तेजस्विनी
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कोई-कोई उपस्थिति आपकी राह रोक लेती है. देश-काल के बंधन तोड़ कर सामने आ जाती है. वह भक्त हो, कवि हो, मर्म भेदती उसकी कोई पंक्ति आपमें ठुकी हो, ऐसा हो नहीं सकता कि आप ठिठकें नहीं, उसे सुनें नहीं. लगभग पैंतीस साल पहले कभी उन्हें पहली बार पढ़ा था. अक्का महादेवी को. आज भी वह रास्ता भुला देती हैं. उनकी आवाज़ सुनते-सुनते आप कीलित-से उनके पीछे चलते चले जाते हैं, अदृश्य जंगल के सन्नाटे में. जैसे वह अभी भी अपने महादेव से बात कर रही हैं.
कर्नाटक में आप हों, तो ऐसा हो नहीं सकता कि उनकी सैंकड़ों साल पहले कही कोई उक्ति, कोई वचन बातचीत में आ न जाए. वह कवि नहीं थीं, उन्होंने हमारे-आपके लिए कविताएं नहीं लिखी थीं. भक्ति करती हुईं वह काल को पार कर गई थीं. यह आप हैं, और मैं, जो उन्हें कवि कहते हैं. ऐसे कांटे में से बिंध कर कोई बात आती हो, तो वह कविता हुई न. वे संत लोग थे, वचन कहते थे, सत्य वचन. उनकी वाणी वचन ही कहलाती है – वचन साहित्य.
बारहवीं सदी के तीसरे दशक में, सन् 1130 के आसपास कभी उनका जन्म हुआ था, दक्षिण भारत कर्नाटक के शिवमोगा जिले के एक गाँव उदूतड़ी में. शिव-भक्त माता-पिता के घर में. शिव उनके लिए कोई निर्जीव पत्थर नहीं, एक जीती-जागती प्राण सत्ता थे, शिव से जुड़ी पौराणिक कथाएं उनकी नसों में दौड़ता अनुभव.
उन्हीं में से एक कथा थी, जब अर्जुन ने अनजाने में शिव को फूलों से ढँक दिया था. उन्हीं से युद्ध किया था, जिनसे वरदान मांगने के लिए वह तपस्या कर रहे थे. जितना वह बाण चलाते, देवी बाणों को मल्लिका (चमेली) के फूलों में बदल देतीं. अर्जुन ने महादेव पर इतने बाण चलाए कि महादेव फूलों से ढँक गये और अंतत: इसी रूप में अर्जुन को दर्शन दिए.
तब से शिव का एक नाम यह हुआ, अर्जुन की मल्लिका वाले, मल्लिकार्जुन!
महादेवी उन्हें इसी रूप में ध्याती थीं, फूलों से ढँके शिव को.
नाम उनका संयोग से महादेवी था ही, कब वह महादेव की महादेवी हो गईं, हम कल्पना ही कर सकते हैं.
परंपरा कहती है, वह अनन्य सुंदरी थीं.
संभव है, यह बात उनकी कठिन नियति को देख कर कही जाती हो. मनुष्य सुंदरता सहन करने के लिए नहीं बने. सुंदरता उनमें सदा से हिंसा जगाती आई है. तिस पर एक स्त्री की सुंदरता, भक्त मन वाला उसका आलोक, उसकी आभा, उसकी तन्मयता!
सुंदरी महादेवी को कभी न कभी वेध्य होना ही था. वह बारहवीं सदी की बजाय इक्कीसवीं सदी में रही होतीं, तब भी उन्हें इस नियति से कोई बचा नहीं सकता था.
लेकिन उन्हें किसी दूसरे ने नहीं वेधा. यह उपक्रम उन्होंने स्वयं ही किया.
ऐसा नहीं कि उनके छोटे से अट्ठाईस-तीस साल के जीवन में उन्हें वेधने के प्रयास न हुए होंगे. उनकी कविताओं में पुरुष व्यवहार की कुरूपता के, छेड़खानी के वर्णन हैं (ओ भाई, तुम उसका यौवन, उसके गोल स्तन देख उसके पीछे आ गये हो) से लेकर जोर-जबरदस्ती तक के विवरण (किसे परवाह है कौन सोता है उस स्त्री के साथ, जिसे तुमने छोड़ दिया).
महादेवी ने अपनी सुंदरता का वध स्वयं किया, भक्ति में देह का अतिक्रमण. उन्होंने पंच तत्वों के खेल को समझा, साकार से प्रेम किया और निराकार में लीन हुईं. पूर्ण-तत्व को उन्होंने पा लिया था, साध लिया था, इसके पर्याप्त संकेत उनके वचनों में हमें मिलते हैं.
ये जो उनके वचन हमें आज व्याकुल कर देते हैं, ये उनके बोल, जो कभी उन्होंने लिखे नहीं थे, सुधारे या काटे-छाँटे नहीं थे. उनके दिल की अग्नि ने इन्हें तपाया था, स्ववचनों को, एकालापों को. कब ये वचन उनके दिल के एकांत से निकल कर सुनने वालों के दिलों में धड़कने लगे, मूल कन्नड़ भाषा में ही नहीं, पड़ोस के मलयाली व तेलुगु भाषाई दिलों में भी, कौन कह सकता है.
कुछ बरस पहले की घटना है. केरल की एक लोकल ट्रेन में एक भिखारिन को अति सुंदर एक गीत गाते हुए सुना था. घने हरे वृक्षों के बीच हमारी ट्रेन जा रही थी और डिब्बे के सन्नाटे में उसका गान गूंज रहा था. शब्द क्या हैं, कुछ मालूम न था, मगर पुकार ऐसी कि मेरे भीतर कुछ दरकने लगा. साथ बैठे यात्री से मैंने पूछा, यह स्त्री क्या गा रही है? मलयाली भाषी ने कहा, अक्का महादेवी!
‘तुमने मुझे कंठ दिया, तुम्हारे गुण गाऊँगी’…
कोई सोच सकता था, आठ सौ साल पहले कभी अक्का ऐसे ही गाते-गाते, अपने से बातें करते, इस देश में गुजरी होंगी?
(भेजो मुझे दर-दर हाथ फैलाए भीख मांगने को…)
(भूख के लिए गाँव का अन्न, प्यास के लिए नदी, कुएं, सोने के लिए खंडहर, और संग के लिए तुम, मल्लिकार्जुन!)
काल-प्रवाह में कभी-कभी ऐसा संक्रमण समय अवश्य आता है, देश-काल में, जब कई सारे दिलों में एक जैसी बेचैनी, उथल-पुथल शुरू हो जाती है. उत्तर भारत में तुर्की लुटेरों की मारकाट से दूर बारहवीं सदी का दक्षिण भारत ऐसा ही था. मंदिरों में ब्राह्मणों के वर्चस्व व दुर्व्यवहार से क्षुब्ध प्रजा अपनी आस्था के लिए कोई नया मार्ग ढूंढ रही थी.
इस विरोध की शुरुआत भक्त बासवन्ना ने की थी, अपना यज्ञोपवीत तोड़ कर. वह स्वयं एक कुलीन ब्राह्मण थे, स्थानीय राजा के कोषाध्यक्ष. उन्होंने अपने समाज में व्यक्तिगत इष्टदेव की ऐसी मुहिम चलाई, कि अनुयाईयों ने मंदिर में ब्राह्मणों से तिरस्कार सहने की जगह शिवलिंग के छोटे-छोटे प्रतीक कंठ में पहन लिए. जब भी इनकी भावना होती, ये भक्त गले में से उतार कर, शिवलिंग हथेली पर रख कर पूजा कर लेते. शिव इनके अंतरंग हो गये थे. वेद-उपनिषद काल से पूर्व के रुद्र महादेव. महादेवी के वचनों में इन शिव से आत्मीय साक्षात्कार के कई वर्णन हैं.
जाति-व्यवस्था का विरोध करने के कारण ये भक्त घोर हिंसक प्रहार सहते रहे. वीरता से ये सब सहन करते थे, इस कारण इनका नाम पड़ा, वीरशैव. आज जो वीरशैव संतों के चित्र हमें देखने को मिलते हैं, सब के कंठ में शिवलिंग का लटकन बंधा है, उनकी हथेली पर भी रखा है.
उनका मंदिर उनके पास, उनका देवता उनके पास.
बासवन्ना की अगुवाई में यह लिंगायत समुदाय बना था, इनकी सत्संग सभा अनुभव-मंडप. उस समय के बहुत बड़े तत्वज्ञानी अल्लामा इस बैठक के प्रभु थे, अध्यक्ष. धीरे-धीरे यही नाम उनका प्रसिद्ध हो गया- अल्लामा प्रभु. उनके रहस्यवादी अनुभवों का मार्मिक वृतांत उनके वचनों में पढ़ते बनता है.
आज यह सोच कर ही आश्चर्य होता है कि हमारे यहाँ कभी ऐसा एक समाज था, जिसमें एक ही समय में ऐसे बड़े साधक संभव थे. और वे सब न केवल स्वयं को, बल्कि इस देश की ज्ञान-पिपासा को अनिर्वचनीय ढंग से व्याख्यायित कर रहे थे.
महादेवी भक्तिन थीं मगर युवती थीं, सुंदरी थीं. उनके भीतर का संतत्व ऐसे विकट रास्ते बाहर आएगा, यह अकल्पनीय है. तब भी, आज भी.
किंवदंती है कि सोलह वर्षीया महादेवी का विवाह स्थानीय जैन राजा से हुआ था, जो उन्हें नदी तट पर पूजा में मगन देख उन पर मोहित हुआ था. महादेवी ने विधर्मी से विवाह पर अपनी कुछ आशंकाएं रखी थीं, कुछ शर्तें, कि राजा कभी उनकी पूजा-अर्चना में अड़चन नहीं डालेगा, उन्हें अपने गुरुजनों, सत्संगियों से मिलने देगा आदि. राजा मान गया था और विवाह सम्पन्न हो गया था.
एक-दो वर्ष में ही धीरे-धीरे सब शर्तें टूटने लगीं. महादेवी को घर छोड़ना पड़ा. घर छोड़ने की घटना बड़ी ह्रदयविदारक है.
रोज की तरह उस दिन भी महादेवी पूजा में बैठी थीं, सद्यस्नाता, जब राजा, उनका पति, उन्हें देख ऐसा कामातुर हुआ कि उसमें पूजा समाप्त होने तक का धैर्य न रहा. उसने आकर महादेवी का वस्त्र खींच दिया और वस्त्र खुल गया, महादेवी का ध्यान भंग हो गया. महादेवी ने उघड़े शरीर की ओर संकेत कर उसे धिक्कारा, क्या इस देह के लिए तुमने मुझे ऐसा व्यथित किया है? पति ने कहा, तुम अब मेरी संपत्ति हो, तुम्हारे वस्त्र और आभूषण भी. अब मैं जो चाहूँ, तब कर सकता हूँ.
महादेवी जैसी खड़ी थीं, वैसी बाहर निकल आईं, निर्वसन. किंकर्तव्यविमूढ़. महल से सड़क पर, सड़क से देश में.
उसके बाद जीवन भर, भले वह उनका छोटा सा जीवन था, उन्होंने कोई आवरण नहीं लिया. बस उनके लंबे केशों ने उन्हें ढँका, उनकी नग्न, युवा, स्त्री-देह को, जितना यह संभव था.
उसी निरावरण देह ने शिव-तत्व की खोज-यात्रा आरंभ की. स्वयं का वध किया.
महादेवी ने अल्लामा प्रभु के अनुभव-मंडप के बारे में सुन रखा था. उनके स्थान से आठ सौ किलोमीटर दूर वह स्थान था. महीनों पैदल चल कर, भिक्षा मांगतीं, फब्तियाँ सुनतीं, तिरस्कार सहतीं, वह वहाँ पहुंचीं, आज के बीदर कल्याण स्थान में, शिव की महिमा सुनने.
मगर शिवत्व की प्राप्ति संभवत: उन्हें बीच रास्ते ही कभी हो गई थी. उनकी आंतरिक शारीरिक रचना बदल गई थी, मासिक धर्म रुक गया था. काया-छिद्रों में से राख की विभूति निकलनी शुरू हो गई थी. रहस्यवादी इसे शिव से मिलन की उच्च अवस्था का संकेत मानते थे.
महादेवी के वचनों में इस विकट यात्रा की अनेक छवियाँ मिलती हैं.
जब वह अनुभव मंडप के करीब पहुंचीं, हड़कंप मच गया. भभूत से ढँकी एक नग्न स्त्री चली आ रही थी.
उनका रास्ता रोकने की कोशिश हुई. असफल. फिर अनुभव-मंडप के एक भक्त बोमैया ने उन्हें रोक कर उनकी शारीरिक जांच की. बाकायदा उनकी योनि तक. वहाँ भी भभूत मिली.
ये सब दिल दहला देने वाला वृतांत दो सौ साल बाद चौदहवीं शताब्दी में लिखे गये ग्रंथ शून्यसंपादने में अंकित है.
तब जाकर उन्हें अनुमति मिली, अनुभव मंडप में अल्लामा प्रभु के समक्ष उपस्थित होने की. वहाँ भी अल्लामा प्रभु ने कठोर प्रश्नों से उनकी कड़ी परीक्षा ली. अंत में पूछा, जब तुमने आवरण छोड़ ही दिया है तो केशों से क्यों ढंके हुए हो? महादेवी ने उत्तर दिया, मैं तैयार हूँ प्रभु, मगर आप अभी उस दृश्य के लिए परिपक्व नहीं.
सारी सभा उनके आगे नतमस्तक हो गई.
बासवन्ना ने उन्हें नाम दिया, अक्का. दीदी.
उसके बाद से ही वह अक्का महादेवी कहलाईं.
मगर महादेवी का मार्ग ज्ञान-चर्चा का न था. कुछ समय अनुभव मंडप में बिताने के बाद वह शैल पर्वत की ओर चली गईं, श्रीशैलम ज्योतिर्लिंग के पास, महादेव के स्थान पर. वहाँ कृष्णा नदी के किनारे आज उनकी गुफा मिलती है. यहीं उन्होंने एकांत ध्यान किया था.
कहते हैं, अंतिम वर्षों में उनके माता-पिता वहाँ आए थे, उन्हें लिवाने. वह नहीं गईं. फिर उनका राजा पति, उनसे क्षमा मांगने. मगर तब तक वह तपस्या में बहुत आगे जा चुकी थीं. लौटने को कुछ था नहीं.
सन् 1160 के आसपास, अट्ठाईस-तीस की वय में, किसी समय वह अन्तर्धान हुईं. कुछ कहते हैं, श्रीशैलम में समा गईं.
जनवरी 2020 में मुझे श्रीशैलम जाकर माथा टेकने का सौभाग्य मिला. ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का.
करीब पैंतीस बरस से वह मेरे दिल में धड़क रहीं थीं. भगवान शिव के लिए उनका ज्वरग्रस्त प्रेम, उनकी साधना. सन् 1983-84 में कभी उन्हें मैंने पहली बार पढ़ा था, अनुवाद भी किया था. ए के रामानुजन के प्रसिद्ध अनुवादों से भावान्तरण.
महादेवी मेरे भीतर ऐसी उतरीं कि हर जगह मेरे साथ रहीं, विशेषकर कैलाश मानसरोवर यात्रा में. मेरी पुस्तक अवाक् में वह बार–बार आईं, फिर केरल यात्रा में. श्रीशैलम की यात्रा तो हुई ही उनके वचनों को ठीक से सुन पाने को.
महान हिन्दू मंदिरों जैसा वह मंदिर था. उषाकाल में प्रवेश के लिए लंबी लाइन, टिकट, धक्का-मुक्की. कड़े नियम. ठीक से दर्शन हो पाए, इसकी युक्तियां. उजली भोर वाली एक सुबह.
केवल एक क्षण को जैसे समय रुक गया था.
आसपास कोई नहीं, बस एक महिला पुलिस. सामने धरती में से झाँकता काले रंग का ज्योतिर्लिंग, सुनहरे धातु की रेलिंग से रेखांकित. सुदूर किसी समय में महादेव-पार्वती वहाँ आए थे, अपने रूठे पुत्र कार्तिकेय के निकट रहने.
सतयुग में वह ज्योतिर्लिंग अनंत प्रकाश का एक स्तम्भ था, फिर वह अग्नि-पुंज बना, अब कलियुग की कालिख में वह काला पत्थर हो गया था, धरती में से झाँकता महादेव का चिह्न.
क्या इन्हें छू सकती हूँ? मैंने महिला पुलिस से पूछा.
हाँ, मगर जल्दी करिए.
मैंने माथा टेक कर प्रणाम किया, एक बेल-पत्र धक्के-मुक्के के बाद अब भी मेरे हाथ में दबा था. उसे अर्पित करते हुए अपना कांपता सा मरणशील हाथ वहाँ रखा. ज्योतिर्लिंग पर. तड़ित की एक बारीक चमकन मेरे भीतर उतर आई, जैसे देवता ने संकेत दिया हो, वह वहाँ हैं, उन्होंने मुझे देख लिया है, मेरा आना स्वीकार कर लिया है.
उठी तो आँसू बह रहे थे.
उन्हीं झर-झर आँखों से मैंने सारा मंदिर देखा. उसका सुरम्य वातावरण.
खूब बड़ा प्रांगण था. पहाड़ को काट कर बनाई गई सीढ़ियाँ. हर तल पर छोटे-बड़े देवताओं के मंदिर. एक ओर नाग-पत्थरों का जमावड़ा, उसी के पास यज्ञ शालाएं. हवा में गूंज रही मंत्र-ध्वनियाँ. कई हवन एक साथ हो रहे थे. गौ शाला में बछड़ों को हम चारा खिला सकें, ऐसी व्यवस्था. उनके लार टपकाते निष्पाप भोले मुख.
बाहर निकलने लगी तब एक पेड़ के नीचे खड़ी सुनहरी आदमकद मूर्ति पर मेरी नजर पड़ी. भीड़ में शायद ही कोई उस पर ध्यान दे रहा था.
घने लंबे बालों से ढँकी, दुबली-पतली एक नग्न नारी देह. जिस तरह वह शेष जीवन घूमीं थीं. अब वह वहाँ थीं, अपने देवता के पास.
वह अकेली खड़ी थीं.
मुझे हैरानी हुई. जैसी मूरत मेरे दिल में उनकी बसी थी, वैसी में ही वह वहाँ खड़ी थीं. तेजस्विनी.
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अक्का महादेवी के वचन |
1.
जैसे रेशम का कीड़ा
बुनता है अपना घर
सप्रेम अपनी ही मज्जा से
और मर जाता है
अपनी देह से लिपटे
वैसे मैं जलती हूँ
अपनी देह की इच्छा में
चीर डालो, ओ प्रभु
कामना से भरा मेरा हृदय
2.
चिंगारी उड़ेगी अगर
तो समझ लूँगी
मिट गई है मेरी भूख-प्यास
फटेगा अगर आसमान
समझ लूँगी
मेरे नहाने को है बह आया
फिसल पड़ेगी अगर पहाड़ी मुझ पर
समझ लूँगी
मेरे बालों का फूल है वह
जिस दिन गिरेगा मेरा सिर
कंधों से छिटक कर
समझूँगी तुम्हारी भेंट चढ़ा,
ओ मल्लिकार्जुन!
3.
भेजो मुझे दर-दर
हाथ फैलाए
भीख मांगने को
और अगर माँगूँ भीख
तो मत देने देना उन्हें
और अगर वे दें
तो गिरा देना उसे धरती पर
और अगर वह गिर जाए
तो मेरे उठाने से पहले
ले जाने देना उसे कुत्ते को,
ओ मल्लिकार्जुन!
4.
किसे परवाह है
कौन तोड़ता है पेड़ से पत्ती
एक बार फल टूट जाने के बाद?
किसे परवाह है
कौन जोतता है जमीन
त्याग दी जो तुमने?
किसे परवाह है
कौन सोता है उस स्त्री के साथ
जिसे छोड़ दिया तुमने?
एक बार प्रभु को जान लेने के बाद
किसे परवाह है,
कुत्ते खाते हैं इस देह को
या गलती है यह पानी में?
5.
दूसरे पुरुष कांटा हैं
कोमल पत्ती में छिपे
मैं उन्हें छू नहीं सकती
न जा सकती हूँ उनके पास, न कर सकती हूँ भरोसा
न कह सकती हूँ मन की कोई बात
माँ,
सब के सीने में हैं शूल
मैं नहीं भर सकती उन्हें बाँहों में
सिवाय मेरे मल्लिकार्जुन के
6.
चार पहर दिन के
मैं तुम्हारे शोक में रहती हूँ
चार पहर रात के
तुम्हारे लिए बौराई
पड़ी रहती हूँ दिन-रात
खोई और बीमार
ओ मल्लिकार्जुन,
जब से पनपा
तुम्हारा प्रेम
भूल गई मैं
भूख, नींद और प्यास
7.
उई माँ, मैं जलती रही
बिना लपटों की आग में
ऊई माँ, मैं सहती रही
एक रक्तहीन घाव
ऊई माँ, मैं तड़पती रही,
बिना किसी सुख के
मल्लिकार्जुन के प्रेम में
घूम आई मैं
कैसे कैसे जगत
8.
एक नहीं, दो नहीं, न तीन या चार
चौरासी लाख योनियों में से आई हूँ मैं
निकल कर आई हूँ
असंभव संसारों में से
कभी आनंद पिया, कभी पीड़ा
जो भी थे मेरे पूर्वजन्म
दया करो
आज के इस दिन
ओ मल्लिकार्जुन
9.
जब मैं नहीं जानती थी स्वयं को
कहाँ थे तुम?
जैसे स्वर्ण में उसका रंग
तुम थे मुझमें
मैंने देखी
मुझ में तुम्हारे होने की विडंबना
बिना कोई अंग दिखलाए
ओ मल्लिकार्जुन!
10.
वन हो तुम
वन के समस्त बड़े पेड़
भी तुम
पक्षी भी तुम, शिकारी भी तुम
डाल-डाल खेलते
कोई खेल
सब में तुम, तुम में सब
ओ मल्लिकार्जुन
दिखलाओ तो सही
अपना मुख
11.
घर में पति
बाहर प्रेमी
मुझ से नहीं निभते दोनों
ये संसार
और दूसरा संसार
मुझ से नहीं निभते दोनों
ओ मल्लिकार्जुन,
मुझ से नहीं बन पड़ता
पकड़े रहूँ
एक हाथ में बेल फल
दूसरे में धनुष
12.
प्रकाश ने दिखाया
दूर दिगंत तक
फैला हुआ आकाश
पवन की हलचल
पत्ते, फूल, सारे के सारे छह रंग
पेड़ों पर, झाड़ी में, लताओं पर
ये सब
हुई दिन की प्रार्थना
चाँद की चाँदनी, तारे और अग्नि
तड़ित और ऐसी ही सब चीजें
जानी जाती हैं जो
प्रकाश के नाम से
हुईं रात की प्रार्थना
भूली रहती हूँ
दिन और रात
तुम्हारी प्रार्थना में
ओ मल्लिकार्जुन!
13.
यदि कोई निकाल पाता
सांपों के दांत
और नचा पाता उन्हें बीन पर
कितना अच्छा होता सांपों को रखना
यदि कोई निकाल पाता
देह में से व्यसन
कितना अच्छा था देह संग रहना
देह के व्यसन
जैसे माँ बन गई हो राक्षसी
मत कहो, ओ मल्लिकार्जुन,
देह है उनके पास
जिनके पास है तुम्हारा प्रेम
14.
झेंप जाते हैं लोग
पुरुष हों या स्त्री
खिसक जाए यदि
शर्म को ढंके उनका अधोवस्त्र
व्याप्त हो जब जीव जगत में
बिना मुख का प्रभु
किससे करोगे तुम शर्म?
समस्त जगत जब
आँख है प्रभु की
देखती हुई सबकुछ
छिपाओगे क्या, ढँकोगे क्या?
15.
भूख के लिए
गाँव का दिया भिक्षा का अन्न
प्यास के लिए
नदियां, तालाब, कुएं
सोने के लिए
मंदिरों के खंडहर
आत्मा के संग को
तुम मेरे पास
ओ मल्लिकार्जुन!
16.
क्यों चाहिए मुझे
मुर्दा होता जाता यह संसार?
माया का मूत्रपात्र,
आतुर वासनाओं का वेश्याघर,
यह चटखा घड़ा
यह टपकता हुआ तलघर?
अंगुली भले मसल डाले गूलर
उसे जाँचने को
जरूरी नहीं कोई खा भी ले उसे
शरण दो मुझे
मेरे दोष सहित
ओ मल्लिकार्जुन!
17.
ओ भाइयों, क्यों कसते हो बोल
बाल बिखेरे
मुरझाए मुखड़े
सूखी देह लिए
इस स्त्री पर ?
ओ पिताओ,
क्यों सताते हो इस स्त्री को?
उसके अंगों में नहीं प्राण
छोड़ दिया उसने यह संसार
त्याग दी इच्छा
हो गई वह भक्तिन
वह सोई थी मल्लिकार्जुन के संग
और अपनी जात गंवा बैठी है
18.
वह सुंदर मेरा प्रेम
न उसे मृत्यु, न जरा
न आकार
न स्थान, न दिशा
न अंत, न जन्मचिह्न
वही मेरा प्रेम, सुन री, ओ माँ
वह सुदर्शन मेरा प्रेम
न उसे बंधन, न भय
न कुल, न देश
न सीमाचिह्न कोई
उसके रूप के
वही मेरा प्रभु
मेरा पति, मल्लिकार्जुन
ये ले पति, मेरी माँ,
जो मरणशील, जरा-जर्जर
झोंक इन्हें चूल्हे की आग में!
19.
जैसे झुंड से बिछुड़ा हाथी
पकड़ा जाए अचानक
याद करे अपने पर्वतों,
विंध्य को,
मैं याद करती हूँ
जैसे तोता आ जाए
पिंजरे में
और याद करे साथी को,
मैं याद करती हूँ
दिखाओ मुझे राह,
ओ मल्लिकार्जुन,
पुकारो, इधर से आ, बच्ची,
इस रास्ते से
20
ओ प्रभु
नीले पर्वतों के वासी
पैरों में पहने चंद्रमणि
लंबी तुरही बजाते
मैं कब फोड़ूँगी
अपने स्तनों के घड़े तुम पर?
ओ मल्लिकार्जुन,
मुक्त हो कर
देह की लज्जा
ह्रदय के शील से
मैं कब मिलूँगी तुमसे?
21.
यदि वह कहें
उन्हें जाना है युद्ध लड़ने
सीमा पर
समझ सकती हूँ मैं, रह सकती हूँ चुप
कैसे सहूँ मगर
जब वह यहाँ हैं
मेरी हथेली पर,
मेरे हृदय में,
और फिर भी मुझसे दूर
ओ मेरे मन, ओ पूर्वजन्मों की स्मृति,
तुम भी न पहुंचाओगे उन तक
कैसे सहूँ तब?
22.
बार-बार मिलन और संगम से अच्छा
एक बार का मिलन
वियोग के बाद
दूर होते हैं जब वह
रोक नहीं पाती बिना देखे
एक झलक उनकी
सखी, कब मैं पाऊँगी
उन्हें दोनों तरह से?
उनके निकट भी,
अनिकट भी,
मेरे मल्लिकार्जुन!
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ए के रामानुजन एवं विनय चैतन्य के अंग्रेजी अनुवादों पर आधारित भावन्तरण : गगन गिल
अक्का महादेवी जीवन-संदर्भ मुकुंद राव की पुस्तक ‘स्काई क्लैड : द एक्स्ट्रा ऑर्डनेरी लाइफ एंड टाइम्स ऑफ अक्का महादेवी, से.
गगन गिल 18 नवम्बर 1959 कविता संग्रह : एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अँधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक (2003), मैं जब तक आयी बाहर (२०१८) यात्रा वृत्तांत : अवाक, गद्य : दिल्ली में उनींदे संपादन : प्रिय राम (प्रख्यात कथाकार निर्मल वर्मा द्वारा प्रख्यात चित्रकार-कथाकार रामकुमार को लिखे गए पत्रों का संकलन), ए जर्नी विदिन (वढेरा आर्ट गैलरी द्वारा प्रकाशित चित्रकार रामकुमार पर केंद्रित पुस्तक – 1996 ), न्यू वीमेन राइटिंग इन हिंदी (हार्पर कॉलिंस – 1995), लगभग ग्यारह साल तक टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप और संडे आब्जर्वर में साहित्य संपादन सम्मान ई-मेल : gagangill791@hotmail.com |
एक साँस में पढ़ गया। पिछले कई दिनों का हासिल है यह पोस्ट। गगन गिल को सलाम।
अक्का महादेवी…नाम ही कल पहली बार समालोचन पर पढ़ा था।आज परिचय जानकर निःशब्द हो गई हूँ।यह अद्धभुत आलेख हम तक सहज उपलब्ध करवाने हेतु समालोचन को साधुवाद..गगन गिल जी को हार्दिक आभार!
अद्भुत!
बहुत बहुत बधाई। शानदार काम किया है गगन गिल ने।अक्क महादेवी पर हिंदी में ऐसी मुकम्मल सामग्री बहुत दिन बाद पढ़ने को मिली।सम्पन्न अनुभव कर रहा हूं।
As always, Gagan Gill leaves one stunned, speechless.
The vacanas are so frugal, so elegant.
This is punarrachana at its best,
More strength to your powerful pen dear poet.
अत्यन्त मार्मिक कविताएँ। भावानुकूल अनुवाद। अक्का महादेवी के विषय में गगन जी का लिखा गद्य, मास्टरपीस। कमाल का है सब कुछ!
बहुत सुन्दर। अक्का महादेवी को साक्षात कर देने वाला भावविकल गद्य। वचनों के स्पर्शी भावानुवाद।समृद्ध करने वाली पढ़त.
अक्का महादेवी को अपने आधे इतिहास में हम पढ़ते आये थे, लेकिन जिन दिनों गगन जी का अवाक पढ़ रही थी, अक्का बार बार स्थिर या सम की तरह आती थीं और फिर हम मानसरोवर में खो जाते थे। आज अक्का यहां अपनी स्त्री और कवि मन के साथ उपस्थित हैं। गगन जी उनकी उंगली पकड़े चल रही हैं। विचित्र अनुभव से मैं गुज़री हूँ। आभार , समालोचन।
अद्भुत भावांतरण…. एक बार पढ़कर बार बार पढ़ने का मन हो रहा है, समर्पित मन से निकले वाक्य अद्भुत प्रभाव डालते हैं.. बहुत सुन्दर.. धन्यवाद समालोचन 🙏🏼
प्रिय गगन
बहुत सुन्दर। शब्दों मे कहा गया,शब्दों को निशब्द करता।भाषा जो किसी बोध तक पहुंचाए वही तो भाषा है।
कब से सुनता पढता रहा हूँ वचनकारो
के बारे मे–मै भी कर्नाटक की अपनी यात्राओ मे,कन्नड के लेखक कवियों–अनंतमूर्ति ,शिवकुमार आदि से हुई चर्चाओ मे,अक्का महादेवी के बारे मे भी।थोड़ा-बहुत पढता भी रहा हूँ उनके बारे मे ,पर मर्म तो आज अभी खुला मिला।और लगता है यह खुलता ही जाएगा।
ऐसी रचनाओ के लिए जिनमे सत्य वचन,सदवचन,कथाएं -कविताएँ ,सब समाहित हो, यही कहने का मन होता है –आभार बहुत बहुत यहां तक पहुंचा देने का।
शुभकामनाएँ ।
प्रयाग शुक्ल
धन्यवाद अरुण, बहुत दिनों बाद मन से समझने जैसा प्रकाशित करने के लिए । गगन जी जैसे रचना से एकाकार रचनाकार अब कहां रह गए हैं ।
गगन जी हमारे समय की विलक्षण कवि और गद्य शिल्पी हैं।उनके यहाँ बाह्य और आभ्यंतर एकमेव हो जाते हैं।कवि विदुषी का अभिनंदन ।
इतना प्रांजल गद्य और इतनी मार्मिक कविता कोई स्त्री ही रच सकती है ।धरती और आकाश को अपनी बाहों में समेटे हुए चांद और तारों से मुखातिब कोई अकल्पनीय स्त्री ही ऐसे सुंदर और अस्पर्शनीय संसार को जन्म दे सकती है । अक्का महादेवी हिंदी में आकर गगन गिल में रूपांतरित हो गई है। समालोचन और गगन गिल को बहुत बहुत बधाई।
रोंगटे खड़े हो गए अद्भुत लिखा है बहुत ही मार्मिक एक बार में पूरा का पूरा पढ़ गया ऐसी चीजें बहुत कम देखने में मिलती है साधुवाद समालोचन को और गगन गिल को
Explaineded writing…
अद्भुत… और अविस्मरणीय…!
ऐसी रचनाएँ
‘साँस की कलम’ से ही लिखी जाती हैं…
‘समालोचन’ से गुजरना
हमेशा सुखद एहसास से भरा रहा है…
आज भी वही अनुभूति हो रही है…!!!
आत्मा के संग के लिए तुम मेरे पास / ओ मल्लिकार्जुन
यह राग , यह समर्पण और ऐसी अछूती भाषा।गगन गिल का सामर्थ्य अद्भुत है।
शुक्रिया अरुण देव
यह अनमोल है
बहुत सुन्दर, प्रेरक और विचारवान लेख है। मुग्ध कर देने वाली प्रस्तुति।
Akka Mahadevi. A real great name in the annals of Indian literature, history, myth – whatever.
Gagan Gill toh kavita ka ‘gagan’ hain, apni tarah ki – theek mere divangat kripanidhan mitra Nirmal Varma ki (issey padh kar shayad Gagan Gill ko aisa na lage ki yeh kaun namuraad kahan se aan tapka Jo khud ko Nirmal Varma ka mitra bataa raha hai) tarah jissey aaj phir log dobaara, tibaara padh rahe hain…Gagan nihsandeh sookshm anubhootiyon ki kavyitri hain jinhein maine pichchle 35-40 saalon mein kai prakashanon mein padha hai – lekin yahaan wahaan, kisi samagra ke roop mein nahin kyonki bambai ki naamuradgion mein se ek hai achchi kitaabon ka sahi samay par na mil paana. Yeh ek bada dukh raha hai. Baharhaal, jab kabhi haalaat behtar huye aur ghar se bahar nikalne ka mauqa mila toh sahi dukaan par jaakar Gagan Gill ki kitaabein haasil kar silsilewaar tariqe se padhne ki hasrat ko barqaaraar zaroor rakhoonga…
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श्रद्धा भी दिव्य किस्म का भाव ही होता होगा…मुझ में है ही नहीं। फिर भी लिखे हुए से प्रभावित हुआ। गद्य और पद्य , दोनों में ही अपनी ओर आकृष्ट करने की शक्ति है। अनुभव को विस्तार देने की भी। गगन मण्डल में दुंदुभि बाजे…
अद्भुत। रोम रोम में रोमांच जगा गयीं अक्का महादेवी। लेख के शब्द तन को चीर कर भीतर प्रवेश कर गए। यदि यह लेख न पढ़ी होती तो बहुत कुछ छूट जाता।
अक्का महादेवी की कोई भी रचना या उन पर लिखी हुई कोई रचना आँखों के सामने आती है तो सबकुछ को छोड़कर उसे पढ़ता हूँ। गगन गिल का गद्य भी और काव्यानुवाद में अक्का का कायान्तरण भी ऐसा है कि उसे टाला नहीं जा सका। सितार के तार की तरह गगन का गद्य बाँध लेता है, और कविताओं के अनुवाद छोटे छोटे रागों की तरह फूल बिजली की तरह भीतर प्रवेश करते हैं। “अपनी सुंदरता का वध” पढ़ते हुए और पढ़े जाने के बाद तक हौंट करता रहता है। यह स्थिति वास्तव में अक्का के जीवन और जीवन दर्शन का नाभिक है और गहरे में कहीं हमें आत्मालोचन के लिए विवश करता है। जो रचना आत्मालोचन के लिए विवश न कर दे, वह ऊँची रचना नहीं; और जो अनुवाद भाषा की सरहदों को पार कर संगीत की तरह मन में उतरे नहीं, वह ऊँचा अनुवाद नहीं। दूसरी बात कि महादेवी के उद्गारों में मुझे पंजाब के सूफ़ी कवियों के उस भाव से साम्य भी मिलता है जहाँ वे देह की सुनिश्चित नश्वरता को हमेशा जेहन में रखते हुए कोई बात कहते हैं। और देखा जाय तो ऐसा साम्य और भी सूफी-संत कवियों में मिलेगा। अक्का कुछ अलग है तो इसीलिए कि उनका जीवनानुभव कुछ अलग है। इसीलिए वे विशिष्ट हो जाती हैं, इसी कारण गगन का अनुचिंतन करता हुआ गद्य और कायान्तरण करता हुआ अनुवाद भी विशिष्ट हो जाता है।
मुझे वचनों, बानियों आदि के मुक्त छंद में किये गये भावानुवादों से हमेशा समस्या रही है। भावानुवाद अनुवादक की अपनी कविता कब बन जाता है पता भी नहीं चलता। मूल वचन केवल अनुवादक की कविता को इतिहास का रोमांस प्रदान करते हैं।
फिर ये भावानुवाद तो भावानुवाद के भावानुवाद हैं। अश्रद्धा के कारण इन अनुवादों का रस नहीं ले पाया, यह मेरी समस्या है। इसमें अनुवादक का दोष नहीं है।
अनुवादक की भूमिका मर्मस्पर्शी है।
Gagan Gill’s narrative is a marvel. The kind she bestowed upon her readers in her book AWAAK.
Here she divines the life and world of Akka Mahadevi in such an historicized and episodic a manner that we find ourselves witnessing that legend. Wholly mesmerized.
Again,when she holds forth her experience of her visit to the Jyotirling of Shrishailam she reaffirms our faith in her being a class apart. Wholly spiritual and transcendental.
I say it with great certainty that Gagan Gill also writes VACHAN SAHITYA like Akka Mahadevi.
Gagan Gill’s work is unique and phenomenal in it’s own right. It may appear to be close to the genre of metaphysical poetry but to me its purity and other-worldliness reminds me of Sufism in its densest form.
Her presentation of Akka Mahadevi’s poems is equally powerful and dynamic.
Thank you,Arun Dev ji, for providing us with this rich experience.
Deepak Sharma
गगन गिल ने आज के हिंदी पाठकों का भारत की एक बड़ी विद्रोहिणी कवि से परिचय करवाया है। हिंदी वाले कन्नड़ साहित्य की संवेदनक्षम भाषा से भले ही परिचित न हों सकें,पर वे गगन गिल द्वारा इस पुनर्रचित पाठ से गुजरकर समृद्ध महसूस करेंगे।
भूमिका लिखने के दरम्यान कवयित्री के गद्य में कवित्व के विन्यास से पाठक द्रवित हुए बगैर नहीं रह सकता।
गगन जी को साधुवाद।
अक्का महादेवी के विषय में जानने के बाद उनकी रचनाएं पढने और उनका सम्पूर्ण जीवन चरित्र पढने की लालसा जागृत हो गयी…….आहा! अद्भुत विद्रोही चरित्र जिसके विषय में ज्ञात ही न था. न कभी सुना या पढ़ा. इतना उम्दा अनुवाद सीधे ह्रदय में उतरता है. गगन जी को साधुवाद. अक्का महादेवी पर कोई हिंदी में किताब लिखी गयी हो तो अवश्य बताएं.
Excellent translation, Gagan ji.
अद्भुत गद्य और विकल करती कविताएं ।
बहुत दिन बाद गगन को पढा और संवेदित हुआ
बहुत ही सुंदर, अंदर तक उतरने वाला और निष्काम. गगन जी ने अक्का का समूचा जीवन और बोध हमारे हृदय में उड़ेल दिया। लेखनी में कोई छल नहीं, कपट नहीं है. बस, चरम एकाग्रता की अवस्थिति…भक्ति से परे!
भारतीय साहित्य को भक्ति काव्य-धारा ने अपने विरल मानवीय मूल्यों से जितना स्मृद्ध किया , उसमें स्त्री संतो का भी योगदान रहा है। दरअसल,साहित्य जिन विपरीत परिस्थितियों की जमीन पर फलता हैं, वह स्त्रियों के लिए हर काल में कुछ अधिक यातनादायक रहा है । अक्का और मीरा के जीवन संघर्षों में जो सात्विक प्रतिरोध,सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह के बीज-तत्व मौजूद दीखते हैं ,वह हमारी जातीय परंपरा और भारतीय मनीषा की अन्यतम उपलब्धि हैं। अपने ईष्ट को सब कुछ समर्पित कर अक्का महादेवी में जो एक अदैत भाव का आविर्भाव हुआ,वह जीवन की परम सार्थकता है। गगन गिल का भावानुवाद बहुत ही सुंदर है।उन्हें बधाई !
अद्भुत वृत्तांत, अद्भुत भाषा-शिल्प। अभिभूत हूं।
– दिवा भट्ट
अक्क महादेवी के वचनों के गगन गिल कृत अनुवाद देखे पढ़े। उससे पूर्व गगन गिल का विवेचन भी, जो भाव के रस में ऊभचूभ करता हुआ बांधता है। ‘देह की मुंडेर’ में लिखे गए ऐसे ही रस-विचारपूर्ण विवेचनों की श्रृंखला में महादेवी के वचनों को आज की नई कविता फार्मेट में पढ़ कर अच्छा लगा। अनुवाद में भी ऐसा लगता है हम गगन गिल की कविताएं पढ़ रहे हैं। उसी भावमुद्रा का कई बार यह आवाहन सा लगता है।
उल्लेखनीय है कि अक्क महादेवी के वचनों का एक सुंदर और व्यवस्थित अनुवाद ”भैरवी” नामक पुस्त्क में इससे पूर्व यतींद्र मिश्र कर चुके हैं जो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है और चर्चित भी रही है। यतीन्द्र की भाषा भी निस्संंदेह ऐसे वचनों अभंगों के मूल रस-भाव में रमती हुई काव्यात्मक क्षितिजों को छूती है। अक्क महादेवी को पढ़ने और उनके काव्योंपम वचनो में डूबने के इच्छुक यह पुस्तक पढ सकते हैं ।
बहुत ही ज्ञानवर्धन करनेवाला आलेख । पहली बार परिचय हुआ महादेवी अक्का से। सुंदर और सुगठित भाषा के साथ छलकती संवेदना कहीं गहरे भीतर तक उद्वेलित कर गई मन के स्थिर, शांत वातावरण को। बहुत धन्यवाद् ऐसी अद्भुत भक्ति और कवयित्री से परिचय कराने के लिए।
गगन गिल और आपको बहुत बहुत बार सलाम। क्या अद्भुत पढ़वा दिया,शरीर रोमांच से भर गया। ग्यारहवीं सदी में इतनी महान कवयित्री हो चुकी थी,यह जानकर आश्चर्य हुआ है।अक्का महादेवी का परिचय वृत्त और उनकी कविताएं पोस्टर की तरह फैला देनी चाहिए।
Thank you Samalochan💐
मार्मिक व संवेदनशील आलेख और कविताएं। उतने ही सुंदर अनुवाद।
गगन जी को एक बार सुनने का मौक़ा मिला था पटना में। जो कविताएँ पढ़ी थीं उन में एक गहन आध्यात्मिकता थी। धरा के तल से तनिक ऊपर उठ धरा को आत्मा की आँखों से देखती हुई।
अक्क महादेवी को अपार्थिव दृष्टि से देख पूरेपन में समझकर लिखा गया परिचय और उनके वचनों की पुनर्रचना एक तन्मय काम था जो संभवत: वही कर सकती थीं।
अद्भुत लिखती है गगन गिल जी।
गगन जी के गद्य के छोटे छोटे वाक्य जादू रचते हैं। इन वाक्यों की स्फुट सरलता ही मानों इनमें सघनता को जन्म देती है☘️ अक्का महादेवी के जीवन और वचनों पर इससे सुंदर गद्य की कल्पना नहीं हो सकती☘️ और उनके वचनों को वे हिंदी में किस लाघव से उतार लाई हैं☘️
इतना सुंदर आलेख।पढ़कर मन तृप्त ही नहीं हो पा रहा है। कविताओं का अनुवाद भी बहुत अच्छा है ।
अक्का महादेवी के जीवन की गाथा और उनकी कविताओं को पढ़ते हुए कुछ देर के लिए इस दुनिया से परे हो गया। यह जो दुनिया हम आज बना रहे हैं, इससे एकदम परे। गगन जी की भाषा में जैसे अक्का का जीवन और सोच उत्तर आयी है। हम उसके साथ साथ एक दूसरी दुनिया में पहुंच जाते हैं। और फिर जैसे ही अपनी दुनिया में लौटते हैं, खुद पर गहरी शर्म महसूस होती है।