यह आवाज़ विन्ध्य की उन घिसी हुई पहाडियों, दिल की तरह हजारों पान के पत्तों को छुपाए पनवाडियों, सूखते चश्मों और इंतजार में थके-बुढाए कस्बे से आ रही है, तुम्हारे स्पर्श मात्र से जिनमें कभी जान आ गयी थी. कामयाबी की इस बुलन्दी पर पहुंच जाने के बाद, क्या पता तुम उसे पहचान भी पाओगे या नहीं, मगर वह भले ही तुम्हारे दृष्टि – पथ से ओझल हो, तुम एक बार भी उसकी नजरों से ओझल नहीं हो पाए दीपंकर !
वह कौन – सा दिन था, कौन-सी बेला, कौन – सा मुहूर्त, जब बागेश्वरी के स्टेशन पर पहली बार तुम्हारे मुबारक कदम पडे थे ! याद आ रहा है कुछ – स्टेशन से ही दिखता हुआ पर्वत के कलश पर वह शुभ्र मन्दिर, जिसे देखकर तुमने कहा था, \’\’ ऐसा लग रहा है, मानो काले – नीले गजराज के मस्तक पर किसी ने श्वेत शंख रख दिया हो.\’\’ घिसी हुई पहाडियों से अनेक राहें जाती थीं ऊपर को, मगर ऊपर तक पहुंचने के लिये पहले नीचे के मुकाम तय करने होते हैं न!
इक्केवाला घाटी के उन चंदोवे ताने हुई पनवाडियों और आगे कस्बे की तंग गलियों से गुजर रहा था और दूर ही से घाटियों में घुंघरू की आवाज सुनायी दे रही थी किसी को, तांगेवाला तनिक चढाई पर बने एक अलग – थलग मकान पर ले आया था तुम्हें. तुमने ऊपर से नीचे देखा और नीचे से ऊपर – अगर मन्दिर वीणा का एक तम्बूरा था तो वह मकान दूसरा, जिन्हें पहाडी रास्तों के तार जोड रहे थे. सहसा झन्न – सा बजा तुम्हारे कानों में, \’\’ आप दीपंकर जी हैं न?” एक सोलह – सत्रह साल की लडक़ी सवाल कर रही थी.
तब तक वह लडक़ी चाय – नाश्ता ले आई थी.
पहाड पर अच्छा-खासा रास्ता बन गया था. उस्ताद को सहारा देने को कोई आगे बढता मगर उन्होंने मना कर दिया, हालांकि चढने में उन्हें खासी मशक्कत उठानी पड रही थी. मन्दिर नीचे से ही छोटा लग रहा था, जैसे तुम आगे बढते गये, पत्थरों, पेडों – लताओं से आंख – मिचौनी खेलता हुआ वह बडा होता गया. मौसिकी का यह काफिला जब ऊपर पहुंचा तो सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था. उसकी लाली से दिशाओं के रोसनदान सुर्ख हो रहे थे और उसका गुलाल पहाडों और घाटियों में बिखर रहा था. परिन्दे अपने – अपने बसेरों की ओर उडे आ रहे थे और उनकी मिली – जुली चहचहाहट से फज़ा गुलजार थी.
देवी को प्रणाम कर सामने के चबूतरे पर बैठ कर उस्ताद ने पहले नमाज अता की, फिर वीणा संभालने लगे. तुम्हें उनकी मशक्कत पर रहम आ रहा था, तभी उन्होंने टोका था, \’\’ पहले तुम कुछ सुनाओ दीपकंर.\’\’
तुम सकुचाए, \’\’ मैं भला क्या सुना सकता हूं? \’\’
फिर तो उस्ताद जैसे खुद में ही खो गये. तारों को कसकर समताल करने के बाद ठीक सूर्यास्त को उन्होंने राग यमन का आलाप साधा. जोड पर करामत ने तबले पर थाप दी. तब तक तुम्हें यकीन न था कि झाला तक सब कुछ निर्विघ्न निभ जायेगा. लेकिन झाला तक आते – आते तुम चकित रह गये थे. जो शख्स पहाड पर ठीक से चढ भी नहीं पा रहा था, उसके हाथ किस तरह उठती – गिरती उंगलियों के साथ ऊपर नीचे दौड रहे थे. इन बूढी उंगलियों में क्या इत्ता कमाल अभी छुपा पडा है. पहाड क़ा जर्रा – ज़र्रा, फुनगी – फुनगी, पत्ते – पत्ते कान उठा कर कनमनाकर ताकने लगे थे. एक रूहानी झंकार थी कि पहाड से उतरते झरने की तरह पूरी घाटी में बह रही थी और अग – जग डूब – उतरा रहा था. घण्टे भर तक धरती गमकती रही फिर उस्ताद ने वीणा सिर पर रख कर एक साथ ही साज और बागेश्वरी दोनों को प्रणाम किया था.
\’\’आप कमाल के बीनकार हैं.\’\’
उस्ताद हांफ रहे थे. बोले – \’\’ अब बुढापे में मुझसे नहीं होता. बागेश्वरी मेरी बेटी बजाएगी.\’\’
(पिता के साथ अन्नपूर्णा ) |
उस्ताद को सहारा देकर उतरने लगी आयशा, तो जैसे तुम्हारा कर्तव्यबोध जागा. आगे बढक़र तुमने दूसरी बांह पकड ली थी. उस्ताद ने अचकचाकर तुम्हें देखा और बोले, \’\’लगा, जैसे तुम्हारी जिल्द में मेरा बेटा निसार ही लौट आया है विदेश से.\’\’
रात दस्तरखान पर उस्ताद ने फिर वही बात उठा ली थी, \’\’जब वीणा बजाता हूं( उस्ताद की निगाह में वीणा और सितार एक ही थे. उनका बस चलता तो सरोद को भी वीणा ही कहते) तो पैंसठ-सत्तर का बूढा नहीं, बीस-पच्चीस का जवान हो जाता हूं और वीणा बन्द हुई नहीं कि भेडिये की तरह दुबका हुआ बुढापा अपने पंजों और दांतों से घायल करने लगता है. अब बुढापे में मुझसे बागेश्वरी देवी की सेवा नहीं होती, जी चाहता है, कोई इस सेवा और इस बेटी दोनों का भार थाम ले और मैं सुकून से रुखसत ले सकूं. या अल्लाह! ”
दिन भर उस्ताद लोगों को लेकर व्यस्त रहते – विन्ध्य के लुप्त होते साज, लुप्त होती स्वर सम्पदा. दूर-दूर से आये प्रशिक्षु. वे बारह – बारह घण्टों तक एक – एक सुर का रियाज क़रते. तुम्हें हैरानी होती.
फिर वह शाम! बूंदा-बांदी शुरु हो गई थी. उस्ताद को रोक लिया था आयशा ने. बागेश्वरी के पूजन के लिये सिर्फ आयशा थी, तुम थे टप – टप बरसती बूंदे थीं और भीगी-भीगी पुरवाई के साथ थी जंगली फूलों की भीनी – भीनी मदमस्त गन्ध! आते समय तुम जानबूझ कर फिसले थे कामिनी-कुंज के पास. संभाल लिया था आयशा ने तुम्हें.
“वो कविता है न, सखि हौं तो गई जमुना जल को इतने में आइ विपति परी पानी लेने गई थी यमुना में, इतने में घटा घिर गई, दौडी बारिश से बचने को मगर बच न सकी. गिरी लेकिन भला हो नन्द के लाल का जिसने इस गरीब की बांह पकड ग़िरने से बचा लिया – चिर जीवहुं नन्द के लाल अहा, धरि बांह गरीब के ठाडि क़री\’\’ फिसले हुओं को संभालने में आपका कोई सानी नहीं.\’\’उत्साह में पूरी कविता का ही पाठ कर डाला था तुमने. तुम्हें उम्मीद रही होगी कि आयशा कह उठेगी \’\’हजूर की जर्रानवाजी है,वरना मैं नाचीज क़िस काबिल हूं!\’\’
मगर वह तो लत्ते की गुडिया-सी सिमट गयी-एकदम घरेलू किस्म की सपाट-भोली लडक़ी!
\’\’तुम मेरे शिष्य बनोगे दीपकंर? \’\’ चकित वात्सल्य से छलछला उठी थीं उस्ताद की आंखें, \’\’ देखो, घरानों की बातें हैं, यहां तो सभी खुद को दूसरों से ऊंचा मानते आये हैं. ईगो टसल! \’\’
और ठीक गुरुपूर्णिमा को बाबा ने गुरुवन्दना के – \’\’ अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं तद् पदं दर्शितं येन्, तस्मै श्री गुरवे नम: .\’\’ के बीच तुम्हारी कलाई में हरी – हरी दूब के साथ शिष्यत्व का काला धागा बांधा. तुमने कहीं से कर्ज लेकर एक नारियल, पांच सुपाडियां, शाल और एक सौ एक रूपए उनके कदमों पर रख दिये.
\’\’यह क्या? \’\’ तनिक संजीदा हो आये उस्ताद, \’\’ पौद को जिन्दा रहने के लिये पानी तो चाहिये, मगर वह पानी इतना ज्यादा भी न हो कि पौद सड – ग़ल ही जाये.\’\’ फिर हंस पडे उदास से, \’\’ बागेश्वरी में पंचम वर्जित है और पंचम ही तुम्हारा आधार है.\’\’
हे बागेश्वरी के पंचम! पता नहीं कब बाबा ने क्या कहा और तुमने क्या सुना. जो भी हो शुरु हो गया विद्यादान. बाबा सैध्दान्तिक बातें बताते जाते, आयशा उसे बजाकर दिखाती.
\’\’ओह! ये उठती – गिरती उंगलियां, ये ऊपर – नीचे दौडते हाथ, यह पूरी देह से निकलती झंकार, जैसे कोई धारा पत्थरों पर ऊपर से नीचे बहती जाये – तरंगायित, उच्छ्वसित, उल्लसित, उद्दाम यौवन से मदमाती\’\’
\”आपका? आप जहां-जहां पोरों से गत को दबाती हैं, वहां-वहां रंगीन फौव्वारे फूट निकलते हैं. रक्स करती हैं, बेशक पैरों से नहीं, हाथ की उंगलियों से. कहां छुपी रहती है इत्ती मस्ती इन पोरों में?\’\’
तुमने एकान्त पाकर आयशा की हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया था. तारों के साथ निरन्तर छेडछाड से खुरदुरी हो आई उंगलियों की पोरों को सहलाने लगे थे तुम.
लुक-छिप कर मिलने लगे थे तुम और आयशा – कभी मन्दिर में, कभी पनवाडियों में, कभी पहाड पर और जिस दिन अब्बू को इसकी भनक मिल गई, उस दिन?
एक ईंट, फिर दूसरी, फिर तीसरी! खण्ड – खण्ड टूट कर गिरने लगे थे पत्थर, अर्राकर ढह रहीं थी बुर्जियां, मेहराबें, अटारियां. थमते – थमते थम गया था कोलाहल. श्मशानी शांति.
तुम सकते में आ गये. सहारे के लिये तुमने आयशा को देखा. वह खुद सहमी हुई थी.
ढम्म! अचानक फिर थाप पडी. स्वर बदला हुआ था इस बार. प्रलय के बाद सृष्टि का सुर! एक – एक ईंट चिनी जाने लगी खडा होता गया किला. सजती गईं अटारियां,खिलती गईं मेहराबें, चमकने लगे कंगूरे!
\’\’साक्षात शिव हैं अब्बू! नाराज हो जायें तो संहार! ताण्डव! खुश हो जायें तो निर्माण के वरदान!\’\’ आयशा ने कहा था.
\’\’मगर मैं पखावज का दूसरा अनुभव नहीं लेना चाहता.\’\’ बाप रे! मेरी तो रूह ही चाक हो गय.\’\’
\’\’तब तो आपको सीधे अब्बा से बात करनी पडेग़ी. उनकी रजा के बगैर अब मैं नहीं मिल सकती.\’\’
\’\’ मुसलमानों ने काफी पहले ही मुझे काफिर मान लिया है. मैं इस बात से परेशान नहीं हूं कि ऐसा करने से उनकी राय पर ठप्पा लग जायेगा. धरम यहां क्या कहता है और मजहब के फतवे क्या कहते हैं – मुझे नहीं मालूम, जानना भी नहीं है. मौसिकी मेरे लिये सिर्फ मौसिकी है, फन सिर्फ फन. बागेश्वरी होती होंगी हिन्दुओं की कोई देवी, मेरे लिये वे सिर्फ मौसिकी की देवी हैं. चाहता मैं सिर्फ इतना हूं कि जिन हाथों में बेटी का हाथ दूं, उन हाथों में उसका फन और उसकी खुशी दोनों सलामत रहें. कहां तुम ऊंचे खानदान के पण्डित और कहां आयशा? उस्ताद की शक्ल में हमें सर पे बिठाते हैं हिन्दू, मगर एक दूरी से ही. फिर इस्लाम कुबूल करने से पहले हम भी तो छोटी कौम के हिन्दू ही थे. इन चीजों को तुम्हारा हिन्दूपना कतई बर्दाश्त नहीं करता. यानि एक के लिये एक मलेच्छ, दूसरे के लिये काफिर! इनसे भाग कर मैं मौसिकी की पनाह में आया हूं तो यहां महफूज हूं, मगर कब तक? जब तक नीचे न उतरूं! अभी तो जवानी है, जज्बा है, जुनून है, जीत लोगे जंग, मगर इनके उतरने के बाद?\’\’
\’\’ आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं, उस्ताद! \’\’
शब्दों के सटीक उपयोग तो कोई तुमसे सीखता, दीपंकर! बाबा को रिझाने के लिये तुम्हारे लिये सितार और वीणा, वीणा और आयशा के लिये अलग-अलग सम्बोधन नहीं -सिर्फ एक सम्बोधन था वीणा. बडा रोमान्टिक है न यह सम्बोधन!
उसी बागेश्वरी के मन्दिर में आयशा वीणा बन कर हो गयी तुम्हारी पत्नी! याद है न वो दिन, उस्ताद ने दुआ दी तुम्हारे ही पुराने अन्दाज में, \’\’ तुम दोनों दो तम्बूरों की तरह प्रेम के तारों से जुड ग़ये आज – इसी तरह बंधे रहें तार, इसी तरह उठती रहे झंकार!
कलकत्ते के उस संगीत समारोह में वीणा ने मालकोंश बजाया था और तुमने चन्द्रकोंश, फिर योगकोश पर दोनों की जुगलबन्दी. तालियों की गडग़डाहट से गूंजता रहा ऑडिटोरियम!
दूसरे दिन अखबारों में वीणा ही वीणा छाई हुई थी, दीपंकर की चर्चा महज रस्मी तौर पर हुई थी. तुमने एक उडती हुई नजर डाली, फिर सुबह-सुबह ही सज धज कर तैयार पत्नी पर आकर टिक गई तुम्हारी नजर. नजरों में सवाल था.
वीणा को आश्चर्य होता, आखिर तुम चाहते क्या थे. पहले तुम्हें वीणा से यह शिकायत थी कि वह नितान्त घरेलू औरत है, उसे तुम्हारी पत्नी के अनुरूप ढालना चाहिये, तनिक आधुनिक होना चाहिये. अब, जबकि वह हो रही थी तो तुम उसे घरेलू बनाने पर आमादा थे.
तुमने जवाब देना जरूरी नहीं समझा, खुद ही पता किया वीणा ने कि तुम्हारे भाईसाहब की तबियत खराब चल रही है. मान धुल गया. द्रवित हो आया मन. मां का साया पहले ही तुम पर से उठ चुका था, ले-दे कर एक भाईसाहब ही तो बचे थे जो बीमार थे.
भाईसाहब की हालत वाकई में नाजुक़ थी. वीणा अभी बनारस रुकना चाहती थी मगर तुम उसे बागेश्वरी जाने पर जोर दे रहे थे, \’\’ मैं इन्हें संभाल लूंगा, तुम जाकर उन्हें संभालो.
\’\’इतनी क्रूर न बनो मलिका-ए-मौसिकी! तुम्हारे बिना मैं नहीं रह सकता. जानती हो, इलाहाबाद में जब पण्डित गुदई महाराज ने पूछा, आज क्यों तेरी वीणा मौन? तो मुझ पर क्या गुजरी! भाईसाहब ने तो सीधे छडी उठाई और यहां खदेड क़र दम लिया.\’\’
वीणा को थकाकर तुम थक कर सो रहे थे और वीणा तुम्हारे सुन्दर सलोने चेहरे को देख – देख कर रीझ रही थी और तुम्हें सम्बोधित करते हुए सोलहवीं शताब्दी की नायिका की तरह मौन संलाप कर रही थी,
\’\’मेरे नटखट शिशु, कलकत्ते में जो हुआ, उससे तुम रूठ गये न? रूठना ही था. एक तो एक ही विधा के लोग, प्रतियोगी भी न हों तो तमाशबीनों द्वारा बना दिये जाते हैं, दूजे मैं नारी तुम पुरुष. इगो की चरमराहट! अच्छा हुआ कि बनारस और इलाहाबाद ने भरपाई कर दी और तुम फिर ऊपर आ गये.तुम्हीं जीते, मैं ही हारी. ये लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे, काहे का झगडा बालम नई नई प्रीत रे खुश? तुम पर वारी जाऊं मेरे सलोने राजकुमार. तुम जैसे खुश रहो, मैं वही करुंगी बस एक ही इल्तजा ही मेरी, मुझसे रूठो मत!\’\’
बाबा भी खुश थे अपनी बुढापे की बीमारी के बावजूद! और एक दिन मन्दिर जाने से रोक लिया उन्होंने तुम्हें. स्नेह से गाढे हो रहे थे, बोले- \’\’ बेटे, मैं एक पका आम हूं, कब टपक पडूं कोई ठीक नहीं. जाने से पहले मैं चाहता हूं कि तुम्हें देवी की मूरत गढने के हुनर में उस्ताद बना दूं. तुम जानते हो कि यह हुनर कोई उस्ताद सिर्फ अपने खासमखास शागिर्द को ही देता है. गौर से सुनो, जिस तरह एक नायाब मूरतसाज माटी से मूरत गढता है देवी की- पांव, कमर, सीना, गर्दन, हाथ, उंगलियां, होंठ, कान,नाक, आंखउसी काम को एक मौसिकार अपनी मौसिकी से अंजाम देता है.\’\’ और उस्ताद ने वीणा की सहायता से तुम्हें मूर्ति गढना सिखलाना शुरु कर दिया.
चोरी-चोरी प्रेम के सुरभीले दिनों के बाद वे सबसे सुन्दर दिन थे वीणा की जिन्दगी के. मन्दिर परिसर में पति – पत्नी मूर्ति गढ रहे होते – तिन – तिन्न! धिन्न- धिन्न! की झंकार दूर – दूर की पहाडियां सूद सहित लौटा देतीं – ध्वनि भी प्रतिध्वनि भी! जैसे पूरी प्रकृति, पूरे विश्व, पूरे ब्रह्माण्ड में सिर्फ मूर्ति रची जा रही थी उन दिनों.
\’\’फन और हुनर की कोई इन्तहां नहीं होती, दीपंकर.तुम इसे हमेशा आगे बढाते रहोगे, दूसरों के फन को भी.\’\’ इसके साथ ही उन्होंने अपनी उखडी सांस को सम किया. तुम उनका सीना सहलाने लगे थे. उन्होंने अपना दाहिना हाथ तुम्हारे सिर पर रख दिया, \’\’ इसके साथ ही मैं अपने पहले वचन से तुम्हें आजाद करता हूं- अब बागेश्वरी देवी की सेवा के लिये यहां बैठे रहना तुम्हारे लिये कतई जरूरी नहीं है, लेकिन दूसरा वचन. इसे चाहो तो एक बाप की कमजोरी कह लो, वीणा को खुश रखना वही मेरी सच्ची गुरुदक्षिणा होगी, तुम्हारा, वो क्या कहते हैं, पत्नीव्रत और प्रेमिकाव्रत भी.\’\’
हे पत्नीव्रती! यह तुम्हारे जीवन का नया अध्याय था, वीणा के जीवन का भी. संगीत समारोहों का दौर – दौरा फिर शुरु हो गया. वीणा की भूमिका तुम्हें सजा – सवांर कर मंच पर भेज देने की और सबसे पीछे तानपूरा लेकर बैठने तक ही सीमित हो गयी. फिर हुआ कला का जन्म, मगर यह कोई उल्लेखनीय घटना न बन सकी. इलाहबाद, बम्बई, कलकत्ते, दिल्ली में बंधकर रहने वाले जीव तुम थे नहीं, सो जैसे ही मौका मिला, तुम उड ग़ये अमरीका, साथ ही वीणा और कला भी. वह तुम्हारा पत्नीव्रत नहीं तुम्हारी अनिवार्यता थी, कारण, कौनसी पोशाक किस महफिल को लिये मौजूं है, यह सिर्फ वीणा को पता था – कभी मुगलिया, कभी नवाबी, कभी देसी रजवाडों की तो कभी साफ शफ्फाक सूफियाना, पर सुरुचिपूर्ण.
कब क्या खाना है, क्या पीना है, क्या बजाना है, पुराने शास्त्रीय संगीत मैं किस हद तक देसी पंच करना है – यह भी. तुम्हें दूल्हे की तरह या कहूं जादूगर दूल्हे की तरह मंच पर सजा – संवार कर बैठा देती और खुद तानपूरा लेकर पीछे बैठ जाती – स्वरों का आधार बनाती, उसकी उंगलियां तानपूरे के तारों पर फिसल रही होतीं, मिजराब के अभाव में खुरदुरे होते पोर, मगर अब तुम्हें उन्हें चूमने को कौन कहे, देखने की भी फुरसत न होती. मिलने वाले काफी हो गये थे,खासकर गोरी, चाकलेटी औरतें, जिनके सम्पर्क में आते ही तुम्हारा चेहरा खिल जाता. वीणा ने महसूस किया कि तुम उससे दूर होते जा रहे हो, मगर एक अजीब किस्म का ठण्डापन उसे घेरने लगा था.
वीणा चुपचाप देख रही थी कि तुम संगीत पर कम, उसके मायावी प्रदर्शन पर ज्यादा ध्यान देने लगे थे – मंच से लेकर लिबास तक. फिर तुमने समारोह के पूर्व अंग्रेजी, फ्रेंच या जर्मन में एक वक्तव्य रखना शुरु किया जिससे तुम्हारे पाण्डित्य की धाक जमने लगी. निसार बीच – बीच में आते रहते. तुम दोनों की जुगलबन्दी भी हुई जो कि खासी चर्चित हुई. ये वे दिन थे जब लोकप्रियता पर तुम छोटे-मोटे प्रयोग करते ही रहते. उद्देश्य सिर्फ एक होता, मंच पर छा जाना, भले ही बाकि कलाकार अंधेरे में चले जायें. वीणा को उस दिन तुम्हारा लाइफ में इंटरव्यू पढ क़र कोई हैरानी नहीं हुई जब तुमने एक तरह से खुद को स्वनिर्मित प्रतिभा के रूप में पेश किया. प्रचार की चंग पर चढक़र तुम भारतीयता के प्रतीक बनते जा रहे थे.
हे भारतीयता के महान प्रतीक! पत्नी न सही, भ्राता न सही, गुरु के लिये हमारी संस्कृति में बहुत ही ऊंचा स्थान है , शिष्यत्व स्वीकार करते हुए तुम्हें अपनी गुरूवन्दना याद है –
गुरूर्बह्मा, गुरूर्विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वर:
उसी गुरू ने कई बार कांपते हाथों से कलम उठाई होगी तुम्हें, वीणा या निसार को खत लिखने को, फिर रख दी होगी. कई बार उडी- उडी ख़बर मिली कि उनकी हालत नाजुक़ है, लेकिन तुमने उसे नजर अन्दाज क़िया.
यह तो निसार थे जो तुम सबों को जबरन वापस ले आये बागेश्वरी.
तुम्हें वीणा, एवं निसार के बीवी-बच्चों को देखकर बूढे ग़ुरिल्ला की तरह, अबूझ की तरह ताकने लगे थे बाबा. फिर बताये जाने पर एक – एक की कुशलक्षेम पूछने लगे. आखिर में टिक गई वीणा पर नजर, \’\’ क्या बात है वीणा अखबारों में दीपकंर और निसार का नाम तो कभी – कभी झलक जाता है लेकिन तुम्हारा नहीं!\’\’
पालकी पर ले जाया गया उस्ताद को. सबने कुछ न कुछ पेश किया मगर वीणा ने गायकी में अमीर खुसरो की वो ठुमरी उठायी, काहे को ब्याही बिदेस अरे लखिया बाबुल मोरे तो स्वर टूट रहा था. उस्ताद ने थोडी देर तक आंखों पर पलकों के परदे डाल लिए, बूंदों की धार बिंधती रही दाढी में. गीत बन्द हुआ तो धीरे-धीरे पलकें खोली उन्होंने. कोई कुछ नहीं बोल रहा था. देखते-देखते आंखों की रंगत बदली, शिशु-सा चकित हो उठे, \’\’ निसार, शमा, दीपंकर, आयशा – जरा देखो तो हवा से हिलते पत्तों की झुरमुट में से झांकता चांद. दुनिया के तमाम फरेबों, तमाम गलाज़तों के ऊपर पाकीजग़ी के नूर – सी बरसती चांदनी, चकमक करते पत्ते, क्या खुदा की इस नेमत को मौसिकी में नहीं ढाल सकते? तुम, तुम? नहीं तू\’\’ निसार और दीपंकर के बाद वीणा से इसरार और उस रात वीणा ने अपनी सारी कला लगा दी प्रकृति के उस छन्द को स्वर देने में
वीणा ने आहत नजरों से तुम्हें देखा. वह गई तो जरूर, मगर कहीं जी न लगता था उसका. ये वे दिन थे जब तुम पॉप सिंगर्स से मिलकर अपने प्रायोजक ढूंढते फिर रहे थे. तुम्हारा एक पांव अमरिका के लॉस एंजिल्स में, दसरा भारत में बीच में पूरी दुनिया थी और वीणा थी कि उसे अमरीका भी सूना लग रहा था, भारत भी और बाकी दुनिया भी. बहुत तेजी से बदल रहे थे तुम. अब तुम्हारी दुनिया बाख, बीथोवन, मोत्जार्ट और मैनहन तक फैल रही थी. अब तुम्हें बीथोवन के मूनलाइट सोना में रात में समुद्री लहरों के टूटने जैसा नाद ज्यादा सम्मोहित करने लगा था और उसमें तुम्हें रवीन्द्र संगीत की सी दिव्यता दिखाई देने लगी थी, साथ ही बाबा की पत्तों के झुरमुट से झांकती चांदनी और चकमक करते पत्ते भी किस चीज क़ो कब, कहाँ इस्तेमाल कर ज्यादा से ज्यादा लाभ बटोरा जा सकता है, इस पर तुम सदा सतर्क रहते. शास्त्रीय संगीत की समझ से रहित पश्चिम के दर्शकों, श्रोताओं में अपने संगीत को लोकप्रिय बनाने के लिये तुमने आलाप की बोरियत से पल्ला झाडा, जोड क़ो समृध्द किया और सीधा उतर शए झाले पर. इसी तरह पश्चिमी और पूरबी श्रोताओं को लुभाने के लिये तुमने कई पगडण्डियां तलाशीं और सवाल-जवाब जो यहां फूहड और छिछला माना जाता रहा, को ज्यादा से ज्यादा महत्व देने लगे.
(रविशंकर और अन्नपूर्णा) |
वीणा ने एक दिन टोका भी, \’\’हमारे यहां राग, ताल, लय या सुर एक दूसरे को समृध्द करते हैं. मिलित हंसध्वनि हो या जुगलबन्दियां, यहां एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बावजूद मुख्य उद्देश्य परस्पर सहायक का ही होता है, प्रतिस्पर्धा का नहीं. इसी तरह भारतीय संगीत की बाकी महान परंपराओं की भी तुम अनदेखी करने लगे हो. क्या तुम्हें नहीं लगता कि कहीं कुछ गलत हो रहा है.\’\’
हंस कर टाल गये तुम. बाद में प्रदर्शन के पूर्व वक्तव्यों में तुमने इसका खुलासा किया, \’\’ कुछ शुध्दतावादियों को लगता है, भारतीय संगीत इतना महान है कि उसे साधारण जनता के बीच उतारा गया तो अपवित्र हो जायेगा. पर मैं पूछता हूँ कि संगीत या कला या साहित्य सिर्फ मुट्ठी भर पण्डितों के लिये है? जब तक कोई कला जनता के बीच नहीं उतरती वह सार्थक तो नहीं ही होती वह दीर्घजीवी भी नहीं हो सकती.\’\’
बहुत तालियां बजी थीं तुम्हारे इस वक्तव्य पर. तुमने आगे कहा था – अब बात आती है प्रस्तुति पर – क्या पश करें., कैसे पेश करें. प्रकृति को देखिए कि उसे एक फूल पेश करना है तो कैसे करती है. मान लीजिये बोगवेलिया है. मात्र लवंग जितने लम्बे यानि नन्हे – नन्हे सफेद फूल गिनती में तीन-तीन. उन्हें पेश करने के लिये वह अपनी तमाम जाड – ड़ालें, पत्ते – कांटे सबसे पिण्ड छुडा लेती है. यहां तक कि पुष्प को समोने वाली पत्तियां भी लाल, गुलाबी या श्वेत यानि इतनी रंगारंग रहती हैं कि उन्हीं को लोग फूल की पंखुरी मान बैठें – भव्य से भव्यतम प्रदर्शन.\’\’
\’\’आज किस घाट पर जल रहे थे? \’\’ तल्ख पडती मानिनी वीणा. मगर उसके मान का तुम्हारी नजर में कोई मूल्य न होता. मन होता तो तटस्थ, निरपराध, बेगानी आवाज में सुना देते, \’\’ आज डी एम पकड ले गये थे, आज मंत्री, आज फलां तो आज अलां! दम मारने की फुरसत नहीं.\’\’
युनिवर्सिटी या राजकीय कार्यक्रमों, युध्दराहत या कल्याणकोशों के लिये तुम सदा तत्पर रहते, आयकर देने में प्रत्यक्षत: कोताही नहीं बरतते. लोगों की नजर में तुम्हारी छवि उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होती रही. चीजों को अनुकूलित करने में तुम निरन्तर सफल रहे. अब उनकी नजर तुम्हारे व्यक्तिगत चरित्र और परिवार, सर्वोपरि फन के प्रति तुम्हारे एटीच्यूड पर न जाती, उलटे तुम महान से महानतम् घोषित किये जाते रहे, ठीक उन सेठों की तरह जा चींटियों को शक्कर के दाने देते हैं, और भिखारियों, बाह्मणों, विधवाओं,गरीब छात्रों, सामाजिक कल्याण की संस्थाओं को दान देते हैं, और अपनी मिल में अपने मजदूरों, घर में अपनी बीवी अपने नौकरों का शोषण करते हैं. व्यक्तिगत चरित्र में लम्पट और जातीय चरित्र के स्तर पर प्रथम श्रेणी के अपराधी! एक ही आदमी का बर्ताव एक स्थान पर एक जैसा, दूसरे स्थान पर दूसरे जैसा! क्या कोई लेखा – जोखा लेने आएगा कभी? कभी नहीं. नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेज, नथिंग फेल्स लाइक फेल्योर!
वीणा ने अपने ढीले पडे तारों को फिर कसा, मगर वह सुर कहाँ, वह साज क़हाँ! नवीनाओं की तुलनाओं में कहाँ टिकती है प्रवीणा!
दूसरी विदेश यात्राओं में तो तुम साथ भी नहीं ले गये उसे. पूरे चार महीने बागेश्वरी में अकेले गुजारे उसने – कभी अब्बू की कब्र पर, कभी बागेश्वरी देवी के मंदिर में. अकसर पहाड से देखा करती वह पश्चिम की ओर – कितनी दूर चले गये थे तुम! पनवाडियों को देख – देख कर पन्त की वह कविता याद आती, पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल वन का मर्मट, ज्यों वीणा के तारों में स्वर जिसे प्रेम के प्रारंभिक दिनों में दिलनुमा पान के पत्तों को देख – देख कर उस स्निग्ध आलोक छाया में तुम आवृति किया करते! वह कविता मारू विहाग के करुण रस में शिराओं में घुला करती अहरह!
लॉस एन्जिल्स, वियाना, लन्दन, पेरिस, म्युनिख, कहां – कहां नहीं जगमगाने लगा था तुम्हारा सितारा. नए – नए कितने ही रागों का सृजन किया तुमने. प्राच्य और पाश्चात्य संगीत के मेल से कितने ही रागों का सृजन किया तुमने. प्राच्य और पाश्चात्य संगीत के मेल से कितनी ही प्यारी धुनें दी हैं तुमने. अनायास ही तुम लोगों के दिलों में छाते जा रहे थे मगर तुम्हें इतने – भर से संतोष नहीं मिला, तुम अनन्य, अद्वितीय होना चाहते थे. हिंदी के लोकप्रिय कवि ने अपनी कृति को स्थापित करने के लिये जनभाषा,मंचन, अंधविश्वास, ढोंग और चमत्कार का सहारा लिया था. दीपकराग से दीप का जल जाना, मेघमल्हार से वर्षा की झडी लग जाना – संगीत में कुछ अंधविश्वास पहले से चले आ रहे थे. तुम्हारे चेलों ने भी प्रचारित करवाया कि एक पेड ज़ो तेज पश्चिमी धुन पर जड से उखड ग़या था, तुम्हारा संगीत सुन कर फिर से खडा हो गया.
वैसे हे चमत्कारी बाबा! तुम्हारा असली चमत्कार तो वीणा खुद है. तुम्हारे मारन मन्त्र से जड- मूल से उखडी हुई वीणा, जहां अहर्निश अन्दर एक जलती हुई आग है और बाहर आंसुओं की झडी. पता नहीं कैसे लोग कहते हैं कि प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे एक नारी होती है, जबकि हिंदी के उस सफल कवि ने भी अपनी उस पत्नी को वापस मुडक़र भी नहीं देखा, जिससे उसने कविताई का ककहरा सीखा( कुछ महापुरुषों को लें लें तो हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर या सिध्दार्थ ने भी नहीं). तुमने भी नहीं. पत्नियां शायद इसीलिये होती हैं कि सफलता के लिये उनकी बलि दी जा सके! दोनों ही उत्कट प्रेमी थे. उत्कट प्रेम की यह कैसी परिणति? शायद पति – पत्नी के बीच कोई तीसरा आ जाता है – सफलताजनित अहम्मन्यता का प्रेत!
याद है विवाह-वार्षिकी की रात? तुम बम्बई में थे, किसी फिल्म संगीत के सिलसिले में. जब देर रात भी न आए तो स्टूडियो जाकर पता किया था वीणा ने. तुम वहां से कब के जा चुके थे. पता करते – करते वीणा जा पहुंची थी उस होटल में. अन्दर बेड पर कोई नंगी लडक़ी थी और बाहर दुल्हन सी सजी पत्नी! दरवाजे पर रास्ता रोककर खडे तुम हडबडा कर कमरे को फिर बोल्ट करने लगे थे.
\’\’ प्लीज ड़ोन्ट क्रिएट एनी सीन. अपने कमरे में चलो, मैं तुम्हारे कठघरे में खडा हो जाऊंगा.\’\’ तुम गिडग़िडाए थे.
वीणा उसी दम लौट आई बागेश्वरी. उसे मनाने के लिये निसार को साथ लेकर आये थे तुम. बहुत कुछ समझाते रहे थे निसार अपनी बहन को – \’\’ जो हुआ उसे एक बुरे सपने की तरह भूल जाओ. इसी में तुम दोनों की भर्लाई है और तुम्हारी बेटी की भी.\’\’
निसार भाई के साथ आई एक महिला पत्रकार ने वीणा से अकेले में कहा,
\’\’ मैं भी एक औरत हूँ, इसलिये तुम्हारी पीडा को आसानी से समझ सकती हूँ. मगर सच कहूँ यह कला की दुनिया ही अजीब है, वीणा. पता नहीं कौन सी चीज क़िसका प्रेरणास्त्रोत या उद्दीपक बन जाये! पिकासो को जानती हो न! एक बार एक मॉडल उनसे मिलने आई. उसे देखता रह गया वह. कहते हैं दो घण्टे तक भोगता रहा उसे. बाद में जो पेन्टिंग की वह नायाब थी. तो वह था उसका उत्प्रेरक तत्व! लेखकों से लेकर कलाकारों, इवन ॠषियों तक में ऐसे उदाहरण भरे पडे हैं इसे एक आवश्यक बुराई के रूप में लगभग मान लिया गया हे. पश्चिम में तो कोई परवाह भी नहीं करता ऐसी बातों की.\’\’
\’\’तो क्या एक कलाकार को एक हद के बाद स्वैराचार करने की छूट मिल जानी चाहिये सिर्फ इसलिये कि वह कलाकार है? \’\’
मैं ने तुम्हें मां की तरह पाला है, बहन की तरह नेह से नवाजा है, पत्नी बन कर तुम्हारे प्यार पर परवान चढी- आज से नहीं, वर्षों से. यूं ही तुम्हें उजाले में लाने के लिये अंधेरों में गुम नहीं हुई मैं. मुझसे प्यार का ढोंग रचाकर मुसलमान से हिन्दू बनाकर पतिव्रता का लबादा ओढा दिया तुमने, मैं ने जब लबादा हटा कर तुम्हारे आचरण पर टीका-टिप्पणी करनी शुरु की तो चिढक़र मुसलमान की तरह तलाक दे डाला. तुम्हारी हवस किसी एक धर्म की खाल में समा ही नहीं सकती, तुम्हें चार नहीं, चार सौ नहीं, चार सहस्त्र औरतें भी कम पडेंग़ी. वही प्रेरणास्त्रोत है तो बन जाओ सहस्त्रयोनि. मैं इन्तजार कर लूंगी. उम्र और देह की कोई तो हद होगी. सहस्त्रयोनि से कभी तो सहस्त्राक्षु बन कर लौटोगे!\’\’
बन्द कर दिया वी सी आर, लेकर बैठ गई तुम्हारी आत्मकथा. पूरी पढ ग़ई. उसमें वीणा का जिक़्र सिर्फ एक जगह किया गया था, बाकि कहीं नहीं, जैसे न उसके साथ कोई तुम्हारा वर्तामान था, न अतीत और न भविष्य- एक उल्का पिण्ड की तरह जल कर बुझ गया था नाम! खारिज!
तमाम उम्र का हिसाब मांगती है जिन्दगी! तुम्हारे हिसाब में क्या जायेगा- सीढी और सीढी! और उसके हिसाब में सांप और सांप! वह तुम्हारी सीढी तुम उसके सांप!
पुन:श्च –
सोचा था यह मानपत्र तुम्हें भेज दूंगी. इस बीच तुम आ गये. भेज न सकी. फिर सोचा, जाते समय तुम्हें हाथों-हाथ दे दूंगी. दे न सकी. कारण? इस बीच वह विस्फोट हो गया.
यह तो मालूम था कि तुमने फिर कोई शादी रचा ली है, मगर यह भी कोई बात नहीं. दिक्कत तो तब हुई जब तुम अचानक आ धमके और मुझसे कसम तोडक़र बोले, \’\’शादी का यह कतई मतलब नहीं है कि मैं तुम्हारी और कला के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाहता हूँ. चाहता हूँ, उसकी शादी हो जाये. तुम उसके ज्यादा करीब रही हो, पहल तुम्हीं करो तो अच्छा हो.\’\’
मैं ने बहुत सोचा, फिर तुम्हारी बात बाजिब लगी. कला कहीं बाहर जाने को तैयार हो रही थी कि पिछले दरवाजे से उसे पुकारा, \’ \’ बेटी, तुमसे एक बात कहनी थी.\’\’
कला हमेशा की तरह मौन रही. धीरे-धीरे मैं अपने मकसद पर आयी, \’\’ बेटी! मेरी जिन्दगी का कुछ भरोसा नहीं. तुम जवान हो चुकी हो. हम बूढे. मैं जीते – जी तुम्हारे हाथ पीले कर देना चाहती हूँ. तुम्हें कोई लडक़ा पसन्द हो तो बता दो, वरना हम खुद ढूंढ लेंगे.\’\’
कला ने जैसे सुना ही नहीं. वह चुपचाप जूती पहनती रही, बैग सजाती रही फ़िर चल पडी, मगर उसे रुकना पडा, दूसरे दरवाजे पर तुम खडे थे रास्ता रोककर. एक दरवाजे पर मां थी, दूसरे पर पिता, दोनों तरफ से घेर रहे थे दोनों, जैसे वह कोई सिकार हो. ठिठक गई मां की ओर मुडी, \’\’ इस खानदान की एक गौरवशाली परंपरा सुनी है, मां (पता नहीं क्यों सिखलाने पर भी उसने मम्मी, पापा नहीं कहा कभी!) कि बुजुर्ग जाते जाते अपनी सन्तानों को मूरत गढने की कला सिखाना नहीं भूलते. यह भी कुछ वैसा ही आयोजन है क्या?\’\’
लगा कला ने बाबा की पखावज उठा ली हो और किले की पहली ईंट गिरी हो हमारे सीने पर, ढम्म!
\’\’वह विवाह प्रथा, जो किसी को बीहड-बंजर बना दे उसे मैं जूती की नोक पर रखती हूँ, थूकती हूँ महानता के चोंचलों पर, कला के नाम पर चलाए जा रहे तमाम ढकोसलों पर. आय हेट! आय हेट!! आय हेट सच ऑल हीनियस हिप्पोक्रेसीज, दीज मेल एण्ड फीमेले शोवेनिज्म्स!\’\’
\’\’ पागल मत बनो बेटी! जरा सोचो, तुम्हारी सामाजिक सुरक्षा का क्या होगा? कहीं ऊंचे – नीचे पांव पड ग़या तो क्या होगा? \’\’ प्राणपण से मैं ने रोकना चाहा उस विध्वंस को.
\’\’ सुरक्षा? यह तुम बोल रही हो मां? ऊंचे-नीचे पांव ? च्च! च्च्च!! इतनी फिक्र! नाहक दुबली हुई जा रही हो मां. जब जिसके साथ जी आयेगा रह लूंगी, जिसके साथ मन करेगा सो लूंगी. मुझे अहसास हो गया है कि देह ही ठोस सत्य है बाकी कला, प्रतिभा, सृजन देह की ऊर्जा का विस्तार! मुझे तुम दोनों की तरह न महान बनने का लोभ है,न अमर बनने का! सुनो मां, मैं अपनी एंटिटी से किसी भी खुदगर्ज को खिलवाड नहीं करने दूंगी- चाहे वह मां हो या बाप हो, पति हो या सन्तान हो या एक्स, वाई, जेड़,गैर कोई.\’\’
मैं सन्न रह गई थी.
(कहानी हिंदी समय से साभार)
संजीव
तीस साल का सफ़रनामा, आप यहाँ हैं, भूमिका और अन्य कहानियाँ, दुनिया की सबसे हसीन औरत, प्रेत मुक्ति, प्रेरणास्रोत और अन्य कहानियाँ, ब्लैक होल, डायन और अन्य कहानियाँ, खोज, गली के मोड़ पर सूना-सा कोई दरवाजा (कहानी संग्रह)
किसनगढ़ के अहेरी, सर्कस, सावधान! नीचे आग है, धार, पाँव तले की दूब, जंगल जहाँ शुरू होता है, सूत्रधार, आकाश चम्पा ( उपन्यास) आदि