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समालोचन

Home » विनोद कुमार शुक्ल और उनकी अंतिम कविता : सुदीप ठाकुर

विनोद कुमार शुक्ल और उनकी अंतिम कविता : सुदीप ठाकुर

विनोद कुमार शुक्ल के सहज, लगभग निर्विकार जीवन को वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सुदीप ठाकुर ने निकट से देखा है. लेखन की अंतर्ध्वनियों के साक्षी रहे हैं. अब जब अवसान की इस घड़ी में एक विराट शून्य है वह और गहराई से प्रतिध्वनित हो रहे हैं. यही लेखक का उत्तर-जीवन है. सुदीप ठाकुर के इस स्मरण में वैसी ही सादगी है. विनोद कुमार शुक्ल की ही तरह. उनकी अंतिम कविता भी दी जा रही है जो उनके शिल्प और सोच का प्रतिनिधित्व करती है. प्रस्तुत है.

by arun dev
December 25, 2025
in आलेख
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विनोद कुमार शुक्ल और उनकी अंतिम कविता : सुदीप ठाकुर
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विनोद कुमार शुक्ल की तरह
सुदीप ठाकुर

वर्ष 1999 के आसपास की बात होगी. इटली और लंदन के प्रवास से लौटने के कुछ दिनों बाद विनोद कुमार शुक्ल देशबंधु, रायपुर के दफ्तर आए थे, जैसा कि वह अमूमन वहाँ आते रहते थे. उनसे बात करना हमेशा सुखद रहा है. यह उनकी पहली विदेश यात्रा थी. वहाँ वह इतालवी और हिंदी की विद्वान मेरियालो आफ्रीदी के बुलावे पर गए थे. मेरियालो आफ्रीदी ने विनोद जी की रचनाओं का हिंदी से इतालवी में अनुवाद कर रखा था और इस सिलसिले में रायुपर भी आ चुकी थीं.

मेरियालो आफ्रीदी के रायपुर प्रवास के दौरान वह यहाँ सरकारी गेस्टहाउस में ठहरी थीं और मुझे एक दो बार उन्हें लेकर विनोद जी के घर जाने का मौका भी मिला था. इसके अलावा उस प्रवास के दौरान मैंने आफ्रीदी का एक साक्षात्कार देशबंधु की मासिक पत्रिका अक्षर पर्व के लिए किया था.

विनोद जी उस दिन देशबंधु के दफ्तर में हम लोगों के साथ बैठे थे. हम सबकी उत्सुकता यह जानने में थी कि इटली और लंदन में उनका अनुभव कैसा रहा.

विनोद कुमार शुक्ल जी की सहजता के बारे में दोहराने की जरूरत नहीं है. और उनके सहज संकोच के बारे में भी. वह रायपुर से बहुत कम बाहर निकलते थे.

फैलोशिप की वजह से उन्हें भोपाल और वर्धा में रहना पड़ा था. वरना उनका लंबा वक्त रायपुर में ही बीता. दिल्ली औऱ भोपाल जैसे शहरों को लेकर उनमें कुछ खास आकर्षण नहीं था.

ऐसे में इटली जाने के उनके अनुभव और वहाँ के उनके संस्मरण सुनने की सहज उत्सुकता थी. विदेश जाने को लेकर एक झिझक यह भी थी कि वहाँ उन्हें कैसा भोजन मिलेगा.

इटली में मेरियालो आफ्रीदा ने विनोद कुमार शुक्ल के ठहरने की व्यवस्था हिंदी की एक छात्रा के साथ कर रखी थी. विनोद जी ने उसके बारे में बताना शुरू किया तो लगा जैसे वह सामने खड़ी है. इतने बरसों में उसका नाम मेरे जेहन से उतर गया है. विनोद जी ने कहा,

‘मैंने उससे कहा कि मैं तो भात खाता हूँ.’

 फिर उन्होंने उसे भात बनाना सिखाया.  वह बताने लगे,

‘मैंने उससे कहा कि चावल के साथ दो-तीन आलू भी साथ में उबालने के लिए डाल दें, तो सब्जी का काम भी बन जाएगा.’

इस तरह उन्होंने उस इतालवी लड़की को भात और आलू की सब्जी बनाना सिखा दिया. उसे याद करते हुए विनोद कुमार शुक्ल बहुत भावुक हो गए थे.

कहने लगे,

‘मैं जब लौट रहा था, तो विमान में बैठे हुए सोच रहा था कि जब घर लौटूंगा तो मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बैठकर दुनिया का नक्शा जमीन पर बिछाकर इटली पर अंगुली रख कर उस लड़की का नाम पुकारूंगा तो लगेगा जैसे वह सामने खड़ी है!’

दरअसल उनकी कविता का फलक संसार के मानचित्र जितना बड़ा था.

चित्र सुदीप ठाकुर के सौजन्य से

विनोद कुमार शुक्ल ने जीवन को इतनी ही सहजता से देखा-जिया. उन्हें अपनी रचनाओं में बिंब की तलाश अलग से नहीं करनी पड़ी. जो है, वही बिंब है. जैसे सबह छह बजे का वक्त सुबह छह बजे की तरह.

जिस जादुई यथार्थ की बात उनके उपन्यासों के संदर्भ में की जाती है, दरअसल उनमें जीवन के कुछ विलक्षण अनुभव भी हैं.

उनके उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी, को लेकर काफी कुछ कहा गया है. रघुवर प्रसाद के हाथी से स्कूल जाने वाला दृश्य कोरी कल्पना नहीं है. यह विनोद जी के अपने जीवन से उपजा अनुभव है.

जबलपुर के कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के कुछ बरस बाद विनोद कुमार शुक्ल जी रायपुर स्थित कृषि विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बन गए थे. अविभाजित मध्य प्रदेश का रायपुर एक प्रमुख शहर तो था, लेकिन उसका विस्तार नहीं हुआ था. कृषि विश्वविद्यालय शहर से दूर था. एक बार कोई साधन नहीं मिलने पर उधर से गुजर रहे एक महावत ने उन्हें अपने हाथी पर बिठा लिया था और इस तरह वह विश्वविद्यालय पहुंचे थे!

मणि कौल जब नौकर की कमीज पर फिल्म बना रहे थे, उस समय मैंने देशबंधु के लिए ही विनोद कुमार शुक्ल जी का एक लंबा इंटरव्यू किया था और यह 4 अगस्त, 1996 को देशबंधु में प्रकाशित हुआ था. मैंने उनसे जानना चाहा था कि फिल्मांकन में उनकी कहानी का मूल भाव तो नहीं बदल जाएगा. जैसे नौकर की कमीज के संता बाबू संता बाबू की तरह ही लगेंगे या कुछ और हो जाएंगे?

विनोद जी मणिकौल को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे. उन्होंने कहा, फिल्म के दृश्यांकन के समय कैमरामैन का हस्तक्षेप नहीं होगा. कैमरा कैमरामैन की आंखों से नहीं देखेगा, बल्कि केवल दृश्यों को कैद करेगा.

मणि कौल जो कैमरे की आंख से देखने की बात करते हैं, शायद उनका आशय होगा कि वे जो कहना चाहते हैं, वह अंधेरे में है, कैमरा टार्च की रोशनी की तरह पड़े, इस रोशनी के सहारे जिसे पाना है, उसे पाने की कोशिश की जाए. रचनाकार या फिल्मकार अपनी रचना से जो कहना चाहता है, वह उसे पाने की कोशिश करना ही है. यह पाना किसी चीज को अंधेरे में ढूंढ़ने की तरह होता है.’

उसी साक्षात्कार में मैंने विनोद जी से पूछा था, एक कवि के लिए गद्य लिखना और उस गद्य पर फिल्म बनना कैसा अनुभव है?

उनका जवाब थाः

‘आदमी सारी जिंदगी केवल एक कविता लिखता है टुकड़ों टुकड़ों में. कविता को उपन्यास की तरह पढ़ा जाना चाहिए. गद्य में कविता का विस्तार होता है और कविता में गद्य संक्षिप्त. इस संक्षिप्त में शब्दों के बीच विस्तृत अंतराल होता है और उसके अर्थ घुमड़ते हैं. गद्य के लैंडस्केप में जगह जगह कविता के दृश्य मिलते हैं. एक पेड़ कविता के पेड़ की तरह दिख सकता है. चाहे वह कंटीला पेड़ ही क्यों न हो, कविता हमेशा गद्य के एक मुकाम की तरह है. गद्य की यह व्यावहारिकता है कि जब तक उसका कविता के साथ मेलजोल हो. कविता में अमावस की रात का एक नक्षत्र पिछवाड़े में पड़ा मिल सकता है. और इसकी प्रामाणिकता कविता का तर्क है. दरअसल कविता एक छना हुआ गद्य है. मुझे हमेशा गद्य के रास्ते में कविता मिलती है.’

विनोद जी अपनी कविताओं और गद्य में जिस तरह के शब्द चित्र खींचते हैं, वह कैमरे की दृष्टि जैसे ही लगते हैं.

जैसे यही कविता देखें-

जंगल के दिनभर के सन्नाटे में
महुआ टपकने की आवाज़ आती है
और शाम को हर टप! के साथ
एक तारा अधिक दिखने लगता है
जैसे आकाश में तारा टपका है
फिर आकाश भर जाता है
जैसे जंगल भर जाता है

आदिवासी लड़की, लड़के, स्त्री जन
अपनी टोकनी लेकर महुआ बीनने
दिन निकलते ही उजाले के साथ-साथ
जंगल में फैल जाते हैं

एक आदिवासी लड़की
महुआ बीनते-बीनते
एक बाघ देखती है
जैसे जंगल में
एक बाघ दिखता है.
आदिवासी लड़की को बाघ
उसी तरह देखता है
जैसे जंगल में एक आदिवासी लड़की दिख जाती है
जंगल के पक्षी दिख जाते हैं
तितली दिख जाती है-
और बाघ पहले की तरह
सूखी पत्तियों पर
जंभाई लेकर पसर जाता है

एक अकेली आदिवासी लड़की को
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता
बाघ-शेर से डर नहीं लगता
पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से
डर लगता है.

बाजार का दिन है
महुआ की टोकनी सिर पर लिए बोहे
या कांवर पर
इधर उधर जंगल से
पहाड़ी के ऊपर से उतर कर
सीधे-सादे वनवासी लोग
पेड़ के नीचे इकठ्ठे होते हैं
और इकठ्ठे बाजार जाते हैं.

(जंगल के दिनभर के सन्नाटे में)

कई दशक पहले लिखी गई यह कविता बस्तर के मौजूदा हालात को देखकर कहीं आज अधिक प्रासांगिक हो गई है. यह कविता कदाचित उन सवालों का जवाब भी है, जिनमें अक्सर कहा जाता है कि विनोद जी मौजूदा सवालों पर क्यों बात नहीं करते.

विनोद कुमार शुक्ल ने सार्वजनिक उपस्थिति के बजाए अपनी प्रतिबद्धता जताने के लिए अपने लेखन को ही माध्यम चुना. खासतौर से कविताओं को.

विनोद कुमार शुक्ल अपने छात्र जीवन में ही गजानन माधव मुक्तिबोध के संपर्क में आ गए थे. यह तो जगजाहिर है कि मुक्तिबोध साफ वैचारिक राजनीतिक दृष्टि के पक्षधर थे. उनका यह जुमला हिंदी में कालजयी हो ही चुका है, पार्टनर तुम्हारा पॉलिटिक्स क्या है?

विनोद कुमार शुक्ल से शुरुआती मुलाकातों में ही मुक्तिबोध ने कहा था कि अपनी पॉलिटिक्स साफ करो और यह मुक्तिबोध ही थे, जिन्होंने विनोद कुमार शुक्ल की रचनाएं सबसे पहले प्रकाशित होने के लिए भेजी थीं.

विनोद कुमार शुक्ल प्रतिरोध के कवि नहीं हैं. अशोक वाजपेयी ने उनके बारे में हाल ही में लिखा था,

‘बड़बोले, बेसुरे नायकों से आक्रांत समय में अनायकता के गाथाकार.’

 

विनोद कुमार शुक्ल के साथ सुदीप ठाकुर. चित्र सुदीप ठाकुर के सौजन्य से

विनोद कुमार शुक्ल जी से मुझे कई साक्षात्कार करने के मौके मिले. इनमें से एक साक्षात्कार मैंने 2015 में तब लिया था जब कन्नड़ लेखक और तर्कशास्त्री एम एम कलबुर्गी और शिवाजी की जीवनी लेखक गोविंद पनसारे की हत्या के विरोध में अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल जैसे साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिए थे.

मैंने विनोद कुमार शुक्ल से उनका पक्ष जानना चाहा था, तब उन्होंने कहा था,

“मैं पुरस्कार लौटा नहीं रहा हूँ. जिस तरह की कट्टरता दिखाई दे रही है, जिसमें अब तो हत्याएं भी हो रही हैं, मैं उसका विरोध करता हूँ. लेकिन विरोध के रूप में पुरस्कार लौटाने को मैं विकल्प की तरह नहीं देखता. जिस वक्त मुझे पुरस्कार मिला था, तब मैंने उसे तमगे की तरह लिया था. अब मीडिया में जिस तरह की बातें हो रही हैं, उससे लगता है जैसे यह कोई दाग है और इसको वापस कर देंगे, तो बेदाग हो जाएंगे. 1999 में मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था और अब पंद्रह-सोलह वर्ष तो हो ही गए हैं इस पुरस्कार से गौरवान्वित हुए. इस गौरवान्वित होने को कैसे वापस किया जाएगा? मुझे यह पुरस्कार मिला है, यह तो रहा ही आएगा. इस सचाई को कैसे झुठलाया जाए.”

इसी बातचीत में मैंने उनसे साहित्यकारों की राजनीतिक विचारधारा को लेकर पूछा था तो उन्होंने कहा था, मेरी दृष्टि में तो मनुष्यता सबसे बड़ी राजनीति है. किसी भी तरीके से मनुष्यता का पक्ष लेना भी राजनीति है. लेखक लेखन के जरिये ही ऐसा कर सकता है. मैं सड़क पर नहीं उतर सकता.

विनोद कुमार शुक्ल मनुष्यता के गहरे पक्षधर थे. वह जो कुछ भी थे वह उनके लिखे में साफ-साफ है. हिंदी संसार में उनकी उपस्थिति किस तरह की रही है, यह उनके निधन के बाद कहीं अधिक व्यापकता के साथ सामने है.

उनकी कल्पना में घर लौटने के लिए है. दशकों तक वह जिस घर में रहे, वह उनका स्थायी पता बन चुका है. उनकी अनुपस्थिति में भी. वह 1966 में रायपुर आए थे और कुछ बरस बाद उन्होंने शहर के कटोरा तालाब इलाके में एक घर बनाया, जिसे सी-217 के नाम से जाना जाता है.

अपने विस्तार में रायपुर आज पहले जैसा रायपुर नहीं रहा और न ही कटोरा तालाब 1970 के दशक जैसा, जैसा कि प्रसिद्ध कवि सोमदत्त ने अपनी इस कविता में दर्ज किया थाः

क कटोरे का है
कटोरा, समुद्र मंथन के समय देव दानवों का चरित्र उजागर
करता विष का कटोरा हो सकता है
कटोरा, कन्यादान में दिया गया पीले चावलों भरा कांसे का
कटोरा हो सकता है
कटोरा, सूखे से परेशान का ‘धान का कटोरा’ छत्तीसगढ़ हो सकता है
कटोरा, विनोद कुमार शुक्ल का कटोरा तालाब हो सकता

सोमदत्त (किस्से अरबों हैं, पृष्ठ 44)

विनोद कुमार शुक्ल की अंतिम कविता

 

सुदीप ठाकुर के सौजन्य से

यह विनोद जी की आखिरी कविता है. उनके पुत्र शाश्वत ने मुझे बताया था कि जब उन्होंने विनोद जी से कहा कि इसमें कुछ नकारात्मकता है, तो विनोद जी ने कहा यह बहुत सकारात्मक है. बत्ती हम उजाला होने पर बुझाते हैं.

तीन दशक से पत्रकारिता में सक्रिय सुदीप ठाकुर का जन्म छत्तीसगढ़ के बैकुंठपुर (कोरिया) में हुआ. उनका मूल निवास छत्तीसगढ़ का राजनांदगाँव है. प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक ‘देशबन्धु’ और ‘दैनिक भास्कर’, प्रसिद्ध पत्रिका ‘इंडिया टुडे’ (हिन्दी), अमर उजाला’,  में सीनियर रेसिडेंट एडिटर जैसे  अहम पदों पर  रहे हैं.

मध्य भारत के महान आदिवासी नेता लाल श्याम शाह के जीवन पर केन्द्रित उनकी किताब ‘लाल श्याम शाह : एक आदिवासी की कहानी’ काफी चर्चित रही है और उसका मराठी में भी अनुवाद प्रकाशित हो चुका है. ‘दस साल : जिनसे देश की सियासत बदल गई’ उनकी नवीनतम किताब है.

Tags: विनोद कुमार शुक्लविनोद कुमार शुक्ल की अंतिम कवितासुदीप ठाकुर
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Comments 2

  1. Rama Shanker Singh says:
    36 minutes ago

    बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण आलेख है. सुदीप जी का शुक्रिया

    Reply
  2. Vivek Shrivastava says:
    17 minutes ago

    सादगी से के गई इस याद का मूल्य बहुत है. विनोद जी की अंतिम कविता सभी के लिए उपलब्ध करवाना बड़ा काम है जो समालोचन ने किया.. यह महत्वपूर्ण है.

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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