अक्स
स्मृतियों के विलोपन के विरुद्धकमलानंद झा |
आत्मकथा में अपनी सुधि ली और दी जाती है, जीवनी में व्यक्ति विशेष की सुधि ली जाती है और संस्मरण में अमूमन दूसरों की सुधि ली और दी जाती है. अन्यों की सुधि लेना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि धीरे-धीरे समाज आत्मकेंद्रित होता जा रहा है. और जैसे-जैसे समाज की यह आत्मकेंद्रीयता बढ़ेगी संस्मरण की आवश्यकता और सार्थकता भी बढ़ेगी.
संस्मरण के केंद्र में स्मृति अवश्य होती है किंतु यह स्मृति अतीतराग नहीं होती. क्योंकि अतीतरागी संस्मरण के बहुतेरे खतरे हैं. वह पाठक को भविष्योन्मुखी नहीं अतीतजीवी बनाता है. अखिलेश की नयी पुस्तक ‘अक्स’ भविष्योन्मुखी स्मृतियों का कोलाज है. रेखांकित करनेवाली बात यह है कि इसमें न तो वर्तमान का ‘धिक्कार’ है और न ही भविष्य के प्रति निराशा-बोध. इस संदर्भ में अखिलेश का मानना है कि स्मृतियाँ वर्तमान और भविष्य को बेहतर बनाने की मुहिम में अतीत की ओर निश्चय ही ले जाती है लेकिन वहाँ से वे शक्ति ग्रहण करती हैं और जरूरी होने पर अतीत का विरोध करने में, उसकी भर्त्सना करने से गुरेज नहीं करती.
जीवन द्वारा मृत्यु को पछाड़ दिए जाने की ‘कथा’ है ‘अक्स’. कथा इसलिए कि अखिलेश ने अपने इस संस्मरण को इतने विलक्षण रूप से सिरजा है कि संस्मरण और कथा की दूरी यहाँ पटती नजर आती है. अखिलेश ने कथा-युक्ति से संस्मरण लिखने की कोशिश की है. एक श्रेष्ठ कथावाचक की सारी संभावनाएँ यक-ब-यक यहाँ उजागर हो गईं हैं. पूरी किताब में उजास और उम्मीद से भर देने वाली स्थापना यह की गई है कि स्मृतियाँ लोगों को मरने नहीं देतीं. लोग काया भले छोड़ दे, लेकिन लोगों की स्मृतियों में उसका अक्स ज्यों का त्यों बना रहता है.
काल तो उसे लोगों से छीन लेता है लेकिन स्मृतियाँ हैं कि फिर-फिर उग-उग आतीं हैं, और उसके अक्स को फिर हमारे बीच जगमगा देतीं हैं. और ये स्मृतियाँ व्यक्ति की मृत्यु की नहीं बल्कि उसके जीवन की हुआ करतीं हैं. इसलिए अखिलेश एक अद्भुत सूत्रवाक्य गढ़ते हैं-
‘स्मृतियाँ काल के घमंड को तोड़तीं हैं.’
अखिलेश ने अपने संस्मरण ‘अक्स’ में लिखा है कि स्मृतियाँ मुख्यतः लोगों की मृत्यु की नहीं जीवन की हुआ करती हैं. विडंबना यह है कि अखिलेश ने ‘अक्स’ में अपने माता-पिता की मृत्यु की स्मृतियों को ही प्रमुखता से दर्ज किया है. इसका कारण कदाचित यह है कि अखिलेश ने बहुत बारीकी से मृत्यु की ओर उनके बढ़ते कदमों को देखा है. सवा साल के अंदर ही बारी-बारी से माता-पिता की मृत्यु ने अखिलेश को मृत्यु से साक्षात्कार करवा दिया. मरते समय आँखों में होने वाले परिवर्तनों को अखिलेश ने बहुत करीब से लक्षित किया है. पिता की मृत्यु के लगभग सवा साल बाद माँ भी अखिलेश को छोड़कर चली जाती हैं. अखिलेश ने पिता की अनुपस्थिति में माँ के उस सवा साल को जिस तरह जीया, देखा और लिखा है; वह अत्यंत त्रासदपूर्ण है.
मृत्यु की ओर बढ़ती माँ की एक-एक हरकत की नोटिस उन्होंने अपने संस्मरण में ली है. क्रमशः माँ के विभ्रम का शिकार होना, उनकी पहचानने की क्षमता का लोप हो जाना, मृत व्यक्ति को उपस्थित मानना और उससे बातें करना, लोगों को पहचानने की क्षमता का खत्म होना, काल-बोध और स्थान-बोध का समाप्त हो जाना, खाना खाकर भूल जाना और फिर खाने की ज़िद करना आदि. यह सब कुछ लिखना अखिलेश के लिए कितना कठिन रहा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है. इस तरह के दुख को लिपिबद्ध करना दरअसल उस दुख को दुबारा जीने के सामान है. अखिलेश ने ‘अक्स’ में बहुत ईमानदारी से उस दुख को दुबारा जीया है.
अपनी सैद्धांतिक स्थापना के विरुद्ध अखिलेश ने ‘अक्स’ में मृत्यु से लड़ते मनुष्यों की स्मृतियों को भी बहुत सलीके से याद किया है. इसमें माता-पिता के अतिरिक्त रवींद्र कालिया और डीपी त्रिपाठी की जानलेवा बीमारी के साथ साँप-छछूँदर के लोमहर्षक खेल को अत्यंत संजीदगी से रेखांकित किया गया है. कई बार ऐसा लगता जैसे इन दोनों बहादुर ने इस बीमारी को लंबे समय के लिए पछाड़ दिया है. इन दोनों की जिजीविषा को संस्मरणकार ने उनकी हिम्मत और करुणा के भीषण द्वंद्व से उकेरने का प्रयास किया है. कालिया जी और त्रिपाठी जी को मृत्यु का वरण स्वीकार्य था, मदिरापान से तौबा नामंजूर था.
कई बेहतरीन संस्मरणों के बावजूद हिंदी में संस्मरण विधा कुछ दिन पहले तक हाशिए पर थी. आलोचना ने कभी संस्मरण विधा को तरजीह नहीं दी. कथा-कविता केंद्रित हिंदी आलोचना कई विलक्षण संस्मरणों की सुधि लेने से वंचित रह गई. विश्वनाथ त्रिपाठी का नामवर सिंह पर लिखा गया संस्मरण ‘हक जो अदा ना हुआ’ ने पाठकों का ध्यान संस्मरण विधा की ओर पुनः खींचा.
अज्ञेय, कमलेश्वर, हरिशंकर परसाई, राजेंद्र यादव, कांति कुमार जैन आदि साहसी संस्मरण लेखकों में शुमार किये जाते हैं. काशीनाथ सिंह के संस्मरण भले विवाद पैदा किये हों किंतु इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने संस्मरण-विधा को एक खास तरह की ताज़गी प्रदान की.
‘शराब’ को एक चरित्र के रूप में स्थापित करने वाले संस्मरणकार रवींद्र कालिया ने ‘ग़ालिब छुटी शराब’ में इस विधा को एक सर्वथा नया मयार प्रदान किया. ‘सूरज नदी में डूब जाता और हम ग्लास में’ बेहिचक कहने वाले रवींद्र कालिया ने इस संस्मरण में अपने को उधेड़कर कर रख दिया है. ‘वह जो यथार्थ था’ और ‘अक्स’ के बाद अखिलेश भी इन्हीं महत्त्वपूर्ण संस्मरणकारों की पंक्ति में खड़े नजर आते हैं.
पाठकों में संस्मरण की विश्वसनीयता उसकी सत्यता के कारण होती है. लेकिन संस्मरण कभी भी पूर्ण सत्य नहीं होता. क्योंकि स्मृति कई बार धोखा दे जाती है. प्रसिद्ध उपन्यासकार (अंग्रेजी) एंथनी पॉवेल की राय में
“संस्मरण कभी भी पूरी तरह सच नहीं हो सकते क्योंकि बीती हुई हर बात, हर घटना, हर परिस्थिति को संस्मरण में शामिल कर पाना मुमकिन भी नहीं है.”
वास्तव में संस्मरण सत्याभास होता है. स्मृति की आंखों से पूर्व-समय की चीजें बड़ी दिखाई देने लगती हैं. दूसरी तरफ़ हम बचपन की बहुत सारी बातें भूल भी जाते हैं. इसीलिए अखिलेश ने अपने बचपन को केंद्रित कर लिखे गए संस्मरण ‘वह जो यथार्थ था’ में स्वीकार किया है कि संस्मरण कभी भी पूर्ण सत्य नहीं हो सकते क्योंकि लिखने वाले के पास पूरी की पूरी याद बची नहीं रह पाती है. कभी-कभी उसकी पूँछ पकड़ में आती है, कभी कोई हाथ या कभी उस हाथ की सिर्फ उंगलियां या कभी-कभी एक उंगली भर. संस्मरण के इस आशय को फ़ैज़ के एक दूसरे संदर्भ में लिखी गई इन पंक्तियों से समझ सकते हैं-
दिल से तो हर मोआ’मला कर के चले थे साफ़ हम
कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई
अखिलेश अपने संस्मरण की कथात्मकता में पहले पाठकों को ‘फंसाते’ हैं, उसी तरह जैसे बेताल ने राजा विक्रम को अपनी कहानियों में फंसाया था. दरअसल अभी-अभी रिलीज हुई पुष्कर और गायत्री की फ़िल्म ‘विक्रम वेधा’ ने युवा पीढ़ी को विक्रम-बेताल की कथा को सन्दर्भवान बनाया है. एक तथाकथित अपराधी ऋत्विक रौशन की सार्थक और सर्जनात्मक कहानी में एक ईमानदार पुलिस अधिकारी सैफ अली उलझता चला जाता है और कहानी के अंत में यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि असली अपराधी कौन है- पुलिस या सद्यः दिखनेवाले अपराधी. और इसी सिलसिले में एक बार भारतीय कथावाचन परंपरा पुनर्नवा हुई है. तो अखिलेश ‘अक्स’ में पहले पाठकों को ‘उलझाते’ हैं और फिर जीवन के गंभीर फ़लसफ़े मसलन जीवन, मृत्यु, आत्महत्या, स्मृतियाँ, सामूहिक स्मृतियाँ, जनश्रुतियाँ, आदि को पाठक पढ़ता चला जाता है और अभिभूत होता चला जाता है.
इस संदर्भ में आलोचक विनोद तिवारी की टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है,
“इस किताब की शुरुआत आत्महत्या के एक दृश्य से होती है. आत्महत्या का सन्दर्भ लेकर अखिलेश जी मानव जीवन से जुड़ी एक बड़ी बात कहते हैं. मनुष्य की जिंदगी निजी होते हुए भी सिर्फ उसकी निज की संपत्ति नहीं है. उसके निज में समाज के रिश्तों का सबका अक्स मौजूद होता है.”
स्मृतियों पर सम्भव है, अखिलेश से पूर्व बहुत कुछ लिखा गया हो और उसमें बहुत सारा अच्छा भी हो, किंतु अखिलेश जी ने स्मृतियों पर लीक से हटकर विचार किया है. वे स्मृतियों को जीवन का बेशकीमती धरोहर मानते हैं तो स्मृतियों के विलोपन को मानवजाति का सबसे बड़ा अभिशाप. सत्ता-संरचना जनता की स्मृतियों को खुरच देना चाहती है. अखिलेश के ही गद्य का आनंद लें,
” ….सत्ताएँ स्मृतियों को तबाह करती रहती हैं. वे अच्छी तरह अवगत हैं कि यदि उनके गुनाहों और प्रताडितों के दु:खों का स्मरण जिंदा रहेगा तो उनकी किलेबंदी कभी भी ढह सकती है. अतः अपनी हिफाज़त के लिए जरूरी है, स्मृतियों का आखेट करो. उनकी निर्मिति में पलीता लगा दो, पहचान को मिटा दो. इसके लिए सभ्यता के जल में डाला गया है लालच, खुदगर्जी, किसी भी कीमत पर तुरंत चाहिए कि मनोवृत्ति वाली ‘अभी-अभी’ की संस्कृति का महाजाल. अतः यदि षडयंत्र से भिड़ना है, मानवजाति की धरोहर को बचाना है, शक्ति संरचनाओं का शिकार होने से बचना है तो उनका विलोम रचो. रोज़ जगाओ अपनी स्मृतियों को, उनको बचाने के लिए उन्हें रक्षा-कवच दो.”
सुल्तानपुर से इलाहाबाद और इलाहाबाद से लखनऊ तक की साहित्यिक हलचलों को सुनना हो तो अखिलेश की नयी किताब ‘अक्स’ को पढ़ा जाना चाहिए. उन दिनों इलाहाबाद के साहित्यिक हलके में गम्भीरता को मूर्खता का पर्याय माना जाता था. इसलिए इस मूर्खता से पर्याप्त दूरी रखकर ही एक से एक साहित्य रचे गए. अखिलेश ने इस गम्भीरता और हल्केपन के आंतरिक बुनावट को जिस जिंदादिल के साथ साझा किया है, वह ‘अक्स’ को एक अलग अक्स प्रदान करता है.
इलाहाबाद में शायद ही कोई साहित्यकार हो जिसका मज़ाक न बनाया गया हो, खिल्ली न उड़ाई गयी हो, एक-से-एक अजीबोगरीब कथा न गढ़ी गयी हो. अखिलेश इस मिजाज़ की पड़ताल करते हुए लिखते हैं,
“अपनी. महान प्रतिभाओं को देवत्व की जड़ता से बचाकर उन्हें मनुष्य ही बनाये रखने का इलाहाबाद का यह अपना ढंग था…. इलाहाबाद को देवता रास नहीं आते थे; ऐसा नहीं कि महानताएँ प्रिय नहीं थीं मगर महानता की धजा से सख़्त एतराज था. अतः यदि कोई महानता का जॉगिंग सूट बूट पहन कर दौड़ने को होता था तो उसे टंगड़ी मार दी जाती थी बल्कि इस तरह की नौबत आए उसके पहले ही वहां यह काम कर डाला जाता था, अतः इलाहाबाद नए युवा रचनाकारों से भी, उनको जमीन का आदमी बनाए रखने के इरादे से, चुहलबाजी करने में कोताही नहीं करता था. मार्कण्डेय जी कहते थे इलाहाबाद वह अखाड़ा है जिसमें नए रचनाकार को भरपूर पटखनी दी जाती है इसके बावजूद वह यदि टिका रहा तो भविष्य में वह कहीं भी पटखनी नहीं खाएगा.”
साहित्य का ‘नसेड़ी’ बनाने में जिन-जिन साहित्यकारों की अहम भूमिका रही है, उन्हें अखिलेश अत्यंत संजीदगी और आत्मीयता से याद करते हैं. आत्मीयता से याद करते हैं, पूज्यभाव से नहीं. उनकी खूबियों और सारी कमियों के साथ. रवींद्र कालिया, ममता कालिया, नेता डी पी त्रिपाठी, मुद्राराक्षस, वीरेंद्र यादव और श्रीलाल शुक्ल जैसे कद्दावर शख्सियत ही नहीं बल्कि बरवारीपुर गाँव का कवि मान बहादुर सिंह को भी अत्यंत रागात्मकता से याद करते हैं.
सर्वाधिक विस्तार से अखिलेश ने रवींद्र कालिया पर लिखा है. 330 पृष्ठों की किताब में सत्तर पृष्ठ रवींद्र कालिया के नाम. गाहे-बगाहे इसमें ममता कालिया भी आतीं हैं, अमरकांत, श्रीलाल शुक्ल आदि भी आते हैं. आते ही हैं, ठहरते नहीं. अखिलेश जी ने स्वीकार किया है कि उनकी निर्मिति में सर्वाधिक प्रभाव और सहयोग कालियाजी का रहा है. कच्ची उम्र से उन्होंने साहित्य का ककहरा कालिया जी के आवास पर ‘सांध्यकालीन’ बैठक में सीखा है.
रवींद्र कालिया की स्मृति इतनी रोचक है कि मात्र उनपर केंद्रित संस्मरण अखिलेश लिख सकते हैं. अखिलेश ने अपने अन्दाज़े बया में रवींद्र कालिया के कई अनोखे गुण बताए हैं तो कुछ दोष या कमियाँ भी बतायी हैं. जिनमें कालिया जी का सत्ता केंद्रों के प्रति आकर्षण एक है. वैसे यह दीगर बात है कि ‘आधुनिक’ युग में यह आकर्षण सफलता की कुंजी मानी जाती है. आग्रह और पूर्वग्रह, साहित्यिक दाव-पेंच एवं उखाड़-पछाड़ में रवींद्र कालिया की गहरी आस्था की ओर भी लेखक ने संकेत किया है. उदाहरण के लिए बातचीत में कालिया जी दूधनाथ सिंह की तीव्र आलोचना करते किंतु ‘सन्डे मेल’ में उनपर लिखे संस्मरण में उन्होंने तारीफ़ के पुल बांध दिये. अखिलेश ने जब इस रहस्य को जानना चाहा तब रवींद्र कालिया ने ‘गुरुमंत्र’ देते हुए जो कुछ कहा, उसे सुनकर आप चकित रह जाएंगे
“दूधनाथ को अपनी तरफ करके ज्ञानरंजन को कमजोर करना है. कुछ दिनों तक ऐसा हुआ भी. लेकिन संस्मरण छप जाने के बाद की बात है. ‘पहल’ के पृष्ठों पर ज्ञानरंजन और दूधनाथ सिंह की जुगलबंदी में कालिया जी के बारे में नकारात्मक प्रकाशित हुआ. इसके एकाध साल बाद कालिया जी दूधनाथ को कमजोर बनाने के लिए ज्ञान जी के साथ थे. एक बार कालिया जी के घर पर ज्ञान जी आए हुए थे, मैं भी था, उन्हीं दिनों दूधनाथ जी का नाटक ‘यमगाथा’ प्रकाशित हुआ था. चर्चा चलने पर मैंने उस नाटक के विरुद्ध काफी तीखे तर्क प्रस्तुत किए तो ज्ञान जी और कालिया जी दोनों ने ही निर्णय सुनाया कि मुझे ‘पहल’ के लिए यमगाथा की समीक्षा करनी है. मैंने लिखा और लिखित रूप से जिंदगी का पहला गुरुद्रोह किया था.”
‘अक्स’ को पढ़कर पता चलता है कि कालिया जी भले जोड़-तोड़ करने में रुचि रखते हों किंतु अपने को प्रमोट करने हेतु उन्होंने कुछ नहीं किया. लंबे समय तक युवा रचनाकर उनके फैन रहे. लेकिन वे कभी भी अपने ऊपर लिखने के लिए उन्हें प्रेरित नहीं किया. वे ज्ञानपीठ, और भारतीय भाषा परिषद जैसे प्रमुख साहित्यिक संस्थाओं के प्रमुख रहे, दो दशकों तक हिंदी साहित्य के सर्वाधिक रसूखदार शख़्सियत रहे, लेकिन जीते जी उनपर किसी पत्रिका का विशेषांक नहीं आया. संस्मरणकार के अनुसार यह पद और प्रसिद्धि के प्रति उनकी निर्लिप्तता को दर्शाता है.
‘सूखे ताल मोरनी पिंहके’ मानबहादुर सिंह की काव्यपंक्ति को शीर्षक बनाकर अखिलेश ने इस कवि को पूरे पंद्रह पृष्ठों में याद किया है. हिंदी पढ़ने वाला आज का कोई विद्यार्थी शायद ही इस कवि का नाम सुना हो. साहित्य की धामा-चौकड़ी में सुल्तानपुर जनपद के मानबहादुर जैसे न जाने कितने कवि गुम हो जाते हैं. अखिलेश ने मानबहादुर के बहाने साहित्य की इस दुखती रग पर हाथ रखने का प्रयास किया है. हिंदुस्तान का कौन सा शहर-कस्बा होगा जिसमें मानबहादुर जैसे कवि न हों.
“मेरे ख़याल से अस्सी के बाद के कविता परिदृश्य में जितना विपुल लेखन उनका था किसी अन्य का नहीं.” और इतना ‘विपुल’ लिखने वाला कवि अंततः टूट जाता है, उसे प्रकाशक नहीं मिलते और वह भटक जाता है. प्रिंसिपल बनने के बाद एक सीधे-साधे कवि की दिनदहाड़े सैकड़ों लोगों के बीच की गई हत्या के रहस्य को लेखक ने रहस्य ही रहने दिया है.
24 जुलाई 1997 को एक उदंड हत्यारा कॉलेज आता है और भीड़ के बीच प्रिंसिपल की हत्या कर जाता है. किसी की हिम्मत नहीं होती विरोध करने की. लेखक ने भीड़ की कायरता को प्रश्नांकित तो किया है किंतु पाठकों की जिज्ञासा जस की तस बनी रह जाती है कि एक सरल, सहज साहित्यकार- प्रधानाचार्य की इस कदर हत्या क्यों?
यद्यपि यह जरूरी नहीं कि संस्मरणकार पाठकों की हर जिज्ञासा शांत ही करे. किंतु जिस आत्मीयता से अखिलेश जी ने मान बहादुर को याद किया है, पाठकों का गहरा रिश्ता उनसे बन जाता है. और इस रिश्ते की माँग बन जाती है कि वे अपने प्रिय कवि की हत्या के कारणों को जाने और अपराधियों की सजा के बारे में भी समझें. इस हत्या ने पूरे देश के साहित्यकारों को झकझोर कर रख दिया था. कई स्थानों पर प्रतिवाद मार्च निकाले गए. देश के विभिन्न अंचलों से आवाजें मुखर हुयी थीं. 10 जनवरी 2016 को ‘समालोचन’ में अखिलेश जी ने दिल्ली में हुए साहित्यकारों के प्रतिरोध के बाबत लिखा है,
“साहित्यकारों का एक बड़ा जत्था प्रतिरोध में निकल पड़ा था. जिनमें विश्वनाथ त्रिपाठी, इब्बार रब्बी, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, अजय तिवारी, सुरेश सलिल, अजेय कुमार, चंचल चौहान, संजय चतुर्वेदी आदि शामिल थे. साथ में एक नाट्य मंडली भी थी. ये सारे लोग दिल्ली से सुल्तानपुर पहुंचे, वहां से बेलहरी जहाँ हत्या हुयी थी. यहाँ नारे, भाषण और नुक्कड़ नाटक हुए. फिर सारे लोग मान बहादुर जी के गाँव बरवारीपुर हाथों में प्रतिरोध की तख्तियां लिए हुए मौन जुलूस के रूप में गए. रात में तहसील कादीपुर में कवि सम्मेलन हुआ. लौटते वक्त राजधानी लखनऊ के हजरतगंज में गांधी जी की मूर्ति का पास धरने का कार्यक्रम हुआ जिसमें अनेक रचनाकार शामिल थे. व्यापक विरोध के कारण अपराधी पकड़ा गया था.”
‘अक्स’ का एक अध्याय है ‘भूगोल की कला’. मजे की बात यह है कि इसमें भूगोल की कोई बात नहीं है. भूगोल में मेरी कोई रुचि नहीं है, इसलिए में इस चेप्टर को जम्प करने की फ़िराक़ में था. लेकिन कुछ शब्दों ने मुझे अटका दिया. जब पढ़ा तो बहुत-कुछ सीखने को मिला. रूढ़ अर्थों में कहूँ तो यह गद्यशास्त्र पर आधारित चेप्टर है. गद्य की कोई भी विधा आप लिख रहे हों…मार्गदर्शन का काम ले सकते हैं. भाषा-शिल्प-वस्तु के आंतरिक संबंध और किसको कितनी तरजीह दी जाय, शीर्षक रखने का तौर-तरीका, कथा बुनने की तमीज़, शब्दों के प्रयोग और दुहराव की समस्या आदि पर नयेपन के साथ ही नहीं बल्कि मनलग्गू तरीके से.
अपने कभी सोचा है कि किसी शब्द के बार-बार प्रयोग से ऊब पैदा होती है-
“क्या ऐसा हो सकता है कि शब्द एक ही इरादे से, वाक्य में एक ही जगह पर एक ही तरीके से इस्तेमाल होते-होते ऊब जाते हों और समुचित या अपेक्षित अर्थ देने से इंकार कर देते हों. आखिर ऊबना किसी भी संवेदनशील अस्तित्व का गुणधर्म है और शब्द तो सबसे अधिक संवेदनशील तथा संवेदनजनक होते हैं. शब्दों को सर्वाधिक प्यार करने वाले यानी लेखक समुदाय के लिए भी ऊबना उसकी सृजन शक्ति हेतु प्राणवायु है.”
नाटक में ही नहीं कहानी और उपन्यास में भी संवाद के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता. संवाद के घात-प्रतिघात से रचना में चमक आ जाती है. लेकिन संवाद सृजन की कला कोई खेल नहीं. यही कारण है कि कई शानदार नैरेशन लिखने वाले नीरस संवाद लिख बैठते हैं. दूधनाथ सिंह संवाद लिखने का गुर अखिलेश को बताते हैं-
“जब संवाद लिखो तो ध्यान में रहे कि दूसरे पात्र का संवाद पहले वाले का जवाब भर नहीं होता, वह अपने आप में स्वतंत्र अर्थ की सृष्टि भी करे. एक संवाद अगले वाले का जनक या पूर्ववर्ती का पूरकमात्र न होकर खुदमुख्तार संरचना होता है और आत्मनिर्भर आशय की सृष्टि करता है. मैं इसे आगे बढ़ाना चाहूंगा: कथोपकथन ही नहीं, संपूर्ण रचना में कोई वाक्य कोई शब्द पूर्ववर्ती का अनुचर न हो, उसकी हां में हां मिलाने का काम न करे. हर शब्द हर वाक्य को अपनी गरिमा के दीप्ति से चमकना चाहिए. रचना में शब्दों की भूमिका उस दौड़ के धावकों की तरह रहनी चाहिए जिसमें एक धावक दौड़ते हुए आता है मशाल दूसरे को थमा देता है.”
‘अक्स’ साहित्य रचने की कला ही नहीं सिखाता बल्कि साहित्य सृजन के संघर्ष की कथा भी कहता है. ‘अक्स’ पढ़कर आप यह जान पाएंगे कि केवल गंभीर पठन -पाठन ही साहित्य के रास्ते नहीं बनाते, बल्कि थोड़ी आवारगी, थोड़ी घुम्मकड़ी, थोड़ी लफ़्फ़ाजी, थोड़ी चुहलबाजी, थोड़ी संजीदगी, थोड़ी गप्पबाज़ी और सबसे बढ़कर साहित्यकारों की अड्डेबाजी आपके साहित्य की समझ को दुरुस्त करती है. अगर आप सचमुच सृजन पथ के राही हैं तो ‘अक्स’ में आपको अपना भी अक्स दिखेगा आधा-अधूरा नहीं,पूरा-पूरा.
अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए एक कार्यक्रम में अखिलेश ने जो कहा, उस पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है,
“इस किताब को लिखते हुए मैं जितना दूसरे लोगों के बारे में लिख रहा था उतना ही आने बारे में भी लिख रहा था. एक तरह से देखा जाए तो यह एक ऐसी स्मृति यात्रा है जिसमें जगहें,चरित्र और मेरा स्व तीनों मिले हुए हैं. उन्होंने कहा कि मानव जीवन के जो बुनियादी सवाल हैं उनसे टकराते हुए अपनी स्मृति को दर्ज किया गया है.”
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कमलानंद झा हिन्दी और मैथिली आलोचना में गहरी अभिरुचि. सौ से अधिक नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति एवं निर्देशन. हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार आलोचना-लेखन. तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध (वाणी प्रकाशन), पाठ्यपुस्तक की राजनीति (ग्रन्थशिल्पी), मस्ती की पाठशाला (प्रकाशन विभाग), नागार्जुन: दबी-दूब का रूपक(अन्तिका प्रकाशन) राजाराधिकरमण प्रसाद सिंह की श्रेष्ठ कहानियां, सं0(नेशनल बुक ट्रस्ट), होतीं बस आँखें ही आँखें (यात्री-नागार्जुन का रचना-कर्म, विकल्प प्रकाशन), आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं. ‘मैथिली उपन्यास: समय, सामाज आ सावाल’ तथा नवमल्लिका मैथिली में प्रकाशित. रस्किन बांड की कहानियों का अनुवाद ‘देहरा मे आइयो उगैत अछि हमर गाछ’ नाम से साहित्य अकादमी से प्रकाशित. सम्प्रति: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत. |
‘अक्स’ संस्मरण विधा की एक महत्त्वपूर्ण किताब है। संस्मरण साहित्य के इतिहास से अधिक जीवंत होते हैं और उन में ‘साहित्यिक इतिहास’ भी झाँकता है। इस किताब में कुछ व्यक्तियों के सहारे आधुनिक भारत के एक कालखंड की साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया का रोचक दस्तावेज संगृहीत है। यह समीक्षा संस्मरण से जुड़ी सैद्धांतिक बातों के साथ ‘अक्स’ के मर्म तथा उसकी विशिष्टता को शानदार तरीक़े से उद्घाटित करती है।
अति श्रेष्ठ समीक्षा . सशक्त अभिव्यक्ति , इसे शोध परक समीक्षा कहना अतिश्योक्ति न होगी .
स्मृतियों के संदर्भ में अखिलेश जी का यह कहना सही प्रतीत होता है कि सत्ताएँ अपने हित में स्मृतियों का आखेट करती हैं।रोचक एवं पठनीय आलेख।
अक़्श की समीक्षा ऐसी है जो सचमुच अक़्श का अक़्श बन जाती है। सिद्धहस्त कथाकार हैं अखिलेश जी और सर्वोत्तम संपादक भी। उनकी इस महत्वपूर्ण किताब को हर कोई पढ़ना चाहेगा।
स्मृतियां जीवित व्यक्ति के जीने का सहारा हैं । बीते हुए पलों को याद करना अपने घर-परिवार, बिछुड़े मित्र,
साथी, दोस्त को याद करना उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना है। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो वे आत्मा पर बोझ बनकर हमारी शक्ति को क्षय करते हैं। कहानियां भी स्मृत-दंश हैं। लेखक उनसे धीरे-धीरे उबरता है। बहरहाल, कमलानंद झा जी के इस लेख ने अखिलेश जी के ‘अक़्श’ को पढ़ने पर ध्यान केन्द्रित कर दिया है।
समालोचन को बधाई, लेखक का आभार।
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