बहुत कम ऐसे नाटक होते हैं जो अपने में कई तरह के सांस्कृतिक गूढ़ार्थों को समेटे रहते हैं. पिछले दिनों आद्यम के नाट्य समारोह में दिल्ली के कमानी सभागार में पूर्वा नरेश के निर्देशन में हुआ `बंदिश’ ( 20 से 20 हजार हर्ट्ज) एक ऐसा ही नाटक था जिसमें सांस्कृतिक बहुस्तरीयता थी. यों इसके नाम में ही श्लेष है. बंदिश के दोनों अर्थ यहां हैं. संगीत में बंदिश राग के अनुशासन को कहते हैं और आम बोलचाल में बंदिश का मतलब रोक या बंधन है. चूंकि इस नाटक के केंद्र में उत्तर भारतीय संगीत और उसके सामाजिक पहलू से संबंधित कुछ पेचीदगियों को सामने लाना है इसलिए बंदिश नाम के साथ संगीत वाला पक्ष उद्घाटित होता है. और जिस तरह आज राष्ट्रीय सामाजिक जीवन में सोशल मीडिया के उदय से उग्र और उत्पाती मानसिकता को प्रोत्साहन मिल रहा है और उस कारण कलात्मक सर्जनात्मकता पर कई तरह के अघोषित बंदिशें भी लग रहे हैं. उस तरफ भी ये नाटक इशारा करता है. संगीत की बंदिश पर सामाजिक–राजनीतिक–प्रशासनिक बंदिशें लग रही है. दोनों बंदिशों को `बंदिश’ नाम का ये नाटक रेखांकित करता है.
नाटक की शुरुआत इस प्रकरण से होती कि भारत की आजादी के सत्तर साल के मौके पर एक नेता के इलाके में एक जलसा है और उसमें कुछ गायकों और गायिकाओं को बुलाया गया है. कुछ को सम्मानित करने के लिए और कुछ को गाने के लिए. इनमें एक गायिका चंपा बाई है और दूसरी है बेनी बाई. चंपा बाई नौंटंकी की गायिका रही है और बेनी बाई ऐसी तवायफ जो शास्त्रीय–उपशास्त्रीय संगीत गाती रही है. इस कार्यक्रम में इन दोंनों को गाना नहीं है. उनका सिर्फ सम्मान होना है. चंपा बाई गाना चाहती है लेकिन अधिकारी उसे रोकता है और कहता है कि पुराने दौर के लोक कलाकारों को यहां के गाने लिए नहीं बुलाया है, उनका सिर्फ सम्मान होगा और पैसे भी मिलेंगे. बेनी बाई खुद गाना नहीं चाहती क्योंकि उसने नहीं गाने की कसम बरसों पहले ले ली थी.
गाने के लिए बाहर से एक गायिका मौसमी और एक गायक कबीर को बुलाया गया है. ये आधुनिक संगीतकार हैं. लेकिन कबीर के साथ मुश्किल यह पैदा हो गई है कि उसका गाना पड़ोसी मुल्क से है (पाकिस्तान का नाम नहीं लिया गया है लेकिन संकेत उसी तरफ है) और इस कारण सोशल मीडिया में उसके विरुद्ध मुहिम चल पड़ी है. अब अगर वो गाए तो प्रशासन का चैन छिन जाएगा और हंगामा भी हो सकता है. पर कबीर इसको लेकर ज्यादा परेशान नहीं है. वह नहीं गाने का दोगुना पारिश्रमिक मांगता है और ना–नुकुर के बाद प्रशासन इसके लिए तैयार हो जाता है. मौसमी के साथ कठिनाई यह है उसके गाने का ट्रैक सामान के साथ नहीं आ पाया है. इसलिए वो गा नहीं सकती. कुछ आधुनिक और लोकप्रिय गायक (या गायिका) बिना ट्रैक के गा नहीं पाते. ऐसे में कार्यक्रम कैसे हो? प्रशासन मुश्किल में है. इसी मसले पर पूरा नाटक केंद्रित है.
जैसे जैसे नाटक आगे बढ़ता है वैसे वैसे कई सवाल उभरते हैं जो उत्तर भारत के सांगीतिक इतिहास से सम्बन्धित विमर्श के हैं. जैसे ये कि संगीत में आजादी का क्या मतलब है? आजादी की लड़ाई में संगीत और संगीतकारों की क्या भूमिका थी? और आजाद भारत में गायकों और गायिकाओं के सामने क्या कठिनाइयां आ रही हैं? आखिर कबीर क्यों नहीं गा पा रहा है? हालांकि देश में राजनैतिक आजादी बरकरार है पर नए जमाने के सोशल मीडिया ने उसकी आजादी छीन ली है. कलाकार भीड़तंत्र का शिकार हो गया है. मौसमी से संबंधित पूरा प्रसंग यह बताता है कि आज के गायक (या गायिकाएं) तकनीक और छवि के गुलाम बन गए हैं? मौसमी को लगता है कि अगर उसने बिना ट्रैक के गाया तो एक तो उसका एजेंट नाराज हो जाएगा और दूसरे उसकी छवि को धक्का लगेगा क्योंकि बिना ट्रैक के गाने से आवाज और गायन का प्रभाव कम हो जाएगा. वह अपनी छवि के साथ कोई जोखम मोल नहीं लेना चाहती. वह अपने गले पर नहीं बल्कि तकनीक पर निर्भर है. चंपा बाई गाने के लिए हमेशा तैयार है, लेकिन उसे गाने से रोका जाता है और मौसमी, जो बिना ट्रैक के गाने के लिए तैयार नहीं है, से बार बार अनुरोध किया जाता है कि वो कुछ भी गा दे. पुराने और नए दौर के संगीत में कितना बदलाव आ गया है, ये सब यहां उद्घाटित होता है.
पूर्वा नरेश ने नाटक को उन सवालों से जोड़ दिया है जो जिनको लेकर संगीत समाज में चुप्पियां छाय़ीं रहीं और आज भी आज भी वे बरकरार हैं. बल्कि कुछ नई चुप्पियां पैदा हो गई हैं. संगीतकारों की बिरादरी में लोक कलाकारों और शास्त्रीय कलाकारों के बीच कैसे तनाव रहे हैं; तवायफों ने जिस संगीत परंपरा को सुरक्षित रखा और आगे बढ़ाया, उनको भी सामाजिक स्तर पर किस तरह के पूर्वग्रहों का शिकार होना पड़ा; भारतीय रेडियो प्रसारण मे किस तरह के पूर्वग्रहयुक्त वाकये हुए और किस तरह हारमोनियम को रेडियो से लंबे समय के लिए बाहर होना पड़ा– ये और इनके जैसे कई मसले इस नाटक में आते हैं.
बेनी बाई अपने वक्त की मशहूर गायिका रही हैं. पर वह खुद एक सामाजिक लांछन की शिकार है. वह ऐसी तवायफ है जो बैठकों में गाती है. उसने संगीत की एक परंपरा को अक्षुण्ण रखा है. पर उसके साथ आकाशवाणी प्रशासन ने क्या किया? नाटक में यह बताया जात है कि आकाशवाणी लखनऊ ने सामने के दरवाजे से बाइयों का प्रवेश वर्जित कर दिया था और उनके सामने विकल्प रखा था कि या तो वे शादी करके देवी बन जाएं यानी विवाहिता हो जाए (उस समय की ज्यादातर विवाहिताएं अपने नाम के बाद देवी लगाती थीं) या फिर बाई ही बनी रहें और पीछे के दरवाजें से आकाशवाणी केंद्र में अंदर आएं और वहां से बाहर जाएं. यानी कला की दुनिया में बेनी बाई और दूसरी गायिकाएं रातो रात दूसरे दर्जे की नागरिक बन गईं.
बेनी बाई को जब ये बताया गया कि वह सामने के दरवाजे से आकाशवाणी के दफ्तर या स्टूडयों में नहीं आ सकती, तो उसी दिन उसने तय कर लिया कि अब वह गाना नहीं गाएंगी. आजाद भारत में उसकी सामाजिक हैसियत छीन ली जाती है. नाटक में एक जगह आता है जहां बेनी बाई याद करती है कि कैसे बनारस (आज के वाराणसी) में गांधीजी आए थे और साथ में एनी बेसेंट भी थीं. बेनी बाई भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उस जलसे में जाना चाहती थी जहां ये कार्यक्रम होना था. उसे लगता था कि उसको बुलाया आएगा क्यों तब के बनारस में जब भी कोई कार्यक्रम होता था बेनी बाई को निमंत्रित किया जाता था, गाने के लिए. लेकिन उस रात बुलावा नहीं आया. वह वहां तब भी जाना चाहती थी भले गाना गाने के लिए न कहा जाए. लेकिन बुलावा नहीं आया. फिर भी आजादी की लड़ाई का जोश और जज्बा उसके भीतर बरकरार रहा. एक बार जब उसके सामने हैदराबाद के निजाम ने शादी का प्रस्ताव रखा (यानी उसे निजाम की कई बेगमों में से एक होना था) तो उसे भी बाई ने ठुकरा दिया.
अपने वक्त की इतनी खुद्दार औरत और गायिका आजादी के बाद के भारत में बेहैसियत हो जाती है. नाटक में बेनी बाई पूछती नहीं है किंतु ये सवाल कानों में गूंजता रहता है कि आजादी ने उसे क्या दिया? या देश की आजादी ने उसके सम्मान को इस तरह ध्वस्त क्यों कर दिया?
`बंदिश’ नाटक संकेत करता है कि आजादी की लड़ाई के दौरान भारत की औरतों में, तवायफों और गायिकाओं में भी, नए व्यक्तित्व ने आकार लेना शुरू किया. जयशंकर प्रसाद के शब्दों में कहें तो उनको भी भारत `मधुमय़’ देश लगने लगा. लेकिन विडंबना देखिए, स्वाधीन भारत में उनकी वो छोटी–सी हस्ती और भी छोटी कर दी गई. यह भारत की आजादी का वह पहलू है जिसे इतिहास में न पढ़ाया जाता है और न लिखा जाता है.
प्रसंगवश यहां बता दिया जाए कि नाटक में जिस बेनीबाई का जिक्र है वह वास्तविक चरित्र थीं और जबलपुर के सांस्कृतिक जीवन में उनकी अपनी अहमियत थी. हालांकि `बंदिश’ में बेनी बाई से जुड़े कई वाकये काल्पनिक हैं पर कुछ वास्तविक प्रसंग भी हैं. कहा जाता है कि बेनी बाई को एक बार `शाहजहां’ फिल्म में अभिनय करने का मौका भी मिल रहा था मगर उन्होंने यह प्रस्ताव इस ठुकरा दिया था. उनको एचमवी में गाने की रिकॉर्डिंग करने का प्रस्ताव दिया लेकिन उन्होंने इस बिना पर इसे ठुकरा दिया था कि ये गाने पान की दुकानों पर सुने जाते हैं. यानी गानों को आम लोग सुनें ये बेनी बाई को मंजूर नहीं था.
तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. हालांकि यह प्रसंग नाटक में नहीं है लेकिन नौटंकी के कलाकारों के लिए बेनी बाई के मन में हिकारत का भाव रहा. संभवत: ये काल्पनिक प्रसंग है. हालांकि नौटंकी कलाकारों के लिए बेनी बाई सरीखे संगीतकारों के मन में जो पूर्वग्रह रहा हैं वह एक सामाजिक सच्चाई है. लेकिन ये पूर्वग्रह सिर्फ उसके नहीं, बल्कि मोटे तौर पर समाज के ताकतवर वर्ग के हैं.
एक आम धारणा है (जो बनाई गई है लेकिन अब स्वयंसिद्ध लगती है कि) कि नौटंकी एक लोककला है. इसलिए नौटंकी के कलाकार को भी लोककलाकार का दर्जा देने की परिपाटी बन गई है और उसके कलाकारों ने भी इसे मन ही मन स्वीकार कर लिया है. यानी दूसरों की दी गई छवि के आत्मसातीकरण का मामला है. `लोककला’ होने की वजह नौटंकी का दर्जा शास्त्रीय संगीत–नृत्य, आधुनिक संगीत या आधुनिक नाटक से नीचे है. नौटंकी के इतिहास को देखें तो वह लोककला नहीं बल्कि आधुनिक कला है. उत्तर प्रदेश में नौटंकी का उदय और उत्कर्ष भारतीय आधुनिकता का प्रथम चरण था. दरअसल उसने नाटक में व्यावसायिकता का प्रवेश कराया और उसका दंड भी उसे भोगना पड़ा. इस इतिहास में जाने का वक्त यहां नहीं है लेकिन इस तथ्य से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि हजारों की संख्या में लिखित नौटंकियां रही हैं, फिर वो लोककला कैसे है? जिस विधा में लिखित की इतनी समृद्ध परपंरा रही है उसकी गणना लोककला के रूप में कैसे हुई, ये अलग अध्ययन और विवेचन का विषय है.
वे कौन थे जो नौटंकी की परिभाषा गढ़ रहे थे और उनके पूर्वग्रह क्या थे? ये सवाल उठने चाहिए. `बंदिश’ नाटक इस सवाल को नहीं उठाता पर उस तरफ सोचने के विचार–सूत्र देता है. नौटंकी के केंद्र में गायकी रही है. (नृत्य भी उसका महत्त्ववूर्ण अंग रहा.) लेकिन शास्त्रीय गायकों ने उसे अपने बगल में बैठने की जगह नहीं दी. शास्त्रीय संगीतकार कुर्सी पर बैठा रहा और नौटंकी वाला (या वाली) जमीन पर. शायद इसका एक कारण यह भी रहा कि नौटंकी के स्टेज पर महिलाएं भी आईं. हर पितृसत्तात्मक व्यवस्था की तरह भारतीय आधुनिकता के प्रारंभिक दौर में जब महिलाएं नौटंकी में आई तो उनको मध्यवर्ग ने सम्मान के साथ नहीं देखा. (आकस्मिक नहीं कि उत्तर भारत में नाटकों में भी महिलाएं भी देर से मंच पर आईं. पर वह अलग इतिहास है).
दूसरा कारण शायद वह रहा जिसकी तरफ जगदीश चंद्र माथुर ने अपनी पुस्तक `परंपराशील नाट्य’ में संकेत किया है. नौटंकी के जो कलाकार थे उनमें ज्यादातर तथाकथित निम्न जातियों से थे. और उसके गुणी ऊंची जाति के और संपन्न. मिजाज और व्यवहार में सामंती. यह याद रखने की बात है कि एक लंबे समय तक औरतों और बच्चों का नौटंकी में प्रवेश वर्जित रहा. कारण यह बताया जाता रहा कि नौटंकी में `अश्लीलता’ होती है. लेकिन विश्लेषण करें तो यह तथ्य भी उजागर होगा कि नौटंकी में अगर तथाकथित अश्लीलता रही तो इस कारण भी उसमें दर्शकों के रूप में औरतों और बच्चों का प्रवेश वर्जित रहा. क्या अगर औरतें और बच्चे भी लगातार नौटंकी देखने जाते तो क्या उसमें ये तथाकथित अश्लीलता होती? क्या नौंटंकी में `अश्लीलता’ जारी ऱखना ही कुछ लोगों का निहित स्वार्थ नहीं था?
नौटंकी कलाकार कलाकार तो रहा (या रही) लेकिन उसकी सामाजिक स्थिति सम्मानपूर्ण नहीं रही. हालांकि संगीतकारों को लेकर भी भारतीय समाज में कुछ पूर्वग्रह रहे. इसलिए मामला जटिल है. परंतु इतना तो कहा जा सकता कि जिस नौटंकी ने उत्तर भारतीय समाज को फिल्मों के आगमन के पहले सबसे अधिक मनोरंजन दिया उसका कलाकार समाज में दलित (य़हां `दलित’ शब्द जाति सूचक नहीं है) स्थिति बनी रही. कुछ अपवाद हो सकते हैं पर स्थिति यही रही. `बंदिश’ नाटक में भी इसकी तरफ हल्का इशारा है. जिन चार कलाकारों को समारोह में बुलाया गया है उनमें चंपा बाई सामाजिक रूप से सबसे नीचे वाले पायदान पर है. बाकी तीनों से गाने के लिए अधिकारी की तरफ से बार बार अनुरोध किया जाता है लेकिन उसके चाहने के बाद भी उसे गाने का अवसर नहीं दिया जाता. आखिर वो लोककलाकार जो ठहरी!
चंपाबाई उस वाकये को याद करती है जिसमें वह कभी बेनी बाई से कुछ सीखने गई थी. लेकिन बैठक में प्रवेश करते ही सुना कि वो (बेनीबाई) उसका मजाक उड़ा रही है. वो दरवाजे से ही वापस लौट गई. लेकिन वह दंश उसके भीतर बरकरार है. नाटक में जब बेणी बाई गाना शुरू करती है `जब मैं हो गई सोलह बरस की..’ और `सोलह’ शब्द का जिस तरह उच्चारण करती है उसमें लोच नहीं है. चंपा बाई उसे टोकती है और अपनी तरह से `जब मैं हो गई सोलह बरस की…’ गाती है तो उसके `सोलह’ के उच्चारण में जिस तरह की मुदलता है वह बेनी बाई के गायन में नहीं है.
यहां यह ध्वनित होता है कि नौटंकी की गायनशैली में जो मृदुलता है, वह शास्त्रीय–उपशास्त्रीय गायन के पास या बेनी बाई जिस तरह की गायन शैली का प्रतिनिधित्व कर रही है, उसके पास नहीं है. नौटंकी की गायकी को लोक–रिझाऊ घोषित किया जाता रहा. और इस तरह उसका दर्जा कम किया जाता रहा. हालांकि संगीत– साधना वहां भी थी, लेकिन शुद्धतावादियों ने उस साधना को व्याकरण सम्मत नहीं माना. हालांकि यहां यह ऩिष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि शुद्धतावादियों के अपने मानदंडो में कोई दोष था. मगर यह तो मानना होगा कि जिस लोकप्रिय कहते हैं उसकी भी अपनी जगह होती है और वह जगह सामाजिक स्तर पर कमतर नहीं होनी चाहिए. आज के दौर में फिल्मी संगीत वही कर रहा है जिसे कभी नौटंकी के संगीत ने किया था. यह अच्छी बात है कि फिल्मी संगीत को नौटंकी–संगीत की तरह समाजशास्त्रीय स्तर पर अवमूल्यित नहीं होना पड़ रहा है.
अभिनय के बारे में थोड़ा जिक्र हो जाए तो बेहतर हो. यद्यपि इस नाटक के मूल में संगीत है फिर भी इसके अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने जो भूमिकाएं निबाहीं वे चुनीतीपूर्ण थीं. कुछ मुख्य अभिनेताओं की चर्चा करें तो चंपा बाई की भूमिका में अनुभा फतेहपुरिया थीं, बेनी बाई की भूमिका में निवेदिता भार्गव. इप्सिता चक्रवर्ती सिंह ने मौसमी और आवश्यकतानुसार युवा चंपा बाई और युवा बेन बाई की भूमिकाएं निभाईं. दानिश हुसैन मुन्नू के चरित्र में थे. मुन्नू उस तरह का आद्य चरित्र है जो पहले हर पारंपरिक गायिका/तवायफ के यहां होता था और जो कलाकार तो नहीं होता था लेकिन उसके बिना गायिका का काम नहीं चलता था. वह मैनेजर भी था, मजदूर भी, सलाहकार भी, बॉडीगार्ड भी. वह कई भूमिकाओं में होता था. स्वाभाविक था यह मुश्किलों से भरा चरित्र था और दानिश ने उसको बेहतरीन ढंग से निभाया. उनके अभिनय में हास्य भी भरपूर था और व्यंग्य का पुट भी था.
अनुभा फतेपुरिया प्रशिक्षित वास्तुशिल्पी हैं और गाती भी हैं. चंपा बाई की भूमिका में उन्होंने उस कलाकार की पीड़ा को सामने लाया जो तमाम तरह के लांछनों के बावजूद अपने भीतर के उत्साह को बनाए रख सकी. चंपा के चरित्र मे चुलबुलापन है तो बेनी के चरित्र में गांभीर्य. निवेदिता भार्गव ने उस गांभीर्य की निरंतरता आखिर तक बनाए रखी. और इप्सिता तो कई रंगों में थी. वो मौसमी की भूमिका में आज की उस गायिका को सामने ला रही थी जो पूरी तरह तकनीक पर निर्भर है. फिर उसने चंपा बाई और बेनी बाई की युवावस्थाओं के अलग अलग प्रसंगों को उनके ही अंदाज में निभाया. हाल के वर्षों जो हिंदी रंगमंच पर अभिनेत्रियां अपनी प्रतिभा में निहित विविधता को दिखाती रही हैं उसमें इप्सिता अग्रगण्य हैं.
नाटक जिस बिंदु पर समाप्त होता है वह यह व्यंजित करता है चारो कलाकार अपनी अपनी तऱफ से आजादी पा लेते हैं. आखिर में चारो गाते हुए मंच से जाते हैं. मौसमी यह नहीं सोचती कि उसका ट्रैक आया है या नहीं, कबीर इसकी परवाह नहीं करता कि सोशल मीडिया में उसके बारे में क्या चल रहा है, चंपा बाई को अब कोई रोकने वाला नहीं है और बेनी बाई ने अपनी शपथ तोड़ दी है. चारो अपनी अपनी तरह से कलाकार की आजादी का जयघोष अपने गानों से करते हैं.
नाटक में एक हल्की–सी अपरिपक्व राजनीतिक टिप्पणी भी है जिसको संपादित किया जाना चाहिए. मुन्नू एक स्थान पर कहता है कि 1947 में भारत को डोमिनियम स्टेटस मिला था और तब आजादी नहीं मिली थी. यह नजरिया इतिहास सम्मत नहीं है. भारत को 1947 में आजादी मिली थी और वह संपूर्ण प्रभुता संपन्न गणराज्य बना था 1950 में. लॉर्ड माउंटबेटन गवर्नर जनरल बने भारत के नेताओं की सहमति से, न कि ब्रितानी महारानी के आदेश से. सत्ता हस्तांतरण की एक प्रकिया होती है, वह पूरी तरह रातोरात नहीं होता. इसको लेकर भ्रम में नहीं रहना चाहिए. वैसे भी मुन्नू का एकाएक राजनैतिक पंडित में तब्दील हो जाना बनावटी लगता है.
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रवीन्द्र त्रिपाठी
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