन जाते हुए नज़र आती तो गर्दन हिलाकर उसका अभिवादन कर देते जिसके बदले में मिली मुस्कराहट से हमारे दिलों को राहत मिलती.

दानिश और मैं क्लास गोल करने वाले उन सत्रों के बाद और अच्छे दोस्त बन गए थे. सप्ताह भर शाम के समय ट्यूशनें या बंक पूरे हो जाने के बाद वह मक़ाम आता, जीटी रोड वाले मीनाक्षी चौक पर, जहाँ दानिश अपनी बुलेट खालापार के मुस्लिम इलाक़े की जानिब दाहिने मोड़ लेता और मैं सीधे जाट कॉलोनी की दिशा में बढ़ जाता. मगर रोड के किनारे एक लम्बा अवकाश लेने और अगले दिन किए जाने वाले कारनामों का प्लान बना लेने के बाद ही हमारे रास्ते जुदा होते. मगर जो मेरा समय स्कूटर के आ जाने से बचने वाला था, वह इन चर्चाओं में ज़ाया होने लगा.

 

 

तीन)

ऐसी ही एक इतवार की सुबह – इतवार को हमारे ट्यूशनों में छुट्टी हुआ करती थी – दानिश अप्रत्याशित रूप से मेरे घर आ धमका. उसने सामने वाले फाटक की चिटकनी ख़ुद ही खोल ली और ड्राइंग रूम में खुलने वाले दरवाज़े पर दस्तक दी. मैं उस समय वहीं बैठा था मगर दरवाज़ा मेरी माँ ने खोला. अंदर आने के लिए उन्हें विनम्रता से मना कर उसने मेरे लिए पूछा और अस्फुट तरीके से किसी एक्स्ट्रा क्लास का ज़िक्र किया जो केमिस्ट्री के टीचर लेने का इरादा रखते थे. माँ ने फिर उसका नाम पूछा जिसे सुनकर वह अहमक़ाना मुस्कान के साथ मेरी तरफ मुड़ा. सच कहूँ तो दानिश को इस तरह अपने घर के आगे देखकर मुझे हल्की से घबराहट तो हुई थी. लेकिन घबराहट तो मुझे मेरा कोई भी दोस्त घर आ जाए तो होती थी क्योंकि अपनी दोस्तियों को अपने माता-पिता से छुपाये रखने की ज़रूरत मुझे महसूस होती थी. उसे पता कैसे चला कि मैं रहता कहाँ हूँ? उसने अंकुश या किसी और से पूछा होगा, मैंने तर्क लड़ाया.

सुबह का वक़्त होने के बावजूद दानिश ठीक-ठाक सजा-धजा नज़र आ रहा था. मैं तो अपने घर के कपड़ों में ही था और यह ख़याल कौंधा कि मैं चाहे कितनी भी कोशिश कर लूँ उसके जैसा कभी नहीं लग पाऊँगा. बात करने के लिए मैं उसके साथ बाहर सड़क तक गया, पता नहीं कैसे मुझे यक़ीन था कि मेरे कहने पर भी वह अंदर आने से मना कर देगा. दानिश को तो जैसे फ़र्क़ ही नहीं पड़ता था. वह अपना प्लान मुझे बताने को लेकर ज़्यादा उतावला था. उसने मुझे हुक्म दिया कि मैं अपनी माँ से कहूँ कि एक्स्ट्रा क्लास में जाना सचमुच कितना ज़रूरी है, फिर पाँच मिनट में तैयार हो जाऊँ और अपने स्कूटर के साथ जितनी जल्दी हो सके बाहर निकल आऊँ.

‘मगर हम जाएँगे कहाँ?’ मैंने पूछा.

‘हारमनी जाएँगे’, उसने शरारत भरी मुस्कान के साथ कहा.

दिल्ली-देहरादून हाईवे पर मुज़फ़्फ़रनगर से कुछ आठ-दस किलोमीटर दूर दिल्ली की दिशा में पड़ने वाला मॉल था हारमनी. वहाँ सब कुछ था- मैकडॉनल्ड्स, सबवे, ज़ोन 7 नाम का एक गेम पार्लर, और सिनेस्टार नाम का चार स्क्रीन वाला मल्टीप्लेक्स. मैं वहाँ कभी नहीं गया था हालाँकि मैंने सुन रखा था कि वह ज़बरदस्त है. हाईवे पर सफ़र करने वाले परिवार ब्रेक लेने के लिए वहाँ रुका करते और मैंने (दानिश से) सुन रखा था कि वहाँ रेस्तराओं में ख़ूबसूरत लड़कियाँ हरदम बैठी रहती हैं. वहाँ जाने को लेकर मैंने अपने माता-पिता से कभी बात नहीं की थी क्योंकि मेरा अंदाज़ा था कि मुझे वहाँ जाने से मना किया जाएगा. इसके अनेकों कारण हो सकते थे- कि हारमनी पहुँचने के लिए सुजडू चुँगी नाम के मुस्लिम-बहुल गाँव से होकर गुज़रना पड़ता था जिसे ठीक क़िस्म का नहीं माना जाता था; कि वह मॉल नेशनल हाईवे पर पड़ता था मतलब स्कूटर से जाने वालों के लिए ज़्यादा ख़तरा था; कि वहाँ के रेस्तराँओं में चिकन के आइटम मिलते थे जो समस्या थी क्योंकि मेरे परिवार में नॉन-वेज पर सख़्त पाबन्दी थी, वगैरह वगैरह.

‘ठीक है फिर, चला जाए,’ मैंने कहा, उत्तेजना में मैं फुसफुसाने लगा. ‘’लेकिन मेरे बटुए में फ़िलहाल पैसे नहीं हैं और अभी मैं अपनी माँ से पैसे नहीं माँग सकता. उन्हें शक़ हो जाएगा. ’

‘मैंने पैसों के बारे में कुछ कहा?’

तो हम पाँच मिनट में मेरे घर से रवाना हो गए. हारमनी के रास्ते में दानिश की एनफ़ील्ड और मेरी एक्टिवा एक दूजे से गति बनाए हुए थे. मैं उतनी तेज़ी से नहीं चला रहा था जितना धीमे दानिश. रह रह कर मैं उसकी लम्बी ज़ुल्फ़ों को देखता जो हवा में उड़ रही थीं. मुझे महसूस हुआ कि उसके बाल किटकैट के रंग के हैं. मैं उसकी तरह लम्बे बाल रखना चाहता था. जब मैं छोटा था तब मेरे पिता नाई से मेरी फ़ौजी कट कर देने को कहते. दानिश की ज़ुल्फ़ों को देखते हुए मैंने सोचा कि अब जब मैं सोलह का हो गया हूँ तो शायद मुझे फ़ौजी होने से छुटकारा मिले.

हारमनी मॉल के बेसमेंट में बनी भूलभुलैया की तरह लगने वाली पार्किंग में हमने अपनी गाड़ियाँ खड़ी कीं और सीधे मैकडॉनल्ड्स पहुँचे. वहाँ की भीड़ में बुरक़ाधारी औरतें, सरदार पुरुष, मुसलमानी टोपियाँ पहने आदमी, शॉर्ट्स पहनी लड़कियाँ, काम करती हुई महिलाएँ सब देखे जा सकते थे जो मुज़फ़्फ़रनगर के किसी रेस्तराँ में देख पाना असम्भव था. वहाँ सभी की बस एक ही चिंता थी – बर्गर और फ्राइज खाना. दानिश ने ज़ोर दिया कि मैं चिकन बर्गर खाऊँ. मैं पहले हिचकिचाया पर फिर सोचा आज़मा लिया जाए. कुछ नियम मैं उस दिन पहले ही तोड़ चुका था.

‘पनीर जैसा है, नहीं?’ घबराते हुए मुझे बर्गर खाते देख कर दानिश ने पूछा.

‘कोशिश कर रहा हूँ कि कुछ सूँघूँ नहीं,’ मैंने कहा.

‘चिकन की कोई बू नहीं होती. ’

‘होती है. ’

‘स्वाद पसंद नहीं आया?’

‘ठीक है. ’

‘माँ बाप से मत कहना. ’

‘नहीं कहूँगा. वैसे तुम लोगों में तो घर की रसोई में बनता है ना?’

‘बिलकुल. मेरी अम्मी बेहतरीन बटर चिकन बनाती हैं. ’

‘मेरी माँ को तो सुन कर ही चक्कर आ जाएगा,’ मैंने कहा.

‘मैं हमेशा से जानना चाहता था कि,’ दानिश बोला.

‘क्या?’

‘जब हम सब्ज़ियाँ खाते हैं तो क्या किसी को मार नहीं रहे होते?’

‘मतलब?’

‘बायोलॉजी याद है? फल और सब्ज़ियाँ भी तो पौधों के रिप्रोडक्शन के लिए होते हैं. ’

‘तो?’

‘तो जब तुम गोभी खाते हो… तो शायद तुम आगे आने वाले गोभी के पौधों को खा रहे हो, है कि नहीं?’

‘बकवास. ’

‘क्या बकवास. सच्चाई है. अभी तो समझाया तुम्हें. ’

मुद्दा इससे आगे नहीं बढ़ा क्योंकि ध्यान बँटाने के लिए रेस्तराँ में ख़ूबसूरत लड़कियाँ थीं. अपने मन में मैं वेजीटेरियन खाने को लेकर दानिश के तर्क फेंटे जा रहा था. उस तर्क की कोई काट ही नहीं है, यह सोचकर मैं मुसकुरा दिया.

मैकडॉनल्ड्स के बाद हम ज़ोन 7 गए और अदल-बदल कर घण्टों तक वीडियो गेम खेलते रहे. सबके पैसे दानिश ने दिए. वक़्त का ख़याल ही नहीं रहा. जब तक हम मॉल से बाहर निकले तब तक दोपहर काफ़ी बीत चुकी थी. मुझे यक़ीन था कि मेरे माता पिता सोच रहे होंगे कि मैं कहाँ चला गया, चिंता भी कर रहे होंगे. कई बहाने बनाने पड़ेंगे, ऐसा सोच कर मेरी बेचैनी बढ़ गई.

‘कह देना कि तुम ट्यूशन के बाद फ़िल्म देखने चले गए थे,’ दानिश बोला.

‘वह नहीं चलेगा,’ मैंने कहा.

‘सच नहीं बता सकते?’

‘क्या तुमने अपने माँ बाप को सच बताया है?’

‘बता सकता हूँ. ’

लौटते हुए मैं सोचता रहा कि दानिश के माँ बाप कैसे होंगे. मैं नहीं जानता था कि कि उसके पिता क्या करते हैं मगर ये पता था कि उसका एक बड़ा भाई है जो दिल्ली में होटल मैनेजमेंट का कोर्स करने के बाद दुबई चला गया है. मेरे तईं दानिश के कपड़ों, उसकी बुलेट, उसके बालों के कलर, उसके डिओडोरेंट, सेलफोन सब के लिए पैसा दुबई से आता था और कभी-कभी मुझे जलन होती कि उसकी तरह मेरा कोई बड़ा भाई नहीं है. हालाँकि मैं जानता था कि अगर मेरा बड़ा भाई होता भी तो उसे साइंस पढ़ने के बाद होटल मैनेजमेंट का कोर्स नहीं करने दिया जाता. ऐसा करना मेरे परिवार में कल्पना से परे था.

उस शाम मेरे माँ बाप हमेशा से कुछ ज़्यादा चुप थे.

शाम के खाने के वक़्त मम्मी ने बात की.

‘किसी दानियल के साथ गया था. ’

पहले मैंने सोचा कि बात टलने दी जाए, मगर फिर दुरुस्त करते हुए कहा, ‘दानिश. ’

‘दानिश, दानियल, एक ही बात है. ’

‘नहीं, दो अलग-अलग नाम हैं. ’

मम्मी ने मेरी तरफ़ कुछ ऐसे देखा कि सही नाम को लेकर मेरे इसरार से चिढ़ गई हों. फिर पापा से मुख़ातिब हुईं. ‘ड्राइंग रूम के दरवाज़े तलक आ गया,’ उन्होंने शिकायती लहज़े में कहा, ‘बाहर वाला फाटक नहीं खटखटाया.’

‘’हमारे घर आने वाला हर कोई ऐसा ही करता है,’ मैंने जवाब दिया.

‘ट्यूशन के बाद कहाँ थे?’ इस बार पापा ने पूछा.

‘फ़िल्म देखने चले गए थे. ’

‘दानिश और तुम?’

‘नहीं, और भी दोस्त थे. ’

‘कौन सी फ़िल्म?’

‘वही…जो अँगूठियों के बारे में है. ’

‘ऐसा तुमने पहले कभी नहीं किया,’ मम्मी ने ज़ोर देकर कहा.

मैंने इस बात का जवाब नहीं दिया. चुप्पी के कुछ लम्हे गुज़र जाने के बाद मेरे माता-पिता कुछ और बात करने लग गए.

 

 

चार)

जनवरी तक हमारे प्री-बोर्ड इम्तहान पूरे हो गए थे और स्कूल हफ़्ते में बस दो दिन लगने लगा था. ट्यूशनों की भी छुट्टी हो गई थी सिवाय शनिवार और इतवार को होने वाले प्रैक्टिस एग्जाम के जिनके ट्यूशन मास्टर पैसे नहीं लेते. दानिश की सलाह पर मैंने अपने माता-पिता को यह नहीं बताया कि ट्यूशन की छुट्टी हो गई है और यह भी कि फ़ीस माफ़ हो गई है. इस तरह हमें हर दिन कुछ घण्टे आवारागर्दी करने की मुहलत मिल गई थी. और तो और, मुझे नौ सौ रुपए अतिरिक्त पॉकेट मनी भी मिल गई: जो अट्ठारह सौ हो सकती थी मगर मैं पूरा झूठ नहीं बोल पाय – माता-पिता से यह कह दिया कि ट्यूशन मास्टरों ने फ़ीस आधी कर दी है.

सैर-सपाटों के बीच प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी को लेकर मेरी ईमानदारी पर कभी कभी मुझे शक होता. जैसे कि मुझे अहसास हो रहा हो कि मुझे बड़े कॉलेज में दाख़िले की कोई परवाह नहीं थी. यह ख़याल मुझे तोड़ने को होता और उसे निकाल बाहर करने के लिए मैं अपने आप को भरोसा दिलाता कि दानिश के साथ बिताया गया वक़्त मेरे भले के लिए ही था क्योंकि हमेशा घर में रहने से पढ़ाई के मिज़ाज पर उल्टा असर पड़ता. बी टेक के लिए ठीकठाक कॉलेज में मेरा दाख़िला हो जाएगा, इस बात पर मुझे यक़ीन था. मगर बस उतना ही – ठीकठाक कॉलेज. मेरे आइआइटी जाने के मेरे माता-पिता के सपने को अधूरा ही रह जाना था. मुज़फ़्फ़रनगर के छात्र का आइआइटी जाना बिरले ही संभव था. ट्यूशन ही उतने अच्छे नहीं हैं, मैंने अपने आप से कहा.

जल्द ही 14 फ़रवरी आ गया, वैलेंटाइन्स डे. होली एंजेल्स में यह आठवीं कक्षा से ही एक ख़ास दिन रहा था. लड़कियाँ स्कूल में चॉकलेट ले आतीं और लड़के जैसे-तैसे फूल ले आते. फूल किसी भी क़िस्म के हो सकते थे – पसंद गुलाब किए जाते थे मगर उनका मिल पाना मुश्किल था तो याद पड़ता है कि गेंदा भी इस्तेमाल किया जाता था. होली एंजेल्स में चॉकलेट-फूल कारोबार में मैंने कभी हिस्सा नहीं लिया था. मैंने देखा था कि उस दिन स्कूल में लाए जाने वालों फूलों की तादाद हमेशा ही लड़कियों को दिए गए फूलों की बनिस्बत ज़्यादा हुआ करती थी. बहुत से लड़के फूल देने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते और मुझे अंदेशा था कि मैं कोशिश भी करूँ तो उन्हीं लड़कों में रहूँगा. मुझे याद है कि नौवीं और दसवीं से ही दानिश ढेर सारे गुलाब लाता और सब के सब दे देता. उसके इज़हार को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता क्योंकि दानिश से गुलाब पाने वाली किसी भी लड़की को यह पता होता था कि उस जैसी चार और हैं. इसको लेकर काफी हँसी-ठट्ठा होता, लड़कियाँ दानिश को उसके अनेकों क्रश को लेकर छेड़तीं जिसे वह हँसी में उड़ा दिया करता.

अबकी बार वैलेंटाइन्स डे पर दानिश का प्लान लड़कियों को हारमनी ले जाने का था और वहाँ मैकडॉनल्ड्स में बड़े बर्गर खाने का, ज़ोन 7 में कुछ वीडियो गेम खेलने का, मूवी-शूवी देखने का और अगर हो पाया तो बेसमेंट में चूमाचाटी कर लेने का. उसने अपने प्लान में उस्मान, अंकुश और मुझे शामिल किया था. मगर उस्मान तुरंत यह कहकर पीछे हट गया कि दानिश का दिमाग़ ख़राब हो गया है. साथ में किसे ले जाया जाएगा, यह फ़ैसला करने का वक़्त जब आया तो दानिश ने कहा कि वह गुंजन से पूछेगा. यह सुनकर अंकुश भी मुकर गया. अंकुश और गुंजन एक दूसरे के पड़ोस में रहते थे और उनके बीच कुछ अनबन थी. कई सालों से उनके बीच बोलचाल भी बंद थी.

मैंने अंजना के साथ जाने का फैसला किया. छठी क्लास तक हम दोनों एक ही बेंच पर बैठा करते मगर उसके बाद सख़्त-मिज़ाज सिस्टर वेनेशिया ने, जो इतिहास तो अच्छा पढ़ाती थीं मगर नागरिकशास्त्र में हमें पूरी तरह कंफ्यूज कर देती थीं, लड़के लड़कियों को अलग क़तारों में बिठाना शुरु कर दिया. बड़े होने पर अंजना और मैंने बहुत बार बॉयफ्रैंड-गर्लफ्रेंड होने की बात मज़ाक में कही थी और मुझे उम्मीद थी कि उसे भी वे दिन याद थे जब ऐसी अहमक़ाना बातें कह पाना आसान था – वे दिन जब बचपन हमारे वर्तमान के दोनों सिरों पर मौजूद था.

 

 

पांच)

बड़ा दिन आने से दो दिन पहले मीनाक्षी चौक पर हुई मीटिंग में दानिश ने मुझे बताया कि गुंजन ने उसके साथ जाने के लिए हाँ कर दी है. फिर उसने मुझसे अंजना के बारे में पूछा तो मैंने कह दिया कि उसने हारमनी जाने से मना कर दिया है. ‘पर उसकी ग़लती नहीं है,’ मैंने आगे जोड़ा.

‘उसकी ग़लती नहीं है?’ दानिश बोला, ‘क्या मतलब? तो क्या रिकी पोंटिंग की ग़लती है?’

‘समझदारी भरा फ़ैसला है,’ मैंने कहा, ‘इतनी दूर लड़कियों को ले जाना रिस्की हो सकता है. ’

‘क्या रिस्क? मज़ा आ जाता,’ दानिश ने जवाब दिया. ‘और रिस्क लिए बिना ज़िन्दगी में कुछ नहीं मिलता. ’ उसके चेहरे से ज़ाहिर था कि वह खीजा हुआ है. अब गुंजन भी जाने से मना कर देगी क्योंकि जाने वाले दो ही बचे थे. फिर मेरे सब्र का बाँध टूट गया और मैं खिलखिला कर हँस दिया.

‘क्या?’ दानिश ने पूछा, ‘क्या, साले हरामी? उसने हाँ की न?’

‘उसने हारमनी के लिए तो मना कर दिया मगर कहा, उसके बजाए शहर में ही कहीं और मिल सकते हैं. ’ मुझे लगता है तब मैं फूल कर कुप्पा हो रहा था क्योंकि मैं दानिश को किसी चीज़ के लिए अपने ऊपर निर्भर कर पाने में सफल हो गया था.

प्लान में तब्दीली को समझ पाने में उसे एक लम्हा लगा. मगर फिर जोश के साथ उसने कहा, ‘फिर क्या इरादा है?’

 

 

छह)

हमने नई मण्डी इलाके में स्थित नन्दी जाने का फ़ैसला किया. हमारे पास बहुत विकल्प थे, ऐसी भी बात नहीं थी. क़िस्मत से 14 फ़रवरी उस दिन पड़ रही थी जब होली एंजेल्स की छुट्टी नहीं थी, मतलब गुंजन और अंजना को घर से बाहर निकलने के लिए कोई बहाना बनाने की ज़रूरत नहीं थी. हमने उन्हें स्कूल बंक करने के लिए नहीं कहा होता क्योंकि वैसा करने पर हमें उनके साथ बहुत वक़्त गुज़ारना पड़ता जिससे न केवल दिक्कत बल्कि बोरियत भी हो सकती थी.

तो स्कूल की छुट्टी होने के बाद लड़कियों से हम होली एंजेल्स के बड़े से फाटक के आगे मिले. अंजना चुपचाप एक्टिवा पर मेरे पीछे बैठ गई. मैंने मान लिया कि वह शरमा रही है. मेरे जोश ने मुझे इस बात को लेकर फ़िक्रमंद होने की मुहलत नहीं दी. मैंने स्कूटर चलाते हुए कनखियों से अपने दाएँ देखा जहाँ हमारी और स्कूटर की परछाइयाँ रास्ते पर कारों और टूव्हीलरों और सड़क किनारे की दीगर चीज़ों से हिलमिल रही थीं. उसकी और मेरी छायाकृति के बीच मुझे सूरज की रौशनी दिखाई दी और यह कि उसकी रीढ़ इतनी सीधी थी कि पीठ में दर्द हो जाए, कि उसके हाथ सीट के पीछे वाले फ्रेम को पकड़ने के लिए पीछे खिंचे हुए थे. उसके बाल खुले हुए थे और उनके खुलेपन को छाया में देखने से जाने क्यों ख़ुशी का अहसास हुआ.

बुलेट पर दानिश के पीछे गुंजन बैठी हुई थी और उसके हाथ दानिश के कन्धों पर थे. उनकी तरफ़ देखने पर मुझे जलन सी हुई – वे दोनों मुज़फ़्फ़रनगर के दो सबसे ख़ूबसूरत लोग थे.

नन्दी पहुँचने में मुश्किल से पाँच-छह मिनट लगे होंगे. सड़क किनारे अपनी गाड़ियाँ पार्क कर हम भीतर गए. खाने-पीने की चीज़ों के लम्बे डिस्प्ले की बगल में नन्दी वालों ने एक छोटी, रेस्तराँ जैसी जगह बना दी थी. हम चारों उत्तेजित थे और काउंटर पर अपना आर्डर देने के बाद हम में से एक घबराहट भरी हँसी फूट रही थी. हम जो कर रहे थे, उसमें थ्रिल तो ज़रूर था. लग रहा था कि कुछ नियम तोड़ रहे हैं, पर कौन से नियम यह पक्का नहीं पता था. जल्द ही, हमारी चुहलबाज़ी, गुलाबों (जो दानिश लाया था) व चॉकलेटों के आदान-प्रदान और लड़कियों को बगल में लेकर किए गए आलिंगन को देखकर नन्दी के दूसरे ग्राहक हमें इस तरह देखने लगे जैसे उन्हें पक्का पता था, मानो वे अच्छी तरह समझ रहे थे कि हम क्या कर रहे थे, कौन से नियम तोड़ रहे थे. उनकी नज़रों को ये गवारा नहीं था कि जवान लड़के और लड़कियाँ नन्दी में मटरगश्ती करते हुए वह दिन मनाएँ जिसकी अमूमन मुज़फ़्फ़रनगर में इजाज़त नहीं थी. मैंने फ़िक्र के साथ दानिश की तरफ़ देखा पर उसकी समझ में नहीं आया. उसने आँख मारी और अपना हाथ गुंजन की कुर्सी के पीछे रख दिया (ज़ाहिर है कि वह दानिश के बगल में बैठी हुई थी). मैं जवाब में मुस्कुरा दिया मगर औरों की नज़रें हम पर हैं, इस अहसास ने पसीने छुड़वा दिए.

अगले ही मिनट अंजना ने मेरा हाथ अपनी उँगलियों से छुआ. मेरा हाथ टेबल के नीचे, मेरी जाँघ पर रखा हुआ था. उसने मेरा हाथ उठा कर अपनी जाँघ पर रख दिया. मेरे माथे के पसीने में सिहरन हुई. एक झटके में मेरी नसें टाइट हो गईं. मुझे लगा कि नन्दी के सारे ग्राहक मेरे उस हाथ को देख रहे हैं. हालांकि यह असंभव था क्योंकि अंजना और मैं दोनों ही आड़ में, एक टेबल के दूसरी तरफ़ बैठे हुए थे और हमारे पीछे दीवार थी.

बावजूद इसके मैंने अपना हाथ पीछे खींच लिया. अंजना अपनी कुर्सी पर एक तरफ़ हो गई और मैं अपनी कुर्सी पर. टेबल पर रखी हुई कचौड़ी मैंने मुँह में भर ली. मैंने जो गुलाब उसे दिया था, उसने उसकी एक पंखुड़ी तोड़ी. एकाध मिनट के बाद जब आख़िरकार मैंने उसकी तरफ़ निगाह की तो वह इस अंदाज़ में मुस्कुराई कि जाओ माफ़ किया. उससे मुझे थोड़ी राहत मिली.

खाने-पीने के दो दौर निपटा कर हम नन्दी से निकल पड़े ताकि रेस्तराँ से बाहर जहाँ हमारी गाड़ियाँ खड़ी थीं, वहाँ खड़े होकर बातचीत की जाए. गुंजन दानिश की बुलेट पर झुक गई. उसे देख कर अंजना भी मेरी एक्टिवा पर बैठ गई. दानिश उँगलियों से अपनी ज़ुल्फ़ें सँवारने लगा. गुंजन और वह किसी बात पर हँसने लगे. किसी चीज़ की शिकायत करने के अंदाज़ में अंजना ने मेरे कंधे पर थपकी दी पर मेरी समझ में नहीं आया. मैं सोच रहा था कि क्या मैं उस से शादी करूँगा. हम लोग शायद मज़े नहीं बल्कि मज़े करने का दिखावा भर कर रहे थे. पर कोई और रास्ता भी नहीं था, जोश अपने चरम पर था. शायद इसलिए हमने उन दो आदमियों पर ग़ौर नहीं किया जो हमारी गाड़ियों के बगल में आकर खड़े हो गए और हमसे बात करने लगे.

क्या कर रहे हो यहाँ, हें?’ उनमें से जो बड़े आकार वाला था, उसने पूछा, उसके हाथ पीठ के पीछे थे.

‘तुम्हें क्या प्रॉब्लम है?’ दानिश बोला. मुझे लगा, उसे ऐसा नहीं कहना चाहिए था. वह दबंगई दिखा रहा था, अकड़ रहा था.
‘नाम बताओ अपने-अपने. क्या नाम है तुम्हारा?’ दूसरे ने कहा. वह सिगरेट पी रहा था.

‘क्यों?’ उन दोनों की तरफ़ बढ़कर और कुछ तनकर दानिश ने जवाब दिया. ‘तुम यहाँ के मालिक हो क्या?’

उन्होंने अपनी नज़रें लड़कियों की तरफ़ फेरीं. ‘क्या नाम है तुम्हारा?’

लड़कियों ने अपने नाम बताए. वे अब गाड़ियों पर नहीं बैठी थीं. कुछ बहुत ख़राब करते हुए पकड़ लिए जाने का अजीब अहसास हो रहा था मुझे. मैंने एक ही झटके में चाभी अंदर घुमा कर एक्टिवा का लॉक खोल लिया. जो सिगरेट पी रहा था, उसकी नज़र मुझ पर पड़ी.

‘तो तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है, हें?’ जिस आदमी के दोनों हाथ उसकी पीठ के पीछे थे, उसकी ओर बढ़ते हुए दानिश ने कहा. उन दोनों का कद लगभग बराबर था, छह फुट के क़रीब, वहाँ मौजूद सभी लोगों में सबसे ज़्यादा.

‘अपने नाम बताओ,’ दूसरे ने सवाल दोहराया.

‘दानिश आलम. अब तुम बताओ करना क्या चाहते हो जान कर. ’

‘और तुम्हारा?’ उन्होंने मुझसे पूछा.

‘अंकुश,’ मैंने बताया. पता नहीं क्यों, मैंने झूठ बोला.

जो सिगरेट पी रहा था, उसने वहाँ से गुज़रते एक रिक्शे को रुकवाया. ‘लड़कियो, तुम रिक्शे में बैठो और अपने घर जाओ. ’

‘तुम चाहते क्या हो? क्यों जाएँ वे अपने घर?’ दानिश ने दख़ल देने की कोशिश की.

डरी हुई लड़कियों ने हुक्म की तामील की. दानिश ने मेरी तरफ़ देखा. वह कोई संकेत देना चाहता था जो मैं समझ नहीं पाया. मैं चिंतित था कि उसने पलट कर जवाब दिया था और अब कुछ बुरा हो सकता था. रिक्शे में बैठे-बैठे लड़कियों ने हमें निहारा.

‘तो तुम यहाँ मुसलमानी करोगे, हें?’ जो हाथ पीछे बाँधे खड़ा था वह दानिश से मुख़ातिब होकर गुर्राया. अब मैंने देखा कि वह अपनी पीठ के पीछे लोहे की सलाख छुपाए हुए था.

‘वह क्या है?’ मैंने उस से पूछा.

दूसरे ने मेरी गर्दन दबोच कर पूछा, ‘तुम्हारा नाम तो सही है ना?’

मैं भौंचक्का हो गया- अपना असली नाम न बताने की वजह से पिटाई होने वाली थी. मैं अकबकाता सॉरी-सॉरी करने लगा.

‘उसका नाम वही है,’ दानिश ने कहा और अगले ही क्षण लोहे की सलाख लिए आदमी को घूँसा जड़ दिया.

वह आदमी लड़खड़ाया ज़रूर पर गिरा नहीं. दूसरे वाले ने मुझे थप्पड़ जड़ा और फिर मुझे एक्टिवा पर धकेल दिया. ‘जाओ, वरना तुम्हारा भी कचूमर निकलेगा,’ उसने कहा. फिर उसने दानिश के सीने पर मुक्का मारा. अब तक वह पहला आदमी सँभल चुका था और उसने सलाख दानिश के कन्धे पर दे मारी. दानिश दर्द से चीख पड़ा. मैंने अपनी एक्टिवा ऑन की. सलाख ने साँय की आवाज़ के साथ हवा को काटा था. साँय की आवाज़ फिर सुनाई पड़ी. इस बार सलाख दानिश की बाईं जाँघ पर लगी. मैंने उसकी ओर देखा. उसकी आँखों में गुस्सा नज़र आया. मैं समझ गया कि दूसरे वार का दर्द उसे अब तक महसूस नहीं हुआ है. मैंने देखा कि वह हमलावर पर लपका और उसे लेकर ज़मीन पर गिरा. उस आदमी ने पूरी ताक़त के साथ सलाख दानिश की पसलियों में भोंकी. दूसरे आदमी ने उसके सिर पर मारा. ख़ून की हल्की धार सड़क पर नज़र आई. मेरा दोस्त लहूलुहान था. अब वहाँ तीन आदमी और आ गए थे जो पास की दुकानों से निकले थे और दानिश के ख़िलाफ़ लग रहे थे.

जो आदमी पहले सलाख लिए खड़ा था, उस पर दानिश घूँसे बरसा रहा था लेकिन मुक्के और लातें उस पर भी पड़ रही थीं. मैंने स्कूटर निकाला और जहाँ मारपीट हो रही थी, उस इलाक़े का चक्कर सा लगाया. मैं बस वहाँ से निकलने के बारे में सोच रहा था. मैंने एक्सेलरेटर घुमाया और पलट कर कुछ नहीं देखा. पलटकर देखने का विचार भी मेरे मन में नहीं आया. लेकिन जब घटनास्थल और मेरे बीच में ठीक-ठाक दूरी हो गई, जब मैं सुरक्षित हो गया, तब मेरी नज़र सिकुड़ने लगी और हाथ काँपने लगे. मुझे स्कूटर रोकना पड़ा. अगले दो मिनट तक कोई स्पष्ट ख़याल मन में नहीं आया. जैसे मेरे दिमाग़ में कोई पेंसिल बेतरतीबी से गोदा-गादी कर रही थी और हर चीज़ को समझ से परे बना रही थी.

फिर मुझे महसूस हुआ कि उन गुण्डों ने यह समझ लिया था कि मैं मुसलमान हूँ- नाम तो सही है ना, पूछने का यही तात्पर्य था. तो क्या दानिश ने मुझे बचाया था? एनफील्ड बुलेट की आवाज़ सुनाई दी पर वह मेरे दिमाग़ का फ़ितूर था. मेरा दोस्त दानिश, मैंने सोचा. ‘मेरा दोस्त दानिश,’ मैं बुदबुदाया. दानिश शायद अब भी वहीं था, लड़ता हुआ या लड़ चुका. मुझे गुमान हुआ कि उसे बुरी तरह पीटा जा रहा है. डर के मारे मेरी रीढ़ की हड्डी में सिहरन हो गई. मेरे दाँत किटकिटाने लगे. मैं सड़क किनारे बैठ गया. सड़क पर लोग आ-जा रहे थे पर किसी ने मुझ पर ग़ौर नहीं किया. या शायद ऐसी कोई बात ही नहीं थी कि मुझ पर ग़ौर किया जाए. मैंने अपने दोस्त का नाम कहने की कोशिश की गोया उसका नाम पुकारने से कुछ बदल जाएगा. मगर मेरे मुँह से निकलने वाला ‘दानिश. . . दानिश. . . ’ रिरियाने से भी बदतर था. उसे बचा लो, मेरे भीतर की एक आवाज़ ने कहा. मैंने अपना सिर झटका. मुझे महसूस हुआ कि मेरा दम घुट रहा है और मैंने बड़ी कोशिशों के साथ लम्बी-लम्बी साँसें लीं. कुछ बुरा नहीं होगा, मैंने अपने आप से कहा. बहुत बुरा कुछ नहीं होगा.

मैंने इस स्थिति में पाँच मिनट बिताए होंगे, या शायद दस जब एक ढीली-ढाली पैंट पर चेक वाली शर्ट पहने हुए मेरे पिता की उम्र के एक व्यक्ति मेरे पास आए. ‘क्या हुआ?’ उन्होंने पूछा. ‘कुछ नहीं,’ मैंने जवाब दिया और खड़े होते हुए अपनी जीन्स पर लगी धूल झटकने लगा. ‘ये स्कूटर तुम्हारा है?’ ‘जी हाँ. ’ ‘इस तरह यहाँ क्यों बैठे हो?’ जब मुझसे इस का कोई जवाब देते नहीं बना तो वे बोले, ‘घर जाओ, बेटा. तुम्हारी पढ़ने वाली उम्र है, सड़क पर बैठने वाली नहीं. ’ पढ़ने वाली उम्र, सड़क पर बैठने वाली नहीं- बात दुरुस्त थी. मैं स्कूटर पर बैठा और उसे स्टार्ट किया.

नन्दी वापिस जाकर दानिश का हाल पता करने की सोची पर हिम्मत नहीं हुई. स्कूटर घर की ओर चल पड़ा गोया अपने आप ही आगे बढ़ रहा हो मगर ऐसा होने से मैंने अपने आप को यह सोचने की मोहलत दी कि शायद दानिश भाग निकला होगा और उसे ज़्यादा चोट नहीं आई होगी. इस ख़याल को मैंने इसलिए शह दी क्योंकि उस से मुझे फ़ौरी राहत मिल रही थी. मगर यह हल्कापन एक ग़लती थी जिसका भुगतान मुझे बाद में अपनी छाती पर एक भारी बोझ रख कर करना था.

मगर उस वक़्त मैंने घर पहुँचने को अपना एकमात्र उद्देश्य बना लिया था. जब स्कूटर मीनाक्षी चौक पहुँचा, मैंने बेहद कोशिश की कि उस जगह को न देखूँ जहाँ दानिश और मैं अक्सर खड़े होकर अपने तमाम प्लान बनाया और बिगाड़ा करते थे. मेरी दाहिनी तरफ खालापार रोड थी – वह सड़क जिसके परली तरफ आज दानिश की सलामती थी. उसे झगड़ा मोल लेने की ज़रूरत ही क्या थी, मैंने सोचा. मगर क्या उस बात से फ़र्क़ पड़ता? दानिश वैसा ही था: दबंग, ढीठ और टशनबाज. शायद ध्यान भटकाने के लिए मेरे दिमाग ने एस.डी. के उस फ़िज़िक्स टीचर के साथ हुआ वाक़या याद किया जो यूँ ही लड़कों को पीट दिया करता था. एक बार फ़िज़िक्स की टेक्स्टबुक नहीं लाने की वजह से उसने दानिश के सीने पर मुक्का जड़ दिया था. उस मुक्के से दानिश दम खो बैठा था और क्षण भर के लिए बेंच पर गिर पड़ा था. लेकिन फिर वह उठा और उसने हमलावर की आँखों में इतने गुस्से से देखा कि उसे पीछे हटना पड़ा. वैसी ही सुलगती निगाहों से आज दानिश ने उस सलाख वाले आदमी को देखा था.

कुछ देर बाद मेरी बाईं तरफ कंपनी बाग़ पड़ा. हवा कुछ सर्द हुई. मुझे कंपनी बाग़ के बाद पड़ने वाला पहला बायाँ मोड़ लेना था. जैसे-जैसे मैं घर के क़रीब होता गया और वाक़ए और मेरे बीच का अंतर बढ़ता गया, वैसे-वैसे कुछ बहुत बुरा नहीं होगा, इस ख़याल से ख़ुद को राहत देने की मेरी क्षमता भी बढ़ती गई. मगर ऐसा ख़ासकर इसलिए क्योंकि वाक़ए के बारे में ख़ुद को बहुत ज़्यादा सोचने की मुहलत न देकर मैं अपना ध्यान भटका रहा था.

दाहिनी ओर पड़ा विशाल नुमाइश मैदान जहाँ दसवीं क्लास से पहले तक मैंने बहुत क्रिकेट खेली थी. खालापार के मुसलमान लड़के भी मैदान पर आते लेकिन जाट कॉलोनी के लड़के कभी उनके साथ नहीं खेलते. मुसलमान लड़के तेज़ गेंदबाज़ी करते थे और हम अक्सर उनकी तुलना नब्बे के दशक के तूफ़ानी पाकिस्तानी गेंदबाज़ों से किया करते. फिर बाईं ओर मेट्रो मोटेल की जर्जर दीवारें पीछे छूटने लगीं. यह सरकार द्वारा बनाया हुआ मोटेल था जो बरसों से बंद पड़ा था. मगर फिर पहली मंज़िल पर किसके कच्छे-बनियान सूखने डले थे? ‘इसका यही हाल होना था’, पापा का कहना था जिसमें उनका इशारा सरकारी गड़बड़झाले की ओर था जिसकी मुझे कोई परवाह नहीं थी. मेरा दोस्त दानिश, मैंने सोचा. फिर मैंने बाईं तरफ पड़ने वाला वह ख़ाली मैदान पार किया जिसका एकमात्र उपयोग यह था कि सालाना नुमाइश के दौरान वहाँ सर्कस लगता था. मैंने कभी सर्कस नहीं देखा था. मेरा दोस्त दानिश. जिस सड़क पर मैं जा रहा था, उस पर की हवा फ़रवरी के अंत तक धुंध भरी रहने वाली थी. रास्ता ख़त्म होने पर मुझे बाएँ मुड़ना होगा. दाहिनी तरफ पड़ने वाला तीसरा मकान मेरा था.

मेरा दोस्त दानिश.

 

 

सात)

मैंने गेट खोला और अहाते में स्कूटर पार्क किया. फिर मैं ड्राइंग रूम में अंदर गया जहाँ मम्मी एक हिन्दी पत्रिका के कढ़ाई विशेषांक के पन्ने पलट रही थीं. ‘टेस्ट कैसा रहा?’ उन्होंने मुझसे पूछा.

मैंने जवाब नहीं दिया. फिर उन्होंने कहा, ‘ओह, यह तो एक्स्ट्रा क्लास थी न? टेस्ट नहीं. ’

मैं कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चला गया. फिर आँखें बंद करके अपने बिस्तर पर लेट गया. नंदी के बाहर का घटनाक्रम अस्पष्ट रूप से मेरे दिमाग़ में चलता रहा जिसमें कुछ चीज़ें धुँधला गई थीं. चिंता और अपना ध्यान भटकाने के लिए मेरे द्वारा की गई कोशिश, दोनों ने मुझे जल्दी ही थका डाला. मुझे नींद आ गई और कुछ घण्टों बाद माँ ने मुझे जगाया.

डिनर के दौरान पापा ने मुझसे मेरी पढ़ाई को लेकर बहुत से सवाल किए. वे जानना चाहते थे कि अब जबकि बोर्ड के इम्तहान और प्रतियोगी परीक्षाएँ इतनी क़रीब आ चुकी हैं तो मेरे विचार में नतीजा क्या निकलेगा. मुझे लगता है तब मैं बीमार नज़र आ रहा था क्योंकि उन्होंने माँ से मेरा ख़ास ख़याल रखने को कहा. उन्होंने मज़ाक में कहा कि मैं एक क्रिकेटर की तरह हूँ जो एक बड़ी टेस्ट सीरीज़ के लिए तैयारी कर रहा है.

बातचीत के दौरान उन्होंने नई मण्डी इलाके में एक हिंसक वारदात के बाद शहर में तनाव फैलने की बात कही. ‘कुछ मुसलमान लड़के हंगामा कर रहे थे और थपड़ियाए गए,’ उन्होंने कहा, ‘और सारा खालापार मीनाक्षी चौक पर नारे लगा रहा था. ’ मैंने यह जानकर अपना चेहरा अपनी प्लेट में गड़ा लिया, बिना यह बताए कि मैं ख़ुद वहाँ मौजूद था मेरे लिए घटनाक्रम के उनके वर्जन की मुख़ालफ़त करना नामुमकिन होता.

उस रात मैं प्रोबेबिलिटी वाले चैप्टर से कुछ सवाल हल करने की प्रैक्टिस करने बैठा. प्रोबेबिलिटी में ज़रा कमज़ोर था, तिस पर मैं फोकस नहीं कर पा रहा था. हर दूसरे सवाल पर मुझे दिन की घटनाएँ याद आ जातीं.

एक आदमी का निशाना सही लगे इसकी प्रोबेबिलिटी ¼ है. वह 5 बार कोशिश करता है. उसका निशाना कम से कम 3 बार सही लगे, इस बात की प्रोबेबिलिटी कितनी हुई ?

4 लड़के और 4 लड़कियाँ एक लाइन में रैंडम तरीके से बैठे हैं. इस बात की प्रोबेबिलिटी कितनी हुई कि एक लड़का और एक लड़की अलटरनेट बैठे हैं?

और इसी तरह आगे.

अगले दिन स्थानीय हिन्दी बुलेटिन ने दानिश की पिटाई पर रपट छापी. रपट में जिस पहली चीज़ पर मैंने गौर किया, वह थी उसकी कथित उम्र- अठारह साल. एक महीने में मैं सत्रह का होने वाला था. मुझे आश्चर्य हुआ कि हमारी बातचीत में यह बात कभी ज़ाहिर नहीं हुई कि वह मुझसे बड़ा है. दानिश की कुशलता और उसकी उम्र के बीच मैंने अहमक़ाना रिश्ता बिठा डाला. गोया मेरे सारे अनाड़ीपन की वजह मेरे उससे एक साल छोटे होने में थी. क्या मेरी कायरता का भी वही कारण दिया जा सकता था?

रपट के अनुसार दानिश और उसके दोस्त हिन्दू लड़कियों के साथ वैलेंटाइन्स डे मना रहे थे. वहाँ उसका एकमात्र दोस्त मैं था मगर अख़बार सुझाना चाहता था कि एक से ज़्यादा थे. दानिश के अलावा उनमें से किसी के भी बारे में तफ़सील न होने से मुझे राहत हासिल हुई. मैं नहीं चाहता था, वहाँ मेरे होने का किसी को पता चले.

जिस निसार हॉस्पिटल में दानिश को रखा गया था, वह खालापार में था. उसकी हालत कथित तौर पर स्थिर लेकिन ख़तरे से बाहर नहीं थी. यह पढ़कर मैं चक्कर में पड़ गया – सम्भावित ख़तरा मतलब? क्या उसकी जान जा सकती है?

मुसलमान नेताओं द्वारा मीनाक्षी चौक पर किए गए प्रदर्शन का ज़िक्र भी रपट में था. फिर उसमें एक हिन्दू संगठन के प्रवक्ता के वक्तव्य को जगह दी गई थी जिसमें ‘सलमान खान-शाहरुख़ खान संस्कृति’ का उल्लेख था जो खालापार के युवा लड़के मुज़फ़्फ़रनगर में लाना चाहते थे.

दोषियों को पकड़ने को शहर के डीएसपी द्वारा किए गए वादे के साथ रपट समाप्त हुई.

अख़बार में छपी ख़बर के बारे में मुझे ख़ुद पता नहीं चला था. ये पापा थे जिन्होंने मुझे वह ख़बर तब दिखाई जब मैं सुबह-सुबह ब्रश कर रहा था- उनके दाहिने हाथ की तर्जनी छपी हुई ख़बर की तरफ इशारा कर रही थी. उन्होंने मुझसे पूछा कि जिस दानिश के बारे में ख़बर थी, क्या वह मेरा दोस्त दानिश ही है. मैंने कुल्ला किया और ख़बर पढ़ी. मैं बेपरवाही का नाटक नहीं कर पाया लेकिन उनके सवाल का कोई जवाब मेरे पास नहीं था इसलिए मैं अख़बार अपने हाथों में रखे-रखे अपने कमरे में चला गया. मैं दरअसल चाहता था कि यह सवाल, यह ख़बर, यह सारी स्थिति काफ़ूर हो जाए, किसी तरह गायब हो जाए. पापा मेरे पीछे-पीछे कमरे में आए. उन्होंने मेरे ख़बर पढ़ लेने का इंतज़ार किया, फिर मेरे हाथ से अख़बार लेकर चले गए – बिना एक भी लफ़्ज़ कहे. मैं तब समझ गया कि उनके मन में संदेह के बीज पड़ गए हैं.
शाम को मैंने अख़बार ड्राइंग रूम की मेज़ पर पाया. मैंने ख़बर की कटिंग निकाल कर अपनी आर्गेनिक केमिस्ट्री की टेक्स्टबुक में रख ली. मैंने उसे बार-बार पढ़ा गोया वैसा करने से मुझे दानिश की सलामती का कोई सुराग़ मिल जाएगा.

 

 

आठ)

अगले दिन इस वाक़ए से मेरा जुड़ा होना मेरे माता-पिता के सामने ज़ाहिर हो गया. अंजना के पिता ने मेरे पिता को फोन किया और मुझ पर लगाम कसने के लिए कहा. मैं नहीं जानता, उन दोनों के बीच और क्या बातचीत हुई.

माता-पिता से मेरी भिड़ंत कोई बहुत नाटकीय नहीं रही. बच्चे के तौर पर मुझे गाहे-बगाहे ही मार पड़ी, वह भी मेरी माँ के हाथों. अभी काफ़ी अरसे से मैंने अपने माता-पिता को मुझे डाँटने का मौका नहीं दिया था. न तो मैं कभी बदमाश बच्चा रहा, न उद्दंड टीनएजर. इसलिए मुझे लगता है कि वे पसोपेश में थे कि इस मामले में मुझसे कैसे बर्ताव करें.

हम ड्राइंग रूम में थे, सब अलग अलग सोफों पर बैठे हुए. एक तनावपूर्ण ख़ामोशी तब तक तारी रही जब तक मम्मी ने बोलना नहीं शुरु कर दिया: ‘मैं शुरु से जानती थी कि वह दानियल तुम पर ग़लत असर डाल रहा था.’

मुझे लगता है कि मम्मी ने इस बार जानबूझकर नाम ग़लत लिया. ‘दानिश,’ मैंने उन्हें फिर ठीक किया. ठीक करने पर सही नाम के उच्चारण के बाद फिर शान्ति रही. उन्होंने पापा की तरफ़ देखा जो ज़मीन में नज़रें गड़ाए थे जैसे ये सब उनकी ग़लती थी. उनके चेहरे पर एक जड़ सा भाव था जो मैंने पहले कभी नहीं देखा था और उन ख़ामोश लम्हों में वह निराशा थी, वे मुझसे निराश थे और शायद मम्मी से भी या उनके इर्दगिर्द की छोटी सी दुनिया से; उनके हाव-भाव से जो शिद्दत बयाँ हो रही थी वह मैंने उनके चेहरे पर पहली कभी नहीं देखी थी. मैं सोफे से उठा और अपने कमरे में पढ़ने चला गया.

उस रात, क़रीब ग्यारह बजे, पापा मेरे कमरे में आए और बिस्तर पर लेट गए. मैं अपनी स्टडी डेस्क पर बैठा था और मेरी पीठ उनकी तरफ़ थी. मैंने अपने पीछे गिलास में बर्फ़ की झनझन सुनी. वे पी रहे थे.

‘क्या तुम पढ़ पा रहे हो?’ उन्होंने पूछा. बात करने के धीमे अंदाज़ से मैं समझ गया कि वे दोएक पैग पी चुके थे. ‘हाँ,’ मैंने तुरंत जवाब दिया.

फिर उन्होंने दूसरा सवाल नहीं किया और मुझे लगा कि उन्होंने अपने ड्रिंक का एक घूँट लिया. इसके बाद वाले मिनट में मैंने जैसे-तैसे सच बोलने का साहस जुटा लिया. ‘असल में, नहीं,’ मैंने कहा.

‘हूँ…?’

‘पढ़ने में दिक्क्त हो रही है. ’

‘अपने दोस्त की चिंता हो रही है?’

‘हाँ. ’

‘वही हाल तुम्हारा भी हो सकता था.’

‘मेरा वह हाल नहीं होता, पापा,’ मैंने उनकी तरफ मुड़ते हुए कहा. वह सच्चाई थी जिसका अहसास मुझे बोल चुकने के बाद हुआ.

उन्होंने उस बात का जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा. उन्होंने करवट बदली और व्हिस्की का एक घूँट लिया. फिर एकदम सीधे देखने लगे, सामने वाली दीवार को. मैंने नज़रें फर्श पर जमा लीं और बिना पैटर्न वाले ग्रेनाइट में खोने लगा.

‘तुम अपनी राह से भटक गए हो,’ उन्होंने कहा.

यह सुनकर मुझे बुरा लगा. मेरी नज़र फर्श पर और भी गड़ गईं. मैं नई मण्डी में अपने दोस्त के साथ मिलकर न लड़ने के लिए शर्मिंदा था. लेकिन वहाँ महज़ अपने मौजूद होने को लेकर मुझे शर्मिंदा होना होगा? क्या वहाँ होना राह से भटकना हुआ? क्या दानिश के साथ मेरी दोस्ती ही ग़लत थी?

‘महीने भर से ज़्यादा हुआ कि तुम्हारे ट्यूशन ख़तम हो गए हैं,’ पापा ने आगे कहा, ‘तुमने हमसे झूठ बोला.’

मेरे सीने से एक गर्माहट उठी और मेरे चेहरे और कानों पर पसर गई. मैं अब उनका और सामना नहीं कर पा रहा था इसलिए मैंने अपनी कुर्सी मेज़ की तरफ घुमा ली और किताबों में झाँकने लगा. मेरी पीठ पीछे पापा ने डकार ली और फिर करवट बदली. एक सिसकी सुनाई दी. लगा कि वे रो रहे हैं. इससे मेरा गला रुँध गया.

‘सारांश बेटा,’ अपनी भर्राती हुई आवाज़ के साथ वे मुझसे मुखातिब हुए. ‘एक वक़्त था…जब तुम बच्चे थे…एक वक़्त था जब मेरी तनख़्वाह चार हज़ार रुपए थी और होली एंजेल्स की फ़ीस बारह सौ रुपए. वहाँ पढ़ने वाले हमारे मोहल्ले के तुम इकलौते लड़के थे.’

मैंने अपनी नज़रें किताब की तहरीर में गड़ा लीं मगर उस पर के फार्मूले धुँधलाने लगे. फिर मोटे-मोटे आँसू पन्ने पर टपके. पापा ने मुझे सहलाया नहीं. पाँच मिनट बाद जब मैं उनकी तरफ मुड़ा तो पाया कि वे अपना मुँह खोले सो रहे थे और उनकी आँखों के इर्द-गिर्द नमी थी.

 

 

नौ)

अगले दिन से पापा ने अपने कामों के लिए एक्टिवा का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया. शनिवार का दिन आया तो उन्होंने मुझे ट्यूशन क्लास तक छोड़ देने की बात कही. ‘अब मुझे जाने की कोई ज़रूरत नहीं है,’ मैंने उन्हें बताया, ‘वो सिर्फ टेस्ट ले रहे हैं.’ उन्होंने हल्के से हामी भरी जैसे बात को जज़्ब कर रहे हों. ‘घर पर प्रैक्टिस करना बेहतर है,’ उन्हें समझाने के लिए मैंने जोड़ा.

बोर्ड के इम्तिहान क़रीब आ रहे थे. मम्मी ने पापा से एक हीटर ख़रीदवा कर मेरे कमरे में रखवा दिया. लेकिन जब उन्हें महसूस हुआ कि हीटर की गर्मी से मुझे नींद आ जाती है तो तुरंत उसे हटा लिया गया. मम्मी हमेशा की तुलना में ज़्यादा प्यार दिखातीं और मेरे पसंद की चीज़ें बनातीं. पापा की तरफ़ से ये हुआ कि रात में उनका मेरे कमरे में आना बढ़ गया हालाँकि फिर कभी वे अपने साथ ड्रिंक लेकर नहीं आए. अक्सर वे अपने हाथ में कोई हिन्दी किताब लिए आते और पूरी कोशिश करते – जिसमें हम दोनों के लिए देर रात में चाय बनाना भी शामिल है – कि जितनी देर तक संभव हो जागते रहें. ये सब इसलिए कि मैं भी जागता रहूँ और मध्यरात्रि के बाद कम से कम एक घंटा और पढ़ूँ.

उस दौरान मेरे घर से बाहर निकलने पर कोई ज़ाहिर तौर पर पाबन्दी नहीं लगाई गई थी, लेकिन मैंने बिना किसी प्रतिरोध के कर्फ्यू की स्थिति को स्वीकार कर लिया था. मगर मेरा मन रह-रह कर दानिश और उसकी सलामती की ओर भटक जाता. बोर्ड के पहले पेपर का दिन जैसे-जैसे नज़दीक आता गया, मेरी उम्मीद बढ़ती गई कि वह वहाँ मिलेगा. मैं उससे माफ़ी माँग लूँगा और अगर भाग जाने के लिए वह मुझसे नफ़रत करेगा तो मैं उसकी नफ़रत स्वीकार कर लूँगा – यह मेरा संकल्प था.

बोर्ड के पहले पेपर से दो दिन पहले मम्मी ने मुझे पास की दूकान से थोड़ी दही लाने को कहा. फरवरी के अंत की कुरकुरी हवा का मज़ा लेते मैं अपनी साइकिल से गया. यह छोटी सी साइकिल यात्रा मुझे महीनों पीछे ले गई और मुझे यह ख़याल तक आया कि कुल मिलाकर स्कूटर मेरे लिए कोई शानदार चीज़ नहीं रही.

फिर आया पहले पर्चे का दिन जो गणित का था. पापा ने मुझे एमजी पब्लिक स्कूल, जो एस.डी. पब्लिक स्कूल के छात्रों का परीक्षा केंद्र था, तक छोड़ने के लिए मेरा स्कूटर इस्तेमाल किया. परीक्षा शुरु होने से पहले मुख्य इमारत के सामने वाले लॉन पर छात्रों को इकठ्ठा किया गया. मैंने चारों ओर देखा कि कहीं दानिश नज़र आ रहा है या नहीं पर वह मुझे नहीं दिखा. अंजना नज़र आई और मैंने उसे ‘हाय’ कहा मगर वह मुझसे इस तरह पीछे हटी जैसे मैं कोई अपशगुन हूँ. फिर मैं गुंजन के पास गया.

उसने बिना मेरी तरफ़ देखे कहा, ‘दानिश यहाँ नहीं है.’ उसकी आँखें हर तरफ़ दानिश को ढूँढ़ने की कोशिश कर रही थीं.

‘आइ एम सॉरी,’ मैं बोला.

‘तुम सॉरी क्यों हो? किस लिए?’

‘मैं भाग गया. उसकी मदद नहीं की. ’

गुंजन ने मेरी तरफ फ़िक्रमंदी से देखा. ‘दानिश को क्या हुआ?’ उसने पूछा. मैं जवाब दे पाऊँ इससे पहले ही घण्टी बज गई और हमें परीक्षा में ले जाया गया.

अगले तीन घण्टे तक मैं महज़ एक चार अंक वाले प्रोबेबिलिटी के सवाल से जूझता रहा. उसे हल करने का सही तरीक़ा सूझ ही नहीं रहा था. दस मिनट से भी अधिक समय तक उससे जूझने के दौरान नई मण्डी का वाक़या दोएक बार मेरे दिमाग में कौंधा. आख़िरकार मैंने जैसे-तैसे उसे हल कर दिया मगर विडम्बना यह कि मुझे महसूस यह हुआ कि मेरे जवाब के ग़लत होने की प्रोबेबिलिटी आधे से अधिक थी. परीक्षा ख़त्म होने के बाद जब हम बाहर लॉन में आ गए तो सही जवाब मेरे मस्तिष्क में कौंधा जिससे हलक में कड़वाहट सी फैल गई. प्री-बोर्ड में मुझे गणित में सौ में से सौ नंबर मिले थे मगर अब मुख्य परीक्षा में सौ में से छियानबे ही होंगे. फिर एक विकृत तर्क गढ़ते हुए मैंने चार अंकों के नुकसान को दानिश को धोखा देने के प्रायश्चित के तौर पर स्वीकार कर लिया.

लॉन में गुंजन से दोबारा बात करने का मौका नहीं मिला. इसलिए मैं गेट पर चला गया जहाँ पापा मेरा इंतज़ार कर रहे थे, ‘कैसा रहा?’ उन्होंने मुझसे पूछा. ‘परफेक्ट,’ मैंने जवाब दिया.

फिर घर पहुँचने के बाद परीक्षा और प्रोबेबिलिटी का सवाल मेरे ख़यालों से ज़रा परे हो गए और मैं दानिश की फ़िक्र करने लगा. चलने-फिरने में पूरी तरह असमर्थ अगर न हो तो बोर्ड के इम्तिहान में कोई अनुपस्थित क्यों रहेगा, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था. उस घटना को लगभग दो हफ़्ते हो चुके थे और दानिश अब तक अपनी चोटों से उबर नहीं पाया था तो इसका मतलब यही हो सकता था कि वह बुरी तरह घायल है.

गणित के बाद होने वाले अंग्रेज़ी के पर्चे में एक हफ़्ते का वक़्त था. दिन पर दिन दानिश को लेकर मेरी चिन्ताएँ बढ़ती जातीं. डरता था कि वह मर गया. जिस सम्भावना से मैं और भी डरता था वह यह थी कि शायद मुझे कभी पता न चले कि उसका क्या हुआ. संभव था कि उसके आगे का हाल स्थानीय समाचार-पत्र में छपा हो. हमारे घर में समाचार-पत्र सिर्फ पापा पढ़ते थे और अगर दानिश के बारे में कोई ख़बर छपी हो तो मुझे पता था कि वे मुझसे छिपाएंगे. अख़बार के गट्ठे में खुद ख़बर ढूँढ़ना मेरे लिए मुमकिन नहीं था क्योंकि मैं कभी घर पर अकेला नहीं होता था.

अंग्रेज़ी के पर्चे से दो दिन पहले दानिश का क्या हुआ इसको लेकर मेरी बेचैनी चरम पर थी. ख़ुशक़िस्मती से उस दिन पापा घर पर नहीं थे और इसलिए जब मम्मी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं थोड़ी दही लाकर दे सकता हूँ तो दानिश के बारे में पता करने के लिए मैंने एक तुरत-फुरत योजना बना डाली. स्कूटर ले जाने से मम्मी को शक़ हो सकता है इसलिए मैंने उनसे कहा कि पैरों की कुछ कसरत हो जाएगी इसलिए मैं अपनी साइकिल ज़रा लम्बे रास्ते से ले जाऊँगा. वे कुछ हिचक के साथ इस बात के लिए तैयार हुईं. मैं बाहर निकलते ही तेज़ी से जाट कॉलोनी से निकल महावीर चौक पहुँचा जहाँ से मैंने मीनाक्षी चौक जाने वाला मोड़ लिया. मैं पूरी ताक़त से पेडल चला रहा था. मैं मीनाक्षी चौक से सीधे खालापार चला गया. तब तक मुझे पूरी तेज़ी से साइकिल चलाते हुए दस मिनट हो गए थे. इसलिए, साँस चढ़ने लगी थी, तो मैंने अपनी गति धीमी कर दी.

खालापार में सौ मीटर ही अंदर पहुँचा होऊँगा कि बाईं तरफ मस्जिद पड़ी. मेंने इस मस्जिद की हल्के हरे रंग की मीनारें बस मीनाक्षी चौक के उस तरफ़ से देखी थीं जहाँ मैं और दानिश ट्यूशनों के बाद खड़े रहते. नज़दीक से देखने पर उसमें कुछ ग़ौरतलब नहीं था लेकिन मैं सोचने लगा कि क्या यह वही मस्जिद है जहाँ दानिश के परिवार वाले उसकी सलामती की बेतरह दुआ करने जा रहे होंगे.

मस्जिद के दोनों तरफ वर्कशॉप थीं जहाँ मुसलमान आदमी लोहे की बड़ी पट्टियाँ लिए हुए थे. फिर रास्ता बाएँ मुड़ गया और मोड़ पर मुझे गोश्त की दुकान दिखी. उसके सामने दड़बेनुमा पिंजरों में ज़िंदा मुर्गियाँ थीं. दुकान के आगे ही शाहरुख़ खान का पोस्टर लगा था जो शायद उस फिल्म के सीन का था जो मेरे लेखे कम से कम चार-पाँच साल पुरानी थी. समूची जगह दरअसल उन दुकानों और बाज़ारों से अलग लग रही थी जहाँ से हम दही, दूध, साबुन आदि ख़रीदते थे.

मेरे आगे रास्ता सँकरा हो गया और दाहिने मुड़ गया और एक पतली सी गली बाईं तरफ चली गई. उस गली से आगे बढ़ते हुए मुझे उसके भीतर चार बुर्काधारी आकृतियाँ नज़र आईं जिनमें सबसे छोटी बमुश्किल दस साल की रही होगी. ऐसा नहीं था कि मैंने यह दृश्य पहली बार देखा था क्योंकि मुज़फ़्फ़रनगर के बाज़ारों में मुसलमान औरतें दिखना आम बात थी मगर फिर भी मुझे कभी अजीब नहीं लगा था. क्या खालापार का अतिरिक्त सन्दर्भ था?

आगे बढ़ते हुए मुझे महसूस हुआ कि मेरी धड़कनें बढ़ रही थीं. मैं अपने आप को वल्नरेबल महसूस कर रहा था, इस डर से कि किसी भी क्षण कोई मुझे टोकेगा और मेरी पहचान दरयाफ़्त करेगा जैसा कि नई मण्डी में दानिश के साथ हुआ था. उस परिवेश में उस सड़क पर मेरा मुख़्तलिफ़ होना, हो सकता है कि मेरी ख़ामख़याली थी पर उस से उपजा हल्का सा आतंक वास्तविक था. गोया मैं भेस बदलकर घूम रहा था जो किसी भी वक़्त छिटक सकता था. इस स्थिति में कुछ तो ऐसा था जो एक ही समय में सामान्य, असामान्य और अकथनीय था. दुकानों के बोर्ड पर उर्दू अक्षरों को, या छोटे गुम्बदों के ऊपर लगे आधे चाँद को, या काम पर जाते हुए दाढ़ी वाले आदमियों को घबराहट के साथ आँखें झपकते देखते हुए मैं सोचता रहा कि क्या स्वास्तिक का निशान, जो जाट कॉलोनी में आम बात थी, या ओम का निशान देखकर या लोगों की कलाइयों पर बँधे लाल धागे देखकर दानिश को भी असहज महसूस होता होगा? इस बारे में हमने कभी बात क्यों नहीं की?

 

 

दस)

निसार अस्पताल एक साधारण तीन-मंज़िला इमारत में था जो अस्पताल कम और सस्ता लॉज ज़्यादा लगता था. रास्ते से देखा जा सकता था कि मरीज़ों के कमरे साझा बालकनियों में खुलते थे जिनकी रेलिंगें सुखाने के लिए डाले गए कपड़ों से लगभग पूरी तरह ढकी हुई थीं. मैं चौड़े प्रवेश-द्वार से अंदर घुसा और मैंने अपने आप को एक बड़े कमरे में पाया जिसमें क़रीब तीस लोग प्रतीक्षारत थे. यह समझना मुश्किल नहीं था कि वहाँ मौजूद हरेक व्यक्ति मुसलमान था.

कमरे के बीचोंबीच बने रिसेप्शन तक जाकर मैंने वहाँ बैठे आदमी से पूछा, ‘यहाँ भर्ती एक मरीज़ के बारे में पता करना है.’

उसने रिसेप्शन के दूसरे कोने में बैठे आदमी की ओर इशारा किया. उस आदमी ने मुझसे पूछा, ‘हाँ?’

‘एक मरीज़ के बारे में जानना था. क्या उसकी छुट्टी हो गई? अब उसकी तबीअत कैसी है?’

‘मरीज़ का नाम क्या है?’ उस आदमी ने पूछा. उसकी उम्र तीस से थोड़ी ही ऊपर रही होगी, उसकी मुस्लिम दाढ़ी थी और आँखों में सुरमा लगाया हुआ लगता था. दाँतों पर तम्बाखू के दाग़ थे.

‘दानिश आलम. 14 फरवरी की शाम को भर्ती हुआ था. ’

उस आदमी ने मुझे ग़ौर से देखा तो उसे नज़र आया एक घबराया हुआ, पसीने से तर बिना दाढ़ी-मूँछों वाला किशोर जिसके कान हल्के लाल हो चुके थे. फिर उसने मोटे रजिस्टर में देखा, ‘हाँ, दानिश आलम,’ उसने कहा और रजिस्टर में देखता रहा.

‘हाँ.’

‘तुम कौन हो?’

‘उसका दोस्त.’

‘तुम्हारा नाम?’

पता नहीं क्यों मगर अपना नाम फिर अंकुश बताने की तीव्र इच्छा हुई. मैंने उस पर काबू पाया. ‘सारांश मलिक,’ मैंने जवाब दिया.

उस आदमी ने अपनी नज़रें रजिस्टर से उठाईं, पल को ठहरा और फिर नीचे देखने लगा.

‘हम लोग स्कूल के दोस्त हैं…थे.’

‘बुरी तरह ज़ख़्मी था. दायाँ हाथ टूटा था, पसलियाँ टूटी थीं,’ उस आदमी ने कहा, ‘और…सिर में चोट आई थी.’

‘फिर क्या हुआ?’

‘19 फ़रवरी को उसे मेरठ रेफर कर दिया गया.’

इसका एक ही मतलब था कि उसकी चोटें गहरी थीं. जब मामला मुज़फ़्फ़रनगर के डॉक्टरों के बस में नहीं होता तभी लोगों को मेरठ रेफर किया जाता था.

‘आप जानते हैं कि अब वह कैसा है? कोई तरीक़ा जिससे मुझे पता चल सके?’ मैंने उस आदमी से पूछा. अपनी आवाज़ की कंपकंपाहट मैं सुन पा रहा था.

‘जब वह सब हुआ तो क्या तुम उसके साथ थे?’

मैं हाँ या ना में जवाब नहीं दे सका. एक बेतुका दृश्य मेरी आँखों के आगे झलका कि दानिश बेसुध है और उसे बिजली के झटके दिए जा रहे हैं. मेरी आँखों में आँसू आ गए.

‘ज़िंदा होगा,’ उस आदमी ने लगभग हमदर्दी के साथ कहा. ‘मर गया होता तो कोई तुम्हें ख़बर कर देता.’

मैंने अपने आँसू पोंछे, उस आदमी का शुक्रिया अदा किया और अस्पताल से बाहर निकला. अपनी साइकिल पर सवार हुआ. खालापार से बाहर निकलने के सफ़र में उसकी विशिष्टताओं पर मैंने उतना ध्यान नहीं दिया. मेरा दोस्त दानिश, मैं बस इतना ही सोच पा रहा था.

घर पहुँचने पर देखा कि मम्मी गुस्से से पागल हुई जा रही थीं. जिस काम के लिए कभी दस मिनट से ज़्यादा नहीं लगे उसके लिए मैंने डेढ़ घण्टा लगा दिया था. तिस पर मैं दही लाना भी भूल गया था. उनके यह पूछने पर कि मैं कहाँ चला गया था, मैंने अपना चेहरा हथेलियों में इतनी मज़बूती से छुपा लिया कि उनके चाहे जितना ज़ोर लगाने पर भी उन्हें न दिखाऊँ.

 

 

ग्यारह)

हालाँकि आइआइटी में मेरा चयन नहीं हो पाया मगर एक सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में मेरा दाख़िला हो गया. मेरे माता-पिता ने शुरुआत में हल्की नाराज़गी दिखाई मगर प्राइवेट कॉलेज का खर्चा उठाने की नौबत न आने को लेकर उनकी ख़ुशी समय के साथ साथ ज़ाहिर हो गई. साल बदस्तूर बीतते गए. मैं अपनी चुनी हुई ब्रांच कंप्यूटर साइंस के बारे में बिना कुछ जाने-समझे ही इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़कर निकल गया, मगर ख़ुश-क़िस्मती से तुरंत ही मुझे एक प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान में दाख़िला मिल गया जहाँ से दो साल में बाहर आकर मैं असल दुनिया में स्थापित हो गया. तगड़ी तनख़्वाह वाली नौकरी के साथ मैं मुम्बई में बसा और दोएक गंभीर प्रेम-संबंध बने (जिनमें से एक सम्बन्ध एक कैथोलिक लड़की के साथ था और इस बात का हमारे अलग हो जाने से कोई ताल्लुक़ नहीं था).

मुज़फ़्फ़रनगर में बड़े होते हुए जो अभाव अनंत लगा करते, उन्हें मैं भूलने लगा था. मैं अलग ही शख़्स बनता जा रहा था: महंगे-महंगे फ़ोन मैं हर छह महीने में बदल देता, होंडा सिटी में घूमता, फ़ेसबुक पर राजनीतिक किचकिच से दूर रहता, महज़ कुछ साल पहले तक जिन चीज़ों (बीफ़, पोर्क, ओएस्टर, क्रैब, प्रॉन्स और और भी बहुत कुछ) को खाना मेरी कल्पना से भी परे था, उन्हें खाना सीखने लगा, दुनिया को बदल डालने वाली टेक्नोलॉजियों के बारे में उत्साह से बातें करता, शौक़िया तौर पर रेस्तराँओं के रिव्यु लिखता, यूरोप का चक्कर लगा आया और अमेरिका की ट्रिप प्लान करने लगा, वगैरह वगैरह.

इस तरक्की के पचनीय हिस्सों से मेरे माता-पिता ख़ुश थे क्योंकि मैं उनके सामने वही हिस्से दर्शाता था. मुज़फ़्फ़रनगर को लेकर जो भी सकारात्मक नास्टैल्जिया मेरे मन में था, वह हर यात्रा के बाद कम होता जाता क्योंकि मैं उसे एक ऐसी जगह के तौर पर देखने लगा जो थम गई है, जो दुनिया को लेकर अपनी ग़लत धारणाओं को छोड़ने का नाम नहीं ले रही है, कुल मिलाकर एक ऐसी जगह जो मेरे चरित्र के विस्तार के साथ सामंजस्य बिठाने में असमर्थ है.

मेरे बहुत से स्कूली दोस्तों का सफ़र भी मेरी तरह रहा जो भारत या भारत से बाहर बड़े शहरों में आरामदेह ज़िन्दगियों में जम गए. शायद हम सब मुज़फ़्फ़रनगर को ज़्यादा याद नहीं करना चाहते थे और कुछ इसी वजह से स्कूली दोस्तों के साथ मेरा सम्पर्क न के बराबर था गोकि उनमें से कुछ ने मुझे फ़ेसबुक पर ढूँढ़कर अपने से जोड़ लिया था. उन इनायतों के कारण एक यह हुआ कि बोरियत से भरे ऑफ़िस वाले दिन जब फ़ेसबुक खँगालने का वक़्त मिला तो ‘सजेस्टेड फ्रेंड्स’ वाली लिस्ट में किसी दानिश आलम पर मेरा ध्यान गया. प्रोफाइल पिक्चर पूरी तरह स्याह थी इसलिए मैंने हमारे साझा मित्रों की सूची देखी तो महसूस हुआ कि वह मेरा दानिश था. मैं उसकी टाइमलाइन पर गया और देखा कि प्रोफाइल पिक्चर उसी दिन बदली गई है. वह छह दिसंबर था. उस संकेत को समझने में मुझे चंद लम्हे लगे: वह अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने की बरसी थी. नीचे स्क्रॉल करने पर मेरी समझ में आया कि वह अब भी मुज़फ़्फ़रनगर में रहता है जिससे मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि मैं हमेशा सोचता था कि दानिश अपने भाई के पास दुबई चला गया होगा. क्या उसका भाई सचमुच कभी दुबई में था?

उसकी टाइमलाइन पर बहुत सी पोस्टें ऐसी थीं जिन्हें धार्मिक कहा जा सकता है. एक पोस्ट में उसने हाल ही में महाराष्ट्र सरकार द्वारा बीफ़ पर लगाए गए प्रतिबन्ध के ख़िलाफ़, लगता था कि बड़े गुस्से में, कुछ बातें लिखी थीं. ऐसी कुछ पोस्टों को देखकर मैंने ख़ुद को असहज महसूस किया क्योंकि जिस मस्तमौला दानिश को मैं जानता था, उसे ऐसी भारी बातों से जोड़ कर देखना मेरे लिए मुश्किल था. मगर इस बात में कोई शुबहा नहीं था कि ये वही था क्योंकि मैंने फ़ोटो भी चेक कर लिए थे और उसे देख लिया था. वह अब भी हैंडसम था अगरचे उसके बदन पर कुछ किलो चर्बी चढ़ गई थी (जो मेरे साथ भी हुआ था) और बाल भी कुछ कम हो गए थे. वह सेल्फ़ी लेने वालों में था और साफ़ तौर पर बने-ठने रहने का उसका शौक़ अब भी बरक़रार था. यह देखकर एक स्नेहपूर्ण मुस्कान मेरे चेहरे पर आ गई. मगर जब दूसरे एल्बम को देखने के लिए मैंने क्लिक किया तो पहली ही तस्वीर ने मुझे थमने पर मजबूर किया.

तस्वीर में एक औरत थी जो सोफ़े पर बैठे हुए दानिश को एक बच्चा, जो क़रीब दो साल का होगा, थमा रही थी. मैंने सोचा कि वह दानिश की बीवी होगी और वह बच्चा भी उसी का होगा. मगर इस सम्भावना के कारण उस तस्वीर में मेरी उत्सुकता नहीं जगी थी. वह बात थी कि बेडौल, इकहत्थे ढंग से दानिश बच्चे के वज़न को लेने के लिए तैयार हो रहा था – उसका बायाँ हाथ बाहर की ओर बढ़ा हुआ था और दायाँ मज़बूती से सीने से चिपका हुआ. मैंने अगली तस्वीर पर क्लिक किया. उसमें वह औरत नहीं थी, बस दानिश बच्चे को बाएँ हाथ से थामे हुए था, उसका दायाँ हाथ सीने से उसी तरह चिपका था जैसे पहले वाली तस्वीर में था. मैं एल्बम में आगे बढ़ा. एक फ़ोटो में दानिश बुलेट पर पीछे बैठा हुआ था, उसका बायाँ हाथ उस आदमी के कंधे पर था जो गाड़ी स्टार्ट करने की कोशिश कर रहा था. तस्वीर साइड से ली गई थी और उसमें दानिश का दायाँ हाथ नज़र नहीं आ रहा था.

मैं फिर उस एल्बम में गया जिसमें उसकी सेल्फ़ियाँ थीं और उन पर दुबारा नज़र डाली. इस बार मैंने ग़ौर किया कि सबकी सब एक ही एंगल से ली गई हैं, फ़ोन को बाएँ हाथ में पकड़ कर. कुछेक सेल्फ़ियों में बाईं तरफ़ के निचले कोने में उसका दाहिना हाथ देखा जा सकता है, जो उसी पोजीशन में जड़वत है जैसे कोई मुर्दा चीज़ जो लम्बे समय से बेजान है.

मैंने अपना लैपटॉप बंद किया और याद करने की कोशिश करने लगा कि साँस कैसे ली जाती है.

_____


2019 के साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित अँग्रेज़ी कथा संग्रह ‘दिवाली इन मुज़फ़्फ़रनगर’ (हार्पर कॉलिंस इंडिया, 2018) में संकलित; अनुवाद और उसके प्रकाशन की अनुमति के लिए हार्पर कॉलिंस इंडिया का आभार.
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भारतभूषण तिवारी

 

मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश में जन्मे तनुज सोलंकी एक इंश्योरेंस कंपनी में कार्यरत हैं, अंग्रेज़ी में उनकी चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. 2019 में कहानी संग्रह ‘दीवाली इन मुज़फ़्फ़रनगर’ के लिए साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित हैं. गुड़गाँव में रहते हैं.
भारतभूषण तिवारी

लेखक-अनुवादक


bharatbhooshan.tiwari@gmail.com

Tags: Diwali In Muzaffarnagarतनुज सोलंकीभारतभूषण तिवारीमेरा दोस्त दानिश
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Comments 15

  1. mohd.hammad.farooqui@gmail.com Farooqui says:
    1 month ago

    कहानी सिर्फ एक शहर, मुज़फ्फ़रनगर की ही नहीं, न ही , दो अलग अलग आस्थाओं के युवा चरित्रों की बल्कि,अपने ब्यौरों,शब्द।चित्रों में अपने समय, संस्कृति, सामाजिक संत्रास का जीवंत, प्रामाणिक बयान है।

    Reply
  2. Prof Garima Srivastava says:
    1 month ago

    बेहद संवेदनशील कहानी.यथार्थ को पुनर्रचित करने की कला से सराबोर.शब्द चयन और मनोविज्ञान की पकड़ क़ाबिले तारीफ़ है.मैंने मूल कहानी नहीं पढ़ी है लेकिन इस अनुवाद को पढ़कर मूल कहानी का स्वाद ही आता है.कहानी का अंत पथरा देता है.साधुवाद कथाकार और अनुवादक को.

    Reply
  3. अमिता शीरीं says:
    1 month ago

    कहानी के अंत से शुरुआत करती हूं! स्तब्ध करने वाला! इतने सहज तरीके से इस अंत पर पहुंचता है कहानीकार! कोई व्याख्या नहीं, कोई सफ़ाई नहीं, पर मानी बिल्कुल साफ़!
    एक बिंब था ज़हन में दोस्ती का एक लंगड़े एक लूले का, दोनो एक दूसरे के पूरक! लेकिन आज के इस सांप्रदायिक दौर में दोस्ती के मायने ही बदल गए हैं शायद!
    बेहतरीन कहानी बिना लाउड हुए कैसे कही जाती है, उसका सटीक उदाहरण!
    एक पूरी कौम घायल, विक्टिम! और एक कौम भीतर ही भीतर अपराध बोध से सीझती! कोई पुल नहीं! अपने भीतर और झांकने को मजबूर करती!
    अनुवाद बेहतरीन! प्रवाह बेकल, कोई बाधा नहीं…

    Reply
  4. deepak sharma says:
    1 month ago

    इस प्रकार की विचलित करने वाली कहानियां पढ़ने के बाद न तो लेखक, तनुज सोलंकी, को बधाई ही दी जा सकती है और न ही धन्यवाद। सम्मान देने का मन अवश्य बनता है। अरविंद अडिगा के ‘द व्हाइट टाइगर’ के ड्राइवर की झलक और उस का तटस्थ भाव अपने सारांश मलिक में लाने हेतु। समसामयिक राजनैतिक व अनचाहे एक घटनाक्रम को प्रस्तुत करने के लिए एक भावपूर्ण भूमिका बांध चुकने के बाद लेेखक जब दानिश के दांए हाथ की दुर्दशा की ओर संकेत करता है तो पाठक भी सांस लेना भूल जाते हैं।
    बधाई, भारतभूषण तिवारी जी को इस सशक्त अनुवाद के लिए और
    धन्यवाद, अरुण देब जी को इस कहानी को हम तक पहुंचाने के लिए।
    दीपक शर्मा

    Reply
  5. Oma Sharma says:
    1 month ago

    कहानी में डिटेलिंग बहुत शानदार ढंग से हुई है और सांप्रदायिकता के जहर को नवयुवकों या लड़कपन के जीवन के स्तर पर ले जाकर देखना भी अच्छा प्रस्तुत हुआ है। कस्बाई मध्यवर्गीय जीवन खूब निखर कर आया है।लेकिन कहानी अति विस्तार लिए हुए है। कहानी जिस कथा को लेकर चली है, उसको बहुत खींचती है, कई बार मन किया कि अभी और कितना चलेगी? कहां तक चलेगी? क्योंकि जहां जान था उसकी आहट तो समाप्ति से काफी पहले मिल गई थी।

    Reply
  6. Manish Azad says:
    1 month ago

    शानदार कहानी है। लेकिन थोड़ा stereotyping का शिकार है। विशेषकर ‘दानिश आलम’ का चरित्र।
    कहानी में यह कहना भी एक तरह की stereotyping ही है कि मुसलमान लड़के तेज़ गेंदबाजी करते हैं।
    इससे बचा जाता तो कहानी और बड़ी हो जाती।

    Reply
  7. निशांत कौशिक says:
    1 month ago

    बहुत विचलित करने वाली कहानी।

    कहानी में, सतह पर दिखते रैडिकलिज़्म को लेकर कोई सीधी-सपाट बायनरी मसलन सारांश बनाम दानिश का सहारा नहीं लिया गया है।

    यहाँ विडंबना तो है लेकिन अवसाद और पश्चाताप अब भी भी सारांश के लिए एक सुरक्षित जगह है। सारांश की विवशता इसी स्पेस में पैदा होती है। दानिश के पास यह विवशता और जगह दोनों नहीं हैं।
    वह “अनऑपोलॉजेटिक” ढंग से अपनी पूरी अस्मिता के साथ पेश आता है जब सारांश “अंकुश” बन रहा होता है।

    Reply
  8. रुस्तम सिंह says:
    1 month ago

    क्षमा करें। मुझे यह कहानी साधारण लगी। ज़रूरत से बहुत ज़्यादा लम्बी भी। इसमें बहुत से ऐसे ब्यौरे हैं जिन्हें निकाला जा सकता था, कहानी को कसा जा सकता था। कविता की तरह कहानी में भी सिर्फ़ सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक मुद्दे और माहौल ही महत्वपूर्ण नहीं होते; शिल्प भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। इस कहानी का शिल्प बहुत कमज़ोर है। वैसे भी कहानी वहाँ से शुरू होनी चाहिए थी जहाँ से इसका तीसरा खण्ड शुरू होता है।

    Reply
  9. पंकज मित्र says:
    1 month ago

    वजूद को हिला देने वाली कहानी। जिस ठंडी निस्संगता के साथ कहानी कही गई है वह काबिलेतारीफ है। अनुवाद बहुत अच्छा है

    Reply
  10. मनोज पांडेय says:
    1 month ago

    जैसा समय है उसमें कहानी का नाम पढ़ते ही एक धक सी होती है कि कुछ बुरा घटने वाला है। और आगे बढ़ते हुए हम उस बुरे का इंंतजार करने लगते हैं साथ में एक विरोधी कामना यह भी चल रही होती है कि ऐसा न हो। इन्हीं दो स्थितियों के बीच लगभग स्तब्ध भाव से कहानी पढ़ी। और यह स्थिति कहानी पढ़ने के बाद भी बनी रही। काश यह झूठ होती…काश दोस्त इतना कायर न होता… काश उसकी माँ दानिश को दानिश ही कहती… काश…

    Reply
  11. Ravindra kumar says:
    1 month ago

    शीर्षक से ही अंदाजा हो गया था कि कहानी एक वर्ग को कटघरे मे खड़ा करने वाली है। अगर कही पात्रों की पहचान उलट होती तो क्या तब भी किसी को यही अंदेशा सताता रहता जो कि इस कहानी को पढ़ते हुए लगता रहा। खैर ये तो कहानीकार का दृष्टिकोण है कि किसे मासूम, किसे कायर और किसी के मां बाप को कैसा चित्रित करे। फिर विचारधाराएं तो है, खुद को अलग दिखाने की चाह भी है तो नतीजा ऐसा ही कुछ निकलता है। मुबारक हो एक शानदार, जानदार ,रोंगटे खड़ी कर देने वाली रचना के लिए।

    Reply
  12. Dr Om Nishchal says:
    1 month ago

    बहुत धीरज और पैशन के साथ लिखी कहानी जो हमारे समय के विद्रूप को बेबाकी से खोलती है । हिंदू और मुसलमान के बीच व्याप्त संशय और असमंजसपूर्ण संबंधों की कहानी जो एक दंश की तरह हमारे अंत:करण में अंत तक गड़ती है।

    सच कहा है इसे पढ़ने वालों ने कि एक बार शुरू कर देने पर इसे बिना खत्म किए नहीं रह जाता । कहानी की एक बड़ी सफलता है। जहां बड़ी कहानी लंबी कविताओं की तरह बिखर जाने को अभिशप्त लगती हैं वहां यह कहानी अपने कुतूहल में अंत तक बांधे रहती है।

    लेखक अनुवादक दोनों को हार्दिक बधाई।

    Reply
  13. रवि रंजन says:
    1 month ago

    हमारे समय की धड़कन को ज़ज्ब करके रचित एक जीवंत कहानी.

    Reply
  14. Rahul Srivastava says:
    1 month ago

    कुछ न कर पाने की और मूक बने रहने की पीड़ा के साथ ही मैंने भी एक कहानी लिखी थी ‘टर्मिनल-१’ और उस समय बहुत ही व्यक्तिगत सी बात लगी थी पर अब ये आम हो चुकी है क्योंकि रोज़ रोज़ छपने के कारण ऐसी घटनाओं की आदत हम सबको पड़ चुकी है जैसा कि कल ही अलीगढ़ में हुआ।
    कहानी इतनी सहज थी कि अंत पता होने के बावजूद पढ़ने का मन किया, क्योंकि मन था किसी और के अपराधबोध की तुलना एक बार अपने अपराधबोध से भी करके देख लें।

    Reply
  15. नरगिस फ़ातिमा says:
    1 month ago

    दिल को छू लेने वाली कहानी है। कहानी लंबी ज़रूर है लेकिन लंबे वक्त तक याद रह जाने वाली है। अब किसी का नाम दानिश सुनूँगी तो “मेरा दोस्त दानिश” ये कहानी ज़रूर याद आएगी और कहानी के इख़्तेताम पर लिखी ये सतर ” याद करने लगा कि साँस कैसे ली जाती है” भी ज़रूर इक दफ़ा फिर दिल को दहलायेगी।

    खैर! पढ़ कर जी उदास हो गया और लंच भी ठीक से खाया न गया। कहानी के साथ तर्जुमा भी अच्छा है।

    Reply

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