• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की कविताएँ

रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की कविताएँ

आई. आई. टी. मुंबई से उच्च शिक्षा प्राप्त रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की भ्रूण-हत्या के ख़िलाफ़ कानून बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वह मराठी में लिखते हैं और हिंदी से मराठी में अनुवाद भी करते हैं. प्रस्तुत कविताएँ उन्होंने हिंदी में ही लिखीं हैं. तेजी से कृत्रिम होती जा रही सभ्यता और उसके पर्यावरण पर घातक असर पर उनकी नज़र है. आज विश्व पर्यावरण दिवस भी है.

by arun dev
June 5, 2023
in कविता
A A
रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की कविताएँ
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की कविताएँ

तंबी

काफी की खुशबु पहले आती है
फिर आता है तंबी
दफ़्तर, फ़ैक्टरी, रेस्तरां पहले खाते हैं
फिर खाता है तंबी

वैसे मैंने कभी तंबी को खाते नहीं देखा
वैसे मैंने कभी उसे रोते, गाते, चिल्लाते नहीं देखा
मैंने किसी तंबी को जुलूस में नारे देते नहीं देखा
मैंने किसी को तंबी को नाम से पुकारते नहीं देखा
वैसे मैंने तंबी को बतियाते या सोते हुए भी नहीं देखा

लेकिन तंबी ज़रूर खाता है, सोता है
शायद सपने भी देखता है
सपने देखे बगैर कोई मुसकुरा कैसे सकता है?

मुझे तंबी का काला रंग, सफ़ेद दाँत
और बचकानी हंसी बहुत पसंद है
सोचता हूँ, इस हंसी का क्या करूँ?

टुथपेस्ट को बेचूँ या कोला को?

 

जुलूस

संसद से सड़क तक लदी हुई हैं दुकानें
उन्हें चीर कर जुलूस आएगा ज़रूर आएगा
बा आदब ! बा मुलाहज़ा !! होशियार !!!

सब से आगे होंगे बच्चे भोपाल और निठारी के
और यल्लम्मा की कन्याएं
(उन से भी आगे होंगी सोनोग्राफी को समर्पित बालिकाएं,
जिन्हें तुम देख नहीं पाओगे)
हथकटे बुनकर, फंदाधारी किसान, रेडिओ एक्टिव गर्भिणीयां
सिंगूर, नंदीग्राम, सलवा जुडूम के शहीद
बंद मीलों के बाहर एडियाँ रगड़ कर मर चुके मजदूर
जाती-धर्म-कानून-व्यवस्था-विकास और राष्ट्रप्रेम की
वेदी पर हवन
तमाम औरतें, मर्द और बच्चें
परचम फहराते आएँगे
बड़ा अनूठा जुलूस निकलेगा
देखना, जुलूस ज़रूर आएगा

टिहरी तो ढह चुका होगा, आधी दिल्ली पानी में
साइबराबाद और बेंगलुरु अनाज की तलाश में
स्टाक एक्सचेंज की खंडहरों में सडती सांडों की लाशें
कल मर्सिया पढने वाले आज कब्रगाहों में
सूरज आग उगलेगा, धरती ज़हर उगाएगी
झुलसते बसंत और हिमशीत हेमंत में
जी पाएंगे सिर्फ वायरस  काक्रोच और वे
नंग-धड़ंग
जिन की जठराग्नि प्लास्टिक, युरेनियम और सीसे को पिघलाना जानती है

जुलूस निकलेगा तिब्बत से तिनानमेन होकर चीन की लहूलुहान फैक्टरियों की तरफ
जुलूस चल पड़ेंगे फिलिस्तान  सर्बिया  इराक़ की कब्रगाहों से
पेंटागन को रौंद कर आएँगे रेड इंडियन
मोनसेंटो कोक और मैक डोनाल्ड के खंडहरों में
सांय–सांय  चलेगी हवाएँ
समूचे विश्व से बेख़बर अपनी ही इर्दगिर्द घूमता
प्लास्टिक का यह गोला जब फटेगा
सारा दूषित खून लावा बन कर उमड़ेगा

जुलूस आएगा, ज़रूर आएगा
अंत में मुड़ेगा बचे-खुचे जंगलों की ओर
नयी सभ्यता की शुरुआत फिर वहीं से होगी
सवाल इतना ही है
तब हम और आप कहाँ होंगे?

प्रार्थना के बाद

प्रार्थना के बाद मौन लंबा होता है
उतना ही मुखर

जुलूस बंद हो चुके हैं, नारे खामोश
कट चुके हैं हाथ पैंट की जेबों में बंद
ज़हरीली गैस की तरह शहर में फैला है वहशत का धुआँ
खून ठहरा है रगों में
ठिठुरते शिशिर में सारे पेड़ नंगे
सूरज हिरासत में है या फरार

अब अपने आपको गला कर
पैना करने पर ही मिलेगा
नया हंसिया
या चरखा
या बंदूक

लेकिन कटे हुए हाथों से
कोई कैसे उठाएँ हंसिया, चरखा या बंदूक?
बिना अपने अपराधों की क्षमा मांगे
हम कैसे पिघलाएँगे हिम युग की यह चट्टान
ऋतुओं के हत्या के हम भी हैं गुनहगार
मौन गवाह या साझेदार
जंगल जल रहे थे तब
हम थे निहत्थे
शमी के पेड़ से हम ने उतारे औज़ार
तब उन में जंग लग चुकी थी

जब भी हुए महाभारत में शामिल
तो अभिमन्यु की तरह अकेले
या आपस में टकराएँ हमारे हथियार
चरखा हंसिया, बंदूक या कलम,
जाने-अनजाने हम रटते रहे
नरो वा कुंजरो वा

चलो, अपने अंतस की सारी ऊष्मा समेट कर
लौ जलाएँ, प्रार्थना करें
किसी सोये हुए जल की तलाश में निकलने से पहले
निहायत ज़रूरी है प्रार्थना करना
प्रार्थना के बाद मौन लंबा होता है
उतना ही मुखर

 

पिताजी की क़मीज़

मुझे ठंड लग रही थी
खूंटी पर पिताजी की क़मीज़ थी
मैंने पहन ली

क़मीज़ भी काफी ठंडी थी
मेरे पहनने के बाद
ठंड शायद बाहर चली गयी
गर्मी, जो भीतर छिपी थी
उस ने मुझे पहन लिया

 

सूरजमुखी

पीले पत्ते-सा मैं
झर जाऊंगा बिखर जाऊंगा
तुम शिशिर में भी मुसकुराती रहोगी
झुकी हुई गुलाब की डाली की तरह.

रहेंगी तुम्हारी टिमटिमाती आँखें
चाँदी के तार बन माथेपर झिलमिलाते गिने चुने बालों में शिकाकाई की खुशबू
धीरे धीरे ओझल हो जाएंगे सारे दृश्य मिट जाएंगे सारे अहसास

सब कुछ बरकरार होगा अपनी जगह लेकिन
पल पल बुझते जाएंगे मेरे दिमाग में चमकते दमकते वो सारे सर्किट
जो पहचान देते हैं  संवेदनाओं को
जो सिखाते हैं फर्क तीर्थ और बिसलेरी के पानी का
तलवार के घाव और अंदर ही अंदर रिसते पुराने ज़ख़्म का

मैं फिर यकायक ठहर जाऊंगा
बैटरी समाप्त हुई किसी खिलौने की तरह
या धीरे धीरे ठूंठ हो जाऊंगा किसी बयाबाँ में निष्पर्ण वृक्ष की तरह

मेरी नसों में दौड़ता खून जब थक कर जम जाएगा,
तब मेरी बंद हथेलियों में उग आएंगे
तुम्हारे स्पर्श के अनगिनत सूरजमुखी

 

बेदर्द मौसम के नाम

भोर के सपनों से चुरा कर लायी ओस की बूंदों से सींची कोपलें भी
जब दम तोड़ देती हैं, ऐसे बेदर्द मौसम के नाम
सांय सांय चलती लू जब फेफड़ों में गरमागरम रेत भर देती है
आस के दीप बने नौ में से तीन नक्षत्र बीत जाते हैं बांझ
सुदूर पहाड़ियों से काले हृष्ट पुष्ट हाथियों की झुंड निकलने की खबर सुनने के लिए
प्राण कंठ में आकर ठिठक जाते हैं
रात में निकलो तो सारा गाँव मरा-सा लगता है
कबीर के भजन, तुलसी की चौपाई, भांड की ठिठोली
सब कुछ भुला कर बेहोश-सा निस्पंद-सा गाँव
सपने में टैंकर को देख
धड़ाम से जाग पड़ता है.
नदी का चीर हरण कर दिन दहाड़े बालू खोदकर ले जाने वाले ट्रकों ने
छलनी कर दिया है पनघटों का सीना
आधी रात में अचानक जग कर
घर की लक्ष्मी टटोलती है माथे का सिंदूर
दिया उठा कर देखती है पति की मूँदी आँखों के आर पार
सूखे कुएं मे सूखी टहनी गिरने की आवाज़ से काँप जाती है बूढ़ी अम्मा
और बच्चे छुपा कर रखते हैं रस्सी और पेस्टिसाइड के डिब्बे
ऐसे बेहद उदास कर देने वाले निर्मम मौसम के नाम भी
मैं लिखता हूँ एक कविता
अपने अंतस का पाताल खोद कर
नमी की कुछ बूंदों को टटोलते हुए

 

चलो  कहीं जाएँ

चलो कहीं जाएँ
यहाँ से भाग जाएँ

घुमावदार सड़क के पार
टूटी चट्टान के पीछे
सुखी नदी में पुल के नीचे
ठहरी हुई चाँदनी के कुनकुने बहाव में
तपती धूप में बबूल की छांव में
जहां से गुजरते हो सारे
रुकता न कोई हो
हम वहाँ जाएँ
भीड़ में अकेले हो जाएँ
अनगढ़ भाषा में
चुपके से बतियाएँ
यहाँ से बच कर कहीं भी जाएँ

चलो  भाग जाएँ

 

बुद्ध से बाज़ार तक 

बाहर सेल्फियों का समुंदर है
अंदर बुद्ध मुसकुरा रहे हैं
मेरी कोशिश है
मैं कहीं बुद्ध के साथ सेल्फी निकालने में
मगन न हो जाऊँ

२.

आईने से बाहर निकलते निकलते
उसने मुझे देख लिया
अब दोनों में से किसी एक को
ख़ुदकुशी करनी होगी
वह जिद पर अड़ा है कि
मैं नहीं जाऊँगा

३.

अपने अंदर गहरी डुबकी लगाकर मैं बाहर आया
हाथ में पीपल की ताज़ी कोंपल लिए
अनछुई  अनाघ्रात
उसके हथेलियों पर रख दी
उसने मुसकुराकर
दूसरे हाथ से अपनी सेल्फी निकाल कर कहा,
नेक्स्ट !

४.

वह चलती फिरती ब्राण्ड की दुकान थी
मैं तो यहाँ हाथ में कपास लेकर
चरखा ढूंढ रहा था.

रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ पेशे से अध्यापक रहे हैं, और रुझान से कार्यकर्ता-लेखक. औषधि विज्ञान  में अध्ययन (आई. आई. टी. बॉम्बे से पीएच. डी.) और अध्यापन करने से पहले वे जेपी आंदोलन का हिस्सा बन चुके थे. बाद में वे पर्यावरण, स्त्री-पुरुष समता और स्वास्थ्य से संबन्धित  कई आंदोलन तथा गतिविधियों से जुड़े रहे. भ्रूण हत्या के  विषय में शोध कार्य, आंदोलन और आखिरकार राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाने में उन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. पचास की उम्र पार करने के बाद वे गंभीरता से साहित्य और लेखन की ओर मुड़े. वे ज़्यादातर मराठी में लिखते हैं. उन का प्रथम उपन्यास ‘’खेल घर’ कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा गया. उनकी शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तकों में प्रमुख है– दीर्घ कहानियों का संकलन तथा ‘विज्ञान बोध’.

वह कविताएँ और गल्प हिन्दी में लिखते हैं. उन्होंने गुलज़ार की चुनिन्दा कविताएँ और बाबुषा कोहली की ‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’  का मराठी अनुवाद किया है, जो पुस्तक रूप में प्रकाशित हैं.  वह‘सर्वंकष’  नामक मराठी त्रैमासिक पत्रिका के प्रधान संपादक हैं.
ravindrarp@gmail.com 

Tags: 20232023 कवितामराठी कवितारवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ
ShareTweetSend
Previous Post

काफ़्का: उपवासी कलाकार: अनुवाद: आशुतोष भारद्वाज

Next Post

मणिपुर: एक प्रेम कथा: रीतामणि वैश्य

Related Posts

विनोद कुमार शुक्ल  से रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की बातचीत
बातचीत

विनोद कुमार शुक्ल से रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की बातचीत

क्या गोलाबारी ख़त्म हो गई है!: फ़िलिस्तीनी कविताएँ
अनुवाद

क्या गोलाबारी ख़त्म हो गई है!: फ़िलिस्तीनी कविताएँ

पंकज सिंह का कवि-कर्म: श्रीनारायण समीर
आलेख

पंकज सिंह का कवि-कर्म: श्रीनारायण समीर

Comments 5

  1. R.P.singh Mukerian (Punjab) says:
    2 years ago

    Pahli 2 – 3 kavitaon ne Punjai kavi “Paash” ki yaad taza krwa di, balke kahoon Paash ko bhi maat de gyeeN, baki bhi khoob asr chhod gyeeN.
    ProfArum Dev ki choice bdee atiuttam v aalatreen hoti hai, darja doyam ke nzdeek bhi nhien fatktey.

    Reply
  2. कुमार अम्बुज says:
    2 years ago

    कविताएँ पढ़ता चला गया।
    इनमें एक प्रवाह है। इनसे उठती हुई एक भाप है।
    इन्हें पढ़ने का एक सुख है।
    अरुण जी ने कलापूर्ण चित्र लगाए हैं।
    यह सुंदर अंक है।

    Reply
  3. Kaushlendra Singh says:
    2 years ago

    कितनी सरस कविताएँ हैं , जीवन की सुगंध आती है इन कविताओं से। ‘पिताजी की कमीज़’ कितनी सुंदर और मर्मस्पर्शी कविता है। बहुत बधाई 🙏🙏

    Reply
  4. धनंजय वर्मा says:
    2 years ago

    Pandhree नाथ जी की कविताएँ पढ़ कर एक बेचैन कर देने वाले भय और समग्र विनाश की आशंका घेर लेती है.वे हमें आगाह करती, चेतावनी देती हैं. कविवर को सलाम

    Reply
  5. प्रकाश चंद्रायन says:
    1 year ago

    पता ही नहीं था कि रुक्मिणी जी कवि हैं और इतने समर्थ कवि हैं और वह भी हिन्दी में।भई, वाह!

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक