स्त्री-भाषा आंडाल का संदर्भ और कालिदास को चुनौती रोहिणी अग्रवाल |
1.
भाषा के सत्ता-प्रतिष्ठान में हाशिये की उपस्थिति
भाषा विचार की सत्ता संरचना है जो समाज के सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व को भीतर तक नियंत्रित करने के लिए समय की क्रमिकता में गढ़ी जाती है. यहाँ अधीनस्थ की स्वायत्तता के लिए प्राय: कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती. ‘हम’ और ‘वे’ में यदि अस्तित्व को बाँटा जाता है तो इसलिए कि ‘हम’ की सत्ता को अस्मिता के वर्चस्व में ढाला जा सके. भाषा शब्द और व्याकरण का मासूम खेल भर नहीं है गोकि ‘सीखने’ और ‘सिखाने’ की प्रक्रिया में वह निश्छल मुद्रा में व्यक्ति को समाज, संस्कृति और सेल्फ के साथ संबंध बनाने और ज्ञान अर्जित करने का विश्वास देती चलती है. भाषा के भीतर जाकर ही भाषा के व्यवस्था-शास्त्र की बारीकियों और बाध्यकारी प्रभाव को समझा जा सकता है जहाँ देखने, बोलने, सुनने से लेकर आस्वाद और व्यवहार की एकल वर्चस्ववादी व्यवस्था ‘अन्य’ से अपनी आवाज़ और विचार, व्यक्तित्व और पहचान सब कुछ छीन लेने के जतन में और भी इकहरी, अनुदार एवं आदेशात्मक होती चलती है.
भाषा के साम्राज्य में बहुत से उपनिवेश साँस लेते हैं. लेकिन हर उपनिवेश ‘गूँगा’ बन बना दिए जाने का दंश झेलते हुए भी अपने अंदर के संसार से बावस्ता रहता है. वहाँ स्मृतियाँ है जिनमें खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ बसी पूर्वजों की सुदीर्घ विरासत कितने ही गीतों-गाथाओं, परंपरा-मिथकों में गूंज कर जातीय-स्मृतियों को जातीय-अस्मिता के इतिहास में तब्दील कर देती हैं. उपनिवेश के पास सत्ता-हस्तांतरण का दंभ नहीं होता; कुचली हुई जातीय अस्मिता की किरचों को संभाले रखने की बेचैनी होती है कि किसी दिन कोई इन किरचों में ‘साबुत’ देख पाए ख़ुद को. साबुत देखने में दूसरे को भी साबुत देखना है. अपने अवचेतन के बरक्स उसके अवचेतन को भी. उसके विजय-अभियान के बरक्स अपने संघर्ष को भी, ताकि दो अलग-अलग दिशाओं से निकाले गए जुलूस किसी एक बिंदु पर आकर आपसी टकराहट में छिन्न-भिन्न न हो जाएं. उपनिवेश की भाषा प्रताड़ना की देहरी से गुज़रकर असहमति को जब प्रतिरोध में दर्ज करती है तो अपनी स्वप्नदर्शी हूकों को हार्दिकता में पिरो देती है. ऐसा ही कोई पल गूंगेपन से बाहर आकर चेतना के विचरणशील “पांव से पृथ्वी पर कविता लिखने” का पल बन जाता है. वक़्त से छिटका एकाकी पल नहीं; वक़्त के निस्सीम वलय में स्थित कितने ही समानांतर पलों में से एक निर्णयात्मक पल! लेकिन शास्त्रों के पास उपनिवेश के भीतर-बाहर को थहाने का अवकाश नहीं होता. उसके प्रस्फुटन, शब्द और स्वप्न को सुनने का धैर्य भी नहीं. चूँकि भीतर-बाहर की टकराहट ही भाषा को गढ़ती है, इसलिए भीतर की कन्विक्शंस का आटा सानने के लिए मैं बाहर से अंजुरि भर जल लेती हूँ और मोमबत्ती का थोड़ा सा कंपकंपाता प्रकाश भी.
फ्रायड से लेती हूँ इड में सक्रिय लिबिडो कि बता सकूँ सुपर ईगो के कंबल में लपेट दी गई हाशियाग्रस्त अस्मिताओं की बायोलॉजी में भी एक अदद लिबिडो मौजूद रहता है – उसकी जीवन-प्रेरणायें और जीवन की शक्ति का आदिम अनंत स्त्रोत! इन सब का घात-प्रतिघात उसकी मनोवैज्ञानिक संरचना को क्रमशः एक तरतीब देता चलता है. वर्जनाएं और दमन अनंत तक ज़िंदा नहीं रहते. ज़िंदगी की दौड़ में ज़िंदा धड़कनें ही शामिल हो सकती हैं – वे ज़िंदा धड़कनें जो जोंक की तरह रक्त न चूसें, ज़िंदगी की स्लेट पर नई इबारतें लिखें. इसलिए हर दौर में उपनिवेश बाहरी सांकलों को झटकने के प्रयास में कच्ची-पक्की भाषा गढ़ता है और जब अपनी आकांक्षाओं को ‘पहचानने’ का नाद विचार की कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर देता है, आलोक की एक चपल चौंध से देदीप्यमान हो जाता है. इस चपल चौंध के आर-पार एक स्थितप्रज्ञ विवेकवान दृष्टि अव्यक्त-अमूर्त भाव से अपने भीतर होने वाले क्रमिक दरकन और सृजन, परंपरा और आधुनिकता, सीमाओं के स्वीकार और परिधि के विस्तार की संभावनाओं को ‘द्रष्टा’ भाव से देखती रहती है.
‘देखने’ में अपने को ‘पहचानने’ और दूसरों के सम्मुख ‘प्रकट’ होने की उदग्र आकांक्षा भी है. ‘पहचानना’ अपनी कनविक्शंस के पक्ष में दृढ़तापूर्वक खड़ा होना है जो परंपरा का विस्तार होते हुए भी किसी एक बिंदु पर परंपरा में हस्तक्षेप है. जर्मन दार्शनिक नीचे (Friedrich Nietzsche) यदि अभिव्यक्ति की इस पूरी प्रक्रिया को चेतना, आरोहण और सृजन की वैचारिक मनोभूमि के रूप में परिकल्पित कर गरुड़ के गले में लिपटे सांप के मिथक से जोड़कर देखते हैं, तो भर्तृहरि इसे व्यक्ति के अंतरतम में घटित होने वाली अव्याख्येय वैचारिक परिघटना का रूप देते हैं जो पश्यंती (जेम्स जॉयस की संकल्पना एपीफेनी के समतुल्य), मध्यमा और वैखरी नामक तीन प्रक्रियाओं से गुजर कर अंतत: अपने उस लिखित/उच्चरित स्वरूप को ग्रहण करती है जिससे पाठक/श्रोता के रूप में ‘अन्य’ को जोड़ा जाता है.
उल्लेखनीय है कि भर्तृहरि के स्फोट सिद्धांत का एक सिरा यदि पाश्चात्य विचारक क्रोचे के अभिव्यंजनावाद से जुड़ता है तो दूसरा सिरा भाषा-निर्मिति के मनोविश्लेषक-दार्शनिक स्वरूप पर विचार करने की प्रक्रिया में फ्रायड-लाकां से होते हुए फ्रांसीसी स्त्रीवादी विचारकों तक भी आ पहुँचता है. चूँकि मनोविज्ञान और दर्शन दोनों समय, समाज, संस्कृति और परंपरा के अबाध अविच्छिन्न प्रवाह में रखकर मनुष्य के समस्त आचरण, स्वप्न और सृजन को जांचते हैं, अतः भाषा का रूढ़िबद्ध होकर क्रमश: सुस्थिर होते चलना जितना स्वाभाविक है, उतनी ही स्वाभाविक है दबाव के किसी एकल/सामूहिक आघात के परिणामस्वरूप केंचुल उतार कर नई शख्सियत धारण करने की उत्कंठा.
अटपटा लग सकता है कि वैयाकरणों और भाषाशास्त्रियों का हवाला न देकर भाषा-सृजन की क्रमिक प्रक्रिया को जानने के लिए बार-बार मैं नीचे (ये वही हैं जिन्हें हम नीत्शे नाम से जानते हैं लेकिन जर्मन भाषा में नीचे कहलाते हैं) के पास जा रही हूँ. भर्तृहरि स्फोट सिद्धांत में समकाल और संभाव्य काल को एकान्विति में देखने के बावजूद जहाँ अपने निजी चिंतन (अस्तित्व) को दैवी उत्प्रेरणा (अपौरुषेय) का नाम देकर किसी अज्ञात अमूर्त नियंत्रणकारी शक्ति को समर्पित कर देते हैं, वहीं नीचे व्यक्ति को केंद्र में रखकर सृजन के विकास-क्रम की तीन अवस्थाओं को संकेतित करते हैं. हालांकि नीचे ने अपने दार्शनिक उपन्यास ‘दस स्पोक जराथुष्ट्रा’ में यह समूचा विश्लेषण ओवरमैन’ (उबरमैंश) के संदर्भ में किया है, लेकिन उनकी दार्शनिक निष्पत्तियों की अनुगूंजों को विचार और भाषा की सैद्धांतिकी से सहज ही जोड़ा जा सकता है. नीचे की मान्यता है कि मनुष्य वानर (उद्गम) और उबरमैंश (लक्ष्य) के बीच तनी विचार-रस्सी के बीचो-बीच लटका हुआ गधे सरीखा आत्मतुष्ट प्राणी है. लक्ष्य तक पहुँचने का शेष आधा रास्ता उसे दो ‘अवतार’ (अवस्थाएं) लेकर पार करना है.
जब तक मालिक को प्रसन्न करने की चेष्टा में गधे की तरह वह मर्यादा, लक्ष्मण-रेखाओं और व्यवस्थाओं का बोझ ढोता रहेगा, बोझ, मार और उत्पीड़न से दब कर गूंगे समर्पित भाव से अपने को दोहराता रहेगा. लेकिन जिस दिन शेर बनकर इस ‘गधे’ को मार देगा और कर्त्ता की भूमिका में ऊर्जा, गति, शौर्य और आक्रामकता को अपनी संचालक शक्ति बना लेगा, उस दिन आज्ञाकारिता की लीक में बंधे घेरे आप-ही-आप टूटने लगेंगे. गति में वह मुक्ति की राहों को तलाश लेगा. लेकिन मुक्ति दौड़ने से नहीं मिलती. उसे अर्जित करना पड़ता है- समयसापेक्ष समग्र दृष्टि के साथ, जो अनिवार्य रूप से समय का अतिक्रमण करने की प्रखरता और धीरता से गुंथी हुई है. अतः विघटन की आशंका से भरी इन रपटीली ढलानों पर लुढ़कने से पहले उसे तीसरा अवतार लेना होगा- बच्चा बनकर. ‘बच्चा’ कौतूहल, विस्मय, उत्साह और ललक का प्रतीक है. महाभाष्यों के आतंक से अन-आतंकित वह समय के भीतर छुपी छोटी-छोटी हलचलों, वस्तुओं और दृश्यों के साथ संवाद करके अपने व्यक्तित्व को रचता है. ऑब्जर्वेशन उसे उल्लास देता है और अनुभव विचार की कोंपल बनकर भीतर से प्रकाश-किरण की तरह फूटता है. इस ‘बच्चे’ की अनुभव-निमज्जित विचार-यात्रा सृजन का आह्लाद है जो परंपरा के वर्चस्ववादी बोझ से मुक्त है और अपनी अभिव्यक्ति के लिए खुद अपनी भाषा गढ़ती है.
स्त्रीत्व (फेमिनिनिटी) को बखानती फ्रायड और लाकां की मर्दवादी मनोविश्लेषणात्मक अवधारणाओं की एकांगिकता से बौखला कर जब हेलेन सिक्सू ‘लाफ ऑफ मेडूसा’ लेख में ‘एक्रीचर फेमिनिन’ सिद्धांत देते हुए स्त्री से अपनी देह को पहचानने, देह को लिखने, देह को सुनने एवं मुक्त करने का आह्वान करती हैं, तब मानो वे शेर की दूसरी अवस्था में एक बड़ी छलांग लगाने की तैयारी में है. इस प्रक्रिया अब तक ढोई गई पितृसत्ता को बोझ की तरह परे फेंकना ही नहीं है, बल्कि केस-स्टडी की तरह उसकी निर्मिति की आंतरिक प्रक्रिया को समझने की दानिशमंदी भी है जो स्वयं स्त्री को कठघरे में खड़ा कर पूछती है कि क्या उसने स्त्री की क्रमशः निर्बल पराधीन हाशियाग्रस्त होती स्थिति के लिए अपनी भूमिका की निस्संग जाँच की?
क्या पितृसत्ता को गरियाने या अनुकूलन करने की बजाए पितृसत्ता के बेहतर विकल्प के रूप में स्त्रीवाद का कोई परिपुष्ट वैचारिक प्रारूप प्रस्तुत करने की कोशिश की? दरअसल देह के संदर्भ में नई स्त्री-भाषा की बात करते हुए वे आत्मालोचन के ज़रिए आत्मान्वेषण को विचार की केंद्रीयता प्रदान करती हैं. ज़ाहिर है तब न देह ऑब्जेक्ट रहती है, न सेक्सुएलिटी, न विवेकहीन कामनाओं का ऐंद्रिक संसार; बल्कि अंत:प्रज्ञा के प्रकाश में प्रदीप्त सवालों की श्रृंखला बन जाती है जो अस्तित्व और अस्मिता जैसी बुनियादी अवधारणाओं से चलकर परंपरागत विभाजनकारी लैंगिक पहचान को ‘मनुष्य’ की अखंड पहचान में तब्दील कर देना चाहती है.
इसलिए खलनायक का दर्जा पाकर सदियों के मिथकीय इतिहास में उपहास, घृणा और प्रतिशोध का पात्र बनी मेडूसा (इस अभिशप्त स्त्री के समानांतर शूर्पणखा और ताड़का की नियति को निरंतर याद करते रहना बेहद जरूरी है) का वे पुनर्सृजन करती हैं. मेडूसा जो देवी एथेना के मंदिर की कमनीय रूपसी पुजारिन है… मेडूसा जिसे बल-छल से मंदिर में घुस आए महान ग्रीक नायक पोसीडॉन (Poseidon) ने अपनी हवस का शिकार बनाया है… मेडूसा जो अपराध की शिकार होने के बावजूद मंदिर को अपवित्र कर देने के ‘अपराध’ की दोषी घोषित कर दी जाती है और दंडस्वरूप कुरूप, भयानक और चुड़ैल बना दी जाती है… मेडूसा जिसकी सुनहरी लटें अब उलझकर फुंफकारते सांपों की बाँबियाँ बन गई हैं… मेडूसा जिसकी आँखों में बिजली की लपटें कौंधती हैं कि उसे जो सीधा देखे, पत्थर बन जाए. यह मेडूसा को दिया गया निर्वासन का कठोर ठंड है.
लेकिन हेलेन सिक्सू इस मिथकीय कथा को जिन अंतर्ध्वनियों के साथ प्रस्तुत करती हैं, उन्हें मैं स्त्री-भाषा के बेहतरीन नमूने के तौर पर पढ़ती हूँ. पाती हूँ, सिक्सू की मेडूसा आत्मदया और आत्म-निर्वासन से ग्रस्त ‘बेचारी’ नहीं है. अपमान और उत्पीड़न को आक्रोश, बोध और आत्म-सर्जना का रुप देकर वह इसे अपनी ताक़त बनाती है कि कोई भी अन्यायी व्यभिचारी उसके पास न फटक पाए. गर्भस्थ जुड़वां शिशुओं में उसने अपनी आकांक्षाओं और प्रतिरोध को रोप दिया है. मुक्ति-कामना (स्वेच्छाचार नहीं) को उड़नघोड़े पेगासस में, और अन्याय-दमन के संकल्प को क्राइसॉर (chrysor) नामक विशालकाय सुनहरी तलवार में. देवताओं और महानायकों के लिए अब वह ‘ख़तरा’ बन गई है. उसका वध ज़रूरी है. पर वध के लिए भेजा गया हर महारथी पत्थर बन जाता है. अतः देवताओं की पूरी जमात मिल-बैठ कर पर्सियस (Perseus) को इस ‘पुण्य’ कार्य के लिए चुनती है और उसे अधिक ताक़तवर बनाने के लिए सब अपना एक-एक अस्त्र भेंट करते हैं.
मेडूसा का वध दरअसल वध नहीं, बल्कि सभी दिशाओं में गूँजता चुनौतीपूर्ण बेखौफ अट्टहास है जो एक स्तर पर सत्ता के संगठित शौर्य (?) का मज़ाक उड़ाता है तो दूसरे स्तर पर राख में से अपनी अंत:शक्तियों को चुन कर ‘सेल्फ़’ के पुनर्जन्म का जिजीविषा भरा उद्घोष है. यहीं मेडूसा की उन्मुक्त हँसी पुरुषों को लुभाने वाली मोनालिसा की कुटिल तिर्यक् मुस्कान (भारतीय आचार-संहिताओं में भी कहा गया है कि कुलीन स्त्रियाँ अट्टहास नहीं करतीं, हल्का सा मुस्कुरा देती हैं,बस!) का विलोम बन जाती है और अपने अस्तित्व (बीइंग/‘होने’) को अस्मिता (बिकमिंग/ सार्थक ‘व्यक्ति-मनुष्य’) में तब्दील कर देती है.
सवाल उठाया जा सकता है कि नौवीं शताब्दी की तमिल कवयित्री आंडाल की कविता के संदर्भ में मैं बीसवीं सदी की पश्चिमी स्त्रीचिंतकों की अवधारणाओं की बात क्यों कर रही हूँ? क्या यह पश्चिमी मानदंड के आधार पर प्राच्य साहित्य को मूल्याँकित करने की चेष्टा नहीं जो भारतीय चमड़ी में भीतर तक बैठी आत्महीनता की ग्रंथि को ही उजागर करती है? बेशक़ आंडाल एक ऐसी प्रतिभाशाली रचनाकार हैं जिनके व्यक्तित्व की तीन विशेषताएँ उनके लेखन को विशिष्ट और कालजयी बनाती हैं. एक, वे संभवतः भारतीय साहित्य की पहली स्त्रीवादी रचनाकार हैं जिन्होंने स्त्रीवाद जैसी अवधारणा से बहुत पहले अपनी ‘देह’ को पढ़ा-लिखा-रचा है. दूसरे, पारंपरिक ढंग से कृष्ण की मधुरा भक्ति का गायन करते-करते वह अचानक अपने ‘मैं’ का साक्षात्कार करती हैं और फिर प्रतिरोधी सृजन-संस्कृति की झंडाबरदार बन जाती हैं. तीसरे, ‘आत्म’ की भीतरी तहों से निकली उनकी अंत:प्रज्ञा काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों में तोड़-फोड़ मचा कर सौंदर्यशास्त्र में बहुत कुछ नई संश्लिष्ट अर्थव्यंजक ध्वनियों को गूंथती हैं.
मैं यहाँ एक बार फिर अपनी मान्यता को रेखांकित करना चाहूँगी कि साहित्य का सृजनात्मक पाठ लेखक और कृति की परिक्रमा से संभव नहीं. दोनों से वस्तुगत दूरी बनाकर आलोचक को पहले स्वयं को एक स्वप्नदर्शी विश्लेषणात्मक मेधा में सृजित करना पड़ता है. फिर अखंड समय की भीतरी परतों में अवगाहन करते हुए कृति के पाठ के समानांतर अपने समय की अपेक्षाओं और ध्वनियों को भी गूंथना होता है. आलोचना महज़ कृति-विशेष का मूल्याँकन नहीं. न ही परंपरा में उसके स्थान-निर्धारण की बौद्धिक क़वायद. वह मूलतः (और अंततः) मनुष्य और समाज-व्यवस्थाओं के सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक विकास को समझने की प्रक्रिया में परम्परा एवं रूढ़ियों से टकराने वाली द्वंद्वात्मक एवं रचनात्मक पदचापों की शिनाख्त है. लिहाज़ा परंपरा, कृति-समय, और आलोचना-समय तीनों आलोचना के महत्वपूर्ण टूल बनकर समय के भीतर उतरने की दृष्टि देते हैं.
आंडाल की कविता में स्त्री-भाषा की खनक सुनने के प्रयास में यहाँ इस आलेख में तीन सवालों पर विचार किया गया है. एक, परंपरा का आंतरिकीकरण करने के क्रम में वैयक्तिक इकाई के रूप में आंडाल का स्त्रीत्व और कवि-व्यक्तित्व क्या आकार लेता रहा? दो, बोध एवं चिंतन की ‘चेतनावस्था’ में परंपरा में हस्तक्षेप करते हुए क्या आंडाल वास्तव में प्रतिरोध की वैचारिक लड़ाई लड़ रहीं थीं? तीन, सदियों के अंतराल के बाद 21वीं सदी तक पहुँची आंडाल की कविता को आज किस रूप में पढ़ा जाए? क्या भारतीय स्त्री द्वारा की जा रही भाषा की खोज में वह कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है? क्या भाषा-सृजन की उपरोक्त दार्शनिक अर्हताएं आंडाल की कविता को रचकर प्रकाश-स्तंभ का रूप दे पाती हैं?

2.
आलाप से पहले प्रलाप का खनकता खरापन उर्फ परंपरा में हस्तक्षेप के बिना स्त्री-भाषा की खनक संभव नहीं
आंडाल पर जिंदगी ज़्यादा मेहरबान नहीं थी. लेकिन महज़ सोलह साल की उम्र लेकर भी मौत को पछाड़ने में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. दो बातों में उनका खून मन रमा. जमकर अनुभव बटोरे और रम कर मनोद्गारों को कविता में गूंथा. तेरह बरस की उम्र में रचा तीस कविताओं का संकलन ‘तिरुपवई’ और सोलह बरस की उम्र में ‘नच्चियार तिरुमोलि‘ – ग्यारह-ग्यारह छंदों में रचित चौदह लंबी कविताओं का संकलन. बेशक़ आश्चर्य ही है कि बेखबरी और आत्ममुग्धता की इस अल्पकालिक किशोर वय में कोई कैसे परंपरा, समाज और काव्यशास्त्र की बारीकियों को समझ सकता है. शायद यही आश्चर्य उनके भौतिक अस्तित्व को दैवीय चमत्कार की रहस्यमयता में लपेट कर मिथक बना देता है.
वे ‘अजन्मा‘ कही जाती हैं क्योंकि विष्णुचित्तन (जो मंदिर के पुजारी हैं और आंडाल समेत बारह आलवार भक्त कवियों में पेरियालवार नाम से विख्यात हैं) को एक सुबह फूल चढ़ाते हुए तुलसी के पौधे के नीचे मिलीं. इसी तरह वे दिवंगत भी नहीं हुईं, ‘अशरीरी’ हो गईं क्योंकि ‘दिव्यदेशम’ के गौरव से इतराते श्रीविल्लीपुथूर मंदिर की विष्णु-मूर्ति ने हाथ बढ़ाकर अपनी उस लौकिक अर्धांगिनी को स्वयं में ‘विलीन’ कर लिया. यह ठीक वही ऐतिहासिकता (?) है जो मंदिर में भजन-कीर्तन करती मीराबाई की रहस्यमयी अनुपस्थिति को ‘द्वारकाधीश में विलीन’ होने के चमत्कार से जोड़ते हमार समय की विवेक-दृष्टि को धुँधला देना चाहती है. आंडाल के बारे में एक और जनश्रुति प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि विष्णु की उपासना के लिए ताज़ा फूलों की भारी-भरकम माला गूंथने का दायित्व बचपन से ही कोडई (आंडाल का मूल नाम) पर था. वह श्रम से माला गूंथती, पूजा के लिए पिता को देने से पहले चाव से अपने गले में पहनती, और दर्पण में निहारती कि तिरुमलस्वामी को कैसी लगेगी.
पिता ने एक दिन उसकी इस अवांछित हरकत को देख लिया. पहन कर पहनाई गई बासी माला! अब विष्णुचित्तन ख़ुद माला गूंथता, देवता को समर्पित करता. एक दिन देवता ने स्वप्न-दर्शन दिया और कहा कि इस निर्जीव माला से उसका श्रृंगार क्यों किया जा रहा है? उसे तो उसकी अर्धांगिनी भूदेवी कोडई की महक से सुवासित माला ही अर्पित की जाए. ज़ाहिर है इस जनश्रुति को आंडाल की सोच और जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाली घटना की तरह प्रचारित किया गया. भगवान का स्वप्न-दर्शन आंडाल के मनोविज्ञान का नियामक तत्व बना या भक्ति की उन्मत्त अवस्था में स्वयं को भगवान की अर्धांगिनी घोषित करने के ऐलान से बौखलाए ब्राह्मण समाज का ख़ौफ़ इस चामत्कारिक स्वप्न-दर्शन की मूल परिकल्पना बना – नहीं कहा जा सकता. लेकिन इतना तय है कि मंदिर में पूजा-अर्चन के लिए रची उनकी कविताएँ परंपरा की आवृत्ति भी हैं और वहीं कहीं चुपके से अपनी मनोकांक्षाओं के तंबू भी तान आती हैं.
टी. एस. इलियट अपने प्रसिद्ध निबंध ‘ट्रेडिशन एंड द इन्डिविजुएल टैलेंट‘ में मौलिकता जैसी किसी बात को नहीं स्वीकारते. उनकी दृष्टि में हर समर्थ रचनाकार सर्वप्रथम यत्नपूर्वक स्वाध्याय द्वारा पूर्व-परम्परा को इसके गुण-अवगुण के साथ अर्जित करता है. फिर परंपरा में निहित ‘वर्तमानता‘ से आन्दोलित होता है और पूर्ववर्ती परंपरा के प्रभावों को गृहीत करते हुए उनमें अपनी ओर से कुछ जोड़ता है. लेकिन यह ‘जोड़ना‘ रचनाकार की किसी आत्मपरक नवीन उद्भावना का प्रत्यक्षीकरण नहीं है, बल्कि अतीत की वर्तमानता के समानांतर अपने समय की वर्तमानता को पकड़ने के प्रयास में अनायास भाव से घटित हुई किसी नवीन शैल्पिक युक्ति की सघनता है.
यह तय है कि परंपरा के स्वीकार/ग्रहण के साथ-साथ परंपरा में हस्तक्षेप का हौसला ही रचनाकार को विशिष्ट बनाता है. हर उत्कृष्ट रचनाकार अपने स्मृति-कोश में पूर्ववर्ती परंपरा की अनुगूंजों को सुरक्षित रखता है. यह निधि उसे अपने समय को पढ़ने और दोनों समयों को जोड़ने अथवा विघटित करने वाले सूत्रों की पहचान का विवेक देती है. परंपरा का अभिन्न अंग होते हुए भी लेखक का लक्ष्य (और महत्वाकांक्षा) अपने समय का प्रवक्ता/रचयिता होना है – उस समय का, जो मौन कर दी गई ध्वनियों और अदृश्य कर दी गई दृश्यावलियों के बीच अपने क्षीण हृत्त-कम्पन और सुदृढ़ जिजीविषा के साथ समय की भीतरी परतों को निरंतर स्पंदित करता रहता है.
मौन को सुनने की क्षमता ही दरअसल रचनाकार की मौलिकता है (और आत्मपरकता भी) जो शब्द के पारंपरिक अर्थ में एक नई अर्थव्यंजना भर देती है. यही परंपरा का आधुनिकता में क्रमिक संचरण है, जहाँ (१) पुरानी मान्यताओं एवं मूल्यों पर सवाल उठाने के क्रम में वर्तमान की नवीन आकांक्षाओं को केंद्र में लाया जाता है, (२) भिन्न कोण से दर्ज की गई अभिव्यक्तियों का पुनर्पाठ किया जाता है, (३) राजनैतिक-सांस्कृतिक प्रभाव के कारण अस्तित्व में आने वाली उन ‘नवीन’ सच्चाइयों को दर्ज किया जाता है जो इससे पूर्व अनभिव्यक्त रह गईं थीं, (४) परंपरा में मौजूद विविध दृष्टियों का समाहार कर एक नई दृष्टि विकसित की जा सकती है, तथा (५) युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप परंपरा की भीतरी परतों में दबे किसी उपेक्षित विचार, दर्शन, संप्रदाय, शैल्पिक संरचना आदि का पुनराविष्कार कर उसकी ‘वर्तमानता’ को बहस का मुद्दा बनाया जा सकता है.
तमिलनाडु में नौवीं शताब्दी के जिस काल-खंड में आंडाल कृष्ण-भक्त कवयित्री के रूप में अवतरित हुईं, वह काल-खंड आदि शंकराचार्य (700- 700 ई०) के अद्वैतवादी दर्शन के विरोध को तीव्रतर करते हुए वैष्णव भक्ति संप्रदाय की प्रतिष्ठा में प्राणपण से लगा हुआ था. आलवर भक्त कवियों की मधुरा भक्ति हाशिये पर पड़ी स्त्रियों और दलितों को भी अनुग्रहपूर्वक एक सीमा तक अपनी परिधि में स्वीकार कर रही थी. तमिल भाषा में तीसरी सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी ईस्वी तक रचे गए संगम साहित्य की धूम विद्वद् समुदाय की स्मृतियों में जीवित थी जो कालांतर में काव्य से अधिक कवियों की प्रेरणा हेतु काव्य का सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड बन गया था. चूंकि आंडाल का लालन-पालन एक सुरुचिपूर्ण संपन्न भक्तिपरक साहित्यिक परिवेश में हुआ, अतः वैष्णव संप्रदाय की तमाम सैद्धांतिक संकल्पनाओं, मिथकीय संरचनाओं, पौराणिक कथाओं और भक्ति साहित्य की परंपरा को उन्होंने यूँ ही खेलते-खाते आत्मसात कर लिया था. चूंकि पिता विष्णुचित्तन स्वयं पेरियालवार नाम से कविताएं रचते थे, अतः कविता के कथ्य, मीटर, शिल्प की बारीकियाँ और सौंदर्यशास्त्र की समझ उन्होंने सहज विकसित कर ली थी. पिता की कविता उन्हें मुग्ध भी करती थी और उक्ति-वैचित्र्य या वाग्विद्ग्धता जैसी काव्यशास्त्रीय युक्तियों के सहारे अपनी बात को विलक्षण ढंग से कहने का आह्वान भी देती थी.
जैसे शेषनाग
हज़ार फन खोलकर एक साथ
विशाल ब्रह्मांड को धारण करता है मस्तक पर
दामोदर ने भी कमल की पंखुड़ियों की तरह
फैला दी हैं अपनी पांचों उँगलियाँ
और धारण कर लिया है उन पर
गोवर्धन पर्वत समूचा.
(पेरियालवार)
लेकिन भक्ति में तो भक्ति होती है. समर्पण की मुद्राएं! स्तुतियाँ और प्रार्थनाएं! ‘अपनी बात’ कहने की गुंजाइश भला कहां है भक्ति में? और हो भी तो ‘अपनी’ कौन सी ‘बात’ कही जाए? क्या अपनी शरारतों पर माफी मांगी जाए? ‘तिरुप्पवई’ संग्रह में अंडाल की मासूमियत इससे ज्यादा अपना स्पेस मांग ही नहीं पाती –
“हम सीधी सरल लड़कियाँ हैं
भक्ति से भरकर जपती हैं तुम्हारा नाम
चिढ़ाती भी हैं तुम्हें
हे अंतर्यामी? खफा तो नहीं होंगे न हमसे!
हमें अपनी शरण में ले लो.
मुक्ति का वरदान दे दो.”
लेकिन इसमें ‘अपनी बात’ का नयापन कहाँ है? यह तो पिता की खड़ाऊँ पहनकर आंगन भर में धमाचौकड़ी मचाना है. या पिता सरीखे पुरोधा नाम्मालवार की कविताओं को पान के बीड़े की तरह चुभलाना –
“वह दिन कब आएगा
जब मेरी ये दो प्यासी आँखें
देखेंगी तुम्हारे पैरों में बँधी
पैंजनी की रुनझुन घंटियाँ .
कब आएगा वह दिन?”
तो क्या वह और अधिक कविताएं पढ़े, सुने ताकि ‘किसी’ से अपनी बात कहने का हुनर सीख सके? आंडाल संगम-साहित्य की ‘अकम’ परंपरा में ‘रस’ पाती हैं. हाँ, शायद यहाँ उसके भीतर का हृदय खुलता है ज़रा सा. अकम परंपरा माने प्रेम-रस की कविताएं. न, शृंगारिक नहीं. श्रृंगार लौकिक भावना है. जो प्रेम ईश्वर को समर्पित है, वह अतीन्द्रिय है और शील-अश्लील से परे भी. आंडाल इन कविताओं में ठोस लौकिकता को अमूर्त अलौकिकता में संचरित होते देखी है ज्यों तरलता नदी की धारा की तरह कभी उछल-मचल कर अपने को विस्तारित-संकुचित करती चले, कभी समूची वाष्पीकृत होकर बूंद-सी बरस जाए.
आकृति का बिंदु में विसर्जन और बिंदु का सागर में उच्छ्ल नर्तन – संगम साहित्य की प्रेम कविताओं ने आंडाल की किशोर कामेंद्रियों को उत्तेजना, उत्ताप और विरह के आकुल आह्लाद का षड्-रस स्वाद दिया. कल्पना करती हूँ, बहुत सी अन्य कविताओं के अलावा संगम साहित्य की इन दो कविताओं ने भी उन्हें भीतर तक झकझोर दिया होगा कि आंगन, गलियों और राजवीथियों में दौड़ने वाली जिंदगी के अलावा एक गहरी निखरी जिंदगी मन की भीतरी पगडंडियों में भी उल्लास के साथ जीती है. पहली कविता कवि कबिलार की है. नायिका सखी से प्रिय की धृष्टता का अनुभव बांट रही है कि कैसे एक दिन पीछा करते-करते वह अचानक उसके दरवाजे पर आ खड़ा हुआ और पानी मांगने लगा. लेकिन जब वह पानी लेकर आई तब :
“उसने जल से भरा पात्र नहीं पकड़ा
चूड़ियों से भरी मेरी कलाई थाम ली
मैं सिहर कर चिल्ला उठी
ओ माँ, देखो यह क्या कर रहा है
माँ दौड़ते हुए अंदर से आई
लेकिन मैं उस छलिया का दिल कैसे तोड़ती
कहा, देखो माँ,यह कैसे हिचकियाँ ले-लेकर बेहाल हुआ जा रहा है
जब तक माँ थपकियाँ मार कर उसकी पीठ सहलाती रही
वह निगोड़ा कैसी मारक नजर से बींध कर मुझे
बेशर्मी से मुस्कुराता रहा.”
दूसरी कविता मिलाईक्कांदन की है. संयोग नहीं, वियोग श्रृंगार की मीठी स्मृतियों से आक्रांत विरह और विश्वास-भंग की पीर की कविता. नायिका नहीं, नायिका की सखी निर्दयी कृष्ण को उपालंभ दे रही है :
“याद करो हे निष्ठुर!
मेरी सखी ने ठिठोली करते हुए
एक बार तुम्हें निबौरी दी थी
हरी कड़वी नीम की निबौरी
तुमने रस ले-लेकर चाव से खाया था उसे
ज्यों शीरा रचा हो पोर-पोर में
अब तो उसने ठिठुरते माघ की ठंड में
पारी पहाड़ी से उतरती नदी का
शीतल जल भेंट किया है
और तुम हो कि
गर्म और बेस्वाद कहकर
बुरा-सा मुंह बना रहे हो.
सच है, आँख फिर जाए
तो प्रेम की चमक भी कहाँ रह जाती है.”
कैशौर्य और युवावस्था की वय:संधि पर ठिठकी देह काम-ज्वार में डूब-डूब जाने को बेचैन रहती है. लेकिन उतनी ही आक्रामक हुंकारों के साथ वर्जनाएं और आचार-संहिताएं चेताने चली आती हैं कि ये सब कवि पुरुष हैं. अपनी दैहिकता को सांप के केंचुल की तरह उतार कर वेंकटस्वामी को रिझाने के लिए गोपी बन जाते हैं. भक्ति स्त्रीभाव से ही संभव है. लेकिन वह तो स्वयं स्त्री है. क्या करे? स्त्री-देह के साथ वेंकटस्वामी से मुखातिब हो अपनी बात करे तो क्या अनिष्ट नहीं होगा? नैतिकता और मर्यादा का उल्लंघन? लेकिन स्त्री-देह की बात ही क्यों करे वह? स्त्री-देह तो नरक का द्वार है. लज्जा और घृणा की वस्तु. उसका दमन किया जाना चाहिए. या पति के श्री-चरणों में समर्पण. पति, जो अलौकिक ईश्वर का लौकिक अवतार है. तो क्या वह स्त्री होने का दंड भोगती रहे? नापी जा चुकी पगडंडियों को थके बोझिल टूटे पैरों से बार-बार नाप कर बार-बार अपने को शून्य करती चले? क्या स्त्री को अपनी बात कहने की आजादी नहीं?
आंडाल की दूसरी काव्य कृति ‘नच्चियार तिरुमोलि’ अपने समय और परंपरा के बीच की द्वंद्वात्मक टकराहटों का परिणाम है. वह अपनी देह पर लिखी नई बारहखड़ी (वर्णमाला) को देखती है, उसे पढ़ती है तो पाती है कि भीतर-बाहर की दो दुनियायों में बहुत अधिक दूरियाँ हैं. न संवाद है, न तारतम्य. वह तो गूंगी ही बनी रही. छवि और छाया में बंध कर जीने का जश्न मनाती रही.कोल्हू के बैल की परिक्रमा तो जिंदगी नहीं. जिंदगी है उड़ान! जिंदगी है आजादी! महसूसने की! कहने की! चाहने की! और जीने की! तो क्या वह स्त्री नहीं, किसी नियंत्रणकारी सत्ता के इशारों पर नाचती एक लिजलिजी विवशता है? लेकिन जब सर्वशक्तिमान ईश्वर अखिल ब्रह्मांड की नियंत्रणकारी शक्ति है तो वह किसी लौकिक सत्ता से भय क्यों खाए? आंडाल देखती है, उसके भीतर के सागर में अभिव्यक्ति की दो उच्छ्ल लहरों के उद्दाम वेग ने आसमान तक को चींथ डाला है. बस, अब उसे उन्हें मुक्त करना है. और स्वयं को भी. वह इन दो लहरों को बेहद साफ नजर से चीन्हती है. एक लहर है, परंपरा के उद्गम स्रोत से निकली कृष्ण-भक्ति की. दूसरी लहर है, भीतर की सुषुप्ति से जाग कर अंगड़ाई लेती चैतन्यता की. चेतना ऐंद्रिकता की भी; इंद्रियों के संसार में रह रहे अनुभव और हौंस को हौसले और निडरता की स्याही में उकेरने की भी. चेतना के आलोक में नहाया आत्मज्ञान का यह बिंदु भर्तृहरि के स्फोट सिद्धांत का पश्यंती भाव है.
अनुराग और वीतराग से भर कर ‘अपने’ को देखने की सजग परिपक्वता! अपने होने की सर्वस्वीकृति! अपने अस्तित्व का प्रीतिकर भाव जिसमें ‘दूसरे’ (लौकिक-अलौकिक) तमाम अस्तित्व भी हैं, लेकिन नियंत्रणकारी नहीं, सहकारी रूप में. मानो सिल्विया प्लाथ की कविता ‘द मिरर’ में बार-बार बुढ़ाती और अपने यौवन को आह भर-भरकर देखती स्त्री लूस इरिगरे के निबंध ‘द लुकिंग ग्लास : फ्रॉम द अदर साइड’ की एलिस बन गई है जिसने ‘एलिस इन वंडरलैंड’ और ‘एलिस थ्रू द लुकिंग ग्लास’ में उछल-कूद मचाकर स्थितियों को ‘अन्य’ नजर से देखने की परिपक्व संजीदगी हासिल कर ली है. मैं आंडाल और इरिगरे की एलिस को गड्डमड्ड होते देखती हूँ. दोनों के पास एक ‘बोलती हुई आँख’ है जो पहले ‘खुद’ को और खुद के समानांतर ‘अन्य’ को देखती है, पहचानती है, अपना बुरा-भला समझती है. फिर सत्ता, व्यवस्था, आचार-संहिता या वर्जना में तब्दील होती ‘अन्य’ उपस्थित को वहाँ से चले जाने का आदेश देती है. वह न जाए तो खुद के पैरों में दृष्टि, गति, हौसला भरकर वहाँ से चल देने को तैयार है. दरअसल ‘चलना’ जरूरी है. दिशा और मुकाम तो उसके बाद की नियामतें हैं.
लेकिन स्त्री का स्वतंत्र चिंतन पितृसत्तात्मक व्यवस्था की नजर में प्रलाप है. एक पागल द्वारा उसके वर्चस्व के किले की ओर तबियत से उछाला गया पत्थर! पुरुष कभी स्त्री को संजीदगी से नहीं सुनता. और स्त्री है कि अब उसने पुरुष की गैरसंजीदगी की तार-तार हो गई इकहरी चादर में पैबंद लगाने से साफ इनकार कर दिया है. ठीक वैसे ही जैसे स्त्री-देह को घृणा की चीज़ मान कर किसी अमूर्तन में अतिक्रमण करने वाली संगम साहित्य की दो पूर्वजाओं -अव्वाइयर (पहली सदी ई०पू०) और कराइक्कल अम्माइयर (छठी ई०) – से आंडाल ने परहेज़ किया.

3.
भक्ति की तन्मयता किसी बाहरी पत्थर को पूजना नहीं, भीतर की पथरीली ज़मीन को सींचना है
आंडाल और भर्तृहरि को आमने-सामने रखकर देखती हूँ तो पाती हूँ कि भर्तृहरि ने भाषा-उद्भव के सवाल को अंतश्चेतना की जमीन पर हरी रोशनी में नहाई ताजा उगी कोंपल की तरह प्रस्तुत किया है. लेकिन आंडाल जमीन के गर्भ में पल रहे बीज के विकास को एक बींधती हुई आत्मीय नजर के साथ देखती हैं. गर्भ के अंधेरे में नमी और ताप है. सांसों का धीमा लयबद्ध आरोह-अवरोह है. नन्हें-नन्हें अविकसित हाथ-पांव मारने से लेकर पूरी तरह उलट-पलट जाने की गतिविधियाँ हैं. उत्सुकता की डोर में बंधे विकास के क्रमिक सोपान हैं.
अंधेरों की शिनाख्त के बिना प्रकाश नहीं फूटता. दरअसल यह अपने तलघर में झांकने की आदत है जो स्त्री की भाषा को अंधेरे के बीच से फूटती प्रकाश-उर्मि का रूप देती है. इस तलघर में वर्जनाएं और भय हैं, उलझी पगडंडियाँ और भूल-भुलैयाँ हैं, सपनों के इंद्रधनुष और आकांक्षाओं के हिमालय हैं. यह स्त्री-भाषा की भ्रूण-अवस्था है. मुर्गी की तरह आत्म-संशय के अंडे को से कर आत्मज्ञान के चूज़े को पोसने वाली अंत:शक्ति के ताप से निखरी भ्रूणावस्था. नीचे ने ‘ओवरमैन’ के विकास की अंतिम अवस्था – बच्चा (चाइल्ड) – तक पहुँचने के लिए गधा और शेर की जिन दो अवस्थाओं की बात की है, उसे मैं स्त्री-भाषा की भ्रूणावस्था में जुड़वां तौर पर एक साथ पाती हूँ.
अपनी गधे जैसी जून से मुक्ति पाकर शेर की कर्त्ता भूमिका में आने की वैचारिक-मानसिक तैयारी. भ्रूणावस्था मनुष्य के जीवन की सबसे बुनियादी अवस्था है – नैन-नक्श से लेकर चाल-चलन सबकी निशानदेही यहीं होती है. सतह पर स्फोट ध्वनि के साथ जो फूटता है, वह स्त्री-भाषा के विकास की दूसरी अवस्था है – व्यक्तित्व प्रस्फुटन की अवस्था जहाँ आत्मविश्वास की गलबहियाँ डालकर प्रतिरोध की संस्कृति ठसके से अपने हिस्से की जमीन पर काबिज होती चलती है. पर ‘पूर्व-जन्म’ की स्मृतियों से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं होता. आंडाल याद करती हैं तो उनकी नव-अर्जित भाषा सिहर कर तुतलाने लगती है. देखती हैं, ‘नच्चियार तिरुमोलि’ में ‘तिरुप्पवई’ की कातरता ही चली आ रही है :
“हम अभी छोटी बच्चियाँ हैं
हमारा वक्षस्थल भी उन्नत नहीं हुआ अभी
तुम सारा दिन हमारे घरौंदों पर नजर गड़ाए घूमते हो
और हम तुम्हारे इरादों की चाह कर भी थाह नहीं ले पातीं
तुम्हारी शक्तियों को कौन नहीं जानता
तुम वही हो जिसने गरजते समंदर को बांधकर पार कर लिया था
लंकेश्वर के कुल का समूल नाश कर दिया था
तुम मुक्तिदाता हो
फिर हमें क्यों सता रहे हो?”
या
“अब तो रहम करो हे सुदर्शन कृष्ण!
नदी में खड़े-खड़े
केकड़े और मछलियाँ हमारे पैरों को खाने लगे हैं
क्या तुम चाहते हो
कि हमारे भाई आएं भाले लेकर
और दौड़ाएँ तुम्हें दूर तलक
हे कान्हा! कदंब के पेड़ पर और ऊपर न चढ़ो
हमारे कपड़े लौटा दो”
पर उद्विग्न नहीं है आंडाल. व्यक्तित्व- प्रस्फुटन की यह अवस्था यदि नीचे द्वारा प्रस्तावित चाइल्ड अवस्था है तो अपेक्षाएँ करने से पहले उसकी साज-संभाल जरूरी है. लेकिन नीचे गरुड़ और सांप की दोस्ती के बिना विकास की किसी भी अवस्था को नहीं स्वीकारते. भ्रूण अवस्था में सांप की सरसराहट ज्ञान और सृजन की आकांक्षा है. प्रस्फुटन अवस्था में गरुड़ भी है. सांप को उसके साथ दोस्ती करके अपनी सृजन-आकांक्षाओं को ऊँचाई देनी है. सबसे कष्टकर अवस्था है यह. भर्तृहरि को अपनी पुरुष-भाषा को पश्यंती से वैखरी तक पहुँचाने में कठिनाई नहीं होती क्योंकि भाषा के मौजूदा संसार के भीतर उन्हें विचार की एक अतिरिक्त उड़ान लेनी है.
कठिनाई स्त्री-भाषा को होती है क्योंकि उसे नए उद्भासित स्त्री-सत्य की अभिव्यक्ति के लिए नया भाषिक मुहावरा गढ़ना है. पुरानी भाषा, पुराने टूल्स, पुराने मानदंड – सब बेमानी हैं. यह अवस्था सांस्कृतिक गौरव के किले में सेंध लगाकर नई आचार-संहिता, नया सौंदर्यशास्त्र, नया सामाजिक विधान गढ़ने की अवस्था है. आंडाल अपने सेल्फ को दो स्तरों पर महसूस करती हैं. विद्रोही होना और स्त्री होना. यानी व्यक्ति-मनुष्य (अलैंगिक) होना – चेतना और संवेदना की समग्र अखंड मानवीय इकाई! व्यवस्था स्त्री के लिए जिन द्वारों को मूंदती रही है, आंडाल एक-एक कर उन्हें खोलना चाहती है. सबसे पहले है कामनाओं का द्वार. कामनाएँ जो इंद्रियों से जुड़कर शरीर को महसूसना-सुनना सिखाती हैं. अब देह घृणा या ग्लानि की जमीन नहीं; कर्त्ता भाव से अपने को एक्सप्लोर करने की पुलकन है. मानो देह ने परित्राण हेतु गुहार लगाई है :
“जुए में जुते बैल की तरह
हर पल प्रताड़ित हो रही हूँ मैं
और खा रही हूँ भूख.”
वह स्वयं दशावतारी विष्णु बनकर देह के उद्धार हेतु दौड़ती है. लेकिन इंसान के पास दैवी शक्तियाँ नहीं होतीं. तब आंडाल साम दाम दंड भेद को अपने तूणीर में बाण की तरह खोंस लेती है. सबसे पहले कामदेव का आह्वान करती है कि प्रत्यंचा पर पुष्पशर चढ़ा कर :
“बींध दो उसका उर
जो कृष्ण है अमावस सा
समुद्र की तरह विशाल.”
फिर याद दिलाती हैं कि
“बचपन में ही प्रतिज्ञा की थी मैंने
अपने उन्नत पुष्ट स्तन
करूँगी समर्पित द्वारकाधीश कृष्ण को
अब मिलाने की जुगत भी
तुम ही करो न ओ कामदेव!”
और अंत में खुशामद
“ओ मन्मथ! तुम्हारे वास्ते मैंने रांध लिया है
ताजा गमकता अन्न
अर्पित करती हूँ गन्ना दूब धान
विद्वद्जन कर रहे हैं चहुँओर
तुम्हारा स्तुतिगान.”
कहा जा सकता है कि स्त्री-भाषा की जिस आंतरिकता और रचनात्मकता की बात मैं कर रही हूँ, क्या ‘देह’ को लिखने के नाम पर वह श्रृंगारिकता का कामुक उत्सव मात्र है? यदि यही नई स्त्री-भाषा है तो रीतिकालीन कवियों से या ‘गीतगोविंद’ और ‘रतिमंजरी’ के रचयिता जयदेव से वह भिन्न कैसे हुई? बेशक आपत्ति सही है, लेकिन यह तो स्त्री-भाषा की पहली परत है. निज का साक्षात्कार. निज का अकुंठ स्वीकार. देह तो सागर है. देह के भीतर उतरने की प्रक्रिया नौका और जहाज से होते हुए पनडुब्बी की तरह अतल गहराइयों को नाप लेने की है जिसके द्वार गरुड़ के पंखों पर सवार होकर चेतना के उन्नततम लोक में जाकर खुलते हैं. इसे हान कांग के उपन्यासों की तरल काव्यात्मक भाषा में भी पाया जा सकता है जहाँ दार्शनिक ऊँचाइयों के साथ अपनी ही देह से निस्संग अंतरंगता का शास्त्र रचा हुआ है.लेकिन उस पर अलग से बात. यहाँ इतना कहना यथेष्ट है कि आंडाल जहाँ स्त्री-भाषा को ले जाकर छोड़ती हैं, हान कांग वहीं से अपनी विचार-यात्रा के सूत्र उठाती हैं और स्त्री-भाषा को विकास की तीसरी अवस्था की ओर ले जाती हैं जिसे ‘आत्मान्वेषण और पुनर्सृजन अवस्था’ का नाम दिया जा सकता है.
बहरहाल आंडाल के मूल्याँकन के लिए दो बातों को याद रखना बेहद जरूरी है. एक, वे मात्र सोलह वर्ष की आयु तक जीवित रहीं. इसलिए जाहिर है मानव-मनोविज्ञान की गहराइयों और पितृसत्ता की समाजशास्त्रीय पेचीदगियों को समझने का उनके पास न अवकाश था, न परिपक्वता. दो, उनका समूचा अनुभवपरक चिंतन भक्ति की परिधि के भीतर सिमटा हुआ था. लिहाज़ा उनकी सारी जद्दोजहद इसी क्षेत्र में मुकम्मल स्त्री-अस्मिता पाने की थी, और यहीं प्रतिरोध एवं तोड़फोड़ की तमाम कवायदें करनी थीं. उनका काव्य इसलिए स्मरणीय है कि भक्ति-साहित्य के पुरुष-वर्चस्व को तोड़ने के लिए वे अपनी देह के साथ प्रविष्ट होती हैं और काव्य-रचना के दौरान स्त्री-देह धारण करने का स्वांग रचने वाले पुरुष-साधकों को अपनी वास्तविक पहचान के साथ उपस्थित होने की चुनौती देती हैं.वे तीन तरह से स्त्री-भाषा का विशिष्ट संसार रचती हैं. (१) विवाह संस्था के मौजूदा स्वरूप के अस्वीकार के बावजूद कांता-भाव का ठसका, (२) कविता के मर्दवादी सौंदर्यशास्त्रीय टूल्स को स्त्री-हृदय की नर्म छुअन से स्पंदित करना, (३) स्त्री-लेखन और पुरुष-लेखन-कला की अनिवार्य भिन्नता को रेखांकित करना.
सबसे पहले कांताभाव पर बात. आंडाल की विलक्षणता इस तथ्य में निहित है कि वे परंपरा से टकराने की कोई आवेशमयी चेष्टा नहीं करतीं. परंपरा का स्वीकार करते हुए स्वयं को स्त्री/गोपी रूप में ही चित्रित करती हैं और आराध्य विष्णु को पितृसत्ता के अधीश्वर पूर्ण पुरुष (जिसे आज माचोमैन या अल्फामैन भी कह दिया जाता है) के रूप में. लेकिन परंपराा के अनुकूलन की मासूमियत के बीच परंपरा को इस काव्यात्मक चतुराई से ध्वस्त कर देती हैं कि श्रृंगार के आस्वाद और काव्य-रस के माधुर्य में डूबा रसिक-मन बहुत देर तक जान ही नहीं पाता कि वे तो उसके पैरों तले से ज़मीन खींच ली गई हैं. वे देखती हैं कि पितृसत्ता के दबाव के कारण (हालाँकि यहाँ पितृसत्ता आज की तरह समाजशास्त्रीय संकल्पना के अकादमिक बोध के साथ उपस्थित नहीं हुई है, वरन् एक सहज अनुभूति के ज़रिये स्त्री-शोषण की परंपरा के रूप में दर्ज हुई है) साहित्य और समाज दोनों जगह स्त्री एक धड़कन के रूप में कहीं भी मौजूद नहीं है. समाज-परंपरा स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व को विकसित नहीं होने देती और साहित्य-परंपरा उसे पुरुष-निर्मित ‘वस्तु’ के रूप में प्रस्तुत कर उन रूढ़ छवियों में बाँधती है जो समाज के परम्परागत स्त्रीद्वेषी मन्तव्यों की पूर्ति करते हैं. ‘होने’ और ‘न होने’ (टू बी एंड नॉट टू बी) का द्वंद्व उन्हें हेमलेट की तरह विक्षिप्तावस्था की ओर नहीं ले जाता.
नेति नेति (स्त्री-तत्व की व्याख्या का यह रूप भी ठीक नहीं, वह रूप भी सही नहीं) की विमर्शात्मक पद्धति के ज़रिए जिस सत्य तक पहुँचती हैं, वह स्वयं उनका ‘मैं’ है. आत्म तत्व! भक्ति की दार्शनिक पदावली इसी ‘आत्म’ के उन्नयन का कीर्तन है. वे पाती है कि परम्पराएँ स्त्री को गोपी रूप में तो स्वीकार करती ही हैं, कृष्ण का अनुग्रह पाकर गोपी से हृदयेश्वरी बन गई नप्पिनई (नीलदेवी) को भी उनकी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकारती है. वह स्वयं ‘तिरुप्पवई’ में कृष्ण- नप्पिनई युगल की उपासना कर उनके प्रति अपनी एकनिष्ठा का प्रतिवेदन कर चुकी हैं और बदले में मंदिर में जुटने वाले भक्त-समूह की सराहना भी पा चुकी हैं. तो क्या इसी रास्ते पर चलकर वह स्वयं कोडई (आंडाल का मूल नाम) से हृदयेश्वरी (तमिल अर्थ आंडाल) नहीं बन सकती? फिर तो कृष्ण उसके पति होंगे. भक्ति में कान्तासम्मत भाव तो समर्पण की चरम अवस्था मानी जाती है. आंडाल की सोच में विचार की क्रमिकता नहीं, बाल-उत्साह का आवेग है. वे तुरंत स्वप्न-कथा की योजना कर परिणय का गीत रचने लगती हैं. सखी को संबोधित यह गीत ब्यौरेवार विवाह की तमाम रस्मों के अनुष्ठानपूर्वक सम्पन्न होने की सूचना देता है. यह विवाह गंधर्व विवाह नहीं है.
सामाजिक अनुमति और उपस्थिति में सम्पन्न हुआ सामाजिक उत्सव है जो स्वप्न की तरह भंगुर या असत्य नहीं. ‘नच्चियार तिरुमोलि‘ की छठी कविता के दस छंदों में विभक्त यह गीत अन्य गीतों से इस अर्थ में भिन्न है कि यहाँ आत्मविश्वास और आह्लाद के सहमेल से बनी आत्मसंतोष की मनःस्थिति आंडाल की भाषा को द्वंद्वहीन और निश्चयात्मक बना देती है. दूसरी विशेषता है नारायण विष्णु समेत तमाम देवताओं का लौकिकीकरण करते हुए उनकी ‘मनुष्य‘ रूप में इन्द्रियगोचर उपस्थिति, जो भक्ति की परंपरागत आचार-संहिता का आधार ही खिसका देती है. जैसे –
“हे सखि! मैंने सपना देखा
देखा, हज़ारों हाथियों पर इन्द्र समेत
तमाम देवताओं की बारात सजाकर
नारायण ख़ुद मुझे ब्याहने आए हैं
उनकी अगवानी में गलियाँ उत्साह से झूम रहीं हैं
जगह-जगह सुनहरे कलश लगे हैं
चमकीले बंदनवारों से तोरण द्वार सजे हैं
हे सखि! मैंने सपना देखा …
चारों दिशाओं से पुरोहित
हम पर अभिमंत्रित जल छिड़क रहे हैं
मंत्र-ध्वनि के बीच
हमारी कलाइयों पर कलावा बांध रहे हैं
गले में पुष्पहार धारण कर
मैं अपने उस अलौकिक दूल्हे की बग़ल में आ खड़ी हुई हूँ
हे सखि! मैंने सपना देखा
चहुँओर ढोल नगाड़े बज रहे हैं शंखध्वनि गूंज रही है
मोतियों की झालर से सुसज्जित मंडप तले
प्रिय मधुसूदन मेरा हाथ अपने हाथ में थाम रहे हैं
ब्राह्मण वेद स्तोत्र पढ़ रहे हैं
मंत्रोच्चार कर रहे हैं
दूब में लिपटे सूखी नरम टहनियों से घृत डालते हुए
पाणिग्रहण यज्ञ की पावन अग्नि को लहका रहे हैं
फिर मेरे उस सर्वशक्तिमान सर्वगुणसम्पन्न दूल्हे ने मेरा हाथ थामा
और हम अग्नि के चारों ओर फेरे ले रहे हैं .”
आंडाल की भाषा में जितनी स्निग्धता और पारदर्शिता है, उतना ही गहरा दुस्साहस भी है. यहाँ वे प्रच्छन्न ढंग दो बातों का ऐलान कर रही हैं. एक, सर्वगुणसम्पन्न दूल्हे के रूप में विष्णु की कल्पना कर पति के रूप में ऐसे हर पुरुष की पात्रता को अस्वीकार करना जो लौकिक शास्त्रों, व्यवस्थाओं और आचार-संहिताओं की व्यूह-रचना में स्त्री की जीवंतता और स्पेस का वध करे. अपने एक गीत में वे कहती भी हैं कि ऐसे लौकिक पुरुष से ब्याह रचाने से बेहतर है मर जाना :
“किसी नश्वर पुरुष को
समर्पित कर दूँ अपनी देह?
न न, इससे तो मर ही न जाऊँ !
यह तो वही हुआ
ज्यों वेदाध्यायी ब्राह्मण
अर्पित करें नैवेद्य परमात्मा को
और सूंघता हुआ कोई सियार आ जाए
हिस्सा हथियाने.”
स्त्री भाषा का यह ठीक वही तेवर है जो कालांतर में अक्क महादेवी (बारहवीं शताब्दी) और ललद्यद (चौदहवीं शताब्दी) में दिखाई पड़ता है जहाँ वे आराध्य शिव के अतिरिक्त अन्य किसी को पुरुष की संज्ञा ही नहीं देतीं. दूसरे, परिणय-गीत के ज़रिये आंडाल भक्ति की व्यूह-रचना को तोड़कर उसके ठीक बीचों-बीच अपने लिए एक केंद्रीय एवं निरापद जगह चुन लेती है जहाँ अन्य पुरुष-भक्तों का पहुँचना संभव नहीं. अब वे निस्संकोच मुक्तकंठ से अपनी सेक्सुएलिटी का गान कर सकती हैं. यदि विवाह अनुष्ठान से लेकर देवदासी प्रथा, बहु-पत्नी परंपरा से लेकर वेश्यागमन तक पुरुष की कामनाओं की अकुंठ अभिव्यक्ति के बहुतेरे मार्ग खुले हैं तो क्यों न स्त्री कोयल की तरह पंचम सुर में कूक कर रुद्ध कर दी गई आवाज़ को अभिव्यक्त करे? उल्लेखनीय है कि आंडाल की ये दोनों दुस्साहसिकताएं पितृसत्ता को स्त्री-दमन का एक और द्वार खोलने को मजबूर करती हैं.
वह द्वार है- कुल की शालीन परिधि में रह कर यौनाकांक्षा की अभिव्यक्ति करने वाली स्त्री को ‘मोक्ष’ दे दिया जाए. कौन नहीं जानता कि इस ‘मोक्ष’ में वध की क्रूरता छिपी है जिसे ‘मूर्ति में विलीन’ होने की दैवीयता में उसी तरह जोड़ा जाता है, जैसे खीर खाने से ‘ईश्वर’ को जन्म देने वाली लौकिक मांओं का गर्भवती होना. यह स्त्री का वही स्वाधीनता तंत्र है जिससे पितृसत्ता ख़ौफ़ खाती है अन्यथा कांतासम्मत भक्ति से परहेज़ होता तो जयदेव को भी ‘मूर्ति में विलीन’ कर दिया गया होता.

4.
भाषा के तेवर अलग हैं तो सौंदर्यशास्त्रीय टूल्स भी अलग होंगे न!
आंडाल की काव्य-भाषा की दूसरी विशेषता है कविता के मर्दवादी सौंदर्यशास्त्रीय टूल्स को स्त्री-हृदय की नर्म छुअन से स्पंदित करना. इस प्रयास में वे भक्तिकाव्य में दो विलक्षणताओं को जोड़ती हैं. एक, भक़्त के रूप में पल भर को भी अपने व्यक्तित्व का विसर्जन न करना. दूसरे, वचनवक्रता और वाग्विदग्धता के सहारे श्लेष-ध्वनियों का रंग-बिरंगा चमकीला संसार रचना जिसे आगे सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ में इसके तमाम सौष्ठव के साथ देखा जा सकता है. अंतर यह है कि सूरदास जहाँ गोपियों के वाक् चातुर्य के सहारे निर्गुण पंथी उद्धव को परास्त कर सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा करते हैं यानी आराध्य कृष्ण की केंद्रीयता की रक्षा करते हैं, वहीं आंडाल जय-पराजय के ऐसे किसी लौकिक वर्चस्ववादी अनुष्ठान में शरीक नहीं होतीं. वे कविता में अपनी केंद्रीयता को बनाए रखती हैं. वेंकटस्वामी चूँकि उनकी स्मृतियों और आकांक्षाओं के अधीन है, अतः वह गौण (ऑब्जेक्ट ऑफ डिज़ायर) है और उतना ही अस्तित्ववान है जितना वह उसे रचना चाहती हैं. परिणय गीत के बाद मानो आंडाल की भाषा में स्वकीया का ठसका आ जाता है. विवाह हुआ, पर प्रवासी प्रियतम लौटने का नाम नहीं लेता. वे लब्धप्रतिष्ठ कवि कालिदास के ‘मेघदूत’ के यक्ष में अपनी विरहाग्नि को सुलगता हुआ पाती हैं. लेकिन जिस पल मेघ को दूत बनाकर संदेश रचती हैं, उसी पल कालिदास से भिन्न हो जाती हैं.संवाद, उपालंभ, मुंहजोरी और आत्माभिमान की दूर तक गूंजती खनक! न अविनय, न दयनीयता! न महाकवि की तरह ज़माने भर के ज्ञान को उंगली पर धारण करने का बड़बोला स्मित! है तो प्रिय सहित समूची सृष्टि को ठेंगे पर रखने का आत्मविश्वास!
जिस तरह युद्ध के मैदान को ढांप लेती है हाथियों की विशाल सेना
उसी तरह ओ मेघ! तुमने भी वेंकटम की पहाड़ियों को
धारासार बरसात की बौछार से ढक दिया है.
शेषनाग की शैय्या पर शयन करने वाले
उस विष्णु से तो मिले होंगे तुम राह में?
क्या संदेश दिया उसने मेरे लिए?
नहीं दिया? आह! तो मुझे क्या?
लोग ही कहेंगे – कैसा निर्दयी है!
एक बेचारी निराधार लड़की की रक्षा भी नहीं कर पाया!
तब बताओ, किसी को मुँह दिखाने लायक भी रह जाएगा क्या वह?
जानती हूँ, संस्कृत साहित्य के सिरमौर कहे जाने वाले कालिदास के साथ आंडाल की तुलना किसी को भी रास नहीं आएगी. निश्चय ही प्रेम और शृंगार के अद्वितीय कवि कालिदास का साहित्य सौंदर्य, सुकुमारता और कला का बेजोड़ संयोग है. उनके पास कल्पना का प्राचुर्य है और प्रकृति का मानवीकरण करने की अद्भुत संवेदनशीलता. उपमा, बिंबात्मकता और वाग्विदग्धता उनके यहाँ पानी भरते हैं. रामगिरि पर्वत पर बैठा अभिशप्त यक्ष जब मेघ से दूर अलकापुरी में बैठी पत्नी तक संदेश पहुँचाने की गुहार लगाता है, तब ‘मेघदूत’ के 117 पदों में वह कितना कुछ कह देते हैं- कामोत्कंठा जगाने वाले मेघ की स्तुति.. प्रिया के ‘कंठालिंगन’ के लिए भटकती अपनी विरहावस्था का वर्णन …नीति कथन … गंतव्य तक मेघ की यात्रा का रोडमैप … अद्भुत प्रकृति चित्रण और गाहे-बगाहे मेघ का प्रबोधन.
लेकिन मेरी दिलचस्पी यह जानने में अधिक है कि प्रिया तक उन्होंने क्या संदेश पहुंचाया? किस नर्म छुअन के साथ प्रिया का स्मरण किया? अपनी विरहाकुलता की प्राणांतक व्यथा-लहरियों के आलोड़न-आवर्तन की मार्मिक अभिव्यक्ति करते हुए उसे काव्यात्मक सौंदर्य की किन ऊँचाइयों तक पहुंचाया? और प्रेम के शीरे में सराबोर कर श्रृंगार को हृदय की किन आकुल आकांक्षाओं से जोड़ा? प्रेम उपभोग का क्षणिक आनंद तो नहीं है न! और यदि ऐसा करने की जुर्रत करता भी है तो प्रेम से स्खलित होकर पोर्न में तब्दील हो जाता है. मैं कल्पना में यक्ष को शिव के रुप में देखती हूँ – स्त्री को अपने अर्द्धांग में प्रतिष्ठित कर स्वयं स्त्री हो जाने वाला पुरुष! लेकिन कालिदास अपने खालिस पुरुषत्व को अक्षुण्ण रखते हैं और अभिमानपूर्वक यक्ष-संस्कृति को भोग का पर्याय बना देते हैं. (आह! बेचारी स्त्री! बलि चढ़ाने के लिए क्या-क्या रास्ते नहीं खोजता पुरुष!) वे स्त्री को तीन रुपों में देखते हैं – अभिसारिका, वेश्या और पत्नी. जाहिर है तीनों जगह वे मनुष्य नहीं, पुरुष के कामोद्दीपन की सामग्री हैं. इसलिए उज्जैन के महाकाल मंदिर की बात सोचते हुए महाकवि को प्रदोष-आरती के समय नृत्यरत देवदासियों की याद हो आती है.
साथ ही चोर पैरों से चली आती है ‘पांव की ठुमकन’ से ‘कटि किंकणी बजा कर’ रसिकों को मोहाविष्ट कर देने वाली, ‘रत्नों की झिलमिल मूंठ वाले चंवर डुलाकर थक जाने’ वाली और ‘नखक्षत’ जैसे रात्रिकालीन ‘सुख’ से पीड़ा का अनुभव करने वाली श्रृंगारिकता की सिहरन. इससे परे वे साँस लेती और जीने के लिए संघर्ष करती स्त्री की मनुष्य-अस्मिता की बात भी नहीं सोच पाते. सुबह सवेरे ऐश्वर्यपूर्ण अलकापुरी की गली-वीथियों की बात करते हुए जब वे अभिसारिका के घुंघराले बालों से झरे हुए मंदार पुष्पों, कान से गिरे सुनहरे कमल के पट्टेदार झुमकों, केशराशि में पिरोए गए मोतियों के जालों और टूट कर गिरे हारों का ज़िक्र करते हैं तो लगता है प्रेम की गहराइयों को नहीं, वासना की कीच को अभिमंत्रित जल से पाक-साफ़ करने की कोशिश कर रहे हैं.…और इस पद में काम-व्यूह की रचना करते हुए स्तंभ, लज्जा, विभ्रम जैसे जिन मनोद्वेगों की चित्रमय प्रस्तुति की गई है, उसे पढ़कर कामोद्रेक तो नहीं, वितृष्णा अवश्य जगती है कि सामूहिक भोग के इस उत्सव में जिन स्त्रियों को सम्मिलित किया गया है, क्या मखमली आवरण के नीचे रिसते घावों को देखने का अवकाश भी कभी महाकवि ने पाया?
नीवी बंधन खोलकर हटाने लगते हैं जब रेशमी साड़ी
संभोग के लिए आतुर चपलपाणि प्रियतम
लाल-लाल होंठों वाली भोली किशोरियों की कमर से
हो उठतीं तब वे कातर संकोच के मारे
सह्य नहीं होता रत्नदीपों का प्रकाश
फ़िज़ूल ही फेंकती हैं भर-भर मुट्ठी गुलाल
जगमगाते उन रत्नों की ओर.
(अनुवादक नागार्जुन)
इस भाषा में मेरी सांस घुटती है. स्त्री की निजता को चौराहे पर उघाड़ा जाता देख आक्रोश से भर उठती हूँ.आँखों से चिंगारियाँ बरसाकर हर कामी को पत्थर बना देने वाली मेडूसा बेसाख़्ता याद हो आती है, और इक्कीसवीं सदी की स्त्रियों का ‘मी (डूसा) टू’ आंदोलन भी. लेकिन तुरंत अपने को बरजती हूँ कि कामार्त्त होकर आंडाल भी तो अपनी निजता का सरेआम उद्घाटन कर रहीं हैं :
समुद्र की अतल गहराइयों को मथ कर
पांचजन्य शंख को कब्जाने वाले
मेरे स्वामी के कमल-नयन अभिराम हैं बहुत
हे मेघ! तुम दूत बनकर जाओ उनके पास
चरणों में माथा नवा कर कहो कि एक दिन
सिर्फ़ एक दिन
वे मुझ में भी उतरें गहरे
मथ दें मसल दें अंदर तक धँस कर
निर्बाध रति-क्रीडा से पोंछ दें
मेरे वक्ष पर लिपा सिंदूर
कह दो उनसे मेरे बचने की है फ़क़त यही एक जुगत.
बेशक पोर्न और श्रृंगार दोनों की बुनियाद एक ही है – रति, लेकिन प्रस्तुति का लक्ष्य, नीयत और भाव दोनों की आत्मा में मानीखेज अंतर ला देता है. मायने यह रखता है कि आप कहाँ से बोल रहे हैं? और किसके लिए बोल रहे हैं? क्या अपने आश्रयदाता और उसके राजदरबार के अभिजात रसिक-समूह की काम-ग्रंथियों का उद्दीपन एवं प्रसादन करने के लिए? या अपने भीतर की हूकों को सुनने के लिए जहाँ न तामसी कोलाहल है, न ऐषणाओं की ज्वाला? या भीतर उतरने के प्रयास में कहीं आप बार-बार बाहर की ताका-झांकी तो नहीं कर रहे जहाँ पत्नी/प्रिया के स्मरण के बहाने दरअसल आप पद्मिनी नायिका के चिन्हों-संकेतों का स्मरण कर कामोत्तेजित हो रहे हैं?
या स्मृतियों के अंतरंग कक्ष में घुसते ज़रूर हैं लेकिन ढेर में से वही स्मृति उठाकर लाते हैं जो प्रिया की देह और वजूद पर आपके स्वामित्व का परचम लहराती है? ज़ाहिर है जब तक भाव अंदर के उजले नाद से आलोकित नहीं होता, ‘चमत्कार’ की निर्जीव उछल-कूद बनकर रह जाता है या फिर ‘मैन्सप्लेनिंग’ का बड़बोला उदाहरण जहाँ स्त्री (और हीनतर समझी जाने वाली अन्य इयत्ता) को उपदेश या सांत्वना देने का स्वपोषित अहंकार विद्यमान रहता है.
ऐसा नहीं कि कालिदास ने यक्ष के बहाने पुरुष के अंतर्मन की थाह नहीं ली. उत्तर मेघ के अंतिम चौदह पदों में वे इधर-उधर से नज़र हटाकर विरह संदेश को ड्राफ़्ट करने में व्यस्त हो जाते हैं. उसमें से एक पद उद्धरणीय है :
“बहुत दिनों बाद कदाचित सपनों में ही पड़ जाती हो दिखाई
गाढ़े आलिंगन के लिए फैला देता हूँ बाहें आकाश की ओर
द्रवित हो उठती हैं वन की देव-देवियाँ देखकर मेरा यह हाल
टपकते हैं बड़े-बड़े मोतियों की तरह उनके आंसू
हो-हो कर सिक्त चमकते रहते हैं पेड़ों के पल्लव.”
(अनुवादक नागार्जुन)
आंडाल से तुलना करने पर कालिदास की कविताएँ जहाँ ‘मेल गेज़’ का उदाहरण सिद्ध होती हैं, वहीं आंडाल की स्त्री-दृष्टि एक साथ सब्जेक्ट के रूप में स्वयं को, ऑब्जेक्ट के रूप में पुरुष को और द्रष्टा के रूप में स्त्री को निर्मित करने वाले पुरुष-तंत्र को देखती है. इसलिए उनके काव्य में स्त्री-भाषा की विशेषताएँ – स्वाभिमान की चमक, संश्लिष्टता और आत्मपरकता – अनायास उभरकर आती हैं. आंडाल मनोभाव, प्रकृति और रीति (भक्ति) का समाहार करते हुए जिस काव्य-बिंब को रचती हैं, वहाँ संवाद और संवेग, लय और नाटकीयता उमड़ती नदी का रूप लेते हैं. मोटे तौर पर उनके काव्य-शिल्प में अर्थ की तीन संश्लिष्ट परतों को देखा जा सकता है.
सबसे पहले है प्रकृति चित्रण. पेड़-पहाड़, वर्षा-वसंत, मेघ-कोयल पहली नजर में कविता का लोकेल रचते दीखते हैं, लेकिन अनायास जान पड़ता है कि प्रकृति की वह खास रंगत भगवान विष्णु के किसी एक अवतार की स्मृतियों और अर्थव्यंजनाओं को संप्रेषित करने के लिए रची गई है. पाठक अर्थ-प्रक्षेपण की इस अर्थव्यंजक रीति पर रीझ कर भक्ति-रस में डूबने को होता ही है कि पद की अंतिम दो-तीन पंक्तियाँ एक गहरे आवेग के साथ आती हैं, और जतन से बुनी गई काव्योक्तियाँ नायिका के भावोच्छ्वास का स्पर्श पा जीवन्त हो जाती हैं. अन्य सब कुछ नेपथ्य में चला जाता है – प्रकृति भी, स्तुति हेतु रचा गया पौराणिक माहात्म्य भी. अब वहाँ उपस्थित है विरहविदग्ध प्रिया. निष्ठुर प्रिय का अस्तित्व सिर्फ़ उसकी स्मृतियों में है. प्रकृति भी न उद्दीपन रूप में, न आलंबन रूप में. वह महज अनुचर है कि नायिका के संवेग-संचरित उच्छ्वासों को पौराणिक महात्म्य-सी वरीयता देकर लोक, शास्त्र और पल को उसके अधीन कर दे. जैसे:
दूर-दूर तक मेघों ने
आसमान को काली चादर से ढांप दिया है
वेंकटम की पहाड़ियों से उतर कर आती बारिश की बौछार से
पानी में तिरने लगी हैं फूलों की लाल नरम पंखुरियाँ
हे मेघ! कहो उस नरसिंहावतार से जाकर
लंबे पैने नाखूनों से जिसने
सीना फाड़कर हिरण्यकश्यप का
धरती को डुबो दिया था लहू में
नख क्षत से मर्दन करे मेरा
या फिर लौटा दे शंख-चूड़ा
छीन ले गया था मुझसे जो उस बार.
यह ठीक वही स्थल है जहाँ स्त्री-भाषा पुरुष-भाषा से अलहदा अपना एक परिपुष्ट व्यक्तित्व लेती है. वह लगातार भीतर और बाहर की आवाजाही में अंतर्जगत और बहिर्जगत को जांचती है. पर्सनल इज़ पोलिटिकल सिद्धांत में विश्वास करते हुए.
सांकेतिकता, लाक्षणिकता, वाग्विदग्धता – स्त्री-पुरुष दोनों की रचनाओं में उनकी कलात्मक निपुणता के अनुरूप उमड़ते हैं. लेकिन जो चीज़ दोनों को अलगाती है, वह स्त्री-लेखन में प्रचुरता में मिलने वाली आंतरिकता, आत्म-साक्षात्कार और तरलता में भीगी वैचारिकता एवं यथास्थिति का अतिक्रमण करने की कोशिश. पुरुष अपने से बाहर जगत् को देखता है. इस देखने में प्रायः भीतर उतर कर अपने से अभिन्न हो जाने और फिर एक वस्तुगत दूरी के साथ कठोर जाँच की जद में ले आने की चाह नहीं है. स्त्री बिंदु के भीतर प्रविष्ट होकर समय और भूगोल की अनंतता में विस्तीर्ण गहराइयों में उतरने लगती है. दोनों की दृष्टिगत भिन्नता दोनों के निमित्त अलग-अलग बनायी गई आचार-संहिताओं के कारण भी है. पुरुष का कार्यक्षेत्र बाहर है. वह नायक़/कर्त्ता/ पुरुषार्थी बनाया जाता है. अधिकार, शासन और नेतृत्व उसके सेल्फ़ को गढ़ते हैं. उसे सर्वाइवल के लिए बहिर्मुखी होना ही है. ज्ञान का प्रदर्शन, भावनाओं पर नियंत्रण और प्रतिद्वंद्वी को कमतर आंकने/स्वीकार करने का हुनर उसके मनोविज्ञान की रचना में जुट जाते हैं. इसलिए उसकी भाषा में सपने नहीं, यथार्थ की कड़ी ज़मीन पर गाड़े गए खूंटे महत्वपूर्ण हैं. इसलिए उपदेश, नीति कथन, प्रबोधन, संरक्षण जैसी अन्यान्य अभिव्यक्तियाँ उसे प्रिय हैं जहाँ शब्द साँस नहीं लेते, कमाण्ड करते हैं.
अस्तित्व से विहीन कर दी गई स्त्री पाती है, दुनिया में उसके लिए कुछ चीज़ें बड़े जतन से संभाल कर रखी गई हैं – समर्पण, विनय, मौन, श्रम और उपेक्षा. उसे शब्दों के साथ सवालों को भी अंदर घोंटना है और सपनों को भी. वह बार-बार आदतवश इन सब ‘फेंकी गई नियामतों’ को धूप दिखाने तलघर में जाती है; भय और संकोच से भरकर आत्म-संशयी हो उठती है. सवाल वजूद से भी बड़े हो जाते हैं, और उनका सिरा पकड़ने की कोशिश में वह बार-बार उनकी प्रदक्षिणा करती है. लिहाज़ा उसकी कला में बार-बार आगे बढ़ने, ठिठकने और अपने ही विचार-वृत्त में एक घूम-घूमकर गहरे उतरने की ललक भरी बेचैनी है. पुरुष-लेखन में लाठी की पीठ पर गठरी बाँध कर विश्व-भ्रमण की परंपरा है. अपने से बाहर हर चीज़ को जीतने की लालसा. पुरुष के पास क्या तलघर नहीं होता? या तलघर में झांकने का जोखिम वह नहीं उठाना चाहता क्योंकि वहाँ के बेशक़्ल अंधेरों में जुगनू नहीं होते. होते हैं पीप, मवाद, लहू और थूक के थक्के; भय-पराजय-अपमान की आशंकाएं! आंडाल का काव्य स्त्री-पुरुष क़ी संरचनागत भिन्नता के आंतरिक रेशों की पहचान कर भिन्नता को विशिष्टता और आस्वाद की नवीनता में ढालता है.
5.
और अंत में कुछ सवाल
सोचती हूँ, आंडाल यदि जीवित रहतीं और यौवन की देहरी उलांघ कर अधेड़ावस्था में प्रवेश करतीं, तो अपनी अनुभव-राशि से वे भाषा में नया और क्या जोड़तीं? क्या मीरा की तरह धीरे-धीरे सुलग कर थक जातीं? या ढेर सारे दायित्वों की गठरी संभालते-संभालते विवाह और परिवार-संस्था की अंदरूनी दमघोंटू बारीकियों से वाक़िफ़ हो कर प्रतिरोध को सृजन में नहीं प्रतिशोध के उफान में ढाल देतीं, और जान ही न पातीं कि जिस पितृ-सत्ता के विरोध में वे अपना समानांतर समन्वयमूलक संसार रच रही हैं, वह धीरे-धीरे सत्ता का समानांतर अखाड़ा बनता जा रहा है? या एक बार फिर अंदर के अंधेरों में पैठ का विचार की साधना करतीं; शब्दों को चुप्पियों में डुबो देतीं; और बीज की तरह विकास के भीतर छिपे विकास के अंतर्सूत्रों को तलाश कर ‘पुनर्जन्म’ पातीं?
जीवन, संस्कृति और उम्मीद की तरह स्त्री-भाषा भी चरैवेति चरैवेति सिद्धांत पर ज़िंदा है. पर वह विकास की तीसरी अवस्था तक नहीं पहुँच पा रही है. आज के स्त्री-लेखन में भी नहीं. वह प्रतिरोध और प्रतिशोध की बारीक रेखा के बीच फैले अनंत मरुस्थलों में भटक कर अपनी अंत:शक्तियों को खो रही है. जड़ता की परिक्रमा करना अपनी अंत:शक्तियों का क्षरण करना है. लेकिन क्या यह तथ्य स्त्री-भाषा पर ही लागू होता है? क्या भाषा का मौजूदा पुरुष-पक्ष सहस्राब्दियों की विचार-यात्रा के दौरान अपनी पूँछ को मुँह में दबाए सांप के मेटाफर की तरह नई उद्भावनाएँ दे पाया है? क्या स्वयं को वर्ग,लिंग, जाति, धर्म के भेद से परे कर ‘अन्य’ की अस्मिता में अपने ‘मैं’ को विसर्जित कर पाया है? विचार की नई उद्भावना के लिए परंपरा के छल्ले में उसी बहस को आगे बढ़ाते हुए नया छल्ला डालना काफ़ी नहीं होता. उपनिषद् में जिसे पूर्ण में से पूर्ण निकालकर पूर्ण बने रहना कहा गया है, वह परंपरा के गुरुत्वाकर्षण को झटके से तोड़कर अपने स्पेस और ब्रह्माण्ड को ख़ुद बनाना है.
सवाल यह भी है कि क्यों हम पश्चिम का अनुकरण भर कर रहे हैं, पश्चिम की तरह भाषा, विचार और दर्शन के स्तर पर नई सैद्धांतिक अवधारणाओं को जन्म नहीं दे पा रहे हैं? जबकि हमारे यहाँ सांप का मेटाफर अपनी पूँछ नहीं चबाता, कुंडलिनी की तरह गुड़ामुड़ी पड़ी अवस्था को सुषुम्ना के आधार के सहारे सीधा करता है, अनहद नाद सुनता है और फिर तीसरे नेत्र को खोलकर शिव के गले में लिपट जाता है. बेशक यह तीसरी अवस्था दुष्कर है लेकिन कबीर और नाथपंथियों-योगियों की तरह अनहद नाद तो सुना ही जा सकता है न! स्त्री-भाषा के विकास की तीसरी अवस्था इसी अनहद नाद को सुनने के क्रम में उस ‘पुरुष’ को भी समाज के भीतर जन्मते देखती है जिसे आंडाल, अक्का महादेवी और मीरा ईश्वर की कल्पना में रचती हैं और हान कांग ‘ग्रीक लैसंस’ उपन्यास में क़रीब-क़रीब अंधे अनाम पुरुष की स्त्री-संवेदना में, जिस पर विस्तार से बात की जानी चाहिए.
आत्मान्वेषण की दुर्धुर्ष यात्रा के बाद सृजनात्मक अर्थव्यंजनाओं के साथ विकसित हुई स्त्री-भाषा दरअसल एक विकासशील समाज के बने होने की आश्वस्ति देती है.
आलोचना पुस्तकें : हिंदी उपन्यास में कामकाजी महिला, एक नज़र कृष्णा सोबती पर, इतिवृत्त की संरचना और स्वरूप, समकालीन कथा साहित्य: सरहदें और सरोकार, स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प, साहित्य की ज़मीन और स्त्री मन के उच्छवास, हिंदी कहानी: वक़्त की शिनाख्त और सृजन का राग, हिंदी उपन्यास का स्त्री पाठ, साहित्य का स्त्री स्वर, हिंदी उपन्यास: समय से संवाद, कथालोचना के प्रतिमान, कहानी का स्त्री- समय. आदि कहानी संग्रह : घने बरगद तले, आओ माँ हम परी हो जाएँ सम्मान एवं पुरस्कार : हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा कहानी एवं आलोचना पर तीन बार, स्पंदन आलोचना सम्मान, वनमाली कथा आलोचना सम्मान, रेवांत मुक्तिबोध सम्मान, डॉक्टर शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान, डॉक्टर रामविलास शर्मा स्मृति सम्मान, नारी शक्ति सम्मान, श्रेष्ठ महिला सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी rohini1959@gmail.com |
समालोचन न होता तो अभी तक फोन पर पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति न जाने कब की ख़त्म हो गई होती। अगर लंबे आलेखों में सरसता न हो, काव्यात्मकता न हो तो उसे कौन पढ़ पाएगा। इनके रहते समालोचन में लंबे लेख पढ़े गए और गहन गंभीर समीक्षात्मक टिप्पणियां भी । आप अपने पाठकों के धैर्य की परीक्षा लेते हैं। पिछले दिनों प्यारे कवि कुमार अम्बुज का लेख अंतरिक्ष में बेचैनी पढ़ने को दिया और फिर रोहिणी अग्रवाल जी का यह अत्यंत गंभीर आलेख स्त्री -भाषा । इधर प्रेम-भाव में में डूबी कविता और उधर कालिदास की श्रृंगारिकता। इसके आगे भी बहुत कुछ है इस आलेख में । रोहिणी जी को इस अनुपमेय लेख के लिए मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं और बधाई भी।
कुमार अंबुज जी का लंबा लेख पढ़ तो लिया था, उस पर मेरी शुष्क टिप्पणी क्या उचित होती?
हीरालाल नागर
“शब्दों के गर्भ में स्पंदन सुनती एक दृष्टि”
“ऐसा आसाँ नहीं लहू रोना।
दिल में ताक़त, जिगर में हाल कहाँ।”
— ग़ालिब
ग़ालिब के इस शेर की टीस कहीं न कहीं वही भावभूमि रचती है जिस पर रोहिणी अग्रवाल जी का लेखन टिका है — गहन, जटिल, लेकिन असाधारण संवेदनशीलता से लबरेज़।
रोहिणी जी को पढ़ना महज़ एक लेखक को पढ़ना नहीं है, वह एक गहरी पाठकीय साधना है। उनकी दृष्टि किसी विषय को पढ़ने, सोचने और कहने की प्रक्रिया को एक नई ज़मीन देती है — वैसी ज़मीन जो भाषा की तहों में जाकर उसकी जड़ और नमी को पहचानती है।
मेरा पहला परिचय उनके लेखन से तब हुआ जब उन्होंने जयशंकर प्रसाद और अन्य महत्वपूर्ण कथाकारों की कहानियों के पुनर्पाठ प्रस्तुत किए। यह केवल आलोचना नहीं थी, बल्कि दृष्टि का पुनर्निर्माण था।
स्त्री-विमर्श, भाषा और परंपरा पर लेखन की कोई कमी नहीं है, पर रोहिणी जी की लेखनी में वह तैयारी, वह गहराई और वह दार्शनिक आधार है, जो इन विषयों को सहज भावुकता से ऊपर उठाकर विचार की ज़मीन पर लाकर रख देती है।
आंडाल पर उनका आलेख इसी की मिसाल है — फ्रायड, नीत्शे, भर्तृहरि, कालीदास और टी.एस. इलियट के चिंतन को जिस सहजता से वे आंडाल की कविता के साथ जोड़ती हैं, वह चौंकाता नहीं, बल्कि पाठक को किसी प्राचीन आत्मा की तरह धीरे-धीरे खोलता है, सीधे टकराता है।
तीन बिंदुओं पर केंद्रित यह आलेख —
आंडाल का स्त्रीत्व और कवि-स्वर,
परंपरा में हस्तक्षेप के जरिये प्रतिरोध की संभावनाएँ,
और 21वीं सदी में उस काव्य-स्मृति की पुनर्पाठ प्रक्रिया —
यह न केवल एक कवि को समझने का प्रयास है, बल्कि स्त्री-भाषा की उस अजानी लेकिन आंतरिक लय को पहचानने की कोशिश भी है, जिसे हमने सदियों से उपेक्षित रखा।
जो अनुच्छेद विशेष रूप से मन को छूता है —
“भर्तृहरि ने भाषा-उद्भव को हरी रोशनी में नहाई कोंपल की तरह देखा है, जबकि आंडाल उसे गर्भ में पल रहे बीज की तरह देखती हैं — अंधकार में, ताप और नमी के साथ, आत्मीयता से।”
यह वर्णन भाषा को एक जैविक, स्त्री अनुभव से जोड़ता है — जहाँ भाषा जन्म लेती है और हर साँस के साथ आकार पाती है।
रोहिणी जी का लेखन एक अद्वितीय पाठकीय अनुभव है — स्वादिष्ट मिठाई की तरह जिसमें सिर्फ़ स्वाद नहीं, स्मृति और सत्व भी है। समालोचन को इस विलक्षण आलेख को स्थान देने के लिए हार्दिक साधुवाद।
मुझे पता है उनके पास ऐसे बहुत विषय हैं, आशा करता हूँ कि ऐसे लेख और विषय रोहिणी जी बार-बार उठाएँगी। क्योंकि उनसे सिर्फ़ पढ़ना नहीं, लिखना भी सीखने को मिलता है।
समालोचन को साधुवाद 💐 इस तरह के विस्तृत और बौद्धिक लेख सामने लाने के लिए।
रोहिणी मैम की चिंतन दृष्टि हमेशा विषय को कई स्तरों पर लेकर जाती है,उनका विस्तृत अध्ययन एक साथ इतिहास,समाज , साहित्य और समकालीनता को अपने दायरे में रखता है। उनको पढ़ना अपने आप में समृद्ध होना है।
हमेशा की ही तरह रोहिणी जी का आलेख अर्थपूर्ण और विचारोतेजक है।काव्यात्मक उक्ति के साथ।
एक जगह रोहिणी जी लिखती हैं- “भाषा के तेवर अलग हैं तो सौंदर्यशास्त्रीय टूल्स भी अलग होंगे न…”
अब इस तरह के शब्दों के चुनाव में हमेशा ही कोई भी समाजशास्त्र पढ़ने वाला मुश्किल में आता दिखेगा।आप यह कह कर आगे भी नहीं बढ़ सकते कि साहित्य का प्रश्न है साहित्य ही में जवाब ढूंढा जाना चाहिए क्योंकि पूरा आलेख ही भाषा , भाषिक व्यवहार और उसकी प्रकृति पर टिका हुआ है।और डिसिप्लीन की सीमाओं के अतिक्रमण से ही किसी भी लेख की गहरी रीडिंग संभव हो सकती है।
भाषा कैसे अलग होती है? क्या भाषा का अपना कोई स्वायत्त स्वरूप होता है?
अगर हां तो शब्दों के चयन से जो संरचना बनती है वह समाज जनित होती है।उसे समाज के बाहर कहीं से अर्जित नहीं किया जा सकता है।
आप सौंदर्यशास्त्र के टूल्स को किस भाषा के साथ जोड़ कर देखेंगे ? वह भाषा जो स्त्री और पुरुष ने साथ साथ गुफाओं को छोड़ते हुए खेती करने तक अर्जित की थी या वह भाषा को जो कृषि छोड़ते हुए एक पोस्ट मॉडर्न दुनिया तक आती है।
औऱ अगर यह भाषा किसी भी तरह से पौरुष प्रधान है (जो कि हकीकत में है )तो नई भाषा की एंटोलॉजी कैसे निर्मित होगी? क्या सौंदर्यशास्त्र के नियम अरस्तू के पोएटिक्स पढ़ने के लिए और वर्जीनिया वुल्फ पढ़ने के लिए अलग अलग होंगे? एक सरल प्रकार यह है कि उसे फेमिनिज्म के विरोधी और उसके साथ लिए पढ़ने की दृष्टि अर्जित करें।
पर इतनी सरलता शब्दों के अर्थ और उनकी व्यापकता को साथ लेकर समाज की गति नहीं पढ़ सकती।
तो कहीं ऐसा तो नहीं कि भाषा की संरचनात्मकता के सबसे मुश्किल पहलुओं को बाइनरी की मदद से सुलझाने की कोशिश हम सभी ही कर रहे हैं।
स्त्री की भाषा क्या समाज की भाषा नहीं है?आप उसे प्रतिरोध की भाषा कह सकते हैं लेकिन वहां प्रतिरोध को भी किस सामाजिक स्थिति में लोकेट कर रहे है उसका संज्ञान होना जरूरी है।
भाव, भाषा और वैचारिकता की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध इस आलेख का प्रथम वाक्य “भाषा विचार की सत्ता संरचना है…” प्रोफ़ेसर अग्रवाल की अंतरदृष्टि का पता देने में समर्थ है.
कहा गया है कि ‘शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिए ‘. यह आलेख भी पाठक से तैराकी के बजाय गोताखोरी की मांग करता है.
आंडाल डाल के संदर्भ में स्त्री-भाषा को लेकर जो सूत्र यहाँ दिए गए हैं उनका विनियोग करते हुए यदि हमारे समय की रचनाओं की आलोचना की जाए तो यह एक दिलचस्प और बेहद उत्तेजक अकादमिक कार्य होगा.
प्रोफ़ेसर रोहिणी जी को साधुवाद.
.
बहुत दिनों बाद एक मन मस्तिष्क को झकझोरने वाला आलेख पढ़ा. मोबाइल पर पढ़ना शुरू किया तो एक सुर में पढ़ा.रोहिणी जी के परिश्रम को सलाम.बेहतरीन आलेख.