| एक संजीदा डिटेक्टिव-स्टोरी असद मोहम्मद ख़ान अनुवाद: आयशा आरफ़ीन |
मुग़लों से पहले…और उनके बाद भी…नापसंद सुल्तान या नापसंद सुल्ताना से पीछा छुड़ाने की ठोस तरकीब यही समझी गई कि एक सौ एक माने हुए तरीक़ों में से कोई एक इस्तेमाल करते हुए उसे हलाक कर दिया जाए…तलवार से या फांसी दे कर, विषकन्या के संभोग से या मोर के पर से तलुओं में गुदगुदी करते हुए…जैसे भी बन पड़े.
निजी तौर पर लेखक इन सभी एक सौ एक तरीक़ों के हक़ में है मगर क्योंकि यह कहानी प्रतिरोध करने वाले के नज़रिये से सोची गई है, इसलिए यह लेखक फ़िलहाल रस्मी माफ़ी माँगते हुए कहानी सुनाना शुरू करता है.
दरिया ख़ान हुज्जाब-दार (दरबान/सेनापति) पुराने वफ़ादारों में से था. वह सुल्तान के महल के क़रीब कहीं रहता था. एक बार रास्ते से गुज़रते हुए दरिया ख़ान बाज़ार के भीड़-भड़क्के में फँस गया.
बाज़ार की इस भीड़ में फँस कर दरिया ख़ान ने अजब तरह की बेबसी और उलझन महसूस की. उसे देर पर देर हो रही थी. यह उलझन एक आहिस्ता सुलगने वाले ग़ुस्से के रूप में बदलती जा रही थी कि उसने दूसरी तरह से ये बात सोची. उसने ग़ौर किया कि अनाज मंडी के हमाल, गाड़ियाँ, बैल- गाड़ियाँ उसके रास्ते में नहीं आ रहे, वो ख़ुद उनकी राह खोटी कर रहा है. ‘ये उनका इलाक़ा है और मैं यहाँ अजनबी हूँ’ ये सोचते हुए उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई. ग़ुस्सा टल गया.
दरिया ख़ान के लिबास, उसकी तलवार की सजावटी म्यान या पगड़ी के रत्न जड़ित कलग़ी पर जिस भी राहगीर की नज़र पड़ती या जो भी गाड़ीवान उसकी चाल, सुर्ख़ और सफ़ेद रंगत, रौबदार चेहरे की झलक देख लेता, वो हैरान और उसके रौब के आगे झुक कर, साथ ही गाड़ी की रफ़्तार कम करके उसे राह और गुज़रने का मौक़ा दे देता था.
रोज़ाना के ज़रूरी कामों में लगे इन भोले, मेहनती लोगों को अपनी मौजूदगी से इस तरह टोकना दरिया ख़ान को अच्छा न लगा. उसने चलते-चलते हाथ बढ़ा कर पगड़ी का ज़ेवर उतार लिया, उसे अपनी जेब में रख लिया. कमर का दुपट्टा खोल उसे सर और काँधों के गिर्द इस तरह लपेट लिया कि ज़रदोज़ी की झिलमिलाती पगड़ी और गर्दन और काँधों पर पहने दरबारी निशान छिप गए. चेहरे का कुछ हिस्सा भी बाज़ार की धूल से और सरसरी देखने वालों की नज़रों से सुरक्षित हो गया. उसने आस्तीन से रुमाल खींच कर उसे अपनी तलवार की सजावटी म्यान पर लपेट लिया. अब चलते-फिरते, पास-दूर का कोई भी देखने वाला दरिया ख़ान को देख कर ठिठकता नहीं था. वो ख़रीदारों, व्यापारियों, हमालों की भीड़ में अब एक आम सा राहगीर था जो बाज़ार में आम लोगों की तरह रास्ते से गुज़र रहा था.
लोगों ने उसे देखना बंद कर दिया. मगर इधर-उधर निगाह डालते हुए ख़ुद दरिया ख़ान ने एक ऐसे शख़्स को देखा जो हालाँकि आम लिबास पहने था मगर आम लोगों जैसा न था. वो अपने लंबे क़द के साथ कूबड़ निकाल कर चल रहा था. दरिया ख़ान को यूँ लगा जैसे वह भी भीड़ में गुम होना चाहता है और ये एहसास भी हुआ कि उसे कहीं बार-बार देखा है…मगर कहाँ? राजधानी में? दरबार में? दरिया ख़ान ने उस लंबे क़द वाले आदमी को न सिर्फ़ देखा था बल्कि दरबार में हाज़िर भी किया था. हाँ! ये पुर्तगाली हकीम का बेटा है…भला सा नाम है. अलफ़ान्स? ना…अफ़ांज़ो. मगर यह इस वक़्त यहाँ? बाज़ार में?
एक हब्शी हमाल बड़ा सा थैला उठाए अफ़ांज़ो के पीछे-पीछे चल रहा था.
दरिया ख़ान ने सोचा, अजीब बात है, जो शख़्स देसी दरबारियों को कुछ न समझता हो, वह इस वक़्त इस हब्शी हमाल के साथ इतनी बातें करता कहीं जा रहा है!…तो यह कहाँ जा रहा है?
कहीं भी जाने से पहले दरिया ख़ान अपनी जिज्ञासा को ख़त्म करना चाहता था. वो दस क़दम की दूरी से अफ़ांज़ो और हमाल के पीछे चलने लगा.
1.
जिस शहर में सुल्तान या सुल्ताना मौजूद हों, वहाँ जासूसी महकमे की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं. यह बात राज्य के प्रधान सेनापति और दरबार के चोबदार/कोतवाल (यह दोनों पद दरिया ख़ान के पास थे) से ज़्यादा कौन जानता होगा. दरिया ख़ान जानता था कि बहुत से मुख़बिर और जासूस इस वक़्त विलायत ‘अ’ की सरकार ‘ब’ में हर आम और सरकारी सरगर्मी की जासूसी कर रहे होंगे. डाक-चौकी के तेज़ इंतेज़ाम को होशियारी से इस्तेमाल करते हुए, आस-पास के हालात और अपने देखे हुए को डाक-चौकी के दारोग़ा के ज़रिये ख़ुद बड़े सुल्तान या बड़ी सुल्ताना तक पहुँचाते होंगे. मगर दरिया को याद आया कि सुल्तान कुछ वक़्त से बीमार हैं, इसलिए बहुत से जासूसों की भेजी हुई बेहिसाब ख़बरें ख़ुद उनके सामने नहीं आ रहीं. फिर भी यह महकमा आठों पहर सतर्क रहनेवाला महकमा था तो इसके होते हुए दरिया ख़ान को डाक-चौकी के कामों को करने की क्या ज़रूरत है? फिर भी एक असाधारण बात नज़र में आ गई है, इसलिए अब यह जानना ज़रूरी है कि यह शख़्स अफ़ांज़ो आख़िर इस वक़्त जा कहाँ रहा है. अपनी जिज्ञासा दूर कर के दरिया अपने रास्ते निकल जाएगा. इस बारे में अगर कोई असाधारण बात उसकी नज़र में आई, तो सिपाहियों को बता दिया जाएगा, वरना समझेगा कि इतना वक़्त बाज़ार में बर्बाद हुआ.
अफ़ांज़ो और वो हब्शी नारियल बेचने वालों की गलियों की तरफ़ मुड़ गए. यहाँ दुकानों पर ताज़ा हरी खाल के नारियल लटके हुए थे. कहीं ठोस कत्थई रंग और घनी जटा वाले नारियल किसी शैतानी क़त्ल-ए-आम के बाद बनाए गए सरों के मीनारों जैसे सजाए गए थे, तो कहीं मूँछ नोच लिए जाने के बाद वो लकड़ी की अंडाकार गेंदों की तरह पड़े लुढ़कते थे. किसी दुकानदार ने नारियल का छिलका तोड़कर और ताज़ा खोपरे को फाँकों में काटकर यह दिखाने के लिए उन्हें तस्ले में सजा दिया था कि उसके फल ताज़ा और गूदेदार हैं.
दरिया ख़ान यही सब देखता और दुकानदारों का शोर सुनता आ रहा था कि अचानक सामने कशमकश और खलबली सी सुनाई और दिखाई दी.
हुआ यह था कि बेढंगे-पन से चलते हुए अफ़ांज़ो के हब्शी साथी ने अपना थैला हरे नारियलों की एक सजावट से टकरा दिया था. थैला उसकी गिरफ़्त से छूटकर ज़मीन पर आवाज़ के साथ गिरा और खड़बड़ करती बहुत सी चीज़ें थैले से बाहर जा पड़ी थीं. तांबे के क़लई किए छोटे-बड़े कटोरे, तश्तरियाँ, चम्मच, चमचे हर तरफ़ बिखर गए थे. दरिया ख़ान ठहर गया. अफ़ांज़ो बहुत परेशान और ग़ुस्सा हुआ, उसने तैश में हब्शी की कमर पर लात मारी और अपनी ज़बान में बक-बक करता उकड़ू बैठ कर बर्तन समेटने में हब्शी का हाथ बँटाने लगा.
थैले का टकराना, बर्तनों का बिखर जाना, एक तरह से दैवीय मदद थी. यूँ लगा जैसे क़ुदरत ख़ुद दरिया ख़ान की मदद कर रही है. वो जानना चाहता था कि हब्शी के थैले में क्या है और अब उसने देख लिया था. यह किसी रईस घर के बर्तन थे. फिर भी एक बात तय थी कि यह अफ़ांज़ो के घर के बर्तन नहीं थे. न ही यह चूर्ण, दवाइयों और माजूनों के बर्तन थे और न ही हकीमों की दवा बनाने में काम आनेवाले प्याले और कटोरे थे. फिर सोचने की बात यह है कि क्या अफ़ांज़ो उन्हें क़लई कराने के लिए ले जा रहा है? मगर यह तो ताज़ा क़लई से चमचमा रहे हैं और दस्तूर यह है कि क़लई करनेवालों के पास बर्तन भांडे नहीं ले जाए जाते, वो ख़ुद मकानों पर पहुँच कर क़लई करते हैं. ये बर्तन नए ख़रीदे हुए भी नहीं थे…ये अगर अभी ख़रीदे गए हैं तो अनाज की मंडी में इनका क्या काम? ठठेरों, कसेरों का बाज़ार तो किसी और ही तरफ़ है. दरिया ख़ान पहले से ज़्यादा उलझ गया. भला उलझने की बात नहीं थी? अफ़ांज़ो का ठिकाना सुल्तान के महल के क़रीब नदी के सामने है, तो फिर राह से बे-राह, ये बर्तन उठवाये कहाँ जा रहा है?
हब्शी ने बर्तन समेट कर दोबारा थैले में भर लिए थे और अब वो ज़्यादा सावधानी से अफ़ांज़ो के साथ-साथ चल रहा था. दरिया ख़ान ने उन दोनों के पीछे चलते हुए बर्तनों के प्रकार और उनकी तादाद पर फिर से ग़ौर किया. सब बर्तन वो थे जो खाना निकालने और खाना खाने में इस्तेमाल होते हैं, उनमें ऐसा कोई बर्तन न था जो खाना पकाने में काम आता हो. दरिया ख़ान ने सोचा, सुब्हान-अल्लाह! यह मैं कोतवाल के मुख़बिरों, पुलिस के महकमे के अक़्लमंदों की तरह बर्तनों की गुत्थी क्यूँ सुलझा रहा हूँ? रास्ते की थकन और भूख का तो वल्लाह मुझे ख़याल ही न रहा. इस पुर्तगाली हकीम के लौंडे से छुटकारा हो तो कुछ खा लूँ.
नारियल बेचनेवालों का कूचा ख़त्म नहीं हुआ था कि पुलिस के महकमे के दो सिपाही पटका बाँधे कमर कसे सामने गली में दाख़िल हुए. अफ़ांज़ो ने अपने हब्शी से चुपके से कुछ कहा और ख़ुद उसने एक मेहराब की आड़ ले ली. दोनों सिपाही दरिया ख़ान को ग़ौर से देखते हुए उसके बराबर से निकल गए. उनके भीड़ में ग़ायब होते ही अफ़ांज़ो ने मेहराब से सर निकाल कर झाँका और दूर तक नज़र डाली. दरिया ख़ान मुड़कर एक नारियल बेचने वाले से सौदे के दाम पूछने लगा था. मगर उसका ध्यान दुकानदार के जवाब पर न था, जिसने कुछ कहा था. दरिया ख़ान इनकार में सर हिलाता अफ़ांज़ो के पीछे चल पड़ा. पुर्तगाली हकीम का लड़का क़दम बढ़ा कर हब्शी हमाल तक पहुँच गया था.
“हकीम का लौंडा क़ानून के ख़िलाफ किसी काम में पड़ा है, तभी क़ानून के महकमे के सिपाहियों से छिपता-फिरता है. अब मैं इसका पीछा नहीं छोड़ूँगा.”
नारियल बेचनेवालों की गली से निकल कर हब्शी और अफ़ांज़ो रंग बेचने वालों और नान बनाने वालों के इलाक़े में पहुँच गए थे. यहाँ एक घटिया से क़हवा-ख़ाने के पास वो दोनों ठहर गए. हब्शी क़हवा-ख़ाने के मालिक से कुछ कहता रहा, वो सर हिला कर इनकार करता था, मगर जब अफ़ांज़ो ने अपनी पहनी हुई अँगूठी उतार कर उसे दी तो क़हवा ख़ाने का मालिक पहले तो उलट-पलट कर उसे देखता रहा, फिर दोनों को अंदर दुकान में बुला लिया और ख़ुद वो अँगूठी जेब में डाल कर, एक तरफ़ को रवाना हुआ.
अफ़ांज़ो ने क़हवा-ख़ाने की कोठरी में जाकर बैठने से पहले दूर तक गली में नज़र डालकर अपनी तसल्ली की थी. दरिया ख़ान उसका इरादा भाँप कर पहले ही एक रंग बनाने वाले कारख़ाने में दाख़िल हो गया था जहाँ वो रंगों की क़ीमत पूछता और न पसंद आने का दिखावा करता, घूमता रहा.
कुछ वक़्त गुज़र गया. आख़िर क़हवा बेचने वाला अपनी दुकान में वापस आया और अफ़ांज़ो को वो अँगूठी लौटा कर उसे और हब्शी को अपने साथ लेकर चल पड़ा. दरिया ख़ान ने रंग बेचने वाले से पीछा छुड़ाने के लिए कहा मैं दाम से ख़ुश नहीं हुआ, माल मगर अच्छा है, क्यूँ न एक-दो दुकानें और देख लूँ. यह कह कर वो अफ़ांज़ो और उसके साथियों के पीछे चल पड़ा.
दरिया ने देखा, वो लोग कुछ दूर एक चौड़ी गली में दाख़िल हो गए हैं. दो-चार बड़े फाटकों वाले मकान को छोड़ कर वो एक ख़ास बुलंद दरवाज़े तक पहुँचे. यह किसी ताक़तवर और इज्ज़तदार का मकान होगा इसलिए कि इतना बुलंद दरवाज़ा हाथी रखने वाले ही बनवाते हैं. मगर मकान पर एक बदहाली छाई हुई थी. कहवा बेचने वाले ने दरवाज़े पर ख़ुफ़िया दस्तक दी होगी या शायद दरार से उन्हें कोई देखता होगा, जो ख़ामोशी से दरवाज़ा खुल गया और वो तीनों मकान में दाख़िल हो गए. दरवाज़ा बंद कर लिया गया.
दरिया ख़ान के लिए यह वक़्त बड़ी बेचैनी का था. वो ताक़त के बल पर इस मकान में दाख़िल नहीं हो सकता था. शोर-शराबा सुन कर अफ़ांज़ो किसी और रास्ते से निकल जाता और सारी मेहनत बेकार होती. दरिया ख़ान ने आस-पास के मकानों और गलियों का जायज़ा लिया. बाज़ार की रोज़ाना की सरगर्मी जारी थी. किसी ने दरिया ख़ान को या अफ़ांज़ो और उसके साथियों को नज़र उठा कर भी न देखा होगा. उसने सोचा, वह क्या करे? क्या सिपाहियों से मदद ले? मगर दरिया ख़ान अपने ठिकाने से दूर था और सुल्तान के दरबार में अपने जलने वालों, अपने बराबर वाले अमीरों के मज़ाक़ का निशाना नहीं बनना चाहता था.
“मेरे पास कहने के लिए पूरी बात और कोई ठोस इल्जाम तो होना चाहिए. सिर्फ़ शक-संदेह से तो काम नहीं चलता.”
दरिया ख़ान ने गली पर नज़र डालते हुए इस बात का अंदाज़ा किया कि इस बड़े रास्ते और इससे जुड़े हुए गलियारों में नान बनाने वाले, दूध बेचने वाले, बावर्ची बहुत से थे मगर क़हवा बेचने वालों की सिर्फ़ दो ही दुकानें थी. एक दुकान तो वही थी जिसका मालिक अफ़ांज़ो को साथ ले गया था, दूसरी एक दरख़्त की आड़ लिए जैसे बाज़ार में झाँकती दिखाई पड़ती थी और बहुत घटिया और बदहाल थी. उस वक़्त वहाँ कोई ग्राहक नहीं था. ख़याल होता था कि कुछ देर से इधर कोई आया भी नहीं. एक बूढ़ी औरत कोयले की अँगीठी पर केतलियाँ जमाए और तख़्ते पर क़हवे की प्याली औंधाए, नफ़रत से हर आते-जाते को देखती थी.
दरिया ख़ान ने अंदाज़ा लगाया कि अगर कोई उसकी मदद कर सकता है तो यही औरत हो सकती है. उसे चेहरा पढ़ने में दावा तो नहीं था लेकिन वो एक अनुभवी आदमी ज़रूर था. उसे यह समझ में आ गया था कि एक गली में एक ही तरह का कारोबार करनेवाले दो दुकानदारों में जलन तो होगी. दूसरी बात यह कि बुढ़िया का धन्धा बहुत मंदा चल रहा है, उसे आम ग्राहकों से शिकवा भी होगा और सामने कोठरी में दुकान सजाए जो घटिया रक़ीब बैठा है, उससे तो वो बेइंतेहा नफ़रत करती होगी.
दरिया ख़ान ने ख़ुद पर झुंझलाहट तारी की, बड़बड़ाता हुआ बुढ़िया की ख़ाली दुकान में दाख़िल हुआ, जूते उतार कर ग्राहकों के चबूतरे पर जा बैठा. औरत ने पैरों से शुरू करके पगड़ी की कलग़ी तक दरिया ख़ान का जायज़ा लिया. वो जूते से बँधी क़ीमती एड़ और पोशाक की नफ़ासत देख कर हैरान हुई थी मगर आदत से इतनी ग़ुस्से वाली थी कि लगता था दरिया ख़ान जैसे इज्ज़तदार ग्राहक को भी अहमियत न देगी. वो ख़ामोशी से ख़ान का चेहरा देखती रही. दरिया ख़ान ने सोचे समझे मंसूबे पर काम करते हुए कहा, “तुझे भी कहीं जाना हो तो चली जा. मैं इंतज़ार कर लूँगा.” उसने यह दिखाया था जैसे वह सामने वाले क़हवा बेचने वाले से नाराज़ हो कर यहाँ आया है. बुढ़िया ग्राहक के झुंझलाने पर हैरान हुई. उसे लगता था झुंझलाने का हक़ उसी का है. हैरत से अपने इस ग्राहक का चेहरा देखते हुए बोली,
“मुझे कहीं नहीं जाना…कहो क्या चाहिए?”
“क़हवे और हर ओर भिनभिनाती मक्खियों के सिवा तेरे पास है क्या?”
बात दुरुस्त थी. औरत ने छोटी सी केतली को अंगारों पर इधर-उधर जमाने की कोशिश की. बोली,
“ये तुम ठीक कहते हो. वैसे अगर कुछ खाना चाहोगे तो मशहदी क़ासिम की दुकान से ताज़ा पनीर ला दूँगी मगर उसे देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं. तुम्हें पहले पैसे देने होंगे.”
दरिया ख़ान भूखा था. उसने सोचा, क्या फ़र्क़ पड़ता है, पनीर अच्छा हुआ तो खा लूँगा वरना ग़रीब बुढ़िया ख़ुद भूखी लगती है, वो खा लेगी. उसने जेब से चमड़े की थैली निकाली और दो दाम ले कर बुढ़िया की तरफ़ बढ़ा दिये, जबकि पनीर, क़हवा और बहुत सी चीज़ों के लिए एक ही दाम काफ़ी होता. बुढ़िया हैरत और झुंझलाहट में से किसी एक का चुनाव न कर सकी. मिली जुली कैफ़ियत में बोली,
“एक भी बहुत है.”
“रख लो.”
दरिया ख़ान ने हल्के ग़ुस्से में कहा,
“बेईमान क़हवा बेचने वालों की गली में ख़ुद को ज़्यादा ईमानदार साबित न कर!”
और अब पहली बार ग्राहक से ख़ुश हो कर बुढ़िया बोली,
“आग़ा! मुझे मरने के बाद ख़ुदा को मुँह दिखाना है. गली के ग़ुन्डों से मुझे क्या सरोकार!”
और वो तेज़ी से क़हवा-ख़ाने से निकल गई. उसने सोच लिया था कि वापस आने के बाद उस मनहूस रक़ीब क़हवा बेचने वाले के ख़िलाफ़ ज़रूर कुछ कहेगी. यह ग्राहक अपने मिज़ाज का ही आदमी लगता है.
वह वापस आई तो केले के धुले हुए ताज़ा पत्ते में लिपटा पनीर का बड़ा सा टुकड़ा और एक साफ़-सुथरे नए कटोरे में पानी लाई थी. कहने लगी,
“तुम जैसे सरदार, सौदागरों के मालिक के लायक़ पानी का बर्तन न था, तो मशहदी क़ासिम से नया कटोरा मांग लाई. लो खाओ, मैं अभी क़हवा बनाती हूँ.”
दरिया ख़ान ने अभी खाना भी शुरू नहीं किया था कि बुढ़िया ने जले दिल के फफोले फोड़ने शुरू कर दिये. बोली,
“मैं तो कहती हूँ उस मनहूस, लुटेरे से हम ग़रीबों का मुक़ाबला न किया जाए तो अच्छा है. कोई एक कारोबार तो है नहीं उसका.”
बुढ़िया जुमला फेंक कर ग्राहक की जिज्ञासा बढ़ाना चाहती थी…मगर दरिया ख़ान को सही वक़्त का इंतेज़ार था. कहने लगा,
“मालूम है, मालूम है…मैं उसके करतूत ख़ूब जानता हूँ, मगर मुझे क्या. अब तो छह महीने बाद इधर आना होगा, वो जाने और उसके काम.”
बूढ़ी औरत ने हामी में सर हिलाया मगर यह सोच कर परेशान हो गई कि ग्राहक को जानकारी के इस भंडार से कोई दिलचस्पी क्यूँ नहीं जो उसके सीने में दबा है.
“पनीर अच्छा है…मैं समझता हूँ तू क़हवा भी अच्छा देगी. कम से कम सामने वाले उस…उस लापरवाह आदमी से तो अच्छा क़हवा बनाती होगी.”
“मैं बाज़ार की सबसे अच्छी दुकान पर नहीं बैठी, मगर क़हवा तुम्हें अच्छा पिलाऊँगी.”
क़हवा सामने आया तो दरिया ख़ान पूरी तरह तैयार था. बोला,
“मैं इसे सावधानी और तल्लीन होकर तैयार किया हुआ क़हवा कहूँगा. तूने अपने काम पर ध्यान दिया है और देख कैसा अच्छा क़हवा बनाया है. वास्तव में तू इनाम की हक़दार है.”
दरिया ख़ान ने चाँदी का एक सिक्का निकाल कर बड़ी बी की तरफ़ उछाल दिया.
ग़रीब बुढ़िया ने कभी किसी अच्छे मौसम में चाँदी का सिक्का देखा होगा! वो हैरत और शुक्रगुज़ारी में हकलाने लगी और बिना रुके दरिया ख़ान को दुआएँ देने लगी कि आग़ा! ख़ुदा तुझे यूँ रखे और ये अता करे और वो दे. दरिया ख़ान उठ खड़ा हुआ, जूते पहनते हुए बोला,
“जाता हूँ…और अगर वो सामने वाला शैतान अपनी दलाली से लौटता हुआ मुझे मिल गया तो कहीं से चाबुक ले कर उसे इतना मारूँगा कि…”
“आग़ा! तुमने दलाल अच्छा कहा…वो निर्दयी उस जहन्नमी जादूगर का दलाल ही तो है. ग्राहक लाता है उसके पास!”
दरिया ख़ान ने जूते पहनने में देर कर दी. चाँदी का सिक्का बोल रहा था. उसने बुढ़िया को देखा, हाँ में सर हिलाया, बोला,
“जानता हूँ, जानता हूँ. यह तू मुझसे कह रही है? उस शैतान मायावी के चक्कर में तो उसी ने मुझे फँसाया था. कहता था, आग़ा! बंदी तुम्हारी ग़ुलाम हो जाएगी. ऐसा तंत्र-मंत्र करा दूँगा उस मायावी से कि…”
“तंत्र-मंत्र?” बुढ़िया हैरान हुई थी,
“ऐ यह मरदुआ तंत्र-मंत्र कब से करने लगा? इसे शैतानी दवाएँ तैयार करने से ही कहाँ फ़ुर्सत मिलती है कि जो यह तंत्र-मंत्र और टोना-टोटका करेगा.”
दरिया को मायूसी हुई. अफ़ांज़ो और उसका हब्शी दवाओं के लिए उस मकान में गए हैं. ज़ाहिर है यह पुर्तगाली तिब (आयुर्वेद) के विज्ञान की तालीम के लिए यहाँ आया है, मददगार हकीम है. अफ़सोस दरिया ख़ान ने लंबा वक़्त किसी ऐसे अनाड़ी नौजवान की तरह गुज़ार दिए जिसका दिमाग़ अंधविश्वास और ख़याली दास्तानों से भरा हुआ हो.
वो मायूसी और संकोच से दुकान से चलने को हुआ कि बुढ़िया ने जो कुछ न कुछ बोले जा रही थी कहा,
“तुम शायद उस नर्तकी से छुटकारा हासिल करना चाहते हो…अपनी कनीज़ से?”
“हाँ, हाँ” दरिया ख़ान ने यूँ ही सर हिला दिया.
“ये शैतान सब तरह के ज़हर तैयार करता है. अपने काम में अपनी मिसाल है यह.”
“ज़हर!” दरिया ख़ान रुक गया.
शायद वो ठीक जगह आया है. शायद ठीक तरह से बात कर रहा है. उसने सावधानी से गोल-मोल बात की, बोला,
“हाँ, यही टोटका कराया था. कुछ भी न हुआ.”
बुढ़िया राज़दारी से दरिया के पास पहुँची और धीरे से कहने लगी,
“एक बात है आग़ा, ख़ुदा की क़सम! उस मनहूस के तैयार किए हुए ज़हर अपना असर दिखाये बिना नहीं रहते. आज नहीं तो एक महीने बाद, छह महीने बाद, वो नर्तकी ख़त्म ज़रूर हो जाएगी. कनीज़ तुम्हारी बचेगी नहीं.”
फिर वो तुरंत ही पूछने लगी,
“किस तरह का दिया था उसने? खाने का? सूँघने का?”
“सूँघने का?” दरिया ख़ान ने बनावटी हैरत के साथ कहा.
“क्या समझते हो? यह ऐसा ज़हर भी तैयार कर सकता है जो रंग के साथ कपड़ों में दाख़िल हो जाए और पहनने वालों को आठ-दस दिन में ही ख़त्म कर दे.”
दरिया ख़ान का दिल बहुत ज़ोर से धड़का.
“क्या ऐसा ज़हर भी जो बर्तनों में डाला गया हो? और फिर जब उन बर्तनों में खाया पिया जाए तो….?”
“क्यूँ नहीं आग़ा! यह शैतान सब तरह का काम हाथ में लेता है. अपने काम में माहिर है.”
दरिया ख़ान ने चाँदी का एक सिक्का दे कर बुढ़िया को अपना ग़ुलाम बना लिया था. वो मायावी मनहूस के बारे में तफ़्सील से बताए जा रही थी. हालांकि उसका कारोबार बुढ़िया के कारोबार से अलग न था, दोनों में कोई सीधा टकराव भी न था. बुढ़िया ने बताया कि उसे तो इस बात का ग़ुस्सा है कि वो उसके रक़ीब क़हवा बेचने वाले से दलाल का काम लेता है, इसके लिए उसको कुछ रक़म भी देता है. बुढ़िया को यक़ीन था कि क़हवा बेचने वाला ग्राहकों से भी कुछ न कुछ हथिया लेता होगा. दोनों हाथों से पैसा खींच रहा है मरदूद. क़हवा बेचने वाले को यूँ भी मेहनत नहीं करनी पड़ती होगी क्योंकि उसने शहर-भर के लफ़ंगों-निकम्मों से कह रखा है कि वो अपनी आँखें खुली रखें. ऐसों को पहचान कर ख़बर करें जिन्हें दुश्मनों को ख़ामोशी से ठिकाने लगाने कि ज़रूरत है. लफ़ंगे-निकम्मे ऐसे लोगों का पता-निशान क़हवा बेचने वाले को बता कर आधी रात को भी अपना इनाम ले सकते थे. क़हवा बेचने वाला ज़रूरतमंदों के बारे में पहले कुछ दूसरों से मदद ले कर इत्मीनान कर लेता कि सौदा तय हो सकता है, कोई ख़तरे की बात नहीं है. फिर वो ज़रूरतमंदों से मिल कर ज़रूरी बातें समझता और ज़हर बेचने वाले से पूछकर रक़म बता देता है. बुढ़िया का ख़याल था, मरदूद इस रक़म में भी उलट-फेर करता होगा.
दरिया ख़ान बुढ़िया से यह सुन कर बहुत परेशान हुआ कि मायावी वह ज़हर भी तैयार करता है जो खाने के बर्तनों में डाला जाए और जब उन बर्तनों में खाया जाए तो ज़हर अपना असर दिखा दे…खानेवाला ख़त्म हो जाए. दरिया ने अफ़ांज़ो को बर्तन ले कर जाते देखा था. अल्लाह! अगर ये बर्तन सुल्तान के इस्तेमाल के हुए तो? ख़ुदा रहम करे!
दरिया ख़ान परेशानी में दोबारा चबूतरे पर बैठ गया. पगड़ी के पेच ढीले करके फिर से बाँधने लगा. “सुल्तान को और सुल्ताना को ख़ुदा सलामत रखे. कैसी उलझन की बात सामने आई है.”
दरिया ने अफ़ांज़ो को बर्तन ले जाते हुए देखा था. यह पुर्तगाली हकीम का बच्चा सुल्तान के महल के क़रीब ही रहता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सुल्तान और सुल्ताना के इस्तेमाल वाले बर्तन हों जिन्हें यह हरामख़ोर उस मायावी से ज़हरीला कराने ले जा रहा हो? अल्लाह हिफाज़त से रखे! अभी कुछ करना बेहद ज़रूरी है.
दरिया ने सोचा, अगर ज़हर बनाने वाले के मकान का यही एक दरवाज़ा है (ऐसा होना मुश्किल है) तो अफ़ांज़ो उसकी जानकारी के बिना यहाँ से नहीं निकल सकता. अगर कोई और दरवाज़ा भी है और हकीम का बच्चा यहाँ से निकल कर अपने शैतानी सामान के साथ सुल्तान के महल तक पहुँच जाता है तो दरिया ख़ान को कुछ और करना होगा…वक़्त बिल्कुल नहीं है.
बुढ़िया को मदद के लिए राज़ी करने पर दरिया ख़ान को ज़्यादा मेहनत न लगी. दरिया ख़ान ने कहा,
“मैं तुझे इनाम दूँगा, इतना कि तू सोच भी नहीं सकती.”
बुढ़िया की आँखें चमकने लगीं. वो महसूस कर रही थी कि उसका नसीब पलटने में अब देर नहीं है. बोली,
“आग़ा! हुक्म करो, मैं हाज़िर हूँ.”
दरिया बोला,
“मुझे मकान के बारे में बता और ज़हर बनाने वाले के बारे में भी, और यह भी समझा दे कि मकान में जल्दी और ख़ामोशी से कैसे दाख़िल हुआ जाए.”
लालच अपनी जगह मगर बड़ी बी ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं. वह अपना इत्मीनान करना चाहती थी कि यह आग़ा कहीं पुलिस के महकमे में काम न करता हो. कहने लगी,
“आग़ा! मैं बहुत ग़रीब, लाचार, बदहाल औरत हूँ. कोई बेटा नहीं जो इस उम्र में मेरा ख़र्च उठाए. आप बेशक इनाम दोगे, अमीर हो, लेकिन एक बात क़ुरान को बीच में लाकर कहूँ, पुलिस के महकमे के बखेड़े में तो मुझे नहीं डालोगे न?”
दरिया ने कहा,
“अगर पुलिस का महकमा बीच में आया भी तो मैं क़सम खाता हूँ, तुझे नुक़सान न पहुँचने दूँगा. वह सभी लोग तुझे इनाम ही देंगे. तू बिना डरे मेरा साथ दे.”
बुढ़िया कहने लगी,
“ये तो कहो तुम पुलिस के महकमे में तो काम नहीं करते?”
दरिया ख़ान को उलझन होने लगी,
“अगर करता भी हूँ तो तेरा क्या नुक़सान.”
बुढ़िया बोली,
“मेरे दस दुश्मन, दस दोस्त हैं. गड़े मुर्दे उखड़ना शुरू हो गए तो मुझ ग़रीब का अल्लाह ही मालिक है.”
दरिया ख़ान समझ गया था कि ख़ुद बुढ़िया के हाथ साफ़ नहीं हैं इसलिए डरती है. कहने लगा,
“मैं समझ गया. ले, मैं क़सम खाता हूँ कि पुलिस के महकमे से मेरा कोई ताल्लुक़ नहीं है. और आज से पहले चाहे तू कुछ भी करती रही हो, मैं तेरी गर्दन कहीं फँसने नहीं दूँगा. चिंता मत कर…मेरी पहुँच दूर तक है.”
“आग़ा सरदार! तुम्हारी शान और दबदबे को ख़ुदा दस गुना बढ़ाए. मुझे यक़ीन आ गया है. लो अब सुनो”, कहकर बुढ़िया ने उस मकान के बारे में बताया जिसमें क़हवा बेचने वाला रक़ीब उस विलायती जवान और हब्शी हमाल के साथ दाख़िल हुआ था. कहने लगी, मकान का एक पिछला दरवाज़ा भी है जहाँ से वो दरिया ख़ान के दाख़िल होने में मदद देगी. अंदर कहाँ-कहाँ ख़तरे हैं, ज़हर बनाने वाले के आदमी कहाँ-कहाँ पहरा देते हैं, किस तरह के लोगों से अंदर वास्ता पड़ सकता है, बुढ़िया ने अच्छी तरह से समझा दिया. वह ज़हर बनाने वाले का हुलिया बताने में असमर्थ थी. बोली,
“जिन्होंने उसे देखा है वो बताना नहीं चाहते, या बता नहीं सकते. और वो मनहूस कभी ख़ुद बाहर नहीं निकलता.”
दरिया ख़ान ने चाँदी के बीस-बाईस सिक्के दुकान के तख़्ते पर रख कर कहा,
“सुन, यह रक़म तेरे लिए नहीं है… तुझे तो मैं अशर्फ़ियों में इनाम दूँगा. ये सिक्के रख. मुझे मकान में दाख़िल करने से पहले पाँच-छः ग़ुन्डे कहीं से पकड़ ला, उन्हें पैसे दे कर यहाँ अपने चबूतरे पर बैठा दे, मेरी तरफ़ से क़हवा पिला और ख़ुद भी सामने दरवाज़े पर नज़र रख. अफ़ांज़ो और उसका हमाल या तेरा दुश्मन क़हवा बेचने वाला मकान से निकलें तो ग़ुन्डों को समझा दे कि वो कोई फ़साद खड़ा कर दें. उन्हें रोके रखें, जाने न दें. आगे में संभाल लूँगा.”
इतने बहुत सारे सिक्के देख कर बुढ़िया की आँखें चमकने लगीं. उसने ख़ुद को संभाला, क्योंकि आग़ा ने उसे सोने के सिक्के इनाम में देने को कहा था.
वल्लाह अशर्फ़ियाँ! सोने की पवित्र टिकियाँ! अब तो वो सामने वाले मरदूद को बँधवा कर डलवा देगी. तख़्ते पर जो चाँदी पड़ी है, इससे दस दर्जे कम रक़मों पर तो बुढ़िया ने अपने बेटों-भतीजों से कितने उल्टे-सीधे काम करवाए होंगे. इस आग़ा का दुकान पर आना क्या हुआ कि समझो नसीब का बंद दरवाज़ा ही खुल गया.
उसने दरिया ख़ान के चोग़े का दामन छूआ और अपना हाथ चूम लिया,
“आग़ा! तुम्हें तो कहीं का हाकिम होना चाहिए था. वल्लाह, क्या तरकीब सोची है! मैं पलक-झपकते बाज़ार के ग़ुन्डों में से दो-चार को पकड़ लाती हूँ. इतनी रक़म में तो वो उस मरदूद क़हवा बेचने वाले के टुकड़े कर देंगे.”
दरिया ख़ान का मुँह बन गया. उलझन में बोला,
“ओ जाहिल औरत! मुझे किसी के टुकड़े नहीं कराना. उन ग़ुन्डों को समझा कर रखना कि खींचा-तानी और गालियों से ज़्यादा कुछ न करें. और सुन ले! मुझे आता देखें तो, उन ग़ुन्डों को चलता कर दीजियो. मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि वह अपराधी अगर इस रास्ते से निकल भागना चाहें तो तेरे ग़ुन्डे उन्हें जाने न दें.”
2.
बुढ़िया दरिया ख़ान को ग्राहकों के चबूतरे पर बैठा कर चली गई और ज़रा देर में चार मुस्टंडों को घेर लाई, उनमें दो तो उसके अपने ही बेटे थे. कहने को ये चारों बाज़ार में हमाली करते थे मगर बाज़ार वाले जानते थे कि उन्हें हमाली से ज़्यादा पत्थर पर खड़िया से लकीरें बना कर कौड़ियों, ठीकरों से खेलना और बैलगाड़ियों, बोरों, टोकरियों से गिरा-पड़ा सामान समेट कर चल देना ही आता था. किसी अमीर राहगीर को देख लेते तो दाएँ-बाएँ देख कर भीख भी माँग लेते थे. पुलिस के महकमे के सिपाही बुढ़िया के इन बेटों-भतीजों को भीख माँगने के जुर्म में एक बार खींच कर ले भी जा चुके थे. कुल मिला कर ये चारों इस क़ाबिल थे कि सबूत, गवाहों, वकीलों के बिना ही सुल्तानी जल्लादों के हाथों मारे जाते तो बहुत बेहतर होता.
ख़ैर, ग़ुन्डों ने मुख्य दरवाज़े की निगरानी शुरू कर दी और बुढ़िया दरिया ख़ान को पिछला दरवाज़ा समझाने को लेकर चली.
पिछवाड़े गली का अजब हाल था. मकान-मालिक की असावधानी से या शायद जानबूझ कर छोड़ी गई ख़ुद से उगने वाली घास और झाड़ियों की वजह से गलियारा जैसे जंगल-बियाबान हो रहा था. ख़ुद से उगने वाले पेड़ आदमियों के क़द से ज़्यादा लंबे थे और बहुत घने थे. यह कहना मुश्किल था कि पत्तों, शाख़ों के पीछे दीवार है या कि कोई खिड़की, रोशनदान या मोखा है. गलियारे में सन्नाटा था. दरिया ख़ान और बुढ़िया किसी अड़चन के बिना मकान का जायज़ा ले रहे थे. इसी दौरान दीवार के बराबर उगे पीपल के एक अधकचरे पेड़ के पास बुढ़िया जा कर खड़ी हुई और इशारे से बताने लगी कि दरिया ख़ान को पत्तों के जमघटे और झाड़-झंकाड़ की ओट में एक बड़ी सी खिड़की नज़र आई. बुढ़िया अगर इशारा न करती तो दरिया ख़ान बढ़ा चला जाता, खिड़की उसे हरगिज़ नज़र न आती. उस जगह ज़मीन पर घास भी जैसे एक के ऊपर एक उगी हुई थी. बुढ़िया ने इशारे से बाँस की एक सीढ़ी भी दिखाई जो घास में छुपी पड़ी थी. कहने लगी,
“खिड़की अंदर-बाहर से खुली रहती है. क्या ख़बर कब इन बदमाशों को भागना पड़े. आग़ा! तुम बिना झिझके मकान में दाख़िल हो जाओ.”
दरिया ने सीढ़ी लगा कर देखा, खिड़की पुरानी मगर मज़बूत लकड़ी की बनी हुई थी. पट्टों की साँकल की बनावट, लोहे की मोटी छड़ियों, साँकलों से हुई थी. बंद करने को एक कुंडा बाहर को, एक अंदर को लगा था.
दरिया ने बुढ़िया से कहा,
“सुन, मैं जाता हूँ. तुम सदर दरवाज़े का ख़याल रखना.”
वो ख़ुश हो कर बोली,
“जी आग़ा!” और जाने को हुई.
दरिया ख़ान बोला,
“ठहर तो, नेक औरत! मैं अंदर उतर जाऊँ तो बाहर से तू खिड़की के पट बंद करके कुंडा चढ़ा देना.”
वो बोली,
“क्या फ़रमाते हो?”
बुढ़िया को यक़ीन न आया कि जो कुछ वो सुन रही है, वो वही है जो आग़ा चाहता है…ऐसे ख़तरनाक मकान में ख़ुद को इस तरह बंद कर लेना कि मुख्य दरवाज़ा अवरुद्ध हो तो इन क़ातिलों से बच निकलने की कोई और सूरत न रहेगी! यक़ीनन बुढ़िया को ठीक से समझ में नहीं आया. कौन ऐसा मूर्ख होगा जो इस मकान में बंद होना चाहेगा? पूछने लगी,
“क्या फ़रमाया? फिर से कहो आग़ा! तुम्हारा हुक्म किस तरह है?”
दरिया ख़ान जो चाहता था उसने फिर बता दिया. बुढ़िया को संदेह हुआ कि इस हाकिम पर प्रेत का साया है या तो ये निरा दीवाना है. ये अगर बंद हो गया या मारा गया तो बुढ़िया के इनाम की अशर्फ़ियाँ तो समझो गईं. वो दरिया ख़ान से बहस करने लगी. ख़ान चिढ़ गया. कहने लगा,
“नेक औरत! बेकार बातें न बना. मैं सौदागर नहीं, सिपाही हूँ. बदमाशों को पकड़ने के लिए फुर्ती का और सामने का तरीक़ा अपनाता हूँ. यानी घेर कर और तलवार के ज़रिये.”
फिर उसने तलवार को कमर से खींच कर हाथ में ले लिया, बुढ़िया को इशारा किया और सीढ़ी चढ़ कर मकान में उतर गया.
क़हवा बेचने वाली बुढ़िया क्या करती…उसने सनकी आग़ा को उस ख़तरनाक मकान में, समझो साँपों-बिच्छुओं से भरे बिल में, बंद कर दिया.
दरबार में ऊँचे पद पर आसीन, दरिया ख़ान हुज्जाब-दार, कोई लड़का-वड़का नहीं था जो इस मनहूस मकान की वीरानी, खंडरपन से डर जाता. वह एक अनुभवी सिपाही, दर्जनों युद्ध, सैंकड़ों लड़ाइयाँ झेला हुआ सरदार था. जिसने दरबार देखे थे, उन्हें बरता था. कितने ही दरियाओं, नदी-नालों को कभी तैर कर, कभी किश्ती-नाव से, कभी घोड़ों की पीठ पर बैठ कर पार किया था. जंगल में तन्हा रातें काटी थीं. लाशों के अंबार देखे और ख़ुद भी कइयों को निपटाया था. उसने ऊँचे पद वाले सरदारों से लेकर आधे दाम की चादर चुराने वालों तक के मामलों का फ़ैसला किया था. लेकिन यह अजीब बात थी कि इस वक़्त न जाने क्यूँ इस मकान में वह उदासीन हो रहा था.
खिड़की से मकान में दाख़िल होने के बाद से ही दरिया ने ख़ुद को फटकारना शुरू कर दिया था कि यह मैं ख़ुद को कहाँ लेकर आ गया हूँ. वो एक अच्छा प्रशासक था और इस बात से ख़फ़ा था कि इस मामले में उसने कौड़ी भर की भी समझदारी नहीं दिखाई है. जैसे ही उसने देखा था कि अफ़ांज़ो सिपाहियों से छिप रहा है, उसी वक़्त आगे बढ़कर उसे उसकी गर्दन नाप देनी चाहिए थी. बहरहाल, जो हुआ.
जिस मनहूस कमरे में इस वक़्त खड़ा दरिया ख़ान बाहर की आवाज़ें सुनने की कोशिश कर रहा था, उसमें चौकोर पत्थरों का शतरंजी फ़र्श बना था जिसमें जगह-जगह दरारें पड़ी थीं. महीनों-बरसों का मैल-कुचैल इन दरारों में भर गया था. फ़र्श पर धूल की तह जमीं थी और इधर-उधर से उड़कर आने वाले सूखे पत्तों के ढेर लगे थे.
बाहर दालान की तरफ़ से कोई आहट सुनाई न दी तो दरिया दबे क़दमों से दालान में निकल आया जो काफ़ी चौड़ा था. यहाँ भी फ़र्श पत्थर की सिलों से बना था. सहन के सामने पत्थर की जालियों से बनाई गई आदमियों के क़द से आधी एक दीवार थी. जालियाँ वक़्त के साथ टूट गई थीं तो इन पर भी ज़माने की धूल जमी थी और जाले लगे थे. सहन का हाल उस गलियारे से कुछ बेहतर न था जिसे दरिया ख़ान मकान के पिछवाड़े देख आया था. सहन के आगे जामुन, पीपल और नीम के पेड़ों पर गिरगिटों और कीड़े-मकोड़ों की बहुतायत थी. वहाँ कहीं पत्थर का फ़र्श नज़र आता था, कहीं कमर-कमर घास उगी थी. दरिया को यक़ीन था कि आँगन की झाड़ियाँ और घास-फूस, साँपों-बिच्छुओं से पटे पड़े होंगे. वो घिन्न और नफ़रत से थरथराया. वो हमला करते शेर का सामना करने को हर वक़्त तैयार था मगर रेंगती हुई चीज़ें और ठंडे ख़ून वाले सरसराते हुए पिलपिले जानवर…अल्लाह महफ़ूज़ रखे!
अचानक सामने दालान में आवाज़ के साथ धातु की कोई चीज़ आ गिरी. दरिया ख़ान को दूसरे कमरे से किसी की ग़ुस्से से चीख़ने की आवाज़ सुनाई दी. वह तुरंत उस कमरे में चला गया जिससे होकर सहन में आया था.
दरवाज़े की आड़ से उसने देखा कि बकरी से बड़ा एक जानवर उछल कर दालान में आया है. दरिया ख़ान ने ऐसा चौपाया पहले कभी नहीं देखा था. उसके बदन पर बकरी जैसे बाल थे जिन का रंग मटमैला सफ़ेद और बादामी था. पिछली टांगों की तुलना में अगली टांगें बड़ी थीं और चलते वक़्त यूँ लगता था जैसे उसकी कमर या पिछली टांगें कभी तोड़ दी गईं थीं जो फिर सही तरीक़े से जुड़ नहीं पाईं.
यह जानवर जो कुत्ते और सियार की नस्ल का था, एक बार ग़ुस्से से खँखारा…या शायद यह उसकी हँसी की आवाज़ थी. दरिया को यक़ीन था कि यह शैतानी जानवर अंदर कमरे में कोई शैतानी काम करके आया होगा जिस पर आदमी ने फेंक कर उसे कुछ मारा है और अब यह उस पर हँसता है. दरिया ख़ान ने दिल ही दिल में लाहौल पढ़ी और तलवार की मूँठ पर पकड़ मज़बूत की. अगर यह मनहूस चौपाया हँसता हुआ उसकी तरफ़ आया और उसने कमरे में दरिया ख़ान की बू महसूस कर ली या उसे देख कर हमला कर बैठा, तो दरिया ने हिसाब लगाया कि पहला वार उसके सर पर किया जाएगा ताकि यह ख़त्म हो जाए और दूसरा वार उसकी टूटी हुई कमर या उसकी पिछली टांगों पर किया जाएगा ताकि बाद में भी यह शैतान चलते हुए पास न आ जाए. उसकी मनहूस बनावट…बालों का घिनौना रंग और नफ़रती हँसी बता रही थी कि इस तरह की चीज़ें मरने के बाद भी आगे बढ़ कर अपने मारने वाले पर हमला कर सकती हैं.
दरिया ख़ान फिर एक बार बड़बड़ाया कि “ख़ुदा की पनाह! यह मैं किस शैतानी तिलिस्म में आ गया हूँ.”
जानवर की हँसी अभी जारी थी कि एक आदमी अचानक कमरे से निकला. उसके हाथ में सुलगती हुई लंबी सी लकड़ी थी जो उसने चौपाए के कमर पर मारी. छिछली सी चोट लगी होगी कि जानवर हँसता हुआ भागा और दालान की टूटी हुई जाली से निकल कर सहन के झाड़-झंकाड़ में ग़ायब हो गया. दरिया ने सुना, वहाँ वो अपनी किसी ओट में छिपा, दबी हुई हँसी हँसे जा रहा था.
अजीब सी बनावट वाले चौपाए का पीछा करने वाले ने बड़बड़ाते हुए झुक कर फ़र्श से धातु की वह चीज़ उठाई जो उसने चौपाए पर फेंकी थी. यह बड़ा सा चमचा था. चमचा और सुलगती हुई लकड़ी उठाए वो आदमी बड़बड़ाता हुआ लौट गया.
बुढ़िया की बताई हुई तफ़्सील के हिसाब से यह बावर्ची होगा और बावर्ची-ख़ाने में गया होगा. दरिया ख़ान के दिमाग़ में मकान का नक़्शा बनता जा रहा था. आगे नौकरों के कमरे होंगे, जिसके बाद सीढ़ी होगी जो ऊपर मेहमान-ख़ाने को गई है. बुढ़िया के हिसाब से अफ़ांज़ो को मेहमान-ख़ाने में होना चाहिए.
दरिया ख़ान को जब सुकून हो गया कि बावर्ची अब वापस नहीं आएगा तो वह निकला और दबे क़दमों से दालान में चलता हुआ उस कमरे से आगे पहुँचा और उस दरवाज़े के सामने से गुज़रा जिससे वह शैतानी चौपाया खंखारता हुआ निकला था. यहाँ नौकरों के कमरे थे जिनमें से कुछ में ताले लटके हुए थे. एक से उसने किसी मर्द के खाँसने की आवाज़ सुनी. झाँक कर देखा कि जो खाँसता था, गूदड़ बिस्तर पर चादर लपेटे पड़ा है. सांस लेने के अंदाज़ से मालूम होता था कि सो रहा है. दरिया ख़ान आसानी से आगे बढ़ गया. उसने सोचा क़ुदरत नहीं चाहती कि यह बदमाश मेरे हाथों से मारे जाएँ. वैसे भी इस तरह के लोगों के ख़ून से अपनी तलवार नापाक करना ठीक नहीं है. ऐसे बदमाश तो जल्लादों के लिए होते हैं.
वह सीढ़ियों तक जा पहुँचा था. ऊपर फ़र्श पर लकड़ी जड़ी थी और फ़र्श और सीढ़ियों पर सस्ते मज़दूरों के हाथों बनवाए हुए, खुरदरे भद्दे क़ालीन पड़े थे. सीढ़ियाँ चढ़ कर दरिया ख़ान ने सब तरफ़ नज़र दौड़ाई. दूर तक कोई नहीं था मगर वो ठिठक गया. अगर यह वहम नहीं है तो उसे एक जवान औरत की हँसी की आवाज़ सुनाई दी थी. यह वहम नहीं था…कुछ देर बाद उसे पखावज की गमक और तानपूरे की तरंग सुनाई दी. औरत फिर एक बार हँसी. वह अभी हँस ही रही थी कि सारंगी की लुभावनी आवाज़ जैसे दर्दनाक होती चली गई. बजाने वाले ने कोई दुख भरी धुन शुरू कर दी थी. औरत की हँसी डूब गई.
ऐ सारे जहाँ के मालिक! यह उस मनहूस मायावी का कारख़ाना है कि किसी गाने-बजाने वाली का मकान? यह तो मौत के सौदागर हैं, यहाँ गाने-बजाने का क्या मतलब? साज़ों की आवाज़ हल्की हुई तो औरत ने भरपूर क़हक़हा लगाया. बड़ी खुली-खेली हुई आवाज़ थी…बिल्कुल बाज़ार की आवाज़. अब एक मर्द ने घूँ-घूँ करते हुए कुछ कहा. शब्द समझ में न आते थे फिर भी बोलने वाला ठहर-ठहर कर बोलता या तुतलाता हुआ मालूम होता था. औरत-मर्द दोनों ने क़हक़हा लगाया. बुढ़िया के बताए हुए नक़्शे के हिसाब से यह आवाज़ें मेहमान-ख़ाने से आ रही थीं.
‘अगर मेहमान-ख़ाने में अफ़ांज़ो है तो मुझे पहले उसे क़ाबू में करना होगा.’
दरिया ख़ान अभी कोई ठोस तरकीब तैयार न कर सका था कि मेहमान-ख़ाने से ज़ोर-शोर से साज़ बजाने की और गाने की आवाज़ें आने लगीं. इस बार कोई सुखांत धुन बजाई जा रही थी. गाने वाली किसी अजनबी ज़बान में गाती थी. हैरत है, बुढ़िया ने कोई ऐसा इशारा तो नहीं दिया था कि यहाँ गाने-बजाने वाले भी रहते हैं. ख़ैर, हो सकता है घर वाला मेहमानों का सत्कार ऐसे ही करता हो.
दरिया ख़ान कमरे के टूटे दरवाज़े के पास जा कर खड़ा हुआ. दरवाज़े से कमरे का ख़ाली हिस्सा दिखाई देता था. एक मामूली क़ालीन जगह-जगह से फटा उधड़ा हुआ कमरे के फ़र्श को छिपाये था. दरिया को फूस की खटिया का एक पाया भी दिखाई दिया. अभी तक समूचा आदमी कोई नज़र न आया था. एक पुराने लकड़ी के तख़्त का सिरहाना ज़रूर दिखाई दे रहा था जिस पर मैले-चीकट गाव-तकिये रखे थे और तकियों से टेक लगाए एक औरत बैठी सारंगी बजाती थी. उसकी सिर्फ़ पीठ दिखाई देती थी. औरत किसी तरह का झीना लिबास पहने थी, जिसके पार से नीचे पहने कपड़े का रंग, बनावट और डोरियाँ तक नज़र आ रहीं थीं. बराबर ही पखावज बजाने वाली थी जिसका आधा-चौथाई चेहरा दिखाई दे रहा था. दोनों उजली रंगत की जवान औरतें थीं.
दरिया ख़ान अभी साज़ बजाने वालियों का कुछ ही हिस्सा देखता था कि अंदर कमरे की दीवार पर उसे चमक सी दिखाई दी. पर्दा हिला था. उसने एक पुराना सा आदम-क़द आईना देखा. आईने पर दो अक्स रौशन थे. फूस की खटिया के तकिये से टेक लगाए अफ़ांज़ो प्याला हाथ में लिए बैठा था और उससे बिल्कुल सटी हुई उजली रंगत की एक जवान औरत बैठी थी जिसकी आँखें हरी और बड़ी-बड़ी और सुरमे से सँवारी हुई लगती थीं. यही औरत तानपूरा उठाए गा रही थी. अफ़ांज़ो की तवज्जोह उसके गाने पर नहीं थी. वह उसके लिबास की सिलवटों में जैसे कुछ ढूँढता था…हरामी, बदमाश!
उसने…दरिया ख़ान ने…यह सब देखा और सोचा, यहाँ राजधानी में, सुल्तान के महल के बहरहाल पास ही, यह क्या हो रहा है?
उसने सोचा पुलिस के महकमे को क्या हुआ? क्या सब जासूस और मुख़बिर बेकार हो गए? या वो बेईमान हैं?
मगर सोचने की बात है, कहीं ऐसा तो नहीं कि पुर्तगाली अफ़ांज़ो अपने मिज़ाज के मुताबिक़ मज़े के लिए यहाँ आता रहता हो और मैं बिना मतलब के उसके मज़े में और उसकी मजलिस में ख़लल डालने यहाँ घुस आया हूँ. मुझे क्या! बहुत करूँगा तो एक लिखित बयान क़ानून के महकमे को भेज दूँगा कि फलाँ-फलाँ जगह शराब का जश्न शायद किसी क़ानून, इजाज़त-नामे के बिना किया जाता है, और ऐसी-ऐसी सरगर्मियाँ जारी हैं. बाक़ी वो जाने, उनका काम.
दरिया ख़ान अभी यहीं तक सोच पाया था कि उसने एक बहुत ही भयानक धमाका सुना…मगर नहीं यह धमाका उसके सर में हुआ था. उसने घूम कर देखना चाहा, घूम न सका. कोई कुंद चीज़ फिर उसकी कनपटी पर आ लगी, और कोशिश के बावजूद दरिया अपने पैरों पर खड़ा रहने में नाकाम रहा.
वह चकरा कर गिरने लगा तो दाएँ-बाएँ से निकल कर आगे आनेवाले पाँच-सात ग़ुन्डों ने उस लंबे सरदार को संभाला और उसे उठाए हुए पास के कमरे में दाख़िल हो गए. अफांज़ो की शराब, उसकी लगातार छेड़खानी और गुदगुदाई औरत के अश्लील क़हक़हे जारी रहे…साज़ वग़ैरह भी बजते रहे.
३.
आँख खुली तो दरिया ने देखा कि उसे पलंग पर लिटा कर मज़बूत रस्सियों की मदद से इस तरह बाँधा गया है कि उसका हिलना भी मुश्किल था. उसके सर में बहुत तेज़ दर्द था. और भूख किसी दरिंदे की तरह बदन के अंदर बैठी उसे नोच रही थी.
“अल्लाह की पनाह! क्या तबाही है! खाने के सिवा दिमाग़ कुछ भी सोचने से इनकार कर रहा है.”
फिर भी ग़ुस्से की एक लहर ने दरिया ख़ान के बदन में असाधारण ताक़त भर दी. उसने ज़ोर लगा कर रस्सियों को तोड़ना चाहा.
“अगर अभी इस बंधन से आज़ाद हो जाऊँ तो इन हरामख़ोर बदमाशों में से एक को भी ज़िंदा न छोड़ूँ. वो तादाद में बीस हों या पचास, मुझ पर इन बेअदब बदमाशों को सज़ा देना लाज़िम है. ग़ज़ब ख़ुदा का! लुटेरों, हरामख़ोरों ने मुझे अपनी लाठियों से मारा? मुझे? दरिया ख़ान को?”
मगर फ़ौरन ही उसे याद आया कि यह लूट की वारदात नहीं. दरिया ख़ान ख़ुद ही इस घर में चोरी से दाख़िल हुआ है. राज्य के क़ानून के हिसाब से बिना अनुमति के घर में इस तरह घुसना दंडनीय अपराध है.
“फिर भी…फिर भी ध्यान देने वाली बात यह है कि इन बदमाशों ने मुझे मारा…मगर नहीं मुझे असल बात याद रखनी चाहिए. असल बात यह है कि पुर्तगाली अफ़ांज़ो की मदद से यहाँ कोई षडयंत्र रचा जा रहा है. शायद मेरे सुल्तान या सुल्ताना के ख़िलाफ़. ऐसी हालत में अपने मर्तबे और पद के हिसाब से मुझे यह अधिकार हासिल है कि मैं इस घर में…या किसी भी घर में जहाँ षडयंत्र हो रहा हो, ताक़त के बल पर या तरकीब से दाख़िल हो जाऊँ और मुजरिमों, अपराधियों का हिसाब लूँ. मगर ना ना ना, यह बात तो मुझे किसी के सामने कहनी ही नहीं है. जहाँ सुल्तान या सुल्ताना के नाम आ जाते हैं, हर दरबारी पद रखने वाले को वहाँ बहुत सावधान रहना पड़ता है. यह षडयंत्र वाली बात तो किसी के सामने कहनी ही नहीं है. तो फिर क्या कहा जाए? हाँ! मुझे कहना चाहिए कि असल में मैं सौदागर हूँ. पूरब, दक्षिण या उत्तर से आया हूँ. किसी से सुना था कि यह मायावी असरदार ज़हर तैयार करता है. बस आ घुसा. आगे फिर वही कहानी नाफ़रमान कनीज़ वाली, जो मैंने क़हवा बेचने वाली बुढ़िया के लिए तैयार की थी.”
दरिया ख़ान अभी तक इतना ही सोच पाया था कि लोहा चढ़ी लाठी उठाए एक भयानक सूरत वाला ग़ुलाम कमरे में दाख़िल हुआ. कमरा क्या था, यह जगह किसी तहख़ाने का ख़ाली हिस्सा लगती थी. इधर-उधर बेकार सामान फैला पड़ा था. ग़ुलाम ने आते ही शोर मचाने वाले अंदाज़ में एक पुराना संदूक़ खींच लिया और संदूक़ पर बैठ कर वो सुकून से लाठी टेके फ़र्श को ऐसे देखने लगा जैसे ख़ास इसी काम के लिए आया है.
दरिया ख़ान ने ग़ुलाम से कहा,
“ओ नामुराद! मुझे खोल. ऐसे क्यूँ बैठ गया? मुझे खोल, अपने मालिक के पास ले चल.”
लाठी वाले ग़ुलाम ने जैसे उसकी बात अनसुनी कर दी, यूँ ही बैठा रहा.
“ख़बीस ग़ुलाम ज़ादे! मुझे खोल दे. सुनता है? मुझे खोल, वर्ना तेरे साथ बहुत बुरा होगा.”
ग़ुलाम ने पलक तक न झपकाई.
“तेरा मालिक कहाँ है? उसे बुला और मुझे आज़ाद कर. क्या कह रहा हूँ, सुना या नहीं?”
ग़ुलाम ने जम्हाई ली और अधखुली आँखों से दरिया ख़ान को देखा, बेपरवाही से मुसकुराया और फिर लाठी की टेक लगाए फ़र्श को तकने लगा.
दरिया ख़ान ग़ुस्से की बेबसी में चीख़ कर बोला,
“ओ बदमाश! लानत हो तुझ पर! ऐसे बैठा है जैसे बहरा हो, ख़बीस.”
पीछे से एक नर्म मर्दाना आवाज़ ने सुथरे लहजे में कहा,
“आपने ठीक फ़रमाया, वह बहरा है और गूंगा भी.”
दरिया ने सर घूमा कर देखना चाहा, मगर बिल्कुल पीछे देखना मुमकिन नहीं था. झुँझला कर उसने कहा,
“सामने आओ…कौन हो तुम?”
“आग़ा पहले अपना परिचय दें. घर के मालिक से जुड़े होने की वजह से मुझे यह हक़ है कि मैं आपसे सवाल करूँ…बताइये, कौन हैं आप?”
बोलने वाले का अंदाज़ बनावटी था.
न चाहते हुए भी दरिया ख़ान आग बबूला हो गया.
“ज़लील ग़ुलाम-ज़ादे की हराम औलाद! मुझे खोल दे…फिर मैं बताऊँगा कि कौन हूँ.”
“च च, च, च…आग़ा! आग़ा!”
बोलने वाले ने बहुत नर्मी से अपमान किया. कहने लगा,
“आग़ा! ये गाली आपको शोभा नहीं देती.”
“तू कौन है. सामने आ.”
“नहीं, नहीं. पहले आप अपना परिचय देंगे.”
जैसा कि सोच कर बैठा था, दरिया ख़ान ने बताया कि वो उत्तर से आया है, मसालों का सौदागर है और उस ‘लानती’ से मिलना चाहता है जो घर में बैठा ज़रूरतमंदों की ज़रूरतें पूरी किया करता है.
पीछे से बोलने वाला हँसा,
“उस लानती से मिलने क्यूँ आए हो?”
“यह मैं उसी को बताऊँगा.”
“मुझे बता दो. मैं तुम्हारी बात उस तक पहुँचा दूँगा.”
इस पर दरिया ख़ान ने वही कनीज़ से छुटकारा हासिल करने वाली बात कह दी और जब उसने पूछा कि मकान में इस तरह दाख़िल होने की ज़रूरत क्यूँ पेश आई तो कह दिया कि यह बात मेरी जानकारी में है कि ज़हर बनाने वाले मायावी के सभी मुलाज़िम रिश्वत-ख़ोर बेईमान हैं, पैसे लेकर भी मुझे उससे मिलने नहीं देंगे. इसलिए मकान में छिप कर दाख़िल हुआ हूँ. जब उसने सवाल किया कि दाख़िले का यह रास्ता उसे किस तरह मालूम हुआ तो दरिया को बुढ़िया के बारे में बताना पड़ा. कहने लगा कि बुढ़िया को तुम कब से जानते हो,
“आज पहली बार उसकी मनहूस शक्ल देखी है.”
“यानि पहले से उस बुढ़िया से ताल्लुक़ नहीं रहा?”
दरिया ने कहा, “नहीं.”
“तो पहले किस से ताल्लुक़ रहा है?…उस दूसरे क़हवा बेचने वाले से?”
“हाँ.”
“उससे किसने मिलवाया था?”
“एक सौदागर ने.”
“नाम?”
“तू सौदागर का नाम पूछता है या उस हराम-ज़ादे क़हवा बेचने वाले का?”
पीछे से बोलने वाला हँसा,
“उस हराम-ज़ादे का नाम ही बता दो.”
दरिया ख़ान ने मुँह पर थूक लाकर ग़ुस्से की आवाज़ निकाली. इस तरह के सवाल जवाब उसे आक्रोशित कर रहे थे. फिर भी पूछने वाले ने अपने नर्म बनावटी लहजे में पूछा,
“अगर उसे…क़हवा बेचने वाले को यहाँ बुलवाएँ तो वो तुम्हें पहचान लेगा?”
“क्यूँ नहीं,”
दरिया ख़ान ने सख़्ती से कहा,
“कैसे नहीं पहचानेगा. उस कमीने को भी तो पैसे खिलाएँ हैं.”
वो हँसता हुआ सामने आ गया. उलाहना देते हुए बोला,
“तुम जैसे सरदार को झूठ पर झूठ बोलते देख कर मुझे शर्म आ रही है आग़ा!” दरिया ने देखा, यह वही क़हवा बेचने वाला था जो अफ़ांज़ो को मकान में लाया था.
दरिया ने फिर ग़ुस्से की आवाज़ निकाली. कहा कुछ नहीं.
क़हवा बेचने वाला नर्मी से बोला,
“हम तो सभी के ग़ुलाम हैं…अब कहो, हुक्म करो.”
दरिया ख़ान बार-बार कह रहा था कि उसे खोल दिया जाए और तुरंत घर के मालिक से मिलवा दिया जाए. क़हवा बेचने वाला पूछता था, इस बात की क्या गारंटी है कि दरिया ख़ान आक्रोश में आकर ख़ुद उसे या घर के मालिक को नुक़सान नहीं पहुँचाएगा?
इस बहस में काफ़ी वक़्त गुज़र गया.
आख़िर में तय हुआ कि दरिया ख़ान अल्लाह के कलाम को गवाह बना कर और अपनी तलवार की क़सम खाकर वादा करे कि घर वालों के शांत रहते ख़ुद शांत रहेगा और न क़हवा बेचने वाले पर और न ही घर के मालिक पर हमला करेगा, सुकून के साथ अपना मुद्दा बयान करेगा, फिर मेहमानों की तरह लौट जाएगा.
अब जबकि आपस में ये तय हो गया था तो क़हवा बेचने वाले का अंदाज़ पूरी तरह बदल गया था, गिड़गिड़ा कर बोला
“सरकार! यह ग़ुलाम अपने साथियों की तरफ़ से आपसे माफ़ी माँगता है और ख़ुद अपनी तरफ़ से भी सौ-हज़ार दफ़े माफ़ी मांगता है. क्या करें सरकार! हमारा काम ही ससुरा बुरा है. फिर सरकार जो अचानक पीछे वाले रास्ते से तशरीफ़ ले आए तो…”
दरिया ख़ान ने कहा,
“ठीक है, ठीक है.”
मगर क़हवा बेचने वाला बिना रुके बोले जा रहा था कि सरकार उस बुढ़िया को ही कह देते…वो दस्तक देकर किसी को बुला लेती. मेरी तो ख़ैर क्या हैसियत, सरकार! ख़ुद घर के मालिक स्वागत को आते. और यह देखिये तौबा तौबा कैसा गुनाह हो गया है हम ग़ुलामों से…
दरिया ख़ान झुंझला गया. बोला,
“चल, चल, और बातें न बना बे-ग़ैरत! अब हमें खोल भी दे.”
“हाज़िर, हाज़िर!” कहते हुए क़हवा बेचने वाला रस्सियाँ खोलने लगा. गूंगे-बहरे लाठी वाले ने भी उसका साथ दिया. पलंग से खोल देने के बाद दोनों बदमाशों ने सावधानी से दरिया ख़ान के हाथ पैर रगड़ कर ख़ून बहाल किया. दरिया ख़ान के जूते, कमर से बांधने का दुपट्टा, पगड़ी का ज़ेवर, रक़म वाली चमड़े की थैली…हथियारों के अलावा सभी सामान सामने लाकर रख दिया. क़हवा बेचने वाले ने अपने हाथ से दरिया को जूते पहनाए, दुपट्टा बांधा, दोनों हाथों पर रख-रख कर सभी सामान देता रहा, मगर जब उससे हथियार मांगे गए तो दाँत निकाल कर बोला कि सरकार हम तो बड़े कमज़ोर बिना हैसियत वाले लोग हैं, हुज़ूर के हथियारों को एक बार हाथ लगाने की हिम्मत तो जैसे तैसे कर गुज़रे थे, अब हिम्मत नहीं कि दोबारा हाथ लगाएँ. सरकार जब मकान से तशरीफ़ ले जाएँगे तो बाहर ड्योढ़ी पर हथियार मिल जाएँगे, वहाँ अपने मुबारक हाथों से पहन लीजिएगा.
दरिया ख़ान उस चापलूस की बातें ख़ूब समझ रहा था. ज़ाहिर है जब तक दरिया ख़ान इस मकान में है तब तक उसे उसका हथियार नहीं मिलने वाला. बुरा सा मुँह बना कर बोला,
“चल…इस मनहूस तहख़ाने से तो निकल.”
इस तरह आगे-आगे क़हवा बेचने वाला चराग़ उठाए हुए रास्ता दिखाता, फिर दरिया ख़ान, और आख़िर में गूंगा-बहरा ग़ुलाम, यह छोटा सा जुलूस बेढंगी सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ तहख़ाने से निकला और एक कच्चे सहन में पहुँच गया. यहाँ कहीं हाथ-हाथ भर ऊँची घास थी और कहीं बेतरतीब हिस्सों में घिनौने रंगों और अजनबी शक्लों के फूलों, पत्तों से ढकी झाड़ियाँ थीं जिनकी सूरत और बदबू से ही अंदाज़ा हो रहा था कि यह ज़हरीली जड़ी-बूटियाँ मायावी मनहूस के ज़हर बनाने में काम आने वाली चीज़ें हैं.
दरिया ख़ान ने ऊपर कहीं साज़ बजने की आवाज़ सुनी. पुर्तगाली अफ़ांज़ो अभी तक अपने जश्न और शराब में मस्त था. दरिया ने क़हवा बेचने वाले की तरफ़ देखा.
“ये कौन लोग हैं जो दिन के वक़्त में रात के काम में व्यस्त हैं.”
क़हवा बेचने वाले ने कोई जवाब नहीं दिया, चापलूसी हँसी हँसने लगा.
दरिया बोला, “मैं इन्हीं कम अक़्लों को देखने बढ़ा था जो तेरे आदमियों ने पीछे से हमला कर दिया.”
क़हवा बेचने वाला बोला, “ग़ुलाम को और शर्मिंदा न करें, सरकार!”
दरिया ख़ान ने मुँह बिगाड़ कर कहा, “तेरी शर्मिंदगी मेरे सर का दर्द दूर नहीं कर सकती.”
वो बोला, “ये मामूली इनसान अपने उस्ताद से सर-दर्द की कोई जल्द असर करने वाली दवा लेकर सरकार को पेश कर देगा.”
दरिया ख़ान ने परेशान होकर हाथ ऊपर किए, “ख़ुदा की पनाह! तेरे उस्ताद की असरदार दवाओं से ख़ुदा बचाए.”
क़हवा बेचने वाला हँसा, बोला कुछ नहीं.
जड़ी-बूटियों वाले सहन से बच-बचा कर गुज़रते हुए ये तीनों एक और वीरान दालान में पहुँचे. हालाँकि ये जगह साफ़-सुथरी थी मगर बे-रौनक़ उतनी ही थी जितना घर का कोई भी हिस्सा. दालान से एक पथरीली सीढ़ी ऊपर गई थी. सीढ़ी पर मोटे ऊनी कपड़े की दरी बिछी थी. एक और लठैत यहाँ अपनी लाठी से टेक लगाए यूँ ही खड़ा था…उन लोगों को आता देख कर सावधान हो गया. दोनों मुलाज़िम दालान ही में रहे. दरिया और क़हवा बेचने वाला ऊपर चढ़ते चले गए.
कई तरह के दरवाज़ों से गुज़रते, दालानों को पार करते, ये दोनों एक दोहरे कमरे में पहुँचे और एक भारी-भरकम दरवाज़े के सामने जा रुके. क़हवा बेचने वाले ने दस्तक दी. जवाब में अंदर से किसी ने कुछ पूछा. क़हवा बेचने वाले ने कुछ कहा जिस पर दरवाज़ा खोल दिया गया और उसे अंदर बुला लिया गया.
4.
दरिया ख़ान को इंतज़ार करना पड़ा. अंततः क़हवा बेचने वाला और एक लंबा दरबान कमरे से बाहर आए. दरबान बाहर रह गया, क़हवा बेचने वाला दरिया को लेकर अँधेरे कमरे में दाख़िल हो गया.
अंदर बिल्कुल अँधेरा था. कुछ देर बाद जब आँखें अँधेरे की आदी हो गईं तो दरिया ख़ान को कमरे के बीच में रखी एक भरी-भरकम कुर्सी पर एक साया बैठा दिखाई दिया. यह नाटे क़द का कमज़ोर आदमी उस बड़ी कुर्सी में सामने की तरफ़ टांगें फैलाये बैठा था. ऐसी बैठक के बावजूद उसका पूरा जिस्म कुर्सी में समा गया था. कुछ कुर्सी बड़ी होगी, कुछ यह छोटा था. आदमी के इस साये ने पैरों में सुनहरे जूते पहन रखे थे जिनमें शायद माणिक जड़े थे. दरिया ने सोचा, हो सकता है ये असल पत्थर न हो, कम-क़ीमती पत्थरों से सजावट की गई हो. जो भी था, दरिया को उसके जूतों के तले देखना बुरा लगा.
यह बात साये ने महसूस कर ली. आहिस्ता से कहने लगा, “मेरी कमज़ोरी है बंदा-नवाज़! मैं आपकी बे-अदबी नहीं कर रहा. मैं अपने घुटने मोड़ नहीं सकता.” फिर कुछ ठहर कर बोला, “ख़ुश-आमदीद! मुझे इज्ज़त देने के लिए.”
उसकी आवाज़ ऐसी थी जैसे शाम पड़े कुंजों में चिड़ियाँ शोर करती हों.
दरिया ने जवाब दिया, “हूँ.” फिर बेवजह पूछा, “तुम घर के मालिक हो?”
साया अपनी चहचहाती आवाज़ में बोला, “आपका ग़ुलाम!”
दरिया ने कहा,
“भले आदमी! अपने मुलाज़िम से रौशनी लाने को कहो. हम दोनों एक दूसरे की शक्ल तो देखें.”
साया उसी चहचहाती आवाज़ में हँसा,
“मैं बदसूरत आदमी हूँ. मुझे देख कर आपको मज़ा नहीं आएगा और आपका मुबारक चेहरा मैं सिर्फ़ उँगलियों के पोरों से छू कर देख सकूँगा…अंधा नहीं हूँ, फिर भी पूरी तरह देख नहीं सकता. छू कर, चख कर, सूँघ कर और सुन कर पहचान लेता हूँ.”
“हूँ.” दरिया ख़ान ने हूँकार भरी.
वह चहचहाया, “कुछ कामों में, देखने से ज़्यादा, समझ काम आती है.”
“जैसे कैसे?”
“जैसे हुज़ूर का यह फ़रमाना की आपके दुख और रंज की वजह कोई नाफ़रमान कनीज़ है, जी को नहीं लगा था. अब आपकी आवाज़ सुन कर यक़ीन हो गया है कि हो न हो कनीज़ का नाम किसी वजह से लिया गया था. इसलिए कि आप सौदागर नहीं बल्कि तलवार रखने वाले सरदार हैं. कनीज़ से रूठे होते तो उसे बेहिचक काट कर फेंक देते…मेरे पास आने की तकलीफ़ क्यूँ करते.”
दरिया ने कहा, “हूँ…और? और क्या?”
वो बोला,
“और यह कि हुज़ूर फ़ौजों की अगुवाई करते रहे हैं, फिर भी इधर कुछ सालों से दरबार में रहना हो रहा है.”
दरिया ख़ान हैरान हुआ. कहने लगा, “ख़ूब!”
“और दरबारों का यह है कि सरदारों की आपस में दुश्मनी चलती ही रहती है.”
साया शायद ठीक कह रहा था. पिछले दिनों वित्त-मंत्री, शादी ख़ान कलमुँहे, से दरिया की बहस हुई थी. हूंह! बिना वजह वो इस डर में रहता है कि दरिया ख़ान कहीं वित्त-मंत्री की कुर्सी पर न आ बैठे…कितने ही बरस से भेड़ के बच्चे की तरह अपनी टांगों पर खड़ा काँप रहा है शादी ख़ान!
साये ने उसे टोका,
“हुज़ूर क्या सोचने लगे?”
“ऊँह?…हाँ शायद तुम ठीक कहते हो.”
“जी बंदा-नवाज़! और बड़ों की दुश्मनियाँ कुर्सियाँ हिलाने वाली और तक़दीरें बदलने वाली होती हैं. ख़ुद सरकार यहाँ तशरीफ़ लाए, दिल ने कहा हुज़ूर का सितारा चमक रहा है…दुश्मन आपका, मुँह के बल गिरेगा.”
दरिया ने कहा,
“चलो हम पहले आ गए तो ऐसा हो रहा है और जो हमसे पहले वो कलमुँहा यहाँ पहुँच जाता तो किसी और तरह से होता…मुँह के बल हम गिर गए होते.”
साया चहचहा कर बोला, “नामुमकिन! यह पत्थर पर लिखा जा चुका है. शादी ख़ान का पद गया.”
“शा…दी!” दरिया को यूँ लगा जैसे अचानक कहीं से उस पर वार किया गया है.
साया क्या हँसा कि चिड़ियों की चहकार से कमरा भर गया.
दरिया ख़ान हकला रहा था. “यह नाम?…यह नाम जो तुमने लिया…यानि, यह कैसे?”
“ग़ुलाम, जो ग़ायब हो, वो नहीं देख सकता. सरकार ने अभी ख़ुद बताया है कि हमसे पहले अगर वो कलमुँहा पहुँच जाता…राजधानी में कौन नहीं जानता कि कलमुँहा कौन है और सब जानते हैं कि वित्त-मंत्री शादी ख़ान बहुत बेक़रारी के साथ जिस पद पर नज़रें गड़ाए रहता है, वो पद सरदार दरि…या…”
“नाम नहीं!” दरिया ख़ान ने चमक कर कहा, “नाम नहीं! और उस दिलजले का नाम लेने की भी ज़रूरत नहीं…समझे?”
साये ने धीरे से कहा, “समझा.” या शायद ये दरिया का वहम था कि उसने ये शब्द कहे. अँधेरे कमरे में बहुत देर से सन्नाटा था.
यह क्या मुसीबत है? मैं तो साँप के इस बिल में दाख़िल हुआ था कि पता करूँ और उस अफ़ांज़ो की हरकतों की ख़बर रखूँ, देखूँ कि कहीं सुल्तान या सुल्ताना के खिलाफ़ कोई षड्यंत्र तो नहीं हो रहा है. लेकिन यहाँ तो सारी घटना ही बदल गई. शादी कलमुँहे का क़िस्सा बीच में क्यूँ आ गया?
सामने के अँधेरे से, कमीने साये की आवाज़ आई. वो कुछ पूछ रहा था. दरिया अपने ही ख़यालों में गुम था, उसने ग़ौर नहीं किया या सुना नहीं, पूछने लगा, “क्या कहते हो?”
साये ने अकारण हल्का क़हक़हा लगाया. बोला, “सरकार मैदान के शेर हैं, फिर भी मुश्किल सवालों का सामना करने से परहेज़ करते हैं.”
“क्या बकता है?” दरिया ख़ान को ग़ुस्सा आ गया.
“तो फिर कहिए न कि हुज़ूर किस तरह की चीज़ चाहते हैं. खाने-पीने के साथ दी जाने वाली? हथियार के ज़ख्म से असर करने वाली? इत्र या लिबास के ज़रिये बदन में डालने वाली? आख़िर किस तरह की दारू?”
दरिया ख़ान ने ग़ुस्से में गले से बेमतलब की आवाज़ पैदा की जो साये ने अनसुनी कर दी. वो अपनी ही कहता रहा. कहने लगा, “एक सूरत और भी है सरकार! कि उस इंसान को, जिसके बारे में हम इस वक़्त बात नहीं करना चाहते, एक विषकन्या, ख़ास तौर पर संभोग के लिए तैयार की गई, दी जाए जिससे एक बार संभोग के बाद ही उसकी मौत हो जाए. तो ये और बहुत से तरीक़े हैं. अब जैसा भी आप कहें.”
ये किस तरह का आदमी है? मेरी बात क्यूँ नहीं समझता? और सुनता क्यूँ नहीं? अपनी ही कहे जाता है. और लो भला, शादी ख़ान के बारे में यह कैसी बकवास करता है. वो मेरा दुश्मन सही मगर सच बात कहने में क्या झिझकना. शादी आदमी अच्छा है. विषकन्या का तरीक़ा उस पर नहीं चलने का. अपनी बीवियों के सिवा संभोग को वो मनहूस, जायज़ नहीं समझता तो फिर ये बेकार बात दिमाग़ से निकाल देनी चाहिए कि…
“सही…” साये ने कहा, “तो बंदा-नवाज़! औरत को इस बहस से बाहर समझूँ? अच्छा यह बताएँ कि हथियार के बारे में क्या ख़याल है?”
दरिया ख़ान दिल ही दिल में हँसा. हथियार? शादी ख़ान हथियार अपने ही इस्तेमाल करता है. दूसरे का हथियार छूता भी नहीं और कमाल का तलवार-बाज़ है. कौन होगा जो उसे ज़ख़्म दे सके!
“सही फ़रमाया…अच्छा अगर इत्र या लिबास के तोहफ़े इस्तेमाल किए जाएँ…?”
न इत्र, न लिबास. ऐसे तोहफ़े वह सिर्फ़ अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से लेता है.
“और बर्तन?”
दरिया ख़ान को अफ़ांज़ो के लाए हुए बर्तन याद आए. इन्हीं बर्तनों का पीछा करता हुआ वो यहाँ तक पहुँचा था. उसने सुल्तान और सुल्ताना की हिफ़ाज़त से जुड़ी अपनी परेशानी को याद किया, मगर साथ ही साये की चहचहाती आवाज़ आई जिसने ख़याल का सिलसिला तोड़ दिया. वो कहता था, “सरकार! बर्तनों की तरकीब में देर लगेगी जबकि शादी ख़ान दिलजले को हुज़ूर, शायद इतना वक़्त देने पर तैयार न हों.”
दरिया ने अपने दिल को टटोला. शादी ख़ान से छुटकारा जितनी जल्दी मुमकिन हो बेहतर है. हालाँकि वित्त-मंत्री की कुर्सी के लिए उसने इतनी चाहत से पहले कभी नहीं सोचा था, फिर भी…
आगे कुर्सी में बैठे साये ने दरिया ख़ान से इस अहम मामले में बात-चीत जारी रखी.
दरिया की आँखें कमरे के अँधेरे की आदी हो चुकी थीं. वह बेचैनी जो उसने आते ही महसूस की थी, अब नहीं थी. दरिया, शादी ख़ान के मसले को निपटा कर जाना चाहता था. क्या बढ़िया संयोग है कि उस शख़्स ने ये मसला ख़ुद ही छेड़ दिया है. इसलिए बात अंजाम तक पहुँच जाए तो बेहतर है.
मगर हक़ीक़त में ये कोई संयोग नहीं था कि दरिया ख़ान साये तक आ पहुँचा था. इस अँधेरे कमरे के बराबर एक अँधेरा कमरा और था जिसमें हू-ब-हू इस साये का हमशक्ल एक साया कुर्सी में टांगे फैलाये बैठा चहचहा रहा था और अपने महामहिम मेहमान वित्त-मंत्री शादी ख़ान को सामने बिठाए कह रहा था कि बंदा-नवाज़! ग़ौर किया जाए कि दरिया ख़ान से (जो शादी ख़ान का पद लेने के लिए बेचैन है) छुटकारा पाने के लिए क्या तरकीब बनाई जा सकती है?
और ऐसे ही एक और अँधेरे कमरे में, एक और बड़ी कुर्सी में टांगे फैलाये बैठा, ऐसा ही एक और साया चापलूसी में चहचहा रहा था. और दरिया और शादी से कहीं ज़्यादा ऊँचे पद वाले एक नर ताज-दार (या शायद वो मादा थी) को बता रहा था कि प्रजा पर पकड़ रखने के लिए क्या यह ठीक नहीं होगा कि कुछ मंत्रियों को इत्र और लिबास के तोहफ़े दिए जाएँ? या बर्तनों के तोहफ़े? और संभोग के लिए विषकन्याओं के तोहफ़े? इसलिए कि इन चीजों से जुड़ी हुई तरकीब इस इमारत के मालिक के पास अभी मौजूद हैं.
और इस बर्बाद इमारत के हज़ार बर्बाद कमरों के अँधेरों से, जैसे समझो चिड़ियों की आवाज़ें चली आ रही थीं, जब शाम पड़े वो कुंजों में शोर करती और चहचहाती हैं.
और यहाँ यह कहानी, ख़त्म और शुरू होती है.
| असद मुहम्मद ख़ान उर्दू के प्रसिद्ध कहानीकार, नाटककार, गीतकार और कवि हैं. उनका जन्म 26 सितंबर 1932 को भोपाल, मध्य प्रदेश में हुआ, वह 1950 में पाकिस्तान चले गये. उनके पाँच उर्दू कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. ‘जो कहानियाँ लिखीं’ उनकी समस्त कहानियों का संकलन है. बासौदे की मरियम, नर्बदा, ग़ुस्से की नई फ़सल, एक ब्लैक कॉमेडी आदि उनकी मशहूर कहानियाँ हैं. उन्होंने रेडियो पाकिस्तान और पीटीवी के लिए गाने, नाटक और फ़ीचर लिखे. उन्हें 2009 में तमग़-ए-इम्तियाज़ पुरस्कार दिया गया. |
आयशा आरफ़ीन
जे.एन.यू. , नई दिल्ली से समाजशास्त्र में एम्. फ़िल और पीएच. डी. हिंदी की कई पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित. हिंदी और अंग्रेजी पत्रिकाओं में लेख एवं अनुवाद प्रकाशित. कहानी संग्रह ‘मिर्र’ 2025 में राजकमल से प्रकाशित. |

आयशा आरफ़ीन



क़माल की कहानी।
दरिया ख़ान के साथ हमने भी भीतर की यात्रा की।
असद साहब की ‘संज़ीदा स्टोरी’ का आयशा ने बेहतरीन तर्जुमा किया है।
कामू के तजुर्बे अभी भी जारी हैं
बहुत मजा आया कहानी पढ़ कर, एक उम्दा कहानी का उम्दा अनुवाद. बहुत दिनों के बाद ऐसी कहानी पढ़ी. कहानीकार अनुवादक और आपको बहुत-बहुत बधाई!
कहानी अच्छी लगी। घटना प्रमुख कहानियाँ मुझे रोचक लगती हैं। अनुवाद बहुत अच्छा लगा।
कोई बीस साल पहले कहीं पढ़ा था, हमारी गुप्तचर संस्थाओं के प्रमुख जितनी निगरानी दुश्मनों और अपराधियों पर रखते हैं उससे अधिक निगरानी वे एक दूसरे पर रखते हैं। पढ़ने पर यह भी याद आया कैसे कुछ ही साल पहले एक गुप्तचर प्रमुख के घर के सामने सीबीआई और आईबी के सिपाही आपस में लड़ पड़े थे।
दिलचस्प कहानी। अनुवाद भी बेहतरीन।
अन्त तक आते आते आप पलट कर पूरे किस्से पर दोबारा सोचने लगते हैं। जालसाज़ी इतनी सघन है कि सर चकरा जाए।
आह! कहानी ख़तम हुई तो लगा क्यों ख़तम हुई आख़िर! यूं ही तलिस्म में विचरते रहते कुछ देर. इस दुनिया के झंझटों को भुला कर. मज़ा आया कहानी पढ़ कर. बचपन की कोई भूली कहानी की तरह लगी, जिसे दोबारा पाकर दिल खुश hua.🌱
बेहद दिलचस्प कहानी।
बचपन के दिनों में ऐसी ही किस्सागोई पढ़-पढ़कर साहित्य के मुरीद हुए। पर समझ में बहुत बाद में आया कि किस्सागोई महज कौतूहल का मज़ा नहीं। उसमें बहुत नफ़ासत से समाज की दरकती सच्चाइयाँ और मनोविज्ञान की गुत्थियाँ गूंथ दी जाती हैं।
अब यही देखिए न, पेचदार तिलिस्म के बहाने बुनी गई जालसाज़ी की इस कहानी में कौन शिकार और कौन शिकारी? हमाम में सब ही तो नंगे हैं। सबकी अपनी-अपनी वासनाएं, अपनी-अपनी रंजिशें। सर कलम भी कर रहे हैं और सजदे में झुके भी जा रहे हैं।
याद करती हूँ ध्रुवस्वामिनी नाटक में प्रसाद की यह पंक्ति कि “ जब वीरता भीगती है तब उसके पैरों से राजनीतिक छल-छंद की धूल उड़ती है।”
तो क्या छल-छंद ही हमारा परिचय है जो पहले रुपहले समय की चमक से घबरा कर उसकी तहों में छुपे तिलिस्मी अंधेरों में पनाह लेता है, और फिर अपने ही धुंधले हमसायों के साथ ज़हर की कितनी-कितनी पुड़ियाओं की ख़ुफ़िया डील करता है?
कहानी नक़ाबपोश इंसानियत की नक़ाब को बेहद खूबसूरती के साथ झटक देती है, इसमें कोई शक नहीं।
दरिया की तरह हरहराते बेहतरीन अनुवाद के लिए आयशा आफ़रीन को हज़ारहा मुबारकबाद।
दरिया खान, शादी खान, ताजदार और हजार कमरों से आने वाली चिड़ियों के चहचहाने के आवाज़ अलामात है उस समाजी निज़ाम की जो बेक वक्त रचनात्मक और विनाशात्मक शक्तियों के कारण वफादारी और गद्दारी, दोस्ती और दुश्मनी के चक्कर में घूमता है। इस अफसाने में आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत का इस्तेमाल किया गया है। हिंदी अनुवाद प्रशंसा योग्य है परन्तु वह की जगह वो का इस्तेमाल ज्यादा बेहतर हो सकता था।
क्या ही ख़ूबसूरत कहानी।
अंदाज़ पुराना, कहानी कालातीत। और नयी भी।
छिपे कैमरे की आँख से देखा गया सिनेमा। अंत तक निर्वाह।
भाषा, पात्र विवरण और निरीक्षण क्षमता बेजोड़।
अनुवाद में भी पठनीयता।
अरसे बाद स्मरणीय
कथा पढ़ी।
एकदम अलग कहानी है। इक पुर असरार हिसार में कहानी हमें बांधने को बेताब नज़र आती है। ये जहर वाला वाक़ेआ तो मुझे ख़ुद के साथ बीत रहा महसूस हो रहा है
बेहतरीन कहानी का बेहतरीन अनुवाद। आयशा आरफ़ीन ख़ुद बढ़िया और समर्थ कथाकार हैं।
कहानी का हर किरदार थोड़ी देर के लिए इतना खास हो जाता है कि उस पर शक होता है कि कहीं यह भी षड्यंत्रकर्ता न हो कहवा बेचने वाली बुढ़िया तक शक के दायरे में आ जाती है और हर किरदार थोड़ी देर बाद गैर अहम हो जाता है। अंत में रह जाता है साया, वह साया जो ज़हर बनाता है ,जो पांव नहीं मोड़ सकता और जो दरिया खान का ब्रेनवाश कर देता है । जो हर जगह है हर कमरे में है और उसके सामने एक नया व्यक्ति जहर की एक नई तरकीब से परिचित होना चाहता है वह तरकीब जो उसके दुश्मन पर कारगर हो । और हां ! यह किसी देश विशेष की कहानी नहीं है , हर जगह षड्यंत्र है ,जहरीला षड्यंत्र ।
कहानी बहुत मायनेख़ैज़ है और अनुवाद बहुत नेचुरल कहीं भाषा के अंतर का आभास भी नहीं होता ।
बहुत बढ़िया कहानी है,
इस दौर का हर आदमी एक बदसूरत साये के सामने खड़ा है साया जो घुटने नहीं मोड़ सकता जो हर कमरे में मौजूद है और जहर बनाने की नई-नई तरकीबें उसे मालूम हैं , जो षडयंत्रों को बेचता है ।
यह कहानी किसी विशेष व्यक्ति, देश या कालखण्ड की नहीं है बल्कि यह तो युग युगांतर से चलती आ रही है।
एक अच्छी मायनेख़ैज़ कहानी और एक बहुत ही नेचुरल अनुवाद जिसमें कहीं भाषांतर का आभास भी नहीं होता ।
कहानी के लेखक और अनुवादक दोनों को ही बहुत-बहुत साधुवाद ।