ब्रदर्स करमाजोव और गुरु-शिष्य परंपराचंद्रभूषण |
रूसी लेखक फ्योदोर दसतायेव्स्की की रचना ‘ब्रदर्स करमाजोव’ की गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में होती है. इसके अस्तित्व के लगभग डेढ़ सौ वर्षों में न जाने कितनी भाषाओं में हजारों समीक्षाएँ, विवेचनाएँ और धर्म-दर्शन संबंधी टिप्पणियाँ इसके इर्दगिर्द लिखी जा चुकी हैं. फिर भी इसके एक खास पहलू पर अलग से विचार करना और अपने दायरे में गहरी बातचीत के लिए उसे प्रस्तुत करना मुझे जरूरी लगा. यह पहलू है गुरु-शिष्य परंपरा का, जिसके जरिये रूसी संस्कृति न केवल पूरब के मिज़ाज से जुड़ती है, बल्कि पूर्वी संस्कृतियों के लिए भी धुंध में डूबी अपनी इस उज्ज्वल धारा को ठीक से समझने, इसकी तह में जाने की गुंजाइश बनाती है. पश्चिमी दर्शन की बुनियाद सुकरात-प्लेटो-अरस्तू की श्रृंखला या ईसा और उनके 12 प्रचारकों (अपॉसल्स) से तो यह बहुत ही अलग है.
पूरब की गुरु-शिष्य परंपरा के बारे में बात करने का आगे ज्यादा मौका रहेगा, पश्चिम की उपरोक्त दोनों महान परंपराओं पर कोई बात नहीं हो सकेगी, लिहाजा इस बारे में थोड़ी चर्चा यहीं कर लेते हैं. ईसा पूर्व चौथी-पाँचवीं सदी के एथेंस शहर में हुए तीनों यूनानी दार्शनिक सुकरात, प्लेटो और अरस्तू को दर्शन ही नहीं, लगभग सारी ज्ञान शाखाओं की बुनियाद समझा जाता है, लेकिन इससे भी बड़ी बात यह कि इस श्रृंखला में अनुकरण की वृत्ति नहीं है. अरस्तू में अपने गुरु प्लेटो के प्रति और प्लेटो में अपने गुरु सुकरात के प्रति अपार सम्मान है और दोनों ने अपने गुरुओं के बारे में विस्तार से लिखा है लेकिन सवाल, जवाब और पद्धति में तीनों एक-दूसरे से इतने अलग हैं कि तीनों के स्वतंत्र दर्शन हैं. अरस्तू प्लेटो से 43 साल और प्लेटो सुकरात से 42 साल छोटे थे. उम्र का यह फासला बाप और बेटे जैसा नहीं, दादा और पोते जैसा था लिहाजा गुरु-शिष्य में पीढ़ियों का टकराव कुछ रहा भी हो तो नगण्य था.
रही बात ईसा और उनके अपॉसल्स की तो यहाँ दार्शनिक विमर्श का तत्व नदारद था और गुरु-शिष्य के बीच व्यक्तित्व की स्वतंत्रता या यूँ कहें कि चिंतन की स्वाधीनता इस मामले में पूरी तरह अविचारणीय थी. ईसा का सोचने और बोलने का तरीका तार्किक से ज्यादा चमत्कारिक था और कुछ चमत्कार उन्होंने अपने जीवन में भी दिखाए थे जबकि जिन सॉक्रेटिक दार्शनिकों का ज़िक्र ऊपर चल रहा था उनमें चमत्कारिकता जैसी किसी चीज के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी. आश्चर्य की बात है कि सोचने-समझने वालों में उनका दर्शन एक धराऊँ चीज की तरह आज तक चला आ रहा है, लेकिन इतिहास में उनके काफी समय बाद और भूगोल में उनसे थोड़ी ही दूरी पर हुए ईसा मसीह और उनके अपॉसल्स की सोच-समझ जिस तरह विस्फोट की तरह फैली, उसे देखते हुए दोनों के बीच कोई तुलना ही संभव नहीं है. इसका कारण संभवतः ईसा की करुणा या उनका हृदय तत्व है, जो दर्शन का कार्यक्षेत्र नहीं है.
फ्योदोर दसतायेव्स्की की ‘ब्रदर्स करमाजोव’ में थोड़ी देर के लिए गुरु-शिष्य जैसी एक जोड़ी का ज़िक्र आता है, हालाँकि ऐसा कोई नाम उसे नहीं दिया जाता. दार्शनिक विमर्श वहाँ है लेकिन कमोबेश आत्मालाप जैसा. या ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’ वाले मिज़ाज का. चमत्कार भी हैं लेकिन उनकी शक्ल ऐसी है जैसे करुणा के आधिक्य या बहुत गहराई से सोचने पर यूं ही हो गए हों. ज्यादा बड़ी बात यह है कि गुरु और शिष्य का आम जनजीवन से सीधा जुड़ाव है. लोगों की भीषण समस्याओं को अपनी आत्मिक समस्या मानकर वे उनपर काम करते हैं और इस क्रम में साझा चिंताओं का दूर तक जाने वाला रास्ता बनता है. एक ऐसा अध्यात्म जो दुनिया से निकला है, दुनिया के लिए है. एक बहुत ही सुंदर पक्ष की तरह इसका विस्तार अगली पीढ़ी तक होता है जो इसे गहरी दोस्ती की तरह देखती है.
पूरब की परंपरा
दसतायेव्स्की की लिखी सारी ही किताबें किसी न किसी मामले में क्लासिक मानी जाती रही हैं लेकिन सामाजिक विमर्शों में उनके तीन उपन्यासों का ज़िक्र ज्यादा होता है. ‘क्राइम ऐंड पनिशमेंट’, ‘ईडियट’ और ‘करमाजोव ब्रदर्स’. इनमें पहला एक व्यक्ति के मन में अपराध और पाप, कानून और नैतिकता के फर्क को लेकर जारी उधेड़बुन पर केंद्रित है. खासकर इस पहलू पर कि दुनिया आज जिन ऐतिहासिक महापुरुषों की शान में क़सीदे पढ़ती है, उनमें ज्यादातर अभी के सामाजिक मानकों पर अपराधी ही निकलते. पाप की धारणा को खारिज करती हुई यह तर्क प्रणाली उसे कत्ल करने और इसके लिए खुद को दोषी न मानने की ओर ले जाती है. दूसरा, यानी ईडियट एक भले आदमी का किस्सा है, जो दुनिया को कम दुखी बनाने के प्रयास में एक चकरघिन्नी में फंसता चला जाता है. 1880 में दसतायेव्स्की की मृत्यु से चार महीने पहले छपा उपन्यास करमाजोव ब्रदर्स उनकी अकेली रचना है, जिसमें अच्छाई के लिए समर्पित एक व्यक्ति नहीं, एक युग्म दिखता है, हालांकि घटनाओं की आंधी उसकी भी एक नहीं चलने देती.
दसतायेव्स्की के यहाँ पूरब या भारत को लेकर अलग से कहीं भी कोई चर्चा नहीं मिलती. जाहिर है, ये तार जोड़े जा रहे हैं. प्राचीन भारत में दो तरह की गुरु शिष्य परंपराओं के दर्शन हमें होते हैं. एक वह, जिसमें लंबे चिंतन-मनन के बाद किसी सिद्धांत तक पहुंचा गुरु एक लंबी प्रक्रिया में उस सिद्धांत को अपने शिष्य तक पहुंचाता है. गुरु इसमें न केवल श्रद्धेय और पूज्य होता है, बल्कि उसके सिद्धांत में कोई नया बिंदु जोड़ना भी सोच से परे समझा जाता है. ऐसी कुछ जोड़ियों का ज़िक्र हम अक्सर सुनते हैं, जिनमें शिष्य का व्यक्तित्व बहुत बड़ा, प्रायः गुरु से भी बड़ा हो गया है, लेकिन सिद्धांत में उसका कोई मौलिक योगदान, गुरु की जमीन पर किसी नए सिद्धांत का प्रणयन कल्पना से परे है.
कुछेक ऐसी जोड़ियाँ गिनानी हों तो योगवाशिष्ठ में वशिष्ठ और राम, अष्टावक्र गीता में अष्टावक्र और जनक, किसी पौराणिक स्रोत से जनश्रुति में आए संदीपनि और वासुदेव कृष्ण, या फिर श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण और अर्जुन. कमोबेश ऐसी ही कुछ जोड़ियाँ कौशल आधारित गुरुओं से भी जुड़ती है. विश्वामित्र और राम, परशुराम और कर्ण, द्रोण और अर्जुन, उलट संदर्भ में द्रोण और एकलव्य. इन सारे उदाहरणों में गुरु के प्रति श्रद्धा एक साझा बात है, जिसको उद्दालक आरुणि और एकलव्य की दुखद कथाएँ अतार्किक सीमा तक ले जाती हैं. इन जोड़ियों का दूसरा पक्ष यह है कि ऊंचाई पर बैठे गुरु को कुछ खोजना नहीं होता. उसे जहाँ जाना था वहाँ पहले ही पहुँच चुका होता है.
इससे अलग परंपरा बुद्ध और अनेकानेक अर्हतों की है. बीच-बीच में दिखने वाले लंबे फासलों के बावजूद इस परंपरा में चिंतक भिक्षुओं, कलाकारों, आचार्यों, दार्शनिकों और महासिद्धों की कतारें बुद्ध के महाप्रयाण के कम से कम डेढ़ हजार साल बाद तक निकलती चली जाती हैं. इसमें शुरू के एक हजार साल तक गुरुजन अपने नाम के साथ यह विशेषण जोड़ने में कतराते हैं क्योंकि उनकी नजर में शिक्षक तो एक ही हैं- शाक्यमुनि गौतम बुद्ध. लेकिन फिर ईसा की सातवीं सदी आते-आते बड़ा बदलाव दिखता है और गुरु का कद-बूता बहुत बड़ा हो जाता है. यह विस्तार भूगोल में भी दिखता है और भारत की यह दूसरी गुरु-शिष्य परंपरा पूरे एशिया पर अपनी छाप छोड़ती है.
ऊपर बताई गई दोनों गुरु-शिष्य परंपराओं में बुनियादी फर्क यह है कि दूसरी परंपरा में गुरु खुद एक खोज-यात्रा में होता है. शिष्य उसके अनुयायी के बजाय साथी जैसा दिखाई पड़ता है. दूसरा फर्क दोनों के मिथकीय और ऐतिहासिक स्वरूप का माना जा सकता है, हालांकि परंपरा-बोध में इतिहास या यथार्थ को अलग से कोई वरीयता नहीं प्राप्त होती. निश्चित रूप से ये दोनों परंपराएँ तेल और पानी की तरह एक-दूसरे से बिल्कुल अलग नहीं हैं. रामानंद और कबीर का रिश्ता इनमें पहले वाली मिजाज की गुरु-शिष्य परंपरा से जुड़ता है, जबकि स्वयं कबीर और उनके शिष्यों- दादू, रैदास, पीपा, धन्ना आदि का संबंध दूसरी परंपरा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है. भारत में गुरु-चेले की आम धारणा पहली परंपरा पर केंद्रित है लेकिन दसतायेव्स्की की यह किताब दूसरी परंपरा के करीब जाती है.
किस्सा ऐसे बढ़ता है
बात को आगे बढ़ाने से पहले करमाजोव ब्रदर्स के किस्से का खाका यहाँ संक्षेप में खींच देना ठीक रहेगा. यह कहानी उत्तरी रूस के एक छोटे से शहर में बसे एक अय्याश जमींदार फ्योदोर करमाजोव की है. ध्यान रहे, फ्योदोर की अय्याशी घर फूंक तमाशा देखने वाली नहीं है. धंधे के मामले में वह बहुत प्रोफ़ेशनल है लेकिन रिश्तों की उसके लिए कोई अहमियत नहीं है. कुछ समय फ्रांस में बिताकर आया है. आला दर्जे की बैठकों में उसकी पहचान सस्ते चुटकुले उछालकर खुद ही हँस लेने वाले व्यक्ति की है. ज़ाहिर है, कुलीन वर्ग में उसकी कुछ खास इज़्ज़त नहीं है.
उसकी पहली शादी एक जागीरदार की बेटी से होती है, जो खुद को आधुनिक साबित करने के लिए अपना घर छोड़कर उसके पीछे आ जाती है. लेकिन जल्द ही उसे लगता है कि यह उसका गलत फैसला था. वहाँ से आगे बढ़ने के बारे में कुछ सोचती, उसके पहले ही वह एक बच्चे की माँ बन चुकी थी. यहाँ से आगे उसकी कहानी अवसाद और आत्महत्या में पूरी हुई. बच्चे मीत्या को फ्योदोर के नौकर ग्रिगोरी ने अनाथों की हालत में पाला, क्योंकि बाप को उसपर अलग से कुछ भी खर्च करना हमेशा फालतू लगता रहा. बाद में बच्चे के ननिहाल वालों की नजर उसपर पड़ी तो वह कुछ पढ़-लिख गया और कुलीनता के आधार पर फौज में छोटा-मोटा अफसर भी बन गया.
किताब में ऐतिहासिक घटनाएँ बिल्कुल नहीं आतीं लेकिन किस्से का वक्त 1850 ई. के 20-25 साल आगे और पीछे का लगता है. खैर, मीत्या मिजाज से गुस्सैल है और जल्दी ताव खा जाना उसकी प्रवृत्ति है. मार-पिटाई के ऐसे ही किसी प्रकरण में फौज की नौकरी छोड़कर वह अपने पैतृक कस्बे में चला आता है, ताकि उसके ननिहाल से पिता को मिली हुई संपत्ति की वसूली की जा सके. लेकिन बाप का कहना है कि सारा हिसाब पहले किया जा चुका है. मीत्या के 6000 रूबल निकलते थे, जो उसे दिए जा चुके. कोई बकाया न रहने के मोहरबंद कागज-पत्तर मौजूद हैं.
पहली शादी नाकाम रहने के बाद फ्योदोर करमाजोव की एक शादी और होती है. कोई ऊंचा खानदान अपनी एक कमजोर शाखा में जन्मी लड़की उससे ब्याह देता है, जिससे दो बेटे होते हैं. एक इवान, जो ननिहाल की मेहरबानी से मॉस्को में रहकर ऊंची पढ़ाई कर ले जाता है और अखबारी लेखन से एक उभरते बुद्धिजीवी के रूप में कम उम्र में ही अच्छा-खासा यश प्राप्त करता है. दूसरा अल्योशा, जिसके बहुत छुटपन में ही उसकी माँ की मृत्यु किसी असाध्य बीमारी से, संभवतः टीबी से हो जाती है और उसके ननिहाल वाले इवान के साथ उसकी भी पढ़ाई का खर्चा भरने में खुद को अक्षम बताते हैं. नतीजा यह कि पढ़ाई छोड़कर वह अपनी जिंदगी का कुछ मतलब तलाशने निकल पड़ा.
किताब की शुरुआत में तीनों भाई जब अपने पैतृक शहर में एक साथ होते हैं तो उनकी उम्र 20 से 26 के बीच है, जबकि बाप ने भी अभी बमुश्किल 50 पार किया है. और जैसा संकेत ऊपर दिया जा चुका है, मन से वह कुछ ज्यादा ही जवान है. बड़े बेटे मीत्या से उसका कांटा तब थोड़ा और उलझ जाता है, जब शहर की एक बहुत सुंदर महिला से दोनों की दोनों की नजदीकी बन जाती है. बाप की इच्छा है कि यह महिला मुँहमाँगी दौलत लेकर उसके घर की शोभा बढ़ाए, जबकि बेटा उसी में अपने दिल की दवा देख रहा है. प्रॉपर्टी और प्रेम का दोहरा तनाव बाप-बेटे के रिश्ते को एक बड़े टाइम बम में बदल चुका है, जिसे डिफ्यूज करने की उम्मीद फादर जोसिमा से की जा रही है. मध्यस्थता का प्रस्ताव भी बाप का ही है, जिसे लगता है कि इससे जोसिमा की औकात सबके सामने आ जाएगी.
एल्डर और गुरु का साझा
फादर जोसिमा का चरित्र ‘करमाजोव ब्रदर्स’ की लंबी-चौड़ी कहानी में हाशिये का ही है, लेकिन जो दार्शनिक सवाल इस किताब को एक सर्वकालिक कृति बनाते हैं, उनकी धुरी वही है. सबसे बड़ी बात यह कि फादर जोसिमा के जरिये पूर्वी ईसाइयत, यूं कहें रोमन साम्राज्य के प्रभाव से अछूती रह गई ऑर्थोडॉक्स ईसाइयत की एक उपधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘एल्डर’ नाम की संस्था को नजदीक से देखा गया है. कुछ मायनों में यह संस्था सूफिज्म के ‘मुरशिद’ और वज्रयान बुधिज्म के ‘गुरु’ के समतुल्य लगती है, लेकिन दोनों से इस मायने में अलग भी कि एल्डर का अध्यात्म, उसकी स्पिरिचुअलिटी दुनियादारी के करीब की चीज है और लगातार उसे बदलने की कोशिश करती है.
यहाँ तुलना के लिए दो पूर्वी गुरुओं के वचन मुझे याद आ रहे हैं. एक आठवीं-नवीं सदी के चिंतक सरहपा का-
‘गुरु के बअण अमिअ रस धवहि न पिअबइ जेहिं
बहु सात्तात्थ मरुत्थलहिं तिसिय मरिब्बहु तेहिं.’
पूर्वी अपभ्रंश में कहे गए इस दोहे का मतलब है- गुरु के वचनों में मौजूद अमृत रस को जो दौड़कर नहीं पी लेता, वह कई शास्त्रार्थों के मरुस्थल में प्यासा ही मर जाता है. यानी यह कि शास्त्रों का अर्थ बताने, उन्हें उल्था करते रहने वाली विद्वत्तापूर्ण बहसें तो चलती ही रहती हैं, आगे बढ़ने का रास्ता इन बहसों से नहीं, रास्ते पर कुछ दूर चल चुके गुरु की बातों से निकलता है. एक नजर में यह लकीर पीटने जैसा लगता है. नई जमीन तोड़ने के बजाय बने-बनाए रास्ते पर चलना. लेकिन आगे हम खुद सरहपा के गुरुओं के बारे में जानेंगे तो यह धारणा वहीं की वहीं कपूर की तरह उड़ जाएगी.
गुरु कौन है, इसके बारे में सरहपा के दो सौ साल बाद हुए गुरु गोरखनाथ कहते हैं-
‘अधिक तत्त से गुरू बनो है हीण तत्त से चेला
मन माने तो संग रमो, नहीं तो रमो अकेला.’
यानी तत्व, या यूं कहें कि खोज एक ही है. जो इसमें ज्यादा दूर तक जा चुका हो या जिसकी प्राप्ति इसमें ज्यादा हो, वह गुरु, और जिसमें यह अभी कम हो वह चेला. सरहपा के और वचनों सेसाफ होता है कि यहाँ उनका संकेत केवल एक लंबी यात्रा की शुरुआत की तरफ है. गुरु के वचनों से टपक रहा ‘अमृत रस’ पीकर आराम फरमाने की तरफ नहीं. इसका दूसरा पहलू उजागर करने वाला वचन सरहपा के चार सौ साल बाद पंजाब में हुए बाबा फरीद का है-
‘काले मैंडे कपड़े ते काला मैंडा वेश
गुनाहीं भरियां मैं फिरां लोग कहें दरवेश.’
काली-मैली वेशभूषा में मैं तो पाप भुगत रहा हूं, लेकिन लोग हैं कि मुझे दरवेश (संत) कहते हैं.
कहानी में आगे बढ़ने से पहले एक-दो वाक्य सरहपा के गुरुओं के बारे में. महासिद्धों में लगभग हर किसी के बारे में यह जानकारी है कि कौन किसका गुरु या चेला है, लेकिन सरहपा एक मायने में इसके अपवाद हैं कि उनके गुरु-स्थान में किसी आचार्य या सिद्ध का नाम दिखता. सिर्फ मेहनत-मजदूरी करने वाली दो कामकाजी महिलाएँ इस भूमिका में दिखती हैं, जिन्हें संसार भर के वज्रयानी दायरे में ‘बाण बनाने वाली डाकिनी’ और ‘मूली की कढ़ी वाली डाकिनी’ के रूप में जाना जाता है. नालंदा विश्वविद्यालय में बतौर शिक्षक लगातार बेचैनी से गुजर रहे सरहपा सपने में एक स्त्री देखते हैं और सड़कों पर उसे खोजने लगते हैं. बाण बनाकर बाजार में बेचने वाली एक औरत यूं ही उनसे कहती है-
‘बहसों से बोध नहीं होगा. होना होगा तो जीवन व्यवहार से, स्वप्न या संकेतों से अचानक हो जाएगा.’ बाद में मूली की कढ़ी के बहाने विचारों को नहीं, प्रवृत्तियों को साधने वाली टिप्पणी सरहपा को सिरे से बदल देती है.
जोसिमा और अल्योशा
फ्योदोर करमाजोव का छोटा बेटा अल्योशा अपने शहर के मठ में रहने वाले फादर जोसिमा से बहुत प्रभावित है. इस जुड़ाव की शुरुआत अल्योशा के मन में बहुत छुटपन से जमी इस याद से हुई थी कि अपनी माँ के आखिरी दिनों में उनकी उंगली पकड़कर वह इसी मठ में आया करता था. वह मठवासियों वाला चोगा पहनता है, फादर जोसिमा की कोठरी की साफ-सफाई करता है और लोगों से मिलने-जुलने में उनकी मदद करता है. शहर के लोग मानते हैं कि छोटा करमाजोव खुद भी पादरी बनने की तरफ बढ़ रहा है लेकिन अल्योशा की ऐसी कोई योजना नहीं है. वह फादर जोसिमा से जुड़े प्रेक्षण एक जगह लिखता है और उनके निजी जीवन की जानकारी भी हमें यहीं से होती है.
ऊपर फादर जोसिमा के सामने बाप-बेटे के बीच जिस संभावित पंचायत की बात की गई है, उससे थोड़ा ही पहले मठ में कुछ लोग एल्डर के दर्शन करने और उनसे अपनी तकलीफों के बारे में बात करने आए हुए हैं. एक बहुत दुखी महिला इन दर्शनार्थियों में शामिल है, जो फादर जोसिमा से बात कर पाने की हालत में भी नहीं है. उसके तीन बच्चों की मौत किसी न किसी प्रकरण में हो चुकी थी और कुछ दिन पहले उसका चौथा बच्चा भी चल बसा. उसका पति उसे समझाकर हलकान हो चुका है लेकिन महिला अब उसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहती. असह्य पीड़ा ने उसके हृदय को कड़वाहट से भर दिया है. फादर की बातों से जब उसका दिल थोड़ा पसीजता है तो कहती है-
काश मैं उसकी एक छोटी सी झलक पा लेती, एक बार जरा सा उसे देख लेती तो उसके पास भी नहीं जाती, उससे कुछ कहती भी नहीं, एक कोने में छिपकर क्षण भर को उसे देखती, बाहर से उसे खेलते हुए सुनती और उसकी प्यारी नन्ही आवाज़ में उसका चिल्लाना सुनती- ‘मम्मा, तुम कहाँ हो?’
शोक के इस हाहाकार से बुद्ध का निपटना भी हमने सुन रखा है. ऐसे ही पुत्रशोक से ग्रस्त एक बुढ़िया को छोटे से संवाद के बाद उन्होंने बोध तक पहुंचा दिया-
‘संसार में कोई भी तो ऐसा नहीं है, जिसकी मृत्यु नहीं होनी. मामला सिर्फ पहले या बाद का है. दुख नियम है, अपवाद नहीं है.’
इसी तरह ‘दशरथ जातक’ में पितृशोक के सामने स्थिर रहकर हिमालय में वनवास जी रहे अपने भाई-बहन को भी स्थिर करने वाले राम को इस गुण के कारण ही वे ‘राम पंडित’ कहते हैं. बताते हैं कि ‘वह मैं ही था.’ फादर जोसिमा की दृष्टि बुद्ध की तरह पारदर्शी नहीं है. वे ईसाई आस्था वाले व्यक्ति हैं. हर आस्था एक कहानी से शुरू होती है और कहानियों के सहारे ही आगे बढ़ती है.
एल्डर के चमत्कारों से अपने मृत बच्चे की एक छोटी सी झलक भी दोबारा देख पाने की उम्मीद बांधे खड़ी स्त्री को जोसिमा पुराने जमाने के किसी संत की कथा सुनाते हैं, जिनके सामने एक महिला ने ठीक ऐसा ही सवाल रखा था-
‘तुझे पता नहीं है’, संत ने उससे कहा, ‘ईश्वर के सिंहासन के सामने ये बच्चे कितने साहसी हो जाते हैं. स्वर्ग के साम्राज्य में इन छोटे बच्चों से ज्यादा हिम्मती कोई और नहीं होता. ‘तूने हमें जिंदगी दी, ऐ मेरे मालिक’ वे कहते हैं, ‘और हम इसपर एक नजर भी नहीं डाल पाए थे कि तूने इसे वापस भी ले लिया.’ और यह सवाल वे ईश्वर से इतने साहस के साथ बार-बार करते हैं कि वह तत्काल उन्हें फरिश्तों का ओहदा बख्श देता है. इसलिए’, संत ने कहा, ‘तू भी ओ माँ, खुश हो जा और रो मत, क्योंकि तेरा नन्हा बेटा भगवान के पास है और फरिश्तों की सोहबत में है.’ पुराने जमाने की उस माँ से यह बात संत ने कही. वे एक महान संत थे और वे झूठ नहीं बोल सकते थे. इसलिए माँ तू भी यह जान ले कि तेरा बच्चा निश्चित रूप से ईश्वर के सिंहासन के सामने खड़ा है और खुश है और अभी ईश्वर से तेरे लिए प्रार्थना कर रहा है. इसलिए तेरा रोना बिल्कुल ठीक है. रो ले, लेकिन दिल में थोड़ी खुशी लेकर रो.
फादर जोसिमा साठ की उम्र वाले तपस्वी मिजाज के पादरी हैं. शरीर से बहुत कमजोर. मठ परिसर के किनारे एक छोटी सी कोठरी में अक्सर उपवास और एकांतवास में पड़े रहते हैं. हफ्ते में एक या दो बार बहुत थोड़ा सा कुछ खाते हैं. यह संकल्प बांधकर मृत्यु की तरफ बढ़ने जैसा है. दसतायेव्स्की ने फादर जोसिमा को एक वास्तविक चरित्र फादर तिखोन पर गढ़ा था और इसकी तैयारी के लिए ठीक-ठाक वक्त एक मठ में गुजारा था. ‘करमाजोव ब्रदर्स’ उपन्यास फादर जोसिमा की उपासना और ध्यान पद्धति के बारे में कुछ खास नहीं बताता लेकिन एल्डरों के बारे में जो जानकारी मौजूद है, उसके मुताबिक अपनी चित्त वृत्तियों पर नियंत्रण के लिए वे ईसा के भजन गाते रहते हैं.
ज्यादा बड़ी बात यह है कि किताब में जोसिमा को एक परंपरा के प्रतिनिधि की तरह नहीं, एक सामान्य व्यक्ति की तरह प्रस्तुत किया गया है, जिसके नीचे जाने और ऊपर उठने की एक कहानी है. वे करुणा में यकीन रखते हैं. मानते हैं कि जीवन में कोई अर्थ इसी से पैदा हो सकता है. चर्च के कर्मकांड का हिस्सा जरूरी होने पर ही बनते हैं. लोगों के दुखों के साथ गहराई से जुड़े रहते हैं और असाध्य स्थितियों में लोग उनसे चमत्कार की उम्मीद करते हैं.
रूस में ऑर्थोडॉक्स चर्च की मुख्यधारा एल्डरों को एक पराई, संदेहास्पद परंपरा के अंग की तरह देखती आई है. मौजूदा तुर्की के पूर्वी दक्षिणी इलाके से शुरू हुई इस परंपरा में अभी तक कुछ गिने-चुने लोग ही हुए हैं. ज्यादातर ग्रीस और रूस में. इनकी गिनती संतों में नहीं होती, फिर भी पूर्वी ईसाइयत को मानने वाले बुजुर्गों की जुबान पर इनकी सूची महासिद्धों या सूफी सिलसिलों की तरह ही मौजूद होती है. अनातोलिया के जिस इलाके से एल्डर परंपरा की शुरुआत हुई थी, बाद में उसे तुर्की के सूफिज्म में रक्स करने (नाचने) वाले सूफियों के ‘मौलवी तरीके’ के लिए जाना गया. इसके संस्थापक, मौजूदा अफगानिस्तान के बल्ख शहर में जन्मे फारसी के महान शायर, मौलाना रूमी से जोड़कर इसे देखा जाता जाता है. एल्डर परंपरा अभी सिर्फ रूस में बची हुई है. ग्रीस में भी यह खत्म हो चुकी है.
ब्रदर्स करमाजोव में हम फादर जोसिमा और अल्योशा के बीच किसी सूफी सिलसिले जैसा ही एक सिलसिला बनते देखते हैं. ऐसा सिलसिला, जो दरवेश से दरवेश तक जाने के बजाय संन्यासी से संभावित गृहस्थ तक पहुँचता है. आगे हम इस कहानी के विकास क्रम में ही इस सिलसिले का बनना देखेंगे, लेकिन अभी जोसिमा का अपना किस्सा.
फ़ौजी से पादरी बनना
अल्योशा की डायरी में दर्ज जीवन वृत्त से ही हमें पता चलता है कि फादर जोसिमा अपनी जवानी में एक बहुत उद्दंड फौजी अफसर हुआ करते थे. इस मामले में उनका भावबोध काफी कुछ करमाजोव खानदान के बड़े बेटे मीत्या से मिलता-जुलता था, जो अपनी रौ में बहते-बहते किसी और ही किनारे पर पहुँच गया. फर्क सिर्फ एक कि जोसिमा का एक बड़ा भाई भी था, जिसकी मृत्यु उनके छुटपन में ही हो गई थी. जीवन को लेकर भाई के प्रेक्षण, धरती पर गुजारे गए हर पल के लिए, यहाँ मौजूद हर प्राणी, हर दृश्य के लिए उसके दिल से निकले हुए शुक्रिया के शब्द जोसिमा के मन पर कहीं बहुत गहराई में छपे रह गए थे और अर्से बाद फैसले के एक क्षण में उन्होंने अपना असर दिखा दिया.
एक शहर में अपनी पोस्टिंग के दौरान नौजवान जोसिमा का एक संभ्रांत परिवार में आना-जाना था. वहाँ एक लड़की के प्रति वे बहुत आकर्षित हो गए और यह मानकर चल रहे थे कि यह रिश्ता दूर तक जाएगा. लेकिन लड़की न केवल एक सीनियर फौजी अफसर की वाग्दत्ता थी बल्कि उससे प्रेम भी करती थी. इस अधिकारी का वहाँ काफी आना-जाना था लेकिन जोसिमा ने उसपर कभी ध्यान ही नहीं दिया और मन ही मन रिश्ते को अपने तक सीमित मानते रहे. जिस दिन लड़की और उस अधिकारी के विवाह की घोषणा हुई, जोसिमा जैसे आसमान से गिरे और कुंठा में बात-बात पर अपने इस सीनियर का अपमान करने लगे. बात यहाँ तक पहुँच गई कि उसे द्वंद्वयुद्ध की घोषणा करनी पड़ी और नियत दिन-समय पर दस कदम की दूरी से एक-दूसरे पर गोली चलाने का फैसला हो गया.
इसके अगले दिन एक ऐसी घटना घटी, जिसने जोसिमा के जीवन की दिशा बदल दी. बतौर अफसर उन्हें मिला हुआ अर्दली, जो दुनिया में हर जगह एक सिपाही ही हुआ करता है, उनके जूते साफ करके ले आया और सिर्फ एक भीतरी चिढ़ में आकर जोसिमा ने उसके मुंह पर दो घूंसे जमा दिए. घूंसे खाकर अर्दली किसी मूरत की तरह खड़ा रहा, मुंह से गिर रहा खून पोंछने के लिए हथेली तक नहीं उठाई. जोसिमा ने उसे जाने का हुक्म दिया और पश्चात्ताप की आग में जलने लगे. एक इंसान, जो हर मामले में उन्हीं जैसा है, उन्हीं की तरह रूसी फौज का एक सिपाही है, बिना किसी गलती के अपने से काफी कम उम्र वाले एक लड़के से मार खाने के बाद अपना खून तक नहीं पोंछता. कैसे खांचों में बंटी जिंदगी है, और कैसा यह आदमी है जो कल शाम मरने या बेवजह किसी को मारने जा रहा है.
अगले दिन पिस्तौलें रवां करने की कवायद के बाद जोसिमा अपने एक साथी के साथ द्वंद्वयुद्ध की जगह के लिए निकल रहा है, तभी उससे एक जरूरी काम के लिए बोलकर अपने क्वार्टर में वापस लौटता है. वहाँ अर्दली को बुलाकर, उसके सामने झुककर उससे माफी माँगता है. अर्दली की समझ में कुछ भी नहीं आता, बस इतना उसे जरूर लग जाता है कि नौजवान अफसर अपनी क्षमायाचना में गंभीर है. खैर, द्वंद्वयुद्ध शुरू होता है. टॉस के बाद पहली गोली चलाने की बारी सीनियर की आती है, जिसका निशाना मामूली अंतर से चूक जाता है. इसके बाद जोसिमा को गोली चलानी है, लेकिन वह मना कर देता है. दोनों के साथ आए एक-एक व्यक्ति जोसिमा के इस फैसले से चकित हैं कि यह तो पागलपन है, लेकिन वह गोली का सामना कर चुका है सो उसे कायर नहीं कहते.
इस घटना की चर्चा पूरे शहर में फैल जाती है लेकिन कमाल तब होता है, जब शहर का एक बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति जोसिमा से अकेले में मिलकर काफी घुमा-फिराकर बातें करने के बाद उसके सामने यह कबूल करता है कि पंद्रह साल पहले उसने एक व्यक्ति की हत्या इतनी सफाई से की थी कि उसपर आरोप का एक छींटा तक नहीं आ सका था. फिर जोसिमा से पूछता है कि उसको यह बात बताकर उसके मन का बोझ तो हल्का हो गया है, लेकिन क्या उसको इसे सार्वजनिक भी कर देना चाहिए. जोसिमा न केवल उसे ऐसा करने की सलाह देता है, बल्कि ऐसे सारे संभावित सबूत भी सामने लाने को कहता है, जो उसे सजा दिलाने में सहायक हो सकें. यहाँ पहुँचकर आदमी हिल जाता है कि उसका घर-परिवार तबाह हो जाएगा, बच्चों का जीवन नष्ट हो जाएगा. मुझे फिलहाल ध्यान नहीं आ रहा कि यह अंधी सुरंग उसे कहाँले जाती है. शायद सारी सच्चाइयां उजागर कर देने के बाद वह आत्मघात कर लेता है.
पादरी के आगे अपने गुनाह कबूल करना, कन्फेशन करना ईसाइयत की एक अच्छी प्रथा है. इसके लिए कन्फेशन सुनने वालों को आस्था का एक लंबा रास्ता पार करना होता है. लेकिन यहाँ मामला उलटा है. यहाँ एक कन्फेशन पहले ही काफी बड़े बदलाव से गुजर चुके एक फौजी को पूरी तरह से अपना रास्ता बदलकर पादरी बनने की ओर ले जाता है. आगे इस रास्ते का ही कोई और मोड़ उसे एल्डर बनने के और भी कठिन रास्ते पर लेता गया होगा.
मौत, बदनामी और बदलाव
करमाजोव ब्रदर्स की कहानी में फादर जोसिमा की सीधे तौर पर कोई भूमिका नहीं है. उनका ज़िक्र किए बगैर भी इस कहानी के सारे ब्यौरे किसी को सुनाए जा सकते हैं. इस उपन्यास का एक परिचय ‘क्राइम थ्रिलर’ के रूप में भी दिया जाता रहा है और इसका संक्षेपीकरण अगर इस रूप में करना हो तो फादर जोसिमा के चरित्र को इसमें से साफ हटाया जा सकता है. इसी तरह बीच वाले भाई इवान से जुड़े दो-तीन लंबे ब्यौरे भी हटाए जा सकते हैं. इनमें एक में वह ईश्वर की जरूरत को इस आधार पर खारिज करता है कि जिस दुनिया में छोटे बच्चों को असहनीय यातनाएँ झेलने पर मजबूर किया जा सकता हो, वह किसी दयालु संस्था की बनाई हुई हो ही नहीं सकती. दूसरी जगह, उसकी एक कविता में आया इनक्विजिटर (धार्मिक न्यायाधीश) अपनी दलीलों से ईसा मसीह को दुनिया से गायब हो जाने पर मजबूर कर देता है. और तीसरा वह, जहाँशैतान से उसकी लंबी बातचीत चलती है और पाठक को एकबारगी यकीन होने लगता है कि अभी की दुनिया शैतान ने बनाई है और यह उसी के चलाए चल रही है.
लेकिन ये चीजें ही ब्रदर्स करमाजोव को एक असाधारण, बल्कि अमर रचना बनाती हैं और बीच में ही दृश्य से गायब हो जाने के बावजूद फादर जोसिमा की उपस्थिति इसमें शुरू से अंत तक एक मानवीय प्रति-तर्क की तरह बनी रहती है. जिस मीत्या को इस किताब के अंत में अपने पिता की हत्या के जुर्म में आजीवन कैद की सजा मिलती है, उससे पहली ही मुलाकात में फादर जोसिमा एक भी शब्द बोले बगैर हाथ जोड़कर उसके आगे लेट जाते हैं. इससे प्रकट रूप में मीत्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. उसके आवेग जिधर भी उसे ले जाते हैं, वह जाता है. लेकिन जब वाकई हत्या का मौका आता है तो वह भाग जाता है. हत्या की सजा से बचने के लिए कोई मजबूत तर्क उसके पास भले न हो, लेकिन हत्यारा वह नहीं, कोई और है. वह, जिसका जोसिमा से कोई संवाद नहीं है, और जिसके पास हत्या की ज्यादा बड़ी और ठोस निजी वजहें हैं, और हत्या के दार्शनिक तर्क जिसे इवान ने बिना इरादे के दे दिए हैं.
यह व्यक्ति है फ्योदोर करमाजोव का चौथा और अघोषित बेटा स्मेर्द्याकोव, जिसके मन की कोई थाह दर्शन और मनोविज्ञान के दोधारे पर दौड़ती इस रचना में भी नहीं मिलती. स्मेर्द्याकोव रूसी नाम प्रणाली में किसी व्यक्ति का कुलनाम नहीं हो सकता, क्योंकि इसकी मूल धातु बदबू है. एक पागल बेसहारा लड़की शहर में घूमती रहती थी. एक दिन वह गर्भवती पाई गई और करमाजोव के बंगले की एक बाहरी कोठरी में रहने लगी. पूरे शहर का मानना था कि यह कृत्य फ्योदोर करमाजोव के अलावा किसी और का नहीं हो सकता. बच्चे को जन्म देने के बाद वह मर गई. बच्चा करमाजोव परिवार के नौकर ग्रिगोरी के घर में पला, उसकी बुनियादी पढ़ाई और रसोइए के तौर पर उसकी ट्रेनिंग का खर्चा फ्योदोर करमाजोव ने भरा और फिर बंगले में खानसामे की नौकरी पर रख लिया. ऐसा व्यक्ति जैसे अपने संभावित पिता और पालक का फर्माबरदार हो सकता था, वैसे ही उसकी जान भी ले सकता था.
स्मेर्द्याकोव के जरिये दसतायेव्स्की यह बताते हैं कि यह व्यवस्था मानवजाति के जितने बड़े हिस्से को उच्छिष्ट की तरह छोड़ती आ रही है, वह इसे कभी भी तबाह कर सकता है और उसके लिए किसी भी दार्शनिक बहस का कोई मतलब नहीं है. लेकिन कड़वाहट और निषेध की प्रवृत्ति उसके अंदर स्वभावतः इतनी ज्यादा है कि एक विचार के रूप में वह आत्मघाती है. एक अलग दुनिया बनाने की तो बात ही दूर, खुद को संभालना भी उसके बूते से बाहर है.
करमाजोव बाप-बेटे की पंचायत, जिसका ज़िक्र ऊपर आया है और मीत्या के आगे फादर जोसिमा का लेट जाना जिसका एक हिस्सा है, इस एल्डर के दिन नहीं, घंटे गिने जाने की शुरुआत है. इसके थोड़े ही समय बाद जोसिमा की मृत्यु होती है और बहुत जल्दी लाश से बदबू आने लगती है. ईसाइयत में, खासकर पूर्वी ईसाइयत में ऐसी धारणा है कि पुण्यात्मा लोग, खासकर पहुंचे हुए पादरी मरने के बाद जल्दी सड़ते नहीं, बल्कि उनके शव से एक प्रकार की सुगंध निकलने लगती है. इसके ठीक उलट फादर जोशिमा के मरते ही उनसे असहनीय दुर्गंध उठना पूरे शहर के लिए बहुत बड़े स्कैंडल का सबब बन जाता है. और तो और, उन्हें अपने लिए आदर्श और पूज्य समझने वाले अल्योशा करमाजोव के लिए भी यह किसी झटके जैसा है. उसी दिन वह मठवासी चोगा उतार देता है और अपने एक दोस्त के साथ उस महिला से मिलने चला जाता है, जिसके लिए उसके बाप-भाई एक-दूजे के गले पर सवार हैं.
जो स्त्रियाँ कहानी की धुरी हैं
पचीस-छब्बीस साल की उम्र वाली यह महिला ग्रूशेंका यकीनन बहुत सुंदर है और कहानी के बाकी पात्रों की तुलना में एक गहरी व्यावहारिक बुद्धि भी उसमें दिखाई देती है, लेकिन उसकी स्थिति लगभग नगरवधू जैसी हो चुकी है और कथा-समय के रूसी समाज में बमुश्किल हाशिये पर ही उसके लिए कोई जगह बनाई जा सकती थी. उसकी कहानी यह है कि उस दौर में रूस का उपनिवेश रहे पोलैंड का मूलनिवासी कोई फौजी अफसर उससे प्रेम करता था. पांच साल पहले उससे मिलने के लिए, उसके साथ ही कहीं चली जाने के लिए वह चोरी-छुपे अपने घर से निकली और छावनी पहुंची तो पता चला कि अफसर का तबादला कहीं और हो चुका है. कुछ दिन इंतजार में गुजरे लेकिन प्रेमी की ओर से कोई संदेश नहीं आया तो उसकी हालत यह हो गई कि न आगे जा सकती थी न पीछे लौट सकती थी. इस खतरनाक मुकाम पर एक उम्रदार व्यापारी ने उसे सहारा दिया. उसे वहाँ से लिवाकर अपने शहर, करमाजोवों के शहर लाया. एक बढ़िया मकान रहने को दिया. व्यापार के तरीके सिखाए. सोसाइटी गर्ल बना दिया.
करमाजोव ब्रदर्स की कहानी जहाँ शुरू हो रही है, वहाँ ग्रूशेंका का मिलना-जुलना शहर के तमाम रईसों के साथ है. उसे शहर में लाने वाला व्यापारी बीमार है. चाहता है कि उसके जिंदा रहते उसपर और उसके परिवार पर ग्रूशेंका की निर्भरता पूरी तरह खत्म हो जाए. ऐसे में जब उसे पता चलता है कि फ्योदोर करमाजोव ही नहीं, फौज छोड़कर आया उसका झगड़ालू बड़ा बेटा भी ग्रूशेंका का दीवाना है तो सारा हिसाब लगाकर वह महिला को सलाह देता है कि लड़का तो कड़का है, दोनों में किसी एक को चुनना हो तो वह बाप को ही चुने. रोमाँस यूं भी ग्रूशेंका के लिए दूर की चीज हो चुका है, लेकिन दुविधा के अलावा एक वजह और है जिसके लिए वह मीत्या को उलझाए रखना चाहती है.
मीत्या की मंगनी कैटरीना नाम की एक लड़की से हो चुकी है, जिसकी एक बड़ी टेढ़ी सी कहानी है. एक सीनियर फौजी अफसर उसके पिता के साथ कुछ बेनामी कारोबार में उतरा हुआ था. एक बिंदु ऐसा आया जब अफसर अपना नाम बचाने के लिए कारोबार से साफ मुकर गया और खबर आई कि व्यापारी 4000 रूबल हाथ के हाथ जमा करे वरना जेल जाए. संयोगवश, मीत्या के पिता ने इसके थोड़ा ही पहले 6000 रूबल उसके पास भेजकर उससे हिसाब बराबर कर लिया था. मीत्या को किसी तरह घटनाक्रम की जानकारी थोड़ा पहले हो गई थी और उसने व्यापारी की बड़ी बेटी के पास संदेश भेजा कि वह अपने पिता को बचाना चाहे तो छोटी बहन को उसके पास भेजकर पैसे मंगवा ले. एक इज्जतदार परिवार के लिए यह डूब मरने की बात थी. पिता को पता चला तो शर्म से घुलते-घुलते वह मर ही गया. लेकिन मीत्या से पैसे कैटरीना वक्त पर लेती आई थी सो उसे जेल नहीं जाना पड़ा.
जिस लड़की के सामने ऐसी शर्त रख दी गई हो, उसका शर्त रखने वाले से कोई दिल का रिश्ता तो नहीं बन सकता था. लेकिन ऐसी बातें छिपतीं भी नहीं, लिहाजा एक सुरक्षित उपाय के रूप में उसने मीत्या के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे शुरुआती हिचक के बाद उसने मान भी लिया. लेकिन जल्द ही उसे लग गया कि इस रिश्ते में आगे बढ़ना एक अंतहीन यातना में पांव धरने जैसा होगा. इससे निकलने की छटपटाहट में ही ग्रूशेंका से उसकी मुलाकात हुई और उसे वह दिल दे बैठा. जैसे ही यह किस्सा कैटरीना तक पहुंचा, उसने ग्रूशेंका को मिलने का न्यौता भेजा और अल्योशा के सामने ही उसे उससे बहनापे का दिखावा करते हुए ‘गिरी हुई, फिर भी गरिमावान’ स्त्री की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास किया. जवाब में ग्रूशेंका ने अपनी तीखी जुबान से वहीं के वहीं उसकी सात पुश्तें तार दीं. मीत्या से खास लगाव न रहा हो तो भी कैटरीना से खुन्नस निकालने के लिए उसे भरमाए रखना जरूरी था.
कुलीनों से हिसाब बराबर करने के एक पहलू के रूप में ही ग्रूशेंका ने फर्जी आदर्शवाद दिखाने वाले एक नौजवान को पैसे देकर करमाजोव परिवार के सबसे छोटे सदस्य अल्योशा करमाजोव को अपने यहाँ बुलवाया था, जो मठ में रहता था और मठवासियों वाला चोगा पहनता था. लेकिन जैसा ऊपर कहा जा चुका है, अल्योशा उसके यहाँ चोगे के बगैर पहुंचा और बताया कि उसका मठवासी होना फादर जोसिमा के जिंदा रहने तक ही सीमित था. दुनिया में आगे का रास्ता वह एक सामान्य व्यक्ति की तरह खुद ही खोजेगा. उस थोड़ी देर की बातचीत में ही अल्योशा और ग्रूशेंका की गहरी छनने लगती है और वह उसे बता देती है कि जिस फौजी के पीछे वह अपने घर से निकली थी, जिसकी बेवफाई की हतक में पिछले पांच साल उसने रो-रोकर काटे, वह आ रहा है और कल ही वह उससे मिलने जाएगी.
कहानी की तीसरी लड़की लिजा है. बमुश्किल सोलह-सत्रह साल की अल्हड़ किशोरी. छोटे करमाजोव की दीवानी और अल्योशा को उससे मिलने न भेजने के लिए फादर जोसिमा को भी लताड़ लगा आने वाली. लेकिन उस लड़की का कुलनाम खोख्लाखोव है और उसकी माँ का रहन-सहन, सोच-विचार रूसी कुलीनों के खोखलेपन का जिंदा सबूत है. कहानी की दिशा कुछ ऐसी है कि हर पल लगता रहता है, अल्योशा के चोगा उतारते ही लिजा उससे शादी कर लेगी. लेकिन पता नहीं क्या जादू होता है कि वह मंझले करमाजोव इवान के दुर्निवार आकर्षण में बंध जाती है.
अल्योशा का रास्ता
इवान का जादू दुनिया को निष्प्रयोजन मानते वाले उसके विचारों के आकर्षण से निकलता है, जिसके एक छोर पर लिजा और दूसरे पर कैटरीना बंधी हुई हैं. उसके दोनों भाइयों को अपना गंतव्य मानने वाली स्त्रियां उससे प्रेम करने लगी हैं. लेकिन खुद इवान एक अवश्यंभावी पागलपन की तरफ बढ़ रहा है. उसे यह लगने लगा है कि जिस जुर्म में मीत्या की जिंदगी तबाह होने जा रही है, वह उसने नहीं किसी और ने किया है, और जिसने भी किया है, उसके कहने पर किया है. इसी द्वंद्व में उसकी बात अल्योशा से होती है तो वह जैसे ही कहता है कि मीत्या ने पापा को नहीं मारा, इवान उसे घुड़कने लगता है कि फिर किसने मारा? जवाब में अल्योशा पूरी गंभीरता से कहता है कि ‘मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूं कि पापा को तुमने नहीं मारा.’ इसमें दार्शनिक अपराधबोध से भी मुक्ति का एक पहलू मौजूद है.
एक नजर में इस उपन्यास के वैचारिक और व्यावहारिक खलनायक इवान और स्मेर्द्याकोव ही जान पड़ते हैं, लेकिन उनकी तर्कपद्धति में कोई आंतरिक त्रुटि नहीं है. दुनिया को न्यायपूर्ण मानकर इसमें नैतिकता का संधान उनके लिए असंभव है. इसके उलट, अल्योशा की कोशिश ऊसरों में भी उम्मीद के बीज बोने की है, हालांकि सफल यह सिर्फ एक जगह होती है, जिसका कहानी से कोई सीधा जुड़ाव नहीं है. स्कूली बच्चों के एक ग्रुप में एक-दूसरे के प्रति जीवन भर का जुड़ाव पैदा करने में. उनके एक मर रहे साथी को अपनी आखिरी सांस उम्मीद के साथ लेने देने में.
लोगों में एक-दूसरे को लेकर, जिंदगी को लेकर, प्रकृति, मनुष्य और बाकी जीवों के बीच आपसी तारतम्य को लेकर लगाव पैदा करने का जोसिमा का सफर अल्योशा की शक्ल में जारी है, यह जानने के लिए अलग से कोई प्रयास नही करना पड़ता. लेकिन इस रास्ते की कठिनाइयां इतनी ज्यादा हैं कि उपन्यास पढ़ते हुए इससे ध्यान हट जाता है. यह गहरे आस्थाभाव से लिखा हुआ उपन्यास है, लेकिन दसतायेव्स्की खुद एक क्रांतिकारी थे. खटका खींचने से ठीक पहले फाँसी के तख्ते से उठकर आए थे. क्रांति के विचार में दूर तक उनकी गति थी और एक स्तर पर हर चीज को खारिज करने वाले इसके रुझान से जुड़े खतरे भी उन्हें पता थे. उनके ‘ईडियट’ का हीरो मीश्किन तर्क और बुद्धि की दुनिया में कुछ समय बिता लेने के बाद फिर से ईडियट बन जाता है, लेकिन ब्रदर्स करमाजोव में अल्योशा के चरित्र से यह गूंज निकलती है कि काफी कुछ बदल देने के बाद भी अंतिम लड़ाई एक-दूसरे को समझने की ही होनी है.
गुरु-शिष्य परंपरा पर वापस लौटें तो उन्नीसवीं सदी में अपने यहाँ रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की जोड़ी में विभिन्न आस्थाओं और विविधता के सभी आयामों को नज़दीक से देखने, सतह से नीचे जाकर उनके बीच एकता की प्रवृत्ति खोजने और संवाद के जरिए आपसी समझदारी बनाने की एक वैचारिक यात्रा हमें दिखाई देती है. फादर जोसिमा और अल्योशा करमाजोव की यात्रा निश्चित रूप से उनसे बहुत अलग है लेकिन दोनों जोड़े एक-दूसरे से इतने अलग भी नहीं हैं कि उनमें कुछ साझा न दिखे. अतीत में हजरत निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो में संत के किसी घोषित प्रयास के बिना ही एक गृहस्थ कवि के अलग पैमाने पर चले जाने का किस्सा हमें सुनाई देता है. ऐसे दूरगामी संवाद की जरूरत अभी के दौर में दुनिया को बिल्कुल नहीं रह गई है, ऐसा कौन कह सकता है.
चंद्रभूषण शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’ प्रेस में. पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’ प्रकाशनाधीन. भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर पुस्तक ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ सेतु से प्रकाशित. |
शोधपरक, पठनीय और सुन्दर आलेख।
यह बहुत सारपूर्ण और विचारोत्तेजक है।
सारगर्भित आलेख।