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Home » दीवान-ए-जानवरी : अरुण खोपकर

दीवान-ए-जानवरी : अरुण खोपकर

अभिनेता, निर्देशक, सिने-विद्, लेखक और अनुवादक 79 वर्षीय अरुण खोपकर का जानवरों पर लिखा गया यह अंश अद्भुत और अनूठा है. पशुओं पर लेखन वैसे भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में विरल है. ऐसे में बहुश्रुत और यायावर अरुण खोपकर जब अपने सम्पर्क में आए जानवरों पर लिखते हैं, तो उसमें आत्मीयता और बौद्धिकता का सुंदर सहमेल हो जाता है. साथ रहने का सुख और सीख साथ-साथ चलते हैं. मूल मराठी से हिंदी में इसका अनुवाद रेखा देशपांडे ने विशेष रूप से आपके लिए किया है. ये संस्मरण अभी मराठी में भी प्रकाशित नहीं हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
November 3, 2025
in अनुवाद
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दीवान-ए-जानवरी : अरुण खोपकर
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दीवान-ए-जानवरी
अरुण खोपकर


अनुवाद- रेखा देशपांडे

1.
मेरे रसिक दर्शक

पीटर और ऐना से मेरी मुलाक़ात फ़्लोरेन्स में हुई. हम एक ही होटल में ठहरे हुए थे. शुरू के एक-दो दिन में ही हमें पता चल गया कि हमारी पसंद-नापसंद भी काफ़ी मिलती-जुलती है. जो म्युज़ियम, सिएना और रावेना जैसे जो गाँव हम देखना चाहते थे उनकी फ़ेहरिस्तें भी एक-दूसरी से मेल खाती थीं. तो हमने आपस में मिलकर एक टाइम-टेबल बना लिया. वैसे हम तीन ही दिन साथ-साथ रहे. मगर पसंदीदा चित्रकार, स्थापत्यकार और जगहें कुछ इस तरह मिलती-जुलती रहीं जैसे बहुत पुराना याराना हो.

वे वॉशिंग्टन डी. सी. के रहनेवाले थे. ऐना लाइब्रेरी ऑफ़ काँग्रेस में काम किया करती थी और पीटर भी वहीं क़ानून विभाग में काम करता था. यूरोप का सफ़र कर दो महीने बाद मैं वॉशिंग्टन डी. सी. पहुँचने वाला था. ‘कहाँ रहोगे’ वगैरह बातें होती रहीं और ऐना ने अचानक पूछ लिया, “तुम्हें बिल्लियाँ अच्छी लगती हैं?” यह सवाल अचानक और अनपेक्षित रूप से उठा था. मैंने ताज्जुब से उसकी तरफ़ देखकर कहा, “बहुत ज़्यादा. मैं तो बचपन से बिल्लियों के साथ ही पला हूँ”. फिर वह पीटर की ओर देख मुस्कराई और मुझसे बोली,” तो फिर हर्ज ही क्या है? हमारे साथ क्यों नहीं रहते? हम तुम्हें सबेरे शहर ले जाएँगे और शाम वापस ले आएँगे?.

दो महीने बाद मैं पीठ पर अपना बोरिया-बिस्तर लाद उनके यहाँ दाख़िल हुआ. घर में क़दम रखते ही फायरप्लेस के मैंटल पर बैठी तीन बिल्लियों पर नज़र पड़ी. बिल्कुल गांधीजी के प्रिय तीन बंदरों की तरह तीन अलग-अलग अंदाज़ में बैठी थीं. उनमें से एक हाथ गीला कर अपनी आँखें साफ़ कर रही थी. दूसरी पिछले पैर से कान खुजला रही थी और तीसरी स्तब्ध! ऐना ने पहचान करा दी. “यह है डॉट, यह कॉम और यह एस्टेरिक्स”. डॉट के बदन पर सचमुच डॉट थे. बाक़ी दोनों के बदन पर नाम की पहचान बताने वाले ऐसे कोई निशान न थे. मैं उनके पास गया तो उन्होंने मेरी तरफ़ जिस तुच्छता से देखा उस तरह सिर्फ़ बिल्ली ही इनसान को देख सकती है. और फिर वे अपनी-अपनी सौंदर्य साधना में व्यस्त हो गईं.

मुझे मेरा कमरा बताया गया. वहाँ तीन बिल्लियों के लिए तीन बक्से रखे हुए थे. तीनों में तीन नरम मुलायम ऊनी गद्दे और चादरें थीं. ऐना ने बताया,

“इन तीनों के बिस्तर यहीं लगते हैं. उनसे तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं पहुँचेगी. उनके लिए हमने शीशे के छोटे झूलते दरवाज़े बनवा लिये हैं. रात को वे जब बाहर आना-जाना चाहती हैं तो आराम से आ-जा सकती हैं. तुम थक गए होगे. रात खाने पर मिलते हैं”.

दूसरे दिन सबेरे नाश्ते के लिए बैठे तो पीटर ने कहा, “इन बिल्लियों की वजह से हमारी शादी एक साल तक रुकी रही. इनकी एक ख़ास आदत से तुम्हें वाकिफ़ कराना होगा”. मेरी जिज्ञासा जाग उठी. उसने बताया,

“ऐना स्टुडिओ अपार्टमेंट में अकेली रह रही थी, तबसे ये बिल्लियाँ उसके साथ हैं. एक ही माँ के बच्चे हैं. ऐना नहाने जाती थी तो इन तीनों को शॉवर से निकलती गर्म भाप बहुत अच्छी लगती थी. आम तौर पर बिल्लियों को पानी अच्छा नहीं लगता. लेकिन ये तीनों बाथरूम में घुसकर और लेज पर बैठकर तब तक गर्म भाप का मज़ा लेती रहती थीं जब तक ऐना नहा रही होती थी. जब वह शॉवर बंद कर देती तो ये बाहर निकल आती थीं”.

दोनों में जब शादी की बात उठी तो ऐना ने पीटर से साफ़ साफ़ कह दिया,

“यह मेरी बिल्लियों की पुरानी आदत है. अगर यह तुम्हें पसंद न हो तो हम दोनों अड़ोस-पड़ोस के दो अपार्टमेंट्स में रहेंगे. बिल्लियाँ मेरे पास रहेंगी”.

ज़िंदगी भर नहाते समय बिल्लियों का साथ कैसे निभाया जाए, इसपर पीटर ने काफ़ी सोचा. जब दोनों को एक साथ ज़िंदगी बिताने का मन हो ही गया तब बिल्लियाँ भी साथ हो लीं. अब हाल यह है कि घर के किसी भी शॉवर की आवाज़ के सुनाई देते ही उन्हें उस बाथरूम में जाना होता है. पीटर ने मुझसे कहा,

“मेहरबानी करके तुम उन्हें अंदर आ जाने दो. नहीं तो वे बाहर से दरवाज़े को नोचती हुई चिल्लाती रहेंगी”.

AI से निर्मित. सौजन्य अरुण खोपकर

अपने आपकी प्रदर्शनी लगाना मेरी ख़ासियत कभी नहीं रही. लेकिन मुझे यह सारी बात इतनी दिलचस्प लगी की मैंने उसकी बात तुरंत मान ली. मेरे नहाने का समय होते ही मैंने शॉवर का परदा लगा लिया और शॉवर शुरू किया. अब तक मेरे कमरे में खेल रही वे तीनों आवाज़ सुनते ही बाथरूम में घुस आईं. कूदकर तौलिये वाले शेल्फ़ पर तीनों एक कतार में अगले दो पैर सीधे रख पिछले दो पैरों पर भलेमानस दर्शकों की तरह बैठ गईं और मेरा स्नान देखती रहीं. शॉवर बंद कर मेरे बदन पोंछने लगते ही तीनों एक साथ कूदकर मुझपर हँसती हुई चली गईं. जब तक मैं वहाँ रहा, यही सिलसिला जारी रहा.

इससे पहले और इसके बाद भी मैंने इतना दर्शनीय और हास्यपूर्ण स्नान कभी नहीं किया.

 

2.
सर्पसूत्र

मेरे भतीजे अभिजित और आमोद जानवरों और जंगलों का शौक़ रखते थे. साँप का तो ख़ास आकर्षण था दोनों को. एक बार एक सैर के दौरान उन्होंने धामन पकड़ लिया.

धामन एक बहुत ख़ूबसूरत साँप होता है. देखने में नाग जैसा लेकिन फन नहीं उठाता. यह ग़ैर-ज़हरीला साँप होता है और बिल्कुल ही अलग-थलग जगहों पर पाया जाता है. मनुष्यों की बस्ती में भी रह लेता है. इससे मेरे दोनों भतीजों का मन उसे पालने का हो गया.

धामन दिन में घूमने वाला साँप है. यानी दिनचर. शरीर दुबला-पतला होता है और वह पीला, कत्थई, राख के रंग का या काला भी हो सकता है. निचले होंठ के शल्कों पर काली पट्टी होती है, जो इसकी ख़ासियत होती है और इसीके चलते वह नाग से अलग पहचाना जा सकता है.

मेरे भतीजे साँप को घर ले आए. उन्होंने शीशे का एक पुराना एक्वेरियम साफ़ कर लिया. उसमें रेत, चिकने कंकड़-पत्थर और घास डाल दी. दोनों में से जिस किसीको जब खाली समय मिल जाता तो वह साँप को बाहर निकाल घर में खुले आम घूमने के लिए छोड़ देता. घंटे-दो घंटे बाद शीशे के घर में उसे रखकर जालीवाला ढक्कन लगा देता.

इस दौरान साँप घर भर में घूमता रहता था. पहले पहले अलमारी के नीचे या ऐसी किसी जगह पर जा बैठता जहाँ आसानी से किसीका हाथ पहुँच न पाए. बाद में जब आदत हो गई तो खुला घूमने लगा. ऐसे समय घर आनेवाले मेहमानों के लिए दरवाज़ा खोलते समय सावधानी बरतनी पड़ती थी और मेहमानों को भी पहले से इत्तला देनी पड़ती थी कि घर में साँप है. अगर किसी साहसिक मेहमान को हर्ज न हो तो साँप से उसकी मुलाक़ात भी करवा दी जाती थी.

साँप को घर में रखा तो पहला सवाल उठा कि उसके खाने-पीने का इंतज़ाम कैसे करें. साँप का मुख्य खाना होता है चूहे और मेंढक. घर मुंबई के शिवाजी पार्क में था. साफ़-सुथरी, चहलपहल वाली बस्ती थी. ऐसी जगह नियमित रूप से चूहों और मेंढकों की आपूर्ति भला कैसे और कहाँ से होती? लेकिन मेरे भतीजे हर समस्या का समाधान ढूँढ़ने में माहिर थे. उनकी दोस्त मंडली भी बहुत बड़ी थी और उनमें कई तरह के शातिर नमूने शामिल थे. इनमें से एक था उनके दोस्त चंदू रणदिवे का छोटा भाई. क़द-काठी भी छोटी-सी थी. इसीके चलते लोग उसे माइक्रो कहकर पुकारने लगे थे और फिर माइक्रो का माइक्र्या बन गया.

शाडू मिट्टी की गणेशमूर्तियाँ बनाना रणदिवे खानदान का पेशा था. गणेश पेठ लेन में वे लोग रहते थे और वहीं उनका कारख़ाना भी था. गणेशजी की कृपा से कारख़ाने में बड़ी भारी तादाद में चूहे घूमते रहते थे. माइक्र्या ने ज़बरदस्त तरक़ीब लड़ाई. उनके यहाँ गंगाजलवाला एक छोटा लोटा था, जिसका लाख का ढक्कन कबका निकल चुका था और जल भी हवा हो गया था. माइक्र्या ने लोटे में एक आलू रखा और लोटा रात को कारख़ाने में ख़ास जगह पर रख दिया.

दूसरे दिन सबेरे-सबेरे माइक्र्या लोटा ढँककर ऐसे हमारे घर पधारा जैसे लड़ाई जीतकर विजयी वीर आ रहा हो. आमोद ने लोटा उसके हाथ से ले लिया और धीरे से ढक्कन खिसकाकर ज़ोर से नारा लगाया, “गणपती बाप्पा मोरया”. उसे लोटे में एक छोटासा चूहा दिखाई दिया था. चूहे का भोग चढ़ाते ही साँप उसे निगल गया.

माइक्र्या को एक आलू और लोटा लौटाया गया. घर के सभी लोग माइक्र्या की तारीफ़ करते अघा नहीं रहे थे. दस दिन तक माइक्र्या को आलू दिया जाता रहा और बदले में वह चूहा देता रहा. यह लेन-देन बेरोकटोक जारी रही. फिर एक दिन रोनी सूरत लिये माइक्र्या आया. हाथ में लोटा न था. रुआँ-से सुर में उसने अपनी असफलता को स्वीकार कर लिया.

साँप को चूहा पसंद था इसलिए बच्चों ने उसका नाम साँप्पा रख दिया था. दूसरे दिन उसे कोई खाना नहीं मिला. माइक्र्या बोला, “मैं रोज़ आलू रखा करूँगा. एक न एक दिन तो चूहा आ ही जाएगा”. लेकिन माइक्र्या का फलज्योतिष ग़लत साबित हुआ.

दो-तीन दिन लगातार खाना न मिल पाने से साँप्पा कमज़ोर, मुरझाया हुआ नज़र आने लगा. तुरत-फुरत ‘सर्पान्न समिति’ का गठन किया गया और धामन प्रजाति के साँप के भक्षणयोग्य पदार्थों को लेकर शोधकार्य आरंभ हुआ. चूँकि वह मांसाहार करनेवाला था इसलिए मुर्ग़ी और बकरे के मांस के टुकड़े डाले गए. लेकिन वे वैसे ही पड़े रहे. फिर किसीने सुझाव दिया कि साँप तो जीते-जीगते जीव ही पसंद करते हैं. रावत मैन्शन, न. चिं. केलकर रोड, शिवाजी पार्क में छोटे-छोटे जीते- जीगते जीव कहाँ मिलते?

इस प्रश्न पर सोच-विचार हो रहा था कि लीला ने यानी मेरी माँ ने सुझाव दिया, “उसे तिलचट्टे दे दें. देखें तो खाता है या नहीं”. आम तौर पर लोगों को तिलचट्टों से घिन होती है, मगर लीला बड़ी सहजता से तिलचट्टे पकड़ लेती थीं. कृतिशील लीला ने दो-चार तिलचट्टे पकड़ साँप के शीशे के घर में डाल दिए. साँप ने उनकी तरफ़ देखा तक नहीं. उलटे अपने लिए आरक्षित जगह पाकर तिलचट्टे काँचघर में ख़ुश होकर इधर-उधर टहलने लगे. ज़रा-सा उड़कर साँप्पा के बदन पर खेलने लगे.

सर्पान्न समिती को जानकारी मिली कि साँप को मेंढक बहुत पसंद आते हैं. मेरे बड़े भाई कैन्सर रिसर्च सेंटर में काम किया करते थे. उनकी जान-पहचान के चलते, वहाँ जीवविज्ञान के अध्ययन में विच्छेदन के लिए लाए जानेवाले मेंढ़क कभी कभार मिलने लगे. लेकिन यह उपाय हमेशा के लिए नहीं हो सकता था.

चूहाविरोधी अभियान के अंतर्गत काम करनेवाले मुंबई महापालिका के कर्मचारियों के वसीले से कभी-कभी पिंजड़े में फँसे चूहे भी मिल जाते थे. लेकिन फिर यह बात भली भाँति समझ में आ गई कि आत्मनिर्भरता का कोई विकल्प नहीं होता और न ही ‘मेड इन रावत मैन्शन’ का कोई विकल्प है. तब बच्चों ने बक्से में कुछ चूहे पालना शुरू किया और इंतज़ार का मीठा फल भी मिला. बक्से में से एक चुहिया ने बच्चे पैदा किए और साँप्पा के खाने की समस्या कुछ समय तक के लिए ही सही हल हो गई.

चूहों के कारख़ाने से घर के सभी लोग उकता गए. उनकी टट्टी, उनकी पेशाब, उसकी बदबू से सभी परेशान हो उठे. उसपर यह डर था कि ये कभी भी बक्से की क़ैद से बाहर निकल घर भर में हंगामा मचा देंगे. डर बिल्कुल दुरुस्त था. आख़िरकार मेरे भतीजों को नोटिस जारी किया गया कि वे साँप को यथाविधि विसर्जित कर आएँ. हालाँकि इस वक़्त तक साँप ने हम सब के दिलों में बिल कर लिया था. उसकी लीलाओं से हमें बड़ा सुख मिलता था.

साँप के सामने लाठी धर दो तो वह लाठी के गिर्द लिपट जाता था. हाथ आगे बढ़ाओ तो सरसराता हुआ हाथ पर से बदन पर रेंगता हुआ चला आता. गर्दन के गिर्द लिपटता, पैरों से लिपटता. हिलती हुई गेंद को पकड़ता. उसकी चाल ऐसी सुंदर थी कि वह घर भर में घूमने निकले तो क्या मजाल कि आपका ध्यान कहीं और चला जाए. सर्पिल गति-सी दूसरी चाल कहीं और नहीं देखी जा सकती. नदी भी तो उसीका अनुकरण करती है.

प्रसिद्ध अँग्रेज़ चित्रकार विल्यम होगार्थ ने सुंदरता का विश्लेषण करनेवाली अपनी किताब में ‘S’ आकार का वर्णन प्रकृति की विरोधी प्रेरणाओं को समो लेनेवाले ‘सर्वांगसुंदर’ आकार के रूप में किया है.

आख़िरकार महादेव की त्रयी- ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ – में से ‘सुंदरम्’ की पराजय हुई. यह मानना पड़ा कि साँप्पा के आहार की समस्या का सत्यम् शोकाकुल कर देनेवाला होता है. एक दिन भरी आँखों से सबने साँप्पा को विदाई दी और भतीजे उसे जंगल में प्रतिष्ठापित कर आए.

 

3.
सुपारी किलर

मुझे पूरा विश्वास है कि इस बात पर आपको विश्वास नहीं होगा. लेकिन यह कहानी बिल्कुल सच्ची है. मेरी विजू दीदी की कई बातें ऐसी हैं जिनका आसानी से विश्वास नहीं हो सकता. वे अविश्वसनीय लगती हैं इसका मतलब यही है कि वे सच्ची होती हैं.

१९५६ में विजू दीदी की शादी मुधोल के बापूसाहब पागनीस से हुई और दोनों मुंबई के कांदिवली उपनगर की डहाणूकरवाड़ी में एक छोटे-से घर में रहने लगे. उस ज़माने में डहाणूकरवाड़ी के आसपास जंगल था. जंगल में साँप होते थे. कभी-कभी बाघ भी चक्कर लगाकर मुर्ग़ियों-कुत्तों की दावत खाकर चले जाते थे. विजू दीदी में बाघिन के कुछ गुण थे जिससे वे वहाँ बेख़ौफ़ रहने लगीं. अहाते में चार-पाँच घर और थे. सभी कनिष्ठ मध्यवर्ग के परिवार थे.

विजू दीदी को जानवरों से बेहद लगाव था और जानवरों को उनसे. वे जहाँ जातीं, वहाँ के जानवरों को उनके आने की ख़बर मिल ही जाती. फिर वे सब विजू दीदी के घर के आसपास मँडराकर उनका ध्यान अपनी तरफ़ खींच लेते. कुत्ते पूँछ हिलाते-हिलाते कूल्हे भी हिलाने लगते. बिल्लियाँ तो उनके क़दमों में अँग्रेज़ी आठ आँकड़ा बनाकर घूमते हुए उनका चलना मुश्किल कर देतीं. फिर एक-एक जानवर को गोद लिया जाता. विजू दीदी के पति बापूसाहब को खेत पर गाय-भैंसों से तो लगाव था, मगर घर में मँडरानेवाले कुत्ते-बिल्लियाँ ज़रा भी नहीं सुहाते थे. बिल्लियाँ तो बिल्कुल भी नहीं.

विजू दीदी के गोद लिये हुए वारिस बापूसाहब को बिल्कुल नामंज़ूर थे. लेकिन विजू दीदी झाँसीवाली रानी से भी तेज़तर्रार ठहरीं! लिहाज़ा उनके एक भी वारिस को खुले-आम नामंज़ूर क़रार देने की हिम्मत बापूसाहब में न थी. नतीजतन हुआ यह कि शादी को ग्यारह महीने होते होते विजू दीदी के घर में तेरह बिल्लियाँ इतमीनान से घूमने लगीं. मार्जार-फ्री ज़ोन कहीं बचा ही नहीं था.

डहाणूकरवाड़ी के आसपास की ज़मीन में चूहे दिन-दहाड़े भी इधर से उधर दौड़ा करते थे. ज़ाहिर था कि वहाँ दिन के नाश्ते और रात के खाने के लिए साँप भी आते. लेकिन विजू दीदी की मार्जारसेना की दहशत बड़ी थी. इसलिए घर में घुसने का मौक़ा उन्हें कभी नहीं मिला.

विजू दीदी की इस ग़ैर-क़ानूनी निजी सेना की बॉस थी सुपारी किलर बिल्ली. सुपारी सर से पूँछ तक और पीठ से पाँव तक काली थी. उसके नाम से उसका काम और उसकी शोहरत एकबारगी ज़ाहिर हो जाती थी. किसी के घर में बहुत ज़्यादा चूहे हो जाते थे तो उसे सुपारी दी जाती थी. उसे उस घर में ले जाकर एक मछली खिला देने पर वह रात भर घर के आसपास चक्कर लगाकर पहरा देने लग जाती थी. रात चूहों का ऐसा ख़ात्मा कर डालती कि दूसरे दिन सबेरे सुपारी के एनकाऊंटर के शिकारों को गिन-गिनकर वधस्थली से दूर ले जाया जाता था. एक-दो रातों में अपना काम निबटाकर और पेटभर खाने का मेहनताना वसूल कर तब सुपारी अपने घर लौट आती थी.

बापूसाहब से सुपारी का ख़ास रिश्ता था. विजू दीदी के छोटे-से घर में रसोई को अलग करनेवाला वासा सुपारी की प्रिय जगह थी. वहाँ विराजमान हो जाती तो चारों तरफ़ का विहंगम दृश्य नज़रों में समा जाता. बापूसाहब वासे के नीचे से गुज़रने लगते तो सुपारी अपने नाख़ून निकाल बिला नागा बापूसाहब के सिर पर पंजा फेरा करती. एक तो उनके सिर के बाल कम हो चले थे. इससे सिर प्राकृतिक सुरक्षा से वंचित हो रहा था. दूसरे, सुपारी को लेकर अपनी अप्रियता को उन्होंने बिल्कुल नहीं छुपाया था. बल्कि खुले आम दुश्मनी ही घोषित कर दी थी. कभी-कभी ग़ुस्सा हो जाते तो उसे धमकाते भी थे कि तुम्हें मछली बाज़ार में छोड़ आऊँगा. यूँ वह कभी उनके पास नहीं फटकती थी. लेकिन वासे के बुर्ज़ पर सुरक्षित पहुँचने के बाद वह यल्गार पर उतारू हो जाती थी.

वासे पर चढ़ी चंचल बिल्ली को पकड़ना आसान नहीं होता. उसके लिए उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाना पड़ता है. छापामार कर वह देखते-देखते वासे पर अपनी जगह बदल चुकी होती थी. ग़ुस्सा करनेवाले आदमी का हाथ दूसरी जगह पड़ता था तो वह फ़ौरन दूसरा वार करती थी. इसतरह वह बापूसाहब की नाक में दम कर देती. विजू दीदी को उनकी लड़ाई देखने में मज़ा आता था और वे हमेशा सुपारी के पक्ष में होती थीं. सुपारी पर वार करने से आए बापूसाहब के ज़ख़्मों पर मरहम लगाने के लिए विजू दीदी की ज़बान ही काफ़ी थी. “कैसे बेवकूफ़ हैं आप. वासे पर बैठी बिल्ली नहीं पकड़ सकते और चले हैं उसे मछली बाज़ार में छोड़ने”. इस तरह की बातें सुपारी भले न समझे, बापूसाहब ख़ूब समझते थे. प्रिय पाठको, आपमें से किसीने अगर कभी बिल्ली की इच्छा के विरुद्ध उसे पकड़ने की कोशिश की होगी तो आप समझ जाएँगे कि बापूसाहब की हालत किस क़दर असहाय, दयनीय होती होगी.

मैं विजू दीदी के घर रहने के लिए कभी कभार ही जाता था. लेकिन एक-दो मुलाक़ातों में ही सुपारी और मैं पक्के दोस्त बन गए. मैं उसे उठा लेता था. हथेली पर उसके पिछले दो पैर रखवाकर हाथ से सँभालते हुए उसे घुमाने ले जाता था. फिर भी बापूसाहब मेरे साथ अच्छा बर्ताव करते थे. ऐसा नहीं कि बाक़ी बारह बिल्लियों की अपनी-अपनी ख़ासियतें नहीं थीं. लेकिन सुपारी पैदाइशी शिकारी और छापामार युद्ध में माहिर निंजा थी और एक दिलचस्प चीज़ थी. उसका कोई सानी न था.

एक बार वैजू की माँ ने सुपारी को ‘सुपारी’ दी. ईमानदार काँट्रैक्ट किलर की तरह अपना काम निबटाकर वह मेहनताने का इंतज़ार करने लगी. वैजू की माँ काम में व्यस्त थीं. एक-दो बार सुपारी ने ‘मियाँव’ कहकर उनका ध्यान खींचने की कोशिश की. लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया. सुपारी ने आक्रामक रूप धारण कर लिया तो उन्होंने तश्तरी में खाना रख तश्तरी उसके सामने पटक दी. इस अनपेक्षित अपमान से सुपारी सकते में आ गई. वह फ़ौरन मुड़ी. पूँछ ऊपर उठा उसने उन्हें अपना गुदा दिखाया और शान से क़दम बढ़ाती हुई विजयी वीर के अंदाज़ में विजू दीदी के घर लौट आई.

इसके बाद सुपारी ने वैजू की माँ के घर में कभी क़दम न रखा.

 

 

pinterest से आभार सहित

4.
इट इज़ रेनिंग कैट्स ऊर्फ़ मार्जारवर्षा

मूसलाधार बरसात का वर्णन अँग्रेज़ी में ‘इट इज़ रेनिंग कैट्स ऐण्ड डॉग्ज़’ किया जाता है. ऐसी बरसात खुले में होती है. मगर घर के अंदर ऐसी बरसात भला कैसे होगी? लेकिन हमारी विजू दीदी के घर में एक बार ऐसी बरसात हुई थी. उसीकी दिलचस्प कहानी है यह.

विजू दीदी नाटे क़द की, दुबली-पतली, साँवली, बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत मगर समय-समय पर आग उगलती आँखों वाली, बला की मानसिक ताक़त वाली, बहुत जल्दी ग़ुस्सा होनेवाली, असाधारण महिला थीं. इसलिए उनके घर में घटित होनेवाली घटनाएँ साधारण शायद ही कभी हुआ करती थीं. कांदिवली वाले उनके छोटे-से घर में एक समय में तेरह बिल्लियाँ हुआ करती थीं. एक, दो, तीन नहीं… पूरी तेरह. मानो ईसा मसीह और उनके बारह शिष्य! ज़ाहिर था कि इस पवित्र झुंड की नेता शैतानी काले रंगवाली सुपारी किलर बिल्ली ही होती थी. विजू दीदी हर बिल्ली को उसके नाम से पहचानती थीं, पुकारा करती थीं, कभी डाँट दिया करती थीं, कभी प्यार से पुचकारती थीं. मार्जारसमूह से वे इतनी एकाकार हो गई थीं कि समय पड़ने पर सिंह-गर्जना भी कर सकती थीं.

विजू दीदी की बिल्लियों और बापूसाहब की दुश्मनी कांदिवली की डहाणूकरवाड़ी की एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक समस्या थी. बापूसाहब को पूरा यक़ीन था कि हर बिल्ली की हर हरकत उनके साथ दुश्मनी निभाने की ख़ातिर ही होती है. और हर ताज़ा वाक़या उनकी इस राजनीतिक धारणा का सबूत पेश किया करता था.

अपने नाख़ून तेज़ करने के लिए बिल्लियाँ बापूसाहब के पालिश किए हुए जूतों पर जो नक्काशी किया करती थीं, उसके सौंदर्यबोध से बापूसाहब अनभिज्ञ थे. ग़ुस्से से भरकर वे विजू दीदी से कहते थे कि मेरे सबसे महँगे जूतों पर ही यह नक्काशी जान-बूझकर की जाती है इसका मतलब मुझे ज़्यादा से ज़्यादा नुक़सान पहुँचाने के इरादे से ही ऐसा किया जाता है. विजू दीदी ने, ज़ाहिर था, बिल्लियों की वक़ालत का ज़िम्मा उठा लिया था. वे हर बार बिल्लियों की हरकतों पर ख़ुश हो हँसते हुए उनकी तरफ़दारी ही किया करती थीं. लिहाज़ा तनाव कुछ ज़्यादा ही बढ़ जाता था.

हाँ, अगर यह कहा जाए कि तेरहों बिल्लियाँ बड़ी मासूमियत से ये हरकतें किया करती थीं, तो फिर बापूसाहब की इस्त्री की हुई कमीज़ पर बिल्लियों के कीचड़ सने क़दमों के निशान क्यों होते थे जबकि कीचड़ सने क़दमों से वे विजू दीदी की किसी भी साड़ी पर कभी चला नहीं करती थीं? प्राणिविज्ञान में इस प्रश्न का कोई उत्तर न था. बिल्लियों के बच्चे ज़रा चलने फिरने लायक़ हो जाते थे तो वे बापूसाहब के बिस्तर में ही टट्टी-पेशाब क्यों करते थे? दूध के प्याले पास पास रखे हों तो सुपारी किलर बिल्ली अपना प्याला छोड़ बापूसाहब के प्याले में ही मुँह क्यों लगाती थी? सांख्यिकी में भी इसका कोई जवाब नहीं मिलता था. इसलिए बापूसाहब का यह दावा कि यह चुनिंदा दुश्मनी है पुख़्ता हो जाता था.

कभी-कभी संजोग से भी कुछ घटनाएँ हो जाती थीं, तब भी बापूसाहब को उनके पीछे बिल्लियों का शैतानी पंजा ही दिखाई देता था. यूँ बिल्लियों को ज़मीन पर लोटने का शौक़ होता है. लेकिन घर की दीवारों पर अगर शेल्फ़ हो और उन पर काँच की, मिट्टी की, चीनी मिट्टी की चीज़ें रखी हों तो बिल्लियों में इस जिज्ञासा का पैदा होना स्वभाविक है कि उन चीज़ों की बू कैसी है, उनका स्पर्श कैसा है. इसलिए वे समय-समय पर शेल्फ़ पर कूदकर अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासा पूरी कर लेती हैं. वैसे तो कूदने में और संतुलन बनाए रखने में माहिर होती हैं बिल्लियाँ, लेकिन कभी कभार अनुमान ग़लत हो जाता है. ऐसे समय बापूसाहब वहाँ हाज़िर हों और गिरनेवाली चीज़ पहले उनके सिर पर गिरकर, तब ज़मीन पर उतर टूट जाती हो और टुकड़े हर तरफ़ बिखर जाते हों ऐसा भी हो जाता था. ऐसे में उनकी राय में बिल्लियों की काली करतूत मोटे अक्षरों में दर्ज होती थी. और घरों में इस तरह की घटनाएँ मामूली मानकर भुला दी जाती थीं. मगर विजू दीदी के घर में चूँकि तेरह बिल्लियाँ थीं इसलिए इस तरह की घटनाएँ तेरह गुना बढ़ गई थीं. तेरह अंक अशुभ समझा जाता है, वह अलग से.

१९५६ से साठ की दहाई के बाद वाले वर्षों में कांदिवली में आबादी बहुत कम थी. पानी के निस्सारण का कोई अच्छा प्रबंध न होने की वजह से जगह-जगह तरह-तरह के जलाशय बने हुए थे और मच्छरों की बहुतायत थी. फिर भी कई परिवार रंगीन मछलियाँ पालने के शौक़ से बाज़ नहीं आते थे. घर छोटे-छोटे होते थे. लिहाज़ा ये मत्स्यालय घर में जहाँ जगह मिल जाती वहीं रखे रहते थे. घर के लोग बची हुई जगह में किसीतरह निबाह कर लेते थे. विजू दीदी के घर में मत्स्यालय ज़मीन से चार फुट की ऊँचाई पर एक शेल्फ़ पर रखा गया था. उसके ठीक नीचे रात गद्दा बिछाकर और दीवार के कोनों में ठुँकी कीलों पर मसहरी की रस्सियाँ बाँधकर बापूसाहब और विजू दीदी सोया करते थे.

बिल्लियाँ मौसम के हिसाब से सही जगह ढूँढ़कर रात को आराम फरमाया करती हैं, मगर स्वभावतः वे होती हैं निशाचर. इसलिए रात में एक चक्कर लगाकर देखा करती हैं कि कोई पतंगा, कोई गिरगिट हाथ लग जाए तो दावत हो जाए. सुपारी किलर पर तो चूहों को मारने की बड़ी अहम ज़िम्मेदारी हुआ करती थी. इसलिए वह रात भर पहरा देती घूमती रहती थी, ग़ैर-क़ानूनी एनकाऊंटरों में धड़ल्ल्ले से चूहों के ख़ून किया करती थी. एक बार विजू दीदी के घर में घूम रही थी. पता नहीं क्या हुआ. शायद चमकती छोटी-सी रंगीन मछली ने उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींच लिया होगा. वजह जो भी हो, सुपारी किलर ने मत्स्यालय वाले शेल्फ़ पर छलाँग लगा दी और मत्स्यालय मसहरी की छत पर लुढ़क गया. पानी गिर गया और मछलियाँ मसहरी की छत पर छटपटाने लगीं. उन्हें पकड़ने के लिए सुपारी किलर मसहरी की छत पर कूद गई.

नीचे गहरी नींद में सोये, खर्राटे भर रहे बापूसाहब पर मत्स्यालय औंधा गिर पड़ा. रात में अचानक ठँड़े पानी के गिरने से बापूसाहब हड़बड़ाकर जाग गए तो उनकी नज़र सीधे मसहरी की छत पर मछली पकड़ रही सुपारी किलर पर पड़ी. उसका पीछा करें तो कैसे? चारों तरफ़ मसहरी ने घेर जो रखा था. बिस्तर, पाजामा-बनियान सब भीग गए थे और ऊपर अंतरिक्ष में परम शत्रु सुपारी किलर संतुलन बनाए रखते हुए मछलियाँ पकड़ रही थी. मारे ग़ुस्से के बापूसाहब का गुलाबी चेहरा उबले झींगे-सा लाल हो उठा. विजू दीदी को झकझोरकर जगाते हुए चीख़े,

“विजू, उठो उठो, तुम्हारी बिल्लियाँ मुझपर पेशाब कर रही हैं”.

 

 

 

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5.
बड़ा आँसू

मेरी पुरानी दोस्त सुजाता देसाई से मुलाक़ात होती है तो पशुओं की कहानियों का आदान-प्रदान तो होता ही रहता है. वैसे भी सुजाता पशुओं की डॉक्टर है, इसलिए इस विषय में उसका अनुभव बहुत बड़ा है और कहानियों की तादाद भी बहुत बड़ी. इसलिए उसके साथ बिताई एक शाम का मतलब कई पहलुओं से प्राणियों के जीवन को छूनेवाली, सोच को उकसानेवाली, यादगार कहानियों का सिलसिला होता है. ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ, कि कभी-कभी मुझे सुजाता से ईर्ष्या भी होती है.

सुजाता की सुनाई कई कहानियों में से जिसने मेरे दिल को गहराई तक झकझोरकर रख दिया था वह है मुंबई के रानी के बाग़ की रहनेवाली हथिनी की कहानी. उसका नाम था लक्ष्मी. १९७७ में वह बिहार से मुंबई में आई थी. २०२० में चौवन साल की आयु में उसका देहान्त हो गया.

रानी के बाग़ में हाथी की पीठ पर हौज़ लादकर बाग़ देखने आए दर्शकों के लिए रानी के बाग़ की सैर करवाई जाती थी. यह वहाँ का एक लोकप्रिय कार्यक्रम हुआ करता था. अब वह होता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम. लेकिन बचपन के मनोरंजन कार्यक्रमों में से यह एक पाँच-सितारा आकर्षण हुआ करता था.

गाड़ी में बैठकर सफ़र करते समय मुंबई की दो-मंज़िली बेस्ट बस को छोड़ इतनी ऊँचाई से दुनिया को देखने का अनुभव नहीं होता था. अगर बस में ऊपरी मंज़िल पर सबसे आगे की सीट मिल जाए तभी सैर का असली मज़ा मिलता था. नीचे से गुज़र रही मोटरों से एक अलग ही, ऊँचे स्तर पर होने का आनंद मिलता था.

और फिर भी रानी के बाग़ की सैर का मज़ा और होता था. बस में सीढ़ियाँ चढ़कर सीट पर जा बैठने से भी अलग और कीमती. क्योंकि, एक तो हाथी पहले ज़मीन पर बैठ जाता था. हौज़ में बच्चे बैठ जाते थे तो माहुत हाथी को उठ खड़े होने का इशारा करता था. हाथी जब पहले आगे के पैर उठाकर तब पिछले पैर पूरी तरह उठाने लगता तो पेट में जो तितलियाँ उड़तीं उससे पहले ज़रा-सा डर लगता, मगर फिर मज़ा भी आता. ऊँट खड़ा होता है तब भी पेट में इसीतरह तितलियाँ उड़ती हैं. लेकिन हाथी की हरकतों में एक तरह का लोच होता था, जिससे यह अनुभव कुछ ज़्यादा ही सुखद हुआ करता था. पहली मंज़िल की ऊँचाई तक अपने आप उठाए जाने का यह अनुभव गुरुत्वाकर्षण के साथ खेला गया मज़ेदार खेल होता था.

हाथी की पीठ पर बैठ पूरा का पूरा रानी का बाग़ देखा जा सकता था. आसपास फैली पेड़ों की टहनियों की मार से बचते हुए, पत्तियों और बौर को छूने का आनंद उठाते हुए चारों तरफ़ के लोगों, प्राणियों को उनसे भी ऊँचे स्तर से देखते हुए, धीमी गति से हिलते-डुलते चलने का वह आनंद आज भी शरीर के रोम रोम को याद है. आगे बढ़ते-बढ़ते कभी-कभी माहुत हाथी को कोई फल तोड़ने की इजाज़त भी दे देता था. तब तो सारे बच्चे ख़ुशी से चिल्ला उठते. फिर फल को हथियाने की होड़ लग जाती.

हो सकता है हाथी के विशाल आकार की वजह से हो या फिर उसके स्वभाव की वजह से हो, बच्चों में हाथी के प्रति एक ख़ास तरह का आकर्षण बना हुआ होता है, जो किसी और प्राणी को लेकर नहीं होता. बाघ, शेर आदि से तो डर ही लगता है. इन्सान के आकार से बराबरी करनेवाले बंदर जैसे प्राणियों को लेकर कौतूहल होता है, मज़ा भी आता है और ज़रा-सा डर भी लगता है. हाथी में, हालाँकि बला की ताक़त होती है मगर पालतू हाथी के पास जाने में बच्चों को ज़रा भी डर नहीं लगता.

इस सारी पृष्ठभूमि के चलते सुजाता की सुनाई कहानियों ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया. आइए, चलते हैं फिर लक्ष्मी हथनी की ओर. उसकी पीठ पर बाँधे हौज़ में बैठ की हुई सैर से बचपन में मुझे बहुत सुख और आनंद मिला था. लेकिन पीठ पर हौज़ जिन रस्सियों से कसकर बाँधा जाता था, वे रस्सियाँ इस सैर के दौरान उसकी चमड़ी पर घिसती रहती थीं और लक्ष्मी की पीठ पर घाव होते रहते थे. उन्हें नज़र-अंदाज़ कर देने से वे नासूर बन गए. समय के साथ उनमें कीड़े पड़े और दर्द बरदाश्त के बाहर होने लगा.

सुजाता प्राणियों के अस्पताल में काम किया करती थीं. वहाँ के एक वरिष्ठ प्राध्यापक के पास लक्ष्मी का मामला ले जाया गया. उन्होंने सुजाता को अपनी मददगार के तौर पर साथ ले लिया और वे रानी के बाग़ में पहुँचे. माहुत की सहायता से जब उन्होंने लक्ष्मी की जाँच की तो पता लगा कि लक्ष्मी की हालत बहुत ख़राब है. सही इलाज न होने पर घाव का ज़हर शरीर में फैल सकता है और लक्ष्मी की जान को भी ख़तरा पैदा हो सकता है.

लक्ष्मी के वज़न को देखते हुए उसे बेहोशी की दवाई की मात्रा इतनी ज़्यादा देनी पड़ती कि उससे भी उसे हानि पहुँच सकती थी. एक ही उपाय था, कीड़े हटाकर और ज़ख़्म साफ़ कर उनपर तब तक दवाई लगाई जाती रहे जब तक वे भर न जाएँ. दवाई से जलन होनेवाली थी. जलन और दर्द से अगर लक्ष्मी बिफर उठी तो इलाज करनेवाले की जान को भी ख़तरा हो सकता था.

सब पसोपेश में पड़ गए थे. कोई चारा नज़र नहीं आ रहा था. माहुत को भी इस चर्चा में शामिल करवा लिया गया, क्यों कि लक्ष्मी के स्वभाव से वही भली भाँति वाकिफ़ था. वह बोला,

“लक्ष्मी बहुत बुद्धिमान है, सहनशील है. आम ज़ख़्मों पर दवा लगाते समय तकलीफ़ होती है तब भी वह समझ जाती है कि यह उसके भले के लिए ही किया जा रहा है. वह क़रीब डेढ़ सौ शब्द जानती है. मैं उसे इशारों से और बोलकर समझाने की कोशिश करूँगा. दवाई लगाते समय उसके पास बैठूँगा. दवाई भी आपकी देखरेख में मैं ही लगाऊँगा. कम से कम कोशिश तो करके देखें”.

एक सुझाव था कि इलाज करने के लिए लक्ष्मी को ज़ंजीरों से जकड़ दिया जाए. मग माहुत ने इसका विरोध किया. बोला,

“लक्ष्मी की इच्छा के ख़िलाफ़ अगर इलाज किया जाएगा तो बहुत मुश्किल होगी. जो करना है उसकी मर्ज़ी देखकर ही करना होगा. न हो तो कोई और रास्ता ढूँढ़ना होगा. मगर कोशिश तो करके देखें”.

दवाइयाँ, डॉक्टरों के बैठने की व्यवस्था, तौलिया आदी सारी तैयारी हो चुकने के बाद माहुत ने सबको दूर हट जाने के लिए कहा. लक्ष्मी के कान के पास बैठ, उसे सहलाते हुए वह उसके कान में धीमी आवाज़ में कुछ कहता रहा. क़रीब पाँच मिनट बाद उसने लक्ष्मी को पेट के बल लिटा दिया. धीरे से उसका सिर ज़मीन पर ऐसे रख दिया जिससे उसे तनाव महसूस न हो. फिर डॉक्टर कीड़े हटाकर ज़ख़्म साफ़ करने लगे. लक्ष्मी कराह रही थी लेकिन उसने बिना विरोध किए सब करने दिया.

अब आई बारी जलनेवाली दवाई की. माहुत ने फिर उसके कान में कुछ कहा. उसने सिर ज़रा-सा ऐसे हिलाया जैसे समझ गई हो. जलनेवाली दवाई लगाई जाने लगी. लक्ष्मी के मुँह से कुछ दबी दबी-सी आवाज़ें निकलती रहीं. उनमें कराह भी थी, सिसकी का-सा आभास भी हो रहा था. लेकिन उसने बिना कोई हरकत किए दवाई लगवा ली.

सुजाता का ध्यान लक्ष्मी के चेहरे की तरफ़ गया. हथिनी की नन्ही-सी आँख में एक बहुत बड़ा आँसू आ रहा था. फिर दूसरा, तीसरा… आँसुओं की झड़ी लग गई. लक्ष्मी की कराहें अब साफ़ सुनाई देने लगीं. माहुत ने डॉक्टर से पूछा, “और कितनी देर लगेगी” और डॉक्टर ने इशारे से बताया कि और पाँच मिनट. माहुत ने इशारे से ही कहा, ठीक है.

कुछ दिन तक इलाज चलता रहा. घाव धीरे-धीरे भर रहे थे. तकलीफ़ भी कम होने लगी. कुछ ही दिनों में लक्ष्मी अच्छी हो गई, तो डॉक्टर ने सलाह दी कि हौज़ का रिवाज बंद कर दिया जाए. उस सलाह पर अमल किया गया या नहीं मुझे पता नहीं.

सुजाता की कहानी सुनकर मुझे कई बार हाथी की पीठ पर बैठ की हुई सैर की याद आई और उस समय जो आनंद आया था वह भी याद आया. लेकिन उस समय नन्ही आँख का वह बड़ा आँसू मुझे दिखाई नहीं दिया था और शायद कभी भी न दिखाई देता. बस इतनी ख्वाहिश है कि आज अगर कोई अपने बच्चों को हाथी की पीठ पर लादे हौज़ में बिठाकर सैर करवाना चाहे तो कम से कम उसे वह बड़ा आँसू दिखाई दे.

 

 

6.
बोनी ऐण्ड क्लाईड

योहान व्हॅन देर कयकन बीसवीं सदी के डच फ़िल्म-निर्देशकों में से एक श्रेष्ठ निर्देशक मान जाते हैं. उनसे पहचान हो गई तो दो-तीन मुलाक़ातों के बाद ही आपस में गहरी दोस्ती हो गई और उन्होंने यह इच्छा प्रकट की कि मैं जब भी एम्स्टरडैम आऊँ उन्हींके  घर ठहरूँ. लिहाज़ा अगली बार मैंने पंद्रह दिन के लिए उन्हींके घर बसेरा किया. वहीं पर मेरी मुलाक़ात पाब्लो और मनिला से हुई.

पाब्लो और मनिला एम्स्टरडैम में रहनेवाले डकैत मार्जार (बिल्ली)-दंपति थे. उन्हें याद करता हूँ तो मुझे बरबस प्रसिद्ध डाकू दंपति बोनी और क्लाईड याद आते हैं. ख़ास कर आर्थर पेन के निर्देशन में बनी फ़िल्म में फ़े डनवे ने निभाए बोनी के चरित्र की और वारेन बीटी ने निभाए क्लाईड की.

यूँ पाब्लो और मनिला उम्रदराज़ हो चले थे. पाब्लो तेरह साल का और मनिला ग्यारह की. उनके शऱीर पर उम्र का कोई असर दिखाई नहीं देता था. दोनों हट्टे कट्टे, मज़बूत, वज़नदार. मनिला में नारीसुलभ मृदुलता महसूस होती थी, लेकिन पाब्लो ख़ासा मुस्टंडा बिलाव था. एक बार किसी परिंदे का शिकार करने के चक्कर में पाब्लो दूसरी मंज़िल से नीचे गिर पड़ा था. ज़रा-सी वैं-वैं कर वापस घर लौटा था. ज़रा भी लँगड़ाकर नहीं चला था.

ये मार्जार मियाँ-बीवी बड़े ही मनुष्यप्रेमी थे. मुझे स्वीकार करने में उन्हें ज़रा-सी भी देर नहीं लगी थी. पाब्लो की फ़र काले और सफ़ेद रंग के जिगसॉ पज़ल के टुकड़ों से बनी हुई थी. मनिला के बदन पर काले और सफ़ेद रंग के अलावा सिंदूरी-सुनहरे बाल थे. दोनों की आँखें बड़ी-बड़ी थीं. पाब्लो की कत्थई रंग लिये और मनिला की नीली-हरी. उन्हें सीमित किये हुए काली रेखा ऐसी मानो काजल लगाया हो. मनिला के चेहरे पर सौम्यता के भाव तो पाब्लो का अंदाज़ ऐसा कि ‘दुनिया-देखी-है-मैंने’.

वहाँ के मेरे पहले हफ़्ते में मैं ज़्यादातर बाहर ही रहा. दूसरे हफ़्ते में ट्राम की पटरियाँ लाँघते समय अचानक गिर पड़ा और दोनों घुटनों से ख़ून बहने लगा. एक में खरोंचें आई थीं और दूसरे में आड़ा घाव लगा था. सौभाग्य से दुर्घटना घर के सामने ही घटी थी, इसलिए किसी तरह घिसटता हुआ घर आ पहुँचा. उसके बाद तीन दिन मुझे पाब्लो और मनिला की सोहबत में बिताने पड़े. दोनों अपने-अपने अलग-अलग नाम पहचानते थे. उठना मेरे लिए मुश्किल था इसलिए मैं उन्हें नाम लेकर आवाज़ दिया करता था. वे अकसर मेरी पुकार सुनकर मेरे कमरे में दाख़िल हो जाते . मेरे बिस्तर में आ जाते. उनकी लगातार जारी संतुष्ट गुर्राहट की प्यारी आवाज़ से मुझे बड़ा सुकून मिलता था.

नाश्ता कर काम पर जाते समय योहान और उसकी पत्नी नोश्का मुझे रेफ़्रिजरेटर की चाभी देकर जाया करती थीं. हर बार बिला नागा ताला लगाने की हिदायत दिया करती थीं. उनके जाने के बाद जब मैंने कोई चीज़ निकालने के लिए फ़्रिज खोला तो पाया कि दरवाज़ा मैग्नेट वाला है और ख़ासा भारी भरकम है. मुझे लगा कुछ लोगों को बेवजह फ़िक्र करने की आदत होती हैं. योहान और नोश्का के साथ यही होगा. ख़्वामख़्वाह ताले-वाले लगाने का क्या मतलब हुआ? मैंने फ़्रिज का दरवाज़ा सिर्फ़ बंद कर दिया और घुटनों में दर्द था इसलिए पेन किलर खाकर गहरी नींद सो गया.

धड़ाम से सामान के गिरने की आवाज़ आई और मैं चौंककर जाग उठा. रसोई से छोटे-बड़े बर्तनों के गिरने की आवाज़ें आ रही थीं. किसी तरह रसोई में पहुँचा और जो देखा, तो कुछ पल समझ ही नहीं पाया कि मैं नींद में हूँ या जाग रहा हूँ. फ़्रिज का मैग्नेट वाला दरवाज़ा पूरा खुला था. क्योंकि पाब्लो अपने शक्तिशाली पंजों से उसे खोलकर वहीं ऐसे बैठा था कि दरवाज़े के बंद हो पाने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी.

मनिला ने खुले फ़्रिज पर डाका डाला था. पिछले पैरों पर खड़ी हो वह अगले पैरों से रात के खाने के बर्तन, दूध का कार्टेन, चिकन, मछली एक एक कर नीचे खींचे जा रही थी. मेरे नज़दीक पहुँचने तक वह ज़्यादातर बर्तन और खाने ज़मीन पर ला चुकी थी. उसका काम सफलतापूर्वक पूरा होते ही पाब्लो दरवाज़े से हट गया.

पाब्लो के हटते ही मैग्नेट वाला दरवाज़ा बंद हो गया. फ़्रिज बाहर से पहले जैसा दिखाई देने लगा. उसे देख किसीको भनक भी न पड़ती की डाका पड़ चुका है.

ज़मीन का नज़ारा कुछ और था. मेरा दोपहर का खाना भी ज़मीन पर गिरा पड़ा था. पाब्लो ने उसीका रुख़ किया था. दोनों मिलकर परिवार के रात के सारे खाने पर टूट पड़े थे.

मैं डाके में मिली लूट की दावत की ओर देखता खड़ा रह गया था.

भारत लौटकर मैं एम्स्टरडैम में मेरी खींची हुई तस्वीरें देख रहा था. उनमें पाब्लो और मनिला की क़रीब पचास तस्वीरें थीं. कुछ एक तस्वीरों में उनकी शख़्सियतों की खासियतें भी साफ़ नज़र आ रही थीं. उनमें घर का रखरखाव भी दिखाई दे रहा है. बाहर की सड़क भी दिखाई दे रही है. मगर कहते हुए शर्म महसूस हो रही है कि उनमें मेरे उदार और प्यारे मेज़बानों की एक भी तस्वीर नहीं है.
मिलॉर्ड, मुझे गुनाह कुबूल है.

 

अरुण खोपकर के सौजन्य से

7.
लिलियन और लैला

कॉलेज की मेरी दोस्त लिलियन को बिल्लियों से बेहद प्यार था.  लिलियन के घर पर वह, उसके माता-पिता और लैला बिल्ली, बस इतने ही सदस्य थे. बिल्लियों के लिए सभी के मन में एक जैसा प्यार था. घर के आचार-विचारों में, व्यवहार के नियम तय करने में लैला का विचार पहले किया जाता था. पूरे घर की व्यवस्था ही लैला के सुख-चैन की ख़ातिर की जाती थी. मसलन, लैला खाना खा रही हो तो ज़ोर से बोलने की इजाज़त किसीको न थी. लैला अगर किसीके बिस्तर पर सो रही हो, तो घर के अलिखित नियम के अनुसार उसे बग़ैर जगाए या हिलाए बची हुई जगह में घर के अन्य सदस्य को सोना होता था. रिवाज यह था कि लैला अगर कुर्सी पर बैठी या सोई हुई हो तो बाक़ी लोग दूसरी कुर्सी ढूँढ़ लें.

एम. ए. कर चुकने के बाद लिलियन कॉलेज में पढ़ाने लगी. साँवली, सलोनी, बुद्धिमान थी लिलियन. जिससे उसके गिर्द भँवरे मँडराया करते थे. आख़िर इन आशिक़ों में से रॉबिन नाम के एक ख़ूबसूरत, बुद्धिमान, मशहूर खिलाड़ी युवक को लिलियन ने चुन लिया.  मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हुआ.

दोनों हमेशा घर के बाहर ही कहीं मिला करते थे. अभी दोस्ती का रंग इतना गाढ़ा हुआ नहीं था कि घर में इत्तला दी जाए. समय के साथ दोनों को लगने लगा कि इस दोस्ती को और पक्के और हमेशा के रिश्ते में बदल दिया जाए.  फिर एक दिन लिलियन ने अपने माता-पिता को रॉबिन के बारे में बताया और उनसे मिलने के लिए उसे घर बुला लिया. लिलियन का परिवार खुले, प्रगतिशील विचारों वाला था, लिहाज़ा दोनों को यही लग रहा था की दोनों के एक होने में कोई दिक़्क़त नहीं पेश होगी.

ठीक समय पर रॉबिन आ गया. दरवाज़े में ही उसका स्वागत किया गया. सब लोग लंबी-चौड़ी बाल्कनी में बैठ गए. थोड़ी देर तक गपशप होती रही. फिर सभी चाय के लिए दीवानख़ाने में आ बैठे. और यहाँ एक दुर्घटना घटी! सोफ़े के कोने में लैला गहरी नींद सो थी. रॉबिन ने उसे नीचे धकेल दिया और वह वहाँ बैठ गया.

रॉबिन पहली बार लिलियन के घर आया था. यहाँ की शराफ़त के क़ायदे-क़ानून से वाकिफ़ न था. उस बेचारे को क्या पता कि लैला को कुर्सी से हटाना बड़ी ही उद्दंडता की हरकत होती है? लैला की ज़िंदगी में ऐसी घटना पहली बार घट रही थी, लिहाज़ा उसे बहुत ग़ुस्सा आया. उसने रॉबिन को नोचा, यहाँ तक कि काटा. अपने बचाव में रॉबिन ने उसे एक तमाचा जड़ दिया.

दीवानख़ाने में दिल दहला देनेवाली ख़ामोशी फैल गई. परिवार के सभी लोग एक-दूसरे की तरफ़ देखने लगे. लिलियन अपनी जगह से उठी और लैला को लेकर अपने कमरे में चली गई. जब वापस आई तो वह पहलेवाली बातूनी, प्यारी-सी लिलियन न थी. वह ग़ुस्से से भरी हुई, गुमसुम लिलियन थी. गपशप का बहता झरना एकाएक सूख गया. कुछ औपचारिक बातें कर लिलियन के माँ-पिताजी ने वातावरण को सहज बनाने की कोशिश की, पर नाकाम रहे. कुछ ही मिनटों में रॉबिन सब समझ गया और उसने घरवालों से विदा ली.

कुछ दिनों बाद मैंने कॉलेज की कैंटीन में अकेली बैठी लिलियन को देखा तो मैं उसके पास जा बैठा. रॉबिन के बारे में पूछताछ की तो उसका चेहरा एकदम फक पड़ गया. उसने मुझे रॉबिन की मुलाक़ात का सारा वाक़या सुनाया और बताया कि अब उसने रॉबिन से शादी का ख़याल बिल्कुल छोड़ दिया है. मैंने कहा, “लिलियन, तुम्हारे घर के रीति-रिवाज, ख़ासकर लैला को लेकर – रॉबिन को कैसे पता होंगे? वह तो पहली बार तुम्हारे घर आया था”. लिलियन बोली,

“अरुण, एक छोटी-सी हरकत से पता चलता है स्वभाव का. आज उसने लैला का अपमान किया, उसे कुर्सी से धकेल दिया. कल मेरे साथ भी ऐसा ही बर्ताव करेगा. और फिर लैला के बग़ैर तो मैं रह नहीं सकती. रॉबिन और भी कई मिल जाएँगे, एक लैला नहीं मिलेगी”.

लिलियन के इस जवाब पर मैं क्या कह सकता था?

 

 

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8.
छिपकली और जिराफ़

आवाज़ किए बग़ैर, हर क़दम लय में रखते हुए बिल्ली की-सी लोचदार चाल में चलकर वस्त्र प्रदर्शन या अंगप्रदर्शन किए जाने के प्रसंग का वर्णन करते समय अँग्रेज़ी में ‘कॅटवॉक’ शब्द का जो इस्तेमाल किया जाता है वह क़तई बेजा नहीं है. फिर मार्जार (बिल्ली) कुल का शेर हो, बाघ हो, चीता हो, तेंदुआ हो या घर में पाली जाने वाली बिल्ली हो, सतर्कता और शान को एक साथ बरतना कोई आसान काम नहीं होता. सतर्कता से चलने में संयम बरता जाता है तो शान बघारते हुए चलने में आत्म प्रदर्शन होता है.

भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में जिन प्राणियों की चाल के वर्णन किए हैं  और लक्षण दिए हैं उनसे पता चलता है कि उन्होंने अपने इस लेखन के लिए दुनिया के कितने जीवों का निरीक्षण किया होगा. ज़रा सूची पर नज़र तो डालें- गजगति, सिंहगति, मृगगति, मयूरगति, राजहंसगति, शुकगति (तोते की चाल), भुजंगगति, मेंढ़क की मांडूकीगति, तुरंगिणी अर्थात घोड़े की चाल, गरुड़ की उड़ान और बिच्छू तक की चाल का वर्णन किया है. क़दम कैसे बढ़ाएँ इसके ब्यौरे तो दिए हैं ही, अचल स्थिती में शरीर को कैसा होना चाहिए, हाथ या कौन-सी हस्तमुद्राओं का प्रयोग करना चाहिए यह भी बताया है.

भरतमुनि की दी हुई यह सूची देखते हैं तो एक बात पर ख़ास ध्यान जाता है. लोचदार, शानदार चाल चलनेवाले जीवों के साथ-साथ उन्होंने बिच्छू की चाल का वर्णन भी किया है. बिच्छू ज़हरीला जीव ठहरा, बहुत तकलीफ़ देनेवाला. राजहंस की तरह वह लोकप्रिय नहीं है. फिर बिच्छू की चाल का वर्णन करने की क्या ज़रूरत है? वजह यह है कि भारतीय शास्त्रकार, भले वे नाट्याचार्य भरतमुनि हों या  संस्कृत भाषा के हर प्रयोग को व्याकरण के नियमों में बाँधकर रख देनेवाले वैयाकरणी पाणिनी हों; सुंदर-असुंदर, शुद्ध-अशुद्ध में भेद करना तटस्थ दृष्टि से ज्ञान की खोज करनेवाले  शास्त्रज्ञ का काम नहीं. जो अप्रिय है उससे बचने की प्रवृत्ति साधारण मनुष्य की होती है. इसके अलावा कई तरह के ग़लत-सही डर या फ़ोबिया भी होते हैं.  किसी को तिलचट्टे का फ़ोबिया होता है, किसी को चूहे का तो किसी को छिपकली का. इसलिए उसके नज़र आते ही या तो फट से आँखें बंद कर ली जाती हैं या नज़र घुमा दी जाती है.

शायद मेरे प्राणि प्रेमी परिवार के संस्कारों के चलते या किन्हीं और कारणों से भी हो सकता है, बचपन से मुझमें सभी जीवों के प्रति बेहद कौतूहल और आकर्षण रहा है. चींटियों की क़तार को देखने में मैंने घंटों बिताए हैं. एक बार रास्ता तय हो जाए तो इनमें से कोई भी चींटी दूसरा, नज़दीकवाला सीधा रास्ता नहीं पकड़ती. जब एक चींटी दूसरी चींटी को अन्न का कण सौंपती है तो वह उनके जीवन की कितनी महत्त्वपूर्ण घटना होती है! इस आदान-प्रदान के दौरान  उस भारी भरकम अन्न-कण के चलते उनके शरीर के संतुलन में किस तरह का बदलाव आता रहता है इसे देखना मंत्रमुग्ध कर देनेवाला अनुभव  होता है.

कभी-कभी मैं पानी की एक बूँद दीवार पर डाल देता था. यह एक बूँद उनके जीवन में अचानक मार्ग बदल देने वाली नदी की तरह तहलका मचा देती थी. वे बौखला जाती थीं, पसोपेश में पड़ जाती थीं, फिर दूसरे रास्ते की खोज में तितर-बितर हो जाती थीं और कुछ समय बाद दूसरा रास्ता ढूँढ़ अपना सफ़र फिर से शुरू कर देती थीं.

लेकिन चींटियों से भी ज़्यादा आकर्षण मुझमें छिपकली को लेकर था. पेण में मेरी ननिहाल थी. वहाँ की कम ऊँचाई वाली, नीम अँधेरी बरसाती में मैं अपना ज़्यादातर समय बिताया करता था. यह बरसाती लकड़ी के  खंभों, वासों और फट्टों से बनी हुई थी.  छिपकलियाँ यहाँ घूमती रहती थीं. छिपकली दिखाई देते ही मैं बाक़ी सब छोड़ उसीको देखता रहता था. तेज़ी से भागते हुए अचानक अचल अवस्था में पहुँच देर तक उसी अवस्था में रह सकने वाला और उतनी ही तेज़ी से बेहद मुश्किल मोड़ लेनेवाला दूसरा प्राणी शायद ही कोई मिलेगा.

रेखाओं का खेल देखना हो तो छिपकली को देखिए. रीढ़ की लचीली हड्डी के चलते उसके दाहिने और बाएँ पैरों के साथ पूरा शरीर बाँकपन धारण कर लेता है. पैर शरीर के दोनों तरफ़ होते हैं जिससे हर पैर की वक्ररेखा अलग ढंग से मुड़ी होती है. और फिर भी छिपकली को किसी भी समय देखिए, इन तमाम रेखाओं में गतिशील संतुलन दिखाई देता है. अपने मज़बूत पंजों और रसवाहिनीवाले गद्दों के बूते पर वह सीधा खंभा चढ़ सकती है और छत पकड़कर चल भी सकती है. मेरा इरादा यहाँ प्राणिविज्ञान का पाठ पढ़ाना नहीं है, बल्कि पूर्वग्रह दूर रख आपके साथ सौंदर्यास्वादन का अनुभव बाँटना है.

एक बार मैंने अपनी एक मशहूर अभिनेत्री से कहा कि तुम फलाँ सीन में जब अचानक रुक जाती हो तो वह हरकत इतनी प्रभावशाली लगती है कि मुझे छिपकली याद आती है. दरअसल मैंने तो बेहद तारीफ़ में कहा था, लेकिन उसने मुझे आग बबूला आँखों से घूरते हुए कहा, “तुम्हें मेरा काम पसंद नहीं है तो शराफ़त से कहो. घिनौनी बात मत करो. कहता है छिपकली याद आती है! मुझे तो उसके नाम से ही उबकाई आती है”.

मेरे मुँह पर जैसे तमाचा जड़ दिया गया. मैं चुप हो गया, मैंने बेवजह उससे माफ़ी माँगी, नहीं तो हमारी सालों की दोस्ती एकबारगी टूट जाती. अपने आपसे कहा, आख़िर जो सुंदरता देखनेवाले की नज़रों में होती है वही सच होती है. दूसरे की नज़र से देखनेवालों को समझाएँ भी तो कैसे?

मशहूर बैले नर्तक वास्लाव निजिन्स्की पिछली दो सदियों के बैले के इतिहास के सर्वश्रेष्ठ नर्तक माने जाते हैं. कार्यक्रम संपन्न हो चुकने के बाद खाने के दौरान एक ऊँची एड़ी वाले जूते पहनी, छरहरी, सुडौल, सुंदर और बहुत ही लोचदार अदाओंवाली एक महिला से उनका परिचय कराया गया. उन्होंने सिर से पाँव तक उन्हें निहारकर तारीफ़ करने के इरादे से कहा, “मैडम, आपके शरीर के कण-कण में जिराफ़ का लालित्य भरा हुआ है. बला का ग्रेस है”. महिला का चेहरा फक पड़ गया. निजिन्स्की चूँकि विश्व विख्यात कलाकार थे इसलिए उनकी अपनी राय में उन्होंने वह अपमान सह लिया, कुछ औपचारिक शब्द बुदबुदाती हुई हट गईं. पूरी शाम उन्होंने फिर निजिन्स्की का मुँह नहीं देखा. मेज़बान महिला ने सौम्य शब्दों में निजिन्स्की को समझाने की कोशिश की तो वे बहुत दुखी होकर बोले,

“आपने कभी जिराफ़ का निरीक्षण किया है? उसके जैसे सुंदर शरीर का और नर्तक के से अंदाज़ में हर क़दम उठानेवाला जीव इस धरती पर नहीं मिलेगा”.

१९६५ के क़रीब कभी मैंने निजिन्स्की की जीवनी पढ़ी थी. पता नहीं क्यों, उसमें वर्णित जिराफ़ वाला यह वाक़या मेरे मन में घर कर बैठा था. पचास साल बाद मैं और मेरी पत्नी गीता मेहरा आफ़्रिकन सफ़ारी पर चले गए. खुले में घूमते और सभी मानवीय बंधनों से मुक्त जिराफ़ देखने को मिले मसाईमारा के विशाल आरक्षित क्षेत्र में.

जिराफ़ की सुंदरता की जितनी तारीफ़ की जाए कम है. पतली, लंबी गर्दन और वैसे ही पतले, लंबे पैरों का आपस में जो संतुलन बना हुआ होता है वह तो सुंदर ही होता है, लेकिन उसकी सही सुंदरता उसकी हरकतों में होती है. गर्दन की सुंदर कमान बन जाती है. हर क़दम पर बैले-नृत्य के संतुलन और ताल में आपसी संवाद पैदा होने लगता है. जब दो जिराफ़ एक दूसरे से प्यार कर रहे होते हैं तो घुमा-घुमाकर एक-दूसरे का आलिंगन करते हैं, एक-दूसरे के अंग घिसकर लाड़ लड़ाते हैं  और चूमते हैं तब शृंगार के चरम बिंदु की जो शोभा और आभा होती है वह नाकाबिल-ए-बयान होती है.

जिराफ़ की सुंदरता सहज ही दिखाई देनेवाली होती है. लेकिन छिपकली? …प्राणिविज्ञान के छात्र को छोड़ उसकी तरफ़ कोई देखता भी होगा या नहीं, मुझे शक है. मेरा ऐसा कोई आग्रह भी नहीं है. उसने मुझे सौंदर्यानुभूति के कई क्षण दिए हैं. मुझ अल्पसंख्य की राय की क़ीमत ही क्या है? छिपकली से प्यार करनेवाला शायद मैं शायद अकेला हूँगा और उसकी जान के दुश्मन कई!

__________________________________

 

अरुण खोपकर
1945

मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित.‘गुरू दत्त : तीन अंकी शोकांतिका’ को सिनेमा पर सर्वोत्कृष्ट पुस्तक का राष्ट्रीय ॲवॉर्ड और किताब अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालिअन, बांगला, कन्नड,  गुजराती और मलयाळम  और हिंदी मे भाषांतरित. ‘चलत् चित्रव्यूह’ के लिए साहित्य अकादेमी ॲवार्ड व महाराष्ट्र फाउंडेशन (यू. एस. ए.) ॲवार्ड, ‘अनुनाद’ और ‘प्राक् सिनेमा’ के लिए  लिए महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार. अंतरराष्ट्रीय चर्चा सत्रों में सहभाग और प्रबंधों का अंग्रेजी, रशियन और इटालियन में प्रकाशन.

सत्यजित राय जीवनगौरव पुरस्कार व पद्मपाणी जीवनगौरव पुरस्कार. चार भारतीय और छह यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन. महाराष्ट्र सरकार द्वारा सम्मानित ‘प्राक्-सिनेमा’ सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है.
arunkhopkar@gmail.com

रेखा देशपांडे

माधुरी में अपनी  पत्रकारिता की शुरुआत कर चुकी फिल्म-समीक्षक, लेखक, अनुवादक रेखा देशपांडे क्रमशः जनसत्ता, स्क्रीन और लोकसत्ता (मराठी दैनिक पत्र) में भी कार्यरत रही हैं. ‘रुपेरी’, ‘चांदण्याचे कण’, ‘स्मिता पाटील’, ‘नायिका’ (महाराष्ट्र राज्य साहित्य पुरस्कार 1997 प्राप्त), ‘मराठी चित्रपटसृष्टीचा समग्र इतिहास’, `तारामतीचा प्रवास– भारतीय चित्रपटातील स्त्री-चित्रणाची शंभर वर्षे’, ‘दास्तान-ए-दिलीपकुमार’ उनकी अबतक की प्रकाशित मराठी पुस्तकें हैं.

अपनी पत्रकारिता के आरंभिक दौर में वे धर्मयुग के लिए कई अनुवाद  कर चुकी हैं और अब तक मराठी, अंगेज़ी और कोंकणी भाषा से हिंदी में, अंग्रेज़ी से मराठी में उनके चालीस के क़रीब अनुवाद छप चुके हैं, जिनमें साहित्य, समाज, राजनीति, इतिहास आदि कई विषय और अगाथा ख्रिस्ती,  जोनाथन गिल हॅरिस, जॉन एर्स्काइन, एम. जे. अकबर, डॉ. जयंत नारळीकर,  गंगाधर गाडगीळ, शिवदयाल, उषा मेहता, विंदा करंदीकर आदि लेखकों की पुस्तकें शामिल हैं. अरुण खोपकर की पुस्तक ‘प्राक्-सिनेमा’ का उनका किया हिंदी अनुवाद जल्द ही प्रकाशित होने जा रहा है.

वे अंतरराष्ट्रीय फिल्म-समीक्षक संगठन की सदस्य हैं और केरळ, बंगलोर, कार्लोव्ही व्हॅरी (चेक रिपब्लिक), कोलकाता, थर्ड आय मुंबई, ढाका (बांग्लादेश), हैदराबाद, औरंगाबाद आदी अंतरराष्ट्रीय फिल्म  समारोहों में समीक्षक ज्युरी की सदस्य की हैसियत से काम कर चुकी हैं. मराठी फिल्म कथा तिच्या लग्नाची की सहलेखिका रही हैं और 90 की दहाई में दूरदर्शन के धारावाहिक  सावल्या(मराठी), आनंदी गोपाल (हिंदी) का  पटकथा-संवाद-लेखन उन्होंने किया.
deshrekha@yahoo.com

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Comments 8

  1. कुमार अम्‍बुज says:
    2 months ago

    ये अपनी तरह के अद्भुत आख्‍यान हैं। पठनीय और अविस्‍मरणीय। जीवन में अन्‍य जीवन के लिए आत्‍मीय जगह और उसके सहज स्‍वीकार की संस्‍मरणात्‍मक गाथाएँ। शायद किसी भी उम्र के पाठकों के लिए रोचक और रोमांचक। अनुवाद प्रवाही है। मैं ‘पेट लवर’ तो नहीं हूँ लेकिन ‘अरुण खोपकर लवर’ ज़रूर हूँ। और उनकी दर्शनीय बिल्‍ली से उनके घर में साक्षात्‍कार कर चुका हूँ। ज़रा दूर से ही। अरुण जी, बस दो दिन बाद ही अपने जीवन के अस्‍सी बरस पूरे करनेवाले हैं।
    उन्‍हें अग्रिम बधाई। और अनकानेक शुभकामानएँ भी।

    Reply
  2. Teji Grover says:
    2 months ago

    समालोचन के लिए बिल्कुल नए किस्म का आख्यान होगा यह।
    मनुष्यकेन्द्रित पाठक भी इस लेखन से मुग्ध हुए बिना न रह सकेंगे।
    Arun Khopkar के इस पक्ष से अनभिज्ञ दोस्त भी अब उनसे थोड़ा बेहतर वाकिफ़ होंगे।
    आजकल हमारे घर में पैदा हुआ एक बिल्ला बडे अधिकार से हमारे दिलों पर राज कर रहा है। सिर्फ़ भोजन के बदले वह हमें घनघोर वन्य जीवन की अनुभूति में न्यौत लाता है। बस बैठे उसे तितलियों के पीछे भागते, स्वयं को चाट कर शुद्ध करते, कानों को हिलाते देखते रहो!! Do nothing का इससे सुन्दर अभ्यास कहाँ हो सकता होगा भला?

    Reply
  3. Aditya Shukla says:
    2 months ago

    कितनी सहज, सुंदर और मार्मिक स्मृतियां हैं। न सिर्फ इतना, बल्कि लेखक ने जितनी संलग्नता से इसे लिखा है, वह किसी भी लिखने वाले के लिए नज़ीर होगा। यह सहजता तभी हासिल हो सकती है जब लेखक को अपने विषय से ऐसी बेपनाह मुहब्बत हो जैसी अरुण जी को अपने विषय से है। पहले भी उनका लिखा यहां पढ़ा है। बिल्ली, सांप, हाथी, जिराफ़, वाह..! अरुण जी को एक अभिनेता के रूप में तो हम जानते ही हैं लेकिन ये संस्मरण इस बात की तस्दीक करते हैं कि वे एक शानदार लेखक भी हैं।

    Reply
  4. कबीर संजय says:
    2 months ago

    खेत में चरती भैंसों का झुंड शायद हमको-आपको एक जैसा लगे। यानी सभी भैंसें एक जैसी। उनमें से किसी को अलगाना शायद हमारे लिए मुश्किल हो। लेकिन, पशुपालक आएगा और उनमें से अपनी भैंस को तुरंत ही पहचान लेगा और उसे अलग कर ले जाएगा। क्योंकि, जैसे हम इंसान एक होते हुए भी एक-दूसरे से अलग हैं। हमारा स्वभाव अलग है। वैसे ही जीवों के भी स्वभाव में अंतर होता है और साथ रहकर कोई भी उन्हें अलग से पहचाने लगता है। उनके गुण-दोष के हिसाब से उनका नाम भी पड़ जाता है।
    समालोचन पर जानवरों के साथ साहचर्य की इतनी सुंदर कहानियां पढ़कर मजा आ गया। क्या खूब तरीके से कहा है। खासतौर पर बिल्लियों के अलग-अलग व्यक्तित्व को बाखूबी उभारा है। पता नहीं क्या होता है बिल्लियों में। कुत्तों की तरह वफादार भी नहीं होतीं। फिर इतना मोह लेती हैं, ऐसा लुभाती हैं कि इनसे दूर हो पाना ही मुश्किल हो जाता है। इनकी उपेक्षा नहीं हो पाती। जबकि, खुद वे जब चाहे प्यार जताती हैं, जब चाहें दूर हो जाती हैं।
    आंखें मिचमिचाते हुए हमारी दुनिया के कारोबार को तुच्छता से देखती हैं। अरुण खोपकर जी के गद्य में वन्यजीवों से उनका प्यार-लगाव और विशेषज्ञता दोनों ही दिखती है। बहुत अच्छा और दिल से लिखा है। आभार।

    Reply
  5. Anonymous says:
    2 months ago

    रोचक और पठनीय।
    लिखा ऐसे गया है कि जिज्ञासु पाठक पढ़ता चला जाए।
    मनुष्य और पशु का आदिकाल से सह जीवन रहा है। कुछ इन्हें अपना बनाकर रखते हैं , कुछ बेगानों की तरह रहते हैं।
    सांप्पा के बारे में सांस रोककर पढ़ा।
    बिल्लियां मेरी भी चहेती रही हैं। कुछ तो गुरूत्वीय आकर्षण रहता है बिल्लियों में ,ये उसे पसंद करने वाले ही समझ सकते हैं।

    Reply
    • Arpita says:
      2 months ago

      अपने आसपास बहुत से लोग जानवरों के साहचर्य में रह रहे हैं उनके प्रति सिर्फ ज़िम्मेदारी ही नहीं बल्कि दोस्ताना संबंध भी देखा।
      इसे पढ़ते हुए ‘ गुल्लू सतरंगी’ बाल उपन्यास की याद आ गई जिसके हर भाग की प्रतीक्षा बेटे के साथ मुझे भी होती थी। इस तरह के आख्यान पढ़कर पशुप्रेमी दोस्तो के प्रति लोग संवेदशील हो पाएंगे जो जानवरों से दूरी बनाकर रखते हैं।

      Reply
  6. Anup SETHI says:
    1 month ago

    अद्भुत। इस अति पठनीय लेख से प्राणि जगत का अनूठा संसार साकार होता है; मनुष्य के साथ उसके संबंध के आख्यान भी मन मोह लेते हैं। दुर्लभ है ऐसी दृष्टि। वाह!

    Reply
  7. M P Haridev says:
    1 month ago

    आलेख पढ़ा । जानवरों को पालना मेरी दिलचस्पी नहीं । लेकिन इनकी आदतों पर पति-पत्नी का सामंजस्य होना अद्भुत है ।

    Reply

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