| नव सहजिया के नव चर्यापद अनिल कुमार कार्की |
पिछले बरस से कविताओं की एक किताब के साथ रहा हूँ. दर्ज़नों दफ़ा उस किताब को खोलता हूँ और कविताएं पढ़ता रहता हूँ. किताब का नाम है ‘धर्म वह नाव नहीं’, किताब कवि व आलोचक शिरीष कुमार मौर्य की है. किसी दार्शनिक ने कहा था, “कविता दर्शन से अधिक सार्वभौमिक सत्य को प्रकट करती है, यह जीवन और अनुभवों की अनुकरणीय प्रस्तुति है.” हम सब जानते हैं कि अच्छी कविताओं में तमहीद बाँधना कविता की सलासतो-रवानी को बुरी तरह मजरूह करने जैसा है. इन कविताओं की पूर्वपीठिका में ईसा पूर्व छठी शताब्दी में पैदा हुए बुद्ध के धर्मोपदेश हैं. उस समय जब समाज आत्मा, जगत और ईश्वर जैसे विषयों के चिन्तन में डूबा था; जब एक नैतिक जीवन निष्प्राण हो रहा था; जब लोग संसार में रहकर भी संसार से कोसों दूर थे; जीवन का नैतिक क्षेत्र जब पूरी तरह अराजक हो चला था; उस हिंसा के भयानक वातारण में विकसित हुआ बौद्ध धर्म अहिंसा पर आधारित था.
किताब ‘धर्म वह नाव नहीं’ को पढ़ते हुए बुद्ध का यह कथन याद आता है कि ‘मैं दुःख और दुःख निरोध पर अधिक जोर देता हूँ’ हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा भारतीय दर्शन की रूपरेखा में इस कथन की व्याख्या करते हुए लिखते हैं,
“यदि कोई व्यक्ति बाण से आहत होकर किसी के पास पहुँचता है, तब उस व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य होना चाहिए बाण को हृदय से निकाल कर उसकी सेवा सुश्रूषा करना. ऐसा न करके बजाय इन प्रश्नों के कि तीर कैसा है? किसने मारा? कितनी दूर से मारा, क्यों मारा? तीर मारने वाले का रंग -रूप क्या था? इस पर विचार करना मूर्खता ही मानी जायेगी. दुःख से पीड़ित के लिए आत्मा, जगत, ईश्वर जैसे प्रश्नों के अनुसन्धान में निमग्न रहना निरर्थक ही कहा जा सकता है.”
इस संग्रह की कविताएं विपन्न से अन्न माँगने, अकाल में उजड़े हुए गाँव जाने, उस व्यक्ति से मिलने जिससे मिलना सरल हो पर जिसकी तरह जीना कठिन हो, उसको जानने-समझने की बात करती हैं. कहती है कि यह दीक्षा का आरंभ है करुणा पर चर्चा फिर कभी. कवि ने अपने समय की परिस्थितिजन्य छटपटाहट, बेचैनी व विडम्बनाओं को अपने नव चर्यापदों के माध्यम से पाठकों के सामने रखा है. यह कविताएं जिए जा रहे समय और भोगे जा रहे वर्तमान में कुछ सवालों व संकेतों के साथ हाज़िर होती हैं.
कविताओं के सन्दर्भ भले ही धम्मपद से लिए गये हैं, लेकिन संग्रह की कविताएं अतीत के सन्दर्भों के बहाने वर्तमान-सत्ता-समाज-संस्कृति की भाषा व कहन में उतरती हैं. भद्रक भन्ते से सवाल करता है. अपने समय के सूक्ष्म भावबोध की शिनाख़्त करते हुए कवि करुणा और प्रेम, दो अलग-अलग बिन्दुओं से जीवन और जगत को देखने की कोशिश करता है. लगभग तय करता है कि करुणा तक पहुँचने से पूर्व प्रेम तक पहुँचना क्यों आवश्यक है, जिसके सन्दर्भ वर्तमान हैं. मानव मन की तहों और समाजों के सामूहिक अवचेतन की परस्परता, यथा- साझा अनुभवों, प्रतीकों, मिथकों व संस्कृति के बहाने कविताएं सामूहिक अवचेतन के उस स्तर तक आवाजाही करती हैं, जो व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि सामूहिकता के उपक्रमों और साझा स्मृति व अनुभवों से भी बनी है. वे केवल इतिहास नहीं हैं, उपदेश भी नहीं हैं. दर्शन और विचार की सीमा से परे मनुष्य होने की श्रेष्ठता के पार जाती यह कविताएं सहअस्तित्व के सम्मान की कविताएं हैं.
कवि छठी शताब्दी से लेकर आठवीं व बारहवीं शताब्दी के सिद्धाचार्यों के चर्यापदों तक गया है और नव चर्यापदों की रचना की है. हम समय में पीछे जाते हैं, तो देखते हैं कि बौद्ध सिद्धाचार्यों को अपने समय में संध्या भाषा की ज़रूरत क्यों आन पड़ी होगी? बहुत सारी वजहों में एक वजह यह भी थी कि बौद्ध धार्मिक कर्मकांड, तीर्थाटन, और बाह्याचार के विरोधी थे. जैसा कि कवि इस संग्रह में भी कहते हैं
गंगा में
कछुवों की डुबकियाँ
किसी तरह का
निर्वाण नहीं हैं.
सहजियों ने सहज जीवन और सहज साधना को अपनाया. पाखंड और आडम्बरों का विरोध भी खुलकर किया. जिस तरह का संघर्ष तत्कालीन समय में मौजूद था, उससे बौद्धों का सामाजिक या धार्मिक प्रतिरोध हो सकता था. संभव है इसलिए उन्होंने सर्वथा नई और गूढ़ भाषा का प्रयोग किया. अपने चर्यापद अपभ्रंश मिश्रित देशज भाषाओं में ही रखे. जिससे वे आमजन तक पहुच सकें. ‘धर्म वह नाव नहीं के चर्यापद’ भी सर्वथा नए आचरण का दस्तावेज़ हैं इसलिए वे ‘नव-चर्यापद’ हैं. इस महिमामयी परम्परा में वर्तमान की जटिलताओं व समय को कवि सहजिया घुमंतुओं की तरह स्वनिर्मित प्रतीकात्मक और दृष्ट-कूट भाषा में व्यक्त करता है और कहता है –
एक मैं भद्रक ही
भूला आपका राजकुल जाति गोत्र गौरव
हुआ सहजिया
इन कविताओं की भाषा में अपने समय से घोर असहमतियों से उपजा एक ख़ास स्ट्रेस भी है, जो भाषा से कविता तक फैला हुआ है. कविताओं में इस्तेमाल शब्द अतीत और समकाल में दोनों जगह अलग-अलग अर्थों में एक साथ उपस्थित हैं.
कवि शारिपुत्र को शारिपुत्र नहीं उचारता क्योंकि उसका मानना है कि सारिपुत्त कहने से उस धम्म का पता चलता है, जो राजा से नहीं, प्रजा से सम्बन्धित था. अपनी भाषा और कविता-प्रतीकों में कवि वर्चस्व को पहचान के उसे छिन्न-भिन्न करता है. शारिपुत्र को बुद्ध के दाहिने दर्शाया जाता है. कहते हैं शारिपुत्र ने बुद्ध के धर्मोपदेशों को स्पष्ट करने का काम किया. एक और सन्दर्भ है, जहाँ दुःख की चिड़ियाँ नागफनी के तने के अलावा किसी और वनस्पति पर विश्वास नहीं करती है. भद्रक भन्ते से पूछता है कि –
भन्ते!
मेरी देह का नमक चाट रही
वह तुम्हारी
जगतप्रसिद्द करुणा तो
नहीं थी ?
हताशा में कवि ने जिस नदी का जल पिया है, विचार की उस नदी का क्षीण प्रवाह कवि के जीवन का हिस्सा बन चुका है. उस नदी से कवि को लगाव भर नहीं है, बल्कि वह तो उस नदी के भी पार जाकर उसे करुणा की तरह समझने की कोशिश कर रहा है. कवि अपने जीवन को ठीक-ठीक जाँच- परख के कहता है कि केवल करुणा से काम नहीं चलेगा, क्योंकि करुणा प्रेम का विकल्प नहीं हो सकती है. कवि समानुभूति से, प्रेम से, करुणा से जीवन और उसके रागानुराग को समझना चाहता है. यहाँ न करुणा विलापती है और न ही ज्ञान का गौरव है. कवि सहजिया हो समय के प्रवाह में स्वयं के पक्ष को स्पष्ट करता है-
भगवन
अब शोक उपजे या भय
मुझे बचना है
तो निरंतर प्रेम में ही
रहना होगा
इसी संग्रह में एक जगह वे लिखते हैं ‘मैंने करुणा से काम चलाना चाहा/पर वह प्रेम का विकल्प/ न हो सकी.’ बौद्ध दर्शन में, करुणा और प्रेम, दोनों को ब्रह्मविहार यानी उच्चतम मानसिक अवस्थाओं में गिना जाता है. करुणा तब उत्पन्न होती है, जब हम किसी को दुःख में देखते हैं और उसकी पीड़ा को महसूस करते हुए मदद करना चाहते हैं अर्थात् करुणा दूसरों के दुःख को देखकर उनके लिए दया और सहानुभूति की भावना है. प्रेम तब उत्पन्न होता है, जब हम किसी से जुड़ाव महसूस करते हैं, चाहे वह दुःख में हो या सुख में. प्रेम किसी व्यक्ति, वस्तु या विचार के प्रति गहरा लगाव और भावनात्मक रूप से, मदद करने की इच्छा है. करुणा पीड़ित की सहायता करना, उसकी पीड़ा को कम करना है, जबकि प्रेम, संबंध बनाना, साथ रहना, सुख-दुःख साझा करना है
कवि के यहाँ जो प्रेम है, वह ज्यादा सार्वभौमिक समानुभूति है. कवि कहता है कि राजकुलीन स्थविरों, मठों के ज्ञानियों को यह पता ही नहीं है कि प्रजा के घरों पर जाने कितने दीप धुवाँ हो चुके हैं, जो पिछले सैकड़ों वर्षों से परस्पर प्रकाश के लिए जल रहे थे, संघर्षरत थे.
इसी संग्रह में एक जगह कवि कहता है कि उसने मनुष्य के भय को स्थविर होकर नहीं, सहजिया होकर अधिक गहराई से समझा है –
विकटज्ञान
निपट मूर्ख
जड़ मूढ़ कथित स्थविरों ने
मेरा संसार डुबो दिया है
भगवन
एल.एस. वायगोत्स्की भाषा और विचार के सन्दर्भ में बचपन के हवाले से उद्धरण देते हुए कहते हैं- “भाषा के उद्देश्य की हल्की सी पहचान, भाषा को जीतने की इच्छा का अनुगमन करती है. यह तब होता है, जब बच्चा ‘अपने जीवन की महानतम खोज करता है वह खोज है ‘प्रत्येक वस्तु का अपना एक नाम होता है’.
इस संग्रह में भाषा का स्तर इतना सधा हुआ है कि कवि शब्दों को मिस्त्री की तरह चिनता जाता है और शब्द का संदर्भ, प्रयोजन और भाव अपने उद्देश्य को प्राप्त होते हैं. कविता में इस्तेमाल शब्द ‘प्रविविक्त’ इसका एक उदाहरण है –
ब्याज- संस्तुतियों के बीच
सामान्य
और कोलाहल के बीच
प्रविविक्त रहे आना
आपको ही
शोभा देता है भन्ते
भद्रक से ऐसी आशा
अस्वाभाविक है
थेरी शुभा और ‘मौसी महागौतमी’ का ज़िक्र करते हुए कवि संघ के निरापद विहारों तलक अपराध के लक्षण देखते हैं. सभी जानते हैं, अधिकतर साधिकाओं ने प्रियजनों के वियोग से और सांसारिक जीवन से ऊब कर संघ में प्रवेश किया था. आगे लिखते हैं –
मुझे कह लेने दें
कि मुंडित हो जाने से
समाज के भीतर
स्त्रियों के प्रति उपस्थित प्रेम तो कुछ नष्ट हुआ
किन्तु पाप थोड़ा भी नहीं मरा
अकेलापन केवल भौतिक नहीं, बल्कि अस्तित्वगत भी हो सकता है, जहां व्यक्ति खु़द से कट जाता है. यह स्वीकारोक्ति है कि आत्मज्ञान या अंतःप्रकाश पर्याप्त नही है, व्यावहारिक तो कदापि नहीं. शायद जीवन में केवल ध्यान या आत्मचिंतन ही ज्ञान नहीं, बल्कि संबंधों की आवश्यकता भी जीवन का अनिवार्य हिस्सा है. कवि एक अमर प्रश्न पूछता है –
भन्ते!
संसार में से प्रेम घटा दूँ
तो क्या जोड़ दूँ कि मनुष्य बना रह सकूँ?
जीवन की रागात्मक वृत्तियों के पक्ष में भद्रक भन्ते से सवाल करता है-
माना कि राग समान कोई
अग्नि नहीं भन्ते
पर जो जीवन है हमारा समूचा
रागमय
उसको विरागी करें तो
कैसे बचाएँ मनुष्यता
इसलिए यह स्वीकारोक्ति कि –
मेरी मनुष्यता का मुख
जिस अभिमान से प्रकाशित है
उसे प्रेम ही कहना होगा
यही प्रेम है, जो कवि को मनुष्यता की तरफ मोड़ता है और कवि बार-बार सहजिया होना चाहता है, अपनी संध्या भाषा में कहता है –
प्रजातन्त्र विषम धर्म होना चाहिए था
सत्ताओं के लिए
वह दिनोंदिन कठिन होता गया
प्रजा के लिए
प्रजा माँगते-माँगते मर रही है
यहाँ मर जाने का सीधा अर्थ मृत्यु नहीं है, सत्ताओं की अनदेखी और दमन से है, जिसमें प्रजा और समाज का जीर्ण-शीर्ण होना व्यंजित हुआ है. जहाँ सत्ता भी असत्य और प्रमाद को ही अपना राज धर्म मानने लगी है- यह व्यंग्य और गहरी पीड़ा की व्यंजना है कि अब प्रजा अन्याय को भी स्वीकार करने लगी है. इसीलिये कवि ने कहा है –
भन्ते!
शिष्यों ने प्रचार किया
करुणा का
व्यंग्य को समझना
और कहना तो छूट ही गया
महिमामयी
इस परम्परा में! हालाँकि अब पक्षधरता जैसा पद बहुत घिसा पिटा हो गया है पर महिमामयी इस समय में कवि की प्रजा पर अपनी अगाध आस्था है., वे कहतें है–
देखा कुछ प्रतीक्षाएँ व्यर्थ
हुई जाती थीं
जैसे राजाओं में
मनुष्यता की प्रतीक्षा
महिमायी इस समय में यह पंक्तियाँ सत्ता, अध्यात्म और मानव प्रकृति पर गहरा व्यंग्य हैं, एक दार्शनिक टिप्पणी है, जो करुणा की विशुद्धता और वैराग्य की सच्चाई पर सवाल उठाती है. हम जानते हैं, यह सवाल भी वर्तमान है. भद्रक इसी कविता के अंत में प्रजा की तरफ से कहता है –
सहस्त्रों वर्ष की प्रतीक्षाओं में
जाना है हमने
कि आस हो न हो
प्रतीक्षाओं का अपना ही
एक प्रकाश
अवश्य होता है
भन्ते!
मनुष्य और समाज की भावनात्मक शुष्कता, करुणा के अभाव और नैतिक सूखे की ओर भी इस संग्रह की कविताएं संकेत करती हैं. एक ऐसे समय में जब मानवीय हृदय उदासीन और संवेदनहीन हो गया है. कवि कहता है –
सूखी नदी का तल है
समकालीन समाज का हृदय
न जाने कितनी
रेत के नीचे दबी है
करुणा की धारा.
यह किताब सचेत संकेतों की किताब है. संकेत, भाषा व पाठ और अर्थ की स्थिरता पर प्रश्न उठा सकता है और साथ ही विभिन्न संदर्भों में उसका अर्थ बदल सकता है. यह भी कि संकेत कभी-कभार मुख्य अर्थ को चुनौती देता हुआ अन्य छुपे अर्थों को उजागर करता है. इस संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए यह महसूस हुआ कि यह संग्रह भाषा और पाठ की एक खुली, महत्वपूर्ण व कभी न ख़त्म होने वाली अर्थ प्रक्रिया की तरफ पाठक को ले जाता है –
आपके उपदेशों में
पकती लीची की सुवास है
छिलका उतरते ही
चमकता है जो
वह भी जीवन में एक बड़ा
प्रकाश है
छिलका उतरते ही बाहरी आवरण के हटने पर भीतर की सच्चाई व प्रकाश दिखाई देता है, यह पंक्तियाँ जीवन के दूसरे पहलुओं को खोलने का क्रम है.
सूखी हुई झाँवेदार
तोरई के बीज
सँभाल रही
एक स्त्री इस संसार में
नित्य के प्रति
मेरी आस्था जगा रही है
किसी सूखी हुई झाँवेदार तोरई के बीज संभाल रही एक स्त्री विषम परिस्थिति में किसी का अभिभावकत्व और जीवन को संभालने की जुगत में दिखती है. वह जीवन के अस्थिर और बिखरे हुए क्षणों को आपस में जोड़ती है-नित्य की छोटी-छोटी बातों में विश्वास और आशा का संचार करते हुए. यह कविता संग्रह जीवन के विविध रागानुरागों के साथ-साथ विरोधाभासी पहलुओं का भी संगम है, मिठास, प्रकाश, कठिनाई और आस्था सभी यहाँ अलग-अलग गतिशील सन्दर्भों के साथ मौजूद हैं. यह कविताएं जीवन के अनुभव और उसकी विविधता व समरसता की कविताएं हैं.
जो कुछ नहीं बोलता
उससे कोई कुछ नहीं पूछता
मैं स्वयं
अपने पड़ोस और समाज में
मृतक समान रहता हूँ
भन्ते !
कोई नहीं पूछता मुझसे
मेरी कुशल-क्षेम
मैं पूछता हूँ उससे
जो सदा के लिए मौन है
मौन की द्वैतता को मध्यम मार्ग पर शून्यता के सिद्धांत से जोड़ा जा सकता है, जहाँ न तो मौन पूर्ण है और न बोलना, न तो जीव पूर्ण है, न मृत. मौनता को समाज ने स्थिर, निरर्थक माना है, लेकिन कवि इस संभावना को बताता है कि मौन असल में संवाद का एक रूप हो सकता है. जिसका अर्थ स्थिर व सामान्य अपेक्षाओं से परे है. मृत देह, चिता व लकड़ी, समिधा, आग, पानी, हवा सभी निर्जीव हैं, लेकिन कवि के लिए वे जीव और संवाद के संभावित स्रोत हैं. यहाँ कवि विपरीत या प्रतिद्वंदी तत्वों यथा- जीव-निर्जीव, बोलना-मौन की सीमाओं को तोड़ता है और अर्थ की बहु-स्तरीयता पाठकों के सामने रखता है.
मध्यम मार्ग बौद्ध दर्शन में विश्व और अस्तित्व को इस तरह से व्याख्यायित करता है, जिसमें समग्र और स्थिर सत्ता को मानने के बजाय परिवर्तनशीलता,अस्थिरता और बहुरूपता को स्वीकार किया जाता है. जहाँ निश्चित या अंतिम अर्थ नहीं होता. विखंडनवाद में भी कोई अर्थ, सत्ता या संरचना स्थायी नहीं होती, बल्कि वहां संरचना विभिन्न अर्थों में बिखर जाने के उपरान्त, नए अर्थों का उत्पादन करती है. ये कविताएं भाषा और अर्थ की स्थिरता और बहुरूपता को जानने समझने की भी कविताएं हैं. यहाँ स्थिर सत्ता या अर्थ की किसी एकात्मक व्याख्या को नकारकर कवि ने विभिन्न अर्थों और संभावनाओं को खुले मन से स्वीकार किया है. इसीलिए यह कविताएं इस समय के सहजिया की कविताएं हैं. एक पाठक के बतौर मैंने इन कविताओं को बार–बार पढ़ा है. हर बार इन्हें नए सन्दर्भों, नए अर्थों में समझने की मेरी कोशिश अभी जारी है. इस संग्रह को पढ़ते हुए एक पाठक के बतौर यह कविताएं मेरे पाठक होने की सीमा को भी स्थिर या एकाकी नहीं बनाती हैं.
यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें
|
सहायक प्रोफेसर |

अनिल कुमार कार्की


प्रिय कवि शिरीष कुमार मौर्य जी के कविता-संग्रह ‘धर्म वह नाव नहीं’ पर अनिल ने बहुत प्यारा लिखा है। अनिल का गहरा अध्ययन इस संग्रह के इर्द-गिर्द घूमता है, इसलिए पढ़ने में बहुत आनन्द आ रहा है।
दोनों कवियों और ‘समालोचन’ को मुबारक।
एक जटिल समय के धागों को सहस्त्रों वर्ष पीछे छूटे जटिल समय के धागों के साथ जोड़ कर गूंथी जारही रचना के सुलझे-उलझे धागों को पहचानने और खोलने की यह प्रक्रिया काफी मशक्कत मांगती है। अनिल का प्रयास सराहनीय है। बधाई!