बमुश्किल २० साल की विनिता यादव फिलहाल मूर्तिकला और चित्रकला में कौशल हासिल कर रही हैं, पेंटिग बना रहीं हैं, कविताएँ लिख रहीं हैं.
अन्य कलाओं से सम्बद्ध कवियों की कविताओं में कुछ खूबियाँ अलग से नज़र आती हैं जो यहाँ भी हैं.
समालोचन में युवतर कवियों को आप पढ़ते आ रहे हैं. अस्मिता पाठक, अमृत रंजन के बाद अब विनिता यादव की दस कविताएँ ख़ास आपके लिए साथ में कुछ चित्र भी.
विनिता यादव की कविताएँ
(एक)
एक रौशनी – एक परछाई
एक परछाई की परछाई
एक रौशनी की परछाई
हल्का उजाला-हल्का अंधेरा
एक बिंदु-और सब स्पर्श
एक आकार और सब कल्पना अगोचर.
(दो)
जिस्म के भीतर कंपन जम गई है
उस रात के बाद
मेरे कमरे में जहाँ कोई आता जाता नहीं
और चारों दीवारों पर साँसे
लटक-लटक कर कमरे से बाहर जाने का
रास्ता जोहती रहती हैं
उसी ठहराव में पंखा घूमता रहता है
देख रही हूँ अपने ही बदन से उठते धुंए को
उसमें नशा उठता है
मैं उसी धुएँ मे लिप्त हूँ
बेरंग.
(तीन)
शांत कमरे में आती
बूँद की टिप टिप आवाज ही साक्षी थी
कि वक्त साँस ले रहा है
रंगीला ने आत्महत्या कर ली है वहाँ
उसकी आँखे बंद नही हुईं, कुएँ मे गिर गयी हैं
फतिंगों का झुण्ड उसे ढूँढ रहा है
कुछ जोड़ो-तोड़ो इस खिलौने में
बच्चा रो रहा है
ऊबा नहीं, अभी वह जिंदगी से.
(चार)
दोहराई जाती हरकतो में वही पुराने शब्द
बीती याद मे जाकर
अपना वस्त्र उतारना
तुम्हारे सामने पहली बार
ऐसे पेश करना
जैसे मेरे जिस्म मे गौर करने लायक कुछ भी नही है
तुमने छुआ
अपना पूरा व्यक्तित्व
चादर कि तरह बगल मे फेंकते हुए
मेरी थरथराहट
नवंबर कि ठंड
हमारी पहली मुलाकात
ओर एक अजनबी शहर
फिर याद आता है.
(पांच)
एक शाम जब थोड़ी दूर चले जाना तो पुकारना
पत्थरों को पीट पीट के
उन्हे जगाना
फिर एक कल्पना करना हवाओं को समेट के
और उसे सूर्यास्त के संग मेरे पास भेज देना
जहां रात है
अंधेरा, घने पेड़ों का
जो सरसराहट की गोद मे लेटा हुआ है
मुझे गले लगाए.
(छह)
मुझे क्यों नही लगता, ये जो है यही जिंदगी है
देर रात तक, गुमशुदा होती चली जाती रात-बदनाम है
रेशमी कपड़े की प्यास सबके गले मे एक-एक
बेहोश कातिल का किस्सा बनकर झूल रही है
जालीदार साये मे शर्मिंदगी का शहर
जिसमे पैदाइशी शिकायत इल्म की जम्हाई लेता है
वही इत्तेफाक काफिर से, बना देता है कितने किरदार-फिजूल ख्याल से.
(सात)
ये तुम हो तस्वीर में ?
तस्वीर कितनी पुरानी हो गई है न
सूखे पत्ते की तरह लगती है
नदी मे तैरती हुई
एक तिनके को पार ले जाती हुई
वो तिनका मैं हूँ.
(आठ)
खिसियाए पेड़ की डाल के पीछे से नजर आती
चाँद की गूंज
ऊल्लू की आँख
उदास मन का सिगरेट
ठुक-ठुकाता दो पल का जी
पाँच दिन के लिए नीर बना मेरा शरीर
तुम्हारी संतो की सी हवस
रोशनदान से आती थोड़ी सी धूप
एक अकेली दुनिया मैंने अभी भी रखी है
एक अकेली दुनिया में
वो अभी खुद में मौजूद धुंध से डरी हुई है
जिस लबादे को उसने अभी उतार कर फेंका
वो किसी निर्जीव लडकी का था
मगर वो झोल अब भी आते है
उड-उड़ कर उसके इर्द -गिर्द
अब भी उसे चाँद को घेरते बादल
युध्द जैसे दिखाई पड़ते हैं
दिनभर के दृश्य से छनकर कौए, छिपकली
और झाकती हुई आँखों के पुर्जे ही बचते हैं
आँखों मे अंधेरा ठहरा हुआ है
कमरा खाली है- अतीत को यहीं रौंद डाला
अब अस्तित्व?
(नौ)
मै कहाँ, अपने आप को किस रूप मे रखूँ
ये ख्याल मेरे उमंग को कचोटता है
मुझे डर लगता है लोगो में शामिल होने से
वो झाँकने लगते हैं मेरे रास्ते के किनारे बिछी खाई को
उसी खाई मे मेरा सबकुछ धँसा हुआ है.
(दस)
कितना कुछ रोज बचा लेती हूँ
टाल देती हूँ,
खिड़की से नजर आती हर उस चीज की तरफ जो अपनी लगती है
पता नहीं किस दिन के लिए
जमीन पर तैरने और पानी में डूबने का ये नाटक है
महज एक झूठ, जैसे यह शरीर
कुछ भी नही और सबकुछ के बीच रखा गया है.
(२८/१२/१९९८, अम्बिकापुर)
बीएफए – मूर्तिकला
आर्ट और फाइन आर्ट फैकल्टी लखनऊ यूनिवर्सिटी
Vinitayadav151298z@gmail.com