विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 – 5 नवंबर 1982) जितने महत्वपूर्ण कवि थे, उतने ही महत्वपूर्ण आलोचक भी. अपने आलोचनात्मक लेखन और बहसों के जरिए 1950 के बाद के हिंदी माहौल को वैचारिक रूप से आंदोलित करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई. आलोचना में उनकी मौलिक समझ और स्थापनाओं ने नई हलचल पैदा की. जब हिंदी में प्रगतिशील आलोचना का जोर था, तब साही ने वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देशी जमीन निर्मित की. उनके तर्कों और स्थापनाओं की अनदेखी किसी के लिए भी संभव नहीं थी.
साही ने जितना हिंदी आलोचना को जितना लिखकर समृद्ध किया, उतना ही अपने व्याख्यानों के जरिए बहसधर्मी माहौल बनाया. वे बहु भाषाविद् थे. अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी आदि भाषाओं के जानकार होने के कारण उन भाषाओं का साहित्य उनके सामने था. अंग्रेजी भाषा पर अधिकार के कारण देश-दुनिया में चलने वाली साहित्य संबंधी बहसें उनके सामने थीं. यही कारण है कि उनका आलोचनात्मक लेखन विविध सन्दर्भों से समृद्ध है. लेकिन पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति उनकी लारवाही इस क्षेत्र में भी दिखाई देती है. जिस आलोचक ने पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी के वैचारिक माहौल को निरंतर आंदोलित किया, उसकी कोई भी पुस्तक उसके जीवन काल में प्रकाशित न हो सकी. निधन के उपरांत उनके मित्रों और पत्नी के प्रयास से ‘जायसी’ (1983),
‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ (1983),
‘छठवाँ दशक’ (1987),
‘साहित्य क्यों’ (1988) तथा
‘वर्धमान और पतनशील’ (1991) नामक पुस्तकें प्रकाशित हुईं. लोगों का अनुमान है कि उनका अभी और भी आलोचनात्मक लेखन है, जो पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है.
साही आंदोलनधर्मी साहित्यकार थे. वे समाजवादी आंदोलन में अपादमस्तक डूबे हुए थे. लेकिन साहित्य के मूल्यांकन में राजनीतिक टूल्स का इस्तेमाल करने से प्रायः परहेज करते थे. उनके आलोचनात्मक लेखन का मुख्य आधार भारत का सामान्य मनुष्य और साहित्य की साहित्यिकता थी. वे प्रगतिशीलों की तरह ‘साहित्य में राजनीति और राजनीति में साहित्य’ की बात करने के कायल नहीं थे. उन्होंने साहित्य को कभी राजनीतिक विचारों का उपनिवेश नहीं बनने दिया. मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति की वे आलोचना करते रहे. साहित्य का अपना प्रतिरोधी स्वर होता है. साही उसी प्रतिरोधी स्वर को रेखांकित करने का प्रयत्न करते रहे.
सत्य प्रकाश मिश्र ने साही को ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा है. राममनोहर लोहिया ने गाँधीवादियों की तीन कोटियाँ बनाई थीं- मठी गाँधीवादी, सरकारी गाँधीवादी और कुजात गाँधीवादी. लोहिया के अनुसार कुजात गाँधीवादी वे लोग थे जो गाँधीवाद का रचनात्मक विकास कर रहे थे. साही नरेन्द्रदेव की प्रेरणा से समाजवादी आंदोलन में गए थे. नरेन्द्र देव मार्क्सवादी थे. लेकिन उनका मार्क्सवाद लोकतंत्र की जमीन पर खड़ा था. उसमें भारत की परंपराएँ समाहित थीं. साही ने मार्क्सवाद के इसी सार तत्त्व को ग्रहण किया था और उसे भारतीय जमीन पर प्रतिष्ठत करने का संघर्ष किया था. जब उन्हें ‘कुजात मार्क्सवादी’ कहा जा रहा है तो उसका आशय यही है.
साही मानते थे कि ‘साहित्य का दायित्व’ साहित्यकार के दायित्व से अलग नहीं है. वे साहित्यकार और साहित्य के दायित्व में फर्क नहीं करते थे. वे मानते थे कि जो दायित्व साहित्य का है वही दायित्व साहित्यकार का है. दायित्व का बोध साहित्य के भीतर निहित है. वे यह भी मानते थे कि समाज की ओर से बोलने का दायित्व लेखक का ही है. वे इस दायित्व के भीतर परिवर्तन की माँग करते हैं. अपने प्रसिद्ध व्याख्यान ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ में वे कहते हैं:
“……साहित्यकार को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह समाज को संगुम्फित करें. क्योंकि यह जो संगुफन की चिंता घेरती है तो जस-का-तस बने रहना देना चाहिए यह प्रतीति जागती है.”
इसका सीधा अर्थ है कि साहित्य और साहित्यकार के दायित्व में परिवर्तन निहित है. वे मानते थे कि कोई भी सामाजिक या साहित्यिक मूल्य जब बहुत अधिक चिंता का विषय हो जाता है तो वह ‘जस-का-तस’ बनाए रखने की ओर बढ़ता है. वे कहते हैं:
“……समाज को जोड़े रहने के लिए हमें अपने जो परंपरागत सांस्कृतिक मूल्य हैं इन सांस्कृतिक मूल्यों का निरंतर नया-नया आवाहन करने की जरुरत है.”
इसी के साथ वे साहित्यकार से सम्पूर्ण चेतना के दायित्व की माँग करते हैं. इस सम्पूर्ण चेतना के अंतर्गत वे अपनी संस्कृति के प्राणवान मूल्यों और परिवर्तन की चेतना के तनाव की बात करते हैं.
साहित्य के प्रति अपने इसी दायित्व बोध के साथ साही ने ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ निबंध में उस दृष्टिकोण की तीखी आलोचना करते हैं जिसे वे कम्युनिस्ट आलोचना का नाम देते हैं. वे साहित्य को ‘हथियार’ बनाए जाने का विरोध करते हैं और साहित्य-चिंतन को पार्टी लाइन के अनुकूल ढालने का भी.
साही का इतिहास बोध वैज्ञानिकता और तर्कशीलता पर आधारित है. मानव सभ्यता के विकास को वे सामंतवाद और पूँजीवाद के रास्ते समाजवाद की ओर अग्रसर होते हुए देखने के हिमायती हैं. इस दृष्टि से उनके प्रसिद्ध निबंध ‘राजनीति और साहित्य’को देखा जा सकता है. वे मानते हैं कि लम्बे समय तक राजनीति पर धर्म का प्रभुत्व रहा है और उस धर्म आधारित राजनीति ने साहित्य रचना को नियंत्रित किया है. पूँजीवाद ने इस व्यवस्था को चुनौती दी और राजनीति तथा धर्म के नियंत्रण से बहुत हद तक साहित्य को मुक्त किया. लेकिन उनके अनुसार पूँजीवाद एक सीमा तक ही धार्मिक बंधन को कमजोर करता है. उनका मानना है कि धर्म और धार्मिक भावना को तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता जब तक वर्ग संघर्ष की स्थिति समाज में है. वे कहते हैं:
“…..शुद्ध वैज्ञानिक मानवीय दर्शन अपने तार्किक सामंजस्य के कारण वर्गहीन समाज का ही दर्शन होगा. अतएव एक वर्ग के द्वारा दूसरे के शोषण और समाज में चलने वाले द्वंद्व का सामंजस्य कोई भी तार्किक सिद्धांत या सांस्कृतिक मूल्य नहीं कर सकते. वर्ग-समाज वर्ग-मूल्यों को ही जन्म देगा. और चूँकि वर्ग-मूल्य समस्त समाज को निर्द्वंद्व आत्मसात नहीं कर सकते, अतएव अपने अंतिम रूप में वे कभी भी तार्किक या बुद्धिवादी नहीं हो सकते. इस द्वंद्व को न्यायपूर्ण सिद्ध करने या इससे पलायन करने, दोनों ही के लिए बुद्धि विरोधी प्रवृतियों का सहारा लेना पड़ेगा. इससे स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों धर्म को समाज से समूल नष्ट नहीं कर सकता, यद्यपि वह उसे चुनौती दे सकता और कमजोर कर सकता है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों पूँजीवाद के दार्शनिक बुद्धि का सहारा लेकर चलते हुए भी अंत में अनिवार्यतः रहस्यवादी और ईश्वरवादी या धर्मवादी हो जाते हैं.”
पूँजीवादी समाज में धर्म और साहित्य की इस सीमा के रेखांकन के साथ साही साहित्य-रचना के लिए किसी भी एकाधिकारवाद को सही नहीं मानते. वे अगर साहित्य रचना में धार्मिक नियंत्रण की आलोचना करते हैं तो सोवियत संघ में जारी राजनितिक तानाशाही का भी. उनका मानना था कि तानाशाही पर आधारित सोवियत साहित्य प्रचार का साधन हो सकता है, कलात्मक सौंदर्य का नहीं. साहित्य संबंधी सही मार्क्सवादी समझ क्या है, यह स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं:
“मार्क्सवाद साहित्य और कला को वर्ग संघर्ष में केवल प्रचार और शिक्षा का अस्त्र मात्र नहीं मानता, बल्कि वह उसे किसी वर्ग की कलात्मक, सौन्दर्यवान और मानवोचित प्रवृत्तियों की सांस्कृतिक और मानसिक प्रगति का चरम प्रतिफल भी मानता है जिसके कारण मनुष्य के इतिहास में किसी वर्ग अथवा वर्गहीन समाज का मूल्य है. जिस तरह आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का नारा लगाने वाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह राजनीति की तानाशाही में कैद कर के समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करने वाले कला के दुश्मन हैं. मार्क्स साहित्य को इन दोनों संकुचित दृष्टिकोणों से अलग समझता है. वह साहित्य को केवल पार्टी नहीं, पूरे वर्ग के सांस्कृतिक प्रयास की उत्पत्ति मानता है. यह कहने के साथ साही सिद्धांत और मूल्य में फर्क करते हैं. सिद्धांत का संबंध राजनीति से है जबकि मूल्य का संबंध साहित्य और संस्कृति से है. अपने मत पर जोर देने के लिए वे इटली के समाजवादी नेता इग्नेजियो सिलोन के कथन को याद करते हैं: “सिद्धांतों के बल पर हम संप्रदाय स्थापित कर सकते हैं, परन्तु मूल्यों के आधार पर हम संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं. लोकतांत्रिक समाजवाद इस ऐतिहासिक अनुभव को भुलाकर उत्कृष्ट साहित्य की रचना नहीं कर सकता.”
साहित्य संबंधी अपनी इस समझ को साही ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में विस्तार से रखते हैं. उनका मानना है कि मार्क्स और एंगल्स की साहित्य-कला संबंधी धारणाएँ अच्छी हैं. लेकिन प्लेखानोव, कॉडवेल ने जो साहित्य संबंधी मार्क्सवादी समझ विकसित की वह मार्क्स की मूल धारण के विरुद्ध है. साही का विचार है कि कला में सौंदर्य की चिंता छोड़कर ‘प्रवृत्ति’ की ओर झुकाव पैदा करने का काम बाद के मार्क्सवादी विचारकों ने किया. साही लेनिन, स्टालिन आदि की तुलना में ट्राटस्की की साहित्य संबंधी समझ को ज्यादा सही मानते हैं. मार्क्सवादी समीक्षा संबंधी अपनी समझ को स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं:
“मार्क्स साहित्य की एक सार्वभौमिकता की कल्पना करता है जो वर्ग हित ही नहीं, सामाजिक युग को भी पार कर के नए आनंद की सृष्टि करता है. यह विशेषाधिकार अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शन आदि चेतना के अन्य स्तरों को नहीं दिया गया है.”
इसके आगे साही बताते हैं कि साहित्य को ‘युग-युग व्यापी शक्ति’ प्राप्त है. मार्क्सवादी समीक्षा की कम्युनिस्ट परिणति की आलोचना करते हुए साही लिखते हैं:
“…..यह हठ कि साहित्यिक कृतिकार राजनीतिक भूमिका भी ग्रहण करें, राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना में कलाकृतियों को हेय समझा जाए, मार्क्सवादी साहित्यिक दृष्टि की मौलिक अथवा अनिवार्य स्थापना नहीं है. यह घटना बाद में घटी है.”
कला संबंधी अपनी इस समझ के समर्थन में साही ट्राटस्की की रचना ‘साहित्य और क्रांति’ से कई उद्धरण भी देते हैं. एक उद्धरण इस तरह है:
“मार्क्सवादी प्रणाली और कलात्मक प्रणाली एक ही वस्तु नहीं है. पार्टी श्रमिक वर्ग का नेतृत्व करती है, इतिहास की विशाल गति का नहीं. कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें पार्टी स्पष्टतः और आदेशात्मक ढ़ंग से नेतृत्व करती है….. कला का क्षेत्र वह नहीं है जिसमें पार्टी को आदेश देने की आवश्यकता हो. कला की रक्षा करना और सहायता करना पार्टी का काम है, परन्तु नेतृत्व केवल अव्यक्त रूप से ही हो सकता है.”
साहित्य संबंधी अपनी इस समझ के साथ साही ने हिंदी रचना-संसार को आलोचना के जिस व्यावहारिक धरातल पर देखा-परखा, वह हिंदी आलोचना का ऐसा उदहारण है, जिसके मुकाबले दूसरा कोई नाम शायद ही मिले! अपने बहुचर्चित निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ में उन्होंने छायावाद-युग को ‘सत्याग्रह युग’ की संज्ञा दी और गाँधी को ‘हिंदुस्तान की जिन्दागी की लय की अभिव्यक्ति’ माना. वे मानते थे कि ‘हिंदी के छायावदी काव्य में सत्याग्रह युग की भारतीय अनुभूति की पूरी कथा’ लगभग मौजूद है. साही ने इस तरह छायावाद की जो व्याख्या की वह बहुतेरी अन्य व्याख्याओं से सर्वथा भिन्न है. साही लिखते हैं:
“जिस तरह छायावादी युग की चरम आस्था यह है कि अंतर्जगत का सत्य और बहिर्जगत का सत्य एक ही है और दोनों में कभी भी व्यवधान नहीं पैदा हो सकता, उसी तरह उसकी मान्यता की दूसरी आधारशीला यह है कि नैतिक विजन और कल्पनाशील विजन दोनों वस्तुतः एक हैं और इन दोनों में कभी भी दरार नहीं पड़ सकती. इस प्रकार महत्त की महत्ता में एक अभूतपूर्व सहज आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है. राष्ट्रीय संघर्ष के स्तर पर नैतिक और कल्पनाजन्य महत्ताएँ राष्ट्रीय नेतृत्व की महत्ताएँ में घुलमिलकर एकाकार हो जाती है. छायावाद की हर रचना एक ही साथ नैतिक भी है, कल्पनात्मक भी है और राजनैतिक भी है. इससे काव्य में अर्थ और लय की गूँज -अनुगूँज की संभावना बहुत बढ़ जाती है. उदाहरण के लिए प्रसाद का ‘बीती विभावरी जाग री’ या निराला का ‘राम की शक्तिपूजा’ या पंत का ‘धूम धुआँ रे काजर कारे’ या महादेवी का ‘जाग तुझको दूर जाना’…… एक साथ ही नैतिक, कल्पनात्मक और राजनैतिक स्तरों पर झंकृत होता है.”
छायावाद का इस व्यापक आधार पर मूल्यांकन करते हुए साही ने उसमें ‘दार्शनिक मुद्रा, विराट नाटकीयता और नैतिक तथा कल्पनात्मक स्वप्न लोकों का विशिष्ट अनुपात में सम्मिश्रण’ देखते हुए उसकी आलोचना भी की. उनकी मुख्य स्थापना यह है कि इस सबके बावजूद छायावाद महामानव की कविता है. सामान्य मनुष्य या ‘लघु मानव’ की कविता नयी कविता है. साही मानते हैं कि मनुष्य की हर परिभाषा मूलतः ‘सहज मनुष्य’ की परिभाषा है. वे यह भी मानते हैं कि ‘बारंबार मनुष्य को बदलते हुए देश-काल में परिभाषित करना साहित्य की जिम्मेदारी है.’ साही का यह ‘सहज मनुष्य’ ही उनका लघु मानव है जो नयी कविता के केंद्र में है.
इस लघु को अपने समय की कविता में और स्पष्ट करते हुए साही ने लिखा है:
“छायावाद में उसका रूप लघु की महानता का है, तीसरे दशक में लघु की महिमा का है और उसके बाद की कविता में लघु के ‘महत्त्व’ का है.”
इसके आगे साही कहते हैं कि नयी कविता के कवि छायावाद के दार्शनिक पथ और बच्चन आदि के भावनात्मक मार्ग से होकर निकले हैं. उनकी समस्या सिर्फ दार्शनिक नहीं, मूलतः अनुभूति की है. अज्ञेय इसे सूत्रबद्ध कर के पुरानी परंपरा से जोड़ते हैं. ‘प्रसाद’ को छायावाद के केंद्र में रखते हुए साही नयी कविता के केंद्र में अज्ञेय को रखते हैं और लिखते हैं:
“अज्ञेय का महत्त्व इस बात में है कि उन्होंने ‘समरसता का दर्शन’ के बजाय ‘निर्वैयक्तिक अनुभूति’ का प्रश्न पूछ कर एक बार फिर दर्शन को अनुभूति में घुला देने की राह निकाली, विवेक और हृदय, संकल्प और विवशता को एक नए ‘योग’ से बाँधा. इसीलिए, अज्ञेय हिंदी काव्य की धारा को मोड़ते हुए-से प्रतीत होते हैं.”
साही की आलोचना का उत्कर्ष उनकी ‘जायसी’ नामक पुस्तक है. यह उनके आलोचनात्मक लेखन की उपलब्धि है. इस पुस्तक के जरिए वे नए जायसी को ‘डिस्कवर’ करते हैं. कवि जायसी की ऐसी सरस और आत्मीय व्याख्या हिंदी आलोचना में अब तक देखने को न मिली थी. कहा जा सकता है कि ‘जायसी’ न सिर्फ साही की बल्कि 1950 के बाद की सबसे बड़ी आलोचनात्मक उपलब्धि है.
जायसी को सूफी कवि मानने की धारणा हिंदी आलोचना में व्यापक रूप से फैली हुई थी. साही ने इस धारणा का खंडन किया और उन्हें कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया. इसी के साथ उन्होंने जायसी को हिंदी का ‘पहला विधिवत कवि’ माना. वे लिखते हैं:
“सबसे पहले जिस बात को अच्छी तरह मन में बैठना जरुरी है, वह यह है कि जायसी हिंदी के पहले विधिवत् वरिष्ठ कवि हैं. कबीरदास श्रेष्ठ हैं: लेकिन विधिवत् कवि भी हैं, ऐसा उनका दावा नहीं है. मूलतः वे संत हैं. कवि होना कबीरदास के लिए लक्ष्य नहीं था.”
जायसी को साही हिंदी का पहला विधिवत् कवि तो मानते ही हैं, वे उन्हें ‘आत्म-सजग’ कवि भी मानते हैं. साही ने लिखा है :
“जायसी केवल कवि नहीं हैं, वे आत्म-सजग कवि हैं. अपने कवि का, गुणी होने का उन्हें पूरा भरोसा बल्कि गर्व है. अपने कवि और गुणी होने का जिक्र ‘पद्मावत’ में जायसी ने आरंभ, मध्य और अंत में बार-बार प्रत्यक्षतः या परोक्षतः किया है.”
यह ध्यान देने की बात है कि मध्यकाल के प्रायः सभी कवियों का जोर कवि कहलाने की जगह भक्त कहलाने पर है. जायसी ही हैं जिन्हें अपनी कविता पर गर्व है. साही ने ‘पद्मावत’ से इस आशय के कई काव्यांश उद्धृत किए हैं. एक दोहे को यहाँ देखा जा सकता है, जिसमें अपने कवि होने पर जायसी गर्व करते हुए दिखाई पड़ते हैं-
हिंदी के इस पहले विधिवत् और आत्म-सजग कवि को किसी मतवाद के तहत देखे जाने का साही खंडन करते हैं और उसे मनुष्यता और कविता के धरातल पर देखने का आग्रह करते हैं. साही ने अनेक तरह से जायसी के सूफी होने का खंडन किया है और उनमें ‘स्वाधीन चिंतन’ के साथ ‘प्रखर बौद्धिक चेतना’ के लक्षण को रेखांकित किया है. साही ने लिखा है:
“जायसी में अपने स्वाधीन चिंतन और प्रखर बौद्धिक चेतना के लक्षण मिलते हैं जो गद्दियों और सिलसिलों की मीठी या सरकारी नीतियों से अलग है. इस अर्थ में जायसी सूफी हैं तो कुजात सूफी हैं.”
जायसी को साही जब ‘कुजात सूफी’ कहते हैं तो इसका आशय यह है कि जो किसी मतवाद के आग्रह से बंधा हुआ नहीं है.
साही ने जायसी को सूफी माने जाने की हिंदी आलोचना में फैली धारणा का खंडन बहिर्साक्ष्य के आधार पर तो किया ही है, अन्तः साक्ष्य के आधार पर भी किया है. इससे भी किसी मतवाद में जायसी के बंधे होने की धारणा का खंडन होता है. साही ने लिखा है:
“पद्मावत में कुछ स्थलों पर जायसी ने अपनी कविता की प्रकृति, या अपने अनुसार कविता-मात्र की प्रकृति का भी संकेत दिया है. वह दोहा, जिसमें जायसी ने कहा है कि लोगों को उनकी कविता सुनकर आंसू आए, पहले उद्धृत किया जा चुका है. इसका सीधा आशय यह है कि कविता की प्रकृति जायसी के लिए भावना के सम्प्रेषण की है. इसी तरह अन्यत्र उन्होंने कहा है कि कवि रस का भरपूर कटोरा है. कविता के अभिप्रेत प्रभाव की उपमा उन्होंने कमल की सुगंध से दी है जिसे दूर-दूर से भँवरे आकर प्राप्त करते हैं. ये सभी उक्तियाँ कविता, विशेषतः पद्मावत, के केंद्र में अनुभूति को स्थापित करती हैं, किसी मतवाद या दार्शनिक सिद्धांत को नहीं.”
“अपने सम्पूर्ण प्रसार में यह चिंतनशीलता पूरी कथा में एक तरल विषाद-दृष्टि का सृजन करती है जिसमें मानवीय व्यापार के प्रति पीड़ा है, किन्तु अवसाद नहीं है; हल्का वैराग्य है, लेकिन गहरी संसक्ति भी है; तटस्थता है, लेकिन स्पष्ट नैतिक विवेक भी है. यही वह सुगंध है जो फूल के मरने के बाद भी नहीं मरता.”
साही मानते हैं कि हिंदी आलोचना में जोर ‘पद्मावती’ पर है, जबकि जोर ‘पद्मावत’ पर होना चाहिए. ‘पद्मावत’ पर जोर का ही नतीजा है कि जायसी साही को ‘20वीं शताब्दी का कवि’ लगते हैं. साही ने लिखा है:
“जायसी ने लिखा चाहे मध्यकाल में हो, लेकिन वस्तुतः वे 20वीं शताब्दी के कवि हैं. जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें उठाकर तुलसीदास की बगल में खड़ा कर दिया.”
20वीं शताब्दी का कवि होने का अर्थ यह है कि जायसी की ‘समीक्षा का विषय धर्म नहीं, मनुष्य है’. इसी कारण जायसी के भीतर ‘वह गहरा विवेक’ है ‘जो मनुष्य की आखिरी पीड़ा’ को जानता है और ‘मानुष प्रेम के बैकुंठी’ हो जाने की अनुभूति जगाता है. साही के शब्दों में इसीलिए जायसी न समाज सुधारक हैं और न दार्शनिक और न किसी मतवाद के प्रचारक. वे शुद्ध कवि हैं, प्रेम के कवि, ऐसा प्रेम जो संसार को नए रूप में परिभाषित करता है.
गोपेश्वर सिंह