परसाई और हिंदी व्यंग्य
विष्णु नागर
यह अप्रतिम व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की जन्मशती वर्ष है. उन्हें उत्तर भारत में जगह-जगह गोष्ठियों, व्याख्यानों, पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों, सोशल मीडिया आदि के माध्यम से याद किया जा रहा है. यह औपचारिक कर्मकांड नहीं है, उनके प्रति सच्चा प्रेम, अपनत्व, लगाव का प्रतीक है.
जिसने कभी उन्हें थोड़ा भी पढ़ा है, उसने, उनसे अपनत्व महसूस न किया हो, यह प्रायः असंभव है. परसाई जी और अधिकतर दूसरों लेखकों में अंतर यह है कि उनमें भी अनेक सामान्य जन के लेखक हैं, फिर भी उनकी रचनाओं की साधारण पाठकों तक वैसी रसाई नहीं हो सकी, जैसी परसाई जी की है.
प्रेमचंद के बाद पिछले पचास वर्षों में कोई लेखक इतना अधिक पढ़ा गया है तो संभवतः वह अकेले परसाई हैं. पठनीयता, सहजता और जन से गहरे लगाव के मामले में यही एक नाम सहज रूप से याद आता है. यह आम राय-सी है कि आजादी के बाद के बदलते भारत में आए बदलावों के बहुविध पक्षों को अगर कहीं एक जगह, एक गद्य लेखक में देखना हो तो वह अकेले हरिशंकर परसाई हैं.
परसाई उन लेखकों में नहीं हैं, जिन्हें उनके जन्मदिन या उनकी पुण्यतिथि पर ही अक्सर याद किया जाता है और बाकी समय वे स्मृति से ओझल रहते हैं. उनकी मृत्यु के लगभग तीन दशक बाद भी अखबारों-पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य अकसर छपे हुए मिलते हैं. सोशल मीडिया की जो भी अपनी समस्याएँ-सीमाएँ हों, यह माध्यम भी उन्हें नये पाठकों के पास लाया है. उनकी न जाने कितनी दो-तीन पंक्तियां ऐसी गंभीर और व्यंग्यात्मक हैं, जो बार- बार उद्धरणीय बनती रही हैं. प्रेमचंद के बाद जो लेखक सबसे ज्यादा उद्धृत किए गये हैं, वह परसाई हैं. 365 में से कम से कम 300 दिन किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं उनकी उपस्थिति दिखाई देगी.
इस समय के राजनीतिक वातावरण में बहुतों के मन में सत्ता का भय गहरा बैठा हुआ है, जो बिल्कुल हवाई भी नहीं है. सामान्यतः लोग साहस और निर्भीकता से लिखने-बोलने से बच रहे हैं. वह जज्बा अब नहीं रहा, जो आजादी से पहले या ठीक बाद में था, जब लोग परिणामों की चिंता किए बगैर सत्ता से भिड़ जाते थे. आज के माहौल में अनेक बार लोग कुछ कहना चाहते हैं तो प्रेमचंद और परसाई जैसे लेखकों के कथनों की आड़ लेते हैं या यूं कहें कि ऐसी स्थितियों में पाठक उन्हें अपने अधिक निकट पाते हैं.
कुछ हिंदी अखबारों ने भी कुछ हद तक छापामार शैली अपनाई है. परसाई जी यदा- कदा वहाँ भी दिख जाते हैं. सत्ता से भयभीत मालिकों और संपादकों को बहुत सा कूड़ा व्यंग्य छापने के बाद पापबोध सा होने लगता है तो परसाई और शरद जोशी के व्यंग्य उन्हें याद आते हैं. इस कारण साधारण नये पाठकों के मन में भी इन व्यंग्यकारों के बारे में निश्चित ही उत्सुकता जागती है. परसाई जन्मशती आशा है उनके और नये पाठकों को सामने लाएगी.
परसाई जी के लेखन से मेरा पहला परिचय उनकी किसी पुस्तक के माध्यम से नहीं हुआ. तब के किसी शिक्षक ने भी उनके लेखन पर कुछ नहीं कहा-बताया. उनके लेखन को पढ़ने की सिफारिश किसी ने नहीं की. परसाई जी के लेखन की पहुंच, तब तक शायद पाठ्य पुस्तकों तक थी नहीं. उनके साहित्यिक कद के बारे में तब कोई जानकारी मुझे नहीं थी. कहा जा सकता है कि हम जैसे हजारों पाठकों ने उन्हें लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पहले पहल खोजा. साहित्यिकों ने शायद उनका मूल्य बाद में जाना.
(दो) |
बारह-तेरह वर्ष की आयु से मुझे पत्र -पत्रिकाएँ-पुस्तिकाएँ पढ़ने का चस्का लग चुका था. उस समय इंदौर का ‘नई दुनिया’ अखबार मध्य प्रदेश का सबसे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय समाचार पत्र था. उसकी पहुंच मालवा से लेकर धुर बस्तर (तब बस्तर मध्य प्रदेश का हिस्सा था) तक थी! सामग्री और छपाई-सफाई में प्रदेश के अन्य स्थानीय अखबारों से वह मीलों आगे था, राष्ट्रीय स्तर पर भी वह हिंदी के समाचार पत्रों में अग्रणी था. उसमें तब सप्ताह में एक दिन परसाई जी और एक दिन शरद जी का व्यंग्य छपता था. ‘धर्मयुग’ आदि के माध्यम से उनके लेखन से परिचय बाद में हुआ. परसाई जी लोकप्रिय ही नहीं, बड़े व्यंग्यकार हैं, प्रगतिशील हैं, कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े हैं, यह सब बहुत बाद में जाना. उनका परिचय केवल उनके व्यंग्य थे, उनकी लेखनी की धार थी.
परसाई जी ने आजाद भारत में लिखना-छपना शुरू किया था. एक अर्थ में वह आज से बहुत बेहतर समय था. वह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व का काल था. उसे आजादी के बाद का सबसे बेहतरीन समय कह सकते हैं. कार्टूनिस्ट शंकर, नेहरू जी के अच्छे मित्रों में थे. उनसे नेहरू जी ने कहा था कि शंकर तुम मुझे मत बख्शना. मैं भी हाड़-मांस का मनुष्य हूं. गलती मुझसे भी होती है. शंकर ने उन पर करीब 400 तीखे व्यंग्य चित्र बनाए. तब असहमति के लिए मंत्रिमंडल के अंदर और समाज में जगह थी, उसका स्वागत था. इसी कारण परसाई जैसे लेखक नौकरी छोड़कर लेखन के दम पर जीने की सोच सके और समझौताविहीन होकर लिख सके.
बहरहाल बहुत ख्यात हो जाने, अनेक व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बावजूद परसाई जी के लिए अपनी विधवा बहन और उनके तीन बच्चों के साथ गुज़ारा करना बहुत आसान नहीं था. वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने अपने एक संस्मरण ‘सृजनात्मक और सक्रियता का अद्भुत संगम: हरिशंकर परसाई ‘(उद्भावना अंक 152) में लिखा है कि कवि मित्र सोमदत्त ने उन्हें एक बार एक घटना इस वायदे के साथ सुनाई थी कि इसका उल्लेख परसाई जी के जीवनकाल में कभी नहीं किया जाएगा.
घटना इस प्रकार थी. एक शाम जबलपुर में उनकी बहन ने परसाई जी से कहा कि बच्चे के लिए तीन दिन की दवा मंगवाना है. उनकी जेब में उस समय पर्याप्त धन नहीं था. वे तुरंत कागज-कलम लेकर लिखने बैठ गए और 15-20 मिनट में हाथ के लिखे दो पृष्ठ और दवा का पर्चा थमाकर सोमदत्त से कहा,
‘यह लेख फलां अखबार के संपादक को देना और कहना कि परसाई जी ने इस रचना के 10 रुपए मंगवाए हैं. यदि संपादक न मिले तो दूसरे अखबार के संपादक को यही बात कहकर आलेख देना और इस पर्चे की दवा ले आना.’
जब सोमदत्त ने दवा लाकर दी तो परसाई ने कहा कि इतनी जल्दी कैसे आ गए? उन्होंने बताया कि वह सीधे दवा की दुकान पर गये थे और एक दिन की दवा लेकर आ गए हैं, जो चार रुपए की है.
परसाई ने तनी हुई भृकुटी के साथ पूछा कि मैंने तुमसे क्या कहा गया था ? सोमदत्त ने कहा :
‘आलेख देकर भी पैसा ले आऊंगा लेकिन दवा जरूरी थी. क्या आपका भांजा मेरा कुछ नहीं लगता? मैंने आपसे पढ़ा और सीखा है और जीजी के हाथ से रोज एक कप चाय पी जाता हूं तो क्या मेरा इतना हक भी नहीं बनता?’
सुनकर परसाई जी के चेहरे के भाव बताए नहीं जा सकते. वह तत्काल मुड़े और काफी देर बाद जैसे मुंह धोकर बाहर आए और कहा,
‘अब इसको 15 रुपए लिए बिना मत देना.’
बहुत बचपन में अभावों में जीने के अभ्यस्त परसाई जी ने नौकरी छोड़कर फ्रीलांसिंग का रास्ता चुना था. अभाव उन्हें पहले भी तोड़ नहीं पाए थे. बाद में भी नहीं तोड़ पाए. अभावों का रोना उन्होंने कभी नहीं रोया. वह सिर उठाकर जिये और अपने लेखन के माध्यम से यही कहने की कोशिश की.
परसाई जी तब मैट्रिक में पढ़ते थे. उस समय उन पर स्कूल की फुटबॉल चोरी का आरोप लगा. उन्होंने लाख सफाइयाँ दीं मगर गरीब बच्चे की बात पर भरोसा कौन करता? अध्यापक ने फुटबॉल गायब होने के आरोप में उन पर एक रुपये का जुर्माना लगा दिया. उन्होंने अध्यापक से एक-दो बार विनती की कि जुरमाना माफ कर दीजिए मगर वे नहीं माने. पिता से कहा कि ऐसी-ऐसी बात है, जुरमाना दे दीजिए. पिता ने कहा कि अगर बात झूठी है तो जाकर जुरमाना माफ करवाओ.
परीक्षा एकदम पास थी और अध्यापक ने जुरमाना भरे बिना प्रवेश पत्र देने से मना कर दिया था. एक रुपये की वजह से उनका पूरा साल बिगड़ सकता था. अंततः उन्होंने पिता को धमकी दी कि अगर आपने एक रुपया नहीं दिया तो कल सुबह मैं घर से भाग जाऊँगा और फिर कभी नहीं लौटूँगा. तब खुद मरिएगा और अपने बच्चों को मारिएगा. मुझसे जो उम्मीदें आपने लगा रखी हैं, उन्हें भूल जाइएगा. तब जाकर परीक्षा से 10-12 घंटे पहले पिता ने उन्हें एक रुपया दिया और वह परीक्षा में बैठ सके. वैसे इस आरोप के बाद उन्हें एक बार आत्महत्या का खयाल भी आया था. उन्हें लगा था कि मैं गरीब हूँ इसीलिए चोर माना जाता हूँ, जबकि मैं पढ़ने में पूरे स्कूल का सबसे होशियार छात्र माना जाता हूँ. खैर वह बताते हैं कि आगे जो उनकी दृष्टि बनी, उसमें इस आरंभिक घटना का भी योगदान है.
एक और घटना ने उन्हें सिखाया कि हौसला कभी नहीं खोना है. घबराना नहीं है. रास्ता कोई न कोई देर -सबेर निकलेगा ही, बस रास्ता निकालने की कला आना चाहिए. ‘गर्दिश के दिन’ में वह लिखते हैं:
‘मैंने एक बड़ी चीज सीखी-बेफिक्री. जो होना होगा, वह होगा! क्या होगा, ठीक ही होगा. मेरी एक बुआ थीं.
गरीब, जिंदगी गर्दिशभरी मगर अपार जीवनीशक्ति थी उनमें. खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती, ‘बाई, न दाल है, न तरकारी.’ बुआ कहतीं, ‘चल चिंता नहीं.’ राह-मोहल्ले में निकलतीं और जहां उन्हें छप्पर पर तनी सब्जी दिख जाती, वहीं अपनी हमउम्र मालकिन से कहतीं- ‘ए कौशल्या, तेरी तोरई अच्छी आ गई है, जरा मुझे तोड़ कर दे’ और खुद ही तोड़ लेतीं. बहू से कहतीं, ‘ले बना डाल. जरा पानी ज्यादा डाल देना.’
मैं यहाँ-वहाँ से मारा हुआ उनके पास आता तो वह कहतीं,
‘चल कोई चिंता नहीं. कुछ खा ले.’ उनका यह वाक्य मेरे लिए ताकत बना- ‘ कोई चिंता नहीं.’
गर्दिश के दिनों में परसाई जी, जब आठवीं पास कर चुके थे, तभी उनकी मां की प्लेग से मृत्यु हो गई. इस कारण उनके पिता पूरी तरह टूट गए थे. इसके बाद बीमार, हताश, निष्क्रिय और अपने आप से डरे हुए पिता भी पांच -छह साल बाद चल बसे. बड़े बेटे होने के कारण बाकी भाई-बहनों की जिम्मेदारी उन पर आ गई और उसके बाद भी असमाप्य संघर्षों की लंबी कथा है मगर परसाई जी के शब्दों में इस सबके बावजूद वह कभी ‘बेचारे’ नहीं बने. इसका मौका उन्होंने आने नहीं दिया. नौकरी के लिए ट्रेन से बिना टिकट यात्रा की. कभी पकड़े गए तो अंग्रेजी के अच्छे ज्ञान ने उन्हें बचा लिया. एक दिन रेलवे स्टेशन पर लेट हो चुकी ट्रेन के इंतजार में बैठे थे. एक रुपए का नोट उनके पास था, वह कहीं गुम हो गया था. खाली पेट पानी से भर कर ट्रेन के इंतजार में जैसे-तैसे भूख से लड़ते रहे. हार-थक कर भूखे पेट बेंच पर लेटना ही एक उपाय था. इस तरह चौदह घंटे बीत चुके थे. इतने में एक किसान परिवार उसी बेंच पर बैठने आया. टोकरे में उनके अपने खेत के खरबूजे थे. परसाई जी लिखते हैं,
‘मैं उस वक्त चोरी भी कर सकता था‘.किसान खरबूजा काट रहा था. यह देखकर परसाई जी ने उससे कहा – ‘तुम्हारे खेत के होंगे. बड़े अच्छे हैं.’ उसने कहा-
‘सब नर्मदा मैया की किरपा है भैया. शक्कर की तरह हैं- लो ख़ाके देखो.’ उसने दो फाकें दीं. मैंने कम से कम छिलका छोड़कर खा लिया. पानी पिया .तभी गाड़ी आ गई और खिड़की से अंदर घुस गया ‘.
ये विवरण इसलिए कि परसाई जी ने जो पात्र रचे हैं, ढूंढे हैं, पाए हैं, उनमें भी इसी तरह बिना रोए-झुके मुसीबतों का सामना करने का अपार हौसला है. ये अभावों का रोना नहीं रोते, गिड़गिड़ाते नहीं. परसाई जी के अभिन्न मित्र हनुमान वर्मा बताते हैं कि जबलपुर ने ही उन्हें उनके सारे पात्र और सारी घटनाएँ दी हैं.
’परसाई की दुनिया, परसाई का जबलपुर है. हर कथा, हर कहानी, हर अनुभव में, कहीं न कहीं, जबलपुर की कोई न कोई घटना, कोई न कोई व्यक्तित्व उभर कर आ ही जाता है ‘ .
परसाई जी 1944 में बीस वर्ष की उम्र में जीवनयापन के लिए जबलपुर आ गए थे. उनका शेष जीवन यहीं बीता. स्वाभाविक है कि उनके लगभग सभी पात्र वहीं के हों. इनमें से बहुतों पर उन्होंने सीधा और खरा प्रहार किया है. कुछ का नाम लेकर और कुछ की ओर इशारा किया है. आचार्य से भगवान और फिर भगवान से ओशो बने रजनीश भी जबलपुर के थे. उन पर ‘टार्च बेचने वाले’ नामक बहुत मशहूर व्यंग्य परसाई जी ने लिखा. एक-दो बार सीधे भी कहीं रजनीश का नाम आया है. वहीं के सेठ गोविंददास भी थे. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे. उनकी ढोंगी वृत्ति पर परसाई जी के व्यंग्य का निशाना साधा है. (एक जगह रघुवीर सहाय ने भी परसाई जी की तरह हल्के-फुल्के अंदाज में सेठजी पर टिप्पणी की थी.).
दूसरी तरह के पात्र भी परसाई जी के यहाँ हैं लेकिन ये व्यंग्य के पात्र नहीं हैं, ये गहरी समझ, सहानुभूति और जीवनानुभव से निकले पात्र हैं. ये दृढ़ इच्छाशक्ति के संघर्षशील लोग हैं. खासकर मनीषी और रामदास जैसे पात्र खास ध्यान खींचते हैं. उनका जो चित्र परसाई जी ने खींचा है, वह एकदम अछूता है. कुछ सीमा तक ये व्यक्ति-चित्र मार्मिकता में ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ की याद दिलाते हैं. एक और तरह से देखें तो मुक्तिबोध पर लिखे उनके संस्मरणों की याद भी आती है. एक अनाम पात्र पर भी उन्होंने लिखा है. इसका शीर्षक है:
‘एक घंटे का साथ’. तीनों अलग तरह के पात्र हैं. यह अनाम चरित्र मध्यवर्गीय होकर भी उपेक्षित-तिरस्कृत है.
मनीषी के चेहरे पर लेखक के अनुसार कभी चिंता की छाया, दुख की मलिनता नहीं देखी गई. उसके पास खाने को नहीं है, फटा टाट उसकी शैया है, शरीर पर के कपड़ों के अलावा एक अंगोछा और एक फटा कंबल उसकी कुल संपत्ति है. उसने जीवन में कई-कई काम किए, तरह- तरह के पापड़ बेले, अनेक प्रयोग किए मगर अपने अक्खड़पन, तुनकमिजाजी के कारण उसे अंततः असफलता मिली. इसके बाद उसने निष्कर्ष निकाला कि कुछ न करना ही सबसे श्रेष्ठ कर्म है. ऐसा मनीषी उदारता में कर्ण है. शरणागत वत्सल है. मुसीबत का कोई मारा आ जाए तो घर में आटा हुआ तो उसके लिए दो रोटी और सोने के लिए गजभर का टाट हाजिर है. अगर खुद एक-दो दिन से भूखा है तो किसी के सामने वह हाथ नहीं फैलाएगा. ऊपर जाकर अपने कमरे में बांसुरी बजाएगा. यह संकेत है कि मनीषी एक-दो दिन से भूखा है क्योंकि भरे पेट वह कभी बांसुरी नहीं बजाता.
उधर रामदास है. अखबार में छोटा-मोटा काम करके महीने में कुछ पा जाता है. कानपुर जैसे बड़े शहर में परिवारजनों को छोड़कर पता नहीं क्यों जबलपुर चला आया है. हमेशा कुछ सोचता रहता है. यही उसकी पहचान है. इस नौकरी से उसका और परिवार का पूरा नहीं पड़ता. इस स्थिति में चाय और कुछ नमकीन अमूमन उसका दोपहर का भोजन है. तीन बरस से वह घर नहीं गया है क्योंकि बचत नहीं है. पूछो कि यहाँ पत्नी-बच्चों को कब लाओगे, तो जवाब यह नहीं होता कि इस तनख्वाह में कैसे लाऊं, कहां से कमरे का किराया चुकाऊं और कैसे दो बार की रोटी-सब्जी प्रबंध करूं! उसका जवाब होता है, पहले कोई अच्छा सा मकान मिल जाए!
स्वाभिमानी इतना कि कोई उसे चाय पिलाने का एहसान भी लाद नहीं सकता. परसाई जी पर जरूर उसकी कृपा रहती है. वह परसाई जी का चाय का निमंत्रण स्वीकार कर लेता है. कभी परसाई जी उसे न देख पाए हों तो वह आवाज़ देकर परसाई जी को चाय पीने बुलाता है. एक अनाम चरित्र भी है, जो एम ए पास है, अंग्रेजी, हिन्दी और राजनीति का विद्वान है. पहले किसी होटल में बैठकर घंटों मार्क्सवाद की व्याख्या किया करता था. खूब मस्त रहता था लेकिन उसे उसके योग्य नौकरी नहीं मिली तो सबके प्रति उसका दृष्टिकोण कटु और उपहासात्मक हो चुका है. वह किसी को बख्शता नहीं, परसाई जी को भी नहीं.
परसाई जी ने कभी किसी कमजोर की हंसी नहीं उड़ाई और किसी ताकतवर को बख्शा नहीं. चाहे वह उस जमाने के सबसे ताकतवर समझे जाने वाले नेता हों या अज्ञेय जैसे लेखक और नंददुलारे वाजपेयी जैसे आलोचक. अपने बारे में वह ठीक कहते थे-
‘मैं लेखक छोटा हूं, संकट बड़ा हूं.’
(तीन) |
साहित्य अकादेमी ने एक पुस्तक अंग्रेजी में प्रकाशित की थी. उसमें समकालीन हिंदी साहित्य पर एक लेख सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन (अज्ञेय) का था. अकादमी की उनसे अपेक्षा थी कि वह भारतेन्दु युग से उस समय तक के साहित्य की तटस्थ दृष्टि से चर्चा करेंगे. इसमें उन्होंने कुछ सर्वथा नई स्थापनाएँ कीं, जिनसे परसाई जी की सैद्धांतिक रूप से असहमति नहीं थी क्योंकि इसका हक लेखक को है मगर लेखक ने इसके माध्यम से ‘एक वर्ग और गुट के हितसाधन के लिए इस मौके का दुरुपयोग किया था’. यहाँ पर की गई नई संस्थापनाओं के बारे में भी परसाई जी का मत था कि इसके लिए साहित्य अकादमी की यह पत्रिका उचित फोरम नहीं थी.
काफी विस्तार से परसाई जी ने इसमें अज्ञेय की इन स्थापनाओं की खबर ली है. उनका कहना है कि इस लेख के माध्यम से लेखक ने वैचारिक मतभेद रखनेवाले दूसरे लेखकों पर प्रहार किया है. दूसरी आपत्ति उनकी इस लेख के कविता-केंद्रित होने से है. वात्स्यायन नामी अज्ञेय ने इसमें निराला, जैनेन्द्र और स्वयं के सिवा किसी और को खास चर्चा योग्य नहीं माना था. इसमें हिंदी साहित्य की समस्त सर्जना का केंद्र ‘प्रतीक’ पत्रिका (जिसके संपादक अज्ञेय थे), परिमल संस्था और अज्ञेय व्यक्ति को माना है. इसमें उन्होंने खुद को हिन्दी का सबसे बड़ा व्यक्तित्व साबित करने की कोशिश की थी. परसाई जी की आपत्ति इस पर थी. वात्स्यायन, अज्ञेय की तारीफ के पुल बांध रहे थे. आत्मप्रशंसा कर रहे थे.
इसी तरह नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक- ‘हिन्दी साहित्य’ के भी परसाईं जी ने परखचे उड़ाए. इस पुस्तक में वाजपेयी जी ने रामेश्वर शुक्ल अंचल को ‘क्रांति का सृष्टा, क्रांति का अग्रदूत‘ आदि कहा. बच्चन को चलताऊ ढंग से ‘आवारा और बेकार युवकों का प्रतिनिधि’ कहा. माखनलाल चतुर्वेदी को दो-तीन पंक्तियों में निबटा दिया. उग्र को ‘अनियंत्रित प्रवृत्तियों का साहित्यकार’ बताया. परसाई जी ने अपनी पत्रिका ‘वसुधा’ में इस लेख का सूक्ष्म परीक्षण किया. कांति कुमार जैन ने लिखा है कि ‘वाजपेयी जी, परसाई जी की इस बदतमीजी को कभी नहीं भूले ‘.
मुक्तिबोध पर परसाई जी ने शायद कुल तीन बार लिखा है. दो बार उनके न रहने पर और एक बार मुक्तिबोध के भोपाल के अस्पताल में पक्षाघात से पीड़ित होने पर भर्ती होने पर. जीवित मगर अस्वस्थ मुक्तिबोध के बहाने परसाई जी ने उस समय के मशहूर लेखकों की इस बीमारी पर संभावित प्रतिक्रियाओं के माध्यम से इनकी लेखन शैली का मज़ाक़ बनाया था. इसमें मैथिली शरण गुप्त, जैनेन्द्र , माखन लाल चतुर्वेदी, अमृत राय, प्रभाकर माचवे, ख्वाजा अहमद अब्बास तथा सोहन सिंह जोश की शैलियों की दिलचस्प खबर ली गई है. यह हल्का-फुल्का व्यंग्य है मगर उन्होंने ‘मुक्तिबोध: एक संस्मरण’ में प्रगतिशील आंदोलन के दौर के अवसरवादी लेखकों का नाम लिये बिना उनकी बहुत सख्त आलोचना की. तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र ने मुक्तिबोध की भोपाल में चिकित्सा करवाने के मामले में काफी दिलचस्पी दिखाई थी. इस कारण मुक्तिबोध उन दिनों अचानक काफी चर्चा में आ गए थे. परसाई जी ने लिखा है कि साहित्य की राजधानियों के कुछ लोग तब यह कहते पाए जाते थे कि ‘प्रांतीयता से ग्रस्त लोग’ मुक्तिबोध को बेवजह हीरो बना रहे हैं. इनका इशारा उन लेखकों की ओर था, जो मुक्तिबोध की बेहतर चिकित्सा में सक्रिय रुचि ले रहे थे लेकिन जब प्रयाग और दिल्ली के लेखकों ने और अंततः ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के यशस्वी संपादक शामलाल ने भी ‘अदीब’ नाम से अपने स्तम्भ में मुक्तिबोध के महत्व पर लिखा तो ये लेखक धराशायी हो गये. ये अपने बुनियादी रुख से पलट गए. मृत्यु के बाद ये मुक्तिबोध के नाम का गीत गाने लगे.
यह काबिले गौर है कि परसाई जी ने़ सेठ गोविंददास या आचार्य से भगवान और फिर ओशो बने, रजनीश पर व्यक्तिगत शत्रुता के भाव से नहीं लिखा. इनके पाखंड को उजागर किया. किसी भी प्रकार के पाखंड के खिलाफ लिखना वैसे भी वह अपना लेखकीय धर्म मानते थे.
अपने आप पर भी हंसना लेखकों के लिए अपेक्षया आसान होना चाहिए मगर कभी रहा नहीं. इसके विपरीत परसाई जी आत्मव्यंग्य की एक मिसाल थे. अतिशयोक्ति से काम लेते हुए वह अपने पर भी खूब फब्ती कहते हैं. अशोक वाजपेयी ने अपने संस्मरण में लिखा है :
‘वे गोरे चिट्टे थे. अक्सर अपना मज़ाक बनाते हुए कहते थे, वे अचानक गंगा या नर्मदापारीय ब्राह्मण हैं, जिनका वंशगत मूल किसी ब्राह्मणी द्वारा किसी अंग्रेज के साथ संबंध से निकला था ‘.
अपने साथ घटी कोई दुर्घटना हो या संघियों द्वारा उनके घर में घुसकर पिटाई पर वह खूब हंसे हैं. विडंबनाओं को उजागर करने का यह उनका अपना ढंग था.
‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ और ‘दुर्घटना-रस’ घर में फिसलकर टांग टूटने की घटना पर आधारित व्यंग्य हैं. ‘पिटने-पिटने में फर्क’ संघियों द्वारा उन्हें घर में पीटे जाने के प्रसंग पर है. ‘विकलांग श्रद्धा का दौर ‘ में वह लिखते हैं:
‘सोचता हूं लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा हो गई? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला ?कोई खास लिखा नहीं है. कोई साधना नहीं की. समाज का कोई कल्याण भी नहीं किया. दाढ़ी नहीं बढ़ाई. भगवा भी नहीं पहना. बुजुर्गी भी कोई नहीं आई.
लोग कहते हैं, यह वयोवृद्ध हैं और चरण छू लेते हैं. वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल हुई होगी. मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है. इस एक साल में मेरी एक ही तपस्या है- टांग तोड़कर अस्पताल में पड़ा रहा हूं. हड्डी जुड़ने के बाद भी दर्द के कारण टांग फुर्ती में समेट नहीं सकता. लोग मेरी इस मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर झट मेरे चरण छू लेते हैं. फिर आराम के लिए मैं तख्त पर लेटा ही ज्यादा मिलता हूं. तख्त ऐसा पवित्र आसन है कि उस पर लेटे दुरात्मा के भी चरण छूने की प्रेरणा होती है.’
‘दुर्घटना रस’ में वह लिखते हैं,
‘हड्डी टूटने में एक बड़ी असुविधा है. दिखाने को कुछ नहीं होता. हड्डी भीतर से टूटी है, ऊपर से सब ठीक-ठाक है. टूटी हड्डी दिखा नहीं सकते. एक स्टेज के बाद दर्द भी बंद हो जाता है. मिजाजपुर्सी करने वालों के सामने कराह भी नहीं सकते, ऐसा घाव बेकार चला जाता है. जिस दर्द को भुना न सकें, वह खोटा सिक्का है. 20-25 साल लिखते और तरह-तरह के सामाजिक काम करते हो गए. अस्पताल में भर्ती कई को कराया पर मैं पहली बार अस्पताल में भर्ती हुआ हूं. बड़ी घटना है. हलचल मचनी थी. कुछ धन मिलना था पर सरकार ने मदद की घोषणा करके मेरा सारा बाजार ही चौपट कर दिया. मैं तो बात को दबा जाता और पैसे बटोर लेता पर सरकार ने रेडियो और अखबारों में कुछ इस तरह खबर कर दी-
‘सुन लो लोगो, सरकार ने परसाई को पैसे दे दिए हैं. और चाहिए तो और दे देंगे. अब तुम उसके चक्कर में मत पड़ना. उसे हरगिज एक पैसा भी मत देना .नतीजा घातक हुआ. किसी ने मदद की बात नहीं की. हां अखबारों में समाचार और फोटो ज़रूर छपे.’
‘बेचारा भला आदमी’,’ तीसरे दर्जे के श्रद्धेय’ आदि न जाने कितनी व्यंग्य रचनाएँ हैं, जिनका प्रस्थान बिंदु उन्होंने स्वयं को बनाया है. वह किसी खास परिस्थिति में मनुष्य के अंदर उठनेवाले तमाम भावों को सामने लाने में भी संकोच नहीं करते, जिससे लेखक अक्सर बचते हैं.’ आना और न आना राम कुमार का’ खासतौर पर इस दृष्टि से उल्लेखनीय व्यंग्य रचना है.
परसाई जी के अभिन्नतम मित्र मुक्तिबोध थे. परसाई जी गद्यकार थे मगर मध्यकालीन से लेकर आधुनिक कविता तक में उनकी काफी अच्छी पैठ थी. उनके प्रिय कवियों में कबीर, तुलसी, ग़ालिब, निराला, फिराक गोरखपुरी आदि थे. उनके दो व्यंग्य स्तंभों का नाम कबीर को याद करते हुए- ‘सुनो भई साधो’ और ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में ‘ था. एक जगह वह कहते हैं –
‘मैं कबीर को बहुत मानता हूं. निश्चित रूप से वह बहुत सशक्त व्यंग्यकार थे. समस्याओं की उनकी पकड़ बहुत तीखी थी ‘.
मुक्तिबोध की प्रतिभा से आरंभ में चमत्कृत होनेवाले थोड़े ही लेखक थे, जिनमें प्रमुख शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी हरिशंकर परसाई थे. परसाई जी के मन में मुक्तिबोध के प्रति गहरा सम्मान था. नरेश सक्सेना ने अपने संस्मरण में लिखा है कि अपने छात्र जीवन के दौरान जबलपुर में रहते हुए उन्होंने परसाई जी को किसी की खातिरदारी उस तरह करते नहीं देखा था, जिस तरह उन्होंने मुक्तिबोध की, की थी.
मुक्तिबोध के जबलपुर आने पर परसाई जी ने एक शाम काव्यपाठ रखा था और व्यक्तिगत रूप से उनका खयाल रख रहे थे. चिकित्सा के लिए मुक्तिबोध को पहले भोपाल और बाद में दिल्ली लाने में परसाई जी की अहम भूमिका थी. मुक्तिबोध की कविता की क्लिष्टता पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था:
‘तुलसीदास को चार सौ वर्षों तक, हर वर्ष पंद्रह-बीस दिन, पूरे भारत में होनेवाली रामलीलाओं के रूप में राज्यसत्ता का जो समर्थन मिला था, उसका शतांश भी मुक्तिबोध को दीजिए, जनसाधारण को शिक्षित कीजिए, फिर देखिए मुक्तिबोध कहां पहुंच जाते हैं ‘!
परसाई जी के समकालीन व्यंग्यकारों से अच्छे संपर्क थे. वे परसाई जी के लेखन के प्रशंसक थे. शरद जोशी से एक समय तक उनकी काफी अच्छी मित्रता रही. रामप्रकाश त्रिपाठी के अनुसार परसाई जी के भोपाल आने पर शरद जोशी उन्हें अपने बड़े भाई जैसा सम्मान देते थे. परसाई जी जब भी भोपाल आते तो अकसर शरद जी के यहाँ ठहरते. किसी कारण कहीं और ठहरते भी तो शरद जी और उनके परिवारजनों से मिलने उनके घर जरूर आते. फिर दोनों के बीच मध्य प्रदेश सरकार की सांस्कृतिक नीति आदि को लेकर मतभेद पैदा हुए. ये प्रखर तब हुए, जब शरद जी ने ‘धर्मयुग ‘ में मध्य प्रदेश कला परिषद की पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ के प्रकाशन को लेकर एक लेख लिखा, जो विवादास्पद साबित हुआ. यह इस पत्रिका के संपादक अशोक वाजपेयी से उनकी हाल ही में पैदा हुई कटुता का असर था या शरद जी की सैद्धांतिक समझ का नतीजा, कहना कठिन है.
जोशी जी की मोटेतौर पर समझ यह थी कि सरकार के लिए आलोचना की पत्रिका का प्रकाशन अनुचित है. परसाई जी ने इस पर मुंबई के ही एक नये साप्ताहिक ‘हिंदी करंट ‘ के अपने साप्ताहिक स्तम्भ में व्यंग्यात्मक टिप्पणी की जिसके संपादक नवभारत टाइम्स के बंबई संस्करण के प्रमुख रहे महावीर अधिकारी थे. इससे जोशी जी बुरी तरह उखड़ गए. रामप्रकाश त्रिपाठी के अनुसार दोनों के बीच इन तीखे मतभेदों के बावजूद शरद जी के मन में परसाई जी के लेखन के प्रति सम्मान बना रहा. उनके मुताबिक इसी दौर की बात है कि शरद जी और ज्ञानरंजन जी भोपाल के न्यू मार्केट के बस स्टैंड पर हिंदी व्यंग्य पर चर्चा कर रहे थे, जिसके मूक गवाह रामप्रकाश त्रिपाठी थे. बातचीत के दौरान ज्ञान जी ने शरद जी से यह निजी सवाल भी पूछ लिया–
‘आपकी और परसाई जी की व्यंग्य शैली भिन्न है पर वह ऐसी कौन सी बात है, जिसमें आप परसाई जी का मुकाबला नहीं कर पाते?’
शरद जी ने गंभीरता से कहा-
‘परसाई जी बड़े हैं-उम्र और अनुभव- दोनों में. उनका व्यंग्य में योगदान अप्रतिम है. मुझ में परसाई को लेकर एक ही चीज का कांप्लेक्स है कि जिस सहजता से, एफर्टलेसली उनके यहाँ व्यंग्य आता है, वैसा हम एफर्ट करके ही ला पाते हैं. यह नैसर्गिकता उनमें अद्भुत है.’
इसी दौर का एक और प्रसंग बताया जाता है. उत्सव-73 की आयोजन समिति में अशोक वाजपेयी, शरद जी आदि लेखक-कलाकार शामिल थे. समिति की एक बैठक में सदस्यों के सामने इस अवसर पर सम्मानितों की सूची रखी गई. उसमें परसाई जी का नाम नहीं था. शरद जी ने बैठक में कहा कि इस सूची में परसाई जी का नाम नहीं होने के कारण मैं आयोजन समिति से अपने को अलग करता हूं. इतना कह कर वह बाहर आ गए. शाम को अशोक जी, शरद जी के घर आए और कहा:
‘शरद जी, आपके बिना उत्सव की कल्पना अधूरी है. आप मान जाइए. मैं रात को ही दिल्ली जा रहा हूं , मुख्यमंत्री जी वहाँ हैं. मैं सम्मान सूची में परसाई जी का नाम जुड़वा कर ही लौटूंगा.’
शरद जी ने जवाब दिया कि तभी मैं आयोजन समिति में वापस आऊंगा. अशोक जी ने अपना यह वायदा पूरा किया.
शरद जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनकी याद में मध्य प्रदेश सरकार ने व्यंग्य के लिए ‘शरद जोशी सम्मान’ की स्थापना की. पहला सम्मान परसाई जी को देने की घोषणा हुई. रामप्रकाश त्रिपाठी के अनुसार तब बहुतों का मानना था कि परसाई जी यह सम्मान लेने भोपाल नहीं आएँगे लेकिन वे आए. उन्होंने शरद जी के नाम का यह सम्मान स्वीकार किया.
परसाई जी को अपने व्यंग्य लेखन की श्रेष्ठता पर कभी संदेह नहीं रहा बल्कि जगदीश किंजल्क ने उनसे एक साक्षात्कार में पूछा कि आप पर आरोप है कि आप व्यंग्य विधा में किसी दूसरे रचनाकार को नहीं मानते. उनका बेधड़क जवाब था कि यह आरोप नहीं, सच है. उनके तमाम साक्षात्कारों में कहीं शरद जोशी समेत किसी समकालीन या बाद की पीढ़ी के किसी व्यंग्यकार के प्रति प्रशंसाभाव मुझे देखने को नहीं मिला.
एक साक्षात्कार में शैली की बात उठने पर उन्होंने श्रीलाल शुक्ल के मशहूर उपन्यास ‘राग दरबारी’ का नाम अवश्य लिया है मगर इसके विस्तार में वह नहीं गए. वह अपने से पहले की पीढ़ी के निराला और उग्र का नाम आदर से व्यंग्यकारों में लेते हैं. बाद की पीढ़ी के व्यंग्यकारों की नये विषय उठाने के लिए वह सामान्यीकृत प्रशंसा करते हैं मगर किसी का नाम लेकर उल्लेख नहीं करते. मुखर नहीं होते. इसे उनकी साफगोई माना जाए या दंभ या उनके अपने लेखन की श्रेष्ठता के प्रति उनका गहन विश्वास ?
समय ने परसाई जी को लगभग सच साबित किया है. वैसे शरद जोशी ने अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया, बहुत लोकप्रियता पाई. ‘नवभारत टाइम्स’ में उनके दैनिक स्तंभ ‘प्रतिदिन’ ने ऐसी लोकप्रियता पाई थी कि पाठक अंतिम पृष्ठ से अखबार पढ़ना आरम्भ करते थे, जहां उनका स्तंभ प्रकाशित होता था. रवीन्द्र नाथ त्यागी का भी अपना स्थान रहा और श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘रागदरबारी’ ने लोकप्रियता का एक रिकार्ड बनाया, यह अलग बात है.
परसाई जी अपने शहर के सबसे लोकप्रिय व्यक्तियों में थे. वह इस शहर के जीवन में हर तरह से घुले-मिले थे. वह वहाँ केवल लेखक बनकर नहीं रहे. शिक्षकों का मामला हो, श्रमिक आंदोलन हो, जबलपुर का बड़ा दंगा हो, ‘वसुधा’ पत्रिका का संपादन-प्रकाशन-वितरण -बिक्री का प्रश्न हो, उन्होंने हस्तक्षेपकारी जमीनी काम किया.
1961 के सांप्रदायिक दंगे के बाद शांति स्थापना और सही तथ्यों को सामने लाने के प्रयासों में वह काफी सक्रिय रहे. दंगे के बाद पीड़ित मुसलमानों के बीच जाकर विश्वास संपादन का काम उन्होंने किया. इसके अलावा अखबारों में उन्होंने तथ्यात्मक रिपोर्टिंग भी की.
उनके घर में घुसकर उन पर हमला करने की देशभर में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी. मजदूर नेता महेंद्र वाजपेयी के अनुसार जबलपुर में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी. शहर के साहित्यिक संगठनों से जुड़े लेखकों, बैंक, जीवन बीमा निगम, रक्षासामग्री उत्पादन संगठनों के लोगों ने हमले के खिलाफ आंदोलन चलाया, नुक्कड़ सभाएँ कीं, जिनमें परसाई जी पर इस हमले को एक क्रांतिकारी लेखक की वाणी तथा उसके अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमला बताया गया. पूरे चार दिन तक ये नुक्कड़ सभाएँ हुईं. विशाल प्रदर्शन भी निकला.
संघ के स्थानीय मुख्यालय पर ट्रेड यूनियनों एवं सामाजिक संगठनों की ओर से जुलाई की भारी बारिश के बीच करीब 5000 लोगों ने यह प्रदर्शन किया. दोषियों पर पुलिस कार्रवाई की मांग करते हुए प्रदर्शनकारी शाम को परसाई जी के घर पहुंचे. परसाई जी ने इन सबको संबोधित किया.
जीवन के अंतिम 17-18 वर्ष वह दुर्घटनावश टांग टूटने के कारण बिस्तर पर पड़े रहे. इस कारण उनकी राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता कम हुई मगर वे स्थानीय युवकों का मार्गदर्शन करते रहे. उनके अभिन्न मित्रों में एक महेन्द्र वाजपेयी और उनके जीवनीकार राजेन्द्र चंद्रकांत राय ने भी बताया है कि एक शिक्षिका शकुंतला तिवारी और उनके बीच आकर्षण था. विवाह तक बात पहुंची थी मगर इस बीच उनकी बहन के असमय विधवा हो जाने से बहन और उनके तीन बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उन पर आ गई. इस कारण अंतिम रूप से विवाह का इरादा उन्होंने छोड़ दिया.
इसके बावजूद लंबे अर्से तक शकुंतला जी परसाई जी को चाहती रहीं. उन्होंने लगभग तीन दशक तक परसाई जी से विवाह की प्रतीक्षा की.
परसाई जी के जुलाई,1976 में दुर्घटनाग्रस्त होने पर फिर से शकुंतला जी ने कहा कि आपकी इस हालत में मुझे आपके सुख-दुख का भागीदार बनने, सेवा करने का मौका दीजिए. परसाई जी ने यह कह कर इससे कोई लेना-देना इनकार कर दिया कि जब मैं शारीरिक रूप सक्षम था, सारे कार्य स्वयं कर सकता था, तब मैं विवाह नहीं कर सका तो अब जबकि शारीरिक रूप से एक तरह से विकलांग हूं, तब यह सोचना बहुत दूर की बात होगी. मैं किसी के जीवन को-जो सुखमय हो सकता था- उसे अपने साथ बांध लूं ,यह मेरे जैसे व्यक्ति की लिए संभव नहीं है.
विष्णु नागर जन्म: 14 जून, 1950,शाजापुर (मध्य प्रदेश) नवभारत टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान, कादंबिनी, नईदुनिया, और ‘शुक्रवार’ समाचार साप्ताहिक से जुड़ाव. 1982 से 1984 तक जर्मन रेडियो ‘डोयचे वैले’ की हिंदी सेवा में भी रहे.प्रकाशन: कहानी संग्रह– आज का दिन, आदमी की मुश्किल, कुछ दूर, ईश्वर की कहानियाँ, आख्यान, बच्चा और गेंद, रात-दिन, पापा मैं ग़रीब बनूँगा. आदि कविता संग्रह- मैं फिर कहता हूँ चिड़िया, तालाब में डूबी छह लड़कियाँ, संसार बदल जाएगा, बच्चे,पिता और माँ, कुछ चीज़ें कभी खोई नहीं, हँसने की तरह रोना, घर के बाहर घर, जीवन भी कविता हो सकता है. आदि व्यंग्य संग्रह– जीव-जंतु पुराण, घोड़ा और घास, नई जनता आ चुकी है, देश सेवा का धंधा, राष्ट्रीय नाक,छोटा सा ब्रेक, भारत एक बाज़ार है, ईश्वर भी परेशान है, सदी का सबसे बड़ा ड्रामेबाज उपन्यास– आदमी स्वर्ग में. आलोचना– कविता के साथ-साथ. जीवनी- असहमति में उठा एक हाथ: रघुवीर सहाय की जीवनी. आदि vishnunagar1950@gmail.com |
हरिशंकर परसाई को पढ़ा है। इस लेख में आई अधिकतर घटनाओं के बारे में भी पहले से मालूम था लेकिन परसाई जी पर आधारित पूरा लेख पढ़ते हुये दिल ख़ुश हो गया। प्रेमचन्द ने कहा था ‘अभाव जो जिन्दगी में सीख देती है वह बड़ी से बड़ी युनिवर्सटी से नहीं मिल सकती’। प्रेमचन्द और परसाई इन दोनो लेखको के लेखन में यह अनुभव बहुत सहजता से आता है और दिल में उतरता है। इनका ग़रीब रोता नहीं संघर्ष करता है।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। परसाई जी की राजनैतिक समझ का मुकाबला करना मुश्किल है। उतना ही मुश्किल है उनके जैसी साफ़गोई से लिख पाना।
बहुत सारगर्भित और परसाई जी पर आत्मीय आलोचना की दृष्टि के साथ
लिखा गया अद्भुत लेख।