वे नायाब औरतें |
वे नायाब औरतें ख़ुदाई हँसी को समर्पित है. वाक़ई इस संस्मरणनुमा क़िताब को पढ़ते हुए आप उस हँसी को अपने अंदर बार-बार उठते महसूस करते हैं और…और क्या? बस बतरस का आनंद और आनंद! “यह तमाम अफ़साना खिसकी बंदियों का है.”- यह पहला नग़मा आपको तैयार कर देता है उस बातूनी सफ़र के लिए जिससे आप इस अस्सी-पार अफ़सानानिगार के साथ गुज़रनेवाले हैं.
पिता की सौतेली माँ उर्फ़ नई दादी के अफ़साने आपको जिह्वा के तमाम जाने-अनजाने स्वादों- क़िस्म-क़िस्म के लड्डू, हलवे, पकौड़ियों, अचार, चटनियों- से गुज़ारते हैं. रसोई में अपने को खपाए रखनेवाली यह दादी “सोने से पहले ग़ज़ल छेड़ देतीं. उनका शग़ल, तफ़री और आराम वही था.” ऐसी ज़हीन दादी की बातों को बताने के लिए ऐसी ज़हीन भाषा भी तो चाहिए. यह भाषा पुरानी दिल्लीवालों की वह रवानगी भरी भाषा है जिसमें उर्दू का छौंक दादी की मूँग की दाल की तरह स्वाद पैदा करता है. मतलब कि मामूली सी बातों के रस का भी कोई ठिकाना नहीं कि वह किस ब्रह्मानंद तक ले जाये. चूँकि इन पंक्तियों के लेखक की भाषा वैसा स्वाद पैदा नहीं कर पाएगी, इसलिए किताब से उद्धरण देना और देते रहना मौजूँ होगा.
दादी की “बेहद नाज़ुक और काफ़ी हसीन” बहू यानी लेखिका की माँ एक तरह से इस संस्मरण की मुख्य नायिका हैं. गुज़ारिश है कि आप उनको छह बच्चों की माँ के रूप में न देखकर बिस्तर में किताबों के जुनून के साथ लेटे देखिए, जिनकी “अदब की समझ के ख़ास क़ायल” कोई मामूली लेखक नहीं, ख़ुद नामी-गिरामी जैनेंद्र थे! ग़ज़ल गायकी की महफ़िलें जमाने वाली माँ को अपने छह बच्चों से लगाव नहीं था, पर बड़े होते हुए वे उनकी दोस्त और राज़दार बनती गयीं. उनके इश्क़ को सूँघती रहीं और अपनी रोमानी फ़ितरत से उन पर कमेंट भी करती रहीं. उनके इंट्यूशंस यानी भविष्य को सूँघ लेने वाले क़िस्सों की तो क्या ही बात!
गर्म मिज़ाज वाली स्नेहमयी बंगाली आया स्वर्णाजी और पिता की देखरेख के साये में बच्चे बड़े हो रहे थे. काली माई सी दिखनेवाली आया ने चौदह फुट के दरवाज़े को लाँघकर आए चोर का हाथ ऐसा पकड़ा, कि छुड़ाए न छूटे. पिताजी ने दरवाज़ा खोलकर चोर को निकालने की उदारता दिखाई. पिता की उदारता आया के भांजे की चोरी पकड़े जाने पर उसे जेल न भिजवाने में भी दिखती है. जिस मौज से मृदुला गर्ग इन क़िस्सों के ताने-बाने बुनती हैं, उन्हें पढ़ते हुए और पढ़ने के कई-कई दिन बाद आपको लगेगा कि यह वाक़या आपने पढ़ा नहीं बल्कि किसी फ़िल्म में देखा था.
पाँच नायाब बहनों और उनके अनोखे माँ-बाप (ममी-पिताजी) की दुनिया सिर्फ़ एक पारिवारिक गाथा ही नहीं है. पुरानी दिल्ली के जैनियों के संसार, जंगले वाले घरों-हवेलियों, उनके खानपान, रहनसहन के साथ-साथ आज़ादी के बाद के उन ख़ास दिनों की आबोहवा की भी गाथा है, जिसमें पिता और ममी के संबंध टिपिकल भारतीय पितृसत्तात्मक परिवार जैसे नहीं हैं. न ही पिता के बेटियों से संबंध में शासन का रुख़ है, बल्कि एक ग़ज़ब की छूट और आज़ादी है. बेटियों को प्राइवेसी का अधिकार और समझ है- किसी के पत्र न खोलने, बिना बुलाये किसी के घर या कमरे में न जाने जैसी एक लिबरल सोच है. कहीं हवा में जैसे नेहरू हैं और उनकी आधुनिकता घुली हुई है.
उपन्यास को पढ़ते हुए चकित होना और किंचित ईर्ष्यालु होना मेरे लिए स्वाभाविक था क्योंकि कलकत्ते में हम बहनों की दुनिया इससे बिलकुल उलट थी. सारे पत्र खुले हुए आते थे और हर फ़ोन में पिता एक कॉमन लाइन से हर बात सुनते होते थे. पिता आधुनिकता की तमाम कोशिशों के बावजूद अंदर से पत्नी के प्रति और बेटियों के प्रति आज़ादख़याल न हो पाते. मध्यवर्गीय समाज की आँख उनपर काबिज होती और उनकी आँख घर की सारी औरतजात पर. यह कॉनट्रास्ट तो तब, जबकि मृदुला गर्ग मुझसे बीस साल बड़ी हैं. उनकी बहन चित्रा का अपने वर को ख़ुद चुन लेना और पिता का लड़के के घर तहक़ीक़ात करने पहुँच जाना तो ग़ज़ब का क़िस्सा है बोल्डनेस का, जिसका सपना देखने लायक़ भी हम न रहे, क्योंकि सपनों में भी पिता सेंध लगा लेते.
नेहरू की आदर्शवादिता से प्रेरित होकर स्वदेश लौटे बहनोई के लिए पैर जमाने की मुश्किल, चीन से हार पर नेहरू का अवसाद और शास्त्री जी की अकाल मृत्यु- ये तमाम तारीखें यहाँ दर्ज हैं. और वे कोई स्यापा करने की तर्ज़ पर नहीं, बल्कि उसी चुलबुले अन्दाज़ में, जिसमें बेटी की शादी तय करने वर के घर स्वादिष्ट जैनी खाना खाकर लौटे पिता कहते हैं, “मेरा तो दिल दहल गया. जहाँ देखो जैनी, आगे जैनी, पीछे जैनी, दाएँ जैनी, बाएं जैनी. जिसका नाम दरियाफ़्त करो वही लालाजी.” सच कहूँ तो ‘पिता का प्यार और बेटियों के नख़रे’(अध्याय का नाम) दिल जीत गया. छोटी-मोटी चीज़ें चुराकर बेख़ौफ़ सबके सामने पहननेवाली कजिन बहन ‘सरो’ के क़िस्सों का तो कहना ही क्या! जो पढ़े, आनंद उसका!
अक्सर जिस कथा में लेखक स्वयं पात्र हो, उसमें वह ख़ुद को बख़्श देता है. पर मृदुला जी ने पति की सिलसिलेवार नाकामियों के क़िस्से सुनाते बेबाक़ी से लिख डाला है, “बुढ़ापे में हम क़रीब-क़रीब कंगाल हो गये.” अपनी बहन मंजुल भगत को जीवन में शराब की लत वाले पति के कारण जो संघर्ष करना पड़ा, उसके बयान में और अपने इकलौते भाई का हीनभावना के चलते जीवनभर अवसाद और दुखद अंत के बयान में उनका स्वर ग़मगीन नहीं होता, बस जो घटा, उसे एक क़िस्सागो के फ़र्ज़ की तरह बता जाती हैं.
एक अध्याय जो बार-बार मेरे ज़ेहन में घूमता है, वह है ‘पिताजी की रंग-बिरंग सहेलियां’.
“पिताजी को औरतें पसंद थीं कहना अपकथन होगा. बल्कि बेहद दिलकश लगती थीं…घूमने-फिरने हँसी-मज़ाक में हिस्सेदारी और कला की दुनिया में विचरने के लिए मर्दों की बनिस्बत औरतों की सोहबत पसंद थी. जिस्मानी ख़ूबसूरती बोलचाल की नज़ाकत और सुनने की महारत जैसी वजूहात के अलावा एक वजह और थी..”.
लेखिका बताती हैं कि ममी को इन मोहतरमाओं से जलन न थी, जो उनके प्रति शुक्रगुज़ार थीं कि उन्होंने अपने पति को शौक़ीनी की छूट दे रखी है. इसलिए ममी का ख़याल रखने में वे पिताजी की मदद करतीं! तरह-तरह से प्रतिभावान इन सहेलियों से पिता का रिश्ता “सेक्सहीन था यक़ीन से नहीं कह सकती”- इस कथन से एक कला और सौंदर्यप्रेमी पिता का अक्स पुत्री की निगाहों से उभरता है जो कि शायद विरल ही कहा जायेगा. पिता के प्रति असम्मान न होना और साफ़गोई मोह लेती है. ममी का पति की मृत्यु के बाद उठ खड़े होना और घर संभालना भी स्त्री के मनोविज्ञान की तहों में ले जाता है, जहाँ एक संवेदनशील पति को बीमार पत्नी अपनी दुर्बलता के ज़रिए मानो क़ाबू में रखती है. ज़ाहिर है कि अपने माता-पिता का ऐसा आकलन बहुत निस्संगता की माँग करता है.
गीता दूबे ने ‘स्त्री दर्पण’ में इस पुस्तक की समीक्षा को शीर्षक दिया है, ‘जुझारू और जीवंत स्त्रियों की खूबसूरत दास्ताँ’. मुझे यहाँ इसका ज़िक्र करना ज़रूरी लगा क्योंकि यहाँ माँ की सहेलियाँ, पिता की सहेलियाँ और ख़ुद लेखिका की तमाम सहेलियों के क़िस्सों में और उन्हें ‘नायाब’ का तमग़ा देने में यह कॉमन फैक्टर है. सच कहूँ, तो मुझे लगा था कि बिस्तर में लेटी रहनेवाली ख़ूबसूरत ज़हीन माँ, जो सिर्फ़ नाज़ुक मौक़ों पर ही उठने और कुछ कहने की ज़हमत उठाती है और पिता की सहेलियों से उनके अजब-ग़ज़ब रिश्ते पढ़ने के बाद यानी ४४० पृष्ठों में से एक-तिहाई से कुछ ज़्यादा, १६७ पन्ने पढ़ने के बाद आगे वह मज़ा आ ही नहीं सकता जो अब तक आ रहा था. इतिहास में मेरी रुचि कुछ ऐसे बढ़ चली है.
मुझे यह आभास न था कि लेखिका के ससुराल, ननद और जिठानी के क़िस्से भी कुछ देखे-जाने हुए से इतिहास के ही पन्ने होंगे. बार-बार शहर बदलनेवाले पति के साथ बिहार के डालमियानगर से बंगाल के दुर्गापुर से कर्नाटक के बागलकोट से मुंबई और फिर दिल्ली आनेवाली लेखिका के पति मुझे अपने एक उपन्यास के चरित्र भट्ट की याद दिलाते रहे. और इन भटकने के क़िस्सों में एक नायाब ‘औरत’ एक पुरुष है- हरिचरण नामक एक घरेलू मुलाज़िम !! ‘पुनश्च’ के संपादक दिनेश द्विवेदी भी एक नायाब सखी हैं! स्त्री-पुरुष का भेद मिटानेवाली वह कौन सी चीज़ या गुण है, इस पर ज़्यादा सोचना नहीं पड़ता. स्त्री के जैसी संवेदनशीलता पुरुष के अंदर जब उतर जाती है, तब वह जैसे धरती से ऊपर उठकर एक स्त्री की ऊँचाई हासिल कर लेता है! अब बताइए कि यह हुआ न एक नया स्त्री-विमर्श?
मृदुला गर्ग अपनी सहेलियों के क़िस्से में अपने जीवन का सबसे गहन दुख, बेटे-बहू की गाड़ी की दुर्घटना में अकाल मृत्यु, को भी लिख जाती हैं. लिख जाती है, इसलिए कहा कि ऐसा अनायास होता है, इरादतन नहीं. दुःख में जिन स्त्री पुरुषों से सहारा मिला है उनका ज़िक्र आता है. उनके लेखन और अनुवाद से जुड़ी विदेश की तमाम सखियाँ आती हैं और अपने देश और समय को जीवित करती जाती हैं. दुनिया के तमाम देशों की यात्राओं के क़िस्से और विदेशी सखियाँ रुस, जापान, सूरीनाम, जर्मनी, इटली कहाँ-कहाँ नहीं फैली हुई हैं! नादिया तेसिच नामक सर्ब दोस्त की कथा अमरीका और नाटो के षड्यंत्रों से परिचय करवाती है जो युगोस्लाविया के टूटने के पीछे का सच है. ज़ाहिर है कि लेखिका अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य को समझने की क़ुबत रखती है.
किंतु सबसे सघन और मार्मिक है उनकी बड़ी बहन मंजुल भगत की अचानक हृदयाघात से मृत्यु, उसके बाद उनपर कई पत्रिकाओं के लिए लेख लिखना और फिर बाद में न लिख पाना. मंजुल भगत की उपस्थिति किताब में एक अन्तरधारा की तरह बहती है. बहनों के क़िस्सों में सुख-दुःख आते हैं, चले जाते हैं, पर मंजुल भगत तो लेखिका की प्राणसखी हैं! बहनापे का यही प्रसार शायद बाद में देशी-विदेशी सहेलियों से जोड़ने का धागा है.
मृदुला गर्ग के प्रसंगों में जो सबसे ख़ूबसूरत बात मुझे नज़र आई और जो उनके ख़ुद के ‘नायाब’ माने जाने की वकालत करती है, वह है उनका बेख़ौफ़ होकर किसी मुद्दे पर अपना प्रतिवाद दर्ज करना. ईरान के लेखक महमूद दौलताबादी की सुरक्षा का ख़याल कर जर्मनी में सेमिनार के आयोजकों द्वारा सर्वसम्मति से ख़ुमैनी के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास करने का अकेले विरोध करना इसका अप्रतिम उदाहरण है. ख़ुद मैं बहुत बार इस तरह के आयोजनों में विदेश में गई हूँ. इस तरह भरी सभा का विरोध करना कोई मामूली बात नहीं है. मृदुला गर्ग की विट और उनकी हाज़िरजवाबी का पाठक क़ायल हुए बिना नहीं रह सकता जब वे ख़ुशवंत सिंह उर्फ़ ‘बल्ब वाले सरदारजी’ से हिन्दी का अपमान करने और अशिष्ट व्यवहार के लिए टक्कर लेती हैं.
मारियोला ओफ़रेदी ने मेरे दो उपन्यासों का हिंदी से इटालियन में अनुवाद किया है. उनसे जूझने के प्रसंग मुझे हँसा गए. उन्हें जानते हुए लगा कि आख़िर मारियोला मारियोला की तरह ही व्यवहार करती हुई दिखीं और मृदुला जी ‘तंज में पारंगत’ मृदुला जी की तरह, जिन्हें ‘बहस से क्या उज्र’! (पहला जुमला मृदुला जी नादिया तेसिच के लिए इस्तेमाल करती हैं और दूसरा ख़ुद अपने लिए.) ऐसी हँसी मेरे अंदर और भी कई जगह उठी; कभी कृष्णा सोबती के प्रसंग में, कहीं हरीश त्रिवेदी के, कभी सुधा अरोड़ा के प्रसंग में. सबसे बड़ी बात कि मृदुला जी अपने समकालीन लेखकों के बारे में बेहद खुलकर किस्से बयान करती हैं जिनमें एक गुंजाइश यह भी बनती है कि पाठक उन्हें अपनी कसौटी पर रखकर जाँचने लगे. ऐसा बेलौस होना क्या आसान है !
इधर कुछ महीनों में मैंने दो संस्मरण या आपबीती कहिए या आत्मकथा पढ़े हैं. मुझे लगने लगा है कि इस विधा का एक नया रूप बन रहा है, जहाँ परिवेश भी पात्रों जितना ही महत्वपूर्ण है. असमिया में लिखी कवि नीलिम कुमार की आत्मकथा ‘एक बनैले सपने की अन्धयात्रा’ का हिंदी अनुवाद पढ़ा था तो चकित रह गई थी.
किसी के बचपन के रेशे-रेशे मे इस तरह उलझा लेनेवाली कथा मैंने कभी नहीं पढ़ी. यह आत्मकथा पाठक के आत्म को छीलती रहती है; पर उसे भावुक नहीं करती. एक निस्संग दूरी से सात साल के बच्चे की माँ की कैन्सर से मृत्यु, पिता का स्वार्थी और क्रूर व्यवहार, आयुर्वेद के वैद्य दादा की स्नेह की छाँव में आप उसके साथ-साथ उसके किशोर वय तक के जीवन को पढ़ते और जीते रहते हैं. असम के साँपों, घास-वनस्पति, मेखला-चादर और नीलिम कुमार जैसे चुप्पे कवि के मौन से संवाद करने के लिए यह संस्मरण अद्भुत है.
उसके बाद हाल में पढ़ा मशहूर चित्रकार-लेखक ग़ुलाम मोहम्मद शेख का गुजराती से अनूदित संस्मरण ‘घर जाते’. इसे पिछले साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है. काठियावाड़ में भोगावा नदी के किनारे तेली मोहल्ले में ग़रीब मुस्लिम बस्ती के परिवार में जन्म लेकर बड़ौदा लंदन में पढ़ाई का सफ़र तो है ही इस संस्मरण में, एक चित्रकार की दृष्टि से देखे गये परिवेश का सूक्ष्मतम वर्णन भी उतना ही अहम पात्र है. एक बानगी देखें:
“घर जाना मानो इन सबको खोजने जाना: अंधेरे को खोजना, धूप को खोजना. सवेरे उठते ही गुदड़ी की रूई के बीच धूप चौरस रेखाओं में दिखती या आंगन में बापू की वजू से बचे हुए पानी में आँखों को चकाचौंध करने वाले आईने के समान दिखती. फिर तो ज्यों-ज्यों दिन चढ़ता जाता है त्यों-त्यों लिपे-पुते आंगन को चौकोर करती, दरवाज़े की जाली के सीखचों की परछाइयों को खींचकर लंबा करती और झाड़े फिरने के बहाने मैं नदी पार करके खेतों में सैर करने जाता तो वहाँ रेत में खेलती दिखाई देती.”
मृदुला गर्ग का संस्मरण ‘वे नायाब औरतें’ में कथा में भी परिवेश की घुसपैठ पात्रों को जीवंत बनाती है और रसीली भी. परिवेश और संस्कृति जब साहित्य में घुलकर आते हैं, तो वे इतिहास का ऐसा पक्ष रचते हैं, जो और कहीं नहीं मिल सकता. संस्मरण में आईं नायाब औरतें अपने-अपने समय और परिवेश में नायाब हैं.
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अलका सरावगी उपन्यास कलि-कथा : वाया बाइपास को वर्ष 2001 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. अन्य कृतियाँ : शेष कादम्बरी (बिहारी पुरस्कार), कोई बात नहीं, एक ब्रेक के बाद, जानकीदास तेजपाल मैनशन, एक सच्ची-झूठी गाथा, कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए, गांधी और सरलादेवी चौधरानी: बारह अध्याय’ (उपन्यास) कहानी की तलाश में, दूसरी कहानी (कहानी-संग्रह). आदि जर्मन, फ्रेंच, इटालियन, स्पेनिश, अंग्रेजी तथा अनेक भारतीय भाषाओं में कृतियाँ अनूदित. 2/10 Sarat Bose road Kolkata 700020. alkasaraogi@gmail.com |
शुक्रिया अलका जी।एक किस्सागो द्वारा दूसरे किस्सागो की नायाब किताब की नायाब समीक्षा।रेशा रेशा खोलती रोचक और जीवंत समीक्षा।
इक नायाब कहानीकार की कहानियों में घुसपैठ कर कुछ और नहीं बस थोड़ी सी उत्सुकता और बढ़ा देना, सचमुच निस्संग ही कही जा सकती है ऐसी कहानियां
एक नायाब किताब पर नायाब टिप्पणी
बहुत खूबसूरत लिखा है आपने। मृदुला गर्ग की ज़हनियत , आज़ाद ख़याली, एक नटखट गुरुर और तपा हुआ आत्मविश्वास बहुत बेजोड़ है।इसे पढ़ते हुए लगा कि अपने ऐसे संस्मरणात्मक लेखन में वे सबसे अधिक क्रिएटिव हैं क्योंकि जीवन यहां अपने पूरे सच्चे फोर्स के साथ है। यह लेखिका के समग्र लेखन का भी नायाब पहलू है।
मृदुला गर्ग ने लैंगिक संकरेपन को अनेक बार साहसिक चुनौती दी है।उसकी बुनियाद समझ में आई।
Mridula Garg जी का लिखा मुझे सबकुछ बेहद पसंद। संस्मरणात्मक लेखन तो अद्भुत होता उनका। किताब मैने कल ही आर्डर किया है और अब आपका ये आलेख पढ़ने के बाद इंतजार बेसब्र हो गया है
रोचक और प्रवाहपूर्ण, जैसे जिस कृति पर लिखा गया, उसकी रोचकता को इस लिखत ने आत्मसात कर लिया हो। नीलिम कुमार और गुलाम मुहम्मद शेख की कृतियों के प्रति जागी उत्सुकता इस लेख का मुनाफ़ा है।
मृदुला जी के संस्मरणों की ही तरह रचनात्मक समीक्षा। उन्होंने सही कहा है कि यदि संस्मरण और आत्म- वृत्तान्तों में परिवेश और संस्कृति समाविष्ट होते हैं तो एक नये तरह का इतिहास सामने आता है। मृदुला जी की यह किताब उनके सोच और सृजन को समझने के लिए भी एक परिप्रेक्ष्य प्रदान करती प्रतीत होती है।