अक्क महादेवी के वचन
रूपान्तर
सुभाष राय
1.
प्रेम किया है सुंदरतम से
मरण न उसका, क्षरण न उसका
रूप न उसका, देस न उसका
जन्म नहीं है, अंत नहीं है
मां, सुन मेरा प्रेम वही है
प्रेम किया है सुंदरतम से
जिसे न बंधन, न कोई भय है
जाति न कोई, जगह न कोई
सुन्दर इतना, मुश्किल कहना
जूही जैसे धवल कंत संग मुझको रहना
बाकी पतियों का क्या करना
जिन्हें एक दिन मर जाना है
पीत पात सा झर जाना है
उन्हें उठा लो, ले जाओ, चूल्हे में डालो
मेरा पति तो अजर, अगम है
एक अकेला, सुन्दरतम है
2.
याद करता जिस तरह
प्रिय पर्वतों को, विंध्य को
वह झुंड से बिछड़ा
अचानक कैद में जाकर फंसा हाथी
ठीक वैसे याद करती मैं तुम्हें
याद करता जिस तरह
अपनी प्रिया को पिंजरे में कैद तोता
ठीक वैसे याद करती मैं तुम्हें
हे प्रभो जूही सरीखे !
रास्ते मुझको दिखा,
अब तो बुला ले पास कहकर,
अरे ओ बच्ची ! इधर,
इस राह से आ
3.
दिन के चारों पहर विरह का
दर्द जिया करती हूँ
निशि के चारों पहर
पीर में पगलाई रहती हूँ
जूही जैसे स्वामी! तेरे
प्रेम-रोग में पागल होकर
निशि-दिन मैं खोई रहती हूँ
जब से तेरे प्रेम का अंकुर
फूटा अंतरमन में
भूख, प्यास सब भूल गयी मैं
नींद उड़ी नयनन से
4.
प्रिय ! अगर तुम सुन सको
सुन लो, नहीं तो मत सुनो
सहन कर सकती नहीं
जीना तुम्हें गाये बिना
प्रिय ! अगर चाहो मुझे देखो
न चाहो मत निहारो
सहन कर सकती नहीं
जीना तुम्हें देखे बिना
प्रिय ! अगर समझो करो स्वीकार
या फिर करो अस्वीकार
सहन अब होगा न जीना
एक आलिंगन बिना
प्रिय ! अगर खुश हो सको, खुश हो
नहीं तो मत रहो खुश
सहन मुझको है नहीं
जीना बिना आराधना
प्रिय ! शिवा सुन, मैं तुम्हारी
अर्चना में हृदय वारूंगी
खुशी के पेंग मारूंगी
5.
सुनो बहन ! मैंने देखा
इक सपना, सुन लो
देखा मैंने चावल
देखा पान-सुपारी और नारियल
ताड़-पत्र भी देखा मैंने
धवल दन्त घुंघराले
बालों वाला इक सन्यासी देखा
भिक्षा पात्र संभाले था वह
भागी उसके पीछे
उसकी बाँहें गह ली
सन्यासी, जो चला जा रहा था
उलाँघते सारी सीमा
सीमाओं से परे
परे सारे बंधन से
जूही जैसे स्वामी को जब देखा मैंने
टूटा सपना, जागे नयना
6.
तन से, मन से और हृदय से
जो पावन हैं, एक बार उनसे मिलवा दो
कदम-कदम जिनके सच के संग
शब्द-शब्द आशीष वचन हैं
हे ! स्वामी जूही जैसे प्रभु
उन भगतों के दरस करा दो
अंधकार को कुचल ज्योति
की तरह दीप्त जो अंदर-बाहर
उन भक्तों से मुझे मिला दो
एक बार बस परस करा दो
7.
अब न मेरा है कोई भी
यह समझ कर
मत तिरष्कृत करो मुझको
तुम करो कुछ भी
मगर मैं चल पड़ी हूँ,
अब न लौटूंगी
पत्तियां खाकर रहूंगी
और सूली पर सजाकर
सेज सो लूंगी
दर्द मेरा बढ़ गया तो
साँस, तन प्रभु को चढ़ा दूंगी
हृदय पावन बना लूंगी
8.
हृदय तल से प्रेम करती
कल्पना करती कि वे भी प्रेम में हैं
इस तरह मुरझा गयी मैं,
मिट गयी मैं
बात इतनी है खुशी की
मैं गहन विश्वास करती हूँ शिवा पर
प्रेम को अपने छिपाये
गहनतर आशा लगाए
चेन्न को फिर भी न मैं अच्छी लगी तो
कर सकूंगी क्या, बता मां !
9.
बहन ! सुनो इक सपना देखा
देखा, एक भिखारी बैठा है पर्वत पर
सिर पर जटाजूट है उसके
मुंह में धवल दंत सुंदर हैं
उसने मुझको गले लगाया
आलिंगन में उसके अपनी सुध खो बैठी
देख शिवा को हे मां ! मैं सुध-बुध
खो बैठी
10.
क्या है, कैसे बतलाऊँ मैं
जब आँखों में होता है वह,
मन मेरा उसमें रमता है
है वो कौन, न मुझको उसका
तनिक पता रहता है
फिर भी मेरा हृदय उसी पर
ठहरा-ठहरा सा रहता है
चमक न बाकी है इस तन में,
घायल-घायल सा लगता है
कहने दो उनको, उनके मन को
जो भी अच्छा लगता है
शिव को छोड़ नहीं सकती मैं,
वह मेरे मन में रहता है
11.
मैंने तुमसे प्रेम किया है
तुमने मुझसे प्रेम किया है
तुम न अलग हो सकते मुझसे
मैं न अलग हो सकती तुमसे
मेरे-तेरे लिए कहीं
क्या अलग जगह है ?
तुम हो करुणावान बहुत ही
जैसे मुझको रक्खा तुमने
वैसे ही जीती आयी हूँ
प्रभु ! है पता तुम्हें भी सब कुछ
रहा न अब
अज्ञात कहीं कुछ
12.
जब मैंने देखा शाश्वत को
आते अपनी ओर
बुद्धि विलीन हुई तत्क्षण ही,
रहा न कोई ठौर
मन में दर्द उठा हे प्रभुवर !
हृदय खिल गया मेरा
मैं कठोर आलिंगन के
पिंजरे में इक कैदी सी
भूल दिशाएं पड़ी हुई
प्रभु चरणों में बेसुध सी
13.
प्रेम पहली नजर का यदि
शुद्ध है तो क्या गलत है
प्रेम अन्यों को नहीं
स्वीकारता तो क्या गलत है
प्रेम यदि शिव को कभी
तजता नहीं तो क्या गलत है
14.
रसविहीन पर्वत है
तो फिर पेड़ वहां
कैसे उगते हैं ?
सत्वहीन कोयला
अगर है तो वह
कैसे पिघला देता
लोहे को भी ?
बिना देह की मैं हूँ
यदि तो मुझको
मेरा शिवा प्रेम
करता है कैसे ?
15.
अष्टार्चन से क्या तुमको
खुश कर सकती हूँ मैं
आडम्बर से परे शिवा तुम
करके ध्यान तुम्हें क्या
खुश कर सकती हूँ मैं
मन से भी हो परे शिवा तुम
भजन और जप से क्या
तुम खुश हो जाओगे
वाणी से हो परे शिवा तुम
पाकर ज्ञान तुम्हें क्या
खुश कर सकती हूँ मैं
तर्क, बुद्धि से परे शिवा तुम
हृदय-कमल में तुमको
क्या रख सकती हूँ मैं
मेरे तन में भरे शिवा तुम
तुमको खुश करने की
है सामर्थ्य न मुझमें
मुझ पर बरसे कृपा तुम्हारी
शिवा ! खुशी बस यही
हमारी
16.
प्रार्थना मेरी सुनो तुम
प्रार्थना मेरी कृपा करके सुनो तुम
प्रार्थना स्वीकार मेरी कर शिवा !
दर्द मिश्रित रुदन मेरा क्यों न सुनते
और कोई है न मेरा, सिवा तेरे
तुम्हीं कारण, तुम्हीं आश्रय
सुनो हे प्रभु ! शिवा मेरे
17.
घर अगर गुरु आज आया
तो नयन के मेघ-जल से देह-घट भर
चरण उसका मैं पखारूंगी
शांति-अनहद को बनाकर
गंध-शीतल वदन पर उसके मलूँगी
और अक्षय-पात्र में चावल परोसूँगी
पुष्प अपने हृदय का उसको चढ़ा दूंगी
प्रीति पूरित भावना की धूप सुलगा कर धरूंगी
मधुरतम शिवलोर से दीपक जला लूंगी
उसे मैं संतोष का भोजन कराऊंगी
तृप्ति का मधु पान आखिर में खिलाऊंगी
पंचब्राह्मी वाद्य का पंचम सुनाऊँगी
प्रेम से उसको निहारूंगी
खुशी से नाच उठूंगी
भक्ति से होकर समर्पित
मगन भावातीत मन से गीत गाऊँगी
रोज उसके साथ खेलूंगी
ओ शिवा ! जिसने प्रकट मुझमें किया तुमको
गुरु चरण में बह चलूंगी
पिघल कर जल की तरह
18.
पति कोई घर के भीतर हो
बाहर कोई और
नहीं संभव हो सकता
पति कोई जग के भीतर हो
बाहर कोई और
नहीं संभव हो सकता
पति तो केवल शिवा हमारे
बादल के गुड्डों जैसे बाकी
पति सारे
19.
सुबह-सवेरे जगती जैसे
तेरा ही सुमिरन करती हूँ
फर्श साफ करती हूँ,
पानी से धोती जब
बाट जोहती हूँ बस तेरी
तेरी जगह बना रखी है
हरी पत्तियों की छाजन भी
ऊपर वहां लगा रखी है
नीचे पीढ़ा भी रखा है
जहाँ पाँव तुम रख सकते हो
बोलो कब आओगे प्यारे
हे शिव ! मन में बसे हमारे
20.
आलिंगन में मुझको
लेना चाहो तो प्रिय
सूरत अपनी जल्द दिखाओ
पूर्ण समर्पित दासी हूँ मैं
मुझको बाहर नहीं भगाओ
मुझको ऐसे नहीं खदेड़ो
कर तुम पर विश्वास
तुम्हारे पीछे आयी
जल्दी अपने हृदय कमल में
मेरे खातिर जगह बनाओ
अब तो प्रभु मुझको
अपनाओ.
सुभाष राय 21 जनवरी 1957 जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक हैं एक काव्य-संग्रह ‘सलीब पर सच’ और अग्रलेखों का संग्रह ‘जाग मछन्दर जाग’ प्रकाशित है. |
सुभाष राय जी इन वचनों में पैठने से पहले उस ज़मीन की गर्माहट का अनुभव करने भी गए थे, जिस ज़मीन पर इन वचनों का सृजन हुआ था । सुभाष जी के कवि मन ने इन वचनों की पुनर्सर्जना की है । बधाई ।
अक्क महादेवी पर कवितायें सबसे पहले गगन गिल जी द्वारा अनुवादित पढ़ीं और उनकी किताब तेजस्विनी पढ़ उस पर समीक्षात्मक आलेख लिखा जो गगन गिल विशेषांक और मेरी समीक्षा की किताब में सम्मिलित हैं.
अक्क महादेवी पर ये दूसरा अनुवाद पढ़ा है. दोनों अनुवाद पढने के उपरांत यही लगा, दोनों ने वही कहा. अक्क महादेवी के भावों का खूबसूरत रूपांतरण किया है.
प्रशंसनीय काव्यानुवाद !
अद्भुत है शिव भक्ति और शिव प्रेम। सटीक सरल अनुवाद के लिये बधाई 🎉🎊
बहुत ही सुन्दर, भावपूर्ण!
यही कहूँगा की प्रार्थना की शिल्प में रचित ये पद मंत्र की तरह हैं जिसे उच्चारते हुए मन को शांति मिलती है।
सुन्दर भावानुवाद.. शुभकामनाएं