अहमद हामदी तानपीनार आधुनिकता की दौड़ में पीछे छूट जाने की शर्म निशांत कौशिक |
समय, स्मृति और अस्मिता अहमद हामदी तानपीनार के लेखन की धुरी है. लड़खड़ाते हुए ओस्मानिया साम्राज्य (Ottoman Empire) के दौर में पैदा हुए तानपीनार ने तुर्की के सभी ज़रूरी बदलावों को देखा. अराजकता, उमंग और उदासी के इस लगभग 50 साल में तानपीनार ने अपने लेखन में आधुनिक मनुष्य के सही होने की जगह, सभ्यताओं के संघर्ष, अपनापन, सभ्य और सुसंस्कृत बनने की होड़, नींद, मृत्यु और स्वप्न को उपन्यासों एवं कविताओं का विषय बनाया.
ओरहान पामुक, जिनके लेखन में भी पूर्व-पश्चिम का संघर्ष सतत मौजूद है, तानपीनार के सच्चे उत्तराधिकारियों में से हैं. तानपीनार के उपन्यासों में वह तनाव है जो बाद में ओरहान पामुक के ‘Snow’ और ‘My Name is Red’ में परिपक्व होकर अधिक जटिलता में दिखता है.
एक
तानपीनार के उपन्यास
ओस्मानिया ख़िलाफ़त की औपचारिक समाप्ति होते ही 1923 में आधुनिक तुर्की का जन्म हुआ और देश एक भीषण सांस्कृतिक परिवर्तन की होड़ में जुट गया. तुर्की का पश्चिम संपर्क नया नहीं था. ओस्मानिया साम्राज्य का विस्तार दक्षिणपूर्व यूरोप और सम्पूर्ण मध्यपूर्व तक था. साम्राज्य के आधुनिकीकरण के प्रयास में (1876) में भी यूरोपीय शासन व्यवस्था के मूल्य, साहित्यिक अनुवाद, पहनावा और जीवनशैली में पश्चिमी प्रभाव था. लेकिन मुस्तफ़ा कमाल (अतातुर्क) की इस सांस्कृतिक क्रांति ने यूरोपीय स्वरुप की आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता पर गहरा इसरार किया. इन बदलावों में पहनावे, भाषा, धार्मिक प्रतीक शामिल थे. यह बदलाव इंगित करता था कि ‘राष्ट्र की प्रगति आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता पर निर्भर हैं. जहाँ पूर्वाधुनिक समाजों की जीवन शैली और प्रतीकों की जगह अब संग्रहालयों में है और मज़हब अब एक निजी विश्वास का मामला है. तुर्की में यह बदलाव नया नहीं था. चीन और भारत में भी हम कालांतर में यह देखते हैं. इन सभी कठोर क़दमों में पश्चिम के साथ बराबरी से चलने का प्रयास था.
बीसवीं सदी के मध्य में धर्मनिरपेक्षता, आधुनिकता के ढांचागत, यांत्रिक, जल्दबाज़ आयात और प्रभाव की आलोचना की राजनीतिक सामाजिक संस्कृति पूरे विश्व में पैदा हुयी. इसमें उपनिवेशों से मुक्त हुए समाजों में आत्मबोध तथा निजता के सवाल, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, पारम्परिक, राजनीतिक संरचनाओं की क्षति भी शामिल थी और वह समाज भी जहाँ विकसित होने का दबाव बहुत था. इस दबाव में और विकसित होने की होड़ में समाज आगे बढ़े भी किन्तु उनमें पीछे छूट जाने और परम्पराओं से टूटते रहने की सामूहिक उदासी भी घर बनाती रही. इस उदासी में कोई प्रतिरोध नहीं था न ही प्रतिकार. भले ही कालांतर में पुनरुत्थानवादी ताक़तों ने अतीत गौरव की पुनर्स्थापना के लिए इस उदासी का कितना भी हवाला दिया हो या राजनीतिक इस्तेमाल किया हो. निज और अन्य का यह तनाव कई समाजों में मौजूद है. अहमद हामदी तानपीनार पर यह चर्चा उन्हीं तनावों और उदासी की पहचान और पड़ताल के लिए हमें आमंत्रित करती है.
उपरोक्त सन्दर्भों के आलोक में हम उनके एक महत्वपूर्ण उपन्यास पर नज़र डालते हैं जो सबसे पहले 1954 में धारावाहिक, फिर दरगाह प्रकाशन इस्तांबुल से 1961 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ.
Saatleri Ayarlama Enstitüsü
(समय संचालन संस्थान)
The Time Regulation Institute
उपन्यास, हायरी इरदाल नामक पात्र का वृतांत है. हायरी को बचपन से घड़ियों का शौक़ था. उसकी सबसे हसीन यादों में जनाब मुवक़्क़त नूरी हैं (मुवक़्क़त नूरी एफेंदी) जो घड़ीसाज़ और फ़लसफ़ी थे. जनाब नूरी को समय ख़राब करना पसंद नहीं है और वह बहुत बारीक़ी से घड़ियों पर काम करते थे. जनाब नूरी के नज़रिये का असर इरदाल पर भी पड़ता है. जनाब नूरी की मृत्यु के बाद इरदाल सेना में शामिल हो जाता है. उसकी निजी ज़िंदगी में कई परिवर्तन आते हैं और उसी क्रम में पत्नी की मृत्यु तथा आर्थिक बदहाली हायरी को अवसादग्रस्त कर देती है. वह डॉक्टर रमीज़ से मिलता है जो उसकी मानसिक स्थिति को डायग्नोस करके बताता है कि उसे “फ़ादर कॉम्प्लेक्स” है.
मनोवैज्ञानिक रमीज़, हायरी को एक व्यक्ति ख़ालिद अयारजी से मिलवाता है जो इरदाल को घड़ी सुधारते हुए सुनता है तथा उसके समय सम्बन्धी विचारों से प्रभावित होकर समय संचालन संस्थान की स्थापना का फ़ैसला करता है. इरदाल एक किताब लिखता है जिसका शीर्षक है “पाबन्द अहमद”. यह अहमद एक काल्पनिक या इरदाल की स्मृतियों से निकला पात्र है जो समय का पाबंद है. इरदाल अपने बेटे के साथ घड़ी की शक्ल की ईमारत तैयार करता है जो अब समय संचालन संस्थान है. जिसका मुख्य उद्देश्य है एक पल भी खोये बिना घड़ी के काँटों को मिलाना. उपन्यास व्यंग्य के शिल्प में लिखा गया है. इसमें कई अजीब प्रसंग हैं जो समय और स्मृति का अजीब ताना बाना बुनते हैं जो कभी कॉमिकल लगते हैं तो कभी ऊलजलूल (अब्सर्ड).
इरदाल की समय को लेकर सनक के दो पहलू हैं एक जनाब नूरी और एक ख़ालिद अयारजी. जनाब नूरी वक़्त की बर्बादी को गुनाह कहते हैं; और ख़ालिद अयारजी उस पर यह टिप्पणी करते हैं;
इन शब्दों के निहितार्थ के बारे में सोचो, मेरे प्यारे दोस्त इरदाल. इसका मतलब यह है कि एक उचित रूप से चालू घड़ी कभी एक सेकंड भी नहीं खोती है! और हम इसके बारे में क्या कर रहे हैं? इस शहर में, इस पूरे देश के लोगों के बारे में क्या? अनियमित घड़ियों के कारण हम अपना आधा समय बर्बाद कर रहे हैं. यदि प्रत्येक व्यक्ति प्रति घंटे एक सेकंड खोता है, तो हम उस घंटे में कुल अठारह मिलियन सेकंड खो देते हैं.
ऐसा विदित है कि यह उपन्यास 1926 के मुस्तफ़ा कमाल पाशा के लाये हुए ग्रेगोरियन क़ानून पर एक व्यंग्य है. जहाँ दरअसल त्रासद और एब्सर्ड विवरण कॉमिकल होते हुए दीखते हैं. आधुनिक और तेज़ी से बदलती दुनिया में पीछे या अकेले छूट जाने का डर और शर्म जिस तरह की कठोर नौकरशाही और बदलावों को लेकर आता है यही पंकज मिश्रा का कहा हुआ कि “इतिहास का प्रतीक्षागृह” है जहाँ जीवन शैली और जनविश्वासों का तीव्र रद्दीकरण और इतिहास की टोकरी में इनके फेंक दिए जाने में राष्ट्र निर्माण की महान योजना छुपी होती है. यह इन जननायकों की त्रासदी थी जो पारम्परिक समाजों और आधुनिकता के बीच में एक सम्मानपूर्ण तवाज़ुन नहीं पैदा कर सके.
किन्तु तानपीनार पुनरुत्थानवादी लेखक नहीं हैं. समकालीन तुर्की राजनीति ने जिस तरह के इस्लामिक और गौरवशाली अतीत की पुनर्स्थापना का प्रण लिया है वह तानपीनार को कभी मंज़ूर नहीं होता. इस तनाव को ओरहान पामुक ने अधिक जटिलता से Snow में चित्रित किया है. तानपीनार अपने काम में पूर्व-पश्चिम का संगम ढूंढते हैं. तानपीनार और पामुक दोनों का ही इस्तांबुल उदास है लेकिन इसमें से ही पूर्व-पश्चिम के लिए एक खिड़की भी खुलती है. अपने एक और उपन्यास “Huzur” (अमन या शांति) में वह इसी सिन्थिसिस की स्थापना करते हैं.
Huzur
अमन
A Mind at Peace
बॉसफॉरस पर सब कुछ एक प्रतिबिम्ब था.
प्रकाश प्रतिबिम्ब था. ध्वनि प्रतिबिम्ब थी. यहाँ कोई भी ख़ुद से अनजान चीज़ों के सिलसिलों की एक गूँज बन सकता है.
(Huzur, अहमद हामदी तानपीनार)
मुमताज़ अपने निमोनियाग्रस्त उम्रदराज़ मौसेरे भाई एहसान का ख़्याल रख रहा है. एहसान ने मुमताज़ को पाला था जब मुमताज़ के माता-पिता की 1919 के अनातोलिया पर ग्रीक हमले में मृत्यु हो गयी थी. मुमताज़ एक दानिशमंद और लेखक बनने की चाह रखने वाला नौजवान है. इसके साथ ही वह नूरान नाम की एक तलाकशुदा औरत से अपने टूट चुके अफ़ेयर को भी याद कर रहा है. उसकी स्मृति इस उपन्यास का विस्तार है. मुमताज़ का प्रेम-प्रसंग अपने दुखद अंत की नियति से मुक्त नहीं है और वहीं सुआद जैसा एक पात्र है जो मुमताज़ के बिल्कुल बरक्स है.
इस उपन्यास में घटनाओं से महत्वपूर्ण उनके ब्यौरे हैं.
हमेशा के लिये बदल जाने वाले और विश्वयुद्ध की कगार पर खड़े तुर्की के ये सभी पात्र अपने मंतव्य, रुचियों तथा बदलावों में भविष्य तलाश कर रहे हैं.
मुमताज एक उलझनग्रस्त पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो नूरान के प्रति अपने प्रेम के भविष्य को लेकर संशयग्रस्त है. वह हमेशा भयभीत है कि किसी भी पल युद्ध छिड़ जाएगा, और बदल चुके तुर्की समाज में (रिपब्लिक ऑफ तुर्की) में उसके या उन जैसों के जीवन मूल्यों का क्या होगा?
नूरान को गहरे कहीं पता है कि किसी भी तरह का बदलाव उसके प्रति होने वाले सामाजिक रवैये को नहीं बदल सकता. इसीलिए मुमताज़ को खोना ही वह अपनी नियति समझती है.
इन दोनों के बरक्स सुआद है जो सभी तरह के समाजों में ज़िंदा रह सकने वाला चरित्र है. चाहे वह युद्ध के पहले का तुर्की (ओस्मानिया साम्राज्य) हो या रिपब्लिक ऑफ तुर्की लेकिन यह उसकी महानता नहीं बल्कि उसकी मूल्यहीनता है.
इस उपन्यास में तुर्की लोकसंगीत और इस्तांबुल शहर का बहुत ज़िक्र है. शहर, संगीत और संस्कृति पर सभी उपन्यास गाह-ब-गाह चर्चा करते हैं. लेकिन यहाँ लोकसंगीत और इस्तांबुल से प्रेम, इस्तांबुल की उदासी का ज़िक्र उपन्यास का केंद्रीय हिस्सा बन जाता है. तुर्की में इस्तांबुल की इस उदासी के लिए एक अलग शब्द है जिसे Hüzün कहते हैं. पामुक के अनुसार तुर्की के परिप्रेक्ष्य में इस शब्द का मतलब ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद इस्तांबुल के हर लिखने-पढ़ने और सांस्कृतिक काम से उपजती हुयी उदासी थी. लोकसंगीत में ओस्मानिया साम्राज्य में पनपी एवं परिष्कृत दर्ज़नों जातीयताओं की स्मृतियाँ है. पात्र लम्बे लम्बे ब्यौरों में इस्तांबुल की ख़ूबसूरती बयान करते हैं. Huzur में युद्ध की कगार पर खड़ा मुल्क विचारों के संघर्ष में है और पात्र अपनी-अपनी नैतिक तथा वैयक्तिक ज़िम्मेदारियों को तलाश रहे हैं, इस बदलते संसार में अपने सही होने की जगह ढूंढ रहे हैं.
तानपीनार ने अपने उपन्यासों, कहानियों और कविताओं में समय, स्मृति और पहचान की इसी तरह पड़ताल की. उनके लेखन का बहुत बड़ा हिस्सा पिछले 25 सालों में खासा अनूदित हुआ है. अपनी सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता “Ne içindeyim zamanın” में वह यह अपने लेखन के दस्तख़ती तत्वों को समेट लेते हैं.
न भीतर हूँ मैं समय के
न परे ही इससे हर तरह
मेरा अंदरूँ अब एक दरवेश है
मुरादें अब जिसकी सब पूरी हो चुकी हैं
न बंद न कोई क़बा है लाज़िम
हाजत-ए-पोश-ओ-चोग़ा खो चुकी है.
दो
तानपीनार के दो गद्य संग्रहों से कुछ उद्धरण
दसतायेव्स्की के यहाँ बातचीत, स्टैंढाल की तुलना में अधिक प्रमुख स्थान रखती है. रस्कोलनिकोव का हौसलामंद काम अनजाने में बातचीत सुनने से शुरू होता है और बातचीत के माध्यम से ही आगे बढ़ता है. हर नायक बोलकर ही अपने सत्य तक पहुँचता है. रोगी, मूर्ख और करमाज़ोव सदैव आपस में या एक दूसरे से बातें करते हुए चलते हैं. एक जगह करमाज़ोव बात कर-कर के पागल हो जाता है और फिर एलोश्का से बात करके ही सच्चाई तक पहुँचता है. दसतायेव्स्की के यहाँ सभी पात्र अंदरूनी यात्राओं में रहते है. हर कोई ख़ुद से बात करके ही किसी टूटे हुए तारतम्य को पकड़ने की कोशिश करता है. कोई अपने भीतर असहज महसूस करता है और अंततः किसी से बात करके ही खुलता है. दसतायेव्स्की अपने आप में एक चलत-फिरत, अंतहीन बातचीत का नाम है. जब उपन्यास ख़त्म होता है तो ये नायक चुप नहीं रह जाते. इस बार वे आपके अंदर बात करते हैं.
मैं आम रुसी उपन्यास और कहानी से थक गया हूँ. ठीक वैसे ही जैसे कि घड़ी का छल्ला घुमाने वाले से ज़्यादा उस छल्ले की खड़खड़ाहट मुझे तंग करती है. वो भूमिगत स्वीकारोक्तियाँ, शैतान के चंगुल में वे लोग, वे पीड़ित और महान लोग जिनकी उदासीनता से नरक का द्वार खुलता है, वे इच्छाहीन लोग, दुःख तथा पीड़ा में सिक्त लोग, मैं अब उन सभी के लाइलाज दुखों के नशे में डूबा नहीं रह सकता. वो उन्मादी लोग मुझे अब बदसूरत लगते हैं, और मैं तुरंत उनकी निराशा के यंत्रीकृत पक्ष को पहचान लेता हूँ. वे मेरे मुँह में वाइन का ऐसा स्वाद छोड़ते हैं जिसकी गंध किसी प्रयोगशाला और फार्मेसी जैसी होती है. असली शराब में तो सूरज और उसकी रोशनी जैसा आवेश होता है. बिलाशक, रूसियों में भी महान लोग हैं. गोगोल या दसतायेव्स्की को पढ़ना और उनसे प्यार न करना असंभव है. तॉल्स्तॉय मुझे हमेशा सबसे महान यूरोपीय लोगों में से एक लगते थे. जब भी मैंने ‘वॉर एंड पीस’ पढ़ा, मैंने खुद को हर छोटी, असभ्य और मूर्खतापूर्ण कमज़ोरी से आज़ाद पाया. एक महान लेखक में मानव आत्मा को परिमार्जित करने के सिफ़त होती है. नींद की तरह या कुछ भूलने की तरह, जिससे बुद्धि कुछ स्वस्थ हो जाती है.
उपन्यास, व्यक्ति से शुरू होता है. इसमें कोई तैयारी या अंत की योजना नहीं होती है. उपन्यास में पुनर्सृजन हमारी कल्पना का काम है. उपन्यास की कोई रस्म नहीं है.
किसी कहानी को सुनाने के लिए हमेशा किसी की आवश्यकता होती है जो उसे दूर से या करीब से देखता हो, कम से कम किसी की आवश्यकता होती है जो उनके देखे हुए को फिर से सुनाए. आप जो देखते हैं उसपर विश्वास करना उपन्यास का सोशल कांट्रैक्ट है. इसी वजह से हमारी कहानी कुछ वाक्यों से शुरू होती थीं मसलन; *Raviyan-ı ahbar ve nakanlar-ı asar /راویان اخبار و ناقلان آثار जिसकी मदद से वह कहानी के बारे में यूँ बता सकें कि क्या हुआ था न कि सुनने वाले की कल्पनानुसार उस कहानी को तोड़ा-मरोड़ा जा सके.
(*कथा शुरू करने की तुर्की रिवायत में कहे जाने वाला शुरुआती वाक्य जिसका टूटा-फूटा अर्थ है ‘ख़बर फैलाने वाले, सुनाते हैं एक ख़बर जैसी उन्होंने जानी’)
बातचीत, उपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. बाल्ज़ाक ने कहा था कि जनसामान्य की भाषा सीखने के लिए उन्होंने एक अलग उपन्यास लिखा है.
यथार्थवादी होने का मतलब सत्य को वैसा ही देखना नहीं है जैसा वह है. शायद इसका अर्थ, यथार्थ के साथ सबसे मुफ़ीद रिश्ता स्थापित करना है.
महान उपन्यासकार की ताक़त जीवन के आनंद को बरक़रार बनाये रखने में है. वे जो सफ़्हे बुनते हैं, उसमें कला का जादू ऐसा है मानो, आईने पर गिरती सूरज की किरणें. उपन्यासकार को मानव में विश्वास करना ही चाहिए. क्योंकि यही विश्वास जीवन में अर्थ का स्रोत है. हमें चाहिए कि हम जीवन को देखें और इसकी कमियों की ओर नज़रें दौड़ाएँ. मेरे मुल्क का ऐसे साहित्य पर यक़ीन नहीं है जो यथार्थ की परतों के नीचे पनपे मुद्दों को छेड़े बग़ैर लोगों को यथार्थ में लाने का प्रयास करें.
हम जिस हद तक प्यार करते हैं उस हद तक अकेले हैं. हम अपने अकेलेपन के अनुपात में ही एकजुट होते हैं और ब्रह्मांड को गले लगाते हैं.
क्या आपने कभी सोते हुए व्यक्ति पर ध्यान दिया है? हमारे ठीक बगल में होते हुए भी वे हमसे कितने दूर और किस गहराई में हैं. अनुपस्थिति से जैसे जम चुके इस शरीर, इन शारीरिक रेखाओं, इस विचित्र ढाँचे, जिसकी नींव मृत्यु में तैरती है, और उस प्राणी के बीच क्या संबंध हो सकता है जो अभी एक क्षण पहले इसके चारों ओर घूम रहा था?
तीन
‘कविता में खोजा और उपन्यास में पाया‘
( नोट: ओरहान पामुक का तानपीनार पर यह लेख 23 जनवरी 1992 में “Cumhuriyet Gazetesi” में प्रकाशित हुआ. इसमें वे तानपीनार के निबंधों की एक पुस्तक का ज़िक्र करते हैं जिसमें ललित कलाओं, उपन्यास कला, चित्रकला एवं कविता पर विस्तार से चर्चा है. पामुक का यह लेख उनके ख़ुद के उपन्यास “My Name Is Red” से पहले लिखा गया है. इसीलिए इसमें चित्रकला और उपन्यास के सम्बन्ध पर कुछ टिप्पणियाँ हैं. )
एक लेखक हमारे भीतर तब तक ज़िंदा रहता है जब तक वह हमारे ज़हन में बैठे कुछ सवालों पर सवाल करे और कुछ इच्छाएँ जगाता रहे. हम अपने सवालों और अर्ज़ियों को सीधे साहित्य से लें या जीवन से, एक समय के बाद हम उसे उस जानकारी से नत्थी कर देते हैं जो हमें लेखक के बारे में इधर-उधर से मिलती है, जो तस्वीरें हम देखते हैं, जो सपने हमारे लेखक के बारे में हैं और इस तरह लेखक की एक शक्ल हम अख़्तियार हो जाती है. यह शक्ल हमारे ज़हन में वैसी नहीं होती जैसे पता और फ़ोन नंबर, बल्कि हमारी उम्मीद और स्मृतियों के अनुरूप बदलती रहती है. इसीलिए, इस बदलती शक्ल के चलते हमें लगता है कि लेखक भी बदल चुका है, मगर एक दिन जब हम लेखक की किताबों की ओर वापिस लौटते हैं तो महसूस करते हैं कि जो दरअसल बदला है वो हमारे ही सवाल और इच्छाएँ हैं.
तानपीनार की “साहित्य पर निबंध” तुर्की की सबसे समृद्ध, सबसे संपूर्ण, सबसे शिक्षाप्रद और सबसे गहन निबंध पुस्तक है. तानपीनार की सारी शक्लें मेरे ज़हन में एक इस मोटी किताब के शुरुआती शीर्षक “उपन्यास के बारे में” में मिल-जुल जाती हैं, जिसे मुझे बार-बार पढ़ना, इसके पन्नों को पलटना यहाँ तक कि इसके वज़न को महसूस करना भी बहुत पसंद है. जब हम कविता पर उनके निबंधों को पढ़ते हैं, जिसे, ज़ैनब केरमान ने जो इस किताब की जिल्दसाज़ हैं, निबंध क्रम में ‘उपन्यास के बारे’ के ऊपर रखा है, उसमें हम तानपीनार की कविता सम्बन्धी समस्याओं से वाक़िफ़ होते हैं. कविता को “ग़ैर-कलात्मक” चिंताओं से मुक्त करने की इच्छा, नयी पीढ़ियों के समक्ष वज़न और काफ़िये का बचाव, कवि वैलरी की याद दिलाने “आहंग” और “स्वप्न” से जुड़ा हुआ एक सख़्त सौन्दर्यानुशासन.
जब मैंने उपन्यास के बारे में निबंध पढ़े, तो न केवल तानपीनार के उपन्यास, बल्कि हमारे पूरे उपन्यास जगत की समस्याएँ और इस दुनिया के बारे में सोचने की हमारी आदतें अपने सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में सामने आयीं. यह कोई संयोग नहीं है. तानपीनार ने इसे कविता में खोजा और उपन्यास में पाया. वह निबंध एक सवाल से शुरू करते हैं “कोई तुर्की उपन्यास क्यों नहीं है?”.
हालाँकि तुर्की उपन्यास लिखा और पढ़ा गया है. किन्तु यह भी सच है कि यह उपन्यास एक बंजरपन का अहसास जगाता है तथा पश्चिमी लेखन से परिचित बुद्धिजीवियों में रुचि नहीं पैदा करता.
सात साल बाद, जब वह अपने उपन्यासों की तैयारी के दौरान फिर से इस विषय पर लौटे, उनके बहुत प्रिय शब्द का इस्तेमाल करूँ तो ‘ध्यान’ अब अवधारणाओं और सिद्धांतों की ओर नहीं, बल्कि जीवन की ओर था. उपन्यासकार के लिए जीने और कहानी सुनाने के आनंद के स्रोत का ज़िक्र करते हुए उन्होंने जवानी में मिली एक बूढ़ी औरत का हवाला दिया जो बक़ौल तानपीनार ‘देखना जानती थी’.
मानव स्वभाव के बारे में ये टिप्पणियाँ उनके चौथे निबंध की तैयारी के रूप में काम करती हैं, जहाँ वह ईसाई धर्म में “कन्फेशन” के समान “आत्मनिरीक्षण और जाँच करने वाली आँखें” और उपन्यास की कला के बीच संबंधों पर चर्चा करते हैं. जैसा कि तानपीनार ने हमारी उपन्यास संबंधी चिंताओं का ध्यान जीवन के भीतर मनुष्य, ब्यौरे में बताये जीवन की विश्वसनीयता और “देखने” के मुद्दों पर केंद्रित कर दिया. ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने यह निश्चित कर लिया था कि समस्या की जड़ किसी तकनीक में निहित है, और वो उपन्यास लिखने की तकनीक है.
आज इन निबंधों में मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू तानपीनार का सामाजिक और सामान्य सांस्कृतिक विशेषताओं से हटकर उपन्यास की कला की ओर ध्यान केंद्रित करते हुए ‘हमारे उपन्यासों’ में मौलिक विशेषताओं की मौजूदगी या उनकी कमी की खोज है.
दृश्यांकन, प्रस्तुतिकरण और वर्णन के तरीक़ों पर चर्चा करते हुए, तानपीनार बताते हैं कि 19वीं सदी के फ्रांसीसी उपन्यासकार चित्रकला के साथ कितना निकट संबंध रखते थे. यहाँ, तानपीनार का बुद्धिमत्तापूर्ण इशारा यह नहीं है कि चित्रकला की ओर ध्यान देने वाले उपन्यासकार इस संबंध के कारण कुछ बेहतर देख सकते थे, बल्कि एक ख़ास क़ाबिलीयत जो चित्रकला में लिप्त एक संस्कृति की भाषा में शामिल होगी. वो इसी वजह से होमर की सराहना करते हैं, जिन्होंने अंधे होने के बावजूद मुद्राओं की शक्ति की प्रशंसा की. भाषा की दृश्यता और वर्णन क्षमता की खोज करते हुए, उन्होंने चित्रकला और बाल्ज़ाक की शैली के बीच एक संबंध स्थापित किया, जिसमें चित्रों का ब्यौरा देने वाले लम्बे वाक्य उन्होंने उपयोग किए.
मैं थोड़ा हैरान हूँ कि उपन्यास के बारे में निबंधों पर मेरा हालिया ध्यान एक ओस्मानी लघुविद (Miniaturist) के बारे में मेरे उपन्यास पर मेरे काम और देखने और वर्णन करने के मुद्दों के कारण है क्या? लेकिन आएँ, याद रखें कि तानपीनार अक्सर याह्या कमाल के इन वाक्यों का उल्लेख करना पसंद करते थे: ‘यदि हमारे यहाँ गद्य और चित्रकला होती तो हम एक अलग मुल्क होते’
सन्दर्भ:
- Edebiyat Üzerine Makaleler, (Bölüm I: Şiir hakkında | Bölüm: Bölüm II: Romana dair) Birinci baskı, Dergah Yayınları, İstanbul – 1969
- Hep Aynı Boşluk – Roman ve Romancıya Dair, 161, Dergah Yayınları, İstanbul (Bilgi, nu. 45-46, Ocak-Şubat 1951, s. 8-9, 24)
- Saatleri Ayarlama Enstitüsü, N-117 – Dergâh Yayınları, 1961
- Huzur, 1949-Cu.Ga., Dergâh Yayınları
- Orhan Pamuk, “Şiirde aradı, romanda buldu” (23 Ocak 1992, Cumhuriyet Gazetesi)
निशांत कौशिक जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली स्नातक, तुर्की भाषा एवं साहित्य मुंबई विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र : डिप्लोमा, फ़ारसी तुर्की, उर्दू, अज़रबैजानी और अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद पत्रिकाओं में प्रकाशित. विश्व साहित्य पर टिप्पणी, डायरी, अनुवाद, यात्रा एवं कविता लेखन में रुचि. |
उपन्यासों की रचना प्रक्रिया को लेकर और कुछेक रूसी उपन्यासों पर इस लेखक की टिप्पणियां नज़र पैदा करने वाली हैं। समालोचन की इस पहल के बाद तानपीनार का कम से कम एक उपन्यास खोजकर पढ़ना जरूरी हो गया है।