आसमाँ और भी हैं वि-उपनिवेशीकरण : सिद्धांत, सरोकार और संशय |
बीसवीं सदी के इतिहास में वि-उपनिवेशीकरण एक केंद्रीय परिघटना रही है. इसका दायरा एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमेरिका के विशाल भूभाग में उपनिवेशित जनता की राजनीतिक मुक्ति के संघर्षों से शुरु होकर स्वतंत्रता की प्राप्ति और बाद में इन समाजों के एक ऐसे खुरदुरे यथार्थ तक चला आया है जहाँ यह समझ एक दैनिक अनुभव में बदल चुकी है कि औपनिवेशिक प्रभुसत्ता से राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने के बावजूद विचार-चिंतन और संस्कृति के प्रतिमान आज भी औपनिवेशिकता की उसी संरचना से तय होते हैं.
यह अनुभूत तथ्य वि-उपनिवेशीकरण के विमर्श को लगातार नयी दिशाओं में ठेलता रहा है लेकिन उसकी एक दृष्ट सीमा यह रही है कि ज़्यादातर मामलों में वह उपनिवेशवाद के प्रभावों का निरूपण करके रह जाता है. उसकी अधिकांश ऊर्जा उपनिवेशवाद के अन्यायों के बहुविध आख्यानों और उनकी भर्त्सना में खर्च हो जाती है. इससे उपनिवेशवाद के प्रति हमारे क्षोभ, रोष और अफ़सोस में तो इज़ाफ़ा होता रहता है परंतु उसमें औपनिवेशिक चिंतन के वर्चस्व से टकराने, उसकी जगह नये परिप्रेक्ष्य या सिद्धांत की रचना का काम पीछे छूट जाता है.
आदित्य निगम की किताब वि-उपनिवेशीकरण के इस विमर्श में नए आयाम का प्रतिनिधित्व करती है, वह केवल उपनिवेशवाद के प्रभावों की भर्त्सना करके नहीं रह जाती. अपने शीर्षक के अनुरूप यह ज्ञान-मीमांसा के प्रदत्त ढर्रे-ढांचे से अलग और आगे सोचने का आह्वान करती है. यह हर उस पद, प्रत्यय, अवधारणा, दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य को प्रश्नांकित करती है जिसे समाज-विज्ञानों के प्रचलित विमर्शों ने जनमानस में सत्य व तथ्य की तरह स्थापित कर दिया है. हालांकि आठ लेखों की इस किताब में केवल शुरू के दो अध्याय ही वि-उपनिवेशीकरण पर केंद्रित हैं, लेकिन बाक़ी लेखों से गुज़रते हुए यह बात साफ़ होती जाती है कि इसमें संकलित तमाम लेख दरअसल वि-उपनिवेशीकरण के बुनियादी सरोकारों का ही विस्तार करते हैं. दूसरे शब्दों में, वि-उपनिवेशीकरण के विमर्श को यह किताब इस मायने में समृद्ध करती है कि वह केवल औपनिवेशिक ज्ञान-मीमांसा के पदों और अवधारणाओं के खंडन पर नहीं रुक जाती बल्कि आमफ़हम हो चुकी अवधारणाओं में बंद यथार्थ को दुबारा खोलकर यह बताना चाहती है कि प्रचलित और स्वीकृत अवधारणाएं किस सीमा तक एकांगी व मूलतः यूरोप-केंद्रित हैं तथा उनसे मुक्ति पाने के लिए क्या किया जाना चाहिए. इसके बाद वह इस बात की बानगी भी देती है कि औपनिवेशिक सैद्धांतिकी को प्रतिस्थापित करने के बाद हमें अपना यथार्थ कैसा दिखाई देगा.
इस तरह, किताब का मर्म यूरोपीय ज्ञान के वर्चस्व से उपजी विसंगतियों के बरक्स एक स्वतंत्र ज्ञान-मीमांसा की दावेदारी में निहित है. इस नाते, यह एक जटिल और बहुसूत्रीय कृति है. आमतौर पर एक सजग पाठक किताब के प्रस्थान और गंतव्य का अंदाज़ा लगा लेता है. यह किताब इस ढर्रे से कुछ अलग किस्म की है. यहाँ लेखक आदि से अंत जैसे किन्हीं दो बिंदुओं के बीच क्रमिक यात्रा न करके अपने सामने फैले विचार के बृहत भूगोल और उसके कुछ ख़ास पड़ावों तथा विभाजक-चिह्नों पर फ़ोकस करता है. हमें लगता है कि मौटे तौर पर किताब का तर्क अवधारणाओं के इन समुच्चयों के इर्दगिर्द विकसित होता है:
- ज्ञान के उत्पादन की औपनिवेशिक व्यवस्था और वि-उपनिवेशन का तर्क
- स्थापित का खंडन: आधुनिकता और पूंजीवाद
- राजनीति: अवधारणाओं की जड़ता बनाम यथार्थ की गतिशीलता
(1)
ज्ञान की औपनिवेशिक व्यवस्था और वि-उपनिवेशन का तर्क
हमारे सामाजिक जीवन और विमर्शी जगत में पश्चिम के कथित अंधानुकरण की बात बड़े ज़ोर-शोर से कही जाती है. लेकिन, यह स्पष्ट करने की ज़हमत कम उठाई जाती है कि हम जिस चीज़ का अंधानुकरण कर रहे हैं उसका ढांचा कैसा है या वह किस तरह काम करता है.
लेखक ज्ञान के इस ढांचे की व्याख्या के लिए इंग्लैंड के कारख़ानों और भारत से ज़बरदस्ती निर्यात किए जाने वाले कच्चे माल का सादृश्य खड़ा करता है. उसका कहना है कि जिस तरह एक समय भारत से भेजे गए कच्चे माल से निर्मित उत्पादों को वापस भारतीय बाज़ार में बेच दिया जाता था, ज्ञान का यह औपनिवेशिक ढांचा कुछ उसी तरह काम करता है: वह भारत, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका जैसे देशों को ‘फील्ड’ के रूप में कल्पित करता है- जहाँ से कच्चे माल का संग्रह किया जाता है, फिर पश्चिमी थियरी के कारखाने में उसकी प्रोसेसिंग की जाती है और बाद में उसे ज्ञान के एक उत्पाद के रूप में वापस इन्हीं देशों में ठेल दिया जाता है.
बतौर सिद्धांतकार लेखक की मुख्य आपत्ति यह है कि इस स्थिति में स्वतंत्र रूप से सोचने की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है. वह कहता है कि ज्ञान के इस आयातित मॉडल की त्रासदी यह होती है कि उपनिवेशित समाज में एक के बाद एक पीढ़ी अपनी विशिष्ट परिस्थितियों का संधान करने के बजाय आयातित निष्कर्षों पर शीर्षक बैठाती रहती है. बहरहाल, पश्चिमी सैद्धांतिकी को बिना देखे-भाले आत्मसात करने का नतीजा इतिहास-लेखन में तो यह हुआ कि लंबे समय तक श्रेष्ठ इतिहासकार भारतीय सामंतवाद या भारत में सामंतवाद जैसे मुद्दे पर बहस करते रहे जबकि बकौल लेखक ‘सामंत’ पूरी तरह देशज शब्द था जो प्राचीन भारत की मण्डल जैसी राजनीतिक व्यवस्था में एक अपेक्षाकृत बड़े स्तर के राजा की ओर इंगित करता था. लेकिन, बाद में जब भारतीय बौद्धिकता का अंग्रेजी के ‘फ़्यूडलिज़्म’ जैसे शब्द से वास्ता पड़ा तो उसने फ़्यूडलिज़्म को सामंतवाद मान लिया.
औपनिवेशिक ज्ञान-मीमांसा के प्रभाव में धीरे-धीरे सामंत का मूल अर्थ स्खलित होता चला गया और अंतत: उसकी जगह फ़्यूडलिज़्म मुख्य संदर्भ बन गया. यानी एक समय के बाद फ़्यूडलिज़्म के नाम पर केवल वही बोध प्रमुख हो गया जो यूरोप के इंग्लैंड जैसे देशों में दसवीं से बारहवीं सदियों के दौरान प्रचलित था. निस्संदेह, ज्ञान के क्षेत्र में यह एक अवांछित हस्तक्षेप था जिसमें मूल प्रत्यय के बजाय एक भिन्न सामाजिक-ऐतिहासिक संदर्भों में जन्मे प्रत्यय ने हमारे मूल अर्थ को विस्थापित कर दिया.
लेखक को सेक्युलरिज़्म जैसी अवधारणा के प्रयोग में भी ठीक यही विसंगति दिखाई पड़ती है. उसका मानना है धर्म और राजनीति के पार्थक्य पर ज़ोर देने वाली यह अवधारणा मुख्यतः: यूरोप के उस मध्यकालीन संदर्भ को संबोधित करती है जिसमें चर्च ने राज्यसत्ता के तमाम स्तरों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था. उसका यह सर्वसत्तावाद रेनेंसा और प्रबोधन की सुदीर्घ प्रक्रियाओं के बाद संभव हो पाया.
प्रबोधन के बाद यूरोप में यह बौद्धिक मिथक प्रचलित हुआ कि इससे पहले की दुनिया अंधकार युग में जीती थी. ज्ञान के औपनिवेशिक तंत्र के प्रभाव स्वरूप धीरे-धीरे इस बात को सार्वभौम मान लिया गया.
लेकिन, इसके बरक्स लेखक यह दलील खड़ी करता हैं कि चूंकि हिंदू या इस्लाम धर्म में चर्च जैसी किसी सत्ता का कोई अस्तित्व नहीं था, इसलिए उनके भूभाग में धर्म और राजनीति को एक दूसरे से पृथक करने की नौबत ही नहीं आई. जबकि अगर भारत के लिहाज़ से देखें तो यूरोप का यह अंधकार युग भारत में वैचारिक नवोन्मेष का दौर था जिसमें सोलहवीं सदी के उत्तरार्ध में ‘दीन-ए-इलाही’ से लेकर सत्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में ‘मज्म-उल-बहरैन’ जैसे प्रयोग चल रहे थे जो धर्मों के बीच सहअस्तित्व की ज़मीन तलाश कर रहे थे. ग़ौरतलब है कि ये तमाम घटनाएं उपनिवेशवाद के आगमन से ढाई-तीन सौ पहले की हैं. संक्षेप में कहें तो भारत में धर्म की सामाजिक उपस्थिति यूरोप से भिन्न अर्थ रखती थी. उसका लक्ष्य राजनीतिक सत्ता पर नियंत्रण करना नहीं था. यही वजह थी कि आखिर में जब संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की गयी तो सेक्युलरिज़्म के लिए हमारे पास कोई देशज शब्द नहीं था. यानी सामंतवाद की तरह अंततः सेक्युलरिज़्म भी भारतीय यथार्थ को इंगित करने के बजाय यूरोपीय यथार्थ का वाहक बन गया.
ज्ञान के औपनिवेशिक ढांचे की इस चर्चा से पता चलता है कि वह स्थानीय ज्ञान-मीमांसा को उलटकर बोध और समझ का ऐसा परिप्रेक्ष्य स्थापित कर डालती है जिसमें हमारी परिस्थितियों से उद्भूत वस्तु-सत्य ही अजनबी और अबूझ लगने लगता है.
लेखक के मुताबिक़ यूरोप का आधुनिक चिंतन और दर्शन हमेशा सार्वभौम होने का दावा करता है जबकि सच यह है कि वह केवल यूरोप के आंतरिक ऐतिहासिक अनुभवों पर आधारित है. इसके बावजूद वह पिछले दो सौ वर्षों से ‘हमारे दिलो-दिमाग़ पर राज’ करता आ रहा है.
‘हम सिर्फ़ उसे पढ़ते नहीं हैं बल्कि उसके हिसाब से अपने आप को, अपनी संस्थाओं को, अपने चाल-चलन को, अर्थव्यवस्था आदि को ढाल लेते हैं. प्राक् औपनिवेशिक चिंतन और दर्शन से अब हमारा रिश्ता बिल्कुल टूट जाता है. सोचने के तौर-तरीक़ों में हम पूरी तरह उन्हीं पश्चिमी तरीक़ों के आवेश में आ चुके होते हैं (पृ. 65) .‘
बहरहाल, यूरोपीय ज्ञान के प्रति यह तुर्शी शायद इसलिए है क्योंकि
‘जैसे-जैसे यूरोपीय आधुनिकता की आत्मकथा विश्वस्तर पर आधुनिकता की आत्मकथा बनती जाती है, वैसे-वैसे आधुनिक यूरोप के ग़ैर-यूरोपीय ज्ञान-स्रोतों का इतिहास भी विलुप्त कर दिया जाता है (पृ.93). ‘
यूरोप ख़ुद को तर्क-बुद्धि से लैस बताता है और ग़ैरयूरोपीय सभ्यताओं को असभ्य घोषित कर देता है. इसलिए लेखक इस बात पर ख़ास ज़ोर देता है कि
‘वि-उपनिवेशीकरण की पहली शर्त इस द्वैत को ख़ारिज करना है (पृ: वही).’
ग़ौर से देखें तो यहाँ तक लेखक के तर्कों का विन्यास एक हद तक जाना-पहचाना है. लेकिन, इसके बाद उसके तर्कों की दिशा उन लोगों की तरफ हो जाती है जिन्हें यह लगता है कि हमारी दार्शनिक और बौद्धिक परंपराएं आज भी अक्षुण्ण हैं और उन्हें बरामद करने के लिए हमें केवल संस्कृत के स्रोतों को देखने की ज़रूरत है. इस दावे के प्रतिवाद में लेखक का तर्क है कि विगत समय में दर्शन ज्ञान, प्रमाण, भाषा और अर्थ, आत्मा और अस्तित्व जैसे शाश्वत कि़स्म के सवालों को संबोधित करता था जबकि समय के साथ, ख़ास तौर पर औपनिवेशिक युग में वह समाज और राजनीति से विच्छिन्न नहीं रह सकता था (पृ.64).
लेकिन, उल्लेखनीय है कि लेखक यहाँ दर्शन, गणित और विज्ञान आदि जैसे क्षेत्रों में प्राचीन भारत की उपलब्धियों की अवहेलना नहीं करता. वह ज्ञान की उस अंतर- सांस्कृतिक कड़ी को चिन्हित करता है जिसमें अल-ख्वा्रिज़्मी नामक अरबी गणितज्ञ भारत के ब्रह्मगुप्त के ‘सिद्धांत’ को लेकर यहाँ से जाता है और उसमें अपनी तरफ़ से इज़ाफ़ा करता है. बाद में, लैटिन में पहुंच कर यही अल-ख्वारिज़्मी ‘अलगोरिथमी’ बन जाता है और वहीं से वह ‘अलगोरिद्म’ निकलता है जिसे यूरोपीय खोज मानकर प्रचारित किया जाने लगता है.
इन दो उद्धरणों से यह बात काफ़ी साफ़ हो जाती है कि वि-उपनिवेशीकरण के मामले में लेखक दोहरा प्रतिवाद खड़ा करना चाहता है: एक तरफ़ वह यूरोपीय ज्ञान पर आधारित सिद्धांतीकरण को सार्वभौम मानने से इंकार करता है तो दूसरी ओर अतीत के महिमामंडन व श्रेष्ठ्ता-ग्रंथि की झोंक में प्राचीन भारत के ज्ञान को सर्वकालिक रूप से वैध मानने की प्रवृत्ति का भी खंडन करता है. इस तरह, वह विचार के इन दो स्थापित सांचों को एक-साथ नकार देता है. इसके बाद जैसे-जैसे पाठक आगे बढ़ता जाता है, उसके सामने यह बात नुमाया होने लगती है कि दरअसल इस किताब का प्रधान तर्क एक नयी, स्वानुभूत और स्वायत्त सिद्धांत-रचना की दिशा में जाता है.
इसलिए, यहाँ वि-उपनिवेशीकरण कोई ‘देशज प्रकल्प’ नहीं हो सकता ‘क्योंकि दर्शन और सिद्धान्त का मक़सद अपने वक़्त की चुनौतियों से जूझना होता है, किसी अमूर्त या काल्पनिक अतीत की आरती उतारना नहीं’. उसे इस बात में सक्षम होना चाहिए कि वह ‘अपने वर्तमान से जूझने के लिए ऐसे उपयुक्त वैचारिक औजार’ गढ़ सके ‘जो हमारे अपने तजुरबों को तरजीह दे- बेशक उसके लिए पद और अवधारणाएँ अपनी ज्ञान-परम्पराओं के अलावा कहीं और से भी जुटानी पड़ें (पृ. 94) . ‘
इस विवेचना में यह बोध निहित है कि बीसवीं सदी में भारतीय चिंतक यूरोपीय ज्ञान और अपनी बौद्धिक परंपराओं के बीच एक संश्रय की खोज कर रहे थे. लेकिन, लेखक इस संश्रय को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं करता. उसका कहना है कि इन चिंतकों और विचारकों ‘के सामने सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि आधुनिकता की जिस परिघटना से उनका सामना हो रहा था, उसका अनुभव बिल्कुल नया था और उसे समझने या ढालने लायक़ कोई वैचारिक औजार उनके पारम्परिक ज्ञान में नहीं थे (पृ. 95).‘
इसलिए, लेखक को लगता है कि उस दौर की अपूर्णताओं को आज ज़्यादा आसानी से समझा जा सकता है क्योंकि आज हम उन बाध्यताओं से ग्रस्त नहीं हैं.
इस बहस से गुज़रते हुए आखिर में लेखक जिस तीसरे नज़रिए को तरज़ीह देता है उसमें यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं हैं कि ‘विचार कहाँ से आ रहा है बल्कि यह कि वह हमारे अनुकूल है कि नहीं.‘
लेकिन, इस संबंध में लेखक निशंक भाव से कहता है कि हमें ‘पाश्चात्य ज्ञान के दायरे’ बाहर निकलना होगा क्योंकि ‘ऐसा नहीं हो सकता… कि सारा विचार सिर्फ समाज-विज्ञान द्वारा एक खास तजुरबे के आधार पर गढ़े ज्ञान के अनुरूप हो और उसी के आधार पर हम अपनी जिंदगी जीते और अपने समाज को ढालते चले जाएं… तो फिर आप वैचारिक स्वराज का दावा नहीं कर सकते हैं (पृ. 31).’
यानी एक तरह से यहाँ लेखक अपना पक्ष स्पष्ट’ कर देता है: उसके लिए वि-उपनिवेशन का मतलब भारतीय ज्ञान-परंपराओं के किसी प्रामाणिक पाठ की खोज करना नहीं है, न ही वह यूरो-अमेरिकी संदर्भों से निकले ज्ञान को सार्वभौम मानने के लिए तैयार है. ऐसे में, ज़ाहिर है कि इस किताब की दिशा वैचारिक स्वराज की ओर जाती है- वह विचारों की आवाजाही के बीच दीवार खड़ी नहीं करती बल्कि बाहर से आने वाले विचार को अपनी शर्तों पर परखने के बाद ही स्वीकार करना चाहती है.
(2)
स्थापित का खंडन : आधुनिकता और पूंजीवाद
इस चर्चा से अब तक ज़ाहिर हो चुका होगा कि लेखक वि-उपनिवेशीकरण को अमली जामा पहनाने के लिए एक नयी सैद्धांतिकी की रचना पर ज़ोर देता है. इसलिए, यह उन तमाम प्रत्ययों और अवधारणाओं की विसंगतियों के तहख़ाने में जाती है जिन्हें समाज विज्ञानों के क्षेत्र में नींव का दर्जा हासिल रहा है. मसलन, वह पूंजीवाद, आधुनिकता और जनतंत्र जैसी तीन बहुपरिचित और प्रचलित अवधारणाओं के रूढ़ अर्थ को अस्थिर करके उन पर नए सिरे से विचार करता है.
उदाहरण के लिए लेखक की नज़र में आधुनिकता जैसी सर्वव्यापी अवधारणा किसी एक केंद्र से नहीं उपजी है. उसका तर्क यह है कि आधुनिकता का जन्म किसी एक क्षण में, यूरोप के जागरण या प्रबोधन के साथ नहीं हुआ क्योंकि यूरोप की यह आधुनिकता दुनिया के अलग-अलग भू-भागों में विकसित हुए दार्शनिक एवं तकनीकी ज्ञान के बग़ैर संभव नहीं हो सकती थी (पृ.155).
इस संबंध में सुदीप्त कविराज द्वारा प्रतिपादित आधुनिकता की नवेली व्याख्या का हवाला देते हुए उसका कहना है कि दुनिया में आधुनिकता अलग-अलग रास्तों से आई है. उसे किसी एक निश्चित और स्थिर रूप में सीमित नहीं किया जा सकता. इसलिए उसे एकल पद के बजाय एक बहुलतावादी निर्मिति की तरह देखा जाना चाहिए जो अनेकानेक प्रक्रियाओं से मिलकर बनती है और उन प्रक्रियाओं का क्रम हर समाज में विशिष्ट होता है. यूरोप में औद्योगीकरण, वैयक्तिकरण, पूंजीवाद, जनतंत्र का विकास एक ख़ास क्रम में हुआ है, जबकि अन्य समाजों में उसका मार्ग अलग रहा है. मसलन, यूरोप में औद्योगीकरण भयावह हिंसा और खेतिहर आबादी के व्यापक विस्थापन के साये में सम्पन्न हुआ जबकि, चूंकि भारत जैसे समाज में जनतन्त्र और चुनाव आदि की संस्थाएं पहले ही अस्तित्व में आ चुकी थीं, इसलिए ऐसे समाजों में औद्योगीकरण और पूँजीवाद का स्वरूप भी भिन्न रहा है. यानी इसका एक निहितार्थ स्पष्ट है कि आधुनिकता के इस स्वरूप को मॉडल बनाकर उसकी कोई सार्वभौम व्याख्या नहीं की जा सकती. संकेत स्वरूप कहें तो भारतीय आधुनिकता का विश्लेषण यूरोपीय घटकों के आधार पर नहीं किया जा सकता.
इस तरह, लेखक की निगाह में दुनिया के हरेक क्षेत्र में आधुनिकता के घटकों की कथा और इतिहास अलग-अलग रहा है. मसलन, चीन में आधुनिकता का इतिहास चार सौ साल पहले तक जाता है, भारत में यह परिघटना 5वीं या 6वीं सदी में दिखाई देने लगती है तो अरब में इसका काल नवीं से बारहवीं सदी के बीच चिन्हित किया जाता है. आधुनिकता के शीराज़े को उधेड़ते हुए लेखक यह भी दिखाता है कि तर्कवाद (रैशनेलिज़्म) का आधुनिकता से कोई ताल्लुक नहीं है- वह न तो यूरोपीय प्रबोधन की देन है और न अकेले क्लासिकी यूनान की, बल्कि एक प्रवृत्ति के तौर पर उसे भारत सहित दुनिया के कई समाजों में देखा जा सकता है.
लेखक का मानना है कि आधुनिकता और पूँजीवाद का उदय यूरोप में एक नये ‘बौद्धिक विन्यास’ का परिणाम था जिसमें तार्किकता/तर्कवाद (रैशनलिज्म), उससे जुड़े व्यक्तिवाद तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति जैसे घटक काम कर रहे थे (154). उसके अनुसार जॉन लॉक जैसे सिद्धांतकार तार्किकता को धन की सृष्टि के साथ जोड़कर एक ऐसा साभ्यतिक विमर्श तैयार कर रहे थे ताकि प्राकृतिक जीवन जीने वाले समुदाय ख़ुद ब ख़ुद बर्बर और असभ्य सिद्ध हो जाए. लेखक के मुताबिक तर्कवाद की यह परिभाषा आधुनिकता और तर्कवाद को एक दूसरे की संगत में बिठा कर पूँजीवाद की ज़मीन तैयार कर रही थी.
ग़ौरतलब है कि लेखक ‘पूँजीवाद’ को सर्वग्रासी व्यवस्था न मानकर अस्तित्व का केवल एक खास रूप भर मानता है (157). उसका कहना है कि दुनिया के बड़े हिस्से में आज भी ऐसी आर्थिक प्रक्रियाएं चलन में हैं जिन्हें ‘पूंजीवाद’ नहीं कहा जा सकता. इस सूची में वह आदिवासी समुदायों के अलावा, खेती और शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों को भी शामिल करता है. उसकी दलील है कि हालांकि इन क्षेत्रों में व्यक्तिगत स्वामित्व, व्यापार और बाज़ार जैसी चीज़ें शामिल हैं किंतु उनका मक़सद मुनाफ़ा कमाना नहीं होता.
वह यह भी कहता है कि मार्क्स तक आते-आते तर्कवाद (रैशनलिज्म), उससे जुड़े व्यक्तिवाद तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति जैसी चीज़ें इतनी रूढ़ हो गयी थीं कि मार्क्स ख़ुद भी इसके प्रभाव से नहीं बच पाए. अर्थात् हेगेल के विश्व-इतिहास की तर्ज पर मार्क्स ने भी पूंजीवाद को वैश्विक व्यवस्था घोषित कर दिया.
दरअसल, लेखक पूंजीवाद संबंधी विमर्श को यूरोप-केन्द्रित मानता है. उसका तर्क है कि तत्कालीन दुनिया में कई जगह ऐसी आर्थिक प्रक्रियाएं अस्तित्व में थीं जिनके अनेक तत्त्वों में यह झलक दिखाई देती है परंतु पर्यवसान पूंजीवाद में नहीं हुआ. इस प्रकार, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि पूँजीवाद, ख़ास तौर पर उत्तर-औपनिवेशिक समाजों की तथा सामान्यतः दुनिया की अपरिहार्य तक़दीर नहीं है. इसलिए, वह उसे ‘किसी ढाँचे, किसी व्यवस्था या किसी संरचना या समग्र’ के तौर पर न देखकर केवल ‘पूँजी’ कहना पसंद करता है. उसकी नज़र में पूंजीवाद ‘अर्थव्यवस्था’ का एक खिलाड़ी मात्र. एक प्रत्यय के रूप में वह ‘पूँजीवाद’ को अधिकतम एक विचारतन्त्र के रूप में और दुनिया के साथ ख़रीद-फ़रोख़्त के एक रिश्ते की अहमियत देना चाहता है (222-223).
(3)
राजनीति : अवधारणाओं की जड़ता बनाम यथार्थ की गतिशीलता
समाज-विज्ञानों के विमर्श स्थापित हो चुकी अवधारणाओं के इस पुनरावलोकन में लेखक ने जनतंत्र और उसके अंगभूत घटकों को लेकर एक तहदार और विचारोत्तेजक पाठ तैयार किया है. लेकिन, चूंकि यह प्रश्न भारत में राजनीति के स्वरूप और उसकी विभिन्न संस्थाओं से प्रत्यक्षतः जुड़ा है, इसलिए जनतंत्र से ख़ास ताल्लुक रखने वाली चर्चा से पहले यह देखना उचित रहेगा कि औपनिवेशिक ज्ञान-मीमांसा से मुक्ति पाने के क्षण में लेखक को भारतीय राजनीति कैसी दिखाई देती है.
लेखक का मानना है कि आधुनिक भारतीय समाज की राजनीति को अर्थशास्त्र’ या ‘दण्डनीति’ के आदर्शों के आधार पर नहीं समझा जा सकता. ऐसा नहीं है कि लेखक उन्हें निरर्थक मानता है. उसका तर्क यह है कि ऐसी रचनाओं हमारे दौर में ‘मार्गदर्शक’ की भूमिका नहीं निभा सकतीं. और इसकी वजह लेखक यह बताता है कि बीसवीं सदी में राजनीति जनसाधारण का मैदान बन जाती है. यानी इस दौर में वह न केवल किसी ‘न्यायप्रिय राजा के नैतिक बर्ताव’ से तय नहीं होती बल्कि, उसमें दो पक्ष उभर चुके होते हैं- एक तरफ़ औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध कर रहा राष्ट्रवादी आंदोलन मौजूद है तो समाज के स्तर पर दूसरी ओर पारंपरिक पदानुक्रम की हिमायत करने वाली ‘ब्राह्मणवादी सत्ता’ खड़ी है जो राष्ट्रवाद के जरिये राजनीति को नियंत्रित करना चाहती है. लेखक का कहना है कि राजनीति के औपनिवेशिक-पश्चिमी सिद्धांतों में प्रशिक्षित विद्वान राजनीति के इस उदीयमान स्वरूप को इसलिए नहीं देख पाते क्योंकि उनकी समूची चेतना और बौद्धिक क्षमता राज्य व उसकी संस्थाओं के विश्लेषण में ख़र्च हो जाती है.
राजनीतिक-सामाजिक सत्ता के इस विमर्श में लेखक ने अंबेडकर के इस सूत्रीकरण के आशयों का सैद्धांतिक विवेचन किया है कि राजनीति के शिखर पर होते वाले बदलाव समाज के अंदरूनी सत्ता-तंत्र में बदलाव की गारंटी नहीं होते. एक तरह से कहें तो इस सूत्रीकरण के सहारे लेखक राष्ट्रीय आंदोलन की आंतरिक सत्ता-संरचना और बाद में इसके गुणसूत्रों से विकसित हुई स्वतंत्र भारत की राजनीति का सैद्धांतिक हुलिया तैयार करते हुए बताता है कि आज़ादी के बाद औपनिवेशिक सत्ता के विरोध में खड़ा होने वाला राष्ट्रीय आंदोलन ख़ुद ही सर्वोच्च सत्ता बन गया. उसने बेशक एक औपचारिक लोकतंत्र की स्थापित की. भूमि सुधार भी किए, छोटी-छोटी रियासतों को ख़त्म किया, लेकिन इन बदलावों के बावजूद उपनिवेशवाद का संस्थागत ढाँचा यथावत बना रहा.
इस विवेचन में सुदीप्त कविराज तथा रणजीत गुहा की अध्ययनपरक अंतर्दृष्टियों से संवाद करते हुए लेखक इस सूत्र को विशेष महत्त्व देता है कि भारत में सामाजिक सत्ता राजनीतिक व्यवस्था से स्वायत्त रही है. और यहाँ से फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि चूंकि समाज और राजनीति की इस बनावट का पश्चिम के साथ कोई मीजान नहीं बैठता, इसलिये भारत के संदर्भ में हमें राजनीति और समाज के नए सिद्धांत गढ़ने होंगे. लेकिन, ग़ौरतलब है कि नए सिद्धांतों की रचना से पहले वह प्रचलित सिद्धांतों में संचित उस जड़ता पर उंगली रखना चाहता है जिसके चलते हम उसकी व्याख्या को अंतिम मान लेते हैं.
इस संबंध में, लेखक का मानना है कि हमारी समाज-वैज्ञानिक अवधारणाएं 19वीं सदी और 20वीं सदी के पूर्वार्ध के यूरोप में जन्मी थीं. इन अवधारणाओं में सिद्धांत और वर्णन कुछ इस तरह उपस्थित रहता है कि हम उसे एक आदर्शगत स्थिति मान लेते हैं. लेखक के मुताबिक हम इन अवधारणाओं के इस हद तक अभ्यस्त हो चले हैं कि हमें उनके द्वारा इंगित परिघटनाएं परिपूर्ण और एक तरह से स्वयंसिद्ध नज़र आती हैं. जबकि, लेखक का तर्क है कि अवधारणाओं द्वारा इंगित घटनाएं-परिघटनाएं हमेशा बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया में रहती हैं. यानी वे न केवल सतत परिवर्तनशील होती है, बल्कि इनमें किसी भी घटना-परिघटना के विकास का रास्ता सीधा नहीं होता (पृ.167-169).
इस तरह, किसी भी विचार, वाद या प्रत्यय को स्वयं में पूर्ण और विकास की संभावनाओं के लिहाज़ से अंतिम न मानने की यह दृष्टि लेखक को जनंतत्र की एक ख़ासी रचनात्मक व्याख्या की ओर ले जाती है. मसलन, लिबरल डेमोक्रेसी अर्थात् उदारतावादी जनतन्त्र के पश्चिमी विचार की पड़ताल करते हुए लेखक उसे एक तरह की सौदेबाज़ी का नतीजा कहता है जिसमें सम्पत्ति के स्वामित्व का सवाल ग़ायब करके उसे सम्पत्ति का मौलिक अधिकार बना दिया जाता है.
चूंकि, वह संपत्ति के पुनर्वितरण के सवाल को बहस से बाहर कर देता है, ‘लिहाज़ा, बराबरी का सवाल अब ‘अवसरों की बराबरी’ बनकर रह जाता है और व्यक्तिगत आज़ादी को सर्वोपरि मूल्य का दर्जा दे दिया जाता है. इस तरह, उदारतावादी दर्शन में ‘बराबरी’ और ‘आजादी’ एक-दूसरे के विरोधी बन जाते हैं. अंततः यह होता है कि जनतंत्र पर उदारतावाद का कब्ज़ा हो जाता है और प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को जनतन्त्र का पर्याय मान लिया जाता है (पृ.175). जबकि, बकौल लेखक, शुरुआत में वोट को जन-संकल्प (पापुलर विल) की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं माना जाता था.
इसके उलट, अभिजन वर्ग इसका इस्तेमाल अपने फ़ैसलों पर मुहर लगाने के लिए किया करता था. कुल मिलाकर, प्रतिनिधित्व की यह व्यवस्था उदीयमान मध्यवर्ग तथा अभिजन वर्ग के बीच एक करार की ओर इंगित करती थी. इसलिए, उसे जनतंत्र नहीं कहा जा सकता. इस संबंध में लेखक ज़ाक रासिंए के हवाले से कहता है कि
‘जनतंत्र को एक समाज-व्यवस्था या सरकार के रूप के तौर पर देखना ही सबसे बड़ी ग़लती है. सरकार और आमतौर पर सत्ता में हमेशा बहुमत पर अल्पमत का शासन ही होता है- जनता कभी शासन नहीं करती’ (पृ. 52).
ऐसे में, लेखक को लगता है कि वास्तविक जनतंत्र की परंपरा केवल समाजवादी और अराजकतावादी राजनीति में ही बरक़रार रहती है. वह मार्क्स के हवाले से कहता है कि जनतंत्र कोई औपचारिक पद्धतिगत व्यवस्था नहीं है- उसे क़ानून के शासन तक सीमित नहीं किया जा सकता.
कहना न होगा कि आज जब जनतंत्र जनसामान्य के हितों की पूर्ति के बजाय मुख्यतः पूंजी को जन-दबाव से सुरक्षित रखने की रणनीति बनता जा रहा है तो जनतंत्र के ऐतिहासिक विकास का यह विवेचन इसके स्वरूप पर पुनर्विचार करने को प्रेरित करता है.
आखिर में, अभी तक हमने एक तरह से इस किताब में विवेचित मुद्दों का एक बहुत संक्षिप्त कोलाज प्रस्तुत किया है. इसके पीछे हमारा मक़सद यह था कि पहले एक बार किताब के वैचारिक विन्यास को अबाधित रूप से खुलने दिया जाए. अब आखिर में जब हम एक हद तक किताब के मूल विचार से परिचित हो चुके हैं तो उसकी कुछ अंतर्दृष्टियों, मान्यताओं और बिंदुओं पर अलग से बात करना ज़रूरी लग रहा है.
सबसे पहले, लेखक के आधुनिकता संबंधी प्रतिपादन को लें. यह ठीक है कि लेखक आधुनिकता को किसी एक स्थान अथवा इतिहास की किसी ख़ास घटना से उपजा हुआ नहीं मानता. इस संबंध में यह दलील भी स्वीकार्य है कि आधुनिकता का कोई एक निश्चित रूप नहीं है तथा दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में उसके उभार की परिस्थितियां अलग-अलग रही हैं. लेकिन, इस प्रतिपादन से यह स्पष्ट नहीं होता कि क्षेत्र-विशेष की आधुनिकता के घटकों- औद्योगीकरण, सेकुलरीकरण, वैयक्तिकरण तथा पूंजीवाद आदि का क्रम ही बदलता है या उनकी जगह घटकों का कोई अन्य समुच्चय प्रमुख हो जाता है? दूसरे, अगर दुनिया के हरेक क्षेत्र की आधुनिकता अलग-अलग है तो फिर उसे एकल यानी केवल आधुनिकता के नाम से क्यों संबोधित किया जाए? तीसरे, क्या इन विभिन्न आधुनिकताओं में उभयनिष्ठ तत्त्वों की कल्पना की जा सकती है?
हमारा दूसरा सवाल पूंजीवाद से ताल्लुक रखता है. लेखक पूंजीवाद को सर्वग्रासी व्यवस्था न मानकर अस्तित्व का एक ख़ास रूप भर मानता है. वह उसे किसी ढाँचे, व्यवस्था, संरचना या समग्रता के रूप में भी नहीं देखना चाहता. लेकिन, पूंजीवाद संबंधी इस विमर्श से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि इस खंडन के पीछे उसके क्या तर्क हैं. मसलन, पूंजीवाद के नकार का तर्क पेश करते हुए वह यह दलील देता है कि आदिवासी समुदायों के अलावा, खेती और शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों में कई आर्थिक चलन पूंजीवाद के दायरे से बाहर पड़ते हैं. हमें लगता है कि लेखक यहाँ साक्ष्यों की अत्यंत सीमित संख्या के आधार पर बड़ा दावा कर रहा है. यह सही है कि दुनिया में ऐसे चलन आज भी मौजूद हैं, लेकिन कुल मिलाकर ऐसे चलन मौजूदा दुनिया के बहुत सीमित तथ्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं. ज़्यादा व्यापक तथ्य शायद यह है कि दुनिया के वे हिस्से भी जो पहले पूंजीवाद की ज़द से बाहर थे, अब अधिकाधिक उसकी गिरफ़्त में आ चुके हैं. दूसरे, पूंजीवाद संबंधी विमर्श से यह बात साफ़ नहीं उभरती कि उसके खंडन से क्या हासिल होगा? क्या इससे मनुष्य की मुक्ति का कोई नया रास्ता निकलता है? हमें लगता है कि लेखक को इस विषय पर और विस्तार से लिखना चाहिए था.
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नरेश गोस्वामी समाज विज्ञानी और हिंदी के कथाकार‘स्मृति-शेष: स्मरण का समाज विज्ञान’ पुस्तक प्रकाशित. सम्प्रति: डॉ. बी.आर. अंबेडकर युनिवर्सिटी के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र में अकादमिक फ़ेलो. naresh.goswami@gmail.com |
यह बहुत आवश्यक समीक्षा है। इस लेख की बढ़िया बात तो यह है कि नरेश जी ने इसमें पहले उपनिवेशवाद का तर्क, फिर उसके ख़िलाफ़ आदित्य निगम का तर्क और उनके सिद्धांत पाठक के सामने रख दिए हैं, उसके बाद उन्होंने उन सवालों की एक-एक करके पड़ताल की है जो भारत में उपनिवेश से परे एक स्वतंत्र ज्ञान मीमांसा और ज्ञान रचना में बाधक हैं।
बहुत ज़रूरी आलेख !बधाई!
बेहतरीन विश्लेषण किया है नरेश जी ने,तार्किक। किसी भी विश्लेषण की यह खूबी होनी ही चाहिए कि वह मूल पुस्तक को पढ़ने के लिए प्रेरित करे । इस विश्लेषण के जरिए नरेश जी ने जगह जगह पर अपना पक्ष रखा है जो भी एक दृष्टि प्रदान करता है
बहुत ही विचारोत्तेजक समीक्षा है । उपनिवेशवाद पर पहली बार इतना बुनियादी विवेचन पढ़ने को मिला। लेखक को अनेक बधाइयां।
इस किताब में लेखक़ जिसे “आसमां” कह कर आकर दे रहा है. उसकी ज़मीन वि औपनिवेशिकरण से ही होकर गुज़रती है. निगम साहब ने बहुत बारीक़ी से इसे जन और तंत्र के पेच पर रखकर कसने का प्रयास भी किया है लेकिन लाज़िम यह होता कि वि औपनिवेशिकरण सिद्धान्त कि कल्पना से निकलने वाला जनतंत्र कैसा होगा ? इस सवाल को भी विस्तृत बहस में लाया जाता. फिर भी नरेश जी कि यह समीक्षा क़िताब की नज़दीक़ी आकलन से भरी हुई है , समीक्षक ने क़िताब के मूल सूत्र को क़ायदे से पकड़ा है .