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समालोचन

Home » स्वाहा ! : आयशा आरफ़ीन

स्वाहा ! : आयशा आरफ़ीन

आयशा आरफ़ीन का कहानी-संग्रह ‘मिर्र’ इसी वर्ष राजकमल से प्रकाशित हुआ है. उनकी कहानियों में रहस्य का एक आवरण रहता है; घटनाएँ तेज़ी से घटती हैं और पाठक की दिलचस्पी लगातार बनी रहती है. उनकी ‘स्वाहा!’ पर तो बड़ी आसानी से फ़िल्म बनाई जा सकती है. प्रस्तुत है उनकी यह नई कहानी.

by arun dev
September 15, 2025
in कथा
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स्वाहा ! : आयशा आरफ़ीन
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स्वाहा!
आयशा आरफ़ीन

सुबह आठ बज कर पैंतालीस मिनट पर, मीनाक्षी, दिल्ली-रायपुर फ़्लाईट से रायपुर हवाई-अड्डे पहुँची. हवाई-अड्डे से निकलते ही मीनाक्षी की आँखें चौंधिया गईं. धूप में तेज़ी थी. वहाँ से शहर तक जाने के लिए टैक्सी और ट्रेकर उपलब्ध थीं. उसने सोचा इतनी गर्मी में, लोगों से खचाखच भरी, ट्रेकर गाड़ी में बैठने की बजाय टैक्सी से जाना ठीक होगा. यूँ भी गाड़ी वाला और उसका हेल्पर, पसीने से सराबोर, लोगों को ट्रेकर में ठूसे जा रहे थे और अब इसमें किसी और के बैठने की गुंजाइश थी भी नहीं. लोग हवाई जहाज़ से उतर कर ट्रेकर में बैठ रहे हैं? उसे ताज्जुब हुआ. तमाम टैक्सी वालों ने, शहर तक का किराया, दो सौ अस्सी से दो सौ बीस रुपये बताया. बहुत मोल-भाव के बाद भी किसी ने किराया कम नहीं किया.

एक टैक्सी वाला तेज़ क़दमों से मीनाक्षी के पास आया और बोला, “मैडम! एक सौ बीस रुपये.” पहले से ही वह गर्मी से बेहाल थी, मन-मुताबिक़ किराया सुनते ही फ़ौरन टैक्सी वाले के पीछे चल दी. टैक्सी हवाई-अड्डे से कुछ दूरी पर थी. टैक्सी वाला पीछे मुड़ा, मीनाक्षी ने हैंडबैग के अलावा बाक़ी का सामान उसे पकड़ा दिया. दोनों टैक्सी तक पहुँचे. मीनाक्षी ने टैक्सी के पीछे का दरवाज़ा खोला, अपना हैंडबैग पीछे वाली सीट पर फेंकते हुए टैक्सी स्टैंड के चारों ओर देखा. सख़्त धूप थी. उसे लगा इतनी रौशनी में तो आदमी अंधा भी हो सकता है. फिर उसने घड़ी देखी. अभी सवा नौ ही बजे थे. वह टैक्सी की पिछली सीट पर जा बैठी. फिर खिड़की से बाहर देखने लगी. बारी-बारी से दाएँ-बाएँ शीशों के बाहर देखा, फिर पीछे देखा. टैक्सी वाला उसका सामान डिक्की में रख कर वापस टैक्सी में ड्राइवर की सीट पर बैठ गया. इस वक़्त वहाँ लोग नज़र नहीं आ रहे थे.

ट्रेकर उनसे आगे निकल चुकी थी. बाक़ी टैक्सी वाले शायद कहीं छाँव में चले गए थे. हवाई-अड्डे से थोड़ा आगे बढ़ने पर जो इलाक़ा पड़ता था, बिल्कुल सुनसान और वीरान नज़र आ रहा था. सामने सीधी सड़क के अलावा आस-पास कहीं कुछ भी नहीं था. दाएँ-बाएँ जहाँ तक नज़र जाती, खेत और मैदान ही दिखाई दे रहे थे. धूप की शिद्दत से मीनाक्षी की आँखों में पानी आ गया. हर तरफ़ हू का आलम था.

टैक्सी वाले ने टैक्सी चालू की. मीनाक्षी ने उससे पूछा, “बस स्टैंड कितनी दूर है?”

टैक्सी वाला बोला, “ज़्यादा दूर नहीं है.”

लगभग दस मिनट गुज़र गए मगर अभी तक उसकी मंज़िल नहीं आई थी. मीनाक्षी ने फिर से अपना सवाल दोहराया. रायपुर इतना बड़ा शहर भी नहीं था कि एक जगह से दूसरी जगह पहुँचने में इतनी देर लग जाए. क्या शहर तक पहुँचने का रास्ता इतना तवील सिर्फ़ इसलिए लग रहा है कि सड़क वीरान है?

दूर-दूर तक शहर का कोई नाम-ओ-निशान नहीं. सुनसान, लंबी, संकरी और सीधी सड़क दूर जहाँ ख़त्म होती दिख रही थी वहाँ आसमान से मिलती नज़र आती थी. सड़क के दाएँ-बाएँ, दोनों तरफ़ सागवान के दरख़्त थे. बीच-बीच में नीम के दरख़्त भी दिख जाते थे. एक और क़िस्म का पेड़ भी था मगर उसका नाम मीनाक्षी को मालूम नहीं था. उसने टैक्सी वाले से पूछना चाहा. मगर अगले ही पल उसे ये ख़याल आया, ‘कोई टैक्सी वाला जहाँ दो सौ रुपये में भी नहीं मान रहा था, वहाँ इसने ख़ुद आगे बढ़कर इतना कम किराया क्यूँ बताया? यूँ तो काफ़ी पैसे थे मेरे पास! कोई भी दूसरी टैक्सी ली जा सकती थी! मगर यह टैक्सी. क्या मेरी मत मारी गयी थी? इतनी नादान तो कोई बारह-पंद्रह साल की बच्ची भी नहीं होती!  उसने अनजाने खौफ़ के सबब अपने आप पर लानत भेजी.

मगर अब ये सब सोचने से क्या हासिल! बस ज़रा चौकन्ना रहना है. एक ही आदमी है, कोई ऐसी वैसी हरकत करने की कोशिश की तो निपट लिया जाएगा. इसमें डरने की क्या बात है! जैसे वह अपने आप को दिलासा दे रही थी. उसने सावधानी बरतते हुए अपने मुँह और नाक पर दुपट्टा कसकर बाँध लिया ताकि अगर टैक्सी वाला कोई नशीली चीज़ छिड़के तो वह उससे महफ़ूज़ रहे. आँखों की हिफ़ाज़त के लिए काला चश्मा भी लगा लिया. उसने कुछ पल चैन की साँस ली ही थी कि अचानक टैक्सी रुक गई. खेतों के रास्ते से, एक आदमी भागता हुआ आया, और टैक्सी वाले के बग़ल वाली सीट पर आ बैठा. पहले से ही गर्मी की शिद्दत से मीनाक्षी का दम घुट रहा था और अब एक और अंजान आदमी को देख कर डर के मारे उसका हलक़ कांटा हो गया. टैक्सी चल पड़ी. दो लोगों से निपटना उसके बस की बात न थी. इसलिए मीनाक्षी ने हिम्मत जुटाई और एतराज़ किया कि टैक्सी वाले ने उससे पूछे बग़ैर किसी को क्यूँ बैठा लिया.

टैक्सी वाले ने जवाब दिया कि शहर पहुँचते ही चौराहा आएगा, यह वहीं उतर जाएगा.

“नहीं, उतारो इसे. वरना मैं उतर रही हूँ.” मीनाक्षी ने बुलंद आवाज़ में कहा.

उन्होंने उससे इल्तिजा की, मगर वह अपनी बात पर अड़ी रही.

उस आदमी को वहीं उतरना पड़ा. टैक्सी वाले ने उस आदमी से कहा, “पंडरी में मिल, आधे घंटे में.”

 

2/

मीनाक्षी उस आदमी की तरफ़ नहीं देखना चाहती थी सो वह खिड़की से बाहर देखने लगी. ढलान पर, सूखे मैदान में किसी बड़े जानवर का कंकाल पड़ा था. वह चेहरे पर किसी तरह के भाव लाए बग़ैर उसे एकटक देखती रही. टैक्सी फिर चल पड़ी. यूँ तो उसकी बात मान ली गयी थी, मगर आदमी का डर और गर्मी की शिद्दत के सबब मीनाक्षी का ग़ुस्सा मज़ीद बढने  लगा.

“और कितनी दूर है?” उसने बेसबरी और झुंझलाहट से टैक्सी वाले से पूछा.

“मैडम! बस पहुँचने ही वाले हैं.” टैक्सी वाला बोला. मगर अब तक न तो शहर का कोई आसार नज़र आ रहा था और न ही कोई शहर वासी. उसे अब रोना आने लगा. हवाई अड्डे पर जब शेयरिंग ट्रेकर मिल रही थी, मुझे नवाबी सूझी थी. उसने दुखी होकर ख़ुद से कहा. अब दूर-दूर तक कहीं कोई गाड़ी, मोटर साइकिल या साइकिल नज़र नहीं आ रही थी. वह डरी-सहमी मायूस बैठी रही. दफ़्फ़तन उसे ख़याल आया कि टैक्सी का किराया शायद इसलिए कम है क्योंकि इसमें एयर कंडीशनर नहीं है!

क्या इससे पूछ लूँ कि बाक़ी टैक्सी वालों के मुक़ाबले आप की टैक्सी का किराया इतना कम क्यूँ है? अरे नहीं, वह मौक़ा तो जा चुका! कुछ दूसरी बात कर लूँ? ताकि घबराहट और डर कम हो और ध्यान भी बंट जाए. मगर टैक्सी वाला किस मिज़ाज का है, क्या मालूम! कुछ ग़लत न समझ बैठे. अभी तो इसे यह लग रहा होगा कि गर्म हवा से बचने के लिए मैंने मुँह पर दुपट्टा बाँध रखा है. इससे बात करने के लिए मुँह से दुपट्टा हटाना पड़ेगा. फ़िलहाल यह मेरे लिए क़तई ठीक नहीं होगा. कार में किसी तरह की बू भी तो नहीं है कि मुँह और नाक इस तरह ढँके जाएँ. ड्राइवर की सीट के बग़ल वाले शीशे भी खुले हैं. अपनी सीट के पास वाला शीशा खोलने का कोई फ़ायदा नहीं क्योंकि खुले शीशे से गर्म हवा के थपेड़े पड़ेंगे.

ख़यालों की इसी उधेड़बुन में वह कुछ बोलने की हिम्मत न कर सकी. उसी वक़्त वह पेड़ फिर से दिखाई दिया जिसका नाम उसे नहीं मालूम था.

“यह कौन-सा पेड़ है?”, उसके मुँह से अचानक निकल पड़ा.

“साल का दरख़्त है’, मैडम.’ टैक्सी वाला कुछ पल ठहर कर फिर बोला, “इसके पत्ते प्लेट बनाने में काम आते हैं. हमारे गाँव की दावत वग़ैरह में इसी के पत्तों से बनी प्लेटों का इस्तेमाल किया जाता है.”

“अच्छा! पत्तल इसी के पत्तों से बनते हैं!” मीनाक्षी का खौफ़ कुछ कम हुआ, उसने, मुँह से दुपट्टे को हटाते हुए, फिर सवाल किया, “वैसे, कहाँ से हैं आप?”

“बसना से.” टैक्सी वाला बोला.

इस क़स्बे का नाम सुनते ही मीनाक्षी के दिल की धड़कन तेज़ हो गई. कुछ पल के लिए इतनी ख़ुशी हुई कि उसे झुरझुरी आ गई, मगर फिर बेकली-सी हुई. किसी अपने से मिलने की हूक उठी.

 

3/

बचपन में उसने अपने यहाँ के लोगों को बसना वालों के बारे में कहते सुना था, “सराईपाली से आगे बसना, सोच समझ कर फँसना.” उस वक़्त कहाँ मालूम था कि बसना का वह लड़का उनकी ज़िंदगी में सरपरस्त बन कर आएगा. उनकी मतलब मीनाक्षी और उसके बहन-भाइयों की ज़िंदगी में. वे चार भाई-बहन थे; दो बहनें, दो भाई. बहनें बड़ी थीं, भाई उनसे छोटे. चारों में से किसी को भी कोई परेशानी होती, उनको यही लगता कि बसना वाला लड़का सब ठीक कर देगा. और ऐसा होता भी. उन सबको बसना वाले लड़के से एक साथ मुहब्बत हुई थी, अपनी-अपनी तरह से. मीनाक्षी की बड़ी बहन, सुचित्रा और वह लड़का, दोनों एक दूसरे से प्यार करते थे. उनके घर के पास स्थित आमों के बाग़ में घंटों खड़े हो कर, वह महज़ सुचित्रा को एक नज़र देखने के लिए उसके छत पर आने का इंतज़ार किया करता. बसना वाले लड़के ने उनके क़स्बे के लड़कों से भी इसी ग़रज़ से दोस्ती की थी कि कभी ज़रूरत पड़ने पर वह रात को इस क़स्बे में उनमें से किसी एक के यहाँ टिक सके. मगर उस लड़के ने अपनी ज़ाती ज़िंदगी के बाबत कोई भी बात उन लड़कों से साझा नहीं की थी.

क़िस्मत उनके साथ थी. बसना वाले लड़के को सुचित्रा से चाँदनी रातों में उसके घर की छत पर मिलने के भी चंद मौक़े नसीब हुए. इस दौरान सुचित्रा के बहन-भाई पहरेदार बनते. उन लोगों को नहीं मालूम था दो लोग जब प्यार में होते हैं तो क्या बातें करते हैं. वे लोग एक-एक करके छत पर जा आते. और हर बार वह देखते कि सुचित्रा उस लड़के के कांधे पर सर रख, उसकी क़मीज़ को मुट्ठी में थामे रो रही होती. सुचित्रा उन्हें नीचे जाने का इशारा करती और वह हैरान वापस नीचे आ जाते. सीढ़ियों के नीचे जो जगह थी, वहाँ अँधेरा होता. वे लोग वहीं बैठे पहरा देते, बारी-बारी से वॉकमैन पर गाना सुनते. अपनी बारी के इंतज़ार में सब जागते रहते. वह दिन उनकी ज़िंदगी के सबसे ख़ुशनुमा दिन थे.

दो सालों में, सुचित्रा और वह बसना वाला लड़का तक़रीबन चार-पाँच बार छत पर मिल चुके थे. उनकी माँ को इस बात की शायद भनक पड़ चुकी थी मगर सारे बच्चे चूंकि अच्छे पहरेदार थे और एक दूसरे के हमराज़ भी इसलिए सुचित्रा और बसना वाले लड़के को उनके घर का कोई शख़्स कभी इकट्ठे नहीं देख पाया. फिर भी महज़ शक की बुनियाद पर सुचित्रा के माँ-बाप दीगर बहानों से उसे बेरहमी से पीटते. इस दौरान बाक़ी बच्चों को एक कमरे में बंद कर दिया जाता. कमरे की सलाख़दार खिड़की से वे  सुचित्रा को बेरहमी से मार खाते देखते. उन्हें समझ में न आता आख़िर सुचित्रा को क्यूँ पीटा जा रहा है. वे रोते, चीख़ते, चिल्लाते कि सुचित्रा को छोड़ दें, मगर उनके माँ-बाप उनकी एक न सुनते. माँ-बाप इस क़दर वहशी बन जाते कि सुचित्रा की पेशाब निकल जाती. जब-जब ऐसा होता, वह कई दिनों तक भाइयों के सामने नहीं आती थी और छुप-छुप कर ख़ूब रोया करती. बात इतने में ख़त्म नहीं हुई, उसकी माँ ने यह ज़िद भी पकड़ ली कि सुचित्रा की शादी इसी साल हो जानी चाहिए.

अब सारे भाई बहनों और बसना वाले लड़के को ज़िंदगी का सब से अहम फ़ैसला लेना था. यूँ तो वे सारे भाई-बहन घर से निकल जाना चाहते थे मगर एक दिन सब ने तय किया कि सुचित्रा और वह लड़का आनेवाले महीने के शुरुआती दस दिनों के अंदर मौक़ा देख कर हमेशा के लिए घर से कहीं दूर चले जाएँगे.

इस अहम फ़ैसले को अंजाम देने के लिए दो तरीक़े अपनाए जाने थे- एक सामने का, यानी, किसी दिन मौक़ा देखकर, दूर किसी अंजान मक़ाम, किसी गुंजान शहर, ट्रेन में बैठ कर निकल जाना. चूंकि एक बार घर से निकलने के बाद, वापस आना ख़तरनाक साबित होता, इसलिए सब ने तय किया कि अगर पहला तरीक़ा काम न आए तो दूसरा तरीक़ा यूँ होगा: रेलवे स्टेशन के नज़दीक, ढलान पर जो रोमन कैथोलिक चर्च-हस्पताल है, उसमें सुचित्रा चली जाएगी और मौक़ा देख कर वह और बसना वाला लड़का बाद में कभी भी कहीं दूर निकल सकते हैं.

फिर वह दिन आया जब सुचित्रा को उसके हक़ की ख़ुशियाँ मिलने वाली थीं. सुचित्रा के पास कॉर्ड्लेस फ़ोन हुआ करता था जो उसे बसना वाले लड़के ने ही ला कर दिया था ताकि दोनों रात भर बातें कर सकें. यह फ़ोन कुछ मीटर तक ही सिग्नल पकड़ता था. जिस दिन घर से जाना तय हुआ था उस दिन बसना वाले लड़के के जिगरी दोस्त ने, सुचित्रा के घर के पास से ही, फोन कर सुचित्रा को बताया कि उसका दोस्त रेलवे स्टेशन पहुँच चुका है और यह कि उसे इसी वक़्त फ़ौरन घर से निकल जाना चाहिए.

चारों भाई-बहन तैयार बैठे थे. सुचित्रा का एक बैग, जिसमें कुछ कपड़े और ज़रूरी काग़ज़ात थे, साथ लिया गया. दोपहर का वक़्त था. उनकी माँ सो रही थी और बाबा बाहर कहीं गए हुए थे. उन्हें बहुत कम वक़्त में इस काम को अंजाम देना था. कॉर्ड्लेस फ़ोन को भी कहीं ठिकाने लगाना था इसलिए मीनाक्षी ने उसे अपने पास रख लिया. दोनों भाई सुचित्रा के साथ रेलवे स्टेशन पहुँचे. जैसा कि उसके भाइयों ने बाद में बताया कि स्टेशन पहुँचते ही वह दोनों बसना वाले लड़के को तलाश करने लगे. सुचित्रा प्लेटफ़ार्म पर खड़ी रही. ट्रेन दो मिनट में चलने वाली थी. धूप में तेज़ी थी और सुचित्रा को प्यास लगी थी. उसने पीछे मुड़ कर पान-दुकान से पानी लेना चाहा तभी उसकी नज़र मोटर साइकिल पर घर की तरफ़ जा रहे अपने बाबा पर पड़ी. कुछ पल के लिए उसकी साँसें जैसे थम गईं, उसका मुँह खुला का खुला रह गया. फिर उसने मुँह से एक लंबी साँस बाहर छोड़ी और पास के बरगद के पेड़ के पीछे छुप गई. उसके भाइयों ने भी अपने बाबा को देख लिया था. वे लोग पान-दुकान की ओट में हो गए मगर बाबा ने किसी तरह उन्हें देख लिया और दोनों को ख़ूब डाँटा कि इतनी गर्मी में कहाँ आवारागर्दी कर रहे हैं. उन दोनों को मोटर साइकिल पर बैठा कर वह घर ले आए. बड़े भाई ने पीछे मुड़ कर देखा, ट्रेन चल पड़ी थी और सुचित्रा भी पेड़ के पीछे कहीं नज़र नहीं आ रही थी.

दोनों भाइयों ने आकर मीनाक्षी को सारे हालात बयान किए. घबराहट के मारे उसे झुरझुरी हुई. उसका दिल ज़ोरों से धड़के जा रहा था.

“उन दोनों को ट्रेन में चढ़ते देखा?” उसने भाइयों से पूछा.

भाइयों ने बताया, “देखा तो नहीं मगर ट्रेन में ज़रूर बैठ गए होंगे. सुचित्रा कहीं दिखाई नहीं दे रही थी.”

“कहीं डर के मारे अकेले ट्रेन में तो नहीं चढ़ गई?” मीनाक्षी ने फिर सवाल किया. वह परेशान थी क्योंकि सब-कुछ ऐन प्लान के मुताबिक़ नहीं हुआ था और सुचित्रा ने कभी घर से बाहर अकेले क़दम भी नहीं रखा था.

“नहीं, वह आया था. हम जब पान-दुकान पर खड़े थे तो हमने उसे देखा था. उसने सब संभाल लिया होगा.”

“सुचित्रा ने बाबा को सबसे पहले देखा और बरगद के पीछे छुप गई थी.” छोटे भाई ने बताया.

“फिर ठीक है”, मीनाक्षी बोली. अचानक प्लान याद करते हुए उसने कहा, “शायद चर्च में चली गयी हो?”

“लगता तो नहीं, फिर भी कल तक देखते हैं. सब ठीक रहा तो हम कल चर्च जा आयेंगे.” भाइयों में से जो बड़ा था, उसने कहा.

तीनों बहन-भाई दुविधा में थे और दुआ कर रहे थे कि वह दोनों सही सलामत हों. रात तक उन लोगों ने घर पर किसी तरह बात को संभाला क्योंकि उनके बाबा किसी काम से दोबारा बाहर निकल गए थे. रात के खाने पर माँ ने ज़रूर सुचित्रा के बारे में पूछा था, तब उन्होंने कह दिया था कि वह तो खाना खा कर सो भी गयी.

उनके बाबा देर से घर आए. उनकी मोटर साइकिल की आवाज़ सुन कर वह तीनों भी सोने चले गए. मगर नींद उनकी आँखों से कोसों दूर थी. वह यह सोच रहे थे कि बाबा क्या सोच रहे होंगे. सारे बच्चे एक ही कमरे में सो रहे थे. बच्चों में से एक ने हौले से कहा, “बाबा समझ रहे होंगे हम सो गए हैं.” सब मुसकुराए. तभी उन्हें एहसास हुआ कि उनके माँ-बाबा किसी बात पर लड़ रहे हैं, दोनों एक-दूसरे पर चीख़ रहे हैं. उनका लड़ना पहली बार बच्चों को अच्छा लग रहा था. बच्चों ने सोचा, इस तरह माँ-बाबा उनको भूल कर, लड़-झगड़ कर, थक कर सो जाएंगे. लड़ाई के दौरान, बर्तनों के टूटने की आवाज़ें पहले भी आया करती थीं, मगर इस दफ़ा घर के फ़र्नीचर पटकने की आवाज़ें भी आ रही थीं. बाक़ी दिनों की तरह इस बार लड़ाई उतनी लंबी नहीं चली. फिर उनके माँ-बाप शायद वाक़ई में थक-हार कर अपने कमरे में सोने चले गए. फिर एक गहरी ख़ामोशी. बच्चों को नींद के झटके आने लगे. दोनों भाई तो सो गए मगर मीनाक्षी सुबह तक जागती रही.

सवेरे-सवेरे माँ-बाप के जागने से पहले, मीनाक्षी ने दोनों भाइयों को चर्च भेजा. उन्होंने ड्यूटी कर रहे चपरासी से पूछा. शायद यही चपरासी कल दोपहर भी चर्च में ड्यूटी पर था. मालूम हुआ सुचित्रा वहाँ नहीं गयी थी. फिर उन लोगों ने चर्च के अस्पताल के अंदर जा कर हेड नर्स से पूछा. हेड नर्स ने जूनियर नर्सों को बुला कर पूछा. किसी को कोई ख़बर नहीं थी.

दोनों लड़के वापस घर लौट आए. उन्होंने मीनाक्षी को सब कुछ बताया. घर पर ज़्यादा बात करने का मौक़ा नहीं मिल सका. स्कूल का वक़्त हो गया था. तीनों बच्चे स्कूल के लिए रवाना हुए और बाक़ी बातें रास्ते में हुईं. बच्चों को अपनी योजना और अपने दिमाग़ पर फ़ख्र हो रहा था. स्कूल से वापस आते वक़्त मीनाक्षी ख़ुद भी चर्च गयी. शाम को ड्यूटी करने वाला चपरासी आ चुका था. मीनाक्षी ने उससे वही सवाल किया. उसने बताया कि वहाँ कोई भी लड़की नहीं आई थी.

तीनों बच्चे ख़ुश थे कि उनका मंसूबा कामयाब रहा. स्कूल से घर पहुँचे तो माँ ने ख़बर दी कि सुचित्रा ग़ायब है, उसे तलाश करना होगा. माँ ने कहा, “कुछ दिन तुम लोग अपनी नानी के घर पर रहना.” बच्चों ने एक-दूसरे को कनखियों से देखा. छोटा भाई मुसकुराने लगा तो मीनाक्षी ने उसे शांत खड़े रहने का इशारा किया. उन सब ने अच्छे बच्चों की तरह माँ की बात मान ली. उन्हें लेने, मामा पहले से ही आए हुए थे. बच्चे मामा के साथ नानी-घर चले गए. बच्चों के माँ-बाप ने उन्हें बाद में बताया कि सुचित्रा को बहुत तलाश किया मगर वह नहीं मिली इसलिए नाक कटने के डर से हमें सराईपाली से शहर-बदर होना पड़ा.

उनके बाप ने सोहेला में एक घर ले लिया और आइंदा से वह सब अपने माँ-बाबा के साथ सोहेला में रहने लगे. मगर यहाँ उनका दिल नहीं लगता था. उन्हें सुचित्रा और बसना वाले लड़के की बहुत याद सताती. वह अपनी पहरेदारी के दिन याद करके रोते रहते. वह याद करते कि किस तरह वह दोनों कैसेटों में अपनी-अपनी पसंद के गानों के ज़रिये एक-दूसरे को अपने दिल का हाल सुनाया करते थे. एक कैसेट में अठारह गाने होते. बसना वाले लड़के ने सुचित्रा को जो कैसेटें भेजी थीं, अब यही उन बच्चों के पास रह गईं थीं जिनको उन्होंने राष्ट्रीय धरोहर की तरह संभाल रखा था.

 

4/

मीनाक्षी का ज़ेहन अभी माज़ी में गर्दिश कर ही रहा था कि अचानक उसकी तरफ़ की खिड़की का शीशा ज़ोर की आवाज़ के साथ बिल्कुल नीचे खिसक आया और इसके साथ ही गर्म हवा का तेज़ झोंका उसके गालों से टकराया. मीनक्षी चौंक पड़ी. टैक्सी वाले ने गाड़ी रोकी. उसने, दरवाज़ा खोल कर, गाड़ी के शीशे को ऊपर करने की कोशिश की मगर वह नीचे जाम हो गया था. इसी बीच मीनाक्षी टैक्सी से उतर गई और सड़क के किनारे उकड़ू बैठकर अपने मुँह पर पानी डालने लगी. वह मगर अब भी दोनों वक़्तों के बीच में झूल रही थी. टैक्सी वाला जब शीशा ठीक करने में कामयाब नहीं हो सका तब उसने सोचा शहर पहुँच कर ही इसे ठीक करवाया जाएगा. फिर उसने पीछे देखा और हड्बड़ाते हुए बुलंद आवाज़ में बोला, “वह देखिये साँप, वह देखिये.”

मीनाक्षी उठी और उछल कर सड़क पर, जहाँ टैक्सी वाला खड़ा था, आ गई और पूछा, “कहाँ है, कहाँ है?” वह अब मौजूदा वक़्त में पूरी तरह वापस आ गई थी.

टैक्सी वाला तर्जनी उंगली के इशारे से दिखाते हुए, फिर से बुलंद आवाज़ में बोला, “वह रहा, झाड़ियों के पीछे.” यह बताते हुए उसकी आँखों में चमक थी.

मीनाक्षी ने पलट कर देखा, दूर सूखे पत्तों के दरमियान एक साँप सरसरा रहा था.

“कौन-सा रोड पर है! वह तो ढलान पर है! ऐसे हड़बड़ा कर कहने की क्या ज़रूरत थी?” वह झुँझला कर बोली.

टैक्सी वाला कुछ पल ख़ामोश रहा. “आप दिल्ली से आई हैं न, तो सोचा…इतना बड़ा शहर! साँप कहाँ देखा होगा आपने!” वह पशेमान-सा होता हुआ किसी तरह अपनी बात पूरी कर पाया.

मीनाक्षी टैक्सी वाले के भोलेपन पर मुसकुराई. वह शख़्स एक परदेसी को अपने देस की ख़ासियत बताने के लिए, जोश में, हड़बड़ा कर बोल पड़ा था.

वह दोनों वापस गाड़ी की तरफ़ जाने लगे. एक कोयल कहीं किसी पेड़ पर बैठी, लगातार कूके जा रही थी. मीनाक्षी सर झुकाये हुए सड़क पर, ताज़ा बिछे कोलतार को घूर रही थी. फिर टैक्सी वाले से बोली, “ख़ूबसूरत है.”

“क्या?” टैक्सी वाले ने पूछा. यह पूछते हुए वह निहायत बेवक़ूफ़ लग रहा था.

“साँप.” मीनाक्षी ने मुसकुराते हुए कहा.

टैक्सी वाला शर्मिंदा हो गया.

वह शर्मिंदगी के मारे या न जाने क्यूँ अपनी ही बात पर सर नीचे किए हुए मंद-मंद मुसकुरा रहा था.

“क्या नाम है? आपका….” ‘आपका’ उसने बड़े धीमे से कहा, क्योंकि वह कहते-कहते सोचने लगी थी कि आख़िर नाम पूछने की ज़रूरत ही क्या है?

“करेत”, टैक्सी वाले ने जवाब दिया.

मीनाक्षी क्योंकि साँप का नहीं, टैक्सी वाले का नाम पूछ रही थी, उसका जवाब सुन कर उसने अपने सवाल को दरगुज़र किया. और उसके जवाब में ही दूसरा सवाल किया, “ज़हरीला होता है?”

“भयंकर!”

“कुछ भी हो, ख़ूबसूरत है, है ना?”

टैक्सी वाले ने हामी में सर तो हिला दिया मगर उसके चेहरे से लग रहा था वह मीनाक्षी की बात से इत्तफ़ाक़ नहीं रखता.

दोनों वापस टैक्सी में जा बैठे. टैक्सी चल पड़ी. कुछ देर तक ख़ामोशी रही.

“अप-डाउन करते होंगे?”

“जी?”

“बसना से, अप-डाउन करते होंगे.”

“नहीं यहीं रहता हूँ, पंद्रह सालों से.”

“परिवार के साथ?”

“जी”.

“कौन-कौन हैं, परिवार में?”

“बीवी और दो बच्चे.”

“बढ़िया.”

कुछ पल यूँ ही ख़ामोशी में गुज़र गए.

फिर मीनाक्षी ने पूछा, “अच्छा, बसना में किसी सोहम नाम के शख़्स को जानते हैं क्या?” सोहम का नाम इतने सालों बाद लेते हुए उसकी आवाज़ घरघराई. उसने गला साफ़ किया और सोहम का नाम दोहराया.

“हाँ, मैडम, अच्छे से जानता हूँ. यार है अपना. फिर मगज़ ख़राब हो गया. लड़की के चक्कर में.”

यह बात बर्क़ (बिजली) की तरह मीनाक्षी के वजूद पर गिरी. “सुचित्रा को छोड़ कर क्या सोहम किसी दूसरी लड़की के चक्कर में पड़ गया?” उसने सोचा.

“मगज़ ख़राब हो गया, मतलब?” मीनाक्षी ने परेशान हो कर पूछा.

“पागल हो गया, मैडम. सोलह सालों से इसी हाल में है. कोई सुधार नहीं. मैं पहले कुछ सालों तक उससे मिलने जाता रहा. बाद में एक-दो साल के अंतराल के बाद भी गया. अब नहीं जाता. वह जिस लड़की से प्यार करता था, उसके साथ घर से भागने वाला था, मगर…”

यह सुन कर मीनाक्षी का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा कि सुचित्रा इतने सालों से फिर कहाँ गुम है? क्या हुआ उसके साथ? हमने तो घर बदल दिया था, सुचित्रा आई भी होगी तो वापस लौट गई होगी. मगर वापस कहाँ? उससे राब्ता रखने का दूसरा कोई ज़रिया भी नहीं था. बस दुआ करती थी कि वह दोनों जिस भी शहर में हों सही सलामत हों और यह कि यूँ ही किसी रोज़ कहीं आमना-सामना हो जाए. इसी उम्मीद में वह जी रही थी. मगर अब ये उम्मीद टूटती नज़र आ रही थी. मीनाक्षी की आँखें भर आईं. उसके गाल और कान लाल हो गए.

टैक्सी वाला बिना रुके बोले जा रहा था, “…क्योंकि उसके घरवाले उसे बहुत तंग करते थे और उसकी शादी कहीं और करवाना चाहते थे, उस लड़की ने ख़ुदकुशी कर ली.”

हैरानी के सबब मीनाक्षी की आँखों का पानी सूख गया. उसने मन ही मन में कहा, “क्या बकवास कर रहा है? किस की बात कर रहा है, पागल आदमी!” मगर फिर भी उसका दिल बेतहाशा धड़के जा रहा था.

टैक्सी वाला मुसलसल बोले जा रहा था, “एक बार भरोसा किया होता, मैडम, सोहम किसी भी हद तक जाने ले लिए तैयार था.”

मीनाक्षी ने सोचा, “मार डाला इन दरिंदों ने मिलकर और यह ख़ुदकुशी का नाम दे रहा है. इनके बारे में सही कहते थे हमारे बड़े-बूढ़े, ‘सराईपाली से आगे बसना, सोच समझ कर फँसना’.” मीनाक्षी का दिल बुझ गया. वह मगर टैक्सी वाले की पूरी बात ध्यान से सुनना चाहती थी. इसलिए उसने ख़ुद पर क़ाबू रखा.

टैक्सी वाला भी ऐसे बोले जा रहा था जैसे सालों बाद हलक़ साफ़ हुआ हो. क़ायदे से तो उसे मीनाक्षी से यह पूछना चाहिए था कि वह सोहम को कैसे जानती है मगर शायद वह ख़ुद उस पुराने वाक़ये के बारे में किसी से तफ़्सील से बात करना चाहता था इसलिए बिना रुके वह बोलता रहा, “वह लड़की, क्या नाम था उसका…सुचित्रा, घर से जाने के लिए तैयार भी थी, मेरी ख़ुद बात हुई थी उससे उसी दिन. मगर न जाने फिर क्या सोचा उसने! उसके ख़ुद के घर के कुएँ से उसकी लाश बरामद हुई थी, जिस दिन सोहम के साथ जाने वाली थी, उसके ठीक दो दिनों बाद.”

यह  सुन कर मीनाक्षी के पैर बेतहाशा लरज़ने लगे. मन ही मन कहने लगी, “नहीं, नहीं, नहीं, नहीं…”

टैक्सी वाला आगे बता रहा था, “लाश निकाली गयी तब पता चला उसे मरे हुए दो दिन हो चुके थे. सोहम और मैं इंतज़ार में थे कि क्या हुआ, क्यूँ नहीं आई. उसके घर पर बहुत लोग जमा थे. मैं वहाँ पहुँचा और मजमे में से किसी तरह लाश को देख पाया. उस लड़की का सफ़ेद, गला हुआ चेहरा! मैं वहीं खड़ा सबकी बातें सुनता रहा. सब अपनी-अपनी राय दे रहे थे कि वह क्यूँ मरी होगी. लाश को देख कर मैं घबरा गया लिहाज़ा मुझे सोहम को ख़बर करने का ख़याल तक नहीं आया. फिर लाश को ढँक दिया गया. सोहम दो दिनों से ठीक से सोया नहीं था इसलिए मेरे ही कहने पर दिन में सो रहा था. मगर वह तो दहाड़ें मारता हुआ वहाँ पहुँच गया. किसी ने महज़ ख़बर के तौर पर उसे यह बात बताई थी. किसी को गुमान ही नहीं था कि सोहम भी सुचित्रा को जानता होगा. बताने वाले लड़के को हैरानी भी ख़ूब हुई कि भला बसना का ये लड़का आख़िर क्यूँ इतना रोये जा रहा है.

सोहम को रोते हुए जब सुचित्रा की माँ ने देखा तो उसकी माँ उससे भी तेज़ दहाड़ें मार-मार कर रोने लगीं. उसकी माँ का साथ दिया पड़ोस की औरतों ने. मगर सोहम ने जब सुचित्रा के मुँह से कपड़ा हटा कर उसका गला हुआ चेहरा देखा तो वह देखता ही रह गया. कुछ नहीं बोला. फिर कभी कुछ नहीं बोला!”

जब टैक्सी वाला यह सब बता रहा था, मीनाक्षी को महसूस हुआ जैसे उसके घुटनों में जान बाक़ी न रही हो, उसके हवास फ़ाख़्ता हो रहे थे. मगर वह टैक्सी वाले की पूरी बात सुनना चाहती थी. इसलिए उसने अपने आपको संभाले रखा. बीच-बीच में उसका ज़ेहन पीछे चला जाता था. क्या भाइयों को इतने सालों में घर पर रहते हुए कुछ नहीं मालूम हुआ? क्यूँ ऋषि चाचा ने उसके बाबा से मिन्नत की थी कि मीनाक्षी को पढ़ने के लिए बाहर भेज दें. वह ख़ुद भी शायद बाहर इसीलिए निकली थी कि सुचित्रा और सोहम से कभी मिल सके. न जाने क्यूँ उसको हमेशा से यही लगता था कि वह लोग दिल्ली में बस गए होंगे, कि दिल्ली हर किसी को पनाह दे सकती है. उसने हर तरह से सोहम और सुचित्रा के बारे में पता करने की कोशिश की थी. मगर नाकामयाब ही रही.

इस बीच टैक्सी वाला क्या बोला, वह सुन न सकी. अपने ख़याल से जब वह बाहर आई, टैक्सी वाला कह रहा था, “अब उसी खंडरनुमा मकान का पहरेदार बना हुआ है. पागल हो गया है. दुआ करता हूँ कि बस मर जाए!” उसने सारी कहानी ऐसे सुनाई जैसे किसी लंबे, गहरे सदमे के साथ उसने समझौता कर लिया हो.

मीनाक्षी को यूँ महसूस हुआ जैसे अचानक मौसम बदला, बादल घिर आए और एक काले दरिया का सैलाब टैक्सी की खिड़की से अंदर दाख़िल हुआ जिसमें वह डूबने लगी हो. घबराहट के मारे पानी में वह इधर-उधर हाथ पैर मारने लगी, और एकदम से टैक्सी की सीट से उठकर खड़ी हो गई ताकि वह साँस ले सके. खड़े होने की वजह से उसका सर टैक्सी की छत से टकराया. टैक्सी वाले ने जब मुड़ कर देखा, वह वापस होश में आ गई और अपनी जगह पर बैठ गई थी.

गर्मी में उतनी ही शिद्दत थी. मौसम वैसा ही झुलसा देने वाला था.

मीनाक्षी फिर वक़्त में बहुत पीछे चली गई. तभी टैक्सी के ब्रेक की आवाज़ आई. बस स्टैंड आ गया था.

“महाराजा बस के निकलने में अभी बहुत वक़्त है. एक नया मॉल बना है. आप वहाँ जा कर फ्रेश हो सकती हैं.” टैक्सी वाले ने कहा.

मीनाक्षी ने शायद उसकी बात नहीं सुनी. वह टैक्सी में बैठी रही. अभी तक सोलह साल पुराने वक़्त ने उसे जकड़ रखा था. पीछे खड़ी एक गाड़ी के तेज़ हॉर्न से वह उस वक़्त से बाहर निकल आई. टैक्सी से उतरते वक़्त उसे लगा जैसे उसके पैर सुन्न हो गए हैं या कट गए हैं. उसने टैक्सी से पैर बाहर तो निकाले मगर उतर न पाई. वह टैक्सी से बाहर गिर गई. टैक्सी वाला मदद को दौड़ा. मीनाक्षी किसी तरह खड़ी हो गई मगर अब उसमें चलने की हिम्मत न थी, बस दो क़दम आगे बढ़ी. टैक्सी वाला उसका सामान डिक्की से और पीछे की सीट से निकाल लाया और बस स्टैंड की दीवार की आड़ में, जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ रख दिया. वह पैसे के लिए कुछ देर और खड़ा रहा, फिर अपनी गाड़ी पोंछने लगा. मगर मीनाक्षी बुत बनी वहीं खड़ी रही. टैक्सी वाले ने जब देखा वह कुछ परेशान है और दो-तीन आवारा क़िस्म के लड़के वहीं पास में खड़े मुसकुरा रहे हैं, तब वह ख़ुद ही उसका सामान मॉल की तरफ़ ले जाते हुए बोला, “मैडम! मॉल इस तरफ़ है.” मीनाक्षी के क़दम अपने आप ही जैसे उसके पीछे-पीछे बढ़ने लगे. मॉल में दाख़िल होते ही, अपना सामान लिए, वह वॉशरूम की तरफ़ भागी.

वॉशरूम में वह दहाड़ें मार-मार कर रोना चाहती थी मगर आँसुओं ने उसका साथ नहीं दिया. आँसुओं की जगह सिर्फ़ उसकी चीख़ निकली. उसने वहाँ लगे आदमक़द आईने में अपना चेहरा देखा. उसमें देखते हुए वह फिर दहाड़ें मारने लगी मगर हलक़ से फिर चीख़ ही निकली. रोना नहीं आया, रोने की सिर्फ़ आवाज़ आई.

सफ़ाई करने वाली एक औरत, उसकी चीख़ें सुन कर, दौड़ते हुए वॉशरूम में दाख़िल हुई. उसने मीनाक्षी से पूछा कि क्या बात हो गई, क्या तकलीफ़ है. मीनाक्षी उसकी तरफ़ पलटी और बोली, “भूख लगी है, इसलिए रो रही हूँ.”

उस औरत ने मीनाक्षी पर सर से पाँव तक एक सरसरी निगाह डाली. वह हैरान हुई कि भला इतनी बड़ी लड़की भूख के मारे इस तरह थोड़े रोएगी! मगर उसने उससे मज़ीद कुछ पूछना ठीक नहीं समझा.

तभी मीनाक्षी ने उससे एक भूखे, बेबस बच्चे की तरह पूछा, “डब्बा लाई हो?”

“हाँ.”

“मुझे दोगी?”

उस औरत ने वॉशरूम के एक कोने में कील पर लटके अपने थैले से टिफ़िन निकाला और उसकी तरफ़ बढ़ा दिया. आलू-परवल की सब्ज़ी और तीन रोटियाँ थीं. मीनाक्षी सारा का सारा टिफ़िन चट कर गई. फिर वॉशरूम के नल से पानी पिया और अपना सामान लेकर मॉल से बाहर निकल आई.

वह औरत चुपचाप उसे जाते देखती रही.

टैक्सी वाला वहीं बस स्टैंड पर अपनी गाड़ी के पास बीड़ी पी रहा था.

“बसंत!” मीनाक्षी ने उसे आवाज़ दी.

टैक्सी वाला अपना नाम सुन कर पलटा.

“वापस हवाई अड्डे छोड़ दो”. मीनाक्षी ने कहा.

टैक्सी वाला मीनाक्षी के मुँह से अपना नाम सुन कर हैरान था. मगर उसने इस बारे में कुछ पूछा नहीं. उसने सोचा शायद उसके दोस्त ने गाड़ी में चढ़ते या उतरते वक़्त उसका नाम लिया हो.

वह दोनों टैक्सी में बैठ गए. टैक्सी चल पड़ी.

मीनाक्षी बोली, “सुनो, चलो कहीं चाय पीते हैं.”

“जी ले चलता हूँ. है एक अच्छी जगह.” बसंत बोला. मगर अब भी वह उसे पहचान नहीं पाया था. सोहम उससे ही  सुचित्रा की  बातें किया करता था. उसके दोनों भाइयों से मिलने का भी इत्तफ़ाक़ हुआ था मगर मीनाक्षी को वह नहीं जानता था, ज़रूरत भी नहीं थी.

दोनों एक रेस्ट्रौन्ट पहुँचे. मीनाक्षी ने वेटर से दो केले, चावल की दो पिंडियाँ, थोड़े मखाने और एक बोतल पानी लाने को कहा. वेटर ने बताया, केले तो नहीं हैं मगर बाहर फल वाले से मँगवा देगा. चावल की पिंडियाँ और मखाने नहीं हैं. हाँ, पानी मिल जाएगा.

“ठीक है. चावल की पिंडियाँ नहीं हैं तो एक काम कीजिये, एक रोटी बना कर, उसका चूरा बना लीजिये और उसकी पिंडियाँ बना लाइए. हो जाएगा?”

“जी! हो जाएगा.”

“अगरबत्ती है?”

वेटर ने काउंटर की तरफ़ देखा और बोला, “हाँ, है.”

“ले आइए, टेबल पर लगा दीजिये. और हाँ, साथ में चाय और पकौड़े भी ले आइए”.

वेटर ने अगरबत्तियों का स्टैंड उनके टेबल पर रख दिया. दो अगरबत्तियाँ जलाईं और हाथ से हवा देकर बुझा दीं. अगरबत्तियाँ सुलगती रहीं. फिर टेबल पर चाय-पकौड़े भी रख गया.

टैक्सी वाला हैरान मीनाक्षी की ओर देखता रहा. जब सारा सामान आ गया तब मीनाक्षी ने पिंडियों को दक्षिण दिशा में रख उन पर ज़रा सा पानी डाल दिया. वह ऐसा करते हुए कठोर लग रही थी.

यह सब देख कर न जाने क्यूँ टैक्सी वाले की आँखों से आँसू टपक कर उसके गालों पर उतर आए. मगर मीनाक्षी मुसकुरा रही थी. टैक्सी वाले से यह देखा नहीं गया. वह उठने को हुआ तो मीनाक्षी ने इसरार किया कि वह बेतकल्लुफ़ हो कर बैठे और उसके साथ चाय पीये. उसने बसंत को बताया कि अब कभी इधर आना नहीं होगा. उसका यहाँ अब कोई नहीं रहा. सब ख़त्म. स्वाहा!

हिचकिचाते हुए टैक्सी वाले ने उसके साथ चाय पी. पकौड़े खाने के बाद, पिंडियों को ले कर मीनाक्षी बाहर चली गई. उसने पिंडियों का क्या किया, मालूम नहीं मगर जल्द ही वह वापस आ गई. फिर कुछ देर बाद, उसने बहुत सारा खाना मंगवाया. वह इस तरह खाना खा रही थी जैसे सदियों से भूखी हो! इस दौरान वह मुसलसल बोलती रही. टैक्सी वाला ख़ामोश यूँ उसे सुनता रहा जैसे कोई पिछली रुत का साथी हो.

आयशा आरफ़ीन

जे.एन.यू. , नई दिल्ली से समाजशास्त्र में  एम्. फ़िल और पीएच. डी. हिंदी की कई पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित. हिंदी और अंग्रेजी पत्रिकाओं में लेख एवं अनुवाद प्रकाशित. कहानी संग्रह  ‘मिर्र’ 2025 में राजकमल से प्रकाशित.
ayesha.nida.arq@gmail.com

Tags: 2025आयशा आरफ़ीनस्वाहा
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Comments 11

  1. मनोज मोहन says:
    3 months ago

    मिर्र मेरे टेबुल पर रखी हुई है, कई कहानी पढ चुका हूँ, उस पर किसी पत्रिका के लिए लिखना है… स्वाहा भी पढ़ गया….लगातार अच्छी कहानी लिखना मुश्किल होता है—आयशा ऐसा लिख रही हैं, यह बड़ी बात है….

    Reply
  2. तृप्ति श्रीवास्तव says:
    3 months ago

    बरसों पहले विदा की हुई बहन के बचपन वाले घर के आंगन के कुंए में मरे मिलने की ख़बर जब मिले तो कुछ भी नहीं बचता… सब स्वाहा हो जाता है! दशकों की तलाश वहीं आकर खत्म होती है जहां से सब कुछ शुरू हुआ था लेकिन एक अप्रिय घटना और खबर के साथ। शुरुआत में कहानी शिथिल है और अंत में तेजी से बाइंड-अप होती है, आख़िर में कहानी बहुत सारे सवाल खड़े करती है, जवाब नहीं मिलते और कई बार जवाब चाहिए होते भी नहीं , लेकिन कहानी कोई गहरी छाप छोड़ने में चूकती है। बहुत कुछ अनकहा घटता है लेकिन शब्दों में, वह भाव बनकर दिल तक नहीं पहुंचता।

    Reply
  3. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    3 months ago

    बेहद अच्छी कहानी – एक दम सधी हुई – बांधे रखती हुई – बहुत से सवाल उठते और अनुत्तरित छोड़ते चले जाने के बाद भी कहीं से भी निराश न करती हुई।
    अक्सर पाठक के हर संभावित प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करते हुए कहानियाँ भटकन में पड़ जातीं हैं। यह कहानी इस सब में न पड़ते हुए मूल कथानक पर टिकी रहती है।

    Reply
  4. Rohini Aggarwal says:
    3 months ago

    कहानी पढ़कर ब्रिटिश कहानीकार एडगर एलन पो की याद आती रही। रहस्य-रोमांच के बीच अपराध की मद्धिम छाया… सघन होता कौतूहल… भय से सिहरता दिल … और भीतर एक अनाम से आस्वाद से उभरती संतृप्ति।
    लेकिन यह भी तय है कि अच्छी/ आदर्श के मानदंडों की बात करने पर चेखव या ओ हेनरी जैसे दिग्गज ही दिमाग में कौंधते हैं। क्या इसलिए कि रहस्य-रोमांच से ज्यादा दिलचस्पी उन्हें व्यवस्था और व्यक्ति के मनोविज्ञान में पैठ बनाने की है जो एक द्वंद्वात्मक मुठभेड़ में घिनौने होते क्रूर सच को या चुप्पियों में घोंट दी गई कराहों को सामने लाते हैं? या इसलिए कि वे कहानी को कौतूहल की बेजान चीज़ न मान बरमे की तरह आर-पार हो जाने वाला औज़ार मानते हैं?
    दरअसल कहानी का कैनवस बहु विशाल है। लोक से पॉपुल्जिम तक, गंभीर से नीति/ बोध कथा तक फैला। इसलिए विचार करना जरूरी है कि गंभीर परिनिष्ठित साहित्य के संदर्भ में कहानी के कहानीपन का निर्धारण करते समय कौतूहल को केंद्रीय स्थान दिया जाए या सवाल की बेचैनी को जो समय के आर-पार चरित्र की परतों को खोलती हो? जैसे भुवनेश्वर की भेड़िया।

    Reply
  5. Ruchi Bhalla says:
    3 months ago

    बेशक मन उदास हुआ इस कहानी को पढ़ते हुए। दुख की बदली छाती है मन पर। फिर भी कहूँगी कि चलचित्र सी चलती है कहानी और शीर्षक के साथ न्याय करती है। Ayesha Arfeen की कहानियाँ अक्सर हाथ लगती हैं और जब भी लगती हैं, मैं उन्हें हाथ से जाने नहीं देती हूँ।

    Reply
  6. Pramod Shah says:
    3 months ago

    Pramod Shah
    यह कहानी बाहरी तौर पर सिर्फ एक दिन की कहानी है। किन्तु
    कहानी पूर्व दीप्ति तकनीक से असीमित विस्तार लिए दिखाई देती है।
    कहानी में सांकेतिकता का प्रयोग भी सुन्दर है।
    कहानी रहस्य के आवरण में जरूर है लेकिन कहानी की संवेदनशीलता पाठक को झकझोरती है।
    कहानी के मुख्य पात्र सुचित्रा और सोहम हैं, जिनके बारे में कहानी है, लेकिन वे हमारे सामने नहीं आते।
    कहानी में कुछ अनुत्तरित प्रश्न हैं। कहानी में अन्तराल भी है। किन्तु उसके उत्तर देने में और अन्तराल को पाटने में कहानी पाठकों को आमंत्रित करती प्रतीत होती है। कहानी के मुख्य पात्र का नाम सोहम बहुत अर्थपूर्ण है।

    Reply
  7. Anuradha Os says:
    3 months ago

    दिल को छू लेने वाली कहानी,जैसे कोई धंसी हुई कील , जैसे कोई रूह को छू लेने वाली हवा।

    Reply
  8. Ayaaz Khan says:
    3 months ago

    इस कहानी का अंत पढ़ते हुए कलेजा मुंह को आ जाता है

    Reply
  9. रवि रंजन says:
    3 months ago

    बिना कहीं रुके एक बार में पूरी कहानी पढ़ने का दुर्लभ सुख मिला.
    यह रचना पाठक से एक संवेदनशील चौकन्नेपन की मांग करती है.
    कहानी का शीर्षक ‘स्वाहा’ और मुख्य पात्र का ‘सोहम’ नाम अर्थपूर्ण और सोद्देश्य है जो कथानक के संदर्भ में विस्तृत विवेचन -विश्लेषण की अपेक्षा रखता है.

    Reply
  10. Naresh Goswami says:
    3 months ago

    आयशा आरफ़ीन की यह कहानी निस्संदेह बेहद पठनीय है— वह किसी बगूले की तरह पूर्व-घटनाओं की धूल, पत्तों और टहनियों को अपने घेरे में लेकर बहुत तेज़ी से उठती है। लेकिन, हवा का यह वहशी दबाव जब कम होता है और चीज़ें वापस ज़मीन पर लौट आती हैं तो फिर उनके बीच रोहिणी जी का यह सवाल चमकता दिखाई देता है : कहानीपन का निर्धारण करते समय कौतूहल को केंद्रीय स्थान दिया जाए या सवाल की बेचैनी को?
    मेरे ख़याल में यह एक ख़ासी ‘गार्डेड’ कहानी है— आयशा ने रहस्य और रोमांच की निरंतरता को सुनिश्चित करने के लिए पहले ही एक ऐसी पेशबंदी कर दी है जिसके चलते कई जायज़ संभावनाएं उजागर नहीं हो पाती।
    मसलन, अगर मीनाक्षी बीस बरस पहले घटित हुई सुचित्रा की हत्या के सूत्रों को जुटाने के लिए उस शहर में गई है तो फिर यह कहानी इस तरह शुरू नहीं होती— बीस बरसों में कोई न कोई सुराग मिल जाता है; ढांप दी गई चीज़ों का पलस्तर झड़ने लगता है; छिपी हुईं दरारें प्रकट होने लगती हैं या या एक असहज और अनिर्णीत-से कुछ का साया लोगों के ज़ेहन में बैठ जाता है। इस तरह, इस पूर्व-घटित को मीनाक्षी, उसके भाइयों और संबंधित रिश्तों में एक बेचैनी का सबब बन जाना चाहिए था। ज़ाहिर है कि फिर सुचित्रा के सत्य की खोज इस कहानी को ऐसा नहीं रहने देती।
    इसलिए, अंततः मुझे लगा कि आयशा ने कहानी में रहस्य और रोमांच की मिक़दार को बरक़रार रखने के लिए बाक़ी सवालों या ‘सवाल की बेचैनी’ तथा संभावित आसंगों/तनावों को उसके फ्रेम से बाहर कर दिया है।

    Reply
  11. हरप्रीत कौर says:
    1 month ago

    निशब्द ……

    Reply

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