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समालोचन

Home » द लीडर, बारदोली सत्याग्रह और सरदार पटेल : गोविन्द निषाद

द लीडर, बारदोली सत्याग्रह और सरदार पटेल : गोविन्द निषाद

जो स्थान महात्मा गांधी के जीवन में चंपारण का है, वही स्थान सरदार पटेल के जीवन में बारदोली का है. चंपारण ने गांधी को ‘महात्मा’ बनाया, और बारदोली ने पटेल को ‘सरदार’. ये दोनों जनआंदोलन अपने-अपने नेताओं के नेतृत्व के उद्गम-स्थल हैं. ‘द लीडर’ अख़बार की धारदार रिपोर्टिंग ने बारदोली आंदोलन और वल्लभभाई पटेल, दोनों को राष्ट्रीय पटल पर प्रतिष्ठित कर दिया तथा इस संघर्ष को एक नैतिक प्रश्न में रूपांतरित कर दिया. यदि यह देखना हो कि एक निर्मित हो रहे राष्ट्र में पत्रकारिता किस तरह उसकी नैतिक दिशा तय कर रही थी, तो उस समय के ‘द लीडर’ को अवश्य पढ़ना चाहिए. गोविन्द निषाद ने ‘द लीडर’ के तत्कालीन पन्नों में आकार लेते इस राष्ट्र के नैतिक आधार की गहन और दीर्घ पड़ताल की है. प्रस्तुत शोधपत्र बारदोली आंदोलन, सरदार पटेल और पत्रकारिता, इन तीनों के परस्पर संबंधों को उद्घाटित करता है और एक सुस्पष्ट समझ विकसित करता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
November 8, 2025
in शोध
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द लीडर, बारदोली सत्याग्रह और सरदार पटेल : गोविन्द निषाद
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द लीडर और बारदोली सत्याग्रह
पत्रकारिता, अहिंसा और सरदार पटेल के नैतिक-राष्ट्रीय आधार का निर्माण

गोविन्द निषाद

1928 की गर्मियों का भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के नैतिक और राजनीतिक इतिहास में एक विशेष स्थान है. उस वर्ष जुलाई और अगस्त के बीच, इलाहाबाद से एम.ओ. चिंतामणि के संपादन में प्रकाशित अख़बार “द लीडर” राष्ट्रीय विमर्श का एक प्रमुख मंच बन गया. इसी मंच के माध्यम से गुजरात के बारदोली सत्याग्रह को न केवल प्रस्तुत किया गया बल्कि उस पर गहन बहसें भी हुईं. इस अख़बार की रिपोर्टिंग ने एक स्थानीय कृषि विवाद को धीरे-धीरे एक ऐसे नैतिक आंदोलन में बदल दिया जिसने औपनिवेशिक शासन की अंतरात्मा को झकझोर दिया.

इस शोध का पद्धतिगत ढाँचा ऐतिहासिक विश्लेषण और पाठ-व्याख्या (Textual Hermeneutics) पर आधारित है. द लीडर के गद्य को इस शोध में एक सांस्कृतिक दस्तावेज़ के रूप में पढ़ा गया है—ऐसा गद्य जिसमें नैतिक विवेक, भाषाई संयम और तर्क की सूक्ष्मता एक साथ उपस्थित हैं. यही पत्रकारिता भारतीय आधुनिकता की वह अवस्था है, जहाँ नैतिक स्पष्टता स्वयं शक्ति का रूप ले लेती है.

अंततः यह अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि द लीडर और बारदोली सत्याग्रह का संबंध पत्रकारिता और राजनीति से आगे बढ़कर नैतिक नागरिकता के निर्माण का था. इस अखबार ने रिपोर्टिंग को चिंतन में और प्रतिरोध को तर्क में बदल दिया. इसने सिखाया कि स्वतंत्रता केवल विरोध नहीं, बल्कि अनुशासित विवेक का अभ्यास है.

बारदोली की विरासत आज भी उतनी ही जीवंत है. जब समकालीन समाज उत्तेजना और विभाजन में उलझा है, तब “द लीडर” की यह शांति और तर्क की परंपरा हमें स्मरण कराती है कि सत्य को न हिंसा की ज़रूरत है, न ऊँची आवाज़ की. उसकी शक्ति उसकी शालीनता में है.

बारदोली सत्याग्रह इस प्रकार केवल भारत के इतिहास का अध्याय नहीं, बल्कि नैतिकता और राजनीति के बीच एक सतत संवाद है. इस संवाद में “द लीडर” केवल इतिहास का साक्षी नहीं, बल्कि उसका नैतिक सहभागी है—ऐसा सहभागी जिसने भारत को यह सिखाया कि सत्य जब करुणा के साथ बोला जाता है, तो वह सत्ता से भी अधिक स्थायी बन जाता है.

“द लीडर” की सतत रिपोर्टिंग और संपादकीय टिप्पणियों ने एक ऐसा नैतिक आख्यान तैयार किया जिसमें सरदार वल्लभभाई पटेल केवल एक प्रांतीय नेता के रूप में नहीं, बल्कि अहिंसक नागरिकता के आदर्श रूप में उभरे. अपने लेखन के माध्यम से इस अखबार ने बारदोली के संघर्ष को बॉम्बे प्रेसीडेंसी की सीमाओं से बाहर निकालकर पूरे देश में गूँजा दिया. इसने शासन और जनता, दोनों के लिए न्याय और नैतिकता की कसौटी तैयार की.

1909 में स्थापित द लीडर 1920 के दशक के अंत तक भारतीय प्रेस में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुका था. यह उदार राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित था, जिसमें संवैधानिक सुधार और नैतिक चेतना दोनों का संतुलन था. इसके पाठक इलाहाबाद से लेकर कलकत्ता, बंबई और लाहौर तक फैले हुए थे. बारदोली सत्याग्रह के समय यह अख़बार किसानों के हितों के प्रति सहानुभूति रखता था, परन्तु उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी—घटनाओं को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक शब्दावली में व्याख्यायित करना.

हर संवाददाता की रिपोर्ट और इलाहाबाद से प्रकाशित हर संपादकीय इस प्रश्न की ओर संकेत करता था कि क्या कोई साम्राज्य न्याय के बिना टिक सकता है, और क्या प्रतिरोध घृणा के बिना शुद्ध रह सकता है? यही वह नैतिक ढाँचा था जिसमें “द लीडर” की ऐतिहासिक भूमिका निहित थी.

बारदोली सत्याग्रह युद्धोत्तर भारत की आर्थिक मंदी और मानसिक थकान की उपज था. सूरत जिले के उपजाऊ क्षेत्र में बंबई सरकार ने 1927–28 के दौरान भूमि राजस्व में 22 प्रतिशत की वृद्धि का आदेश दिया, जिससे किसान आंदोलित हो उठे. किसानों का तर्क था कि यह आकलन पुराने समृद्ध वर्षों के आँकड़ों पर आधारित है और हाल के वर्षों में गिरती उत्पादकता व कीमतों को नज़रअंदाज़ करता है. सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के सदस्यों—खुर्शीद, वाज़े और ठक्कर—की जाँच ने भी सरकार के आकलन में त्रुटियाँ उजागर कीं. (द लीडर, 5 जुलाई 1928, पृ. 1) फिर भी, प्रशासन ने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए संशोधन से इनकार कर दिया. जब संवैधानिक अपीलें असफल रहीं, तो सरदार पटेल के नेतृत्व में किसानों ने राजस्व न देने का संकल्प लिया. यह संघर्ष आर्थिक होते हुए भी अपने मूल में नैतिक संघर्ष था—यह विद्रोह नहीं, बल्कि सुधार की मांग थी.

नैतिक परिदृश्य और अहिंसक सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण

1928 की जुलाई में “द लीडर” अख़बार के पृष्ठों पर बारदोली का संघर्ष केवल एक राजनीतिक या आर्थिक घटना के रूप में नहीं, बल्कि भारत के नैतिक पुनर्जागरण के रूप में दर्ज हो रहा था. इस संघर्ष की रिपोर्टिंग और संपादकीय लेखन ने भारतीय जनजीवन में एक नए सार्वजनिक क्षेत्र की रचना की — एक ऐसा क्षेत्र जिसमें राजनीति और नैतिकता, अधिकार और विवेक, और अहिंसा और पत्रकारिता का गहरा संगम हुआ. पहली बार, राष्ट्रीय प्रेस ने स्वयं को एक ऐसे मंच के रूप में स्थापित किया जहाँ न्याय और सत्ता की वैधता पर सार्वजनिक चर्चा हुई. “द लीडर” इस परिवर्तन का सबसे सशक्त माध्यम बना, जिसने तर्क, करुणा और संवैधानिक संयम को जोड़कर नैतिक पत्रकारिता की एक नई परंपरा गढ़ी.

बारदोली सत्याग्रह इस दृष्टि से केवल किसानों का राजस्व आंदोलन नहीं था; यह भारत के सार्वजनिक जीवन के नैतिक आत्मचिंतन का प्रतीक था. सत्याग्रह के दौरान अखबार ने जिस भाषा और लहजे का प्रयोग किया, वह अहिंसा के सैद्धांतिक और बौद्धिक विस्तार का माध्यम बन गया. जब किसी प्रशासनिक कार्रवाई या ज़ब्ती की सूचना दी जाती, तो वह सूचना मात्र नहीं रह जाती — “द लीडर” की कलम उसे नैतिक प्रतीक में बदल देती. 6 जुलाई 1928 के अंक में संपादक ने लिखा-

“हर ज़ब्ती केवल भूमि का हरण नहीं, बल्कि शासन की अंतरात्मा से दूरी का प्रतीक है.”
(द लीडर, 6 जुलाई 1928, पृ. 4)

ऐसी पंक्तियाँ केवल वर्णन नहीं करतीं, बल्कि नैतिक विवेक को जगाने का कार्य करती हैं. अखबार की यह भाषा दंड और शक्ति की तर्कप्रणाली को निष्प्रभावी बना देती थी, क्योंकि वह सत्ता के निर्णयों को नैतिक दृष्टि से पुनःव्याख्यायित करती थी. इस प्रकार किसानों के धैर्य और अनुशासन को अखबार ने “आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन” कहा — एक ऐसी शक्ति जिसे न कोई पुलिस तोड़ सकती थी, न कोई ज़ब्ती मटियामेट कर सकती थी. (द लीडर, 6 जुलाई 1928)

“द लीडर” का नैतिक दृष्टिकोण उस गहरे बौद्धिक विश्वास से प्रेरित था कि सत्य की अपनी प्रेरक ऊर्जा होती है. अखबार के लेखकों ने जानबूझकर उस समय के अधिकांश राष्ट्रवादी प्रेस की आक्रामक शब्दावली से परहेज किया. उनकी भाषा में संयम और न्यायिक संतुलन था, क्योंकि वे मानते थे कि नैतिक बल की उत्पत्ति केवल आत्म-संयम से होती है, उत्तेजना से नहीं. इस संयमित गद्य के पीछे इलाहाबाद का वह बौद्धिक वातावरण था, जो उदार मानवतावाद और विवेक की परंपरा से गहराई से जुड़ा था. चिंतामणि और उनके साथियों ने इस दृष्टि को मूर्त रूप दिया — वे मानते थे कि प्रेस को न्याय का उपकरण बनना चाहिए, उकसावे का नहीं.

इस कारण जुलाई के पहले पखवाड़े की रिपोर्टें असाधारण संतुलन और गहराई से भरी हुई हैं. अखबार ने प्रशासनिक घटनाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया — ज़मीन की ज़ब्ती, मवेशियों की नीलामी, किसानों की शांत प्रतिरोध की घटनाएँ — परन्तु साथ ही इन घटनाओं के पीछे छिपे नैतिक अर्थों को भी उद्घाटित किया. “द लीडर” ने बार-बार कहा कि शक्ति का असली स्वरूप जबरदस्ती में नहीं, बल्कि आत्मनियंत्रण में है. इस प्रकार अखबार के संपादकीय बारदोली के गाँवों में व्याप्त मौन अनुशासन के शब्दात्मक समकक्ष बन गए.

पत्रकारिता के इस रूप ने भारत में सार्वजनिक विमर्श के नैतिक आयाम को एक नई ऊँचाई दी. अखबार ने अपनी रिपोर्टिंग में यह दिखाया कि अहिंसा केवल एक राजनीतिक रणनीति नहीं, बल्कि एक बौद्धिक पद्धति भी है—एक ऐसी पद्धति जो विरोध को तर्क में, और तर्क को नैतिक आस्था में बदल देती है. इसीलिए “द लीडर” की रिपोर्टिंग को देखा जा सकता है जैसे यह किसी अदालत में चल रही नैतिक सुनवाई हो, जहाँ सबूत भी दिए जाते हैं और विवेक भी परखा जाता है.

यहाँ एक गहरी विडंबना भी थी— अखबार का गैर-पक्षपातपूर्ण रहना ही उसकी सबसे बड़ी नैतिक पक्षधरता बन गया. उसने न तो क्रांतिकारी उग्रता अपनाई, न ही सरकारी प्रचार का लहजा; बल्कि उसने गांधीवादी अहिंसा को तार्किक वैधता प्रदान की. यह दृष्टि बारदोली आंदोलन को केवल राष्ट्रवादी भावनाओं के दायरे से निकालकर एक सामाजिक नैतिक प्रयोगशाला में बदल देती है, जहाँ हर किसान का धैर्य एक सिद्धांत बन जाता है.

7 जुलाई 1928 के संपादकीय में सरदार पटेल को “बुद्धिमान, निडर और पितृतुल्य” कहा गया — तीन ऐसे विशेषण, जो आगे चलकर उनके पूरे राजनीतिक व्यक्तित्व की पहचान बन गए. (द लीडर, 7 जुलाई 1928) अखबार ने लिखा कि पटेल का नेतृत्व यह सिद्ध करता है कि अनुशासन और करुणा साथ-साथ चल सकते हैं. किसान उनके आदेशों का पालन भयवश नहीं, बल्कि विश्वासवश करते थे. गाँवों में उनके व्यवहार का वर्णन करते हुए रिपोर्टर ने लिखा कि पटेल “सेनापति नहीं, एक नैतिक शिक्षक” हैं. यह वही भावचित्र है जिसने आगे चलकर उनके “लौह पुरुष” की छवि को जन्म दिया—एक ऐसा व्यक्ति जो दृढ़ है, परंतु भीतर से गहराई तक मानवीय भी.

इस तरह “द लीडर” के पन्नों में पटेल की छवि एक राजनीतिक नेता से आगे बढ़कर एक नैतिक आयोजक के रूप में उभरती है. अखबार बार-बार इस बात पर बल देता है कि उनका नेतृत्व गांधी से अलग होते हुए भी उसी नैतिक परंपरा का विस्तार है. गांधी ने जहाँ राजनीति को आत्मा दी, वहीं पटेल ने नैतिकता को संगठनात्मक रूप दिया.

इस समय देश का राजनीतिक वातावरण भी इस नैतिक पत्रकारिता के लिए तैयार था. मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के बाद की द्विशासन व्यवस्था ने भारतीय मंत्रियों को अधिकारहीन बना दिया था. शासन की इस प्रशासनिक विफलता ने जनता में नैतिक विमर्श की भूख जगा दी थी. जब बारदोली का संघर्ष शुरू हुआ, तो “द लीडर” ने इसे केवल किसानों का सवाल नहीं माना, बल्कि भारतीय राजनीति के विवेक के पुनर्जागरण के रूप में देखा. 11 जुलाई 1928 की रिपोर्ट में, जिसमें राष्ट्रवादी पार्टी द्वारा मंत्रियों के इस्तीफे की माँग की गई थी, संवाददाता ने लिखा —

“मुद्दा प्रशासनिक सुविधा का नहीं, बल्कि विवेक का है. जो पद पर हैं, उन्हें यह पूछना चाहिए कि क्या वे उसका नैतिक भार उठा सकते हैं.”
(द लीडर, 11 जुलाई 1928)

यह वाक्य दर्शाता है कि “द लीडर” के लिए बारदोली का आंदोलन केवल कराधान या शासन का प्रश्न नहीं, बल्कि मानवीय अंतरात्मा का परीक्षणथा. यही परीक्षण धीरे-धीरे भारत की आधुनिक राजनीतिक भाषा का हिस्सा बन गया.

अखबार ने इस नैतिक विमर्श के सामाजिक प्रभाव को भी गहराई से दर्ज किया. “बॉम्बे लेटर” में लगातार यह बताया गया कि शहरी भारत — व्यापारी, विद्यार्थी, शिक्षक और पेशेवर वर्ग — इस आंदोलन के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने लगे हैं. बंबई, पूना और अहमदाबाद की सभाओं, छात्रों के चंदों और व्यापारिक प्रस्तावों का वर्णन करते हुए अखबार ने लिखा,

“बारदोली ने भारत को आत्म-सम्मान की वह भाषा सिखाई है, जो अधिकार से नहीं, विवेक से उत्पन्न होती है.”
(द लीडर, 8 जुलाई 1928)

इस प्रकार, “द लीडर” ने पत्रकारिता को नैतिक नागरिकता के निर्माण का माध्यम बना दिया. उसका गद्य केवल सूचना नहीं देता था; वह पाठकों को प्रशिक्षित करता था कि राजनीति को नैतिकता की दृष्टि से कैसे देखा जाए.

और यही कारण है कि “द लीडर” की पत्रकारिता 1928 के बारदोली सत्याग्रह के साथ-साथ भारतीय समाज के नैतिक रूपांतरण का भी दस्तावेज़ बन गई. इसने अहिंसा को केवल एक साधन नहीं, बल्कि एक बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया — जहाँ प्रतिरोध घृणा नहीं, बल्कि विवेक की परिपक्वता से जन्म लेता है.

इस प्रकार, “द लीडर” के पन्नों में जुलाई 1928 तक फैली बारदोली की कथा एक स्थानीय संघर्ष से आगे बढ़कर भारत के नैतिक सार्वजनिक क्षेत्र की नींव बन गई. इस अखबार ने यह दिखा दिया कि मुद्रित शब्द भी एक प्रकार का सत्याग्रह बन सकता है — ऐसा सत्याग्रह जो हिंसा से नहीं, बल्कि विचार की शुचिता से परिवर्तन लाता है.

 

बारडोली सत्याग्रह में सरदार पटेल और महात्मा गांधी. सौजन्य – wikipedia

घटनाओं का कालक्रम: जुलाई–अगस्त 1928

बारदोली सत्याग्रह का इतिहास, जैसा कि “द लीडर” के जुलाई और अगस्त 1928 के अंकों में क्रमशः सामने आता है, किसी राजनीतिक घटनाक्रम से अधिक एक नैतिक महाकाव्य जैसा प्रतीत होता है. इन अंकों की रिपोर्टें, संपादकीय टिप्पणियाँ और संवादात्मक पत्राचार न केवल एक आंदोलन की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं, बल्कि उस समय भारत में उभरती हुई नागरिक चेतना की क्रमिक यात्रा को भी दर्शाते हैं. हर दिन प्रकाशित होने वाले लेखों ने सत्ता और न्याय के बीच बदलते संतुलन को दर्ज किया और यह दिखाया कि किस प्रकार एक साधारण राजस्व विवाद धीरे-धीरे राष्ट्रीय नैतिकता के नाटक में परिवर्तित हो गया.

सत्याग्रह की पहली स्पष्ट झलक 5 जुलाई 1928 के अंक में दिखाई देती है. “द लीडर” ने उस दिन बॉम्बे से प्राप्त एक विस्तृत पत्राचार “बारदोली संघर्ष: संशोधित मूल्यांकन की जाँच की माँग” शीर्षक से प्रकाशित किया. इसमें बताया गया है कि बारदोली क्षेत्र में भूमि के किराए और करों के पुनर्मूल्यांकन को लेकर किसानों में असंतोष था. उनका कहना था कि सरकार ने जो नया आकलन किया है, उसमें ज़मीन के मूल्य और उपज का गलत अनुमान लगाया गया है, जिससे किसानों पर अत्यधिक बोझ पड़ा है.

“सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी” की ओर से भेजे गए प्रतिनिधिमंडल ने, जिसमें एस.सी. वाजे और ए.वी. ठक्कर जैसे प्रमुख सदस्य शामिल थे, बारदोली के कई गांवों और तालुकों का दौरा किया. उन्होंने अपनी जांच में पाया कि सरकारी अफसरों ने जिन गांवों में जाकर रिपोर्ट तैयार की थी, वहां वास्तव में सही ढंग से जानकारी नहीं ली गई थी. बहुत-सी जगहों पर तो किसानों से पूछताछ भी नहीं की गई थी.

प्रतिनिधियों ने कहा कि सरकार ने 1918 से 1924 के बीच के “समृद्धि काल” को आधार बनाकर नया किराया तय किया, लेकिन यह काल अस्थायी था और खेती की वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाता था. ज़मीन की उत्पादकता और कीमत का गलत आकलन किया गया था, जिससे किसानों की हालत और खराब हो गई. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि खेती योग्य भूमि का केवल एक छोटा हिस्सा ही वास्तव में उपजाऊ है, और किसानों की आय सीमित है. फिर भी सरकार ने ऊंचे किराए लागू कर दिए. इससे किसानों की स्थिति किराएदारों जैसी हो गई, जबकि भूमि पर उनका पारंपरिक अधिकार था.

समाचार के अंत में कहा गया कि इस नए मूल्यांकन के खिलाफ किसानों की मांग न्यायोचित है. प्रतिनिधियों ने सरकार से अपील की कि वह अपने फैसले पर पुनर्विचार करे और निष्पक्ष जांच कराए. “विरामगांव तालुका” का उदाहरण देते हुए बताया गया कि वहां की पुनर्समीक्षा से किसानों की दलीलें सही साबित हुई थीं. अंत में यह टिप्पणी की गई कि बारदोली आंदोलन ब्रिटिश शासन के इतिहास में एक अनोखा उदाहरण है, क्योंकि पहली बार ग्रामीण किसानों ने संगठित होकर शांतिपूर्ण और नैतिक ढंग से अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई. एक वाक्य में संवाददाता ने कहा कि “सर्वेक्षण अधिकारी बिना ठहराव के गाँवों से गुज़र गए,” और यह वाक्य ही आगे चलकर औपनिवेशिक उदासीनता का प्रतीक बन गया. (द लीडर, 5 जुलाई 1928, पृ. 1)

अखबार का स्वर उस समय उग्र नहीं, बल्कि विवेचनात्मक था. उसने किसानों की शिकायत को विद्रोह नहीं, बल्कि प्रशासनिक न्याय के मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया. संपादकीय टिप्पणी में लिखा गया कि किसान “कानून का पालन करने वाले लोग हैं, जो केवल यही चाहते हैं कि कानून सही और न्यायसंगत तरीके से लागू हो.” इस भाषा में तत्कालिकता का संयमित तनाव था—एक ऐसी स्थिति जहाँ आंदोलन अभी भी संवैधानिक रास्ते पर था, किंतु नैतिक असंतोष भीतर ही भीतर आकार ले रहा था.

उसी दिन प्रकाशित “बॉम्बे लेटर” ने शहर की प्रतिक्रिया को दर्ज किया. संवाददाता ने लिखा कि बारदोली ने “जनता की कल्पना को उसी तरह स्पर्श किया है, जैसे गांधीजी के असहयोग आंदोलन ने किया था.” इस तुलना ने आंदोलन को अहिंसक परंपरा से जोड़ दिया और पाठकों के लिए उसकी नैतिक शब्दावली परिचित बना दी. किसानों का कर न देना विद्रोह नहीं, बल्कि “विश्वास की पवित्र प्रतिज्ञा” बताया गया, और सरदार पटेल के नेतृत्व को अनुशासित, संयत और द्वेषरहित कहा गया. (द लीडर, 5 जुलाई 1928, पृ. 2) इस दिन की रिपोर्टों ने उस आख्यान-ढाँचे की नींव रख दी, जिसका अखबार ने अगले छह सप्ताह तक निरंतर पालन किया—तथ्यात्मक सटीकता के भीतर नैतिक टिप्पणी का अंतःप्रवाह.

अगले ही दिन, 6 जुलाई 1928, स्थिति अधिक गंभीर हो चुकी थी. “द लीडर” ने अपने मुखपृष्ठ पर प्रमुख लेख प्रकाशित किया—“बारदोली स्थिति”—जिसमें सरदार पटेल द्वारा किसानों को दिए गए भाषण को लगभग पूर्ण रूप में छापा गया. पटेल ने स्पष्ट किया कि उनका संघर्ष “सत्ता से नहीं, अन्याय से है.” उन्होंने किसानों को संयम और अनुशासन बनाए रखने की सलाह दी और कहा कि “क्रोध का एक भी कार्य हमारे उद्देश्य की पवित्रता को नष्ट कर देगा.” वल्लभभाई पटेल ने अपने भाषण की शुरुआत इस कथन से की कि बारदोली का संघर्ष एक स्थानीय विवाद नहीं, बल्कि एक सिद्धांत का प्रश्न है. उन्होंने कहा-

“सरकार यह समझती है कि यह आंदोलन उसके अधिकार और प्रतिष्ठा के लिए चुनौती है. किंतु मैं कहता हूँ कि यह चुनौती नहीं, बल्कि न्याय और सम्मान की माँग है. यदि सरकार की प्रतिष्ठा अन्याय के संरक्षण पर टिकी है, तो ऐसी प्रतिष्ठा पर हमें गर्व नहीं हो सकता. हमारा उद्देश्य केवल अपने सम्मान और सत्य की रक्षा करना है, न कि किसी की सत्ता को चुनौती देना.”

उन्होंने आगे कहा कि यह संघर्ष किसानों के आर्थिक अस्तित्व और उनके नैतिक अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा है. ब्रिटिश राज की राजस्व नीति अन्यायपूर्ण है, क्योंकि यह कृषि उत्पादकता, वर्षा, बाजार मूल्य या किसान की वास्तविक स्थिति का ध्यान रखे बिना कर निर्धारित करती है. उन्होंने कहा-

“राजस्व अधिकारियों ने जो नए मूल्यांकन किए हैं, वे न केवल असंगत हैं, बल्कि जनजीवन के साथ अन्याय करते हैं. यह नीति किसानों को निर्धन बनाती है और सरकार को नैतिक रूप से दिवालिया.”

पटेल ने कहा कि सरकार किसानों के प्रतिनिधियों के साथ संवाद करने के बजाय दमनकारी उपायों का सहारा ले रही है. उनके शब्द थे-

“जब जनता न्याय की मांग करती है, तब सरकार उसे विद्रोही कहती है. यह स्थिति औपनिवेशिक शासन की दुर्बलता को दर्शाती है. हम हिंसा नहीं चाहते; हम केवल यह चाहते हैं कि हमारी बात सुनी जाए और भूमि का मूल्यांकन निष्पक्ष रूप से हो.”

उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि यदि सरकार ने अपनी नीति पर पुनर्विचार नहीं किया, तो संघर्ष की ज्वाला और व्यापक हो जाएगी. मैं सरकार को यह सावधानीपूर्वक चेतावनी देता हूँ कि वह इस आंदोलन की आत्मा को समझे. यदि उसे लगता है कि बारदोली केवल एक छोटा-सा क्षेत्र है, तो यह उसकी भूल है. यहाँ जो बीज बोया गया है, वह समूचे भारत के किसानों के हृदय में अंकुरित होगा.”

पटेल ने किसानों से कहा कि वे संयम बनाए रखें, क्योंकि यह आंदोलन सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित है. उन्होंने कहा-

“सरकार हमारी भूमि, पशु और अनाज छीन सकती है, लेकिन वह हमारे आत्मबल को नहीं छीन सकती. यदि हमारी सम्पत्ति जब्त हो, तो भी हमें इसे बलिदान समझना चाहिए, न कि हार.” उन्होंने यह भी कहा कि ब्रिटिश प्रशासन अपनी “प्रतिष्ठा” बचाने की कोशिश कर रहा है, जबकि आंदोलन का उद्देश्य “सम्मान” की रक्षा है. “प्रतिष्ठा और सम्मान में अंतर है. प्रतिष्ठा बाहरी है — दूसरों की दृष्टि पर निर्भर; सम्मान आंतरिक है — अपने आत्म-सत्य पर आधारित. यदि सरकार अपनी प्रतिष्ठा बचाना चाहती है, तो हम अपना सम्मान नहीं छोड़ सकते. इतिहास निर्णय करेगा कि कौन विजेता रहा — शक्ति या सत्य.”

पटेल ने यह भी स्पष्ट किया कि शांति वार्ताओं का उद्देश्य तभी सार्थक हो सकता है जब वे न्याय पर आधारित हों. उन्होंने कहा-

“हम शांति चाहते हैं, परंतु अन्यायपूर्ण शांति नहीं. सरकार को यह समझना चाहिए कि समझौता केवल तभी सम्भव है जब वह समानता और सम्मान पर आधारित हो. यदि शांति का अर्थ है कि किसान अपनी बात छोड़ दें और अन्याय को स्वीकार करें, तो ऐसी शांति गुलामी से भी बदतर है.”

अपने भाषण के उत्तरार्ध में उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा-

“यदि मैं गिरफ़्तार किया जाऊँ, तो शोक मत करना. प्रसन्न होना, क्योंकि इसका अर्थ होगा कि हमारी सत्य की शक्ति सरकार के लिए असहनीय हो चुकी है. मेरी गिरफ्तारी हमारी पराजय नहीं, हमारी विजय का आरंभ होगी.”

उन्होंने गांधीजी के विचारों का उल्लेख करते हुए कहा कि यह आंदोलन कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि न्याय की पुनर्स्थापना का प्रयास है.

“हम किसी से द्वेष नहीं रखते. न अफसरों से, न सैनिकों से. वे भी अपने आदेशों के बंधन में हैं. हम व्यक्ति से नहीं, व्यवस्था से लड़ रहे हैं — उस अन्यायपूर्ण व्यवस्था से जो हमें मनुष्य से प्रजा और नागरिक से दास बना देती है.”

पटेल ने किसानों से आग्रह किया कि वे भय और उत्तेजना से दूर रहें.

“हमारे हथियार सत्य, धैर्य और अनुशासन हैं. यदि हमने इन्हें खो दिया, तो सारी विजय व्यर्थ हो जाएगी. याद रखिए, हिंसा हमें कमजोर बनाती है, जबकि सहनशीलता हमें अजेय.”

अंत में उन्होंने कहा कि बारदोली का संघर्ष किसी वर्ग या क्षेत्र का नहीं, बल्कि समूचे भारत के जागरण का प्रतीक है. “बारदोली बोल रहा है, और उसकी आवाज़ भारत के हर खेत, हर मजदूर, हर किसान तक पहुँचेगी. यह केवल भूमि का नहीं, आत्मा का प्रश्न है. यदि हम इसे जीतते हैं, तो भारत अपने नैतिक पुनर्जन्म की ओर बढ़ेगा.”

भाषण के समापन पर उन्होंने गंभीर स्वर में कहा-

“मैं जानता हूँ कि यह मार्ग कठिन है. हमें कष्ट सहना होगा. लेकिन याद रखिए, इतिहास में कभी भी अन्याय स्थायी नहीं रहा. यदि हमारे सत्य में विश्वास है, तो विजय निश्चित है. और यदि मुझे गिरफ्तार किया जाता है — तो आनंद मनाना, क्योंकि तब यह स्पष्ट होगा कि सरकार हमारी आत्मा से भयभीत हो चुकी है.”

इसके साथ प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी में लिखा गया कि बारदोली का प्रश्न अब अर्थशास्त्र से ऊपर उठकर नैतिकता का प्रश्नबन गया है—“यह साम्राज्य की अंतरात्मा की परीक्षा है.” (द लीडर, 6 जुलाई 1928, पृ. 3–4)

 

7 जुलाई 1928 का अंक इस नैतिक विमर्श को और आगे ले गया. मुखपृष्ठ पर संपादकीय शीर्षक था—“बारदोली.” अब रिपोर्टिंग मात्र सूचना नहीं रही; वह चिंतन बन चुकी थी. अखबार ने किसानों के अनुशासन को “आत्म-संयम का जन-विश्वविद्यालय” कहा. लेख में बताया गया कि बारदोली के गाँवों में झगड़े समाप्त हो गए थे, शराब की दुकानें बंद थीं, और पुरुष–महिलाएँ प्रार्थना में एक साथ भाग ले रहे थे. संपादक ने लिखा—“बारदोली की झोपड़ियों के मौन में, एक नया भारत स्वयं पर शासन करना सीख रहा है.” (द लीडर, 7 जुलाई 1928, पृ. 1) इस प्रकार पत्रकारिता, अवलोकन से आगे बढ़कर, राष्ट्र की नैतिक कल्पना की आवाज़ बन गई.

उसी दिन एक अन्य रिपोर्ट में बंबई विधान परिषद के सदस्य लालजी नारायणजी के इस्तीफ़े का समाचार प्रकाशित हुआ. “द लीडर” ने इसे “एक नैतिक कृत्य” बताया और लिखा कि यह इस्तीफ़ा यह सिद्ध करता है कि सरकार के भीतर भी विवेक की चेतना जाग रही है. इसी अंक में यह भी उल्लेख था कि इंडियन मर्चेंट्स चैंबर जैसे व्यापारिक संगठन किसानों की पीड़ा के प्रति सहानुभूति जताने लगे हैं और सरकार की नीति की आलोचना कर रहे हैं. (द लीडर, 6 जुलाई 1928, पृ. 5)

 

8 जुलाई 1928 का अंक आंदोलन के बढ़ते प्रभाव का दस्तावेज़ है. एक ओर संपादकीय ने लिखा कि “बारदोली अब वह दर्पण है, जिसमें साम्राज्य अपनी अंतरात्मा देख सकता है,” वहीं दूसरी ओर “बॉम्बे लेटर” में बताया गया कि विधायी हलकों, व्यापारिक घरानों और श्रमिक संघों में बारदोली की चर्चा केंद्र बन चुकी है. यहाँ तक कि कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने भी निजी रूप से स्वीकार किया कि “दबाव की नीति विफल हो चुकी है.” (द लीडर, 8 जुलाई 1928, पृ. 2–3) अखबार ने तथ्यों को बिना अतिशयोक्ति के प्रस्तुत करते हुए पाठकों को स्वयं निर्णय लेने दिया—यही उसकी नैतिक पत्रकारिता का आधार था.

9 जुलाई 1928 वह दिन था जब आंदोलन ने प्रांतीय सीमाओं को पार कर राष्ट्रीय चेतना में प्रवेश किया. “द लीडर” ने अपने मुखपृष्ठ पर ऐतिहासिक शीर्षक प्रकाशित किया—“बारदोली संघर्ष—पंडित मोतीलाल नेहरू, सर तेज बहादुर सप्रू, सर अली इमाम और श्री चिंतामणि द्वारा स्वतंत्र जाँच की माँग.” चारों नेताओं के शब्दशः बयान प्रकाशित किए गए. मैं यहाँ चारों नेताओं के बयान शब्दशः देना चाहूँगा-

पंडित मोतीलाल नेहरू ने कहा —

“बारदोली का संघर्ष, जैसा कि अब यह देश के सामने है, भारतीय जनमानस की न्याय भावना और प्रशासन की औपनिवेशिक असंवेदनशीलता के बीच एक नैतिक परीक्षा बन चुका है. जिस प्रकार सरकार ने किसानों की आपत्तियों की उपेक्षा की है, वह शासन की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाता है. किसानों की माँगें पूरी तरह तार्किक हैं; वे केवल यही चाहते हैं कि भूमि कर का पुनर्मूल्यांकन निष्पक्ष रूप से किया जाए. ब्रिटिश सरकार का यह कर्तव्य है कि वह इस विषय में स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच कराए. प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा किया गया मूल्यांकन स्पष्टतः त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है और यदि इन त्रुटियों को ठीक करने की इच्छा नहीं दिखाई जाती, तो यह दुर्भावनापूर्ण अन्याय की श्रेणी में आएगा. बारदोली का यह संघर्ष, गांधीजी के नेतृत्व में, पूर्णतः अहिंसक रहा है और इसने भारत की जनता के आत्म-संयम और संगठन का एक दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किया है. सरकार को इस अवसर का उपयोग एक नैतिक अवसर के रूप में करना चाहिए — न कि अपनी शक्ति के प्रदर्शन के रूप में. जब तक एक स्वतंत्र जांच नहीं की जाती, तब तक कोई भी समाधान न्यायसंगत नहीं माना जा सकता. मैं बारदोली के किसानों की इस माँग का पूर्ण समर्थन करता हूँ और सरकार से यह अपेक्षा रखता हूँ कि वह जनता की भावनाओं को समझने का विवेक दिखाए.”

सर तेज बहादुर सप्रू का वक्तव्य

“बारदोली की स्थिति ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि जब शासन जनता की वास्तविक परिस्थितियों से कट जाता है, तब प्रशासनिक निर्णय अन्यायपूर्ण हो जाते हैं. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि बारदोली के किसानों द्वारा उठाए गए प्रश्न तथ्यात्मक और उचित हैं. राजस्व मूल्यांकन में की गई वृद्धि न केवल असंगत है, बल्कि यह ब्रिटिश शासन के उस नैतिक दावे के प्रतिकूल है जिसके अनुसार वह ‘न्यायपूर्ण प्रशासन’ का प्रतीक माना जाता है. यह आवश्यक है कि सरकार तुरंत एक स्वतंत्र जांच आयोग नियुक्त करे जो इस बात की जाँच करे कि राजस्व अधिकारियों ने किन आधारों पर यह आकलन किया और क्या वे आधार वस्तुनिष्ठ और न्यायपूर्ण थे. यदि यह सिद्ध हो जाता है कि करों में वृद्धि अनुचित थी, तो सरकार को इसे तत्काल वापस लेना चाहिए. प्रशासन की प्रतिष्ठा बल प्रयोग में नहीं, बल्कि न्याय और सत्य के पालन में निहित है.”

सर अली इमाम का वक्तव्य

“बारदोली के सत्याग्रह ने समस्त भारत के सामने यह प्रश्न रख दिया है कि क्या ब्रिटिश शासन अब भी न्याय और समानता के अपने आदर्शों के प्रति ईमानदार है. मैं इस बात में कोई संदेह नहीं मानता कि वहाँ की जनता के साथ गंभीर अन्याय हुआ है. राजस्व अधिकारियों ने किसानों की स्थिति का वास्तविक आकलन किए बिना ही निर्णय कर दिया. ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने किसानों की शिकायतों को गंभीरता से सुना ही नहीं. यह आवश्यक है कि तत्काल एक स्वतंत्र जाँच आयोग नियुक्त किया जाए, जिसमें सरकार और जनता दोनों के प्रतिनिधि सम्मिलित हों. यह आयोग पूरी पारदर्शिता से कार्य करे और अपनी रिपोर्ट जनता के समक्ष रखे. इस प्रकार की निष्पक्ष जाँच के अभाव में सरकार की नीतियों पर जनता का विश्वास समाप्त हो जाएगा. मैं इस आंदोलन के नैतिक स्वरूप का सम्मान करता हूँ और सरकार से न्यायपूर्ण समाधान की अपील करता हूँ.”

एम. ओ. चिंतामणि का वक्तव्य

“बारदोली का प्रश्न प्रशासनिक से अधिक नैतिक प्रश्न बन चुका है. सरकार के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वह अपनी नीति पर पुनर्विचार करे. सत्याग्रहियों ने जिस प्रकार संयम, अनुशासन और शांति का पालन किया है, वह प्रशंसनीय है. उन्होंने किसी प्रकार की हिंसा नहीं की, न ही प्रशासनिक अधिकारियों के प्रति कोई दुर्भावना प्रकट की. परंतु यह कहना कि राजस्व अधिकारियों का निर्णय अंतिम और अचूक है, शासन के दंभ को दर्शाता है. ब्रिटिश प्रशासन यदि वास्तव में न्यायप्रिय है, तो उसे इस मामले की स्वतंत्र जाँच करानी चाहिए. मैं सरकार को यह सुझाव देता हूँ कि वह एक निष्पक्ष समिति नियुक्त करे, जिसमें गैर-सरकारी व्यक्तियों को भी शामिल किया जाए, ताकि जांच का परिणाम जनता के लिए विश्वसनीय हो. प्रशासन की प्रतिष्ठा केवल शक्ति में नहीं, बल्कि जनता के विश्वास में निहित होती है. यदि सरकार ने समय रहते इस प्रश्न का समाधान नहीं किया, तो यह जन-विश्वास की स्थायी क्षति का कारण बनेगा.”

लेख के अंत में द लीडर  ने यह टिप्पणी दी —

“बारदोली की स्थिति अब केवल गुजरात या बॉम्बे प्रेसीडेंसी का प्रश्न नहीं रही. यह भारत के जन-जीवन में न्याय, प्रशासनिक नैतिकता और शासन की उत्तरदायित्व भावना की परीक्षा है. पंडित मोतीलाल नेहरू, सर तेज बहादुर सप्रू, सर अली इमाम और एम. ओ. चिंतामणि जैसे नेताओं का यह सामूहिक वक्तव्य इस बात का प्रतीक है कि भारत का सार्वजनिक जीवन अभी भी नैतिक विवेक से संचालित है. सरकार यदि इस चेतावनी को नहीं समझेगी, तो यह उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल होगी.” (द लीडर, 9 जुलाई 1928, पृ. 1–2)

जुलाई के मध्य तक आंदोलन का नैतिक तनाव चरम पर पहुँच गया था. 11 जुलाई 1928 के अंक में “बारदोली मामला—मंत्रियों से इस्तीफ़े की माँग” शीर्षक से रिपोर्ट छपी, जिसमें बंबई की राष्ट्रवादी पार्टी ने प्रस्ताव पारित किया कि यदि भारतीय मंत्री स्वतंत्र जाँच का आदेश दिलाने में असमर्थ हैं, तो उन्हें अपने पदों से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए. अखबार ने इस प्रस्ताव को “संवैधानिक राजनीति के नैतिक जागरण” के रूप में व्याख्यायित किया और लिखा—“मंत्रियों को अब पद और विवेक में से एक को चुनना होगा.” (द लीडर, 11 जुलाई 1928, पृ. 1) इस वाक्य में आंदोलन का सार निहित था—यह मात्र प्रशासनिक संकट नहीं, बल्कि नैतिक आत्मपरीक्षण का क्षण था.

इस समय तक अखबार का स्वर आत्मविश्वासी और विश्लेषणात्मक दोनों था. उसने लिखा कि अब बारदोली केवल किसानों का प्रश्न नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति का नैतिक केंद्र बन चुका है. जिन्ना, जयकर और सप्रू जैसे विभिन्न विचारधाराओं के नेता, कांग्रेसियों के साथ एक ही नैतिक मंच पर थे. अखबार ने इसे “भारत में नैतिक सहमति के जन्म” की संज्ञा दी.

 

14–15 जुलाई 1928 के अंकों में प्रकाशित रिपोर्टें उस बिंदु की गवाह हैं जहाँ सरकार झुकने लगी थी. शीर्षक था—“बारदोली गतिरोध—गवर्नर का वायसराय से परामर्श—शिमला की यात्रा.” बंबई के गवर्नर की यह यात्रा साम्राज्य की आत्मस्वीकृति की तरह प्रतीत हुई. “द लीडर” ने लिखा—“जहाँ बल समाप्त हो गया है, वहाँ अब विवेक को हस्तक्षेप करना होगा.” (द लीडर, 15 जुलाई 1928, पृ. 1) अखबार का यह स्वर अब केवल पर्यवेक्षक का नहीं रहा; यह नैतिक सलाहकार की आवाज़ बन गया. “द लीडर” अब सत्ता और जनता के बीच अंतरात्मा की भाषा में संवाद स्थापित कर रहा था.

15 जुलाई के अंक में ही एक और रिपोर्ट छपी—“बारदोली शांति प्रस्ताव.” इसमें बताया गया कि गवर्नर की यात्रा की खबर पूरे गुजरात और बंबई में “बड़ी संतुष्टि” के साथ स्वीकार की गई है. लेख का समापन बहादुर हरिलाल देसाई के इस कथन से हुआ—“गवर्नर की उपस्थिति समझौते की संभावनाओं को उज्ज्वल करेगी.” (द लीडर, 15 जुलाई 1928, पृ. 2) यह वह क्षण था जब आंदोलन का स्वर विजयोल्लास से नहीं, बल्कि शांत आत्मविश्वास से भरा था—सत्याग्रह का असली सार यही था.

जुलाई के अंत तक बंबई, पूना और अहमदाबाद में सुलह की आशा बढ़ रही थी. “द लीडर” ने लिखा—“बारदोली भारत की अंतरात्मा की राजधानी बन गया है.” (द लीडर, 17 जुलाई 1928, पृ. 3) किसानों ने कर भुगतान से अब भी इंकार किया, लेकिन प्रशासन अब ज़ब्ती की नीति को सख़्ती से लागू करने में हिचकिचा रहा था. अखबार ने चेताया—“जो शांति न्याय पर आधारित नहीं है, वह संकट को केवल स्थगित करती है.” फिर भी उसका विश्वास अडिग था कि शक्ति का नैतिक संतुलन बदल चुका है—विवेक की विजय हो चुकी है.

1928 के जुलाई मध्य में बारदोली सत्याग्रह का एक निर्णायक मोड़ आया. बंबई प्रांत के गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स ने सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में किसानों की प्रतिनिधि मंडली से मुलाकात की. इस वार्ता का उद्देश्य राजस्व विवाद का शांतिपूर्ण समाधान ढूँढ़ना था.

सरदार पटेल की प्रतिनिधि मंडली में किशोरलाल मशरूवाला, जुगतराम दवे, तथा अन्य प्रमुख सहयोगी सम्मिलित थे. इस दल ने गवर्नर को एक लिखित ज्ञापन सौंपा जिसमें चार प्रमुख माँगें रखी गईं —

  1. भूमि-कर के संशोधित मूल्यांकन परस्वतंत्र और निष्पक्ष जांच आयोग की स्थापना,
  2. सत्याग्रहियों की रिहाई,
  3. किसानों के पक्ष में सहानुभूति रखने वालेतालाटियों की पुनर्बहाली, और
  4. जांच पूरी होने तकसभी दमनात्मक कार्रवाइयों का निलंबन.

सरदार पटेल ने वार्ता में स्पष्ट कहा कि यह आंदोलन सरकार के विरुद्ध नहीं, बल्कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध है. उन्होंने तर्क दिया कि नया मूल्यांकन बिना स्थानीय वास्तविकताओं को ध्यान में रखे किया गया, जिससे किसानों पर असहनीय आर्थिक बोझ पड़ा. उन्होंने यह भी कहा —

“यह प्रश्न प्रतिष्ठा का नहीं, न्याय का है. किसान सहयोग के लिए तत्पर हैं, पर अपने सम्मान की कीमत पर नहीं.”

गवर्नर ने इस ज्ञापन को सरकार के पास भेजने का आश्वासन तो दिया, किंतु स्वतंत्र जांच आयोग की स्थापना पर कोई ठोस उत्तर नहीं दिया. उन्होंने कहा कि सरकार ने पहले ही मूल्यांकन की समीक्षा कर ली है और किसी नए आयोग की आवश्यकता नहीं है. पटेल ने उत्तर दिया कि जब तक जांच सरकारी विभागों के अधीन रहेगी, तब तक न्याय की आशा व्यर्थ है. उन्होंने कहा —

“जब अधिकार न्याय से अलग हो जाए, तो प्रतिरोध कर्तव्य बन जाता है. सरकार जनता का विश्वास तभी पुनः प्राप्त कर सकती है, जब वह निष्पक्षता और सत्य का अनुसरण करे.”

वार्ता सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुई, परंतु कोई निर्णायक परिणाम नहीं निकला. द लीडर ने इसे “Hitch in Negotiations” कहा — अर्थात् वार्ता का ठहर जाना.(द लीडर, 20 जुलाई  1928, पृष्ठ 10)

द लीडर के 21 जुलाई 1928 के अंक में प्रकाशित यह रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह के उस निर्णायक मोड़ का विस्तृत वृत्तांत है जब सरदार वल्लभभाई पटेल और बॉम्बे प्रांत के गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स के बीच अंतिम वार्ता हुई. यह वार्ता, जो 19 जुलाई को सूरत में संपन्न हुई, प्रारंभिक रूप से समाधान की दिशा में एक प्रयास थी, किंतु अंततः किसी ठोस निष्कर्ष तक नहीं पहुँची. रिपोर्ट इस असफल संवाद को “Bardoli Impasse” — अर्थात् बारदोली का गतिरोध — कहती है, और इसे एक नैतिक संघर्ष का रूप प्रदान करती है.

सरदार पटेल की अध्यक्षता में किसानों के प्रतिनिधिमंडल में किशोरलाल मशरूवाला, जुगतराम दवे और अन्य सहयोगी सम्मिलित थे. उन्होंने गवर्नर को एक लिखित ज्ञापन सौंपा जिसमें किसानों की प्रमुख माँगें रखी गईं — भूमि-कर के संशोधित मूल्यांकन की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच, जब्त संपत्तियों की वापसी, गिरफ्तार सत्याग्रहियों की रिहाई, तालाटियों की पुनर्बहाली, और जांच पूरी होने तक सभी दमनात्मक कार्रवाइयों का निलंबन.

सरदार पटेल ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट किया कि यह संघर्ष सरकार की प्रतिष्ठा के विरुद्ध नहीं, बल्कि अन्यायपूर्ण प्रशासनिक नीतियों के विरोध में है. उन्होंने कहा कि किसानों पर लगाया गया संशोधित कर वास्तविक परिस्थितियों को नज़रअंदाज़ कर मनमाने ढंग से तय किया गया है, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरम संकट में पहुँच गई है. उन्होंने कहा, “हमारा उद्देश्य शासन को चुनौती देना नहीं, बल्कि न्याय प्राप्त करना है.”

गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स ने अपनी ओर से यह प्रस्ताव रखा कि सरकार एक विशेष जांच आयोग नियुक्त करने पर विचार कर सकती है, बशर्ते किसान पहले अपना बकाया कर पूरा जमा करें और आंदोलन समाप्त करें. आयोग केवल यह देखेगा कि कहीं मूल्यांकन में अत्यधिकता तो नहीं हुई, परंतु वह पूरे राजस्व ढांचे की समीक्षा नहीं करेगा.

सरदार पटेल ने गवर्नर के इस प्रस्ताव को स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार कर दिया. उन्होंने कहा —

“हम ऐसी किसी जांच को स्वीकार नहीं कर सकते जो स्वतंत्रता से वंचित हो. किसान उस कर का भुगतान नहीं कर सकते जिसे वे अन्यायपूर्ण मानते हैं, केवल इस आशा में कि शायद कभी न्याय मिले. पहले न्याय, बाद में भुगतान — यही हमारा सिद्धांत है.”

उन्होंने यह भी कहा कि सरकार शांति खरीदना चाहती है, किंतु सत्य की कीमत पर. पटेल ने कहा —

“सरकार यदि शांति चाहती है तो उसे सत्य स्वीकार करना होगा. यह संघर्ष केवल लगान का प्रश्न नहीं, बल्कि नैतिकता और आत्म-सम्मान का प्रश्न बन चुका है.”

वार्ता का वातावरण संयमित और गंभीर था, किंतु दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में मूलभूत अंतर के कारण कोई निर्णय नहीं हो सका. गवर्नर ने अपने प्रस्ताव को अंतिम बताया, जबकि पटेल ने स्वतंत्र जांच पर अडिग रहते हुए कहा कि “न्याय से पहले कोई समझौता संभव नहीं.” द लीडर ने लिखा कि यह बैठक “Complete Deadlock — a Moral Victory for the Peasants” अर्थात् “पूर्ण गतिरोध — किंतु किसानों की नैतिक विजय” के रूप में समाप्त हुई.

रिपोर्ट में आगे बताया गया कि सरदार पटेल और उनके सहयोगियों ने गवर्नर को धन्यवाद देकर वार्ता समाप्त की, किंतु आंदोलन के अहिंसक स्वरूप पर दृढ़ रहने की घोषणा की. उन्होंने कहा कि “हम आत्मसमर्पण नहीं करेंगे, परंतु बलिदान से पीछे भी नहीं हटेंगे.” द लीडर की टिप्पणी में कहा गया कि इस सम्मेलन ने बारदोली संघर्ष को एक नए नैतिक स्तर पर पहुँचा दिया है. अख़बार ने लिखा —

“अब किसानों का प्रश्न केवल शासन के समक्ष नहीं, बल्कि राष्ट्र के विवेक के समक्ष उपस्थित है. सरदार पटेल की दृढ़ता और संयम ने इस संघर्ष को उस ऊँचाई तक पहुँचा दिया है जहाँ बल निष्प्रभावी हो जाता है.”

यह रिपोर्ट औपनिवेशिक भारत में गांधीवादी राजनीति के परिपक्व रूप का उदाहरण है. बारदोली का यह संघर्ष सत्ता के विरोध में नहीं, बल्कि न्याय की पुनर्स्थापना के लिए था. पटेल की यह घोषणा कि “पहले न्याय, बाद में भुगतान” औपनिवेशिक शासन की वैधता पर प्रत्यक्ष नैतिक प्रश्नचिह्न थी. इस वार्ता की विफलता ने बारदोली आंदोलन को समाप्त नहीं किया, बल्कि उसे और अधिक नैतिक ऊर्जा दी. अब यह संघर्ष केवल आर्थिक नहीं रहा, बल्कि भारत के राजनीतिक आत्मसम्मान और सत्याग्रह की नैतिकता का प्रतीक बन गया.(द लीडर, 21 जुलाई 1928)

 

24 जुलाई 1928 के अंक में जब गवर्नर सूरत पहुँचे, “द लीडर” ने लिखा—“स्वागत का मौन, जयकारों से अधिक प्रभावशाली था.” (द लीडर, 24 जुलाई 1928, पृ. 1) अनुशासन और मर्यादा की इस सार्वजनिक मुद्रा को अखबार ने भारतीय जनता की परिपक्वता का प्रमाण बताया.

द लीडर  में 25 जुलाई 1928 को प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह के निर्णायक राजनीतिक और नैतिक चरण का साक्ष्य है. यह स्पष्ट संकेत देता है कि ब्रिटिश सरकार ने बारदोली संघर्ष के संदर्भ में अपनी शर्तों को अंतिम घोषित कर दिया था और किसी भी प्रकार के समझौते की संभावना को औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया था. इस रिपोर्ट में बॉम्बे प्रांत के गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स द्वारा विधान परिषद् में दिए गए भाषण का विस्तृत वर्णन किया गया है, जो औपनिवेशिक शासन की दृष्टि से ‘प्रशासनिक अनुशासन’ की रक्षा का तर्क प्रस्तुत करता है, किंतु अपने भीतर औपनिवेशिक नैतिकता की सीमाओं को भी उजागर करता है.

गवर्नर ने अपने भाषण में कहा कि बारदोली की स्थिति अब शासन के लिए केवल एक आर्थिक प्रश्न नहीं रह गई है, बल्कि यह प्रांत की प्रशासनिक प्रतिष्ठा और अधिकार का विषय बन चुकी है. उन्होंने दावा किया कि सरकार ने इस प्रश्न में अत्यधिक संयम और सहानुभूति दिखाई है, परंतु जब सत्याग्रही किसानों ने ‘राजस्व न चुकाने’ की नीति अपनाई, तो यह केवल असहमति नहीं, बल्कि शासन के अनुशासन को चुनौती देने के समान हो गया. उन्होंने कहा कि सरकार ने किसानों को बार-बार आश्वासन दिया कि यदि उनके तर्कों में न्याय होगा, तो उन्हें सुना जाएगा, परंतु इस आश्वासन का प्रत्युत्तर असहयोग और प्रतिरोध के रूप में मिला.

गवर्नर ने यह घोषणा की कि सरकार द्वारा किया गया भूमि-मूल्यांकन प्रशासनिक रूप से उचित और विधिसंगत है. राजस्व अधिकारियों की रिपोर्ट को अंतिम मानते हुए उन्होंने यह कहा कि पुनर्मूल्यांकन की कोई आवश्यकता नहीं है. तथापि, उन्होंने यह स्वीकार किया कि जहाँ वास्तविक कठिनाइयाँ सिद्ध होंगी, वहाँ सरकार सहानुभूतिपूर्वक विचार करेगी. यह वक्तव्य औपनिवेशिक प्रशासन की विशिष्ट पद्धति को उजागर करता है, जिसमें शासन जनता की कठिनाइयों को व्यक्तिगत अपवादों के रूप में स्वीकार करता है, परंतु उसकी संरचनात्मक अन्यायपूर्ण नीतियों को स्पर्श नहीं करता.

गवर्नर ने अपने भाषण में सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिनिधि मंडली के साथ हाल में हुई वार्ताओं का उल्लेख किया. उन्होंने कहा कि सरकार ने किसानों के तर्कों को ध्यानपूर्वक सुना और उन्हें यह प्रस्ताव दिया कि यदि वे बकाया कर का पूरा भुगतान कर दें और आंदोलन समाप्त करें, तो सरकार एक विशेष जाँच आयोग नियुक्त करेगी. किंतु सत्याग्रही पक्ष ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह स्वतंत्र जाँच नहीं बल्कि प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन जांच थी. गवर्नर ने इस अस्वीकृति को “अहंकारी असहयोग” कहा और आरोप लगाया कि सत्याग्रह के पीछे राजनीतिक तत्व कार्यरत हैं जिनका उद्देश्य प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि शासन की सत्ता को नैतिक रूप से कमजोर करना है.

उन्होंने कहा कि सरकार की दृष्टि में यह आंदोलन “संवैधानिक विरोध” की सीमा से आगे निकल गया है और अब यह “कानून का उल्लंघन” बन चुका है. गवर्नर ने स्पष्ट किया कि “राजस्व की अदायगी से इनकार करना शासन की वैधता को चुनौती देना है, और सरकार किसी भी परिस्थिति में इस चुनौती को स्वीकार नहीं करेगी.” उन्होंने कहा कि “सरकार का उद्देश्य दंड देना नहीं, बल्कि व्यवस्था को पुनः स्थापित करना है, किंतु जब व्यवस्था को चुनौती दी जाती है, तो शासन को अनुशासन के संरक्षण के लिए कठोर कदम उठाने पड़ते हैं.”

गवर्नर का वक्तव्य औपनिवेशिक सत्ता की उस मनोवृत्ति को व्यक्त करता है जिसमें जनता की नैतिकता को विद्रोह और शासन के अनुशासन को न्याय का पर्याय माना जाता है. उन्होंने कहा कि “सरकार की शर्तें अंतिम हैं. अब किसी समझौते की कोई गुंजाइश नहीं बची है. यदि आंदोलन के नेता सहयोग का हाथ बढ़ाएँ, तो सरकार वार्ता के लिए तैयार है, किंतु असहयोग जारी रहने की स्थिति में किसी नए संवाद की संभावना नहीं है.”

इस भाषण के तुरंत बाद काउंसिल भवन के बाहर सत्याग्रह समर्थक नागरिकों ने प्रदर्शन किया. अख़बार के अनुसार, “काउंसिल चैंबर्स के बाहर बारदोली समर्थक नागरिकों ने शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर सरकार की कठोर नीति का विरोध किया और सत्याग्रहियों के पक्ष में नारे लगाए.” इस विरोध को दबाने के लिए पुलिस बल भी तैनात किया गया, किंतु अख़बार ने लिखा कि पूरा प्रदर्शन शांतिपूर्ण और संयमित रहा — जैसा कि गांधीवादी आंदोलन की विशेषता थी.

द लीडर ने इस भाषण पर अपनी टिप्पणी में लिखा कि “गवर्नर का वक्तव्य औपनिवेशिक अहंकार का घोषणापत्र है. यह शासन की उस आत्मधारणा को व्यक्त करता है जिसमें सत्ता को नैतिकता से ऊपर माना जाता है.” अख़बार ने कहा कि सरकार के शब्दों में न्याय की भाषा भले हो, पर उनका स्वर ‘अनुशासन’ और ‘अधिकार’ की रक्षा का है. अख़बार के अनुसार, “सरकार ने स्वयं को न्याय के प्रतिपक्ष में खड़ा कर लिया है; और इस क्षण से बारदोली का संघर्ष प्रशासनिक प्रश्न न रहकर नैतिक प्रतिरोध का प्रतीक बन गया है.”

इस भाषण की ऐतिहासिकता इसी में है कि यह औपनिवेशिक शासन की नैतिक सीमाओं को स्पष्ट करता है. जहाँ गवर्नर ने इसे “अनुशासन की रक्षा” कहा, वहीं गांधीजी और सरदार पटेल के नेतृत्व में बारदोली के किसानों ने इसे “न्याय की पुनर्स्थापना” कहा. यह टकराव केवल शासन और जनता का नहीं, बल्कि दो नैतिक दृष्टियों का था — एक जो शक्ति और वैधता के संयोग पर आधारित थी, और दूसरी जो सत्य, न्याय और आत्मबल पर.

अतः 25 जुलाई 1928 का यह अंक केवल एक राजनीतिक घोषणा का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि भारत के औपनिवेशिक इतिहास में शासन और जनता के नैतिक संघर्ष का प्रमाणपत्र है. इस दिन औपनिवेशिक प्रशासन ने अपनी शर्तों को “अंतिम” घोषित किया, और भारतीय जन-नेतृत्व ने इस घोषणा को “न्याय की अस्वीकृति” के रूप में देखा. इसी क्षण से बारदोली सत्याग्रह एक आर्थिक विवाद से ऊपर उठकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नैतिक विमर्श का हिस्सा बन गया.((द लीडर, 25 जुलाई 1928 पृ. 10)

 

27 जुलाई 1928 के द लीडर  के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह की राजनीतिक दिशा में आए उस निर्णायक मोड़ का दस्तावेज़ है, जब संघर्ष केवल किसानों और औपनिवेशिक शासन के बीच का आर्थिक विवाद न रहकर शासन की वैधता, न्याय की अवधारणा और जनमत की नैतिक चेतना का प्रश्न बन गया था. इस अंक का शीर्षक इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि इस समय आंदोलन अपनी चरम स्थिति में पहुँचने के बावजूद नैतिकता और संवैधानिकता की राह पर अडिग था.

रिपोर्ट में बताया गया कि बॉम्बे प्रांतीय विधान परिषद् के निर्वाचित भारतीय सदस्यों ने गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स की कठोर नीति और हालिया वक्तव्य के विरोध में एक संयुक्त प्रतिवचन (Statement) जारी किया. इसमें कहा गया कि गवर्नर द्वारा अपनाई गई नीति सहयोग और समाधान की भावना के विपरीत, प्रशासनिक दमन और शक्ति प्रदर्शन की दिशा में अग्रसर है. निर्वाचित सदस्यों ने स्पष्ट शब्दों में यह आरोप लगाया कि सरकार ने वार्ता की संभावनाओं को जानबूझकर समाप्त कर दिया है और सत्याग्रह को अनुशासनहीनता के रूप में प्रस्तुत कर औपनिवेशिक कठोरता को उचित ठहराने का प्रयास किया है. उनके अनुसार, शासन का यह दृष्टिकोण न केवल प्रशासनिक असफलता का संकेत है, बल्कि यह भारतीय जनमत के नैतिक अपमान का भी प्रतीक है.

इन जनप्रतिनिधियों ने यह भी कहा कि गवर्नर की “अंतिम शर्तों” की घोषणा से यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार भारतीय जनता के साथ संवाद की भावना खो चुकी है. उनका कहना था कि औपनिवेशिक शासन जनता से सहयोग नहीं चाहता, बल्कि अधीनता की माँग करता है. द लीडर ने इसे औपनिवेशिक सत्ता की “नैतिक थकावट” (Moral Fatigue) कहा, जिसमें शासन जनभावनाओं को सुनने के बजाय उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास करता है. अख़बार के अनुसार, “सरकार बारदोली के प्रश्न को न्याय की कसौटी पर नहीं, बल्कि अधिकार और अनुशासन की कसौटी पर परख रही है.”

रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि कई भारतीय सामाजिक संगठनों, सार्वजनिक प्रतिनिधियों और नगरपालिकाओं ने इस नीति के विरोध में अपनी असहमति प्रकट की. उन्होंने कहा कि दमनात्मक उपायों से केवल असंतोष बढ़ेगा, और इससे सरकार का नैतिक अधिकार और कमजोर होगा. अख़बार ने टिप्पणी की कि “भारतीय जनता का विवेक अब बारदोली में बोल रहा है — यह आंदोलन केवल भूमि कर या राजस्व की गणना का नहीं, बल्कि शासन की नैतिकता का प्रश्न बन गया है.”

इस अंक में प्रकाशित “परिषद् के निर्वाचित सदस्यों का वक्तव्य” शीर्षक लेख में कहा गया कि सरकार का दायित्व केवल राजस्व वसूली तक सीमित नहीं है, बल्कि कर निर्धारण की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना भी उसका उत्तरदायित्व है. निर्वाचित सदस्यों ने तर्क दिया कि विधान परिषद् को कर नीति के निर्माण और पुनर्मूल्यांकन में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए, ताकि प्रशासनिक निर्णय जनता की सहमति और वास्तविकता पर आधारित हों. उन्होंने यह भी कहा कि जब कर निर्धारण और उसकी समीक्षा केवल अधिकारियों के विवेक पर छोड़ दी जाती है, तब प्रशासनिक सत्ता एकतरफा और अन्यायपूर्ण बन जाती है.

रिपोर्ट में एक और महत्त्वपूर्ण खंड “बारदोली से मिलने वाला पाठ” शीर्षक से दिया गया है, जिसमें ब्रिटिश समाचार पत्र मैनचेस्टर गार्जियन और स्टेट्समैन  की टिप्पणियाँ उद्धृत हैं. इन टिप्पणियों में कहा गया कि बारदोली की घटना ब्रिटिश शासन की राजस्व नीतियों की विवेकहीनता और भारतीय जनता की आर्थिक वास्तविकताओं के प्रति उदासीनता को उजागर करती है. मैनचेस्टर गार्जियन  ने लिखा कि “बारदोली का संघर्ष यह सिद्ध करता है कि भारत में कराधान की प्रक्रिया में जनप्रतिनिधित्व का अभाव औपनिवेशिक शासन की सबसे गंभीर त्रुटि है.” इस प्रकार बारदोली का प्रश्न केवल भारत की सीमाओं में नहीं, बल्कि ब्रिटेन के जनमत में भी औपनिवेशिक नीति की नैतिकता पर चर्चा का विषय बन गया.

द लीडर ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा कि बारदोली सत्याग्रह ब्रिटिश प्रशासन के लिए एक नैतिक परीक्षण बन चुका है. अख़बार ने लिखा — “यह आंदोलन किसी हिंसक विद्रोह का रूप नहीं, बल्कि नैतिक चेतना का उद्घोष है. यह बताता है कि भारत की जनता अब शासन के अधिकार को केवल शक्ति के रूप में नहीं, बल्कि न्याय के मानदंड पर परखना चाहती है.” संपादकीय में यह भी कहा गया कि “गवर्नर का दृष्टिकोण एक खोए हुए अवसर का प्रतीक है. यदि उन्होंने इस संघर्ष को समझने और संवाद के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया होता, तो ब्रिटिश प्रशासन अपने लिए नैतिक वैधता पुनः अर्जित कर सकता था. किंतु उसने दमन को प्राथमिकता देकर अपनी नैतिक स्थिति को और दुर्बल कर लिया.”

इस रिपोर्ट का अंतिम खंड “बारदोली दिवस” शीर्षक के अंतर्गत बताता है कि देश के अनेक हिस्सों में 26 जुलाई 1928 को बारदोली के समर्थन में सभाएँ आयोजित की गईं. यह दिखाता है कि यह संघर्ष अब केवल गुजरात के एक प्रांत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वह राष्ट्रव्यापी नैतिक प्रतीक बन गया था. द लीडर ने निष्कर्ष में लिखा — “बारदोली की शक्ति उसकी संख्या में नहीं, बल्कि उसकी नैतिक एकता में निहित है.”

इस प्रकार 27 जुलाई 1928 का यह अंक औपनिवेशिक भारत के इतिहास में एक अद्वितीय क्षण को दर्ज करता है. यह वह क्षण था जब ब्रिटिश शासन की राजनीतिक शक्ति के सामने भारतीय जनता की नैतिक शक्ति खड़ी थी. बारदोली का संघर्ष यह सिद्ध करता है कि औपनिवेशिक शासन का सबसे बड़ा विरोध न तो हिंसा से संभव है और न ही विद्रोह से, बल्कि न्याय और सत्य के प्रति निष्ठा से ही सत्ता की नैतिकता को चुनौती दी जा सकती है.(द लीडर, 27 जुलाई 1928, पृ. 9)

जुलाई के अंत तक समझौते की संभावना प्रबल हो गई थी. 28 जुलाई 1928 के संपादकीय में “द लीडर” ने स्पष्ट लिखा कि सच्चा समाधान वही होगा जो “निष्पक्ष जाँच के माध्यम से विश्वास बहाल करे और किसानों की ज़ब्त की गई ज़मीन लौटाए.” (द लीडर, 28 जुलाई 1928, पृ. 2) अखबार ने चेताया कि यदि शांति सत्य के मूल्य पर खरीदी जाएगी, तो वह केवल अस्थायी होगी. इसने न्याय पर आधारित सुलह को स्थायी समाधान बताया.

 

30 जुलाई 1928 को द लीडर  में प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह के उस ऐतिहासिक चरण का दस्तावेज़ है, जब संघर्ष निर्णायक मोड़ पर पहुँच चुका था और किसानों की नैतिक दृढ़ता ने औपनिवेशिक शासन की कठोरता के सामने एक शांत किंतु अडिग प्रतिरोध का रूप धारण कर लिया था. शीर्षक इस बात को इंगित करता है कि उस समय तक किसान नेतृत्व ने अपनी शर्तों पर किसी भी प्रकार के समझौते से इंकार कर दिया था और सत्याग्रह गांधीवादी सिद्धांतों की पूर्ण निष्ठा के साथ आगे बढ़ रहा था.

रिपोर्ट में बताया गया कि बारदोली सत्याग्रह अपने नैतिक और संगठनात्मक चरम पर था. गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स द्वारा हाल ही में विधान परिषद् में किए गए वक्तव्य, जिसमें उन्होंने सरकार की शर्तों को “अंतिम” घोषित किया था, ने किसानों के भीतर असंतोष को और गहरा कर दिया. इसके बावजूद आंदोलन में न तो हिंसा का कोई रूप दिखाई दिया, न ही अनुशासन की कोई कमी. किसानों ने एक स्वर में यह घोषणा की कि वे अपनी “न्यूनतम मांगों” से पीछे नहीं हटेंगे — इन मांगों में स्वतंत्र जाँच आयोग की स्थापना, गिरफ्तार सत्याग्रहियों की रिहाई, जब्त संपत्तियों की वापसी और किसानों के पक्ष में सहानुभूति रखने वाले तालाटियों की पुनर्बहाली शामिल थीं.

रिपोर्ट के अनुसार, सरदार वल्लभभाई पटेल और महात्मा गांधी के निकट सहयोगी श्री के. एम. मुन्शी ने अहमदाबाद में गांधीजी से विस्तृत परामर्श किया. इस बातचीत में यह निर्णय लिया गया कि सत्याग्रह की रणनीति को यथावत रखा जाए और किसी भी परिस्थिति में आंदोलन की नैतिकता या संयम से समझौता न किया जाए. गांधीजी ने यह स्पष्ट किया कि बारदोली का संघर्ष केवल कर या राजस्व का नहीं, बल्कि “भारतीय आत्मबल” की परीक्षा है. उन्होंने कहा कि “यदि किसान भय और प्रलोभन से मुक्त रहेंगे, तो यह संघर्ष शासन के नैतिक विवेक को झकझोर देगा.”

इस रिपोर्ट में द लीडर ने यह टिप्पणी की कि बारदोली की परिस्थिति अब “न्याय और अनुशासन के द्वंद्व” में परिवर्तित हो चुकी है. सरकार का दृष्टिकोण यांत्रिक प्रशासनिकता पर आधारित था, जबकि किसानों की दृष्टि नैतिक न्याय पर. अख़बार के अनुसार, “किसानों की दृढ़ता यह सिद्ध करती है कि भारत का ग्रामीण समाज राजनीतिक परिपक्वता प्राप्त कर चुका है. उन्होंने शक्ति के स्थान पर सत्य को अपना साधन और लक्ष्य दोनों बनाया है.”

रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि गुजरात के कई अन्य जिलों में किसानों ने बारदोली के समर्थन में शांतिपूर्ण सत्याग्रह का आरंभ किया है. अख़बार ने लिखा कि यह आंदोलन धीरे-धीरे “क्षेत्रीय प्रतिरोध” से “राष्ट्रीय नैतिक आंदोलन” में रूपांतरित हो रहा है. विभिन्न नगरों में सहानुभूति सभाएँ आयोजित की गईं और गांधीवादी संगठनों ने इसे भारतीय आत्मसम्मान का प्रश्न बताया. बॉम्बे प्रांतीय परिषद् में बारदोली विवाद पर गहन चर्चा हुई. कुछ यूरोपीय सदस्यों ने सरकार की नीति का समर्थन किया, परंतु भारतीय सदस्यों ने इसे “राज्य के नैतिक असंतुलन” का द्योतक बताया. अख़बार ने यह लिखा कि “सरकार जिसे ‘कानून का पालन’ कह रही है, वही वस्तुतः अन्याय का औचित्य बन गया है.”

इस अंक में यह भी उल्लेख किया गया कि गांधीजी के मार्गदर्शन में आंदोलन पूरी तरह अहिंसक बना रहा. सत्याग्रहियों को निर्देश दिया गया कि वे किसी भी प्रकार के उकसावे का उत्तर संयम से दें और अपने संघर्ष को नैतिक मर्यादा में रखें. इस अनुशासन ने आंदोलन को एक विशिष्ट नैतिक ऊँचाई प्रदान की. गांधीजी के निकट सहयोगी श्री मुन्शी के शब्द उद्धृत किए गए — “बारदोली केवल किसानों का नहीं, समूचे भारत का आत्मबल है. यहाँ की मिट्टी में वह मौन है जो हिंसा से अधिक प्रभावशाली है.”

रिपोर्ट के अंतिम अनुच्छेद में द लीडर  ने यह निष्कर्ष दिया कि औपनिवेशिक शासन बारदोली के प्रतिरोध को दमन से समाप्त नहीं कर सकता, क्योंकि यह भौतिक शक्ति का नहीं, बल्कि नैतिक सामर्थ्य का संघर्ष है. अख़बार ने लिखा — “सरकार की नीतियाँ अस्थायी हैं, किंतु जनता की नैतिकता स्थायी. बारदोली की भूमि पर जो बीज बोया गया है, वह आने वाले भारत के नैतिक राष्ट्रवाद का अंकुर है.”

यह रिपोर्ट न केवल बारदोली सत्याग्रह की तत्कालीन स्थिति का विवरण देती है, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की उस नैतिक चेतना का परिचायक भी है, जिसने औपनिवेशिक सत्ता की वैधता को पहली बार गंभीर रूप से चुनौती दी. गांधीजी और पटेल के नेतृत्व में किसानों की यह अडिगता भारतीय राजनीति में नैतिक शक्ति की पुनर्स्थापना का प्रतीक बन गई.(द लीडर, 30 जुलाई 1928, पृ. 9)

 

1 अगस्त 1928 के ‘द लीडर’  में प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह के नैतिक और राजनीतिक उत्कर्ष का प्रतीक है. इस अंक का शीर्षक उस मनोबल को दर्शाता है जो उस समय के औपनिवेशिक भारत में अहिंसक आंदोलन की सबसे बड़ी नैतिक शक्ति बन चुका था. यह लेख न केवल किसानों की दृढ़ता का वर्णन करता है, बल्कि गांधीवादी नेतृत्व के तहत सत्याग्रह की उस मनोवैज्ञानिक गहराई को भी उजागर करता है जिसमें भय और दमन के सामने आत्मबल का विस्तार हुआ.

रिपोर्ट की शुरुआत में लिखा गया है कि बारदोली के सत्याग्रहियों ने सरकार के किसी भी दमनात्मक उपाय से डरने से साफ इंकार कर दिया है. आंदोलन के नेताओं ने घोषणा की कि वे “गोलियों से नहीं डरते, क्योंकि उनका हथियार सत्य और संयम है.” यह वक्तव्य बारदोली के ग्रामीण भारत की उस सामूहिक चेतना का प्रतीक था जिसमें अहिंसा अब केवल एक राजनीतिक साधन नहीं, बल्कि जीवन का नैतिक अनुशासन बन चुकी थी. इसके अनुसार गांधीजी ने इस चरण में बारदोली के संघर्ष को “सत्य की परीक्षा” बताया. उन्होंने कहा कि “यह आंदोलन हमें यह सिखा रहा है कि अहिंसा केवल शब्द नहीं, बल्कि एक जीवित शक्ति है जो किसी भी प्रकार के भय को समाप्त कर सकती है.” गांधीजी के विचारों को उद्धृत करते हुए द लीडर लिखता है कि सत्याग्रह का वास्तविक अर्थ ‘न्याय के प्रति आत्मबल का विश्वास’ है — और बारदोली इस विश्वास की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति बन गया है.

श्री के. एम. मुन्शी ने कहा कि किसानों की ओर से कोई भी समझौता तभी संभव होगा जब सरकार उनकी न्यूनतम मांगों को न्यायपूर्ण और सम्मानजनक रूप में स्वीकार करेगी. उन्होंने कहा कि “किसान किसी भी ऐसे समझौते को स्वीकार नहीं करेंगे जो उनकी गरिमा को ठेस पहुँचाए.” मुन्शी ने यह भी कहा कि गांधीजी आशावान हैं कि समाधान निकलेगा, किंतु यह समाधान किसी भी स्थिति में “अनुशासन के भय” के अधीन नहीं होना चाहिए.

इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बॉम्बे प्रेस को संबोधित करते हुए सरकार ने दो वैकल्पिक प्रस्ताव रखे थे — पहला, पुनर्मूल्यांकन की जांच किसी राजस्व अधिकारी द्वारा की जाए, और दूसरा, यह जांच किसी न्यायिक अधिकारी के सहयोग से हो. किंतु सत्याग्रहियों ने इन दोनों प्रस्तावों को अस्वीकार किया क्योंकि वे इसे स्वतंत्र जांच की भावना के प्रतिकूल मानते थे. किसानों का तर्क था कि यदि जांच उन्हीं विभागों के अधिकारियों के अधीन होगी जिन्होंने अन्यायपूर्ण मूल्यांकन किया, तो निष्पक्षता की संभावना ही समाप्त हो जाएगी.

रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि गांधीजी ने सरदार वल्लभभाई पटेल और मुन्शी को यह सलाह दी कि वे सरकार के प्रति किसी भी परिस्थिति में प्रतिरोध का स्वर संयमित रखें, किंतु नैतिक रूप से अडिग रहें. गांधीजी के इस निर्देश ने आंदोलन को वह संतुलन प्रदान किया जिसमें प्रतिरोध और संयम, दोनों समान रूप से विद्यमान रहे. अख़बार ने लिखा — “बारदोली का आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्य के लिए भय का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का विषय बन गया है.”

रिपोर्ट के अन्य भाग में कहा गया है कि सत्याग्रहियों का मनोबल अत्यंत ऊँचा था. किसानों ने अपने घर, भूमि और संपत्ति के जब्त होने के बाद भी किसी प्रकार की हिंसात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी. यह अनुशासन गांधीवादी राजनीति के उस आदर्श को साकार करता है जिसमें बल का उत्तर बल से नहीं, बल्कि नैतिक स्थिरता से दिया जाता है. द लीडर ने इसे “भारतीय जन-आत्मा का नवजागरण” कहा.

पत्र के अनुसार, सत्याग्रहियों ने यह घोषणा की कि वे “केवल सम्मानजनक और न्यायपूर्ण समझौते” पर ही सहमत होंगे. इस संदर्भ में अख़बार ने लिखा कि “बारदोली के लोगों का यह आत्मविश्वास औपनिवेशिक शासन के लिए एक चुनौती नहीं, बल्कि एक नैतिक शिक्षा है.” गांधीजी की इस नीति ने आंदोलन को एक उच्च नैतिक स्थिति प्रदान की, जहाँ समझौते का अर्थ आत्मसमर्पण नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण संवाद था.

रिपोर्ट के अंतिम भाग में यह उल्लेख है कि सरकार को यह आशंका थी कि यदि बारदोली में समझौता बिना कर-भुगतान के हो गया, तो अन्य प्रांतों में भी इसी प्रकार के प्रतिरोध आंदोलन उभरेंगे. इसीलिए शासन की नीति अब भी कठोर बनी हुई थी. इसके बावजूद, अख़बार ने लिखा, “किसानों की शांत दृढ़ता ने औपनिवेशिक शासन की उस नैतिक सत्ता को चुनौती दी है जो भय पर आधारित थी.”

द लीडर  की संपादकीय टिप्पणी में कहा गया — “बारदोली भारत के राजनीतिक इतिहास में एक ऐसा क्षण है जहाँ भारतीय जनता ने भय के स्थान पर सत्य को चुना और दमन के स्थान पर आत्मबल को. यह आंदोलन यह सिद्ध करता है कि किसी शासन की शक्ति तोपों और बंदूकों में नहीं, बल्कि उसके नैतिक आधार में निहित होती है — और बारदोली ने उस आधार को हिला दिया है.”

इस प्रकार 1 अगस्त 1928 का अंक भारतीय सत्याग्रह की उस ऐतिहासिक परिपक्वता का परिचायक है जिसमें जनता ने अहिंसा को न केवल प्रतिरोध का साधन, बल्कि आत्म-सम्मान और न्याय का आधार बना लिया था. गांधीजी, पटेल और मुन्शी के नेतृत्व में बारदोली के किसान यह सिद्ध कर चुके थे कि असली शक्ति भयमुक्त सत्य में निहित है, न कि औपनिवेशिक शासन की धमकी में.(द लीडर,  1 अगस्त, 1928, पृ. 9)

 

4 अगस्त 1928 के द लीडर के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह के उस ऐतिहासिक क्षण का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है जब महात्मा गांधी स्वयं बारदोली जाने के लिए प्रस्थान करते हैं. यह गांधीजी के उस विवेकपूर्ण निर्णय और नैतिक रणनीति को प्रतिबिंबित करती है जिसके अंतर्गत उन्होंने आंदोलन की दिशा को संयम, प्रतीक्षा और नैतिक दबाव के सिद्धांतों के आधार पर नियंत्रित किया.

रिपोर्ट में बताया गया है कि गांधीजी 2 अगस्त 1928 की रात अहमदाबाद से बारदोली के लिए रवाना हुए. उनके साथ श्री के. एम. मुन्शी, श्रीमती कस्तूरबा गांधी और मिस मणिबेन पटेल थीं. गांधीजी का यह दौरा केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक उद्देश्य से प्रेरित था — उनका मुख्य लक्ष्य आंदोलन की दिशा को अहिंसक अनुशासन में बनाए रखना और सरकार के साथ संवाद की संभावना को यथासंभव जीवित रखना था. अख़बार ने लिखा कि “गांधीजी का बारदोली आगमन उस समय हुआ जब संघर्ष अपने निर्णायक मोड़ पर था और दोनों पक्ष — सरकार और सत्याग्रही — अपनी-अपनी स्थिति पर अडिग थे.”

गांधीजी ने अपने आगमन पर स्पष्ट कहा कि इस समय किसी नए ‘सहानुभूतिपूर्ण सत्याग्रह’ की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आंदोलन की नैतिक शक्ति अभी पूर्ण रूप से परखी नहीं गई है. उन्होंने कहा कि “समय अभी परिपक्व नहीं हुआ; हमें पहले अपने आत्मबल को परखना होगा.” यह कथन गांधीजी की रणनीतिक सोच को दर्शाता है, जिसमें उन्होंने संघर्ष की व्यापकता से अधिक उसकी नैतिकता और अनुशासन को प्राथमिकता दी.

रिपोर्ट के अनुसार, सरदार वल्लभभाई पटेल और गांधीजी के बीच लंबी बातचीत हुई जिसमें दोनों ने आंदोलन की वर्तमान स्थिति और संभावित सरकारी प्रतिक्रिया पर चर्चा की. गांधीजी का मत था कि बारदोली सत्याग्रह को फिलहाल स्थानीय सीमाओं में केंद्रित रखा जाए और इसे देशव्यापी आंदोलन में परिवर्तित करने की जल्दबाजी न की जाए. उन्होंने कहा कि “जब तक सत्याग्रही किसान अपने संकल्प और संयम में दृढ़ रहेंगे, तब तक कोई भी शक्ति उनके नैतिक बल को पराजित नहीं कर सकती.”

अख़बार में यह भी उल्लेख किया गया कि गांधीजी के इस दौरे का उद्देश्य केवल आंदोलन का मार्गदर्शन करना ही नहीं, बल्कि सरकार को यह संकेत देना भी था कि भारतीय जनता अब अपनी मांगों से पीछे हटने वाली नहीं है, परंतु वह न्याय के लिए अहिंसक मार्ग से ही संघर्ष करेगी. द लीडर ने लिखा — “गांधीजी का बारदोली आगमन औपनिवेशिक शासन के लिए एक नैतिक चेतावनी था. यह एक ऐसा संकेत था कि भारत अब केवल कर-रियायत नहीं, बल्कि नैतिक मान्यता की मांग कर रहा है.”

रिपोर्ट में “सरदार सरदुल को प्रत्युत्तर” शीर्षक के अंतर्गत गांधीजी के उस पत्र का भी उल्लेख है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि बारदोली के प्रश्न पर कोई भी समझौता तभी संभव है जब सरकार इसे केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि नैतिक और आर्थिक दृष्टि से भी समझे. उन्होंने लिखा कि “बारदोली का प्रश्न केवल कर-संशोधन का नहीं, बल्कि न्याय और आत्मसम्मान का है.” गांधीजी ने इस संदर्भ में कहा कि यदि सरकार सत्याग्रहियों की न्यूनतम मांगों को स्वीकार नहीं करती, तो आंदोलन स्वाभाविक रूप से अपने अगले चरण में प्रवेश करेगा.

रिपोर्ट के अनुसार, गांधीजी के आगमन से बारदोली में नया उत्साह व्याप्त हो गया. किसानों ने गांधीजी के स्वागत में कहा कि “हम अपना सब कुछ खो सकते हैं, परंतु सत्य नहीं.” गांधीजी ने इस अवसर पर अपने भाषण में कहा कि “सत्याग्रह का अर्थ यह नहीं कि हम अपने विरोधियों से घृणा करें, बल्कि यह कि हम उनके अन्याय से प्रेमपूर्वक असहयोग करें.”

द लीडर  ने अपनी टिप्पणी में लिखा कि गांधीजी की यह यात्रा “राजनीतिक घटनाक्रम से अधिक एक नैतिक हस्तक्षेप” थी. अख़बार ने कहा कि “गांधीजी ने उस समय जब पूरा देश आंदोलन के विस्तार की प्रतीक्षा कर रहा था, संयम को संघर्ष का साधन बनाया. यह निर्णय उनकी राजनीतिक परिपक्वता और नैतिक गहराई दोनों का प्रमाण है.” अख़बार में यह भी उल्लेख किया गया कि बॉम्बे विधान परिषद् में बारदोली प्रश्न पर हुई चर्चा को वायसराय द्वारा अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि सरकार इस विषय पर किसी बहस की अनुमति देने को तैयार नहीं थी. इस अस्वीकृति को द लीडर ने “औपनिवेशिक असुरक्षा का संकेत” बताया और लिखा कि “शासन अब जनता के नैतिक प्रश्नों का उत्तर प्रशासनिक तर्कों से देने की कोशिश कर रहा है, किंतु बारदोली ने यह सिद्ध कर दिया है कि नैतिकता का प्रश्न किसी प्रशासनिक तर्क से शांत नहीं किया जा सकता.”

अंततः यह रिपोर्ट यह निष्कर्ष देती है कि गांधीजी का बारदोली गमन भारतीय सत्याग्रह की दिशा को एक नई नैतिक ऊँचाई प्रदान करता है. उन्होंने आंदोलन को न केवल एक अनुशासित रूप में बनाए रखा, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि अहिंसा की आंतरिक शक्ति ही उसकी अंतिम विजय का माध्यम बने. द लीडर  ने लिखा — “बारदोली में गांधीजी का प्रवेश उस अहिंसक क्रांति का प्रतीक था, जिसमें राष्ट्र की आत्मा ने पहली बार अपनी शक्ति को पहचाना.” (द लीडर, 4 अगस्त 1928, पृ. 9)

अगस्त के पहले सप्ताह तक परिस्थितियाँ बदल चुकी थीं. बंबई के अधिकारियों ने अब स्वतंत्र जाँच की तैयारी शुरू कर दी थी. 4 अगस्त 1928 के “बॉम्बे लेटर” में इसे “धैर्य की विजय” कहा गया. संवाददाता ने लिखा कि गवर्नर और पटेल की निजी बातचीत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि “साम्राज्य के सम्मान के लिए अब बल नहीं, संवाद ही मार्ग है.” (द लीडर, 4 अगस्त 1928, पृ. 1)

 

5 अगस्त 1928 को द लीडर में प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह के राजनीतिक और नैतिक स्वरूप पर उस समय के शीर्ष राष्ट्रीय नेताओं की प्रतिक्रियाओं का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है. यह स्पष्ट करता है कि आंदोलन को अब राष्ट्रीय स्तर पर न केवल एक आर्थिक प्रश्न के रूप में, बल्कि भारतीय जन-राजनीति के नैतिक प्रतिरोध के आदर्श रूप में देखा जा रहा था.

रिपोर्ट की शुरुआत पंडित मोतीलाल नेहरू के अहमदाबाद में दिए गए उस वक्तव्य से होती है जिसमें उन्होंने कहा कि बारदोली का संघर्ष पूर्णतः अहिंसक, अनुशासित और वैधानिक सीमाओं के भीतर संचालित है. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि अब तक आंदोलन में किसी प्रकार की “नागरिक अवज्ञा” या “राजकीय असहयोग” की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है. उनके अनुसार, यह संघर्ष सरकार की नीतियों के विरोध में नहीं, बल्कि उसके अन्यायपूर्ण प्रशासनिक कार्यों के सुधार की मांग में चलाया जा रहा है.

पंडित नेहरू ने कहा कि “बारदोली भारत की जनता के आत्म-संयम और नैतिक साहस की परीक्षा है.” उन्होंने यह भी जोड़ा कि यदि सरकार इस आंदोलन को दमनात्मक दृष्टि से देखती है, तो यह उसकी अपनी भूल होगी, क्योंकि यह संघर्ष अहिंसा और संवाद के सिद्धांतों पर आधारित है. द लीडर ने उनके वक्तव्य का यह अंश उद्धृत किया — “यह एक ऐसा संघर्ष है जो किसी सत्ता को चुनौती देने के लिए नहीं, बल्कि अन्याय को सुधारने के लिए है.”

नेहरू ने सरकार को यह सुझाव दिया कि वह किसानों की शिकायतों को सहानुभूतिपूर्वक सुने और बारदोली के प्रश्न को केवल राजस्व नीति के दायरे में सीमित न रखे. उन्होंने कहा कि “यदि सरकार अपने नागरिकों के प्रति नैतिक उत्तरदायित्व को समझे, तो यह संघर्ष संवाद से सुलझाया जा सकता है.” उनका यह वक्तव्य औपनिवेशिक शासन की उस प्रवृत्ति की आलोचना करता है जिसमें जनहित के प्रश्नों को केवल प्रशासनिक या आर्थिक तर्कों के माध्यम से दबा दिया जाता था.

रिपोर्ट के दूसरे भाग में सरदार वल्लभभाई पटेल का साक्षात्कार प्रकाशित है. पटेल ने कहा कि अब तक सरकार की ओर से किसी भी वास्तविक समझौते की संभावना नहीं दिखती. उन्होंने कहा कि “यदि शासन को वास्तव में समाधान की चिंता होती, तो वह किसानों की न्यूनतम मांगों को स्वीकार करता.” पटेल का स्वर दृढ़ किंतु संयमित था. उन्होंने यह भी कहा कि “बारदोली के लोग केवल न्याय चाहते हैं, रियायत नहीं.”

इस अंक में महात्मा गांधी के बारदोली आगमन का भी संक्षिप्त विवरण दिया गया है. गांधीजी ने सत्याग्रहियों से मिलकर आंदोलन की दिशा और नैतिक मर्यादाओं की पुनः पुष्टि की. उन्होंने यह दोहराया कि “हमारा संघर्ष किसी व्यक्ति या सरकार के विरुद्ध नहीं, बल्कि अन्याय के विरुद्ध है.” गांधीजी के आगमन ने आंदोलन को एक नैतिक ऊर्जा प्रदान की. अख़बार के अनुसार, “गांधीजी का आगमन बारदोली के लिए वही था जो किसी तपस्या के लिए गुरु की उपस्थिति होती है.”

रिपोर्ट में श्री एंड्र्यूज़ के विचार भी प्रकाशित हैं, जिन्होंने लंदन से एक वक्तव्य जारी कर कहा कि “बारदोली भारत में केवल एक प्रांतीय संघर्ष नहीं, बल्कि यह ब्रिटिश साम्राज्य के नैतिक विवेक के लिए भी परीक्षा है.” उन्होंने ब्रिटिश सरकार से अपील की कि वह इस प्रश्न को राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर मानवीय दृष्टि से देखे. उन्होंने लिखा कि “यह वह क्षण है जब ब्रिटिश न्याय को अपनी सबसे कठिन परीक्षा से गुजरना होगा.”

द लीडर ने अपने संपादकीय टिप्पणी में लिखा कि “बारदोली ने भारत की राजनीति को नैतिकता की नई दिशा दी है. यहाँ पहली बार शक्ति और न्याय के संघर्ष में जनता ने न्याय को चुना है.” अख़बार ने यह भी कहा कि “सरकार के लिए यह अवसर है कि वह भारतीय जनता की नैतिक चेतना को दमन से नहीं, संवाद से समझे.”

यह अंक औपनिवेशिक भारत के उस दौर का प्रतिनिधित्व करता है जब राष्ट्रीय नेतृत्व ने सत्याग्रह को केवल राजनीतिक साधन के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा के नैतिक प्रशिक्षण के रूप में देखा. पंडित मोतीलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और महात्मा गांधी के वक्तव्यों से यह स्पष्ट होता है कि बारदोली आंदोलन ने स्वतंत्रता संग्राम की दिशा को अहिंसा और नैतिकता की नई परिभाषा प्रदान की.

द लीडर ने इस रिपोर्ट के समापन में लिखा — “बारदोली भारत का वह आईना है जिसमें सरकार अपनी नीति और जनता अपना आत्मबल देख सकती है. दोनों में से जो अपने सत्य के प्रति सच्चा रहेगा, वही इतिहास में स्थायी रहेगा.” (द लीडर, 5 अगस्त 1928, पृ. 9)

 

8 अगस्त 1928 का द लीडर का अंक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ का साक्षी है. यह उस अहिंसक संघर्ष की पराकाष्ठा को अभिव्यक्त करता है जिसने पहली बार औपनिवेशिक सत्ता को नैतिक और जन-दबाव के समक्ष झुकने पर विवश कर दिया. यह रिपोर्ट उस नैतिक विजय का प्रमाण है जिसमें किसी हिंसक संघर्ष के बिना ही भारतीय जनता ने शासन की अन्यायपूर्ण नीति को पलटने में सफलता प्राप्त की.

रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने सरदार वल्लभभाई पटेल की सभी प्रमुख शर्तों को स्वीकार कर लिया. इनमें प्रमुख थी — बारदोली के किसानों से जब्त की गई भूमि की वापसी, गिरफ्तार सत्याग्रहियों की रिहाई, नीलामी में खरीदी गई संपत्तियों की पुनर्व्यवस्था और कर निर्धारण की निष्पक्ष पुनर्समीक्षा. यह समझौता गांधीजी और पटेल के संयमित नेतृत्व तथा किसानों की अनुशासित एकता का प्रत्यक्ष परिणाम था. द लीडर  ने लिखा कि “सरकार ने पहली बार यह स्वीकार किया कि बारदोली के किसानों की शिकायतें वास्तविक थीं और उनका आंदोलन नैतिक रूप से न्यायसंगत था.”

इस रिपोर्ट में उल्लेख है कि अंतिम वार्ताएँ सरदार पटेल और बॉम्बे सरकार के अधिकारियों के बीच 5 अगस्त 1928 को संपन्न हुईं. गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स ने व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप करते हुए सरकार की ओर से यह प्रस्ताव दिया कि यदि किसान कर जमा करने को तैयार हों तो जब्त भूमि और संपत्तियाँ उन्हें वापस कर दी जाएँगी. सरदार पटेल ने यह स्पष्ट कर दिया कि किसान तभी भुगतान करेंगे जब संशोधित कर की समीक्षा निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से की जाएगी. सरकार ने अंततः इस शर्त को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार बारदोली का सत्याग्रह औपचारिक रूप से समाप्त घोषित किया गया.

द लीडर ने इस समझौते को “भारतीय इतिहास में अहिंसा की पहली निर्णायक राजनीतिक विजय” कहा. अख़बार ने लिखा कि “बारदोली की भूमि पर जो बीज बोया गया था, वह सत्य और आत्मबल की विजय के रूप में अंकुरित हुआ. यह समझौता किसी समझौते से अधिक एक नैतिक मान्यता है.” रिपोर्ट के अनुसार, गांधीजी ने इस अवसर पर कहा कि “यह विजय किसी व्यक्ति की नहीं, बल्कि उन किसानों की है जिन्होंने अन्याय को सहने से इंकार किया, परंतु प्रतिरोध में भी संयम नहीं छोड़ा.”

सरकार द्वारा नियुक्त राजस्व अधिकारियों ने घोषणा की कि बारदोली की भूमि पर पूर्व में की गई नीलामियाँ रद्द कर दी जाएँगी और जिन परिवारों को उनकी भूमि से बेदखल किया गया था, उन्हें पुनः स्वामित्व प्रदान किया जाएगा. इसी के साथ यह भी तय हुआ कि भविष्य में किसी भी कर वृद्धि से पहले विस्तृत राजस्व सर्वेक्षण और किसानों से परामर्श लिया जाएगा. अख़बार के अनुसार, “यह निर्णय औपनिवेशिक शासन के लिए एक ऐतिहासिक स्वीकृति थी कि बिना जन-सहमति के कोई प्रशासनिक निर्णय नैतिक वैधता नहीं रखता.”

रिपोर्ट में सरदार पटेल के वक्तव्य का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि उन्होंने बारदोली के किसानों को धन्यवाद देते हुए कहा, “यह आंदोलन न तो सरकार की हार है और न किसानों की जीत. यह केवल सत्य की विजय है, जिसने दोनों पक्षों को न्याय के पथ पर ला खड़ा किया.” गांधीजी ने अपने वक्तव्य में इस आंदोलन को “भारत की आत्मा की प्रथम सार्वजनिक अभिव्यक्ति” कहा.

इस अंक में यह भी बताया गया कि सत्याग्रह की समाप्ति के साथ ही सूरत और बॉम्बे में व्यापक जन-उत्सव मनाया गया. विभिन्न नगरों में सभाएँ आयोजित की गईं, जिनमें बारदोली को “राष्ट्रीय आत्मबल का प्रतीक” कहा गया. अख़बार के अनुसार, “गांवों में दीप जलाए गए और किसानों ने अपनी लौटाई गई भूमि की मेड़ों पर फूल चढ़ाए.”

द लीडर ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा कि “बारदोली का समझौता औपनिवेशिक शासन के इतिहास में एक नैतिक मोड़ है. यहाँ शक्ति ने नहीं, बल्कि आत्मबल ने शासन की नीतियों को पराजित किया है. गांधीवादी राजनीति की यह विजय सिद्ध करती है कि सत्य और अहिंसा केवल विचार नहीं, बल्कि क्रियाशील शक्तियाँ हैं जो साम्राज्य के ढांचे को भी बदल सकती हैं.” इस रिपोर्ट में अंततः यह भी कहा गया कि बारदोली सत्याग्रह की सफलता से पूरे भारत में एक नई राजनीतिक चेतना जागृत हुई. किसानों और श्रमिकों में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि न्याय के लिए अहिंसक संघर्ष केवल नैतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक भी है. अख़बार ने निष्कर्ष में लिखा — “बारदोली ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत की मुक्ति का मार्ग हिंसा से नहीं, बल्कि सत्य की शक्ति से होकर जाता है.” (द लीडर, 8 अगस्त 1928, पृ. 9)

 

9 अगस्त 1928 के द लीडर  के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह के औपचारिक और ऐतिहासिक समापन की घोषणा है. यह उस संतुलित दृष्टिकोण को दर्शाती है जिसके माध्यम से भारतीय जन-नेतृत्व और औपनिवेशिक शासन के बीच एक ऐसा समाधान निकला जिसने सत्याग्रह को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक विजय के रूप में स्थापित कर दिया. रिपोर्ट की शुरुआत इस घोषणा से होती है कि बारदोली विवाद का अंत एक ऐसे समझौते से हुआ है जिसे “सम्मानजनक” कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें न केवल किसानों के अधिकारों की पुनर्स्थापना हुई, बल्कि सरकार ने भी यह स्वीकार किया कि प्रशासनिक प्रक्रिया में त्रुटियाँ हुई थीं. द लीडर ने लिखा कि “बारदोली ने दिखा दिया कि अहिंसा केवल विरोध का माध्यम नहीं, बल्कि शासन और जनता के बीच नैतिक संतुलन स्थापित करने का मार्ग है.”

अख़बार के अनुसार, सरदार वल्लभभाई पटेल और बॉम्बे सरकार के बीच हुए अंतिम समझौते में यह सुनिश्चित किया गया कि जब्त की गई सभी भूमि और संपत्तियाँ उनके मूल स्वामियों को लौटा दी जाएँगी, किसानों पर लंबित मामलों को समाप्त किया जाएगा, और भविष्य में राजस्व निर्धारण की प्रक्रिया अधिक न्यायसंगत और पारदर्शी होगी. इसके साथ ही, सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार किए गए सभी किसानों और नेताओं को रिहा करने का आदेश जारी किया गया.

इस अंक में लंदन से प्रकाशित डेली हेराल्ड और मैनचेस्टर गार्जियन जैसे समाचार पत्रों की प्रतिक्रियाएँ भी उद्धृत की गईं. डेली हेराल्ड ने बारदोली समझौते को “सत्य और न्याय की नैतिक विजय” कहा, जबकि गार्जियन ने लिखा कि “यह आंदोलन भारत में शासन और जनता के बीच संवाद की नई शुरुआत का प्रतीक है.” इस प्रकार बारदोली का प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने ब्रिटिश जनमत को भी गहराई से प्रभावित किया.

रिपोर्ट में बॉम्बे विधान परिषद् में हुई चर्चा का भी उल्लेख किया गया है. परिषद् के सदस्यों ने इसे “शासन और जनता के बीच दुर्लभ सहमति का क्षण” बताया. चर्चा के दौरान यह भी कहा गया कि बारदोली ने ब्रिटिश शासन के लिए एक नैतिक सबक छोड़ा है — कि दमन से अधिक स्थायी परिणाम न्याय से प्राप्त होते हैं. सरदार पटेल के नेतृत्व की सराहना करते हुए सदस्यों ने उन्हें “भारतीय जनता के आत्मबल का प्रतीक” कहा.

अख़बार ने “सत्याग्रह की विजय” शीर्षक के अंतर्गत लिखा कि यह संघर्ष केवल एक प्रांतीय घटना नहीं, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नैतिक पुनर्जागरण का सूत्रपात है. रिपोर्ट में यह टिप्पणी की गई कि “बारदोली की विजय किसी कानून की समीक्षा का नहीं, बल्कि अंतरात्मा की जागृति का परिणाम है.” अख़बार ने कहा कि इस सत्याग्रह ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत की जनता शासन के भय से नहीं, बल्कि अपने नैतिक विश्वास से संचालित होती है.

लाला लाजपत राय के उद्धृत वक्तव्य में कहा गया कि “बारदोली भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला नहीं, बल्कि उसकी नैतिक चेतना का मापदंड है. यहाँ भारत ने यह दिखाया है कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हुए भी सत्य से विचलित नहीं हुआ जा सकता.” उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह समझौता भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उस दिशा को सुदृढ़ करेगा जो संवाद, संयम और नैतिकता पर आधारित है.

द लीडर  की संपादकीय टिप्पणी इस समझौते को “भारतीय स्वराज्य की प्रस्तावना” कहती है. संपादक ने लिखा कि “बारदोली में जो हुआ, वह स्वतंत्रता की दिशा में एक मील का पत्थर है. यहाँ भारत ने पहली बार यह सिद्ध किया कि वह सत्ता के विरोध में नहीं, बल्कि अन्याय के विरोध में है.” अख़बार ने यह भी कहा कि गांधीजी और पटेल के नेतृत्व में भारत ने राजनीति को धर्म से, और संघर्ष को करुणा से जोड़ा — यह वही समन्वय है जिसने सत्याग्रह को केवल आंदोलन नहीं, बल्कि एक नैतिक विधान बना दिया.

अंत में रिपोर्ट यह निष्कर्ष प्रस्तुत करती है कि बारदोली का समझौता दोनों पक्षों की गरिमा को सुरक्षित रखता है. सरकार ने न्याय को स्वीकार किया और किसानों ने संयम को बनाए रखा. परिणामस्वरूप, यह संघर्ष केवल विजय का नहीं, बल्कि नैतिक साझेदारी का बन गया. द लीडर ने लिखा — “बारदोली ने यह सिद्ध कर दिया कि जहाँ सत्य और न्याय का मिलन होता है, वहाँ इतिहास केवल परिवर्तन नहीं, बल्कि पुनर्जागरण रचता है.” (द लीडर, 9 अगस्त 1928, पृ. 9)

 

11 अगस्त 1928 के द लीडर के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह की पूर्ण सफलता की अंतिम घोषणा के रूप में ऐतिहासिक महत्व रखती है. इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि औपनिवेशिक शासन ने अंततः गांधीवादी सत्याग्रह की नैतिक शक्ति के आगे आत्मसमर्पण कर दिया. यह वह क्षण था जब एक स्थानीय राजस्व संघर्ष राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के नैतिक प्रतीक में परिवर्तित हो गया.

रिपोर्ट में बताया गया है कि बॉम्बे सरकार ने आधिकारिक आदेश जारी कर सभी सत्याग्रहियों की तत्काल रिहाई का निर्णय लिया. जिन किसानों और स्वयंसेवकों को आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किया गया था, उन्हें बिना किसी शर्त के मुक्त कर दिया गया. यह आदेश समझौते के उस हिस्से का अंग था, जिसके अंतर्गत सरकार ने बारदोली के किसानों के प्रति अपनी नीतिगत कठोरता को शिथिल करने और उनके अधिकारों की पुनर्स्थापना का आश्वासन दिया था. इसके अनुसार, सरकार ने उन परिवारों को भी मुआवजा देने का वादा किया जिनकी संपत्तियाँ या भूमि आंदोलन के दौरान जब्त की गई थीं. सत्याग्रहियों की रिहाई के साथ ही बॉम्बे प्रांत के विभिन्न हिस्सों में उत्सव का वातावरण फैल गया.

सरदार वल्लभभाई पटेल ने रिहा हुए सत्याग्रहियों को संबोधित करते हुए कहा कि “हमने न केवल अपनी भूमि वापस पाई है, बल्कि अपनी आत्मा को भी पुनः खोज लिया है.” उन्होंने यह भी कहा कि “यह आंदोलन हिंसा के बिना न्याय प्राप्त करने का प्रमाण है और यह दिखाता है कि सत्य की शक्ति किसी भी दमन से अधिक प्रबल है.” द लीडर ने इस वक्तव्य को इस रूप में व्याख्यायित किया कि “बारदोली ने भारत को यह सिखाया कि विजय सत्ता की नहीं, बल्कि आत्मबल की होती है.”

महात्मा गांधी ने अपने संदेश में इस विजय को “एक गंभीर और पवित्र आनंद का क्षण” कहा. उनका वक्तव्य रिपोर्ट में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ — “यह हमारी आत्मा की परीक्षा थी, और हमने उसे सफलतापूर्वक उत्तीर्ण किया. सत्याग्रह की यह सफलता इस बात का प्रमाण है कि जब जनता सत्य और अहिंसा में विश्वास रखती है, तब उसे कोई शक्ति पराजित नहीं कर सकती.” गांधीजी ने आगे कहा कि अब आंदोलन का अगला चरण “संरचनात्मक कार्य” होना चाहिए — अर्थात् समाज में स्वच्छता, शिक्षा, अस्पृश्यता-निवारण और ग्राम सुधार के माध्यम से नैतिक पुनर्निर्माण. उन्होंने कहा, “सत्याग्रह की विजय केवल शासन के सुधार से नहीं, बल्कि समाज के पुनर्गठन से पूर्ण होगी.”

रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि सत्याग्रह के समाप्त होने के बाद बॉम्बे विधान परिषद् में व्यापक संतोष का वातावरण था. कई यूरोपीय सदस्यों ने भी इसे “भारत में संवैधानिक और नैतिक संवाद की संभावना” के रूप में देखा. अख़बार ने लिखा कि “बारदोली का उदाहरण औपनिवेशिक शासन के लिए एक पाठ है कि जनशक्ति को दमन से नहीं, न्याय से नियंत्रित किया जा सकता है.”

द लीडर  की संपादकीय टिप्पणी में इस आंदोलन को “आधुनिक भारत की नैतिक विजय” कहा गया. अख़बार ने लिखा — “बारदोली में जो हुआ, वह भारत के इतिहास का एक ऐसा क्षण है जहाँ सत्य, न्याय और आत्मबल का संगम हुआ. यहाँ शक्ति और नीति का नहीं, बल्कि नैतिकता और विवेक का संवाद हुआ.” रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि गांधीजी ने आंदोलन की समाप्ति के अवसर पर अपने अनुयायियों को “क्षमा और विस्मरण” का संदेश दिया. उन्होंने कहा कि “हमारी विजय तभी सार्थक होगी जब हम द्वेष से मुक्त होकर अपने विरोधियों को भी मानवता के दायरे में देखें.” गांधीजी का यह संदेश आंदोलन के नैतिक स्वरूप को पूर्णता प्रदान करता है— जहाँ संघर्ष के अंत में भी करुणा और क्षमा का भाव सर्वोपरि रहा.

 

12 अगस्त 1928 को जब सरकार ने बारदोली आकलन की स्वतंत्र जाँच की आधिकारिक घोषणा की, “द लीडर” ने मुखपृष्ठ पर शीर्षक दिया—“सरकार ने सत्य के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार किया.” संपादकीय में लिखा गया कि भौतिक क्षतिपूर्ति भले बाद में हो, पर नैतिक पुनर्स्थापना हो चुकी है—“जो साम्राज्य तर्क के आगे झुक सकता है, उसने मुक्ति की दिशा में कदम बढ़ा दिया है.” (द लीडर, 12 अगस्त 1928, पृ. 1)

 

15 अगस्त 1928 के द लीडर के इस अंक में प्रकाशित रिपोर्ट बारदोली सत्याग्रह की औपचारिक सफलता के पश्चात् समझौते के व्यावहारिक क्रियान्वयन की विस्तृत जानकारी प्रस्तुत करती है. रिपोर्ट के अनुसार, बॉम्बे सरकार ने समझौते की सभी प्रमुख शर्तों को लागू करने की दिशा में त्वरित कदम उठाए. सत्याग्रह के दौरान जिन किसानों की भूमि, घर या तालात (पैतृक सम्पत्तियाँ) जब्त की गई थीं, उन्हें सरकार द्वारा क्रमशः लौटाया जाने लगा. अख़बार लिखता है — “सरकार ने अपने आदेश में यह सुनिश्चित किया कि किसी निर्दोष व्यक्ति के साथ अन्याय न हो और जिन परिवारों को बेदखल किया गया था, उन्हें सम्मानपूर्वक पुनः स्थापित किया जाए.” यह निर्णय उस नैतिक दबाव का परिणाम था जो बारदोली के शांतिपूर्ण प्रतिरोध ने औपनिवेशिक सत्ता पर उत्पन्न किया था.

रिपोर्ट में बताया गया कि सरकार ने न केवल भूमि वापसी की प्रक्रिया प्रारंभ की, बल्कि राजस्व निर्धारण की त्रुटियों को सुधारने के लिए एक “विशेष जाँच समिति” गठित की. समिति का कार्य यह सुनिश्चित करना था कि किसानों पर लगने वाला कर वास्तविक उत्पादन क्षमता और स्थानीय आर्थिक स्थितियों के अनुरूप ही हो. द लीडर  के अनुसार, “सरकार की यह स्वीकृति स्वयं इस बात का प्रमाण थी कि बारदोली आंदोलन केवल आर्थिक नहीं, बल्कि प्रशासनिक नैतिकता की पुनर्स्थापना का आंदोलन था.”

अख़बार में सरदार वल्लभभाई पटेल के वक्तव्य का उल्लेख किया गया है, जिसमें उन्होंने किसानों से अपील की कि वे समझौते के इस चरण में धैर्य और अनुशासन बनाए रखें. पटेल ने कहा — “हमने संघर्ष से जो पाया है, वह केवल भूमि नहीं, बल्कि न्याय का विश्वास है. अब हमारा कर्तव्य है कि इस विश्वास को अपने आचरण से सुदृढ़ करें.” उन्होंने यह भी कहा कि “बारदोली ने यह सिद्ध किया है कि शासन और जनता के बीच संबंध प्रतिरोध से नहीं, पारदर्शिता से सुधरते हैं.”

महात्मा गांधी का वक्तव्य भी इस रिपोर्ट में उद्धृत है. गांधीजी ने कहा कि “अब जब बारदोली के किसान अपनी भूमि वापस पा रहे हैं, तब यह समय आत्ममंथन और आत्मसंयम का है. सत्याग्रह तब तक जीवित रहेगा जब तक न्यायपूर्ण शासन की भावना समाज में स्थायी नहीं हो जाती.” उन्होंने आगे कहा कि “यह आंदोलन समाप्त नहीं हुआ, बल्कि वह अब नैतिक जिम्मेदारी के नए स्वरूप में जीवित रहेगा.”

अख़बार ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा कि “बारदोली समझौते का क्रियान्वयन औपनिवेशिक शासन के लिए एक नैतिक पुनर्संशोधन है. यह पहली बार हुआ है जब एक स्थानीय आंदोलन ने शासन को अपनी नीतिगत त्रुटियों को स्वीकारने और उन्हें सुधारने के लिए विवश किया.” संपादक ने कहा कि “गांधीवादी सत्याग्रह अब एक राजनीतिक प्रयोग मात्र नहीं रहा, बल्कि शासन-व्यवस्था की नैतिक समीक्षा का साधन बन गया है.”

रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि समझौते के बाद बारदोली के कई गांवों में “सत्याग्रह दिवस” मनाया गया. किसानों ने अपनी पुनर्प्राप्त भूमि पर सामूहिक प्रार्थना आयोजित की, जिसमें गांधीजी और पटेल के प्रति आभार व्यक्त किया गया. अख़बार के अनुसार, “गांवों में अब केवल उत्सव का नहीं, बल्कि आत्मसंयम का वातावरण था — लोग यह अनुभव कर रहे थे कि उनकी जीत सत्ता के पतन से नहीं, बल्कि सत्य की प्रतिष्ठा से हुई है.”

अंततः द लीडर  ने इस अंक के निष्कर्ष में लिखा — “बारदोली समझौते का क्रियान्वयन भारतीय राजनीति की दिशा बदलने वाला क्षण है. यह केवल किसानों की विजय नहीं, बल्कि प्रशासनिक नैतिकता की पुनर्स्थापना है. भारत ने बारदोली में यह सिद्ध कर दिया कि न्याय तब ही जीवित रहता है जब वह जनता की आस्था से जुड़ा हो.” अखबार ने टिप्पणी की—“यह दुःख से उत्पन्न राजनीति की भाषा है.” (द लीडर, 15 अगस्त 1928, पृ. 9) यह बारदोली का अंतिम नैतिक संदेश था—संयम ही शक्ति है.

इस प्रकार जुलाई से अगस्त 1928 के बीच “द लीडर” के पृष्ठ एक ऐसी नैतिक यात्रा के साक्षी बने, जिसमें एक स्थानीय संघर्ष ने धीरे-धीरे भारत की आत्मा को जाग्रत किया. हर दिन की रिपोर्ट अपने भीतर न केवल घटनाओं का क्रम, बल्कि एक विचार का विकास भी संजोए हुए थी—अन्याय का पर्दाफ़ाश, धैर्य की परीक्षा, और अंततः सत्य की विजय.

जब 20 अगस्त 1928 को “द लीडर” ने अपने संपादकीय “बारदोली और उसके बाद” में लिखा—“सबसे गरीब किसान ने दिखा दिया है कि केवल विवेक के सहारे इतिहास बदला जा सकता है”—तो यह किसी निष्कर्ष से अधिक एक भविष्यवाणी थी. अखबार ने कहा कि “बारदोली एक घटना नहीं, एक दृष्टिकोण बन जाना चाहिए.” इस दृष्टिकोण में, सत्ता का अर्थ शक्ति नहीं, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी था. (द लीडर, 20 अगस्त 1928, पृ. 1)

इस प्रकार “द लीडर” की रिपोर्टिंग ने बारदोली को केवल राजस्व विवाद के इतिहास से निकालकर भारत की नैतिक परिपक्वता के दस्तावेज़ में बदल दिया. जुलाई की शुरुआत में शुरू हुई तथ्यात्मक खबरें अगस्त के अंत तक एक नैतिक महाकाव्य बन चुकी थीं—जहाँ सत्ता ने विनम्रता सीखी, और जनता ने आत्मबल.

 

राष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ और संगठनात्मक समर्थन

1928 के जुलाई महीने के मध्य तक बारदोली सत्याग्रह, गुजरात के एक प्रांतीय संघर्ष से निकलकर पूरे देश की अंतरात्मा की पुकार बन चुका था. यह अब केवल किसानों और बंबई सरकार के बीच का विवाद नहीं रहा था, बल्कि भारतीय राजनीति के नैतिक विवेक का प्रश्न बन गया था. “द लीडर” की रिपोर्टिंग ने इस नैतिक संवाद को प्रांतीय सीमाओं से निकालकर राष्ट्रव्यापी विमर्श में बदल दिया. अखबार ने दर्ज किया कि किस तरह गुजरात की धरती से उठी यह करुण पुकार, देश के नगरों, विधायिकाओं, विश्वविद्यालयों और प्रेस के पन्नों में गूँजने लगी.

जुलाई के पहले सप्ताह में ही “द लीडर” के “बॉम्बे लेटर” में इस परिवर्तन की झलक दिखाई देने लगी थी. 5 जुलाई 1928 के अंक में संवाददाता ने लिखा—“बारदोली अब बंबई और पूरे देश में चर्चा का विषय है.” (द लीडर, 5 जुलाई 1928, पृ. 2) शाम के समय वकीलों, व्यापारियों और सामाजिक सुधारकों की सभाएँ आयोजित हो रही थीं, जिनमें किसानों की स्थिति पर विचार किया जा रहा था. अखबार ने बताया कि स्थानीय प्रेस—अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं दोनों में—ने पटेल के भाषणों और सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की रिपोर्टों को प्रमुखता से प्रकाशित करना शुरू कर दिया है. यहाँ तक कि वे उदारवादी सुधारवादी, जो कभी गांधीजी की राजनीतिक विधियों के प्रति सशंकित थे, अब बारदोली के अनुशासित और संयमित आंदोलन से प्रभावित होकर समर्थन देने लगे थे. अखबार ने लिखा कि “किसानों के संयम ने संदेह को श्रद्धा में बदल दिया है.”

बंबई से परे, अन्य शहरों में भी यह भाव लहर की तरह फैलने लगा. अहमदाबाद से मिले टेलीग्रामों में बताया गया कि वहाँ नागरिकों ने “बारदोली राहत कोष” की स्थापना की है, ताकि जिन किसानों की ज़मीनें और मवेशी ज़ब्त किए गए हैं, उनकी सहायता की जा सके. सूरत में महिलाओं ने सत्याग्रहियों की सहायता के लिए कपड़ा कातने का अभियान शुरू किया. “द लीडर” ने लिखा—“यह केवल दान नहीं, बल्कि अंतरात्मा की शांत एकजुटता है.” (द लीडर, 8 जुलाई 1928, पृ. 3) यह वाक्य धीरे-धीरे पूरे आंदोलन की पहचान बन गया—एक ऐसा आंदोलन जो करुणा को नागरिक कर्तव्य में बदल रहा था.

9 जुलाई 1928 के अंक ने इस समर्थन को एक ऐतिहासिक ऊँचाई पर पहुँचा दिया. “द लीडर” ने अपने पहले पन्ने पर शीर्षक दिया—
“बारदोली संघर्ष— पंडित मोतीलाल नेहरू, सर तेज बहादुर सप्रू, सर अली इमाम और श्री चिंतामणि द्वारा स्वतंत्र जाँच की माँग.”
इस एक पृष्ठ पर भारत के चार प्रमुख विचारधाराओं का संगम हो गया—कांग्रेस के राष्ट्रवादी, संवैधानिक उदारवादी, प्रगतिशील मुस्लिम बुद्धिजीवी और स्वतंत्र पत्रकार, सभी एक स्वर में बोले. (द लीडर, 9 जुलाई 1928, पृ. 1–2)

इन चारों वक्तव्यों को एक साथ प्रकाशित करके “द लीडर” ने भारतीय राजनीति में नैतिक एकता की नींव रखी. यह भारत के वैचारिक विविधता के बावजूद एक साझा विवेक की उद्घोषणा थी.

अखबार के उसी अंक में एक और लेख था—“बारदोली सत्याग्रहियों की सहायता करें.” इसमें बताया गया कि इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ और पटना जैसे शहरों में समितियाँ गठित की जा रही हैं जो बेदखल किसानों के लिए अनाज और धन इकट्ठा कर रही हैं. छात्रों ने स्वयंसेवा का दायित्व उठाया और शहर–शहर घूमकर ग्रामीणों की स्थिति बताने लगे. नगर परिषदों ने बंबई सरकार से समझौते की अपील करते हुए प्रस्ताव पारित किए. “द लीडर” ने लिखा—“एक राष्ट्र अब क्रोध नहीं, बल्कि सहानुभूति से कार्य करना सीख रहा है. बारदोली भारत को नागरिक सहयोग का नैतिक व्याकरण सिखा रहा है.”

जुलाई के दूसरे सप्ताह में यह सहयोग संगठित रूप लेने लगा. 6 जुलाई 1928 के अंक में “इंडियन मर्चेंट्स चैंबर” के वक्तव्य को प्रमुखता दी गई, जिसमें सरकार की नीति की आलोचना करते हुए कहा गया कि “यह एक ऐसी नीति है जो प्रतिष्ठा बचाने के लिए न्याय की बलि चढ़ा रही है.” अखबार ने टिप्पणी की—“जब वाणिज्य अंतरात्मा की आवाज़ में बोलने लगता है, सत्ता को विनम्रता सीखनी चाहिए.” (द लीडर, 6 जुलाई 1928, पृ. 5) यह उस नैतिक परिवर्तन का संकेत था जिसमें व्यापारी वर्ग भी अब शासकों और शासितों के बीच नैतिक न्याय के पक्ष में खड़ा हो रहा था.

11 जुलाई 1928 के अंक में प्रकाशित राष्ट्रवादी पार्टी की बैठक ने इस आंदोलन को औपचारिक राजनीतिक स्वर दिया. बंबई में आयोजित इस सभा में एम.ए. जिन्ना, एम.आर. जयकर और सीतलवाड़ जैसे नेता उपस्थित थे. उन्होंने प्रस्ताव पारित किया कि यदि भारतीय मंत्री स्वतंत्र जाँच की माँग नहीं मनवा सकते तो उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए. “द लीडर” ने इस निर्णय को “राजनीतिक शुद्धिकरण की शुरुआत” कहा और लिखा कि “बारदोली ने शासन की भाषा में फिर से नैतिकता का संचार कर दिया है.” (द लीडर, 11 जुलाई 1928, पृ. 1)

अखबार ने इस बैठक का वातावरण “उत्तेजित नहीं, बल्कि गंभीर” बताया. संवाददाता ने लिखा कि प्रतिनिधि “पार्टी के लोग नहीं, बल्कि अंतरात्मा के प्रतिनिधि लग रहे थे.” यही वह क्षण था जब बारदोली का नैतिक प्रभाव संसदीय राजनीति में प्रवेश कर गया.

इस आंदोलन ने केवल राजनीतिक संस्थाओं को नहीं, बल्कि समाज के हर स्तर को सक्रिय किया. “द लीडर” के “बॉम्बे डिस्पैच” में यह दर्ज किया गया कि कैसे सेवा समितियाँ बन रही हैं जो ज़ब्ती से बेघर हुए किसानों को भोजन और आश्रय दे रही हैं. सूरत और अहमदाबाद के वकील अब उन किसानों की पैरवी निःशुल्क कर रहे हैं जिन्हें अदालतों में मुकदमे झेलने पड़ रहे हैं. अखबार ने लिखा—“जहाँ दान कर्तव्य बन जाता है और कर्तव्य आनंद में बदल जाता है, वहीं राजनीति नैतिकता के क्षेत्र में प्रवेश करती है.” (द लीडर, 13 जुलाई 1928, पृ. 2)

महिलाओं की भागीदारी भी उल्लेखनीय थी. बंबई और अहमदाबाद से भेजी गई रिपोर्टों में बताया गया कि सरोजिनी नायडू, एनी बेसेंट और कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी नेताओं के नेतृत्व में महिलाओं ने राहत समितियाँ बनाई हैं. “द लीडर” ने इन सभाओं को “शांति से भरी करुणा का दृश्य” कहा, और लिखा—“वहाँ कोई भाषणबाज़ी नहीं थी, केवल यह शांत विश्वास था कि कष्ट नारीत्व को गरिमा प्रदान करता है.” (द लीडर, 16 जुलाई 1928, पृ. 4) इस प्रकार, बारदोली आंदोलन केवल पुरुषों का संघर्ष नहीं, बल्कि पूरे समाज का नैतिक आंदोलन बन गया.

अखबार ने यह भी बताया कि देश के अन्य हिस्सों के विधानसभाओं और नगरपालिकाओं में बारदोली की चर्चा गूँजने लगी. बंगाल विधान परिषद में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने किसानों के आचरण को “हमारे युग का सर्वश्रेष्ठ नागरिक पाठ” कहा, जबकि मद्रास में सी.आर. रेड्डी ने चेताया कि “यदि बारदोली में न्याय असफल हुआ, तो भारत में कानून में विश्वास नष्ट हो जाएगा.” (द लीडर, 18 जुलाई 1928, पृ. 2) ये टिप्पणियाँ दिखाती हैं कि बारदोली अब भारतीय राजनीतिक विवेक का दर्पण बन चुका था.

“द लीडर” के पन्नों पर इन प्रतिक्रियाओं का भूगोल एक विस्तृत नैतिक मानचित्र जैसा बन गया था. अखबार के आंतरिक पृष्ठों पर राहत समितियों के दान की विस्तृत सूचियाँ प्रकाशित होती थीं—लाहौर के एक छात्रावास से दस रुपये, बनारस के व्यापारिक संघ से बीस, और कटक के शिक्षक संघ से सौ रुपये. संपादक ने लिखा—“ये आँकड़े एक प्रशिक्षित राष्ट्र का नैतिक अंकगणित हैं.” (द लीडर, 19 जुलाई 1928, पृ. 4)

यह केवल दान का विवरण नहीं था; यह उस नागरिक नैतिकता का अंकन था जो अब पूरे भारत में आकार ले रही थी.

इसी काल में प्रांतीय कांग्रेस समितियों ने भी पटेल के नेतृत्व की सराहना करते हुए प्रस्ताव पारित किए. “द लीडर” ने इस पर टिप्पणी की—“यह आंदोलन किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक पद्धति का है—अनुशासित सत्य की पद्धति.” (द लीडर, 21 जुलाई 1928, पृ. 3) इसने सत्याग्रह को व्यक्ति-पूजा से बचाते हुए नैतिक अनुशासन के रूप में प्रस्तुत किया.

मजदूर संगठनों की प्रतिक्रिया भी उल्लेखनीय रही. 22 जुलाई 1928 के अंक में बंबई के कपड़ा मिलों और रेलवे मज़दूरों की बैठक का विवरण था, जिसमें बारदोली के किसानों के प्रति एकजुटता व्यक्त की गई और संकल्प लिया गया कि अपने संघर्षों में वे भी अनुशासन बनाए रखेंगे. अखबार ने लिखा—“मज़दूर को किसान से यह सीखनी चाहिए कि धैर्य ही शक्ति है.” इस प्रकार कृषि और औद्योगिक नैतिकता का एक नया संगम तैयार हुआ.

“द लीडर” का प्रभाव अब भारत से बाहर तक पहुँच चुका था. “मैनचेस्टर गार्जियन” और “डेली हेराल्ड” जैसे अंग्रेज़ी अखबारों ने इसकी संयमित पत्रकारिता की प्रशंसा की और लिखा कि भारतीय प्रेस अब “आंदोलनकारी उत्तेजना से ऊपर उठ चुका है.” “द लीडर” ने इस विदेशी सराहना को नम्रता से स्वीकार किया और लिखा—“जब सत्य गरिमा के साथ बोला जाता है, तो उसे किसी व्याख्याकार की आवश्यकता नहीं होती.” (द लीडर, 24 जुलाई 1928, पृ. 4)

गवर्नर और वायसराय के बीच होने वाले परामर्श के दिनों में अखबार को जनता के पत्रों की बाढ़ आने लगी. शिक्षकों, छात्रों और सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने अपने पत्रों में लिखा कि “सरकार न्याय करे.” “द लीडर” ने इन पत्रों को एक शीर्षक के साथ प्रकाशित किया—“अंतरात्मा की आवाज़ें.” इनमें से एक पत्र, पंजाब के एक अज्ञात लेखक का था—“बारदोली ने हमें फिर से भारतीय होने पर गर्व करना सिखाया है.” (द लीडर, 26 जुलाई 1928, पृ. 2) अखबार ने इन पत्रों पर कोई टिप्पणी नहीं की; उसने केवल उन्हें बोलने दिया. यह मौन ही उसकी सबसे प्रभावशाली वाक्पटुता थी.

अगस्त 1928 के मध्य तक जब स्वतंत्र जाँच की घोषणा हुई, तब तक यह आंदोलन एक स्थानीय संघर्ष से बदलकर राष्ट्रीय आत्म-संवेदना का प्रतीकबन चुका था. “द लीडर” ने लिखा—“बारदोली ने दिखाया है कि सहानुभूति, जब सत्य द्वारा अनुशासित हो, तो आदेश से भी अधिक प्रभावी शक्ति बन जाती है.” यह वाक्य, शायद, उस सम्पूर्ण कालखंड का नैतिक सारांश था.

इस प्रकार जुलाई–अगस्त 1928 के दो महीनों में “द लीडर” के पृष्ठ भारतीय समाज की उस नैतिक जागृति का जीवंत दस्तावेज़ बन गए जिसमें करुणा, विवेक और अनुशासन ने राजनीति से कहीं अधिक गहरी भूमिका निभाई. गुजरात के शांत गाँवों से लेकर इलाहाबाद के संपादकीय कक्षों तक, एक नैतिक संचार की श्रृंखला बनी—ऐसी श्रृंखला जिसने भारतीय जनता को न केवल स्वतंत्रता के लिए, बल्कि स्वशासन की नैतिक तैयारी के लिए भी सुसज्जित किया.

 

 

द लीडर का संपादकीय दर्शन और पत्रकारिता की भूमिका

“द लीडर” ने बारदोली सत्याग्रह के दौरान केवल समाचार प्रस्तुत नहीं किए, बल्कि औपनिवेशिक भारत में पत्रकारिता के उद्देश्य और नैतिक उत्तरदायित्व को भी परिभाषित किया. इसके जुलाई–अगस्त 1928 के पृष्ठ एक सुसंगत बौद्धिक पैटर्न को प्रकट करते हैं— ऐसा पैटर्न जो इस विचार पर आधारित था कि सार्वजनिक जीवन में सत्य तर्कपूर्ण वाणी और विवेकपूर्ण दृष्टि के माध्यम से ही स्थापित हो सकता है.

संपादक एम.ओ. चिंतामणि और उनके सहयोगियों के लिए “द लीडर” केवल एक समाचार पत्र नहीं, बल्कि एक नागरिक संस्था था — एक ऐसा नैतिक मंच जिसका दायित्व भावनाओं को संयमित करते हुए जनता को शिक्षित करना था. बारदोली सत्याग्रह के दौरान यह दर्शन अपने चरम पर पहुँच गया. यहाँ पत्रकारिता केवल रिपोर्टिंग का माध्यम नहीं रही; यह नैतिक शिक्षा का रूप ले चुकी थी — एक ऐसा विद्यालय जहाँ शासक और शासित, दोनों ही न्याय की नैतिकता के विद्यार्थी बन गए थे.

1909 में स्थापना के बाद से ही “द लीडर” ने भारतीय प्रेस में अपनी अलग पहचान बनाई थी. इसने न तो तिलक के “केसरी” की उग्र राष्ट्रवादी भाषा अपनाई, न ही सरकारी समर्थक समाचार पत्रों की निष्क्रियता. इसका स्वर था — उदार, संयमित और तर्कपूर्ण. चिंतामणि का यह दृढ़ विश्वास था कि “शांत स्वर में बोला गया सत्य अपनी शक्ति नहीं खोता.” यह वाक्य “द लीडर” की सम्पादकीय आत्मा बन गया.

औपनिवेशिक काल के उस तनावपूर्ण समय में जब राजद्रोह के कानूनों के कारण एक शब्द भी कारावास का कारण बन सकता था, संयम का चुनाव अपने आप में एक राजनीतिक कार्य था. “द लीडर” ने यह दिखाया कि संयम भी साहस का रूप हो सकता है. जिस समय कई अखबार क्रोध की भाषा में लिख रहे थे, उस समय “द लीडर” अपने संयमित गद्य के माध्यम से दिखा रहा था कि नैतिक स्थिरता ही वास्तविक प्रतिरोध है. बारदोली सत्याग्रह इस दर्शन के लिए एक जीवंत उदाहरण बन गया.

जुलाई 1928 के संपादकीय लेखों में वह लय दिखाई देती है जो बारदोली के किसानों के अनुशासन से मेल खाती थी. वाक्य संतुलित थे, भाषा न्यायिक और तर्कपूर्ण थी. अखबार ने किसानों की प्रशंसा शहीदों की तरह नहीं, बल्कि “प्रशिक्षित नागरिकों” के रूप में की. (द लीडर, 8 जुलाई 1928, पृ. 2) सत्ता को शत्रु नहीं, बल्कि तर्क के आधार पर संवाद के योग्य पक्ष माना गया. इस दृष्टि से “द लीडर” की पत्रकारिता एक संवादात्मक अहिंसा का उदाहरण थी — ऐसी अहिंसा जो शब्दों के माध्यम से न्याय का आग्रह करती थी.

अखबार का मानना था कि शिष्टाचार के बिना स्वतंत्रता केवल अराजकता है, और विनम्रता के बिना न्याय विचारों का अत्याचार बन सकता है. अपनी भाषा में इन दोनों सिद्धांतों का पालन करके “द लीडर” ने शैली को नैतिकता में बदल दिया.

संपादकीय दृष्टिकोण के स्तर पर “द लीडर” ने दो चरम सीमाओं — कांग्रेसी प्रचार और औपनिवेशिक प्रश्रय— दोनों से समान दूरी बनाई. चिंतामणि का मत था कि प्रेस का कर्तव्य केवल जनभावनाओं को प्रतिध्वनित करना नहीं, बल्कि उन्हें परिष्कृत और शिक्षित करना है. इस कारण अखबार ने कभी अपुष्ट खबरें नहीं छापीं, न ही किसी तथ्य को सनसनीखेज बनाया.

उदाहरण के लिए, 6 जुलाई 1928 को प्रकाशित “द बारदोली सिचुएशन” में सरदार पटेल का पूरा भाषण शब्दशः दिया गया और उसके बाद विश्लेषणात्मक टिप्पणी प्रस्तुत की गई. (द लीडर, 6 जुलाई 1928, पृ. 3–4) इस विभाजन — कथन और विवेचन के बीच की यह दूरी — जानबूझकर रखी गई थी, ताकि पाठक पहले तथ्य को समझें और फिर स्वयं नैतिक निष्कर्ष निकालें. इसी कारण अखबार की रिपोर्टिंग पर जनता को भरोसा था; जब “द लीडर” किसी अन्याय की निंदा करता था, तो लोग जानते थे कि उसका निर्णय भावना नहीं, तर्क और प्रमाण पर आधारित है.

“द लीडर” की पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि उसने सरदार पटेल को गांधीजी की छाया से अलग करते हुए, एक स्वतंत्र अहिंसक संगठनकर्ता के रूप में प्रस्तुत किया. अखबार ने पटेल को नायक नहीं, बल्कि एक नैतिक प्रशासक के रूप में चित्रित किया, जो अनुशासन, सत्य और विवेक से शासन करता है. 7 जुलाई 1928 के अंक में उन्हें “शांत, विचारशील और आत्मनियंत्रित, लगभग न्यायिक” व्यक्ति कहा गया. (द लीडर, 7 जुलाई 1928, पृ. 1)

यह प्रस्तुति गांधीजी की भावनात्मक अपील से अलग थी; यह राजनीतिक तर्क और नैतिक व्यवहार का मिश्रण थी. यही गुण बाद में पटेल के प्रशासनिक चरित्र की पहचान बने — दृढ़ता के साथ न्याय, और शक्ति के साथ संयम.

“द लीडर” का पाठकवर्ग भी इस दृष्टि से विशिष्ट था. अन्य राष्ट्रवादी अखबार जहाँ मुख्यतः कार्यकर्ताओं से संवाद करते थे, वहीं “द लीडर” शिक्षित मध्यम वर्ग को संबोधित करता था— वह वर्ग जो अभी तक औपनिवेशिक शासन के प्रति वफादारी और राष्ट्रीय आत्मबोध के बीच झूल रहा था. अखबार ने इस वर्ग में तर्कसंगत देशभक्ति और नैतिक स्वतंत्रता की चेतना जगाई.

बारदोली कवरेज के संपादकीय लेख इस दृष्टि का साक्ष्य हैं. 9 जुलाई 1928 के अंक में प्रकाशित लेख में लिखा गया—“यह राजद्रोह नहीं, बल्कि सरकार को यह स्मरण कराना है कि न्याय शासन का पहला कर्तव्य है.” (द लीडर, 9 जुलाई 1928, पृ. 2) यह वाक्य बताता है कि “द लीडर” ने आलोचना को भी संवैधानिक निष्ठा के भीतर रखा. यही संतुलन इस अखबार को कट्टरपंथी आदर्शवाद और व्यावहारिक उदारवाद के बीच एक नैतिक सेतु बनाता है.

14 जुलाई 1928 के अंक में, गवर्नर की शिमला यात्रा पर टिप्पणी करते हुए अखबार ने लिखा—“महामहिम फाइलें नहीं, बल्कि अंतरात्मा का बोझ ढो रहे हैं.” (द लीडर, 14 जुलाई 1928, पृ. 1) यह वाक्य उस पत्रकारिता का उदाहरण है जो बिना अपमान किए शासक को आत्मचिंतन के लिए बाध्य कर देती है. अखबार ने कभी घृणा का सहारा नहीं लिया; उसने सत्ता को उसकी नैतिक छवि के आईने में देखने को विवश किया. यह “बिना घृणा की आलोचना” “द लीडर” की सबसे बड़ी शक्ति थी.

इसी तरह अखबार ने निष्पक्षता को अपने मूल में रखा. 18 जुलाई 1928 को जब “बॉम्बे क्रॉनिकल” ने गवर्नर पर जानबूझकर क्रूरता का आरोप लगाया, तब “द लीडर” ने चेताया—“निर्णय की त्रुटि को द्वेष से अलग करना चाहिए.” (द लीडर, 18 जुलाई 1928, पृ. 3) यह नैतिक सटीकता, उस समय के उग्र पत्रकारिता वातावरण में, एक असाधारण संतुलन का उदाहरण थी.

“द लीडर” की सम्पादकीय दृष्टि इस विचार पर आधारित थी कि अन्याय केवल पीड़ित का नहीं, बल्कि अत्याचारी का भी अपमान है. प्रतिरोध का उद्देश्य सत्ता को नष्ट करना नहीं, बल्कि उसे पुनः नैतिक बनाना है. यही दर्शन 28 जुलाई 1928 के संपादकीय में व्यक्त हुआ—“एक न्यायोचित समझौता केवल किसानों को ज़मीन नहीं लौटाएगा, बल्कि सरकार को सम्मान भी दिलाएगा.” (द लीडर, 28 जुलाई 1928, पृ. 2) इस भाषा में वह नैतिक सहानुभूति निहित थी जिसने राजनीतिक संघर्ष को संवाद में बदल दिया.

“द लीडर” ने पत्रकारिता को तत्कालिकता से आगे बढ़ाकर नैतिक इतिहास-लेखन का कार्य बना दिया. इसके हर अंक में तथ्यात्मक रिपोर्टों के साथ विचारपूर्ण संपादकीय प्रकाशित होते थे—कर्म के बाद चिंतन. इस पद्धति ने पाठकों को राजनीति को तमाशे के रूप में नहीं, बल्कि नैतिक परीक्षणों की श्रृंखला के रूप में देखना सिखाया.

12 अगस्त 1928 के अंक में, जब सरकार ने स्वतंत्र जाँच की घोषणा की, “द लीडर” ने लिखा—“न्याय किसी एक पक्ष से नहीं, बल्कि इस सिद्धांत से संबंधित है कि न्याय अभी भी आज्ञाकारिता की माँग कर सकता है.” (द लीडर, 12 अगस्त 1928, पृ. 1) यह वाक्य दर्शाता है कि अखबार ने विजय को भी संयम से देखा — बिना विजयोन्माद, केवल न्याय की प्रतिष्ठा के रूप में.

संपादकीय दृष्टि से “द लीडर” का स्वरूप अपने दृश्य विन्यास में भी अनुशासित था. शीर्षक संतुलित थे, कोई सनसनीखेज़ भाषा नहीं, कोई विस्मयादिबोधक चिह्न नहीं. मुद्रण व्यवस्था भी उसी अनुशासन का प्रतीक थी — तर्क और संयम का सौंदर्य. यह गद्य, अपने रूप में ही, नैतिक शांति का रूपक था.

चिंतामणि का विश्वास था कि पत्रकारिता का कार्य केवल सूचना देना नहीं, बल्कि चरित्र गढ़ना है. उनके अनुसार, बारदोली के किसान “चरित्र की राष्ट्रीय पाठशाला” हैं. (द लीडर, 21 जुलाई 1928, पृ. 3) अखबार ने पाठकों को केवल राजनीतिक दर्शक नहीं, बल्कि नैतिक नागरिक बनाया, जो सिद्धांतों के आधार पर निर्णय लेना जानते थे.

इस अवधि में “द लीडर” ने भारतीय प्रेस की एक नई परंपरा स्थापित की— ऐसी पत्रकारिता जो सत्य की खोज को शक्ति के प्रयोग से ऊपर रखती है. चिंतामणि के शब्दों में, “जब शब्द हिंसक हो जाते हैं, तो सत्य स्वयं घायल हो जाता है.” इस विचार के अनुरूप अखबार का हर संवाददाता विनम्र भाषा में लिखता और अपने लेखों का अंत किसी न किसी नैतिक चिंतन से करता.

“द लीडर” ने अन्य अखबारों के साथ भी संवाद कायम रखा. “टाइम्स ऑफ इंडिया” और “बॉम्बे क्रॉनिकल” से प्राप्त कुछ अंशों को पुनः प्रकाशित करते समय उसने जहाँ आवश्यक हो, बिना टिप्पणी के अतिशयोक्ति को सुधार दिया. “प्रेस और जिम्मेदारी” शीर्षक से संपादकीय में लिखा गया—“प्रिंट में गुस्सा, मैदान के धैर्य को नष्ट कर सकता है.” (द लीडर, 25 जुलाई 1928, पृ. 2) यह एक ऐसी पत्रकारिता का आचार-संहिता थी, जो प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि सामूहिक विवेक में विश्वास रखती थी.

सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि “द लीडर” ने समय को केवल वर्तमान नहीं, बल्कि एक नैतिक निरंतरता के रूप में देखा. इसके प्रत्येक अंक में पिछले दिनों की घटनाओं का संदर्भ दिया जाता था, जिससे पाठक आंदोलन की क्रमिक चेतना को महसूस कर सके. इस प्रक्रिया में अखबार ने तत्कालीन पत्रकारिता को “धीमी पत्रकारिता” (slow journalism) का स्वरूप दिया — वह पत्रकारिता जो चिंतन को शीघ्रता से अधिक महत्व देती है.

अगस्त 1928 में प्रकाशित एक वाक्य ने इस दर्शन को संक्षेप में समेट दिया—

“प्रेस का कर्तव्य तर्क के शांत प्रकाश से राष्ट्र की अंतरात्मा को जीवित रखना है.”

यह वाक्य केवल एक संपादकीय घोषणा नहीं, बल्कि आधुनिक भारतीय पत्रकारिता का नैतिक घोषणापत्र था. बारदोली के माध्यम से “द लीडर” ने यह सिद्ध किया कि मुद्रित शब्द, जब सत्य से अनुप्राणित होता है, तो वह स्वयं अहिंसक क्रांति का साधन बन जाता है.

इस प्रकार, “द लीडर” ने भारतीय पत्रकारिता को एक नई पहचान दी — नारा नहीं, संवाद; विरोध नहीं, विवेक; और सत्ता से टकराव नहीं, बल्कि उसकी आत्मा से संवाद. यही वह परंपरा थी जिसने भारतीय सार्वजनिक जीवन को तर्क और नैतिकता के आधार पर गढ़ा — एक ऐसी परंपरा, जिसकी गूँज आज भी भारतीय पत्रकारिता के आदर्शों में सुनाई देती है.

 

बारदोली की एक जनसभा में सरदार पटेल

सरदार वल्लभभाई पटेल: अहिंसक आंदोलनकारी बनाम गृह मंत्री और राज्यों के एकीकरणकर्ता

जब जुलाई 1928 में “द लीडर” ने बारदोली सत्याग्रह पर अपनी रिपोर्टिंग आरंभ की, तब तक सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के “लौह पुरुष” नहीं थे. उस समय तक वे गुजरात के एक अनुशासित प्रांतीय नेता, खेड़ा के किसान आंदोलन और अहमदाबाद के श्रमिक संघों के आयोजक के रूप में जाने जाते थे. उनकी ख्याति करिश्माई वक्ता या राष्ट्रीय प्रतीक की नहीं, बल्कि व्यवस्थित संगठन और नैतिक अनुशासन के प्रतीक की थी.

किन्तु बारदोली सत्याग्रह के दौरान “द लीडर” ने जिस दृष्टि से उन्हें प्रस्तुत किया, उसी ने उनके नेतृत्व को अखिल भारतीय स्तर पर नैतिक और राजनीतिक कद प्रदान किया. जुलाई से अगस्त 1928 के बीच अखबार की रिपोर्टिंग और संपादकीयों ने न केवल एक आंदोलन का दस्तावेजीकरण किया, बल्कि नेतृत्व की एक नई अवधारणा भी रची — ऐसा नेतृत्व जो शक्ति नहीं, चरित्र से जन्म लेता है; जो शासन नहीं करता, बल्कि प्रेरित करता है.

5 जुलाई 1928 के “बॉम्बे लेटर” में संवाददाता ने लिखा—“श्री वल्लभभाई पटेल, जो अपनी बारीकियों पर शांत पकड़ के लिए जाने जाते हैं, बारदोली में एक राजनेता का मस्तिष्क और एक सुधारक का हृदय लेकर आए हैं.” (द लीडर, 5 जुलाई 1928, पृ. 2) इस पंक्ति ने पटेल की दोहरी पहचान को रेखांकित किया—बुद्धि और सहानुभूति का समन्वय. यही संतुलन उनके पूरे राजनीतिक जीवन की नींव बना.

6 जुलाई 1928 को प्रकाशित लेख “बारदोली स्थिति” में अखबार ने उनका भाषण पूर्ण रूप से प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने कहा—“हम सत्ता से नहीं, अन्याय से लड़ रहे हैं.” उन्होंने किसानों को संयमित रहने की सलाह देते हुए चेताया—“क्रोध का एक भी कार्य हमारे उद्देश्य की पवित्रता को नष्ट कर देगा.” और अंत में जोड़ा—“अगर मुझे गिरफ्तार किया जाए तो खुशियाँ मनाना.” (द लीडर, 6 जुलाई 1928, पृ. 3)

“द लीडर” ने इस कथन की व्याख्या करते हुए लिखा—“अपने अनुयायियों को आज्ञाकारिता में आनंद खोजने का आह्वान करके श्री पटेल ने नेतृत्व को संरक्षकता में बदल दिया है.” अखबार ने इसे नेतृत्व की नैतिक परिभाषा का एक नया रूप बताया—वह नेता जो भय नहीं, विश्वास से शासन करता है.

7 जुलाई 1928 के संपादकीय में उन्हें “बुद्धिमान, निडर और पितृतुल्य” कहा गया. (द लीडर, 7 जुलाई 1928, पृ. 1) यह शब्दावली बाद में उनके राजनीतिक जीवन की स्थायी पहचान बन गई. अखबार ने लिखा—“उनकी सौम्यता शक्ति का शिष्टाचार है, उनका धैर्य निष्क्रियता नहीं, बल्कि संयमित दृढ़ता है.”

पटेल का यह चित्रण किसी संत की तरह नहीं, बल्कि एक नैतिक प्रशासक की तरह था— जो गांधीजी की आत्मिक दृष्टि और एक प्रशासक की व्यावहारिकता का सम्मिश्रण था. इस चित्रण ने उन्हें आध्यात्मिकता और संगठन दोनों के क्षेत्र में प्रामाणिक बना दिया.

जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ा, “द लीडर” ने पटेल की तुलना सरकार की कठोरता से की. ज़ब्ती, नीलामी और गिरफ्तारियों की खबरें उनके अडिग संयम के साथ समानांतर प्रकाशित की जाती थीं. “बॉम्बे लेटर” ने लिखा—“वे गरजते नहीं, समझाते हैं. जब भावनाएँ भड़कती हैं, तो वे तर्क से उसे शांत कर देते हैं. उनकी शक्ति विवेक को व्यावहारिक बनाने में है.” (द लीडर, 8 जुलाई 1928, पृ. 3)

यह वही नैतिक संयम था जिसने आगे चलकर उन्हें रियासतों के एकीकरण के समय भारतीय राजनीति का संतुलन-स्थंभ बना दिया. बारदोली के खेतों में जो शांति और विवेक उन्होंने सिखाया, वही बाद में राज्य–राजाओं के साथ उनके संवादों में दिखाई दिया.

9 जुलाई 1928 के अंक में “द लीडर” ने लिखा—“श्री पटेल के हाथों में अहिंसा आत्मा का प्रशासन बन जाती है.” (द लीडर, 9 जुलाई 1928, पृ. 2) इस वाक्य में उनकी नेतृत्व शैली की मूल पहचान छिपी है—वे केवल एक विचारक नहीं, बल्कि नैतिक प्रशासक थे. उनका नेतृत्व भावनाओं की ऊँचाई पर नहीं, कर्तव्य के अनुशासन पर टिका था.

अखबार के संवाददाताओं ने बार–बार वर्णन किया कि कैसे बारदोली के गाँव “मानो किसी अदृश्य कानून के अधीन चल रहे हों.” (द लीडर, 9 जुलाई 1928, पृ. 2) शराब की दुकानें बंद थीं, झगड़े थम गए थे, और हर स्वयं सेवक अपना कर्तव्य जानता था. यह अनुशासित ग्रामीण जीवन बाद में गांधीजी के “ग्राम स्वराज” के विचार का पूर्वाभास बन गया, और साथ ही पटेल की उस प्रशासनिक दृष्टि का प्रतीक भी जिसने स्वतंत्र भारत की एकता को सम्भव बनाया.

11 जुलाई 1928 के अंक में जब राष्ट्रवादी पार्टी ने मंत्रियों से इस्तीफे की माँग वाला प्रस्ताव पारित किया, तब “द लीडर” ने लिखा—“देश अब सरदार पटेल में केवल एक प्रांतीय नेता नहीं, बल्कि एक नैतिक शक्ति देख रहा है, जिसका प्रभाव राजनेताओं की अंतरात्मा तक पहुँच रहा है.” (द लीडर, 11 जुलाई 1928, पृ. 1) यह वह क्षण था जब पटेल एक प्रादेशिक आयोजक से आगे बढ़कर राष्ट्रीय विवेक के प्रतीक बन गए.

14–15 जुलाई 1928 के अंकों में, जब गवर्नर की शिमला यात्रा की घोषणा हुई, अखबार ने इसे पटेल की रणनीति की सफलता के रूप में देखा. संपादकीय “द बारदोली डेडलॉक” में लिखा गया—“सरदार की जीत विजय में नहीं, बल्कि सत्ता को अपनी अंतरात्मा से परामर्श करने के लिए बाध्य करने में निहित है.” (द लीडर, 15 जुलाई 1928, पृ. 1) यह वाक्य पटेल के पूरे राजनीतिक जीवन की व्याख्या बन गया—वे किसी को झुकाते नहीं थे, बल्कि सुनने के लिए विवश कर देते थे.

जुलाई के अंत तक “द लीडर” ने लिखा—“सरदार का प्रत्येक कदम उतनी ही सावधानी से नियोजित होता है जितनी किसी सरकारी योजना का निर्माण, किंतु हर निर्णय अंतःकरण से शुद्ध होता है.” (द लीडर, 24 जुलाई 1928, पृ. 1) इसके अगले दिन के संपादकीय “द मैन एंड द मेथड” में कहा गया—“बारदोली का सबक यह नहीं कि साहस शक्ति को चुनौती दे सकता है, बल्कि यह कि चरित्र स्वयं को संगठित कर शक्ति बन सकता है.” (द लीडर, 25 जुलाई 1928, पृ. 2)

इसी लेख में अखबार ने लिखा—“सरदार के आत्मसंयम ने भारत को सत्ता की एक नई छवि दी है—नैतिक, व्यवस्थित और सबसे उत्कृष्ट अर्थों में पुरुषोचित.” यह “लौह पुरुष” की उस नैतिक अवधारणा की शुरुआत थी जिसमें कठोरता करुणा से, और शक्ति न्याय से जुड़ी हुई थी.

12 अगस्त 1928 के अंक में, जब स्वतंत्र जाँच की घोषणा हुई, “द लीडर” ने उनके वक्तव्य को प्रकाशित किया—“यह मेरी जीत नहीं, बल्कि सत्य और अनुशासन की विजय है.” साथ ही संपादकीय में लिखा गया— “सरदार ने सिद्ध किया है कि नैतिक शासन नैतिक नागरिकता से शुरू होता है.” (द लीडर, 12 अगस्त 1928, पृ. 1) इस वाक्य में उनके भविष्य के नेतृत्व की वैचारिक जड़ें दिखाई देती हैं.

बारदोली में जो नैतिक ढांचा निर्मित हुआ, वही आगे चलकर उनके गृह मंत्री काल की नीति में रूपांतरित हुआ. 1947–1950 के बीच जब उन्होंने पाँच सौ से अधिक रियासतों को भारत में विलय के लिए राजी किया, तब उनका तरीका वही था— संयमित दृढ़ता और नैतिक संवाद. “द लीडर” ने 1928 में ही इस स्वभाव का संकेत दिया था जब लिखा— “धैर्य नीति जितना ही शक्तिशाली होता है.” (द लीडर, 19 जुलाई 1928, पृ. 3)

राजकुमारों से उनके संवाद और किसानों से उनके संवाद में कोई अंतर नहीं था — दोनों में तर्क, संयम और आत्मसम्मान था. वे किसी को अपमानित किए बिना राज़ी कर सकते थे, क्योंकि उनकी शक्ति अधिकार में नहीं, विश्वसनीयता में थी. यही कारण था कि जब 1948 में उन्होंने हैदराबाद और जूनागढ़ जैसे जटिल मामलों को हल किया, तो उनका व्यवहार उसी “नैतिक प्रशासन” का विस्तार था जिसे “द लीडर” ने 1928 में उनके भीतर पहचाना था.

15 अगस्त 1928 के संपादकीय में लिखा गया— “विजय में श्री पटेल का धैर्य, परीक्षा में उनके साहस से अधिक दुर्लभ है.” (द लीडर, 15 अगस्त 1928, पृ. 2) यह वाक्य उनकी नेतृत्व शैली का सबसे सटीक सार है — वे विजय में भी विनम्र रहे, और संघर्ष में भी स्थिर. यही स्वभाव आगे चलकर स्वतंत्र भारत की उथल-पुथल में उनके नेतृत्व की पहचान बना.

इस प्रकार “द लीडर” की दृष्टि में पटेल का नेतृत्व गांधीवादी नैतिकता का व्यावहारिक रूप था. गांधी ने राजनीति को आत्मा का क्षेत्र बनाया, और पटेल ने उसी आत्मा को प्रशासन का स्वरूप दिया. एक ने सत्याग्रह को नैतिक शक्ति बनाया, दूसरे ने उसे शासन का सिद्धांत. बारदोली में जिस अनुशासन और आत्मसंयम को उन्होंने किसानों में स्थापित किया, वही आगे चलकर भारतीय राज्य के प्रशासनिक अनुशासन की रीढ़ बना.

“द लीडर” की रिपोर्टिंग से स्पष्ट होता है कि अहिंसक आंदोलनकारी और गृह मंत्री के बीच कोई विरोध नहीं था. दोनों एक ही नैतिक सूत्र से बँधे थे—अनुशासन ही स्वतंत्रता का सर्वोच्च रूप है. बारदोली के किसानों से उन्होंने सत्य के प्रति आज्ञाकारिता सिखाई; और स्वतंत्र भारत के नागरिकों से उन्होंने कानून के प्रति वही आज्ञाकारिता माँगी.

1928 के बारदोली के खेतों से लेकर 1947 के दिल्ली सचिवालय तक एक ही विचार बहता रहा—न्याय से जन्मी दृढ़ता. “द लीडर” ने 1928 में ही यह पहचान लिया था कि पटेल की शक्ति प्रभुत्व में नहीं, बल्कि अंतःकरण की स्पष्टता में है. यही स्पष्टता उन्हें बाद के भारत में एकता और स्थिरता का प्रतीक बनाती है.

इस प्रकार “द लीडर” की दृष्टि में सरदार वल्लभभाई पटेल केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि नैतिक शासन का आदर्श थे—ऐसा व्यक्ति जो भय से नहीं, बल्कि विश्वास से शासन करता है. बारदोली ने उन्हें जो सिखाया, वही उन्होंने स्वतंत्र भारत को सिखाया:
कि सत्य जब अनुशासन से जुड़ता है, तो वह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य को भी विनम्रता सिखा सकता है.

 

बारदोली की नैतिक और राजनीतिक विरासत की समकालीन प्रासंगिकता

जब अगस्त 1928 के अंत में “द लीडर” ने अपने अंतिम संपादकीय में लिखा—“न्याय ने धैर्य के माध्यम से बात की है” (द लीडर, 20 अगस्त 1928, पृ. 1)—तो यह केवल एक घटना का समापन नहीं था, बल्कि एक युग के नैतिक स्वभाव की घोषणा थी. इस वाक्य में बारदोली सत्याग्रह की सम्पूर्ण आत्मा निहित है— एक ऐसा दर्शन जिसमें सत्ता को विवेक के प्रति जवाबदेह ठहराया गया, सत्य को हिंसा के बिना व्यक्त किया गया, और नागरिकता को अनुशासन के माध्यम से परिभाषित किया गया. यही वे मूल्य थे, जिनके कारण बारदोली केवल एक ऐतिहासिक प्रसंग नहीं रहा, बल्कि भारतीय सार्वजनिक जीवन का नैतिक मानक बन गया.

“द लीडर” ने बारदोली सत्याग्रह की व्याख्या केवल राजनीतिक प्रतिरोध के रूप में नहीं, बल्कि नैतिक लोकतंत्र के प्रयोग के रूप में की थी. इस आंदोलन ने यह सिद्ध किया कि न्याय प्राप्त करने के लिए घृणा आवश्यक नहीं, और सामाजिक परिवर्तन हिंसा या आक्रोश के बिना भी संभव है—बशर्ते उसमें नैतिक स्पष्टता और आत्मसंयम हो. जब आज का सार्वजनिक जीवन उथले आक्रोश और उत्तेजना से भरा प्रतीत होता है, तब बारदोली का यह पाठ और भी सार्थक हो उठता है.

सरदार पटेल और “द लीडर” दोनों ने यह दिखाया कि अहिंसा केवल हानि से बचने का साधन नहीं, बल्कि नैतिक तर्क की विधा है. किसानों की चुप्पी को अखबार ने “नैतिक तर्क की भाषा” कहा, और इस चुप्पी को सार्वजनिक शिक्षा का साधन बना दिया. यह वही नैतिक साक्षरता थी जिसने आधुनिक भारत के लिए संयम और विवेक की राजनीति की नींव रखी.

1928 में निर्मित यह नैतिक वास्तुकला आज भी हमारे लोकतंत्र के लिए एक दर्पण है. आज जब संवाद की जगह आरोप, और विचार की जगह सनसनी ने ले ली है, तब “द लीडर” की संयमित पत्रकारिता चेतावनी भी है और उपाय भी. वह हमें स्मरण कराती है कि लोकतंत्र का अस्तित्व आत्मसंयम पर निर्भर है, और प्रेस की स्वतंत्रता तभी सार्थक है जब वह विवेक का माध्यम बने, न कि विभाजन का.

“द लीडर” का यह कथन आज भी प्रासंगिक है—“न्याय के बिना प्रतिष्ठा एक छाया है.” (द लीडर, 9 जुलाई 1928, पृ. 2) यह वाक्य किसी साम्राज्य की नहीं, हर शासन व्यवस्था की कसौटी है. आज जब सत्ता कई बार अपने नैतिक औचित्य से दूर जाती प्रतीत होती है, बारदोली हमें याद दिलाता है कि शासन का वास्तविक अधिकार बल में नहीं, न्याय में निहित है. किसानों का कर न देना केवल अवज्ञा नहीं था, वह शासन को उसकी नैतिक सीमा की याद दिलाने वाला एक संयत आह्वान था—एक आह्वान जो आज के नागरिक आंदोलनों में भी प्रतिबिंबित होता है.

डिजिटल युग में, जहाँ त्वरित प्रतिक्रियाएँ तर्क पर हावी हैं, “द लीडर” का पत्रकारिता-सिद्धांत एक मार्गदर्शन देता है. उसने दिखाया कि संयम ही पत्रकारिता का उच्चतम रूप है. 1928 में संयम से लिखना अहिंसा का अभ्यास था; आज, जब मीडिया आक्रोश को वस्तु बनाकर बेचता है, तो वही संयम क्रांतिकारी शालीनता बन गया है. इस प्रकार “द लीडर” का पहला धर्म तत्कालता नहीं, बल्कि नैतिक स्पष्टता था — और यह स्पष्टता आज की पत्रकारिता के लिए भी उतनी ही अनिवार्य है जितनी स्वतंत्रता के युग में थी.

सरदार पटेल की राजनीति में भी यह नैतिकता प्रशासन का स्वरूप ले लेती है. उनका विश्वास था कि अनुशासन ही स्वतंत्रता का स्थायी आधार है. यही विचार बारदोली से आरंभ हुआ और स्वतंत्र भारत के शासन दर्शन में रूपांतरित हुआ. उन्होंने किसानों में जो आत्मसंयम जगाया, वही बाद में नागरिकता के दायित्व का सिद्धांत बना. आज जब नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ अनेक बार व्यक्तिगत सुविधा तक सीमित कर दी जाती है, बारदोली हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल अधिकार नहीं, बल्कि आत्म नियंत्रण भी है.

“द लीडर” में उभरे शब्द— न्याय, विवेक, कर्तव्य, सत्य और अनुशासन— भारत के लोकतंत्र की स्थायी शब्दावली बन गए. ये शब्द बताते हैं कि किसी राष्ट्र की सेहत केवल उसकी आर्थिक या तकनीकी प्रगति से नहीं, बल्कि उसके संवाद की शालीनता और नैतिक गहराई से मापी जाती है. बारदोली के किसान कम बोले, पर उनकी चुप्पी ने राजनीति को आत्मबल दिया; “द लीडर” के पत्रकार संयत थे, पर उनका गद्य देश के विवेक को दिशा देता रहा.

आज के राजनीतिक परिदृश्य में बारदोली की विरासत नेतृत्व की परिभाषा को भी पुनः स्थापित करती है. “द लीडर” ने सरदार पटेल को “बुद्धिमान, निडर और पितृतुल्य” कहा था (द लीडर, 7 जुलाई 1928, पृ. 1) — यह नेतृत्व की ऐसी छवि है जो लोकप्रियता से अधिक विश्वसनीयता पर आधारित है. जब राजनीति दृश्यता की चकाचौंध में खो जाती है, तब पटेल का यह आदर्श हमें याद दिलाता है कि सच्चा नेता वही है जो जनता के भावनात्मक विश्वास और नैतिक अनुशासन दोनों को एक साथ बनाए रख सके.

सामाजिक दृष्टि से भी बारदोली की विरासत अति महत्त्वपूर्ण है. 1928 का किसान आंदोलन आर्थिक असमानता के विरुद्ध जितना था, उतना ही वह नैतिक असमानता के विरुद्ध भी था. “द लीडर” ने चेताया था कि “न्याय के बिना कानून, प्रक्रिया द्वारा अत्याचार है.” (द लीडर, 14 जुलाई 1928, पृ. 1) यह वाक्य आज के प्रशासनिक युग में उतना ही सच है जितना औपनिवेशिक शासन में था. नीति चाहे कितनी भी सुव्यवस्थित हो, यदि उसमें करुणा का अभाव है, तो वह स्थिरता नहीं, अशांति उत्पन्न करती है.

बारदोली ने यह भी दिखाया कि शासन और समाज का संबंध विरोध का नहीं, संवाद का होना चाहिए. जब गवर्नर शिमला जाकर वायसराय से परामर्श करने गए, “द लीडर” ने लिखा—“वह केवल वायसराय से नहीं, बल्कि साम्राज्य की अपनी अंतरात्मा से भी परामर्श करने जा रहे हैं.” (द लीडर, 15 जुलाई 1928, पृ. 2) यह वाक्य आज भी शासन के लिए नैतिक आदेश की तरह है—जब प्रशासनिक उपाय असफल हों, तब आत्मचिंतन ही एकमात्र उपाय बचता है.

समकालीन राजनीति के ध्रुवीकरण के युग में, बारदोली की अहिंसा संवाद की पुनर्स्थापना का मार्ग सुझाती है. किसानों का अपने शासकों के प्रति घृणा से रहित प्रतिरोध उनकी बुद्धिमत्ता थी, उनकी कमजोरी नहीं. “द लीडर” ने ठीक ही लिखा—“बारदोली की असली जीत सत्ता को झुकाने में नहीं, बल्कि सुनने को बाध्य करने में है.” (द लीडर, 15 जुलाई 1928, पृ. 1) यह विचार आज भी लोकतांत्रिक विमर्श का आदर्श हो सकता है—कि संवाद की शक्ति, संघर्ष से अधिक टिकाऊ होती है.

डिजिटल और राजनीतिक अव्यवस्था के इस युग में, बारदोली का उदाहरण हमें सिखाता है कि सत्य का संरक्षण केवल नैतिक संयम से संभव है. जिस प्रकार “द लीडर” ने गलत सूचना, सनसनी और उग्रता से परहेज किया, उसी प्रकार आज की पत्रकारिता को भी विवेक और प्रमाण की उसी पद्धति को अपनाना होगा. आधुनिक “डिजिटल सत्याग्रह” का अर्थ यही है—असत्य के विरुद्ध संयमित सत्य का प्रतिरोध.

“द लीडर” ने बारदोली को “आत्म-संयम का जन-विश्वविद्यालय” कहा था (द लीडर, 7 जुलाई 1928, पृ. 1)—यह रूपक आज भी उतना ही अर्थपूर्ण है. लोकतंत्र की निरंतरता इसी शिक्षा पर निर्भर करती है कि नागरिक केवल प्रतिक्रिया न करें, बल्कि आत्म-नियंत्रण और विवेक के साथ विचार करें. हर नागरिक इस नैतिक विश्वविद्यालय का विद्यार्थी है—जहाँ धैर्य, सहानुभूति और तर्क की शिक्षा मिलती है.

“द लीडर” की पत्रकारिता ने यह भी दिखाया कि असहमति में भी एकता संभव है. मोतीलाल नेहरू, सप्रू, जिन्ना और चिंतामणि—सभी विचारधाराओं के नेता एक ही पृष्ठ पर प्रकाशित हुए. यह संपादकीय निर्णय भारत की राजनीतिक संस्कृति के लिए एक गहरा संदेश था—कि विचारों की भिन्नता के बावजूद नैतिक एकता संभव है. आज जब संवाद की जगह ध्रुवीकरण ने ले ली है, “द लीडर” की यह परंपरा हमें सिखाती है कि सत्य ही वह केंद्र है जो विचारों को जोड़ सकता है.

बारदोली का यह नैतिक अनुशासन केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक मार्गदर्शक बन सकता है. हिंसा, असमानता और पर्यावरणीय संकट से जूझते वैश्विक समाज में अनुशासित करुणा का यह मॉडल अत्यंत प्रासंगिक है. बारदोली के किसानों ने जीतने के लिए नहीं, बल्कि सुधार के लिए संघर्ष किया था; उन्होंने बिना घृणा के न्याय की माँग की थी. उनके धैर्य और “द लीडर” के संतुलित शब्दों में दुनिया ने पहली बार अहिंसक शक्ति के वैश्विक स्वरूप को देखा—एक ऐसा प्रतिरोध जो अपने विरोधी को भी आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करता है.

इसलिए बारदोली की प्रासंगिकता उसकी प्राचीनता में नहीं, बल्कि उसकी पुनरावृत्ति में है. हर बार जब कोई नागरिक शांतिपूर्वक न्याय की माँग करता है, जब कोई पत्रकार सत्य की रक्षा में संयमित शब्द चुनता है, जब कोई नेता विनम्रता से बोलता है, बारदोली फिर से जीवित हो उठता है.

“द लीडर” का अंतिम संदेश आज भी उतना ही प्रखर है—“नैतिक अधिकार, राजनीतिक अधिकार से अधिक स्थायी होता है.” यही वह सत्य है जो बारदोली के खेतों से निकला और भारतीय लोकतंत्र की आत्मा बन गया.

इस प्रकार, जुलाई–अगस्त 1928 के पन्नों से एक ऐसा नैतिक ढाँचा उभरता है जो आज भी लोकतांत्रिक जीवन की धुरी है. यहाँ सत्य और कोमलता, शक्ति और धैर्य, कानून और करुणा — सब एक दूसरे में घुलकर उस सार्वजनिक संस्कृति का निर्माण करते हैं, जिसे “द लीडर” ने अपने गद्य में मूर्त रूप दिया.

सरदार वल्लभभाई पटेल का संयमित प्रतिरोध, किसानों का मौन साहस और “द लीडर” की नैतिक पत्रकारिता मिलकर न्याय का वह व्याकरण रचते हैं, जिसका वाक्य-विन्यास आज भी अधूरा नहीं, बल्कि जीवित है. हर युग का सच्चा कार्य यही है कि वह इस अधूरे वाक्य में एक और पंक्ति जोड़े —
एक पंक्ति जो यह कहे कि विवेक, जब जागृत होता है, तो फिर कभी नहीं सोता.

 

 

निष्कर्ष

बारदोली सत्याग्रह केवल किसानों और सरकार के बीच एक कर-विवाद नहीं था; यह औपनिवेशिक शासन की नैतिक वैधता और भारतीय समाज की आत्मा के बीच चल रहा एक अंतरात्मा का संवाद था. जुलाई–अगस्त 1928 के महीनों में “द लीडर” ने इस संवाद को न केवल शब्दों में रूपांतरित किया, बल्कि उसे भारत के उभरते सार्वजनिक विवेक का स्वर बना दिया. इस अखबार ने जिस नैतिक भाषा में संघर्ष का चित्रण किया, उसने भारत में पत्रकारिता, राजनीति और नागरिकता के संबंध को हमेशा के लिए बदल दिया.

“द लीडर” की रिपोर्टिंग और उसके संपादकीय लेखन ने दिखाया कि पत्रकारिता केवल सूचना का माध्यम नहीं, बल्कि सत्य का सामाजिक अनुशासन भी है. इस अखबार के पन्नों पर घटनाएँ नहीं, बल्कि विवेक का क्रमिक विकास दर्ज हुआ. प्रत्येक रिपोर्ट, प्रत्येक संपादकीय, एक नैतिक प्रमाण की तरह था—यह दर्शाते हुए कि शब्द, यदि संयम और ईमानदारी से बोले जाएँ, तो वे भी न्याय की तरह परिवर्तनकारी हो सकते हैं. 1928 की उस गर्मी में जब बारदोली के किसान कर न देने की प्रतिज्ञा निभा रहे थे, उसी समय इलाहाबाद में “द लीडर” का संपादकीय कक्ष अपने शब्दों के माध्यम से एक अहिंसक सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण कर रहा था—एक ऐसा क्षेत्र जहाँ विरोध का आधार घृणा नहीं, बल्कि विवेक था.

इस संघर्ष में तीन शक्तियाँ साथ-साथ सक्रिय थीं— किसानों का अनुशासन, सरदार पटेल का संयमित नेतृत्व, और द लीडर की नैतिक पत्रकारिता.ये तीनों मिलकर उस त्रिमूर्ति का निर्माण करती हैं जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक स्थायी नैतिक ऊँचाई दी. किसानों ने अपने मौन धैर्य से यह दिखाया कि आत्म-संयम ही असली शक्ति है; पटेल ने इस शक्ति को संगठन में ढाला और अहिंसा को प्रशासनिक व्यावहारिकता में रूपांतरित किया; और “द लीडर” ने इस पूरी प्रक्रिया को शब्दों में रूप दिया, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ समझ सकें कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक साधना है.

इस दृष्टि से बारदोली सत्याग्रह भारत के स्वतंत्रता संग्राम का नैतिक मोड़ था—एक ऐसा मोड़ जहाँ राजनीति का केंद्रबिंदु सत्ता से हटकर विवेक पर आ गया. “द लीडर” ने अपने संयमित और सटीक गद्य से इस परिवर्तन को ऐतिहासिक गहराई दी. उसने दिखाया कि किसी भी समाज की स्थायी स्वतंत्रता का आधार क्रांति नहीं, बल्कि करुणा और न्याय की संवेदना होती है. यही वह भाव था जिसे अखबार ने अपने हर संपादकीय में प्रतिध्वनित किया.

सरदार वल्लभभाई पटेल का इस संघर्ष में उभरता हुआ व्यक्तित्व, “द लीडर” की दृष्टि से, भारत के भविष्य का नैतिक रूपक था. अखबार ने उन्हें एक प्रांतीय नेता के बजाय एक नैतिक प्रशासक के रूप में देखा— ऐसा व्यक्ति जो तर्क से शासन करता है, न कि भय से; जो अनुशासन को दंड नहीं, बल्कि आत्म-नियंत्रण की साधना मानता है. यह वही पटेल थे जिन्होंने आगे चलकर भारत की रियासतों को बिना बल प्रयोग के एकता में बाँधा. “द लीडर” की रिपोर्टिंग ने पहले ही 1928 में इस परिवर्तन की भविष्यवाणी कर दी थी— कि बारदोली का संयम एक दिन दिल्ली के शासन का स्वभाव बनेगा.

यह निष्कर्ष इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह दिखाता है कि अहिंसा और पत्रकारिता एक ही नैतिक परंपरा के दो रूप हैं. पटेल के नेतृत्व में जहाँ बारदोली के खेतों में सत्याग्रह चल रहा था, वहीं इलाहाबाद के प्रेस में “द लीडर” उसका बौद्धिक समकक्ष बना हुआ था. दोनों ने एक-दूसरे को परिपूरक बनाया— किसान प्रतिरोध कर रहे थे, पत्रकार विवेक का साक्ष्य दे रहे थे; वहाँ मौन अनुशासन था, यहाँ संयमित वाणी. इस प्रकार, आंदोलन और पत्रकारिता एक ही नैतिक प्रक्रिया में एकीकृत हो गए.

“द लीडर” की यह भूमिका भारतीय प्रेस के इतिहास में एक आदर्श मिसाल बन गई. तिलक की ‘केसरी’ या अरबिंदो की ‘बंदे मातरम’ जहाँ भावनात्मक राष्ट्रवाद का प्रतीक थे, वहीं “द लीडर” ने नैतिक तर्कवाद का आदर्श स्थापित किया. इसने दिखाया कि राष्ट्र निर्माण केवल जोश से नहीं, बल्कि विवेक से होता है; कि सत्य का प्रचार उग्रता से नहीं, बल्कि सटीकता और संतुलन से होता है. इस अखबार की भाषा गांधी की सत्याग्रह परंपरा का गद्य रूप बन गई—  शांत, दृढ़, और गहराई से नैतिक.

बारदोली की घटनाओं ने यह सिद्ध किया कि सत्य जब धैर्य से अनुशासित होता है, तो सबसे शक्तिशाली साम्राज्य भी झुकने को विवश हो जाता है. यही भारत की अहिंसक राजनीति का शाश्वत सिद्धांत बन गया. पटेल और उनके अनुयायियों की जीत भले ही प्रशासनिक अर्थों में सीमित प्रतीत हुई हो, पर नैतिक अर्थों में वह एक ऐसी क्रांति थी जिसने भारत के शासन और नागरिकता की भाषा को हमेशा के लिए बदल दिया. इसने सिखाया कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि चरित्र का रूपांतरण है.

इस पूरी प्रक्रिया में “द लीडर” की पत्रकारिता एक नैतिक विद्यालय की तरह कार्य करती रही. उसने अपने पाठकों को सिखाया कि समाचार केवल घटनाओं की सूचना नहीं देता, बल्कि विवेक का प्रशिक्षण देता है. उसकी रिपोर्टिंग ने जनता को भावनाओं से नहीं, विचार से जोड़ा. इस अखबार ने भारतीय प्रेस को यह बोध कराया कि तटस्थता और नैतिकता परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि परस्पर पूरक हैं. इसने सिद्ध किया कि सत्य की सेवा करने के लिए पक्षपात की आवश्यकता नहीं, केवल ईमानदारी की आवश्यकता है.

बारदोली सत्याग्रह और “द लीडर” की भूमिका का सबसे स्थायी योगदान यह है कि इसने भारतीय लोकतंत्र की नैतिक भाषा तैयार की. इस आंदोलन ने वह शब्दावली दी जो आज भी हमारे लोकतांत्रिक जीवन में गूँजती है— ‘विवेक’, ‘कर्तव्य’, ‘अनुशासन’, ‘सत्य’ और ‘न्याय’. इन शब्दों के अर्थ 1928 में जिस सादगी और गहराई से व्यक्त हुए थे, वही आज भी भारतीय राजनीति की नैतिक रीढ़ हैं. जब पटेल ने कहा, “अगर मैं गिरफ्तार हो जाऊँ, तो खुश रहना” और जब “द लीडर” ने लिखा, “प्रतिष्ठा न्याय का विकल्प नहीं हो सकती”, तब इन पंक्तियों ने भारत के नैतिक लोकतंत्र का बीज बो दिया था.

स्वतंत्रता के बाद भी इन विचारों की प्रतिध्वनि समाप्त नहीं हुई. “द लीडर” ने पत्रकारिता को केवल औपनिवेशिक प्रतिरोध का औज़ार नहीं, बल्कि शासन की नैतिक निगरानी का माध्यम बना दिया. यह परंपरा आज भी जीवित है—  जब भी पत्रकार सत्ता से प्रश्न पूछता है, जब भी कोई नागरिक विवेक के आधार पर अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है, तब बारदोली की आत्मा पुनः जाग उठती है.

अंततः, यह निष्कर्ष हमें इस गहरी समझ तक ले जाता है कि बारदोली सत्याग्रह भारतीय इतिहास में केवल एक “घटना” नहीं था; वह भारत की आत्मा का एक आरसा था. उसने यह दिखाया कि किसी भी समाज का वास्तविक उत्थान तब होता है जब उसके संघर्ष और उसकी अभिव्यक्ति दोनों नैतिकता में निहित हों. किसानों का धैर्य, पटेल का नेतृत्व और “द लीडर” की पत्रकारिता — इन तीनों ने मिलकर उस नैतिक ढाँचे का निर्माण किया जिस पर आधुनिक भारत की आत्मा टिकी है.

इसलिए, जब हम बारदोली को याद करते हैं, तो हमें केवल सरदार पटेल या किसानों के अनुशासन की स्मृति नहीं करनी चाहिए; हमें “द लीडर” के उन पन्नों को भी याद करना चाहिए, जिनमें शब्दों ने न्याय का रूप लिया, और रिपोर्टिंग एक नैतिक कर्म बन गई. यह वही क्षण था जब पत्रकारिता और सत्याग्रह एक-दूसरे के प्रतिबिंब बन गए—  एक ने जनता को बोलना सिखाया, दूसरे ने सत्ता को सुनना.

और शायद यही इस शोध का सबसे गहरा अर्थ है— कि सत्य, जब धैर्य से बोला जाए, तो वह केवल इतिहास नहीं लिखता, बल्कि इतिहास को दिशा देता है.

आभार- मैं अपने शोध निर्देशक प्रोफ़ेसर बद्री नारायण और जी. बी. पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान की निदेशक डॉ. अर्चना सिंह के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने अपने व्यस्ततम समय में मुझे हमेशा सुना और आवश्यक सुझाव दिए. मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुस्तकालयाध्यक्ष प्रोफ़ेसर बी. के. सिंह के प्रति आभारी हूँ जिन्होंने केंद्रीय पुस्तकालय में उपलब्ध ‘द लीडर’ की प्रतियों को उपलब्ध कराया.

इस आलेख में हुए अनुवाद लेखक ने स्वयं किए हैं.

 

प्राथमिक स्रोत

द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 5). “बारदोली स्ट्रगल: डिमांड फॉर री-एग्ज़ैमिनेशन ऑफ रिवाइज़्ड असेसमेंट” पृ. 1.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 5). “बॉम्बे लेटर” पृ. 2.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 6). “द बारदोली सिचुएशन” पृ. 3–4.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 6). “द बारदोली डेडलॉक” पृ. 5.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 7). “बारदोली” पृ. 1.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 8). “बॉम्बे लेटर: द बारदोली स्ट्रगल” पृ. 2–3.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 9). “बारदोली स्ट्रगल—इंडिपेंडेंट इन्क्वायरी डिमांडेड बाय मोतीलाल नेहरू, सप्रू, अली इमाम, एंड चिंतामणि” पृ. 1–2.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 11). “द बारदोली केस—नेशनलिस्ट पार्टीज़ रेज़ोल्यूशन” पृ. 1.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 14–15). “बारदोली डेडलॉक—गवर्नर’स कन्सल्टेशन विथ द वाइसरॉय” पृ. 1–2.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 17). “बॉम्बे करेस्पॉन्डेन्स: बारदोली, द मॉरल कैपिटल ऑफ इंडिया” पृ. 3.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 21). “एडिटोरियल: बारदोली ऐज़ अ स्कूल ऑफ कैरेक्टर” पृ. 3.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 25). “एडिटोरियल: प्रेस एंड रिस्पॉन्सिबिलिटी” पृ. 2.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, जुलाई 28). “एडिटोरियल: अ जस्ट सेटलमेंट” पृ. 2.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, अगस्त 4). “बॉम्बे लेटर: द विक्ट्री ऑफ पेशेंस” पृ. 1.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, अगस्त 12). “ऑफिशियल नोटिफिकेशन: इन्क्वायरी इन्टू बारदोली असेसमेंट ऑर्डर्ड” पृ. 1.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, अगस्त 15). “एडिटोरियल: विक्ट्री ऑफ ट्रुथ एंड डिसिप्लिन” पृ. 2.
द लीडर (इलाहाबाद). (1928, अगस्त 20). “एडिटोरियल: बारदोली एंड आफ्टर” पृ. 1.

गोविन्द निषाद आज़मगढ़ (उत्तर प्रदेश), की कविताएँ, कहानियाँ और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं. वे रचनात्मक लेखन और शोध, दोनों क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय हैं और अलग से रेखांकित करने योग्य हैं. वर्तमान में वे जी.बी. पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में शोधरत हैं.
संपर्क: govindgbpssi@gmail.com

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Comments 1

  1. Ashutosh Kumar says:
    53 minutes ago

    सार्थक सुव्यवस्थित और दृष्टि संपन्न अध्ययन। अगर लेखक निष्कर्ष वाले खंड में इस तरह के एकाध सामान्यीकरण से बच पाते तो अच्छा होता:
    ‘…यह वही पटेल थे जिन्होंने आगे चलकर भारत की रियासतों को बिना बल प्रयोग के एकता में बाँधा. “द लीडर” की रिपोर्टिंग ने पहले ही 1928 में इस परिवर्तन की भविष्यवाणी कर दी थी—कि बारदोली का संयम एक दिन दिल्ली के शासन का स्वभाव बनेगा…..’ रियासतों के एकीकरण में बल का प्रयोग एक सच्चाई है, जो हर जगह संयमित नहीं था।

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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