by David Hodgson |
अविनाश मिश्र का यह लेख गोविन्द मिश्र के उपन्यास ‘शाम की झिलमिल’ तक अपने को सीमित नहीं रखता, साहित्य में उम्रदराज पीढ़ी और उनके लेखन में ढलती उम्र की इच्छाएं और विवशताएँ भी यहाँ दृश्य में हैं. यह विवेचना दिलचस्प और कारुणिक एक साथ है.
वृद्धत्व की विवेचनाएं
{गोविंद मिश्र के नए उपन्यास ‘शाम की झिलमिल’ के उजाले में }
अविनाश मिश्र
एक उम्र में आकर अतीत बहुत हो जाता है. वह आज और आगामी दोनों पर ही हावी प्रतीत होता है. मैं इस उम्र से गुजर रहा हूं, लेकिन मैं अतीत के जाल और आगामी की जकड़ दोनों से ही बचना चाहता हूं. आज का आकर्षण मुझमें खूब है, और कोई भी ऊब इस खूब को कम नहीं कर पाती.
आज को समझने के लिए अतीत मुझे अरुचिकर लगता है.
कृष्ण बलदेव वैद अपनी डायरी ‘जब आंख खुल गई’ में बुढ़ापे को बुरी बला कहते हैं, बवासीर से भी ज्यादा बुरी. मैं इस बुरी बला के बीच हूं और मेरे आस-पास मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है. बहुत सारी निर्जीवता के बीच मैं अकेला हूं. मेरी देह एक जर्जर मकान-सी हो चुकी है. इस अकेलेपन में मेरी उम्र के दूसरे क्या सोचते हैं या क्या सोचते रहे होंगे, यह जानने के लिए मैं पढ़ना चाहता हूं. मैं वरिष्ठ उपन्यासकार गोविंद मिश्र के हाल ही में आए उपन्यास को पढ़ना शुरू करता हूं. इसका शीर्षक मुझे आकर्षित करता है— ‘शाम की झिलमिल’. शाम यहां जीवन में मृत्यु के अंधकार (अगर वह अंधकार ही है तो) से पहले का पहर है.
पाठकवादी आलोचना के कोण से देखूं तो यह उपन्यास मुझे अपने बहुत नजदीक लग रहा है, क्योंकि इसमें कुछ प्रकार का बुढ़ापा है जिसका काम स्मृतियों से नहीं चल रहा है. अतीत यहां एक ऐसा स्टेशन है जिसका नाम बदल गया है और जिसके बारे में सोचते हुए यों लग रहा है कि जैसे गुजरने वाला कभी इससे होकर गुजरा ही नहीं. आज में जीने की कामना इस उपन्यास के केंद्रीय किरदार में सब कुछ को जी लेने के बावजूद बाकी है :
‘‘जिस रास्ते से यहां तक आया, वह आगे जाता नहीं दीखता. आस-पास कोई अलग रास्ता— दूसरा-तीसरा, दाएं-बाएं भी नहीं कि उसे पकड़कर चलूं, चलता चला जाऊं… देखूं कि वह कहां ले जाता है आखिर. वैसे अब चलना कोई जरूरी भी नहीं, कहीं पहुंचना तो कतई नहीं. जीवन में जो हो सकता था वह हो लिया— प्रेम, नौकरी, तरक्की, धनोपार्जन, गृहस्थी… इन सबके तनावों, उनके गली-कूचों से गुजर लिया. नए तनावों को ढूंढ़ने, उन्हें जीवन में लाने की तरफ भी निकला… थोड़ा दूर चले तो बोर्ड लगा दिखा— ‘आगे रास्ता बंद है.’ तो अब किधर?’’
[ शाम की झिलमिल, पृष्ठ : 111 ]
मैं इस उपन्यास के केंद्रीय किरदार-सा महसूस कर रहा हूं. प्रश्न और राग मुझसे भी छूट नहीं रहे हैं. अंत की आहटों का संगीत समीप है, लेकिन रागाकुलता नित्य का नियम होती जा रही है. इसे समाज लार बहाना भी कह सकता है और आकर्षण जो अब तक शेष हैं, उनकी वास्तविकता और ईमानदारी पर शक किया जा सकता है. लेकिन मैं ही जानता हूं कि वे मुझे किस कदर बेचैन करते हैं. यह उपन्यास मेरी इस तरह की बेचैनियों का तर्क है. इस तार्किकता में कृष्ण बलदेव वैद की डायरी ‘जब आंख खुल गई’ पर एक बार और नजर जाती है :
‘‘असली बुढ़ापा शायद सत्तर के बाद ही उतरता है. मुझ पर उतर रहा है. अब हर कदम कठिन होना शुरू हो गया है, हर काम बेकार नजर आना, हर रोग अंतिम, हर कोशिश अनावश्यक, हर उपलब्धि अकारथ.’’
‘शाम की झिलमिल’ का बूढ़ा सत्तर बरस की उम्र के आस-पास पहुंचा हुआ लगता है, लेकिन उसकी स्थिति कृष्ण बलदेव वैद की डायरी के बूढ़े से बिल्कुल अलग है. वह कम लाचार, कम बेकार, कम बीमार नजर आता है. इस बूढ़े के सारे कदम एक आसक्ति की उत्तेजना की तरफ बढ़े हुए लगते हैं. निराशाएं कितनी ही निश्चित क्यों न हों, वह विचलित नहीं है. समय को काटने के लिए एक मकसद की चाह में वह बराबर भटक रहा है. इस राह में उसके संघर्ष और उसकी लड़ाइयां उसे लगातार अकेला करती जा रही हैं. लेकिन वह अंत तक सब कुछ भोगते हुए जाना चाहता है. निरासक्त होना उसकी कार्य-सूची में नहीं है. वह लिप्त है और लिप्त रहना चाहता है. उसमें मृत्यु का भय नहीं है. वानप्रस्थ उसके लिए नई वर्जनाएं लेकर आया है, जिन्हें वह बहुत सलीके से तोड़ना चाहता है. कहीं-कहीं वह उंगलियों में फंसे उस अखरोट-सा नजर आता है जिसे किसी दरवाजे के जोड़ के बीच दबाकर तोड़ा जाएगा. इस प्रक्रिया में उंगलिया आहत न हों, इसके लिए पर्याप्त सावधानी बरतनी पड़ती है, लेकिन इस सावधानी के बावजूद अक्सर उंगलियां भी चोटिल होती हैं और अखरोट भी अयोग्य निकलता है :
‘‘पूर्व प्रेमिका से संबंध का खात्मा एक तरह का संदेश है… प्रकृति की ओर से, जैसे वह देती रहती है समय-समय पर, एकाएक खंभे की तरह ला गाड़ती है हमारे जीवन में. मैं चाहूं तो खंभे पर लिखी इस इबारत को पढ़ लूं कि बड़े भाई तुम्हारे लिए अब स्त्री के साथ वाला रास्ता बंद है. तुम स्त्री से कितनी तरह की अपेक्षाएं रखते हो… पर वह बेचारी दे ही क्या सकती है?’’
[ शाम की झिलमिल, पृष्ठ : 127 ]
स्त्री-विमर्श के बीच बदलती नई स्त्री-स्थिति को मैं कुछ इस दृष्टि से देख रहा हूं कि जैसे इसने वे सारी संभावनाएं समाप्त कर दी हैं, जो इस वृद्धत्व में अकेलेपन से थोड़ी राहत दे सकती हैं. ‘शाम की झिलमिल’ में एक स्त्री है जिस पर ससुराल छोड़ने का कलंक ढोने के साथ-साथ कमाने, घर का काम-काज करने और अपनी संतान का भविष्य बनाने का बोझ है. एक और स्त्री है, इसे भी कमाना है और दो बच्चों के साथ-साथ अपनी सास को भी देखना है. एक और स्त्री भी है जिसे लड़का-बहू और उनके बच्चों की चाकरी करते हुए उनकी नजर में ऊंचा भी बने रहना है. एक स्त्री और भी है जो एक रोज अंतरंगता से मिलती है और दूसरे रोज भूल जाती है, जिसे अपने आपको ही ढोना भारी पड़ता है… इन स्त्रियों के संग राग के रोग से ग्रस्त इस उपन्यास का वृद्ध नायक कह उठता है :
‘‘ये बेचारियां क्या दे सकती हैं किसी को. वे अपना देखें या तुम्हें संभाले! तो अब तुम अपनी पुरानी उम्र वाले संबंध या वैसे किसी साथ के सपने न देखो. वे लोग, वह समय गए… अब न तुम, न वह… न कोई उस समय के जैसे हैं.’’
[ शाम की झिलमिल, पृष्ठ : 128 ]
मेरे अपने टूट चुके परिवार से निकले एक परिवार में चार दिन या ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह के लिए जाऊं तो वहां अपने बेटे की पत्नी यानी अपनी बहू को देखकर भी मेरा ‘लिबिडो’ गुदगुदाता है. बेटा उदासीन-सा प्रतीत होता है, लेकिन बहू में उत्फुल्लता नजर आती है. मुझे लगता है कि वह मेरी सारी जरूरतें समझ रही है :
‘‘वह कभी किसी वक्त अकेले कमरे में आ टपकती, रात दस बजे भी… लैंप की मद्धिम रोशनी में तब आकर्षक लगती, बहुत मीठा बोलती…
…वह जितना मेरा ख्याल रखती थी, जितना मेरे लिए करती थी… पत्नी ने कभी नहीं किया, पहली उम्र में भी.’’
[ शाम की झिलमिल, पृष्ठ : 81 ]
मैं ख्याल रखवाने की इच्छा से इस कदर भरा हुआ हूं कि कहीं-कहीं मुझमें स्त्री के प्रति भय छलकने लगता है. सब तरफ एक से बढ़कर एक विकृतियों की खबरें फैली हुई हैं. बलात्कार बराबर बढ़ते जा रहे हैं. समूह के समूह इस बात पर एकमत हैं कि स्त्री अगर स्वतंत्र और अकेली है, तब वह बलात्कार के लिए आमंत्रित कर रही है. ‘गैंग रेप’ शीर्षक से एक चर्चित कविता की रचनाकार कवयित्री शुभा का कहना है कि दस पुरुषों को किसी एक बात के लिए, किसी एक काम के लिए राजी करना आसान नहीं है. इसमें कभी-कभी महीनों लग जाते हैं… आप करके देख लीजिए. सबके अपने-अपने काम और बहाने निकल आएंगे, लेकिन सामूहिक बलात्कार करना हो तो देखिए सब कैसे एक झटके में तैयार हो जाते हैं. यह कौन-सा प्राचीन उत्तेजक विचार है? यह कौन-सी बहुत भीतर दबी हुई नफरत है — स्त्रियों के लिए — जो अलग-अलग दिमाग रखने वाले पुरुषों को एक झटके में स्त्रियों को रौंदने के लिए एकमत कर देती है?
‘‘लिंग का सामूहिक प्रदर्शन
जिसे हम गैंग रेप कहते हैं
बाकायदा टीम बनाकर
टीम भावना के साथ अंजाम दिया जाता है
जिसे हम गैंग रेप कहते हैं
बाकायदा टीम बनाकर
टीम भावना के साथ अंजाम दिया जाता है
एकांत मे स्त्री के साथ
जोर-जबरदस्ती तो खैर
सभ्यता का हिस्सा रहा है
युद्धों और दुश्मनियों के संदर्भ में
वीरता दिखाने के लिए भी
बलात्कार एक हथियार रहा है’’
जोर-जबरदस्ती तो खैर
सभ्यता का हिस्सा रहा है
युद्धों और दुश्मनियों के संदर्भ में
वीरता दिखाने के लिए भी
बलात्कार एक हथियार रहा है’’
ऊपर उद्धृत कविता-पंक्तियां शुभा की ‘गैंग रेप’ शीर्षक कविता से ही हैं. वैसे यह सब विषयांतर-सा प्रतीत हो रहा होगा, लेकिन है नहीं क्योंकि ‘शाम की झिलमिल’ का वृद्ध नायक स्त्रियों पर यौन-आक्रमण और यौन-उत्पीड़न की खबरों से सहमा-सिमटा हुआ है. इसलिए उसकी खोद-खोज जरूरी है. वह कहीं विशाखा गाइडलाइंस की वजह से तो खौफजदा नहीं है? खाट से लगकर अकेलेपन को भोगने वाली अवस्था तक आ चुकने के बाद भी उसकी स्त्रियों में दिलचस्पी न तो सीमित हुई है, न समाप्त. पुरुषों को लेकर स्त्रियों में इस प्रकार की दिलचस्पियां एक उम्र में आकर स्वत: समाप्त हो जाती हैं, वे पुरुषों को कामना की दृष्टि से नहीं, सुरक्षा की दृष्टि से देखने लगती हैं. यह सुरक्षा अगर संभव नहीं है और चाहे-अनचाहे स्वतंत्रता और अकेलापन उन पर आ गिरा है, तब भी वे प्रेम-प्रभाव और यौन-आक्रमण या यौन-उत्पीड़न की दृष्टि से सुरक्षित ही रहती हैं. दैहिक संपत्ति खो चुकने के बाद आर्थिक संपत्ति (अगर वह उनके पास है तो) ही उन पर हमलों या उनके शोषण की वजह बन सकती है. भारतीय समाज में आसानी से यह देखा जा सकता है कि वृद्धप्राय या वृद्ध-स्त्रियां और विधवाएं घर-परिवार में खुद को सहजता से समायोजित कर लेती हैं. अगर वह चल-फिर सकने योग्य हैं तो इस उम्र में भी उनके पास करने को पर्याप्त काम होते हैं. बाकी सारे संदर्भों की अपवाद स्थितियां तो होती ही हैं, इसलिए इनके निष्कर्ष नारी मुक्ति केंद्रों, विधवा-आश्रमों और विडो-होम्स से लेकर उम्र की चोट से घायल सर्वत्र भटकती हुई स्त्रियों में देखे जा सकते हैं.
लेकिन वृद्धत्व तक आ चुके पुरुष में स्त्री को भोगने की विवक्षा विलुप्त ही हो जाएगी, यह मानकर चलना गलत है. ‘शाम की झिलमिल’ के वृद्ध नायक में भी यह विवक्षा शेष है, लेकिन इस विवक्षा की भूलभुलैया में फंसकर नष्ट हो जाने के अज्ञात भय से भी वह ग्रस्त है. खबरें और नए कानून इस भय के उत्प्रेरक हैं, लेकिन फिर भी खुद के साथ किए जा रहे नए-नए प्रयोगों के बीच उसकी यात्रा जारी है और इस यात्रा में सहयात्री और साहचर्य की तलाश भी. उसे लगता है कि अब भी उस पर भरोसा किया जा सकता है. अब भी वह किसी लायक है.
‘शाम की झिलमिल’ से बहुत बरस पहले अपने अंत की ओर बढ़ती हुई उम्र क्या-क्या सोच सकती है, इसे हिंदी में एक और उपन्यास में बताया गया है. यह उपन्यास है— कृष्ण बलदेव वैद का ‘दूसरा न कोई’. बुढ़ापे पर केंद्रित उपन्यास में बीमारियों का बखान तो होगा ही, लेकिन यह बखान उबाऊपन की हदें न छू ले, इसके लिए के. बी. यानी कृष्ण बलदेव वैद ह्यूमर का सहारा लेने को जरूरी मानते हैं. बुढ़ापे का आख्यान लिखने से पहले के. बी. इससे खासे जूझते रहे, उनकी डायरी ‘जब आंख खुल गई’ पढ़कर यों लगता है :
‘‘बुढ़ापा अगर उपन्यास पर हावी होगा तो बीमारी और लाचारी का चित्रण अनिवार्य होगा, लेकिन जरूरी नहीं कि वह यथार्थवादी ही हो. जरूरी क्या है? एक ऐसा उपन्यास जिसमें बुढ़ापे की वीभत्स बेहूदगी भी हो, भव्यता भी. घर, बाहर, बाजार, सड़क, पार्क, अस्पताल, क्लब, मंदिर, पहाड़, आश्रम….’’
‘दूसरा न कोई’ का केंद्रीय किरदार और स्थितियां के. बी. की उस महत्वाकांक्षा को एक सीमा तक ही स्पर्श कर पाती हैं जिसे उन्होंने ‘बुढ़ापा अगर उपन्यास पर हावी होगा…’ यह कहते हुए अपनी डायरी में दर्ज किया है. इस अर्थ में देखें तो देख सकते हैं कि ‘शाम की झिलमिल’ का बूढ़ा ‘दूसरा न कोई’ के बूढ़े का विस्तार है. इस यात्रा के बीच में एक और उपन्यास है — बुढ़ापा जिस पर हावी है —निर्मल वर्मा कृत ‘अंतिम अरण्य’. यहां आकर इस प्रकार एक त्रिकोण पूरा होता है. वृद्धत्व के जिस आख्यान को के. बी. अपनी भाषा-शैली की बुनावट-बनावट और दृष्टि-वैभिन्न्य के चलते एक ऊंचाई पर ले गए, उसके आस-पास आवाजाही के लिए अब दो उपन्यास और हैं.
इन तीनों उपन्यासों के केंद्र में वृद्धत्व है. केंद्रीय किरदार सत्तर बरस के आस-पास के हैं. यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि इन्हें लिख रहे लेखकों की उम्र भी लगभग यही है. इन तीनों उपन्यासों पर किए गए किसी विवेचनात्मक उपक्रम का उद्देश्य बस यही समानता हो सकती है, जो गोविंद मिश्र की नवीनतम औपन्यासिक कृति उपलब्ध करवाती है.
‘शाम की झिलमिल’ से पहले इस त्रिकोण को एक बिल्कुल सीधी रेखा की तरह देखा जा सकता है, विषय की एकरूपता के बावजूद जिसके दो बिल्कुल विपरीत छोर हैं. वृद्धत्व का मध्यवर्ती बिंदु इन्हें परस्पर संबद्ध करता है, लेकिन प्रकटीकरण के प्रयत्न इन्हें पृथक भी करते हैं. यह पृथकता ‘शाम की झिलमिल’ तक आकर भी जारी है.
‘अंतिम अरण्य’ में वर्तमान में गतिमान अतीत की अधिकता है :
‘‘कभी-कभी मैं सोचता हूं कि जिसे हम अपनी जिंदगी, अपना विगत और अपना अतीत कहते हैं, वह चाहे कितना यातनापूर्ण क्यों न रहा हो, उससे हमें शांति मिलती है. वह चाहे कितना ऊबड़-खाबड़ क्यों न रहा हो, हम उसमें एक संगति देखते हैं. जीवन के तमाम अनुभव एक महीन धागे में बिंधे जान पड़ते हैं. यह धागा न हो, तो कहीं कोई सिलसिला नहीं दिखाई देता, सारी जमापूंजी इसी धागे की गांठ से बंधी होती है, जिसके टूटने पर सब कुछ धूल में मिल जाता है. उस फोटो अलबम की तरह, जहां एक फोटो भले ही दूसरी फोटो के आगे या पीछे आती हो, किंतु उनके बीच जो खाली जगह बची रह जाती है, उसे भरने वाला ‘मैं’ कब का गुजर चुका होता है. वे हमारे वर्तमान के नेगेटिव हैं… सफेद रोशनी में पनपने वाले प्रेत… जिन्हें हम चाहें तो बंद स्मृति की दराज से निकालकर देख सकते हैं. निकालने की भी जरूरत नहीं… एक दृश्य को देखकर दूसरा अपने आप बाहर निकल आता है, जबकि उनके बीच का रिश्ता कब से मुरझा चुका होता है.’’
[ अंतिम अरण्य, पृष्ठ : 10-11 ]
‘दूसरा न कोई’ में वर्तमान में व्याप्त भविष्य का भय है :
‘‘दरअसल, मैं चाहता यही हूं कि मेरे बाद मेरा नाम हो, इसलिए होगा नहीं. लेकिन मैं चाहता यही हूं. एक खाम ख्याल कभी-कभी यह आता है कि मरूं नहीं, लेकिन अपनी मौत की अफवाह फैला दूं और देखूं कि मेरा क्या हश्र होता है. यह ख्वाहिश हर खाकी को होती है, जानता हूं. इसी ख्वाहिश ने भूत-प्रेतों को जन्म दिया है. लेकिन इस ख्याल पर अमल अब असंभव हो गया है. कहां छिपता फिरूंगा. इस मकान से बाहर निकलते ही निहत्था हो जाऊंगा.’’
[ दूसरा न कोई, पृष्ठ : 88 ]
‘शाम की झिलमिल’ में अतीत-मोह और भविष्य-भय दोनों से ही मुक्त वर्तमान ही वर्तमान है :
‘‘मैं अकेला हूं… क्या करूं, जीवन से सटना मेरी प्रकृति है.
सटना कहां बुरा है, मैं क्या तुम लोगों से सटता नहीं था… लेकिन ऐकांतिक सटना नहीं. जिस वय, अवस्था में तुम हो, उसमें पहले जैसा सटना नहीं हो सकता. हर उम्र की एक लय होती है, उसके हिसाब से खुद को ढालना हो जाए तो एकलयता आती है जीवन में. स्थिर करो स्वयं को… जहां हो वहीं, अकेले हो तो किताबों को अपना साथी बनाओ. वे तुम्हें स्वयं में स्थिर करेंगी.’’
[ शाम की झिलमिल, पृष्ठ : 116 ]
यह एक द्वंद्वात्मक संवाद है जो एक विषय के सिलसिले में एक उम्र के आखिरी मुकाम पर आकर खुद से होता है. आपने जिनसे दगा की, आप खुद को उनकी जगह रखकर देखने लगते हैं. वार्द्धक्य का एक वैभव इसमें भी है कि अक्सर आप दूसरों के नजरिए से भी सोचने लगते हैं. हालांकि ‘देह और दृष्टिकोण से बाहर निकलना आसान नहीं.’ (देखें : ‘दूसरा न कोई’)
वृद्धत्व जब एक जीवन में घर बनाता है, तो उसमें दरवाजे और खिड़कियां नहीं होती हैं. इस घर में प्रवेश करने की प्रविधि सामान्य नहीं है, इसलिए बहुत सारे संबंध इस प्रवेश-प्रक्रिया से बचने लगते हैं. बहुत सारे प्रसंगों में उन्हें वृद्धत्व को देखना-सुनना एक सजा की तरह लगता है. समग्र अनुशासनों को क्षीण करते हुए इस वक्त तक आते-आते सब कुछ बेवक्त हो जाता है. अनुपस्थिति की तरफ बढ़ती हुई यह अवस्था अनुपस्थितियों को भोगने के लिए अभिशप्त है. यह स्थिति संसार की सारी स्थानिकताओं में लगभग समान है.
*
अनुपस्थितियों से आक्रांत मेरे आज में स्वप्न अतीत का अंग हो चुके हैं. लेकिन कुछ राग मुझमें अब भी शेष हैं. मैं उन्हें गाता हूं, जबकि सुनने वाला कोई नहीं. मेरे गान बहुत अर्थदरिद्र लग सकते हैं, लेकिन मैं चाहता हूं कि मैं जब तक हूं… वे भी रहें….
यह अंत की आहट है. उन सब शुभकामनाओं के प्रति अब अंतिम तौर पर कृतज्ञ होने का वक्त आ गया है, जो मुझे जीवन भर दी गई हैं. ‘दूसरा न कोई’ में उपस्थित विनोदप्रियता, ‘अंतिम अरण्य’ में उपस्थित अध्यात्म, ‘शाम की झिलमिल’ में उपस्थित जिजीविषा… मैं सब कुछ से गुजर चुका हूं. इस पढ़त के पश्चात अर्थग्रहण के आलोक में देखूं तो देख सकता हूं कि ‘शाम की झिलमिल’ में समाज एक सुविधाजनक अमूर्तन भर नहीं है, जैसा कि वह ‘दूसरा न कोई’ और ‘अंतिम अरण्य’ में नजर आता है. वृद्धत्व के साथ नत्थी अकेलापन आपको समाजविमुख बहुत सहजता से कर सकता है. लेकिन ‘शाम की झिलमिल’ इस मायने में वृद्धत्व-केंद्रित हिंदी उपन्यासों की परंपरा में कुछ आगे का उपन्यास प्रतीत होता है, कि इसका केंद्रीय किरदार उम्र के चौथेपन में भी अपनी यात्राओं का रुख भीतर की तरफ नहीं बाहर की तरफ रखने के यत्न में संलग्न है. ‘अंतिम अरण्य’ में सुख पर जो अविश्वास है, ‘दूसरा न कोई’ में जो दिशाहीनता है उसका प्रतिवाद ‘शाम की झिलमिल’ के द्वंद्व बहुत तर्कालोकित ढंग से करते हैं :
‘‘अगर हमें दस लोगों से अविश्वास मिलता है, बाहर अविश्वास ही अविश्वास फैला हुआ है… तो भी क्या सब पर अविश्वास किया जाए. चारों तरफ बुराइयां ही बुराइयां हैं, पर अच्छाई भी कहीं होगी, भले ही अंशमात्र…’’
[ शाम की झिलमिल, पृष्ठ : 160 ]
‘शाम की झिलमिल’ में दिवंगत प्रदेश की यात्रा से पहले राग एक विधेयात्मक तत्व है जीवन का. अंत की आहटें यहां व्यक्तित्व को निर्विषय नहीं कर रही हैं. वृद्धत्व यहां एकांत और अरण्य की शरण्य नहीं चाहता. वह स्थिति के आगे नतमस्तक नहीं है. वार्द्धक्य की आदर्श अवधारणाएं यहां तेल लेने चली गई हैं. ‘दूसरा न कोई’ में जो बात चेतना का हिस्सा थी, ‘शाम की झिलमिल’ तक आते-आते व्यवहार में उतर आई है. बीच में ‘अंतिम अरण्य’ का ‘अर्थगर्भ’ है जिसने कुछ विशेष जन के नहीं दिया है :
‘‘हवा चली, तो पेड़ की पत्तियां खड़खड़ाने लगीं. एक ठंडी-सी ठिठुरन अंदर सिहरने लगी. मेरे भीतर एक अजीब-सा विषाद आ जमा था… लगता था, जैसे बीच के बरसों की एक अदृश्य छाया-सी हम दोनों के बीच आकर बैठ गई है… और हम उसका कुछ नहीं कर सकते.’’
[ अंतिम अरण्य, पृष्ठ : 79 ]
*
इस पाठ के पश्चात मैं इस प्रश्न के आगे प्रस्तुत हो गया हूं कि इन तीन उपन्यासों से गुजरकर मुझे क्या शिक्षा मिलती है?
मेरी उम्र के कई दूसरे — जब मैं अध्ययन में रत हूं — स्त्रियों और बच्चों के यौन-शोषण में व्यस्त हैं, और व्यापार और राजनीति में भी. मेरी उम्र के कई दूसरे साहित्य, संगीत, चित्रकारी, रंगमंच और सिनेमा में भी सक्रिय हैं. कुछ भूमिकाएं समय ने उन्हें सौंप दी हैं और कुछ भूमिकाएं समय से उन्होंने छीन ली हैं. कुछ जगहों पर सत्ता उनके काम आई है और कुछ जगहों पर सभ्यता. वे तमाम तरकीबों और दवाओं की मदद लेकर काल से होड़ लेने में लगे हुए हैं. मेरी उम्र के कई दूसरे — अविवाहित और विधुर — संस्कृतिकर्म, धर्म, ध्यान, योग और अध्यात्म में भी लगे हुए हैं. मेरी उम्र के कई दूसरेमयखानों और तीर्थस्थानों को बार-बार बदल रहे हैं. मेरी उम्र के कई दूसरे — भयभीत, उद्विग्न, अतीतग्रस्त — घर और संसार सबसे उपेक्षित कोनों में पड़े खांस रहे हैं. मेरी उम्र के कई दूसरे — वृद्ध और वृद्धप्राय — समाज की तेज और तेजतर होती रफ्तार में रोज कुचले जा रहे हैं. मेरी उम्र के कई दूसरे — मौसम और भूख की मार से — सारे मौसमों में बेइलाज मर रहे हैं. उनकी लाशें सड़कों, पार्कों, ट्रेनों, बस अड्डों और धार्मिक स्थलों से लेकर कारावासों, अस्पतालों और ओल्ड एज होम्स तक फैली हुई हैं. उनकी लाशों पर दावा करने कोई नहीं आ रहा है. मेरी उम्र के कई दूसरे इस वक्त — जब यह तथ्य दर्ज हो रहा है — दफनाए और जलाए जा रहे हैं. इस अंतिम-क्रिया के फैलाव में मैं अपने अंत को देखते हुए एक वृक्ष के नीचे खड़ा हूं और जीवन एक परीक्षक की तरह मेरे आस-पास मौजूद है. हवा बहुत भारी है. अंधेरा धीरे-धीरे गोधूलि के दृश्य पर चढ़ रहा है. मुझ पर पीले-पीले पत्ते झर रहे हैं. देह अभी और जर्जर होगी, चाल अभी और मद्धम होगी, रोग अभी और घेरेंगे, अकेलापन अभी और सताएगा… यह सब और कुछ नहीं, अंत की चेतावनियां हैं. लेकिन मृत्यु से पहले मरना नहीं है. जीवन-राग को अटूट रखना है. बस यही इस पाठ से प्राप्त हुई शिक्षा है.
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संदर्भ :
प्रस्तुत आलेख में किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित गोविंद मिश्र के उपन्यास ‘शाम की झिलमिल’ के प्रथम संस्करण (2017), वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर से प्रकाशित कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास ‘दूसरा न कोई’ के पॉकेट बुक्स संस्करण (1996) और राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ के प्रथम संस्करण (2000) को आधार बनाया गया है. कृष्ण बलदेव वैद की डायरी ‘जब आंख खुल गई’ राजपाल एंड संस, नई दिल्ली से साल 2012 में प्रकाशित हुई. शुभा की कविता ‘गैंग रेप’ से ली गईं पंक्तियां सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फेसबुक’ की उनकी टाइमलाइन से हैं और उनसे बातचीत का संदर्भ व्यक्तिगत है. प्रस्तुत आलेख लिखते हुए न जाने क्यों शमशेर बहादुर सिंह की कविता ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ बार-बार जेहन में गूंजती रही.
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अविनाश मिश्र का कविता संग्रह \’अज्ञातवास की कविताएँ\’ साहित्य अकादेमी से प्रकाशित है.
darasaldelhi@gmail.com