\”कविता मेरे लिए एक आश्रयस्थली है. यह आजकल के तमाम कठोर और ख़तरनाक किस्म के सरलीकरणों के खिलाफ एक अन्तर्मुखी अभियान की तरह है. कविताएँ कुछ ऐसा देख या पकड़ लिया करती हैं जो अन्यथा अनदेखा ही रह जाता. कई बार ऐसा लगता है कि ये तमाम ज्ञान, तमाम ज्ञानानुशासनों और तमाम पढ़ाई-लिखाई का अनायास ही सार और तत्त्व हैं. इनसे किसी को कोई आनन्द मिलता है या नहीं, यह गौण है. असल बात तो यह है कि तमाम बिसरा दिये गये जन-सरोकार, मानसिक और ज़रूरी द्वन्द्व तथा परिवर्तनकामी विचार कविता के बहाने ही सही, न सिर्फ़ जीवित रह जाया करते हैं बल्कि अपना थोड़ा-बहुत असर भी छोड़ते हैं. हम पर, आप पर, सब पर और पूरे समाज पर. यह बात बिसरायी जा रही तमाम भाषाओं और बोलियों के लिए शिल्प के स्तर पर भी उतनी ही खरी है, जितनी कि कथ्य के स्तर पर.\”
कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं
इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब
इसलिए उतना ही देखो, जितना दिखाई दे पहली बार में,
हर दूसरी कोशिश आत्महत्या का सुनहरा आमन्त्रण है
और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे-फूटे शब्दों में ज़रूर बता सकते हैं शायद.
मतदान के अधिकार और राजनीतिक लोकतन्त्र के सँकरे
तंग गलियारों से गुज़रकर स्वतन्त्रता की देवी
आज माफ़ियाओं के सिरहाने बैठ गयी है स्थिरचित्त,
न्याय की देवी तो बहुत पहले से विवश है
आँखों पर गहरे एक रंग की पट्टी को बाँधकर बुरी तरह…
बहरहाल दुनिया के बड़े काम आज अनुमानों पर चलते हैं,
क्रिकेट की मैच-फ़िक्सिंग हो या शेयर बाज़ार के सटोरिये
अनुमान निश्चयात्मकता के ठोस दर्शन से हीन होता है
इसीलिए आपने जो सुना, सम्भव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है…
सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्वि-अर्थी हों ताकि
बाद में आपसे कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रान्ति और भ्रम के बीच सन्देह की सँकरी लकीरें रेंगती हैं
इसीलिए
सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब !
(२०१२ के भारत भूषण अग्रवाल से सम्मानित कविता)
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हृदय का दृष्टि दोष
भावनाओं पर रेलगाड़ी दौड़ा दी गयी,
पटरियाँ सुन्न हो गयीं मन की
बिखर गये विचार
जैसे नदी अपने मुहानों पर बिखर जाती है,
फिर सागर में उतर जाती लुप्त होकर.
लाल गुलाब की अधखिली कली से
चिपकी ओस की बूँद अब बनावटी लगती है,
शायद दर्शन-शक्ति को लकवा मार गया है.
इन्द्रियों का सारथी
दुनिया से हार गया है.
महसूस ही नहीं होती प्रकृति;
आकृष्ट नहीं करता सौन्दर्य;
आस्वादन नहीं होता रस का;
और कोई अहसास भी नहीं
किसी प्रतीक, रस या बिम्ब का !
अम्बर का सन्नाटा नापती दृष्टि
बगल वाले आदमी की इच्छा तक
नहीं भाँप पाती;
यह हृदय का दूर दृष्टि दोष है
इसीलिए आकाश ताकने में बड़ा आराम मिलता है
लेकिन पूरी की पूरी धरती
जहन्नुम नज़र आती है,
और कोई भी आँख
धरा की पीर नहीं देख पाती है !
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मैं सुभक्ष्य रहा
मैं सुभक्ष्य रहा सदैव
तुम्हारे लिए और तुम्हारी ही
उन कामनाओं के लिए जिनमें
बस मैं ही मैं व्याप्त रहा
किसी नियमित सातत्य की मानिन्द.
तुम्हारी सुविधाजीविता से उद्भूत सारे ग़ैर-ज़रूरी संघर्ष
मेरे ही हिस्से आए सदैव
और अनचाहे ही संघर्षों की सन्तति बना मैं.
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गुम गया सौन्दर्य
बीत चुके जीवन
और पाँच पानी के प्रदेश की
पुरानी सभ्यता में
सौन्दर्य के उच्छलन की
खोज करती सूक्ष्म दृष्टि
रुक जाती है
मील के कुछ पत्थरों पर.
आग, पहिये और नुकीले
प्रस्तर हथियारों के बिन्दु पर,
वियोगी कवि की
आह से उपजे गान की
पहली पंक्ति पर,
उस वार्तालापहीनता पर
जो हिमालय के बहुत ऊँचे
दो पड़ोसी शिखरों के मध्य कायम है.
मिस्र के पिरामिडों, सीजर की कथाओं
और हाल ही में
निचुड़कर ख़त्म हो चुकने के बाद
आज़ाद हुए अफ़्रीकी देशों की व्यथाओं पर.
आज़ादी के अफ़्रीकी अर्थ पर भी,
जहाँ इसका मतलब
या तो भूखों मरने की स्वतंत्रता है
या एड्स के दुष्चक्र में जा फँसने का
सहज लोकतांत्रिक विकल्प.
शायद इसीलिए राज्य की उत्पत्ति के
अनेक सिद्धान्त
एशिया, यूरोप, अमेरिका और अफ़्रीका पर
एक-से नहीं लागू होते.
मायने अलग हैं उनके.
एक की गर्दन झुकती है प्रार्थना के लिए
लाठी सहने के लिए दूसरे की
मारने के लिए तीसरे की….
एक की कोई काव्य-भाषा ही नहीं,
भाषा की अपर्याप्तता को
कोसते हुए रचता है दूसरा.
फूल एक जैसा कहाँ खिलता है,
सभी के लिए !
शकों, हूणों, चोलों, मुग़लों, मंगोलों पर…
यहाँ भी कि कैसे-कैसे अनेक किरदार
इतिहास के कूड़ेदान में पेंदे पर चले गये.
रुकती है निगाह वहाँ
भाषा पर सबसे जघन्य हमले हुए जहाँ.
अवास्तविक शहर, आभासी सत्य, उबकाई और
बेतुके नाटक समेत रामराज्य की संकल्पना पर भी.
पर सौन्दर्य का उच्छलन कहीं मिलता नहीं,
सरलता का सोता कहीं दिखता नहीं.
हाँ, विश्वास के छले जाने, रिश्तों को बेच डालने,
सत्ता के लिए छल-छद्म-साम-दाम
सभी के प्रयोग के तरीके मिल जाते हैं
कमोबेश एक-से, सभी जगह.
फिर चाहे वे नोर्डिक मिथक कथाएँ हों
या लैटिन अमेरिकी साहित्य का जादुई यथार्थवाद.
कहीं-कहीं, एकाध जगह
अभावों की सलाखों से नज़र आता है
सौन्दर्य का उच्छलन, झीना-सा.
खिसियाकर झाँकते हुए
बार-बार ठगे गए तुतलाते बच्चे-सा;
कह रहा हो मानो
सौन्दर्य-सौन्दर्य के शोर में
शोर सुन्दर हो गया
गुम गया सौन्दर्य
करीब-करीब हमेशा के लिए.
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वॉन गाग को याद करते हुए…
उसके किसी प्रेमी का
चित्रों से पुता फाटक,
डॉन मैक्लीन की कविता
फिलिप स्टीवंस का नाटक,
इरविंग स्टोन का चर्चित उपन्यास,
जाक दुत्राँ, अकीरा कुरासोवा या
विंसेंट मिनेली की फ़िल्में
या कहानीकारों की उस पर भी
एक कहानी लिख ही डालने की प्यास…
मात्र नौ बरसों में हज़ारों
चित्र बनाकर, गोली खाकर मरने वाले
उस नायक की कहानी ही तो बताते हैं.
उसका काम हो या उसकी
उतारों-चढ़ावों की जीवन-लीला
या आलोचकों के ये शब्द कि
‘बाकी सब तो ठीक है,
बस उसके दिमाग़ का स्क्रू था ज़रा ढीला…’
तभी विरह वेदना में आलोड़ित होकर
एक धर्म-प्रचारक बन गया था
और उसकी कृतियों में धर्म का
‘भद्दा’ रंग बुरी तरह सन गया था.
पर रोज़-रोज़ सत्य बेचने वाले
आलोचकों से पूछना प्रासंगिक है
कि ये सत्यवादी तो नहीं बन पाये
उसने तो उनसे भी बेहतर चित्र बनाए
जिन्हें वह बचपन में बेचा करता था.
फिर कला-प्रवृत्तियों की कसौटियाँ किसने बदलीं !
क्या किसी और ने !
और ये इम्प्रेशनिज़्म या छायावाद का प्रभाव,
जीवन में आनन्द का अभाव
उलझनों की श्रृंखला…
कौन था यह एक्सप्रेशनिज़्म का जनक,
अभिव्यंजनावाद का पिता !
किसकी निगाहें निजी बगीचों
या रसूख वाली अँग्रेजी महिलाओं के भी
परे जाया करती थीं !
(ज़ाहिर है उसी की.)
तभी तो उसके कैनवस पर
किसान, उनके गाँव
खुशियों की धूप और जीवन की छाँव
अनाज, पुआल, पनचक्की
आलू खाते ग़रीब या ‘छोटे’ लोग
जो पल-पल खाते धक्के,
इसी से जनमे ‘स्टारी नाइट’ में रंगों के थक्के.
तारों ने जगाया जिस भीतर सोई आग को,
सोचकर
धन्यवाद देने का मन करता है विंसेंट वॉन गाग को.
रात, अँधेरा, प्रकृति और तारे
‘द स्ट्रीट’ बनी घर के किनारे
‘स्टारी नाइट ओवर द रोन’, ‘कैफ़े टैरेस एट नाइट’…
दुनिया के लिए जो छोटी चीज थी,
हर ऐसी चीज़ उन्हें कितनी अजीज थी !
पर उनकी धरोहरों के लिए किसे श्रेय दें
छोटों को, नाइट को, तारों को
या दिल में सुलगती वेदना की आग को !
या फिर स्वयं विंसेंट वॉन गाग को !
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कवायद
शरियाली* से वशिष्ठ आश्रम या कामाख्या के
बीच कीचड़ भरे रास्ते एक संकेत करते हैं.
न भी करते हों तो मयूरद्वीप ज़रूर करता है.
अगर वह भी अक्षम हो
तो दौल के बाहर मारकस बजाता अन्धा
जतिंगा पहाड़ियों की उजड़ी चोटियों-सा
कुछ कह रहा है.
जीवन ही नहीं, प्रगति भी कितनी निस्सार है !
विदशी कार से रौंदकर मारे गये
एक आवारा कुत्ते के सपनों-सी अर्थहीन !
ज़िन्दगी इतनी महीन !!
कि कोई देख भी न पाए
मदद तो दूर की बात है.
हर जगह दिन है
बस ज़िन्दगी में रात है.
क्या ये संकेत सुनकर
कभी अरुणोदय की हालत आएगी !
पता नहीं.
हर जगह किन्तु-परंतु-शायद है
इसीलिए हर संकेत एक व्यर्थ की कवायद है.
(असमिया भाषा में शरियाली* का मतलब चौराहा होता है.)
वक्तव्य :
युवा कवि प्रांजल धर ने पिछले कई सालों से अपनी सतत और सार्थक सक्रियता से ध्यान आकृष्ट किया है.‘जनसत्ता’ में26 अगस्त, 2012 को प्रकाशित उनकी कविता ‘कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं’ सचमुच भयानक ख़बर की कविता है. यह कविता अपने नियंत्रित विन्यास में उस बेबसी को रेखांकित करती है, जो हमारे सामाजिक–राजनीतिक जीवन को ही नहीं , हमारी भाषा और चेतना को भी आच्छादित करती जा रही है. लोकतंत्र एक औपचारिक ढाँचे मात्र में बदलता जा रहा है. स्वतंत्रता और न्याय जैसे मूल्यवान शब्दों का अर्थ ही उलटता दिख रहा है. नैतिक बोध खोज की जगह सुविधाजीविता ने ले ली है. इस सर्वव्यापक नैतिक क्षरण को प्रांजल धर बहुत गहरे विडम्बना–बोध के साथ इस सधे हुए विन्यास वाली कविता में मार्मिक ढंग से ले आते हैं. निश्चयात्मक नैतिक दर्शन से वंचित इस समय का बखान करती इस कविता में ‘अनुमान’ शब्द ज्ञानमीमांसा के अनुमान का नहीं, सट्टेबाजी के ‘स्पेकुलेशन’ का वाचक बन जाता है, और आत्महत्या का ‘पाप’ बुनकरों तथा किसानों की विवशता का.
जिस समय में कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं रहा, उस समय के स्वभाव को इतने कलात्मक ढंग से उजागर करने वाली यह कविता निश्चय ही 2012 के भारत भूषण अग्रवाल सम्मान के योग्य है.
पुरुषोत्तम अग्रवाल_____________________________