• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मंगलाचार : शायक आलोक

मंगलाचार : शायक आलोक

शायक आलोक ने अपनी सक्रियता से इधर ध्यान खींचा है. उनमें संभावना है. कविताएँ प्रेम के इर्द गिर्द हैं, उनमें डूबती उतराती. यह एक ऐसा प्रक्षेत्र हैं जहां आवेग और संवेदना के सहारे अभिव्यक्ति की शैली अपना आकार लेती है. जो लेती दिख रही है. कुछ कविताएँ प्रचलित प्रेम परिपाटी से अलग हैं और नई […]

by arun dev
August 28, 2012
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

शायक आलोक ने अपनी सक्रियता से इधर ध्यान खींचा है. उनमें संभावना है. कविताएँ प्रेम के इर्द गिर्द हैं, उनमें डूबती उतराती. यह एक ऐसा प्रक्षेत्र हैं जहां आवेग और संवेदना के सहारे अभिव्यक्ति की शैली अपना आकार लेती है. जो लेती दिख रही है. कुछ कविताएँ प्रचलित प्रेम परिपाटी से अलग हैं और नई भंगिमा रखती हैं. सार्थक रचनात्मकता की उम्मीद के साथ.. 

रेने माग्रित

भागी हुई लडकियां

हौव्वा नहीं होतीं 
घर से भागी हुई लड़कियां 

पहनतीं हैं पूरे कपडे 
संभाल के रखती हैं खुद को 
एक करवट में गुजारी रात के बाद 
सुबह अँधेरे पिता को प्रणाम करती है 
माँ के पैरों को देख आंसू बहाती है 
गली के आखिरी मोड़ तक मुड मुड कर देखती हैं दरवाजा 
घर के देवता को सौंप आती है मिन्नतें अपनी 

प्रेयस को देख मुस्कुराती हैं घर से भागी हुई लड़कियां 
विश्वास से कंधे पर रख देती है सर अपना 
मजबूत होने का नाटक करती 
पकडती है हथेली ऐसे 
जैसे थाम रखा हो पिता ने नन्ही कलाई उसकी 
और सड़क पार कर जाती है 

नए घर के कच्चे मुंडेर से रोज आवाज़ लगाती हैं भागी हुई लड़कियां 
वहीं रोप देती है एक तुलसी बिरवा 
रोज रोज संभालती गृहस्थी अपनी 
कौवों को फेंकती हैं रोटी 
माँ से सुख दुःख की बातें 
चिड़ियों को सुनाती है 

फफक कर रो देती हैं घर से भागी हुई लड़कियां 
घर से भागी हुई लडकियां 
हौव्वा नहीं होती … 

प्रेमी और पिता
अपनी आवारा कल्पनाओं में एक लड़की छोड़ आती है पिता के नाम एक ख़त
\’पिता मैं जा रही हूँ ..रहूंगी वहीं उसके संग.. हाँ पिता उसे प्रेम है मुझसे\’
पिता चिट्ठी हवाओं को खिला देते हैं/ सांझा बाती में मगन माँ जान नहीं पाती..
आवारा लड़की प्रेमी से पिता का प्यार नहीं मांगतीं / नहीं पूछती प्रयोजन
दो पुरुषों के बीच उसे नहीं दीखता कोई विरोधाभास – दोनों हैं अलग
पिता का प्यार पिता का, प्रेमी का प्रेम वाला- समझती है खूब
कल्पनाओं में माँ को अब भी सांझा बाती में ही मगन रखती है लड़की.
अपनी आवारा कल्पनाओं में लड़की एक साथ दो बच्चों को जन्म देती है
एक का नाम पिता से पूछ कर रखती है तो दूसरे को \’प्रेम\’ पुकारती है
सांझा बाती से लौट आई माँ जब आँखें दिखाती है / कल्पनाओं से
बाहर आ रसोई में घुस जाती है/ देर तक चाय पकाती है आवारा लड़की.
आवारा लड़की की आवारा कल्पनाओं में तुलसी पर जलता है दीया
प्रेमी गली में होर्न बजाता रहता है, आवारा आवाजें निकालता है / वह
अनसुनी किये पिता के पैर दबाती है / देर तक माँ के जुड़े सजाती है
अपनी आवारा कल्पनाओं में आम लड़की आवारा हो जाती है रोज एक घडी
आवारा लड़की अपनी कल्पनाओं में आम लड़की हो जाती है !!
कल्पनाओं में जब टकराती हैं दोनों तो सखी बन जाती है /मन के
दुःख बाँट लेती हैं / प्रेमियों के दोष गिनाती हैं / पिता पर प्यार लुटाती हैं
सांझा बाती में मगन माँ से जब भी नजरें मिलाती हैं तो ठहठहा के
एक पल फिर आवारा बन जाती हैं.
फिन्गर्ज़ क्रोस्स्ड
तुम पर प्रेम कविता लिखना इतना आसान तो नहीं
घटनाक्रम जुड़ता ही नहीं
और शर्त यह कि नहीं हो कोई बात पुरानी
स्वाभाविक बाध्यता कि दुहराव न हो 

तुमपर कविता का प्रारम्भ तुम्हारी हंसी से हो
फिर बात हो तुम्हारी हथेलियों की
इरेज कर दिया जाए तुम्हारी हथेली का शुक्र पर्वत
प्रेम को देह के दायरे से खेंच लूँ सायास
कनिष्ठा के नीचे एक गहरी लकीर खींच दूँ 

कविता में लाया जाए तुम्हारे आंसुओं का बहाव
आँखों के ठीक नीचे एक मिट्टी बाँध जोड़ दूँ
तिर्यक मोड़ से जब जब गुजरे नदी
बात तुम्हारे अल्हडपन की हो
अपने होठों में दबाकर तुम्हारे सीत्कार के शब्द 
कविता में ही हो बात उस अंगडाई की भी 

तुम पर प्रेम कविता लिखना इतना आसान तो नहीं 

इस कविता के मध्य में बादलों की बात हो 
तुम्हारे आँचल की गंध और आवश्यकता से बड़े उस चाँद का बिम्ब हो 
खूब जोर से बहाई जाये ठंडी तेज हवा 
तुम्हारे सिहरने को शब्दों में दर्ज किया जाए 
मध्य में ही लाई जाए तीन तारों की कहानी 
कम्पास से मापकर 
अक्षरों में एक समबाहु त्रिभुज बनाया जाए 
अंगुली के पोर से

अंत नहीं होगा कोई इस कविता का 
अधूरी ही रखी जाये यह पूरी अभिव्यक्ति 
अतृप्त ही रहे तमाम ख्वाहिशें 
लबों का गीलापन वाष्पित न हो 
हवा में तैरने का सिलसिला शब्द जारी रखें 
प्रेम के ढाई पदचिन्ह टांकती रहे यह कविता 
\’\’
फिन्गर्ज़ क्रोस्स्ड \’\’ !! 

तुम पर प्रेम कविता में करूँगा 
\’
भी\’ निपात का खुलकर प्रयोग 
तुम पर प्रेम कविता लिखना इतना आसान \’भी\’ नहीं.


मेरी कविता की काल्पनिक प्रेयसी
मेरी इस कविता की काल्पनिक प्रेयसी 
पहली बार प्रेम में है 
कविता की शुरुआत में ही 
भूल गयी है लड़की होने के कायदे–क़ानून 
उसकी गूंजती हंसी पर नजरें तरेरती है माँ
बिल्कुल इसी हंसी पर प्रेमी कलेजा थाम लेता है 

यह काल्पनिक प्रेयसी लिखती है चिट्ठियां 
चिट्ठियों के हर्फ़ में हैं सकुचाई सी मन की बातें
हर चिट्ठी में सूई से सिल देती है अपना एक तिल 
पहले चूमती है लिफाफे को कई कई बार 
फिर पता लिखती है 

मैंने बोला है उसे सलीका सीखने को 
कहा है कि खैर करे 
यूँ नहीं निखरना चाहिए उसके चेहरे का रंग 
छत की मुंडेरों तक कैद रखे वह अपने देह की खुशबू 
मुझे मेरी कविता के मध्य में 
मोहल्ले मैं फैली कल्पकथा नहीं चाहिए ! 

इन दिनों चुप रहती हैं काल्पनिक प्रेयसियां 
वे नहीं भूलती अपना पहला प्रेम 
नहीं भूलेगी वह भी 
पढ़ी चिट्ठियों को दबा देगी आँगन में 
चिल्ला कर कहेगी कभी प्रेम नहीं किया उसने 
चुप्पी में कहेगी प्रेम नहीं करुँगी अब 

मेरी कविता की काल्पनिक प्रेयसी ने 
मेरी कविता के अंत में तयशुदा शादी कर ली ! 

 ख… रु… कि..
ख़त … रुमाल
किताबें ! 

माँकीचिट्ठी
जिसमेचिंतासेज्यादाव्याकरणदोषहै
मेब्लीनकालिप्समार्कजिसकेप्रयोगकीजरुरतन थी
कार्डिनकीकलम
जिसकीस्याहीयहाँनहीमिलती
औरमेराबचाहुआलड़कीपन

मेरेपासएकडब्बेमेंयहसबहै

मेरेप्यारकाटायटेनिकजहाजहैयहडब्बा
इसीडब्बेकेचारोंकिनारोंपर
पहलेप्रेमकेअहसासदर्जहैं
इसीएककिनारे
पैरलटकाएहीरोआखिरीबारहीरोइनकीस्केचबनाताहै
मैंखामोशीसेसीनादबायेरखतीहूँ

मायकेसेमिली
कपड़ोंकीबनीएकगुडिया
जिसकेपूरेमाथेसिन्दूरहै
इसीडब्बेमेंरहतीहै

इसबारजबजोरसेचलेगीमानसूनीहवा
गुडियाकोसमंदरमेंडालदूंगी

रुमालोंकोधोनाहोगा!
किताबेंमैंनेबेचदी!!

 ____________________________________________

शायक आलोक 
8 जनवरी 1983, बेगूसराय (बिहार)
शिक्षा– परा–स्नातक (हिंदी साहित्य)
कविताएँ – कहानियां  पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित
सन्मार्ग और नव–बिहार दैनिक समाचार पत्र में पोलिटिकल कमेंट्री और स्तम्भ लेखन
सम्प्रति– कस्बाई समाचार चैनल \’सिटी न्यूज़\’ और साप्ताहिक अखबार \’बेगूसराय टाईम्स\’ का सम्पादन
ई पता : shayak.alok.journo@gmail.com 
ShareTweetSend
Previous Post

परिप्रेक्ष्य : साहित्य की मुक्ति

Next Post

परख : अदृश्य भारत : भाषा सिंह

Related Posts

ग़ुलामी के दस्तावेज़ और सवा सेर गेहूँ की कहानी : सुजीत कुमार सिंह
आलेख

ग़ुलामी के दस्तावेज़ और सवा सेर गेहूँ की कहानी : सुजीत कुमार सिंह

कविता क्या है? की चौ-पाई : वागीश शुक्ल
समीक्षा

कविता क्या है? की चौ-पाई : वागीश शुक्ल

पंडित ठाकुरदत्त शर्मा : आयुर्वेद, विज्ञापन और ब्रांड : शुभनीत कौशिक
इतिहास

पंडित ठाकुरदत्त शर्मा : आयुर्वेद, विज्ञापन और ब्रांड : शुभनीत कौशिक

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक