आशुतोष भारद्वाज
मृत्यु से दो साल पहले फ्रांत्स काफ़्का की 1922 में प्रकाशित इस कहानी की कई व्याख्याएँ हुई हैं- मृत्यु-आकांक्षा, एकाकी कलाकार, आध्यात्मिक शून्यता. इसके नायक का चालीस दिन का उपवास मूसा, एलिजा और जीसस क्राइस्ट के इतनी ही अवधि के उपवास से जोड़ कर पढ़ा गया है. समूची बाइबिल में शायद तीन ही अवसर हैं, जब उपवास इतना लम्बा गया है. मुझे नहीं मालूम कि काफ़्का के ज़ेहन में यह संदर्भ था या नहीं, लेकिन उनका नायक चालीस दिन की सीमा से कहीं परे निकल जाना चाहता है.
बहुत पहले एक अमरीकी बौद्ध मुझे दलाई लामा के एक उत्सव में धर्मशाला में मिले थे. उन्होंने मुझे बताया था कि यह कहानी कुछ बौद्ध मठों के ‘पाठ्यक्रम’ में भी है. प्रौढ़ भिक्षु नवजात बौद्ध के समक्ष उपवासी कलाकार का पाठ करते हैं, इस कथा का सन्देश अपनी आत्मा में धारण करने को प्रेरित करते हैं.
बहुत पहले मैंने एकाकी कलाकार के आंतरिक संघर्ष और मृत्यु पर अपनी प्रिय कृतियों का उल्लेख किया था- बाल्ज़ाक की ‘द अननोन मास्टरपीस’, हेनरी जेम्स की ‘द मैडोना ऑफ़ द फ्यूचर’, कृष्ण बलदेव वैद का ‘दूसरा न कोई’ और काफ़्का की ‘हंगर आर्टिस्ट’. काफ़्का की इस कहानी का पुनर्पाठ करते हुए मेरा यह पाठकीय विश्वास दृढ़ हुआ है.
फ्रांत्स काफ़्का |
उपवास कला में जनता की दिलचस्पी पिछले कुछ दशकों से काफी कम होती गयी है. पहले इस कला का बड़े स्तर पर सार्वजनिक प्रदर्शन व्यावसायिक रूप से लाभदायक हुआ करता था. इन दिनों यह एकदम असंभव है. समय बदल गया है. उन दिनों पूरा शहर उपवासी कलाकार की कला में रुचि लेता था. दर्शकों की भीड़ उसके उपवास के पहले दिन से जुटने लगती थी. हर इंसान कलाकार को दिन में कम-अस-कम एक बार देखना चाहता था. उसके उपवास के अंतिम दिनों में लोग सीजन टिकिट लेकर सलाखों वाले उसके छोटे-से पिंजरे के सामने दिन भर बैठे रहते थे. लोग रात में भी उसे देखने आया करते थे, जब मशाल की लपट में उसका पिंजरा चमकता रहता था.
अच्छे मौसम में उसका पिंजरा खुले मैदान में ले जाया जाता था, जहाँ बच्चों के लिये उसका विशेष प्रदर्शन होता था. बड़ों के लिये वह भले ही एक जोकर, मसखरे से अधिक न था, जिसे चूँकि सभी देखने आते थे वे खुद भी आ जाते थे, बच्चे विस्मय से उसे देखते थे. डरे-सहमे बच्चे एक दूसरे का हाथ थामे देखते रहते काले कपड़ों में लिपटी उस मरियल काया को, जिसके पेट की हड्डियाँ भयानक तौर से उभरी रहतीं थीं, जो भूसे के ढेर में धंसकर बैठे रहने के लिये कुर्सी तक को हटा दिया करता था. दर्शकों के प्रश्नों के जवाब देते वक्त उसके होंठों पर कसकती मुस्कान उभर आती, और वह अपना सिर अदब से झुका देता. कभी वह अपनी बाँहें सलाखों से निकाल बाहर फैला देता कि लोग देख सकें वह कितना पतला है.
वह अमूमन अपने में सिमटा रहता था, किसी पर ध्यान नहीं देता. उस घड़ी पर भी नहीं, जो पिंजरे में रखी अकेली वस्तु थी और उसके लिये बड़ी महत्वपूर्ण थी. बस अधखुली आँखों से सामने ताकता रहता, छोटे से गिलास से पानी का बस इतना घूँट लेता कि होंठ भीग सकें.
आते-जाते दर्शकों के अलावा, वहाँ जनता द्वारा नियुक्त संतरी भी तैनात रहते थे. दिलचस्प है कि वे अक्सर कसाई हुआ करते थे. उनकी तीन शिफ्ट में ड्यूटी हुआ करती थी, वे दिन-रात उपवासी कलाकार पर नजर रखते थे कि कहीं वह बेईमानी से चोर-छुपा कर कुछ खा न ले. यद्यपि यह जनता को आश्वस्त करने के लिये महज औपचारिकता थी. सभी जानते थे उपवास के दौरान वह कलाकार किसी भी सूरत में, दवाब या धमकी में आकर भी कुछ नहीं खायेगा—आखिर यह उसकी कला की गरिमा के विरुद्ध था.
लेकिन सभी संतरी इसे नहीं समझ पाते थे और कभी रात की पाली में ढिलाई दे देते कि कलाकार ने खाने की कोई चीज चोरी से जुगाड़ कर ली होगी . वे जानबूझकर किसी कोने में सरक जाते, ताश खेलने लगते ताकि उपवासी कलाकार कुछ खा सके.
यह संदेह उस कलाकार को भीतर से तोड़ देता था. उसके लिये इससे बड़ी प्रताड़ना और कुछ न थी. यह उसका जीवन नर्क बना देता था. उसके लिये उपवास दुष्कर हो जाता था. ऐसी रातों में वह अपनी कमजोरी भुला कर गाना गाने लगता, देर रात तक गाता रहता कि संतरियों को जतला सके कि उनका संदेह कितना गलत था. लेकिन इसका कोई असर न पड़ता. वे उसकी मक्कारी की तारीफ़ करते कि वह गाना गाते हुये भी खाना खा सकता है.
इसलिये कलाकार को सलाखों के नजदीक बैठने वाले संतरी पसंद थे, जो सभागार की धीमी रोशनी अपर्याप्त मानकर मैनेजर द्वारा दी हाई बीम टॉर्च रात भर उस पर कौंधियाते रहते थे. तेज रोशनी से कलाकार को कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह वैसे भी सो नहीं पाता था. रोशनी, भीड़ और शोर में जरा सा ऊँघ भर लेता था. ऐसे चौकीदारों के साथ वह पूरी रात जागने को हमेशा तैयार रहता. उन्हें चुटकुले और अपनी तमाम यात्राओं के किस्से सुनाता और उनकी कहानियाँ भी सुनता रहता. सिर्फ इसलिये कि वे जागते रहें और वह उनके सामने यह साबित करता रहे कि उसके पिंजरे में खाने को कुछ भी नहीं है और जिस तरह वह कई दिनों तक भूखा रह सकता है, वैसा कोई अन्य नहीं कर सकता.
उसके लिये सबसे अच्छा समय सुबह का होता था, जब उसके खर्चे पर महंगा नाश्ता मंगाया जाता था जिस पर संतरी टूट कर पड़ते मानो रात भर की कड़ी मेहनत के बाद भूख से छटपटा रहे हों. हालांकि कुछ संतरी मानते थे कि इस नाश्ते के जरिये उपवासी कलाकार उन्हें फुसलाया करता था ताकि वे अपनी पाली में ढील दे दें और वह थोड़ा-सा खा सके. परंतु यह बिलावजह का शक था. क्योंकि जब भी संतरियों से पूछा जाता कि अगर उनको नाश्ता नहीं मिले तो क्या वे रात की पाली में आना चाहेंगे, वे काम तो तुरंत छोड़ चले जाते थे, लेकिन संदेह करना नहीं छोड़ते थे.
दरअसल यह और ऐसे अन्य संदेह उपवास कला के प्रदर्शन का अभिन्न अंग थे. उपवासी कलाकार पर चौबीस घंटे नजर रख पाना किसी के बस में नहीं था. सही मायनों में कलाकार के अलावा कोई नहीं जान सकता था कि उसका उपवास अनवरत व अक्षुण्ण रहा आया है या नहीं, और इसलिये सिर्फ़ वह अपने उपवास का एकमात्र साक्षी था, सिर्फ वह उपवास की गरिमा से संतुष्ट या असंतुष्ट हो सकता था.
लेकिन कलाकार इस वजह से कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाता था कि वह इतना मरियल हो गया था कि बहुत से लोग उसकी डरावनी काया को देखने मात्र से सहम जाते थे और उसकी कला को देखने नहीं आ पाते थे. लेकिन यह भी हो सकता था कि वह इतना मरगिल्ला अपने भूखे रहे आने की वजह से नहीं हुआ हो कि उसकी इस हालत की वजह अपने आप से घनघोर असंतुष्टि रही हो. क्योंकि सिर्फ़ उसे पता था, उसके करीबी लोग तक नहीं जानते थे, कि उसके लिये उपवास कितना आसान था. यह उसके लिये दुनिया का सबसे आसान काम था. वह इसके बारे में लोगों को बताता था, लेकिन वे उस पर भरोसा नहीं करते थे. उसके दावे को कभी उसकी विनम्रता और अक्सर सस्ती लोकप्रियता बटोरने का जरिया बताया करते थे. कुछ लोग उसे बेईमान भी कहा करते थे जिसके लिये उपवास बहुत आसान इसलिये था क्योंकि उसने इसका एक सरल तरीका चुपके से खोज निकाला था, लेकिन इसके बावजूद इसे आसान कहने की टुच्ची हिमाकत करता था.
यह सब उसे सहना पड़ता था. दरअसल वह इन कटाक्षों का आदी हो गया था. लेकिन कहीं भीतर निराशा का कीड़ा उसकी रूह के भीतर कुलबुलाता रहता था. उपवास पूरा होने के बाद अपना पिंजरा उसने एक बार भी स्वेच्छा से नहीं छोड़ा था. मैनेजर ने उपवास के लिये चालीस दिनों का अधिकतम समय तय कर रखा था और उपवास को कभी भी उसके आगे नहीं जाने देता था. बड़े शहरों तक में नहीं. उसने अनुभव से यह जान लिया था कि विज्ञापन दे देकर अधिकाधिक चालीस दिनों तक उपवास कला में दर्शकों की दिलचस्पी जगाई जा सकती थी, उसके बाद लोकप्रियता गिरने लगती थी. दर्शकों की भीड़ कम होने लगती थी. किसी शहर या देश में कुछ मामूली अंतर हो सकता था, लेकिन चालीस दिन अमूमन अधिकतम समय सीमा मानी जाती थी. और चालीसवें दिन, जब उत्साही दर्शक मैदान में एकत्र होने लगते थे, पिंजरे को घेर लेते थे, सेना का बैंड बजाया जाता. फूलमालाओं से लदे पिंजरे को खोला जाता. दो डॉक्टर उपवासी कलाकार का परीक्षण करने अंदर जाते. लाउडस्पीकर पर दर्शकों को परिणाम सुनाया जाता और दो सुन्दर लड़कियाँ कलाकार को सहारा देकर पिंजरे से बाहर लातीं, सीढ़ियों से नीचे उतारतीं, नजदीक सजी खाने की मेज तक ले जातीं, जिस पर बीमार इन्सान को दिया जाने वाला खाना सजा रहता था.
ठीक इस बिंदु पर कलाकार हमेशा प्रतिवाद किया करता था. जैसे ही लड़कियाँ उसकी ओर आतीं, वह अपनी सूखी बाँहें लड़कियों के हाथों में तो दे देता लेकिन खड़े होने से इंकार कर देता–आखिर चालीस दिन बाद अब क्यों रोकते हो?
आखिर जब वह और अधिक समय तक उपवास किये जा सकता था–अनंत तक, तब अभी से ही उसे क्यों रोका जा रहा है जब वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर ही रहा है? नहीं, सर्वश्रेष्ठ पर वह अभी नहीं पहुँचा है–वे उसे और अधिक दिनों तक भूखा रहे आने की गरिमा से क्यों वंचित करना चाहते हैं? सर्वकालिक महानतम उपवासी कलाकार होना पर्याप्त नहीं था. यह महिमा तो वह संभवतः हासिल कर चुका था. वह अपने ही द्वारा रचे प्रतिमानों को पार कर अनछुई उॅंचाईयों तक पहुँचना चाहता था क्योंकि उसका दृढ़ विश्वास था कि उसमें भूखा रहे आने की अप्रतिम क्षमता है.
ये दर्शक जो उसकी इतनी प्रशंसा करते थे, उसके कर्म को ले इतने अधीर क्यों थे? अगर वह उपवास किये जा सकता था, तो वे इसके लिये तैयार क्यों नहीं थे?
और इसलिये वह थका हुआ भी महसूस करता था. पिंजरे के भूसे में बैठे रहना उसके लिये कहीं आरामदायक था, जबकि दर्शक अपेक्षा करते थे कि वह जैसे-तैसे उठ कर आये और खाना खा ले. खाना- जिसके ख्याल भर ही से उसे मितली आने लगती थी और वह अपनी उल्टी उन लड़कियों की वजह से जैसे-तैसे रोक भर पाता था. वह उन लड़कियों की आँखों में देखता जो भले ही करूणामयी-सी लगती थीं, लेकिन असलियत में बेरहम थीं. वह अपनी सूकड़ी गरदन पर जैसे-तैसे अटकी भारी खोपड़ी सहमति-जैसी मुद्रा में हिला देता.
हर बार यही होता था. मैनेजर आता, बैंड के शोर में आवाज सुनाई नहीं पड़ती थी. वह चुपचाप अपनी बाँहें उपवासी कलाकार की ओर बढ़ा देता, मानो देवताओं का आह्वान कर रहा हो कि वे भूसे के ढेर में सिकुड़ी बैठी अपनी इस निर्मिति को देखें.. एक दयनीय शहीद…….शायद वह कलाकार कहीं न कहीं एक हुतात्मा ही था.
मैनेजर उपवासी कलाकार की सुकड़ी कमर बड़े अचकते हुये पकड़ता ताकि लोगों को उस जंतु का मरगिल्लापन जता सके. फिर उसे हल्का-सा झिंझोड़ता, उसकी टाँगें और धड़ ऊदबिलाव से झूल जाते और मैनेजर उसकी काया लड़कियों को पकड़ा देता जो अब तक मारे डर के पीली पड़ चुकी होती थीं.
उपवासी कलाकार चुपचाप यह सहता रहता था. उसका चेहरा छाती पर ढह आता, मानो लुढ़कता हुआ खुद ही बेवजह वहाँ आ थम गया हो. उसकी खोखली देह किसी बड़े गढ़हे का भ्रम कराती थी. उसकी टाँगें आत्मरक्षा की मुद्रा में पेट में सिकुड़ जातीं, यहाँ-वहाँ ढुलकती भी रहतीं, अपनी असली जगह खोज रही हों शायद. और वह अपने पूरे वजन के साथ, जो भले ही बहुत अधिक नहीं था, उस लड़की पर ढह जाता. लड़की की सांसें अटकने लगती थीं, वह मदद के लिये चिल्लाने को हो आती, उसने नहीं सोचा था कि उसे यह सब भी करना पड़ेगा. वह अपनी गरदन पीछे हटाने की कोशिश करती ताकि उसका चेहरा उपवासी कलाकार से न छुल जाये, लेकिन इसमें असफल रहती और यह देखकर कि दूसरी लड़की को यह नहीं सहना पड़ा है, वह दूर से ही हड्डियों के ढेरी उस उपवासी कलाकार का हाथ जैसे-तैसे पकड़े खड़ी रही आयी है, पहली लड़की आँसुओं में फूट पड़ती. वहाँ तैनात एक मुस्तैद प्रहरी को उसे संभालना पड़ता. उसकी हालत देख दर्शक ठहाका मार कर हँस पड़ते.
इसके बाद खाने का समय होता था. मैनेजर बूँद भर खाना लगभग बेहोश हो चुके कलाकार को चम्मच से खिलाता, दर्शकों से बातें भी करता रहता ताकि किसी का ध्यान उपवासी कलाकार की बिगड़ती हालत पर न जाये. इसके बाद दर्शकों के लिये शैंपेन भी खोली जाती, जिसके लिये शायद उपवासी कलाकार ने ही मैनेजर को फुसफुसाते हुये कहा था. इस दौरान बजता बैंड हर लम्हे को पूरी मुस्तैदी से संगीत की धुनों में पिरोता जाता. फिर सभी वापस लौट लेते. कला के इस प्रदर्शन को लेकर किसी के पास असंतुष्ट होने की कोई वजह न थी, किसी के पास भी नहीं. सिवाय उपवासी कलाकार के.
वह वर्षों से इसी तरह रहता आया था. बीच-बीच में थोड़ा विश्राम और एक विलक्षण सफलता, जिसके आगे सभी सर झुकाते थे. लेकिन इसके बावजूद वह अक्सर स्याह निराशा में डूबा रहता, जो और अधिक गाढ़ी हो जाती जब लोग उसकी पीड़ा को जरा भी तवज्जो नहीं देते थे. कोई आखिर कैसे उसे खुश कर सकता था? वह आखिर और क्या चाहता था? जब कोई संवेदनशील व्यक्ति उस पर तरस खाकर उसे समझाने की कोशिश करता कि उसकी उदासी दरअसल उसके भूखे रहे आने की वजह से उपजती है, तो कभी-कभी, खासकर उपवास की चरमावस्था में, वह कलाकार फुफकारता हुआ आगे बढ़ आता, पिंजरे की सलाखें किसी हिंसक जानवर की तरह खड़खड़ाने लगता, दर्शक सहम जाते.
इस तरह के जंगली और असभ्य व्यवहार पर मैनेजर ने एक खास दण्ड तय कर रखा था, जिसे देने से वह जरा भी नहीं हिचकता था. वह उपवासी कलाकार की ओर से दर्शकों से माफी माँगता कि उसका यह जंगलीपना लंबे समय तक भूखा रहे आने का परिणाम है जो किसी पेट भरे संतुष्ट इंसान को भले समझ नहीं आये, लेकिन इसके लिये उन्हें कलाकार को माफ कर देना चाहिये. फिर मैनेजर कलाकार के दावे को भी गिनाता कि वह कई दिनों तक भूखा रहा आ सकता है और उसकी उच्च आकांक्षा, महान इरादों व उस दावे में अंतर्निहित आत्म-तर्पण की भी तारीफ करता. लेकिन इसके बाद वह कुछ तस्वीरें दिखाकर बड़ी सहजता से उस दावे को झुठला भी देता. यह तस्वीरें नजदीक ही बिक्री के लिये रख दी जाती थीं, जिनमें वह कलाकार उपवास के चालीसवें दिन भूख के मारे लगभग मुर्दा पड़ा दिखाई देता था.
भले ही सच्चाई को यों विकृत कर दिखाया जाना कलाकार के लिये नयी बात नहीं थी लेकिन फिर भी वह हर बार झुंझला उठता था –जो उसके उपवास को असमय खत्म कर दिये जाने का प्रभाव था उसे कारण की तरह बताया जा रहा था! इस तरह की मक्कारी से नहीं निपटा जा सकता था. यह उसकी रूह को लहूलुहान छोड़ जाती थी. वह पिंजरे की सलाखें पकड़े गौर से सुनता रहता कि मैनेजर क्या कह रहा है, लेकिन जैसे ही तस्वीरों को दिखाया जाता उसकी पकड़ ढीली पड़ती जाती और वह एक गहरी आह भर भूसे के ढेर में ढह जाता. दर्शक आगे बढ़ उसकी ढह चुकी काया को देखते, मैनेजर के शब्दों पर पर उनका यकीन पुख्ता हो जाता.
इन घटनाओं के गवाह कुछेक साल बाद उन दृश्यों को याद कर चौंक जाते थे, क्योंकि अचानक से बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया था. यह लगभग रातों-रात हुआ था. इसकी कई वजह हो सकती थीं, लेकिन उन्हें जानने में किसी की कोई दिलचस्पी न थी. अब तक आकर्षण और प्रशंसा का केंद्र बने रहे उपवासी कलाकार ने सहसा पाया था कि वे दर्शक जो उसके करतब देखने उमड़ आया करते थे, सहसा दूसरी चीजों की ओर मुड़ने लगे थे. उसका मैनेजर उसे लेकर यूरोप का चक्कर लगा आया था कि उपवास कला में दर्शकों की दिलचस्पी अभी भी है या नहीं. लेकिन इससे कुछ न हुआ था. उपवास कला के प्रति ऊब और अरुचि एक झटके से चारों तरफ़ फैलती गयी थी मानो सभी दर्शकों ने आपस में तय करके यह फैसला किया हो.
लेकिन फिर यह भी सही है कि, यह एकदम अप्रत्याशित न था. पिछले दिनों को अगर याद किया जाये तो कई सारे ऐसे लक्षण दिखने लगे थे जिन्हें उपवासी कलाकार की सफलता के जुनून में अनदेखा किया जाता रहा था और इसलिये उनसे निबटने के लिये कुछ नहीं किया गया था. लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी. यह सही था कि अन्य चीजों की तरह उपवास कला भी कभी तो फिर से प्रचलन में आ जाती, लेकिन यह ख्याल उपवासी कलाकार को कोई सांत्वना नहीं देता था. तब तक वह आखिर क्या करता? वह इंसान जिसकी कला को हजारों दर्शकों ने सराहा हो, गाँव देहात के छोटे मेलों में आखिर कैसे छुटकल्ले करतब दिखाता ? और फिर जहाँ तक कोई दूसरा कर्म अपनाने का प्रश्न था न सिर्फ उस कलाकार की उम्र अधिक हो चुकी थी बल्कि उपवास कर्म को लेकर उसके भीतर उन्मादी प्रतिबद्धता भी थी. इसलिये उसने अपने मैनेजर और कंपनी को छोड़ कर एक बड़े सर्कस से अनुबंध कर लिया और नया काम मिलने की जल्दबाजी में अनुबंध की शर्तें तक नहीं पढ़ीं.
एक बड़े सर्कस में जहाँ ढेर सारे कलाकार, जानवर व उपकरण हों, तरह-तरह के प्रदर्शन होते रहते हों, वहाँ किसी को कभी भी, उपवासी कलाकार को भी, जिसकी तो जरूरतें वैसे भी बहुत अधिक न थीं, काम मिल सकता था, और फिर यहाँ कलाकार ही नहीं उसकी लंबी ख्याति भी सर्कस के साथ जुड़ रही थी. वैसे यह उसकी कला की विशेषता थी कि फनकार की क्षमता उम्र के साथ घटती नहीं थी. कोई नहीं कह सकता था कि वह अपने अच्छे दिनों को पीछे छोड़ आया एक सेवानिवृत्त कलाकार है, जो किसी सर्कस के किसी बेगार से काम में शरण ले रहा है. सच यह था कि उपवासी कलाकार ने घोषणा कर दी थी– और कोई उस पर अविश्वास नहीं कर सकता था–कि वह पहले की तरह उपवास कर रहा है. उसने यह दावा भी कर दिया था कि अगर उसे अपनी इच्छानुसार काम करने दिया जाये–और सबने बेहिचक यह वायदा भी कर दिया था–तो एक दिन आयेगा जब वह दुनिया को अपनी विलक्षण कला का प्रदर्शन कर हतप्रभ कर देगा. हाँ, अपने उत्साह में वह अनदेखा कर देता था कि उसके इन शब्दों पर सयाने लोग महज मुसकुरा कर रह जाते थे.
उपवासी कलाकर यह भी समझता था कि उसे और उसके करतब को सर्कस में बहुत थोड़ी जगह मिली थी. भले ही उसके पिंजरे के चारों ओर उपवास की घोषणा वाले बड़े-बड़े साइनबोर्ड लगा दिये गये थे, लेकिन रिंग के बीच में रखने के बजाय उसके पिंजरे को अस्तबल के नजदीक टिका दिया गया था.
मध्यांतर के दौरान दर्शक जब सर्कस से बाहर निकलकर जानवरों को देखने अस्तबल की ओर आते, तो अक्सर पिंजरे के करीब से गुजरते हुये ठिठक जाते. अगर वह रास्ता संकरा नहीं होता, तो वे शायद कुछ देर वहीं ठहर कर कलाकार को देखते रह सकते थे. लेकिन पीछे से आती भीड़ को वहाँ खड़े रहने में कोई दिलचस्पी न थी. लोग जल्दी से रिंग तक पहुँचना चाहते थे. वहाँ खड़े लोगों को हटाने के लिये धक्का-मुक्की करते, दर्शकों को आगे बढ़ना पड़ता और वे कलाकार को निगाह भर भी नहीं देख पाते थे.
इसलिये अगर वह कलाकार एक ओर दर्शकों का बड़ी बेसब्री से इंतजार किया करता था क्योंकि उनकी उपस्थिति आखिर उसके अस्तित्व को अर्थ दे पाती थी तो उन्हें देखकर सहम भी जाता था. शुरुआत में वह बड़ी बेकरारी से मध्यांतर का इंतजार करता था, बढ़ती आती भीड़ को देख उत्साहित हो जाया करता था, लेकिन बहुत जल्द वह निराशा में डूबने लगा था. वह भले ही अपने को एक जिद्दी छलावे में रखे था लेकिन अनुभव ने उसे जल्द सिखा दिया था कि भीड़ के लिये वह महज अस्तबल तक आने वाला एक रास्ता भर था और इसलिये वे लोग उसे तभी तक सुहाते थे जब वे उसे दूर से दिखायी देते थे. जैसे ही वे नजदीक आते, उसके कान बनती-बिखरती भीड़ से उमड़ती चीख-पुकार और फटकार से फट पड़ते थे. वे जो सिर्फ अस्तबल में कैद जानवरों को देखने के लिये वहाँ आते थे और वे जो उसे ठहर कर तो देखते लेकिन उनकी निगाहों में उसके कर्म के प्रति लगाव के बजाय उचटती हुई क्रूरता और ठंडी सनक होती–ये उसे कहीं अधिक अपमानित छोड़ जाते थे.
भीड़ के छंट जाने के बाद पीछे रह गये कुछेक लोग आते थे और हालाँकि उन्हें वहाँ देर तक खड़े रहने से कोई रोकता न था, लेकिन वे बगल में रखे पिंजरे की ओर झांके बिना तेजी से निकलते जाते थे ताकि जानवरों को देख सकें. हाँ, ऐसा कभी-कभार ही होता था जब कोई व्यक्ति, मसलन एक पिता अपने बच्चों के साथ वहाँ से निकलते में उपवासी कलाकार की ओर इंगित करता, विस्तार से समझाता कि आखिर यह होता क्या है और ऐसे लेकिन इससे कहीं उत्कृष्ट प्रदर्शनों के बारे में बताता जो उसने कई साल पहले देखे थे. नादान, मासूम बच्चे देर तक खड़े रहते, समझने की कोशिश करते कि आखिर उपवास कला होती क्या है. और तभी उनकी प्रश्नाकुल निगाहों के सामने आने वाले बेहतर समय की एक झलक कौंध जाती–क्या उपवास कला का सुनहरा भविष्य फिर से लौटने वाला था?
शायद यह सच था. उपवासी कलाकार कभी-कभी अपने से कहा करता था कि चीजें कहीं बेहतर हो सकती थीं . अगर उसका पिंजरा अस्तबल के इतना नजदीक न होता, तो शायद वह दर्शकों की उपेक्षा न झेलता होता. अस्तबल से आती चिर्रांध, रात भर गुर्राते जानवर, उनके लिये ले जाये जाते कच्चे मांस के लोथड़े और खाना डकारते समय की चिंघाड़– ये सारी चीजें खुद कलाकार के लिये असहनीय हुआ करती थीं, उसे रत्ती भर भी चैन से नहीं रहने देती थीं. लेकिन इसके बावजूद वह सर्कस के मालिक से शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर पाता था. क्योंकि आखिर इन जानवरों की वजह से ही इतने सारे दर्शक वहाँ से गुजर पाते थे, और सम्भावना बनती थी कि शायद इन्हीं में से कोई सिर्फ उसे देखने के लिये वहाँ आया होता. फिर यह भी तय नहीं था कि अगर वह मैनेजर को अपनी स्थिति के बारे में बताता तो न जाने उसे किस बिसरे-अंधेरे कोने में पटक दिया जाता. आखिर में वह अस्तबल के रास्ते में पड़ी एक अड़चन से अधिक न था.
एक गैर-जरूरी बाधा जो समय के साथ और भी क्षुद्र व अनुल्लेखनीय होती जा रही थी. लोग किसी उपवासी कलाकार जैसी चीज के दावों के आदी होते गये थे और इसके साथ उसकी नियति तय होती जा रही थी. भले ही वह उपवास किये जा सकता था–आखिर सिर्फ वही तो इस कला में निपुण था– लेकिन अब उसे कोई बचा नहीं सकता था. लोग उसे अनदेखा करते निकलते जाते थे. आप चाहे कितना ही किसी को उपवास कला समझाने की कोशिश कीजिये, लेकिन जब तक उसने इसे महसूस न किया हो, वह इसे नहीं समझ सकता था. साइनबोर्ड, जो कभी चमकते रहा करते थे, गंदले हो चले थे, उनके अक्षर पढ़े नहीं जाते थे, चिटखने भी लगे थे लेकिन किसी ने उन्हें बदलने की नहीं सोची थी. वह छोटी तख्ती जिस पर उपवास के दिनों का हिसाब रखा जाता था, जिस पर शुरुआत में बड़ी मेहनत से तारीखें बदली जातीं थीं, एक लंबे अर्से से अब वही पुराने आंकड़े दिखा रही थी क्योंकि कुछ ही हफ्तों बाद यह छोटा-सा काम भी कर्मचारियों के लिये इल्लत बन गया था. और इसलिये भले ही अपनी पगलाई आकांक्षा का पीछा करते-करते वह कलाकार भूखा रहे जाता था और बड़ी आसानी से उपवास की अनछुई ऊँचाइयों को हासिल भी किये जा रहा था जिनका उसने कभी दावा किया था, लेकिन चूँकि कोई उपवास के दिनों को नहीं गिन रहा था इसलिये कोई भी, खुद उपवासी कलाकार भी नहीं, उसकी उपलब्धियों को नहीं समझ पाता था. इसी वजह से उसका दिल डूबता जाता था.
जब कभी कोई इंसान गुजरते हुए पिंजरे के सामने ठिठक जाता, उस कृशकाय जीव का मजाक उड़ाता और उस पर बेइमानी का आरोप भी लगाता, तो इससे बेहूदा झूठ कुछ नहीं हो सकता था, जो घनघोर उपेक्षा और दुर्भाव से ही उपज सकता था. धोखा उपवासी कलाकार ने नहीं किया था. वह पूरी निष्ठा से अपना कर्म कर रहा था. इस दुनिया ने फरेब से उससे उसकी गरिमा छीन ली थी.
कई दिन बीतते गये और एक दिन अंत भी आ गया. एक दिन मैनेजर ने उस पिंजरे को वहाँ देख कर्मचारियों से पूछा कि इतना अच्छा पिंजरा आखिर क्यों भूसे से भरा, बेकार पड़ा है. लेकिन कोई भी इसका जवाब नहीं दे पाया और तब एक कर्मचारी की निगाह दिनों का हिसाब रखती उस तख्ती पर पड़ी थी और उसकी स्मृति अचानक कुलबुला पड़ी. उन्होंने डंडियों से भूसे को उलटापलटा जिसके नीचे उपवासी कलाकार दबा पड़ा था.
“तुम अभी भी उपवास रखे हो भाई?” मैनेजर ने पूछा, “क्या तुम अपना ये करतब कभी खत्म नहीं करोगे?”
“कृपया.. मुझे माफ कर दीजिये.” कलाकार उन सभी को संबोधित कर फुसफुसाया, हालाँकि सिर्फ पहरेदार, जिसके कान सलाखों से सटे थे, इसे सुन पाया. “जरूर.” मैनेजर ने एक उंगली अपनी कनपटी पर रख कहा मानो अपने साथियों को इशारा कर रहा हो कि उपवासी कलाकार किस मनोस्थिति में जी रहा था. “विश्वास मानो हमने तुम्हें माफ कर दिया है .” “मैं सिर्फ इतना चाहता था कि आप लोग मेरे उपवास की प्रशंसा करें.” कलाकार बोला.
“वो तो हम करते ही हैं.” मैनेजर ने विनम्रता से कहा. “लेकिन आपको इसकी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये.” उपवासी कलाकार ने कहा. “अच्छा. चलो ठीक है, नहीं करते प्रशंसा,” मैनेजर बोला, “लेकिन क्यों नहीं करनी चाहिये हमें प्रशंसा?” “क्योंकि मुझे तो उपवास करना ही है, मैं इसके बगैर नहीं रह सकता.” उपवासी कलाकार बोला. “तुम्हारी बकवास मुझे समझ नहीं आ रही है,” मैनेजर ने कहा, “ तुम भूखे रहे बगैर क्यों नहीं रह सकते?”
“क्योंकि….,” उपवासी कलाकार ने बोलना शुरु किया. सिर को थोड़ा-सा उठाया. उसके होंठ मानो चूमने की मुद्रा में भिंच गये थे और वह मैनेजर के कान में धीमे से फुसफुसाया कि कहीं कोई शब्द हवा मे खो न जाये, “…क्योंकि मुझे कभी भी अपनी पंसद का भोजन नहीं मिल पाया, विश्वास मानिये अगर मुझ वह मिल जाता तो मैं कभी ये झमेला खड़ा नहीं करता और आप सबकी तरह अपना पेट भर लिया करता.”
ये उसके अंतिम शब्द थे और उसकी छितरायी निगाहों में अभिमान की चमक न सही यह दृढ़ विश्वास शेष था कि वह अभी भी उपवास किये जा रहा था.
“खेल खत्म. चलो ये कूड़ा साफ कर दो.” मैनेजर बोला.
सभी ने उपवासी कलाकार को उस भूसे के साथ दफना दिया. उस पिंजरे में अब एक मांसल तेंदुआ रख दिया गया था. किसी निरे भावशून्य इंसान के लिये भी यह बड़ी राहत की बात थी कि कुछ समय पहले तक एकदम निर्जीव-से पड़े पिंजरे में अब एक दुर्दम्य जानवर दहाड़ता था. इस जानवर के पास सब कुछ था. कर्मचारी उसकी पसंद का खाना उसे तुरंत दे दिया करते थे. ऐसा भी नहीं लगता था कि उसकी आजादी छीनी जा चुकी थी. लगता था उसकी उन्मुक्त, मांसल देह जो उफन कर बिखर रही थी, अपनी आजादी अपने साथ, शायद अपने खूंखार जबड़ों में लिये घूम रही थी. धड़कते जिंदा यौवन के इस उल्लास का जुनून उस नरभक्षी की फुंकार से ऐसे अंगारे बरसा देता था कि दर्शकों को उसके सामने खड़े रहने में डर लगा करता था. लेकिन फिर भी वे हिम्मत कर, पिंजरे के चारों ओर सिमट आते थे और एक मर्तबा वहाँ आकर फिर हटते नहीं थे.
(यह अनुवाद मूल के कई अंग्रेजी अनुवादों पर आधारित है)
आशुतोष भारद्वाज एक कहानी संग्रह, साहित्य और सिनेमा पर निबंधों की एक पुस्तक, पितृ-वध, द डेथ स्क्रिप्ट, और इसका हिंदी संस्करण मृत्यु-कथा आदि प्रकाशित. |
अद्भुत कहानी का बहुत सुंदर अनुवाद ❤️.. पहले भी कई बार पढ़ी है, मगर इस बार जाने क्यों भीतर धँसती गयी।
भूख भी प्रदर्शन की वस्तु हो सकती है, कहानी बहुत अच्छे ढंग से संवेदित करती है। अनुवाद बहुत अच्छा है लेखक का नाम हटा दिया जाए तो मूल का भ्रम होता है।
यद्यपि कहानी अंग्रेज़ी में पहले पढ़ी थी लेकिन हिंदी में पढ़ने का प्रभाव ही अलग है। काफ़्का की बहुत अच्छी कहानी का बहुत बढ़िया अनुवाद। प्रस्तुत करने का हार्दिक आभार।
मानवीय संकट, कष्ट और आत्मिक उत्कर्ष की इस अद्भुत कहानी के पास एक पाठक और अनुवादक के तौर पर जिस तरह आशुतोष जी पहुँचे हैं, वह सुंदर चीज है।
मैंने यह कहानी कभी नहीं पढ़ी थी। आज पढ़ी। हैरतअंगेज़ रूप से यह भारतीय मन को बहुत तीव्रता से आकर्षित करती है। इसका कारण शायद बौद्ध धर्म के उन बिम्बों और शिक्षाओं में निहित है जिससे हम दो चार तो होते हैं लेकिन उनसे डरकर भाग खड़े होते हैं।
यह कहानी हमें वहीं लाकर छोड़ देती है।
काफ्का को किसी भी भाषा मे अनूदित करना कठिन है। हिन्दी मे तो करीब करीब असंभव। इस अनुवाद ने मन प्रसन्न कर दिया। साधुवाद!
इस कहानी की अनेकान्तता जिसमें उद्घाटित हो वही अनुवाद अच्छा कहा जायेगा। यह अनुवाद इस दृष्टि से सार्थक है। परंतु straw के लिए पुआल, भूसा नहीं।
Tewari Shiv Kishore जी, सुधारने के लिये धन्यवाद, सर. पुआल बेहतर शब्द होता. जितना विस्तृत आपका अध्ययन है, उतनी ही बारीक़ निगाह.
काफ्का स्वयं एक उपवासी कलाकार थे। इस फरेबी दुनिया को यकीन दिलाना मुश्किल है चाहे आप अपनी जान ही क्यों न दे दें। उपवासी कलाकार के घोर दुख का कारण भोजन का अभाव नहीं है,अपितु लोगों का अविश्वास है जो उसे तोड़कर रख देता है। इस कहानी को कई कोणों से पढ़ा जा सकता है और क्लासिक रचना की यही खूबी होती है।
” मनपसंद भोजन ” का न मिलना यदि कोई रूपक नहीं तो यह कहानी और अधिक जटिल हो गई समझने में। सच में , कई परतें एक साथ दिख रही हैं अपने अर्थ संधान में । गज़ब को कहानी।
उपवासी कलाकार पढ़ी। काफ्का की खासियत थी।
वह खुद महल बनाता और खुद ढहा देता। उपवासी कलाकार का अंतिम बयान कि कभी ढंग का खाना नहीं मिला इसलिए उपवास रखा, उपवास की कला पर व्यंग है। उपवास ही कला है, उपवास रख कर वह कोई कला कृति नहीं बना रहा।
बौद्ध और जैन दोनों धर्मों में आमरण उपवास की अवधारणा है। बौद्ध
जीवित दफन हो जाते हैं, जैन पद्मासन में उपवास करते हैं। अवधि नहीं होती। वह आमरण होता है।
उसकी एक बेहद खास बात यह है कि उपासी रोज़ अपना व्रत या निर्णय दुबारा लेता है। चाहे तो उपवास छोड़ दे।
दूसरी, वह एक साथ खाना नहीं त्यागता। हर रोज पहले से आधा खाता है और धीरे धीरे पूर्ण आमरण उपवास तक पहुंचता है। उपवास ही उसकी कला है।
कमाल