हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के ‘सायंस टेक्नोलॉजी एंड सोसायटी स्टडीज\’ के पीएच.डी. छात्र रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी ने समाज, छात्र–राजनीति और शिक्षा-तन्त्र पर सवाल खड़े कर दिए हैं.
विश्वविध्यालयों की स्थापना के मूल में ही यह निहित है कि वे सभी तरह की सीमाओं (धर्म, समाज,राज्य) और वर्जनाओं से परे एक स्वायत्त और स्वतंत्र क्षेत्र बनेंगे जहाँ ज्ञान का संवर्धन सुनिश्चित किया जा सके. क्यों ये आधुनिक गुरुकुल एकलव्यों की कब्रगाह बनते जा रहे हैं?
एकलव्यों की शहादत की परम्परा रही है. इस सवाल को बड़े सन्दर्भ में देख रहे हैं युवा समाजशास्त्री संजय जोठे.
एकलव्यों की शहादत और रोहित वेमुला
संजय जोठे
दलित अस्मिता के लंबे संघर्ष और ज्ञान सहित ज्ञान की ऐतिहासिक राजनीति के सन्दर्भ में चार बहुत महत्वपूर्ण प्रतीक हैं जो बहुत गहराई से ध्यान में रखे जाने चाहिए. ये चार प्रतीक चार दिशाओं की तरह हैं जो इस सन्दर्भ विशेष में आज तक उभरी चार आत्यंतिक संभावनाओं को उनकी प्रेरणाओं और सफलताओं/असफलताओं के साथ उजागर करते हैं. दलित अस्मिता के संघर्ष के भूत, वर्तमान और भविष्य को इन चार प्रतीकों के आईने में रखकर देखिये आप न सिर्फ कारणों और प्रक्रियाओं को देख पाएंगे बल्कि समाधान को भी देख पाएंगे.
ये चार प्रतीक कौनसे है? ये चार प्रतीक ऐतिहासिक क्रम में इस प्रकार हैं: एकलव्य, विवेकानन्द, अंबेडकर और हाल ही में उभरे रोहित वेमुला.
इन चारों में कुछ हद तक वैचारिक संगति है लेकिन थोड़ी ही दूर चलकर वह संगति भंग हो जाती है और चारों के मार्ग अलग अलग हो जाते हैं. अब कई लोगों को इन चारों में संगति या विसंगति की खोज और इस खोज से निकलने वाले विमर्श से कष्ट हो सकता है और वे इस पूरे प्रयास को एक प्रक्षेपण या आरोपण भी कहेंगे. लेकिन इसके बावजूद इस तरह के विमर्श को विकसित करके चर्चा में लाने का समय आ चुका है.
इन चार व्यक्तियों में – जो विचार और कर्म यात्रा के चार प्रतीक या चार दिशाएं हैं – उनमें क्या समानता या संगति है? ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि ये चारों शूद्रया उससे भी नीचे माने गए दलित और आदिवासी हैं. एकलव्य एक आदिवासी जनजातीय समाज से आते हैं जो हिन्दू वर्ण व्यवस्था से बाहर का समाज है. विवेकानन्दकायस्थ यानी शूद्र हैं. लेकिन अंबेडकर और रोहित वेमुला दलित हैं, जो कि फिर से वर्ण व्यवस्था से बाहर के समाज से आते हैं. इनमे से कालक्रम में शुरुआती दो प्रतीक ज्ञान की राजनीति में गुरु भक्ति, दासता और इनसे उभरने वाले शोषण और व्यक्तिगत या सामूहिक पराजय से जुड़े प्रतीक हैं और बाद के दो प्रतीक विद्रोह और उससे उभरने वाले भविष्य के पुनर्निर्माण के प्रतीक हैं.
आइये इन प्रतीकों में प्रवेश करें. सबसे पहले एकलव्य को लेते हैं. एकलव्य एक जनजातीय समाज के महान धनुर्धर और योद्धा हैं जो उस समाज के सत्ताधीशों के लिए और धर्म के ठेकेदारों के लिए एक संभावित खतरा बन गए थे. एक ज्ञान का रसिक और प्रतिभाशाली धनुर्धर जो अपनी धुन का पक्का है और एकांत में जंगल में गुरु द्वारा दुत्कार दिए जाने के बावजूद अपनी लगन से धनुर्विद्या का महान कौशल अर्जित कर लेता है. इस बात को देखकर निश्चित ही शोषण पर जीवित परजीवियों को डर लगता है कि इस बालक ने अगर भविष्य में इस विद्या का उपयोग सत्ताधीशों के खिलाफ किया तो उनकी खैर नहीं. यह एक व्यक्ति के विद्रोह सहित उसके पूरे समुदाय की तरफ से उठ खड़े हो सकने वाले विद्रोह की संभावना से भय था. इस भय का निवारण दो तरह से किया गया, पहला तरीका था गुरुभक्ति के भावनात्मक जाल में फंसाकर एकलव्य को गुरुदक्षिणा के लिए राजी करना और इस तरह उसका अंगूठा मांगकर उसे अपंग बना देना. सभी भावुक और सरल एकलव्य सदा ही इस जाल में फंसते आये हैं. यहाँ गौर करनेकी बात ये है कि गुरु द्रोण ने एकलव्य को शिष्य बनाने से बहुत पहले ही इनकार कर दिया था और किसी भी रूप में वो एकलव्य से गुरुदक्षिणा लेने के अधिकारी नहीं थे, लेकिन यह एकलव्य की भावुकता थी जो उन्हें गुरु मानकर उनके लिए अपंग होने को प्रस्तुत हो गया.
दूसरा तरीका था इस गुरुभक्ति को एक नैतिक आदर्श की तरह प्रस्तुत करना और एकलव्य के समाज के साथ भविष्य में इस बात की पुनरावृत्ति को न्यायसंगत ठहराना, इस घटना की ऐसी व्याख्या करना जिससे कि गुरु द्रोण और उनकी षड्यंत्र रचने वाली घोर अनैतिक मानसिकता पर प्रश्न न उठाये जाएँ. फिर हमेशा की तरह आस्था और गुरुभक्ति की चाशनी में लपेटकर यह जहर एकलव्य की संतानों को भी सदियों तक पिलाया गया. इन दो तरीकों ने एकलव्य सहित उसके समुदाय में उठ सकने वाली समानता की पुकार और मांग को नष्ट कर दिया गया.
दूसरा उदाहरण या प्रतीक स्वामी विवेकानन्द का है. विवेकानंद कायस्थ यानि शूद्र हैं. वे अपने ब्राह्मण गुरु रामकृष्ण के अनन्य भक्त हैं और सच में ही एक आध्यात्मिक प्रज्ञा से सम्पन्न महापुरुष हैं. उनके सचेतन व निर्णय पूर्वक किये गए समाज सुधार आंदोलनों और धर्म प्रचारों से ऊपर ऊपर बहुत फायदा हुआ नजर आता है. लेकिन बहुत गौर से देखें तो वे एकलव्य की तरह ही शोषक मानसिकता के प्रति समर्पित नजर आते हैं. वे अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और गहरे सामाजिक सरोकार के कारण अपने काम के दौरान उसकी निस्सारता की संभावना को भी अनुभव करते रहे हैं. इसी कारण वे जानते रहे हैं कि जब तक समाज की संरचना में मूलभूत बदलाव नहीं होता तब तक उनके या अन्य किसी के भी धर्म प्रचार या अध्यात्मिक जागरण का कोई मूल्य नहीं हो सकता. यह जानते हुए वे बहुत बार निराश हुए हैं और इसी निराशा में उन्होंने अनेकों बार चेतावनी दी है कि शूद्र बहुसंख्यकों को उनके वैध अधिकार अगर नहीं दिए गए तो एक दिन वे हिन्दू समाज को फूंक मारकर उड़ा देंगे.
विवेकानंद स्वयं एक शूद्र कुल की संतान होने के नाते शोषण और दमन को बहुत करीब से देख सके थे. लेकिन जिस तरह एकलव्य एक झूठी गुरुभक्ति में फंसकर अपने अंगूठे सहित अपने जीवन की तमाम सृजनात्मक संभावनाओं को दान में दे चुके थे उसी तरह विवेकानंद भी एक झूठे और परलोकवादी अध्यात्म में फंसकर अपनी तार्किक और क्रांतिकारी संभावनाओं को दान कर चुके थे. यहाँ गौर करना होगा कि परलोकवादी अध्यात्म की गुलामी एक व्यक्ति या आदर्श की गुलामी की तुलना में बहुत अधिक भयानक होती है, यह शोषित व्यक्ति की पूरी प्रतिभा सहित उसके जीवन भर के कर्तृत्व को ही अपह्रत कर लेती है और शोषक सत्ता को बनाए रखने में उसी की शक्ति का इस्तेमाल कर लेती है. विवेकानंद वो एकलव्य हैं जिनसे उनका अंगूठा नहीं माँगा गया बल्कि इससे कहीं आगे बढ़कर उन्हें इस बात के लिए प्रशिक्षित किया गया कि वे लाखों एकलव्यों को ऐसा पाठ पढाये जिससे कि वे समानता और अधिकार की बात ही न उठा सकें. वे एक मासूम कठपुतली की तरह शोषक व्यवस्था द्वारा अपने ही बहुसंख्य बंधुओं के खिलाफ इस्तेमाल कर लिए गए नजर आते हैं. और यह काम उन्होंने आत्मा परमात्मा भक्ति और पुनर्जन्म के शोषण भरे सिद्धांत को प्रचारित करके किया.
यह एक सच्चाई है कि इन्ही सिद्धांतों में फंसे होने के कारण दलितों और स्त्रियों ने हजारों साल की लंबी अमानवीय यातना के बावजूद व्यवस्था के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं किया. विवेकानंद स्वयं में एक ईमानदार और मानवतावादी चिंतक रहे हैं लेकिन वे जिस भक्ति के प्रभाव में फंस गये वहां उनके तर्कपूर्ण चिंतन के लिए काम करने की कोई सुविधा न थी. शिकागो वक्तृता के नतीजे में पश्चिमी समाज से उन्होंने जो कुछ सीखा उसे लागू करते हुए वे एक महान क्रांतिकारी की मुद्रा अपना लेते हैं लेकिन एक धर्म पुरुष या सन्यासी होने के मोह या पहचान से बाहर नहीं निकल पाते. इस द्वंद्व से गुजरते हुए वे बहुत ही रेडिकल कदम उठाते हैं और उन्ही के समकालीन ब्राह्मण उनके शूद्र होने का ताना मारते हुए उन्हें परेशान करते हैं. लेकिन वे अपने धार्मिक और आध्यात्मिक आदर्शों से मुक्त नहीं हो सके. इसीलिये उनकी व्यक्तिगत इमानदारी के बावजूद उनके मन में बैठ गए आदर्श ने उनसे शोषितों के खिलाफ ही एक बड़ा काम करवा लिया. यह असल में ऐसी बात है कि एकलव्य का अंगूठा नहीं काटा गया बल्कि एकलव्य को उसके समस्त कौशल और क्षमताओं के साथ उसी के लोगों के खिलाफ खड़ा कर दिया गया.
अब हम अंबेडकर पर आते हैं. अंबेडकर शुरुआत से ही ज्ञान और सत्ता की राजनीति सहित धर्म और अध्यात्म के खेल को भी बहुत गहराई से समझ लेते हैं. चूँकि उनका सामना किसी भारतीय शैली के द्रोण से या गुरुकुल परम्परा से नहीं होता बल्कि वे ब्रिटिश राज में लोकतांत्रिक ढंग से रची गयी इंग्लिश माध्यम की शिक्षा प्रणाली से गुजरते हैं इसलिए निष्पक्ष, वैज्ञानिक और तटस्थ प्रज्ञा की धार उनमे शुरू से ही आकार ले लेती है. ब्रिटिश सेना में सूबेदार रहे उनके पिता उन्हें जैसे संस्कार और निडरता सिखाते हैं उनके प्रभाव में बालक अंबेडकर गुरुभक्ति और धर्मान्धता से आजाद हो चुके होते हैं. इसीलिये वे न एकलव्य बनते हैं न विवेकानंद, वे संविधान निर्माता और भारत में सामाजिक बदलाव के सबसे बड़े प्रेरणा स्त्रोत बन जाते हैं.
अंबेडकर को इस अर्थ में देखना एक नया अनुभव है. उनके जीवन और कर्तृत्व की सार्थकता को कई कोणों से देखा जा सकता है लेकिन ज्ञान और सत्ता की ऐतिहासिक राजनीति के अर्थ में उन्हें इस तरह देखना एक प्रेरक अनुभव है. अंबेडकर जिस तरह से अपने ज्ञान को गुरु और धर्म की सब तरह की भक्तियों से मुक्त करते चलते हैं वो बात बहुत ही सूचक और प्रेरक है. उनके ज्ञान और इस ज्ञान को अर्जित करने में किये गए संघर्ष में लेशमात्र भी स्वार्थ न था वे अपने समुदाय अपने लोगों के लिए संघर्षरत थे और अंततः इसी ज्ञान से उन्होंने भारतीय सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक इतिहास की वो इबारत लिखी जो सबके लिए प्रेरणास्त्रोत बन चुकी है.
अंबेडकर स्वयं बहुत लोगों से सहायता लेते हैं. न सिर्फ नैतिक समर्थन और प्रेरणा वे कई सवर्ण प्रगतिशीलों से लेते रहे हैं बल्कि कईयों से आर्थिक सहायता भी उन्होंने ली हैं. लेकिन एकलव्य और विवेकानंद से अलग जाकर उन्होंने गरीबों और अपने दलित वंचित समुदाय के हित से कभी समझौता नहीं किया. यहाँ यह बात गहराई से नोट करनी चाहिए कि वे धर्म और व्यक्ति दोनों की गुलामी से आजाद थे इसलिए इतना सार्थक निर्णय ले पाए और उस पर आजीवन अमल कर पाए. ये दलितों, आदिवासियों और शूद्रों (ओबीसी) के लिए भविष्य निर्माण के लिए सबसे बड़ी सीख है जो इस तुलना में उभरती है.
अब अंत में रोहित वेमुला को लेते हैं. एक गरीब किसान परिवार में जन्मे रोहित शुरुआत से ही अभावों और अकेलेपन में जीते रहे. आर्थिक कठिनाइयों से गुजरते हुए ज्ञान के प्रेम ने उन्हें आकर्षित किया और तमाम मुश्किलों से गुजरते हुए उन्होंने एक कठिन राह चुनी. इस देश में पीएचडी करना और ज्ञान को अपना व्यवसाय बनाना वैसे भी एक कठिन चुनाव है. और अगर आप दलित या आदिवासी समाज से आते हैं तो ये बहुत हद तक एक आत्मघाती निर्णय है. लेकिन रोहित अपने रुझान से बुद्धिजीवी थे और उन्होंने यह मार्ग चुना. वे भी अंबेडकर के रास्ते पर हैं और तर्क और तटस्थ वैज्ञानिक चिंतन को आधार बनाकर अपना विचार जगत रचते हैं. वे एक प्रकृति विज्ञान के लेखक बनना चाहते थे लेकिन सामाजिक विज्ञान की विद्रूपताओं के लिए भी पर्याप्त जागरूक व सक्रिय थे. अगर वे एकलव्य या विवेकानंद की तरह किसी व्यक्ति या परलोकवादी विचार के गुलाम होते तो वे भी कहीं अंगूठा गँवा चुके होते या अपने कौशल को अपने ही लोगों के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे होते. लेकिन सौभाग्य से वे सब तरह की भक्तियों से मुक्त थे. इस तरह वे एकलव्य और विवेकानंद के मार्ग पर नहीं गए. लेकिन वे अंबेडकरी रुझान और क्षमता होने के बावजूद अपनी यात्रा बीच में ही क्यों छोड़ गए, ये बड़ा प्रश्न है. इसका उत्तर अंबेडकर की जीवन यात्रा से गुजरते हुए मिलता है.
अंबेडकर की ही तरह रोहित अभाव में जन्म लेते हैं और उन्ही जातिगत भेदभाव कुंठा और अकेलेपन से गुजरते हैं. जीवन और विचार यात्रा की शुरुआत में ही वे भी किसी कुटिल या शोषक व्यक्ति सहित शोषक धर्म के प्रभाव में नहीं आते. लेकिन औपचारिक शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश करने के बाद शिक्षा के तन्त्र में फंसकर वे बहुत कमजोर हो जाते हैं. अंबेडकर जिस तरह अपनी शिक्षा के लिए धन और समर्थन जुटा सके थे वैसा समर्थन रोहित न जुटा सके. साथ ही एक संगठित षड्यंत्र ने जिस तरह रोहित के खिलाफ मोर्चा खोला और उन्हें मानसिक रूप से परेशान व अकेला कर दिया वह भी अपने आप में एक बहुत बड़ा कारक रहा है उनके आत्मघात के चुनाव का. अपने करियर, अपनी पढ़ाई और परिवार सहित अपने लोगों के लिए अपनी प्रतिबद्धता के बीच वे संतुलन नहीं बैठा पाए और अपनी जीवन और चिन्तन यात्रा पर स्वयं ही पूर्ण विराम लगा दिया. उनपर विश्वविद्यालय के महत्वपूर्ण स्थानों पर जाने पर जो पाबंदी लगाईं गयी, जिस तरह से छात्रावास से निकाला गया, उनके लिए वह सब बहुत ही निराश और अकेला कर देने वाला अनुभव था. उन्ही के पत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि पिछले सात महीनों से फेलोशिप न मिलने के कारण वे भयानक आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे. रोहित के मामले अपर विचार करते हुए हम पाते हैं कि कहाँ पर उनकी यात्रा अंबेडकर की यात्रा की दिशा से भिन्न हो जाती है.
अब इस पूरे प्रसंग में हमारे लिए क्या ग्रहणीय है? भारत के बहुसंख्य गरीब, ओबीसी दलित आदिवासी सहित स्वयं सवर्ण बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हमें क्या करना होगा? बहुत साफ़ शब्दों में कहा जाए तो हमारे लिए एक ही ग्रहणीय है. हमें अगर शोषण और अवैज्ञानिक आदर्शों से मुक्त होना है तो हमें गुरु (व्यक्ति) और धर्म के सम्मोहन से अपने बच्चों को आजाद करना होगा. यह एक अन्य सच्चाई है कि सवर्ण बच्चे भी अगर वैज्ञानिक चिंतन से दूर रहेंगे तो उनका भविष्य भी अच्छा नहीं है, वे भी विज्ञान, तकनीक और समतामूलक समाज की रचना करने में पश्चिमी बच्चों से पिछड़ते जायेंगे.
हमे गुरुभक्त एकलव्य या धर्मभक्त विवेकानंद नहीं चाहिए. हमें वैज्ञानिक चिन्तन से भरे रोहित और अंबेडकर चाहिए, वह भी इस विनम्र आग्रह के साथ कि आगे कोई रोहित भविष्य में अंबेडकर हुए बिना बीच में ही न रुक जाए. इसके लिए यह जरूरी है कि वर्तमान और भविष्य के रोहितों को कंगाल और अकेला बनाने वाले षड्यंत्रों को बेनकाब किया जाए. दलित, आदिवासी और ओबीसी (शूद्र) छात्रों को आर्थिक सहयोग के अलग से इन्तेजाम किये जाएँ और छात्र राजनीति की गुंडागर्दी को रोका जाए. यह न केवल इस देश के बहुसंख्य शूद्रों, दलितों, आदिवासियों के हित में है बल्कि यह तथाकथित सवर्ण लोगों के भी हित में है. कोई भी समाज या देश अपने बहुसंख्य गरीबों का तिरस्कार करते हुए स्वयं सुख से या स्वतंत्रता से नहीं जी सकता. भारत की लंबी गुलामी और पराजय इस बात का सबूत है.
जिन लोगों को भारत से प्रेम है उन्हें इस बात पर सहानुभूति से और गहराई से विचार करना चाहिए. अगर वे अपने बहुसंख्य भाइयों को उनका वैध अधिकार देने की सुविधा जुटाते हैं तो यही उनकी तरफ से इस देश की सबसे बड़ी सेवा होगी.
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जिन लोगों को भारत से प्रेम है उन्हें इस बात पर सहानुभूति से और गहराई से विचार करना चाहिए. अगर वे अपने बहुसंख्य भाइयों को उनका वैध अधिकार देने की सुविधा जुटाते हैं तो यही उनकी तरफ से इस देश की सबसे बड़ी सेवा होगी.
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संजय जोठे university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com