अकथ कहानी अरुण जी |
हिंदी के जाने-माने लेखक प्रेमकुमार मणि की नयी रचना, अकथ कहानी, उनकी आत्मकथा है, जो समकाल के एक नए अनुभव लोक से हमारा परिचय कराती है. 2023 में वाणी प्रकाशन से छपी उनकी यह पुस्तक हिंदी आत्मकथा साहित्य का एक नया गवाक्ष है, जो एक व्यक्ति और उसके समय से हमारा आत्मीय साक्षात्कार कराती है. प्रचलित अर्थों में इसे केवल आत्मकथा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि यह केवल उनकी अपनी कहानी नहीं, बल्कि उत्तर भारतीय समाज, राजनीति और साहित्य में लगभग पचास वर्षों के दौरान हुए बदलाव का चित्रण व उसका लेखा-जोखा है. फ़लक, संरचना, शैली एवं सामाजिक सरोकार इन सभी पहलुओं पर मणि की ये पुस्तक हिन्दी आत्मकथा लेखन का नया प्रतिमान गढ़ती है.
हिंदी समाज में आत्मकथाओं का इतिहास न बहुत समृद्ध है, न ही बहुत प्राचीन. खोज करने पर पाते हैं पहली आत्मकथा है बनारसी दास जैन की[1] अर्धकथानक जिसे उन्होंने 1641 में लिखा था. उसके दो सौ वर्षों बाद अवधी भाषा में छपी सूबेदार सीताराम पांडे की आत्मकथा, जो ब्रिटिश दौर के भारतीय सिपाहियों की वास्तविक एवं दर्दनाक दास्ताँ हमारे सामने रखता है और बाद के वर्षों में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज बन जाता है.[2] हालांकि हिंदी साहित्य जगत में इसकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई है.
दुनिया की हरेक ज़ुबान में आत्मकथा लेखन का एक अपना इतिहास है. संत ऑगस्टिन की 397 से 400 ईस्वी के बीच लिखी गई कन्फ़ेशन्स यूरोपीय साहित्य की पहली आत्मकथा[3] मानी जाती है. कुछ विद्वान इसे पश्चिमी साहित्य की सर्वोत्तम कृतियों में से एक मानते हैं.[4] इसमें ऑगस्टिन अपने जवानी के दिनों में यौन से जुड़ी अपनी ‘अनैतिक’ गतिविधियों पर पश्चाताप करते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने क्रिश्चियन धर्म अपनाया. बनारसी दास जैन की अर्धकथानक भी इसी तरह उनके जैन धर्म को अपनाने की कहानी है. इसमें एक उच्छृंखल युवक के जीवन में आध्यात्मिक बदलाव का सुन्दर चित्रण है. इन दोनों रचनाओं में लेखकों ने अपने व्यक्तिगत जीवन की सच्चाइयों के अलावा अपने-अपने समय को भी दर्ज किया है. संत ऑगस्टिन की आत्मकथा में अगर चौथी सदी के यूरोप का जिक्र है तो बनारसी दास की आत्मकथा में सत्रहवीं शताब्दी सदी के मुग़ल काल का वर्णन.[5]
संत ऑगस्टिन के बाद लिखी गई आत्मकथाओं में एक प्रसिद्ध नाम महान क्रांतिकारी दार्शनिक ज्यां जैक रूसो (1712 – 1778) की आत्मकथा का है जिसका शीर्षक भी कन्फ़ेशन्स है. वैसे तो यह भी रूसो के आध्यात्मिक विकास की कहानी है, पर प्रचलित अर्थों में नहीं. इसमें उन्होंने अपने पिछले जीवन के सांसारिक अनुभवों को खुलकर रखा है. इस आत्मकथा का उद्देश्य आत्मावलोकन एवं आत्मचिंतन प्रतीत होता है. पर किसी धर्म या स्थापित विचारधारा के प्रभाव में नहीं. रूसो की इस कृति का गेटे, स्टेनथेल, वर्ड्सवर्थ और बायरन जैसे रचनाकारों पर गहरा प्रभाव पड़ा.[6]
बीसवीं सदी में कई जानी-मानी हस्तियों ने इस विधा को अपने लेखन से समृद्ध किया. राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दो बड़े नायकों महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथाओं का अपना स्थान तो है लेकिन दुर्भाग्यवश उनका साहित्यिक मूल्यांकन कम हुआ. गांधी की आत्मकथा गुजराती में लिखी गई, जब कि नेहरू की अंग्रेजी में. भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा हिंदी में लिखी गई. उस दौर में अन्य अनेक नेताओं ने आत्मकथाएं लिखीं, जो उस दौर का जीवंत साक्ष्य हैं. भारतीय साहित्य में आत्मकथा लेखकों की एक लम्बी फेहरिस्त के बावजूद आत्मकथा का विस्तार एवं उसके विविध रूप हमें बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से ही देखने को मिलता है. इस मायने में मराठी आत्मकथा हिंदी से आगे रही है. उसमें दलित आत्मकथाएं पहले से ही लिखी जा रही थीं.[7] सत्तर के दशक के मराठी आत्मकथा लेखकों में सोनकांबले, दया पवार, लक्ष्मण माने, कुमुद पांवड़े कुछ महत्वपूर्ण नाम हैं. इनमें ज्यादातर के हिंदी अनुवाद उन्नीस सौ अस्सी के दशक में हुए, जिसका प्रभाव हिंदी आत्मकथा लेखन पर पड़ा. कवि हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा क्या भूलूँ क्या याद करूँ को हिंदी साहित्य में उस तरह महत्त्व नहीं मिला, जिसकी वह अधिकारी थी; लेकिन उन्नीस सौ अस्सी-नब्बे के दशक से हिंदी में दलित लेखकों की आत्मकथाओं को नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया. इसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन (1997), सूरजपाल चौहान की तिरस्कृत (2002), तुलसीराम की मुर्दहिया (2010) जैसे कुछ चर्चित नाम हैं.
महिला आत्मकथाओं की शुरुआत काफी बाद में हुई. सत्तर के दशक में कमला दास की माई स्टोरी (मलयालम) और अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट (पंजाबी) ने इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभाई. आने वाले वर्षों में उनका प्रभाव हिंदी के महिला लेखकों पर पड़ा. महिला आत्मकथाओं में मैत्रेयी पुष्पा की कंस्तूरी कुंडलि बसै (2002) प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या (2007), रमणिका गुप्ता की हादसे (2005), सुशीला राय की एक अनपढ़ कहानी (2005), मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी (2007) कुछ महत्वपूर्ण नाम हैं. इन आत्मकथाओं में महिला लेखकों ने एक ओर अगर अपने आत्मसंघर्ष को व्यक्त किया है तो दूसरी ओर उन महिलाओं की पीड़ा को दर्ज किया है जो अपने ऊपर हो रही ज्यादतियों को चुपचाप सहती हैं.[8]
प्रेमकुमार मणि की अकथ कहानी आत्मकथाओं की इस समग्र श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है. 21वीं सदी के तीसरे दशक के आरम्भ में यह प्रकाशित होती है और पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है. यह एक ऐसे लेखक की कहानी है, जो स्वयं कथालेखक के रूप में स्थापित तो रहा ही है, एक नागरिक, बुद्धिजीवी और सामाजिक-राजनीतिक एक्टिविस्ट के रूप में भी सक्रिय रहा है. जिसने अपने संघर्षमय जीवन में सिद्धान्तों से कोई अनुचित समझौता नहीं किया. नौकरियां छोड़ी, राजनीतिक अवसरों का त्याग किया पर लेखन और अपने जीवन मूल्यों के साथ निरंतर जुड़े रहे. साहित्य के साथ समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर खुलकर लिखते रहे.
जैसा कि इस पुस्तक के प्राक्कथन में लेखक ने बताया है कि जब उसके जीवन के साठ साल पूरे होने वाले थे और वह एक पहाड़ी स्टेशन देहरादून में बरसात की छुट्टियां बिता रहा था, तब उसके मन में अपनी जीवनकथा लिखने का विचार आया. उसने लगभग डेढ़ महीने में इसे पूरा कर लिया. स्वाभाविक है पाठक यह जानना चाहेंगे कि मणि ने अपने साठ साल की जिंदगी को कैसे प्रस्तुत किया है? कौन सी ऐसी बातें थीं जिन्होंने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा है? अपने समय, काल और उनसे जुड़े किरदारों को वे किस नज़रिए से देखते हैं?
आरम्भ उनके जन्म, घर-परिवार और बचपन के वर्णन से होता है. शैली ऐसी मानो अत्यंत सहजता से कोई साक्षात्कार दे रहे हों. लेखक एक सामान्य किसान परिवार से आता है, जिसके खानदान का कोई ऐसा इतिहास नहीं था, जिसे शानदार कहा जा सके. 1950 के दशक में बिहारी समाज में ऐसे माता-पिता के घर जन्म लेना जिन्होंने जाति एवं अनेक तरह की रूढ़ियों से विद्रोह कर साथ रहना तय किया था, सहज नहीं था. यह अपनी तरह का एक सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष था, जिसमें तकलीफों की गुंजाइश अधिक थी. इस पूरे संघर्ष को संक्षेप में किन्तु ईमानदारी के साथ लेखक ने रखने की कोशिश की है. इससे उन मनःस्थितियों का पता चलता है, जिसमें बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश के गाँव उस दौर में जी रहे थे.
मणि का जन्मवर्ष 1953 है. मुल्क को राजनीतिक आजादी हासिल किए अभी कुछ ही साल बीते थे. 1952 में संसदीय शासन-प्रणाली का आरम्भ हुआ था. सामाजिक-राजनीतिक चेतना का जो स्वरूप उस दौर में होगा उसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल नहीं है. लगभग उसी समय बिहार के एक लब्धप्रतिष्ठित लेखक फणीश्वरनाथ रेणु कालजयी उपन्यास मैला आँचल लिख रहे थे. यह उपन्यास जात-पात से घिरे एक गाँव की कहानी है, जिसका मुख्य पात्र, डॉ प्रशांत, सामाजिक जीवन में नये प्रयोग कर रहा है. गाँव में अशिक्षा है, गरीबी है और हजार तरह के संकट हैं, लेकिन समग्र मुक्ति केलिए एक छटपटाहट भी है, जिसका आकलन कोई संवेदनशील व्यक्ति ही कर सकता है. और जिसे समझना उस दौर और ज़माने को समझना है.
मणि के माता-पिता की शादी भी उस समय के लिए एक क्रान्तिकारी घटना रही होगी. राजनीतिक पिता और शिक्षिका माँ के साथ रहने के अपने अनुभव थे. उन्हें अपने पारंपरिक घर को छोड़ एक नये गांव में बसना पड़ा. बचपन में मणि को अपनी पहचान से जुड़े सवालों का सामना करना पड़ा था, जिसका जीवंत और कहें मार्मिक चित्रण आत्मकथाकार ने किया है. नये गांव के बच्चे उन्हें ‘बायली’ कहकर चिढ़ाते थे. वह सोचते:
अपना गांव नहीं, घर नहीं, जाति-समाज नहीं. कौन हैं हम?[9]
एक व्यक्ति की जाति, धर्म, व राष्ट्र से जुड़े उसके वजूद पर उन्होंने पुस्तक में विस्तार से चर्चा की है.बचपन की एक और घटना उस समय की है जब वे छठी या सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे. उनके माता-पिता आर्थिक कमी से जूझ रहे थे. वे मणि की पढ़ाई के लिए स्कूल फीस भरने में असमर्थ थे. दंड के डर से मणि स्कूल से फरार रहने लगे. इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि पिता को जब मालूम हुआ तो उन्होंने मुझसे पूछा:
क्या मैं सचमुच स्कूल छोड़ता हूं. मैंने हाँ में सिर हिलाया. वे कुछ नहीं बोले. उनकी आंखें भर गयीं. रुलाई भरे गले के बीच मुश्किल से उनकी आवाज़ सुनाई पड़ी — ‘तुमने मेरी ग़रीबी का मज़ाक उड़ाया.’[10]
इस बात का उनके ऊपर इतना गहरा असर हुआ कि वे आगे फिर कभी स्कूल से फरार नहीं हुए. इस पूरे प्रकरण में आखिर दोष किसका था? स्कूल से फरार होने वाले बच्चे का, फीस नहीं जमा करने वाले उसके पिता का या राज्य की शिक्षा नीति का? मणि इस सम्बन्ध में कोई उत्तर नहीं देते. वे उस वक्त के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की शिक्षा नीति के महत्व को रेखांकित कर पाठकों को उत्तर ढूंढने में मदद करते हैं. कर्पूरी ठाकुर ने 1967 में उपमुख्यमंत्री बनने के बाद सातवीं कक्षा तक और 1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद दसवीं कक्षा तक के स्कूल फीस को माफ कर दिया था. यह बिहार की उस विशाल जनसंख्या के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था जिसकी स्कूली पढ़ाई फीस के अभाव में छूट जाती थी.
बचपन में ही प्रेमकुमार मणि के अन्दर लोकतांत्रिक मूल्यों के बीज पड़ पड़ गए थे. इस के पल्लवित एवं पुष्पित होने में उनके माता-पिता, स्कूल एवं गुरु जगदीश कश्यप की भूमिका अहम् थी. स्कूल के मैगज़ीन में कार्ल मार्क्स के ऊपर छपा उनका लेख उनके बौद्धिक विकास की यात्रा की शुरुआत थी. इस लेख के माध्यम से गांव-जवार के बुद्धिजीवियों में, ख़ासकर कम्यूनिस्टों के बीच उनकी पहचान बनी और कम्यूनिज़्म की ओर उनका झुकाव बढ़ने लगा. उनके पिता एक कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानी रह चुके थे और कम्युनिस्ट विचारधारा के खिलाफ थे. फिर भी उन्होंने अपने बेटे पर किसी तरह का दबाव नहीं डाला. धीरे-धीरे मणि दो चीजों से जुड़ते चले गए: पहला कम्युनिस्ट पार्टी और दूसरी लेखनी. बाद के वर्षों में वे कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए. पर लेखनी उनके साथ बनी रही. प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके कई लेखों ने पाठकों, बुद्धिजीवियों के विचारों को झकझोरा.
इस संदर्भ में 1860 के लगभग सीताराम पांडे की आत्मकथा का जिक्र प्रासंगिक है. अवधी भाषा में लिखी इस आत्मकथा के अंग्रेजी अनुवाद का शीर्षक है: फ्रॉम सिपाही टु सूबेदार. हाल में इसका हिंदी अनुवाद किया है बीबीसी में काम कर चुके पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने. शीर्षक है रामकहानी सीताराम. यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने 19वीं सदी में ब्रिटिश आर्मी में एक सिपाही के रूप में नौकरी शुरू की थी. एक लम्बे समय तक वहां काम करते हुए सीताराम पांडे 1858 में सूबेदार के पद से रिटायर हुए. अपनी आत्मकथा में उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण कालखंड का चित्रण किया है, जिसमें प्रथम एंग्लो-अफगान युद्ध एवं भारत के सिपाही विद्रोह जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं हैं. अपने व्यक्तिगत जीवन के सुख-दुख के अलावा सीताराम पांडे की यह आत्मकथा ब्रिटिश आर्मी में काम करने वाले एक आम सिपाही के मनोदशा को व्यक्त करता है. यह ब्रिटिश आर्मी व ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़े कई मिथकों को भी तोड़ता है. ब्रिटिश आर्मी ने इसके महत्व को समझते हुए इस आत्मकथा को अपने अफसरों की पढ़ाई के लिए अनिवार्य कर दिया था. 1910 से लेकर 1947 तक भारत में काम करने वाले हरेक अंग्रेज आर्मी आफिसर की परीक्षा में इस पुस्तक से प्रश्न पूछे जाते थे.[11]
प्रेमकुमार मणि की अकथ कथा भी आज़ादी के बाद पचास वर्षों के कालखंड का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. इसमें वह अपनी कहानी को अपने समय के साथ इस तरह गूंथते हैं कि यह उनकी पीढ़ी की कहानी बन जाती है. उस पीढ़ी की जिसका जन्म 1950 के दशक में हुआ और जिसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित भारतीय गणतंत्र को देखने और उसमें हो रहे बदलावों को समझने का मौका मिला.
उन्नीस सौ साठ के दशक में घटित 1967 के अकाल और उसके बाद देश और राज्य की राजनीति में उथल-पुथल का जिक्र है, तो 1970 के दशक की महत्वपूर्ण घटनाएं जैसे बंगलादेश युद्ध, एमरजेंसी, छात्र आंदोलन, नक्सलवाद के उदय एवं उसके दमन जैसे विषयों का विस्तार से वर्णन. गांधी एवं जयप्रकाश नारायण जैसी हस्तियों के विचारों का अभिराम विश्लेषण तथा प्रगतिशील लेखक संघ में लेखक की सहभागिता के दिलचस्प ब्यौरे आप यहाँ देख सकते हैं. आठवें दशक में इंदिरा गांधी की हत्या, सिख दंगे, नब्बे के दशक में राम मंदिर आंदोलन, दक्षिणपंथ का उदय एवं केन्द्र की सत्ता पर उनके काबिज़ होने की घटनाओं की मणि ने वृहत रूप से चर्चा की है.
लेखक ने मार्क्सवादी विचारों के प्रभाव और सम्मोहन को स्वीकार किया है. पर पार्टी में काम करते हुए जब नेताओं का पाखण्ड उन्हें समझ में आया तो अपने लेखों में उसका पर्दाफाश भी बिना लाग-लपेट के किया. कम्यूनिस्ट पार्टी से मोहभंग होने पर नब्बे के दशक में उनका झुकाव सोशलिस्ट राजनीति की ओर बढ़ने लगा. लोहिया, कर्पूरी ठाकुर जैसे सोशलिस्ट नेताओं के विचारों एवं नीतियों से प्रभावित थे. फलस्वरूप वे बिहार में समाजवादी पार्टी के उस धड़े से जुड़े जो पहले विपक्ष में थी. बाद में सत्ता में आई. कुछ वर्षों तक उस पार्टी के प्रमुख, नीतीश कुमार, के साथ मिलकर काम करने का मौका मिला. लेकिन मणि का ये रिश्ता भी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सका.
अब पाठक जरूर जानना चाहेंगे कि एक समय में शीर्ष नेतृत्व के करीबी रहे प्रेमकुमार मणि को उस पार्टी से क्यों अलग होना पड़ा? आखिर क्या बात थी कि सामाजिक न्याय की युटोपिया से प्रतिबद्ध एक कार्यकर्ता को उसी के सिद्धांतों पर आधारित एक पार्टी से हटना पड़ा? क्या इस कार्यकर्ता के व्यवहार में कमी थी या पार्टी अपने सिद्धांतों से दूर जा चुकी थी? इन सारी बातों की विवेचना मणि ने अपने पुस्तक के अंतिम अध्यायों में तटस्थ होकर किया है जो उनकी सुदीर्घ आत्मस्वीकृतियाँ ही हैं.
इस संदर्भ में 2022 की नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी लेखक आनी एरनो की सबसे चर्चित पुस्तक द ईयर्स (2008) का जिक्र जरूरी मानता हूँ. आनी एरनो मूलतः एक आत्मकथा लेखक हैं. अन्य किताबों में ए मैन्स प्लेस (1992) उनके पिता के संघर्ष की कहानी है, ए वुमन्स स्टोरी (2003) उनकी मां की एवं सिम्पल पैशन (2003) उनके अपने प्रेम की. पर इन सबमें द ईयर्स उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है.[12] इसका फ़लक काफी वृहत है जिसमें उन्होंने अपने निजी जीवन के साथ-साथ 1940 से 2006 के बीच अपने समाज और देश में हुए बदलाव को बेबाकी से प्रस्तुत किया है. वैसे ही जैसे प्रेमकुमार मणि ने अकथ कहानी में अपने जीवन को अपने समय के साथ कलात्मक ढंग से पिरोया है. दोनों के कालखंड लम्बे हैं, शैली और संरचना में समानताएं हैं और दोनों मानवता के प्रति कटिबद्ध हैं.
आत्मकथा प्रायः एक व्यक्ति की जीवन कथा होती है. ऐसी कथा जिसे स्वयं उस व्यक्ति ने जिया है. दलित लेखकों और स्त्रियों ने जो आत्मकथाएं लिखी हैं, उनमें उनके व्यक्तिगत संघर्ष और पीड़ा अधिक रही है. उनकी आत्मकथा के माध्यम से हम जान पाते हैं कि किसी दलित या स्त्री के संघर्ष की परिस्थितियां और परतें कैसी और कितनी होती हैं. चूंकि उनका व्यक्तिगत जीवन उस तबके के सार्वजनिक जीवन का एक अंश होता है इसलिए उसके मार्फ़त हमें उस वर्ग की मनोदशा की कुछ झलकियाँ जरूर मिलती हैं. लेकिन इससे इतर मणि की आत्मकथा में ऐसा कुछ विशेष नहीं है जिसे हम नितांत व्यक्तिगत कह सकें. अकथ कहानी में वे हमेशा अपने व्यक्तिगत जीवन को सार्वजनिक जीवन से जोड़ते, उसका विस्तार व विश्लेषण करते हैं और इस रूप में उनका व्यक्तिगत जीवन अपने समय के सार्वजनिक जीवन का ही एक हिस्सा है.
1950 से लेकर 2010 के दशक में उत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति क्या थी? इस दौर में इस प्रक्षेत्र की साहित्यिक-सांस्कृतिक स्थिति क्या और कैसी थी? इन सारी बातों से इस पुस्तक में हमारा साक्षात्कार होता है. इस दौर के साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक स्थितियों पर लेखक ने टिप्पणियां की हैं. 1962 का चीनी आक्रमण, नक्सलबाड़ी आंदोलन, जयप्रकाश आंदोलन, मंदिर आंदोलन से लेकर साहित्य के प्रगतिशील, जनवादी और दलित प्रसंग पर लेखक ने बेबाकी से अपने विचार रखे हैं. राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन में आ रहे परिवर्तनों और हिन्दी लेखकों में उभर रही प्रवृत्तियों और उनके सरोकारों को भी लेखक ने गहराई से देखा है. उदाहरण के लिए पटना में लेखकों की दुनिया पढ़ते हुए हम हिन्दी लेखकों के अनोखे जीवन चरित से परिचित होते हैं.
किसी पुस्तक के प्रकाशन के वर्ष भर के भीतर हम कोई बड़ी टिप्पणी तो नहीं कर सकते, लेकिन इतना जरूर कह सकते हैं कि प्रेमकुमार मणि की अकथ कहानी को इग्नोर करना मुश्किल होगा. उम्मीद की जा सकती है कि आनेवाले वर्षों में इसकी स्वीकार्यता एक महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति के रूप में तो होगी ही, इतिहास के विश्वसनीय दस्तावेज के रूप में भी इसका उपयोग हो सकेगा. इस पुस्तक की अगली कड़ी का हमें बेसब्री से इंतजार रहेगा.
सन्दर्भ
[1] युजिनिया वनीना. द अर्धकथानक बाइ बनारसी दास: अ सोशियो कल्चरल स्टडी. जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी. 1995. 5(2): 211-224
[2] मधुकर उपाध्याय. रामकहानी सीताराम. वाणी प्रकाशन. 2007. पेज 17
[3] हेनरी चाडविक. संत ऑगस्टिन, कन्फ़ेशन्स. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस. 2008. पेज xxix
[4] हेनरी चाडविक. संत ऑगस्टिन, कन्फ़ेशन्स. पेज 4 (ix)
[5] युजिनिया वनीना. ‘द “अर्धकथानक” बाइ बनारसी दास: अ सोशियो कल्चर स्टडी”. जर्नल ऑफ द रॉयल एसिटिक सोसायटी. 1995. 5(2): 211-224
[6] ब्रिटानिका. द एडिटर्स ऑफ इनसाइक्लोपीडिया. “ऑटोबायोग्रफ़ी”. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका. अपडेटेड 3 मार्च 2024
[7] जगदीश चन्द्र. हिन्दी आत्मकथा का उद्भव एवं विकास. रचना, आलोचना और शोध. ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम.
24 अप्रैल 2014
[8] गांव के लोग (ऑनलाइन पत्रिका). हिंदी साहित्य में स्त्री आत्मकथा लेखन. सितंबर 3 2022
[9] अकथ कहानी, पेज 56
[10] अकथ कहानी, पेज 46
[11] मधुकर उपाध्याय. रामकहानी सीताराम. वाणी प्रकाशन. 2007. पेज 17
[12] लौरिन एल्किन. द ईयर्स बाइ आनी एरनो रिव्यू – एक मास्टरपीस मेम्वॉर ऑफ फ्रेंच लाइफ. द गार्डियन. 22 जून 2018
अरुण जी को एक अंग्रेजी उपन्यासकार पर शोध के लिए 1993 में पीएच.डी की उपाधि मिली. वे अंग्रेजी विकिपीडिया से जुड़े रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में उनके द्वारा अनुदित कविताएँ एवं कहानियाँ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं हैं. समकालीन अमरीकी कवि, इल्या कामिंस्की, के बहुचर्चित कविता संग्रह, डेफ़ रिपब्लिक, का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित है. मेल: arunjee@gmail.com
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प्रेम कुमार मणि के छोटे भाई से नाम ध्यान नहीं आ रहा,जो शायद किसी अंग्रेज़ी अखबार में पत्रकार हैं , शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान में मुलाकात हुई थी। दलित साहित्य पर मेरा एक आलेख था जिसको लेकर बड़ी आपत्तियां थीं।
प्रेम कुमार मणि से भी कई आयोजनों में मुलाकात हुई है। उनकी गंभीर और पैनी विचार दृष्टि से विमर्श सार्थक होता रहा है। उनके राजनीतिक जीवन की ज्यादा चर्चा यहां नहीं हुई है जबकि नीतीश कुमार के सक्रिय सहयोगी के रूप में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। काफी किस्से कहानियां भी इससे जुड़े रहे हैं। वर्तमान संदर्भ और देश की निरंतर बदलती राजनीति की पृष्ठभूमि में इसका बेहद महत्व है ।
Premkumar Mani मेरे प्रिय बुद्धिजीवियों में हैं। इस किताब को खरीद कर रखा है। ठीक से पढ़ने के लिए। पढ़ने के बाद इस समीक्षा को पढ़ूंगा।
Premkumar Mani जी इस दौर में समसामयिक विषयों पर जितनी गहरी नज़र रखते है और उतने ही कमाल के लेखक भी हैं। उनका आत्मकथ्य ’अकथ कहानी’ बिहार के उनके समकालीन, सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक परिवेश के द्वारा एक पूरे दौर को समझने का ज़रूरी स्त्रोत और दस्तावेज साबित होगा।