हिंदी साहित्य का स्वातंत्र्योत्तर इतिहास वाया ‘आलोचना’दिनेश कुमार |
हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के इतिहास में सबसे लंबे दौर तक और सबसे चर्चित नाम के रुप में ‘आलोचना’ का नाम लिया जा सकता है. राजकमल प्रकाशन समूह ने वर्ष 2019 में इसमें प्रकाशित आलेखों- (जिसमें निबंध, समीक्षा; वाद-विवाद संवाद से लेकर साहित्यिक गोष्ठियाँ एवं कविताएं भी शामिल हैं) की एक अनुक्रमणिका प्रकाशित की जिसका संकलन-संपादन शैलेश कुमार तथा डॉ. नीलम सिंह ने किया. इस पुस्तक में हिन्दी साहित्य के स्वातंत्र्योत्तर इतिहास के सत्तर वर्ष की यात्रा की एक ऐसी झलक दिखाई देती है जिसे अन्यत्र खोजना दुर्लभ है. यह किताब शोध की दृष्टि से कार्य करने वालों के लिए तो महत्व रखती ही है, हिन्दी साहित्य के पिछले सत्तर वर्षों के विकास क्रम को जानने समझने के संकेत सूत्र भी प्रदान करती है. इस दृष्टि से इस किताब की चर्चा आवश्यक है. एक साहित्यिक पत्रिका के रुप में ‘आलोचना’ ने किस प्रकार तत्कालीन साहित्यिक परिदृश्य को देखा और किस प्रकार साहित्यिक परिदृश्य को प्रभावित किया इसकी भी एक झलक इस लेख में दिखाई देगी. चूंकि ‘आलोचना’ का काल खंड एवं इसके लेखों, समीक्षाओं एवं अन्य रचनाओं की संख्या इतनी अधिक है कि इसे एक या दो लेखों में समेटना संभव नहीं है. अतएव इस सीमा को देखते हुए यह आलेख आलोचना के पहले दशक यानी 1951 से 1960 तक के अंको तक ही केंद्रित है.
आलोचना का पहला अंक अक्तूबर 1951 का अंक है. इस अंक की संक्षिप्त चर्चा इस पुस्तक के आलेख ‘आलोचना का इतिहास और इतिहास की आलोचना’ में इस प्रकार की गई है-
“‘आलोचना’ के पहले संपादक थे- शिवदानसिंह चौहान. ‘आलोचना’ की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए चौहान जी ने अपना पहला संपादकीय ‘आलोचना क्यों? लिखा. यह सम्पादकीय ऐसा प्रासंगिक था कि सन 2000 के बाद जब ‘आलोचना’ पुनः छपनी प्रारम्भ हुई तो नामवर जी ने शिवदानसिंह चौहान के योगदान को याद करते हुए ‘सहस्राब्दी अंक-3’ में इस सम्पादकीय को पुनः छापा. ‘आलोचना’ के प्रथम अंक के लेखों पर नजर डाले तो स्पष्ट दिखता है कि यह सामान्य साहित्यिक पत्रिकाओं से भिन्न थी. इसके प्रथम अंक में केवल साहित्यिक कृतियों की आलोचना या समीक्षा ही नहीं थी बल्कि ‘भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण’ (दि.के. बेडेकर), ’शूद्रों की खोज’ (डॉ. महादेव साहा), ’प्राचीन भारतीय वेशभूषा’ (डॉ. रांगेय राघव) जैसे समाजशास्त्रीय विषयों पर भी उत्कृष्ट सामग्री थी. इस अंक के आलेखों में पर्याप्त विविधता थी. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘संस्कृत के महाकाव्यों की परम्परा’ पर लिखा था तो प्रकाशचन्द्र गुप्त ने ‘गोस्वामी तुलसीदास’ पर. डॉ देवराज ने ‘समाजशास्त्रीय आलोचना’ की रूपरेखा बनाई थी तो बाबू गुलाब राय ने ‘भारतीय आलोचना-पद्धति’ की विशेषताओं को रेखांकित किया था, तो वहीं हिन्दी-उर्दू की साझी साहित्यिक विरासत को एहतेशाम हुसैन ने ‘उर्दू भाषा की उत्पत्ति और उसका प्रारम्भिक विकास‘ में चिह्नित किया था.”
उल्लेखनीय है कि प्रथम अंक में जिन कृतियों की समीक्षा की गई थी, वे हिन्दी साहित्य के पाठकों की पसन्द की जानेवाली पुस्तकें प्रमाणित हुई. डॉ. रघुवंश ने पन्त जी की ‘स्वर्ण किरण‘, ‘स्वर्ण-धूलि‘ और ‘उत्तरा’ की समीक्षा की थी तो नामवर जी की पहली समीक्षा परशुराम चतुर्वेदी द्वारा लिखित आलोचनात्मक पुस्तक ‘उत्तरी भारत की सन्त-परम्परा’ पर थी. अन्य कृति-समीक्षकों में विश्वम्भर ‘मानव‘, ठाकुरप्रसाद सिंह, डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, डॉ. सत्येन्द्र, त्रिलोचन शास्त्री आदि थे. काव्य संग्रह, उपन्यास, नाटक, कहानी संग्रह, आलोचना एवं स्फुट विधाओं से सम्बन्धित पुस्तकों की समीक्षा पहले अंक में छपी थी. स्फुट विधाओं में प्रभाकर माचवे का ‘आधुनिक साहित्य और चित्रकला‘ उल्लेखनीय निबन्ध था. पहले अंक में ही ‘आलोचना’ ने विमर्श की वह श्रृंखला आरम्भ की, जो बाद में इसकी प्रखर पहचान बनी. इसे नाम दिया गया: ‘प्रस्तुत प्रश्न‘. पहले अंक का ‘प्रस्तुत प्रश्न’ स्वयं शिवदान जी ने ‘साहित्य में संयुक्त मोर्चा’ नाम से लिखा था.
पहले अंक की थोड़ी व्यापक चर्चा इसलिए कि शिवदान जी ने ‘आलोचना’ पत्रिका के जो प्रतिमान तय किए थे, वे बाद में भी इसके आदर्श के रूप में कार्यरत रहे. ‘आलोचना’ विशुद्ध ‘साहित्यिक पत्रिका’ के दायरे में कभी कैद नहीं रही वरन् वृहत्तर सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों को ध्यान में रखकर चलती रही. हिन्दी समाज को एक बड़े साहित्यिक, पर दृश्य से परिचित कराने में इस पत्रिका ने प्रारम्भ से ही ऐतिहासिक भूमिका निभाई.’’
हिन्दी लेखकों की बात
जहाँ तक उस दौर में छपने वाले लेखकों की बात हैं; आलोचना के पहले दशक (1951-1960) के लेखकों की सूची देखे तो ऐसा लगता है कि हिन्दी साहित्य का शायद ही कोई ऐसा बड़ा नाम हो जो इसमें न छपा हो. पहले अंक के लेखकों की चर्चा हो चुकी है. दूसरे अंक में जो नए बड़े नाम दिखाई देते है उनमें डॉ. नगेन्द्र, शमशेर बहादुर सिंह, गिरिजाकुमार माथुर, नरेशकुमार मेहता, भगवतशरण उपाघ्याय, उपेन्द्रनाथ अश्क तथा डॉ. भगीरथ मिश्र प्रमुख हैं. तीसरे अंक में नेमिचंद्र जैन, इलाचंद्र जोशी, डॉ. हरदेव बाहरी, देवेन्द्र सत्यार्थी, धर्मवीर भारती, ठाकुरप्रसाद सिंह, हंसकुमार तिवारी, विजयशंकर मल्ल, मुक्तिबोध तथा क्षेमचंद्र सुमन के नाम पहली बार आलोचना में दिखे. यह श्रृंखला निरंतर बढ़ती गई. चौथे अंक में नंददुलारे बाजपेयी, सुमित्रानंदन पंत, यशपाल, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, रामविलास शर्मा, नलिन विलोचन शर्मा, जगदीश गुप्त, मन्मथनाथ गुप्त, परशुराम चतुर्वेदी और बच्चन सिंह दिखे. छठे अंक में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का लेख छपा. सातवें अंक में डॉ. विजयदेवनारायण साही, ब्रजेश्वर शर्मा, लक्ष्मीनारायण लाल, उदयनारायण तिवारी, माताप्रसाद गुप्त तथा आठवें अंक में शंभूनाथ सिंह, रामसिंह तोमर, धीरेन्द्र वर्मा, इन्द्रनाथ मदान दिखाई दिए. नवें अंक में पहली बार अज्ञेय दिखे और रामस्वरुप चतुर्वेदी भी. एक और नाम राजनारायण बिसारिया का दिखा जो बाद में बी.बी.सी. चले गए. दसवे अंक में लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, मार्कण्डेय, लक्ष्मीनारायण लाल तथा कमलेश्वर की इंट्री हुई. ग्यारहवे अंक में बलदेव उपाध्याय, माताबदल जायसवाल एवं रामचंद्र तिवारी के साथ दो बड़े नाम राजेन्द्र यादव तथा मोहन राकेश के थे.
बारहवें अंक में गिरिजाकुमार माथुर, अगरचंद नहाटा, अजीत कुमार, भारतभूषण अग्रवाल और बी.बी.सी वाले ओंकारनाथ श्रीवास्तव दिखे तो तेरहवें अंक में डॉ. संपूर्णानंद. चौदहवे अंक में प्रसिद्ध भाषाविद सुनीतिकुमार चटर्जी, का लेख छपा. पंद्रहवें मे सिद्धनाथ कुमार, सोलहवें अंक में विद्यानिवास मिश्र तथा हरिवंशराय ‘बच्चन’, सत्रहवें अंक में फादर कामिल बुल्के तथा शिवप्रसाद सिंह के नए नाम दिखे. बीसवें में भोलानाथ तिवारी, बाईसवें में रमेशकुंतल मेघ और चौबीसवें में फणीश्वरनाथ रेणु के लेख छपे. पचीसवाँ अंक जो पहले दशक का आखिरी अंक था उसमें आ. विश्वनाथप्रसाद मिश्र तथा भोलाशंकर व्यास दिखे. यानी पचास से साठ के बीच हिन्दी साहित्य का शायद ही कोई बड़ा नाम था जिसने आलोचना में नहीं लिखा. कई ने तो कई-कई बार लिखा. इन बड़े नामों के अलावा कई आलेख ऐसे लेखकों के हैं जो भले ही बाद में उतने प्रसिद्धि नहीं पा सके परन्तु उस दौर में इतने बड़े-बड़े लेखकों के साथ उनका छपना अपने आप में उनके स्तर का परिचायक है. ऐसे लेखकों के आलेख विशेष रुप से देखे जाने योग्य हैं क्योंकि वे प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं की तरह उपलब्ध भी नहीं है एवं केवल आलोचना के पन्नों में ही खोजे जा सकते है.
हिन्दीतर भाषाओं से जुड़ी सामग्री
आलोचना के लेखों में प्रारंभ से ही अन्य भाषाओं एवं विश्व साहित्य से भी जुड़ाव दिखाई देता है. पहले अंक में प्रसिद्ध लेखक अमृतराय ने कोन्स्तान्तिन फेदीन की रचना ‘लेखक और उसकी कला’ का अनुवाद प्रस्तुत किया था. सातवें अंक में प्रसिद्ध मनोविज्ञानी से.जी. युंग की रचना ‘साहित्य और मनोविज्ञान का अनुवाद; आठवे अंक में आई.ए. एक्स्ट्रास के लेख ‘समकालीन विश्व साहित्य पर एक दृष्टि;’ पंद्रहवें अंक में के.दोई. का जापानी साहित्य; सत्रहवें अंक में पेत्रोविच का लेख ‘यूगोस्लावियन साहित्य की वर्तमान समस्या’ तथा पच्चीसवें अंक में एण्ड्रे पाडाक्स का लेख आधुनिक ‘फ्रांसीसी कविता;’ डॉ. फिलिप यंग का लेख ‘बीसवी सदी की अमरीकी कविता’ तथा डॉ. अमरेश दत्त का ‘आधुनिक अंग्रेजी कविता’- विश्व साहित्य से हिन्दी पाठकों को परिचित कराने के कुछ प्रमुख उदाहरण है. इसी प्रकार अन्य भारतीय भाषाओं से परिचित कराने वाले लेखों में पहले अंक में एहतेशाम हुसैन का ‘उर्दू भाषा की उत्पत्ति और उसका प्रारंभिक विकास;’ दूसरे अंक में गोपाल हलधर का ‘समसामयिक बंगला साहित्य में आलोचना;’ सातवें अंक में ‘अंग्रेजी काव्य धारा-बीसवीं शताब्दी;’ ’मराठी नव काव्य और रस विचार’ पर ए.आर. देशपांडे का लेख; उसी अंक में ति. शेषाद्रि का ‘तमिल भाषा और साहित्य’ की समस्याएं;’ आठवें अंक में एजाज़ हुसैन का ’उर्दू कविता में राष्ट्रीयता भावना’ तथा हेमलता जनस्वामी का ‘तेलगू प्रदेश की साहित्यिक तथा सांस्कृतिक समस्याएं;’ ग्यारहवें अंक में प्रभाकर माचवे का ‘मराठी रस मीमांसा नई दिशाएं;’ बारहवें अंक में मसीहुज्जमा का ‘उर्दू आलोचना का विकास’ तथा ति. शेषाद्रि का ’भारतीय साहित्य का परिचय;’ चौदहवें अंक में बालशौरि रेड्डी का ‘तेलगू साहित्य का इतिहास;’ सोलहवें अंक में ‘बांग्ला और उसका साहित्य;’ उन्नीसवें अंक के ‘बांग्ला साहित्य के नाट्य और रंगमंच’ तथा ’प्रादेशिक भाषाओं के नाट्य और मंच’ नामक आलेख इसके कुछ उदाहरण है. छब्बीसवें अंक जो 1959 में प्रकाशित हुआ था में तेलगू काव्य, बांग्ला काव्य, एवं मराठी कविता पर सम्यक लेख प्रकाशित हुए थे. इस प्रकार पहले दशक की आलोचना ने उस दौर में जब इन्टरनेट जैसे सर्वसुलभ माध्यम की उपलब्धता नहीं थी-हिन्दी पाठकों को कूपमंडूक होने से बचाया तथा देश-विदेश के साहित्य से जोड़े रखा.
व्यावहारिक समीक्षा
आलोचना का एक महत्वपूर्ण पक्ष था प्रकाशित पुस्तकों की व्यावहारिक समीक्षा. इस दिशा में ’मूल्यांकन’ नाम से किताबों की समीक्षा छपती थी. आज जब सत्तर साल बाद हम उन पन्नों की ओर लौटते है तो कई ऐसी किताबों सूची मिलती है जो समय की धार में कहीं किनारे लग गई. परन्तु कई ऐसी है जिनकी चर्चा आज भी होती है. जिन प्रसिद्ध रचनाओं की समीक्षा आलोचना में छपी उनमें पहले अंक में वृन्दावन लाल वर्मा की मृगनयनी, तथा बी.आर. अम्बेडकर की शूद्रों की खोज; दूसरे अंक में अज्ञेय का ’दूसरा सप्तक’ तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी की ’नाथ सम्प्रदाय;’ तीसरे अंक में जगदीशचंद्र माथुर का ’कोणार्क’, हंसराज रहबर की ‘प्रेमचंद जीवन और कृतित्व’ भदंत आनंद कौशल्यायन का ‘रेल का टिकट;’ तीसरे अंक में धर्मवीर भारती का ‘सूरज का सातवां घोड़ा;’ नामवर सिंह की रचना ’हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ तथा रामवृक्ष बेनीपुरी का ‘गेहुँ और गुलाब’ सातवें अंक में आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी की ’हिन्दी साहित्य का आदिकाल’ तथा परशुराम चतुर्वेदी का ‘मध्यकालीन प्रेम साधना;’ आठवें अंक में नामवर सिंह की तथा पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी की सम्पादित किताब ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा;’ दसवें अंक में जैनेन्द्र कुमार की ‘सुखदा;’ ग्यारहवें अंक में डॉ. बाबू राम सक्सेना की ‘दखिनी हिन्दी का उद्भव और विकास,’ तथा परशुराम चतुर्वेदी का संत काव्य; बारहवें अंक में राजेन्द्र यादव की ’प्रेत बोलते है;’ चौदहवें अंक में अज्ञेय का ‘बावरा अहेरी;’ पंद्रहवे अंक में नागार्जुन के ‘बाबा बटेसरनाथ’ तथा रेणु के ‘मैला आंचल;’ सोलहवें अंक में दशरथ ओझा के ’हिन्दी नाटक,’ गिरिजा कुमार माथुर के ’धूप के धान’ तथा विद्यानिवास मिश्र के ’छितवन की छाँह;’ सत्रहवें अंक में नंद दुलारे बाजपेयी की किताब ’नया साहित्य-नए प्रश्न;’ अठारहवें अंक में इलाचंद्र जोशी के ’जहाज का पंक्षी;’ डी.डी. कोशाम्बी के ‘भगवान बुद्ध;’ बीसवें अंक में अमृतलाग नागर की ‘बूंद और समुद्र’ नामवर सिंह की सम्पादित-अनुवादित-’पुरानी राजस्थानी;’ धर्मवीर भारती की ’अंधा युग;’ इक्कीसवें अंक में राजेन्द्र यादव की ’उखड़े’ हुए लोग, भवानी प्रसाद मिश्र की ’गीत फरोस,’ तेईसवें अंक में महादेवी वर्मा के ’पथ के साथी,’ बलदेव उपाध्याय की ‘संस्कृत आलोचना’ कमलेश्वर के ’राजा निरबंसिया;’ चौबीसवें अंक में राहुल सांकृत्यायन के ’मध्य एशिया का इतिहास’ तथा नागार्जुन के दुखमोचन की समीक्षाएँ छपी. ये समीक्षाएँ इस बात की साक्ष्य है कि ’आलोचना’ ने अपने वक्त की सही नब्ज पकड़ी. इसके अतिरिक्त इन आलोचनाओं ने इस किताबों की विशेषताओं को पाठकों के समक्ष इस प्रकार रखा कि पाठक वर्ग भी इन्हें पढ़ने को प्रेरित हुआ.
उल्लेखनीय है कि तत्कालीन साहित्य के अतिरिक्त आलोचना ने प्राचीन एवं मध्यकालीन एवं आधुनिक साहित्य के कालजयी साहित्य की पुनर्पहचान का भी रास्ता दिखाया. इस दृष्टि से पहला महत्वपूर्ण प्रयास पाँचवें अंक में हुआ जिसमें पृथ्वीराज रासो, सूर सागर, रामचरितमानस, बिहारी सतसई, कामायनी एवं गोदान जैसी कालजयी कृतियों की समीक्षा पेश की गई. बाद में सातवें अंक में ‘बीसलदेव रासो;’ आठवें अंक में ‘शिशुपाल बध;’ बारहवें अंक में ’पदमावत’ ‘गोरा बादल की कथा’ तथा ‘आइने अकबरी;’ तथा चौदहवें अंक में ’कान्हड़ डे प्रबंध’ का केंद्र में रखकर लेख या समीक्षाएँ प्रकाशित हुई. इस प्रकार आलोचना ने परंपरा एवं नवीनता के बीच एक सुंदर साहचर्य बनाए रखा.
पुस्तकों की समीक्षा में जहाँ आलोचना में आरंभ में किसी एक पुस्तक को केंद्र में रखकर समीक्षाएँ छपती थी, सातवें अंक से विषय केंद्रित समीक्षाएँ भी प्रारंभ हुई तथा लेखक केंद्रित समीक्षाएँ भी. जैसे सातवें अंक में ‘रवीन्द्र साहित्य में रहस्य चेतना’ को केंद्र में रखकर उनकी पाँच किताबों-मेरा बचपन, चतुरंग, दो बहनें फुलवाड़ी तथा नारी की पूजा की चर्चा की गई. उसी अंक में ‘हिन्दी की गीत परंपरा’ को ध्यान में रखकर बच्चन जी की ‘सोपान’, गिरिधर गोपाल की ‘अग्निमा’, रामानाथ अवस्थी की ‘आग और पराग’, श्रीपाल सिंह क्षेम की ‘जीवन तरी’ तथा शान्ति एम.ए. की ’चाणक्य’ की समीक्षा की गई. यह संश्लिष्ट समीक्षा पद्धति आठवें अंक में ‘प्रेमचंद की परंपरा में नए हस्ताक्षर’ तथा ’प्रेमचंद की परंपरा के दावेदार’; ग्यारहवें अंक में आधुनिक हिन्दी काव्य का एक विशिष्ट अध्यात्मिक स्वर; बारहवें अंक में संस्कृति और सभ्यता के रुप, पलायनवाद, व्यक्ति परिवार और समाज; चौदहवें अंक में तीन नए काव्य संग्रह; ’पंद्रहवें अंक में हिन्दी साहित्य के नए यात्री, तीन लघु उपन्यास तथा दिनकर की नई काव्य कृतियाँ; अठारहवें अंक में हिन्दी साहित्य में रामकथा का अध्ययन, साहित्य वार्ता और आलोचना के सिद्धांत; ’इक्कीसवें अंक में काव्य निर्णय और आचार्य भिखारीदास; चौबीसवें अंक में दो ऐतिहासिक उपन्यास में भी दिखाई देती है. इन सभी आलेखों/समीक्षाओं में एकाधिक लेखकों या रचनाओं को सामने रखकर तुलनात्मक दृष्टि से विवेचना का प्रयास हिन्दी पुस्तक समीक्षा एवं व्यावहारिक समीक्षा को दिशा देने वाला सिद्ध हुआ.
रचनाओं/या लेखकों को केंद्र में रखकर प्रकाशित समीक्षाएँ
आलोचना के पहले दशक में रचनाकारों को केंद्र में रखकर कई निबंध लिखे गए. इनमें पहले अंक में गोस्वामी तुलसीदास एवं सुमित्रानंदन पंत’ चौथे अंक में प्रेमचंद; नौवें अंक में आ. रामचंद्र शुक्ल; बीसवें अंक में गोर्की; बाईसवें अंक में नागार्जुन तथा तेईसवें अंक में चेखव केंद्रित लेखों की गणना की जा सकती है इस दृष्टि से सबसे समृद्ध अंक 25 तथा 26 थे जिसमें एक साथ वाल्मीकि, कालिदास, सूरदास, तुलसीदास वर्डसवर्थ, शैली, गेटे, रवीन्द्रनाथ, जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, बच्चन, दिनकर, अंचल तथा अज्ञेय को केन्द्र में रखकर ‘काव्यालोचन’ किया गया.
आलोचना के विशेषांक
अब एक नजर आलोचना क विशेषाकों पर. पहले दशक की आलोचना का पहला विशेषांक अंक 5 था जो ’इतिहास विशेषांक’ था. इसका दूसरा अंक 6 भी इतिहास विशेषांक था. कहा जाता है कि तब के नवोदित आलोचक एवं बाद के आलोचना के इतिहास पुरुष के रुप में ख्यात नामवर सिंह ने इन दोनों अंको की सामग्री जुटाने में अथक परिश्रम किया था. आलोचना का नौवां अंक ‘आलोचना विशेषांक’ था जिसमें भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षा पद्धतियों एवं आलोचकों पर कुल 31 आलेख थे. इसमें एक ओर भरत मुनि थे तो दूसरे छोर पर टी.एस. इलिएट. इसी अंक में विजयदेव नारायण साही का प्रसिद्ध आलेख ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ छपा था. अगला विशेषांक अंक 13 था जो ’उपन्यास’ केंद्रित था जिसमें न केवल भारतीय बल्कि विश्व उपन्यास भी चर्चा थी. अगले दो विशेषांक 18 तथा 19 ’नाटक’ केंद्रित थे जिसमें नाटक के सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक-भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों रुपों की विशद चर्चा थी
अगले दो विशेषांक अंक 25-26 थे जो ‘काव्यालोचन’ पर केंद्रित थे एवं अपनी परंपरा के अनुरूप आलोचना ने न केवल हिन्दी एवं प्रमुख भारतीय भाषाओं के साहित्य को छुआ था बल्कि फ्रांसीसी, अमरीकी तथा अंग्रेजी साहित्य को भी परखा था.
आलोचना के पहली दशक की यात्रा इस प्रकार अत्यंत विविधता पूर्ण रही. न, केवल अपनी समीक्षाओं, लेखों एवं विश्लेषणों की दृष्टि से बल्कि अपनी संपादकीय उठापटक की दृष्टि से भी आलोचना का यह काल खंड अत्यंत धरना पूर्ण रहा. इसका उल्लेख अनुक्रमणिका के इतिहास वर्णन के क्रम में कुछ इस प्रकार हुआ है-
“‘आलोचना’ के प्रारम्भिक छः अंकों के बाद पत्रिका की बागडोर नये हाथों में दी गई. इस बदलाव की पृष्ठभूमि में ‘आलोचना’ के प्रबन्धक एवं तत्कालीन संपादक चौहान जी के बीच किन्हीं मुद्दों को लेकर गहरे मतभेद थे. जनवरी, 1953 में राजकमल प्रकाशन की एक शाखा इलाहाबाद के सिविल लाइंस में स्थापित हुई. इसी शाखा में बहुत बाद में लोकभारती प्रकाशन स्थापित हुआ. ओम प्रकाश जी उस समय ज्यादातर इलाहाबाद में ही रहते थे. इसी कारण उन्होंने ‘आलोचना’ के संपादक के रूप में इलाहाबाद के चार लेखकों का चुनाव किया जो ‘परिमल’ ग्रुप से जुड़े थे. वे लेखक थे- धर्मवीर भारती, रघुवंश, विजयदेवनारायण साही और ब्रजेश्वर वर्मा.”
इस नये संपादक-मंडल ने अप्रैल, 1953 से जनवरी, 1956 तक अर्थात् अंक-7 से अंक-17 तक ‘आलोचना’ का संपादन किया. नये संपादक-मंडल ने नये तेवर के साथ ‘आलोचना’ को नया रंग देने का प्रयास किया. अपने सम्पादकीय आलेखों में संपादक मंडल ने प्रगतिशील वामपंथी साहित्य एवं आलोचना को संकुचित दृष्टि से प्रेरित बताते हुए प्रयोगवादी-कलावादी साहित्य की वकालत की.
उस दौर की ‘आलोचना’ ने तत्कालीन साहित्यिक विमर्श को कैसे प्रभावित किया, इसकी चर्चा करते हुए भारत यायावर लिखते हैंः
“भारती और साही ने उसे (‘आलोचना’ को) शीतयुद्ध की विचारधारा को वहन करनेवाला पत्र या मंच बनाया. ‘मार्क्सवादी समीक्षा की कम्युनिस्ट परिणति’ से चिंतित इन संपादकों ने ‘आलोचना’ को उस विचारधारा का प्रतिनिधि बनाया जिसे कृत्रिम, गूढ़, पश्चिमोन्मुख आधुनिकता या आधुनिकतावाद कह सकते हैं. नामवर सिंह की आरम्भिक पुस्तक ‘इतिहास और आलोचना’ की टिप्पणियाँ उसी समय की ‘आलोचना‘ की सम्पादकीय दृष्टि या विचारधारा से संघर्ष का परिणाम हैं.”
इस संपादक-मंडल ने अक्तूबर, 1953 में‘ ‘आलोचना विशेषांक’ तथा अक्तूबर, 1954 में ‘उपन्यास विशेषांक’ निकाले जिनमें उपरोक्त विधाओं पर विविधतापूर्ण सामग्री पाठकों को उपलब्ध हुई. इस विकास-यात्रा में-अप्रैल, 1953 से जुलाई, 1954 तक के अंकों में-क्षेमचन्द्र ‘सुमन’ सहकारी संपादक के रूप में वापस ‘आलोचना‘ से जुड़े.
अप्रैल, 1956 में ‘आलोचना’ के सम्पादकीय विभाग में पुनः बदलाव आया. ऐसा प्रतीत होता है कि वाम एवं दक्षिणपंथी लेखकों की उठा-पटक ने सबको साथ लेकर चलनेवाले उदारवादी छवि के साहित्यकार आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी को संपादक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की. अपनी उदारवादी छवि के अनुरूप वाजपेयी जी ने ‘समीक्षा सम्बन्धी संतुलित प्रतिमान और समन्वित दृष्टि’ की वकालत की और ‘आलोचना’ को वाम अथवा दक्षिणपंथी अतिवादों से सतर्कतापूर्वक बचाने का आग्रह किया. लगभग तीन बरसों के अपने कार्यकाल में उन्होंने ‘आलोचना’ में प्रगतिशील और प्रयोगवादी, दोनों खेमों को जगह दी. उनके संपादकत्व में, अप्रैल एवं जुलाई, 1956 में, ‘नाटक’ के दो विशेषांक तथा जनवरी, 1959 एवं अप्रैल, 1959 में ‘काव्यालोचन’ के दो विशेषांक निकले, जिनमें उपरोक्त विषयों पर वैविध्यपूर्ण सामग्री दी गई. किन्तु वाजपेयी जी के संपादन-काल में ‘आलोचना’ का स्वरूप थोड़ा संकुचित हुआ और उन पर इसे ‘विश्वविद्यालय की पत्रिका’ बनाने का आरोप भी लगा.
इस प्रकार पहले दशक की यात्रा यही समाप्त होती है. ‘आलोचना’ पत्रिका की पहले दशक की यह यात्रा हिन्दी साहित्य के इतिहास-विशेषतः स्वतंत्रता के बाद हिन्दी साहित्य में आ रहे बदलाव को जानने समझने की एक चाभी प्रदान करती है. न केवल शोधार्थियों के लिए बल्कि हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा में रुचि रखने वाले सभी सुधी जनों के लिए यह एक अनूठा संकलन है.
दिनेश कुमार हिंदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख प्रकाशित. हिंदी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका हंस में 2012 से 2018 तक सृजन परिक्रमा नामक नियमित स्तम्भ लेखन. मुक्तिबोध: एक मूल्यांकन तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल: एक मूल्यांकन नाम से दो आलोचना पुस्तकें प्रकाशित. संप्रति: असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय. |
बहुत ही खूबसूरत और पठनीय आलेख।
महोदय इस पत्रिका से मुझे भी जुड़ना है