दर्ज न होने का दर्दशम्मा शाह |
कुष्टिया नामक जगह को ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ उपन्यास पढ़ने से पहले मैंने नक्शे पर तक नहीं देखा था लेकिन साहित्य और साहित्यकार की ताकत देखिए कि इस कुष्टिया नामक जगह को आज इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, मुझे लगता है जैसे मैं भोपाल शहर से भी बेहतर जानती हूं जहां मेरा लगभग समूचा जीवन बीता है!
अलका सरावगी जिंदा धड़कते भूगोल को सिरजने वाली लेखिका हैं. यूँ उनके उपन्यास अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के लिए जाने जाते हैं और यह बात उनके उपन्यासों के संदर्भ में सही भी है. किंतु, उनके उपन्यासों का अपने पाठकों के स्नायु तंत्र पर जो गहरा प्रभाव पड़ता है उसका कारण उनके किरदारों का ठोस अवस्थिति बोध है जो काल खंड विशेष की ऐतिहासिक और भौगोलिक संरचना के संश्लिष्ट रसायन से निर्मित होता है.
तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश के कुष्टिया और आसपास के इलाकों में हुए दंगों, कई कई किश्तों में होते रहे पलायन, मुक्त वाहिनी के संग्राम की पृष्ठभूमि पर रचा गया यह उपन्यास बड़ी शिद्दत से लोगों के अपनी जड़ों से उजड़ने, विस्थापित होने को दर्ज करता है. पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से हुए विस्थापन पर यूं भी नहीं के बराबर चर्चा हुई है या लिखा गया है. अलका सरावगी की लिखने की पद्धति में जितना हाथ कल्पनाशीलता का होता है उतना ही शोध का भी होता है. वे अपने विषय के तमाम ज़रूरी– गैर जरूरी ब्योरों को नाना सूत्रों से एकत्रित करती हैं, और फिर उन्हें तब तक खंगालती हैं जब तक कि उपन्यास की पृष्ठभूमि अपने समूचे देशकाल के साथ उनके सम्मुख अर्क के रूप में निथर कर एकत्रित नहीं हो जाती.
इस अर्क में वहाँ की आबो हवा, गंध, मिट्टी का मिजाज़, वनस्पति, लोगों का मिजाज़, खान पान, सोच, उस इलाके, उस काल की भाषा, रोज़मर्रा की बोलचाल में इस्तेमाल होने वाली कहावतें, मुहावरे सब अपना विशिष्ट स्वाद लिए उपस्थित हो जाते हैं. एक साहित्यकार की गहन सहानुभूति और अंतर्दृष्टि से किया जानेवाला यह शोध एक नृतत्वशास्त्री के अथवा सर्वे कर्ताओं के काम से बहुत भिन्न होता है. यहां शोध का उद्देश्य महज़ तथ्यों को एकत्रित करना और उनसे कोई निष्कर्ष निकालना नहीं होकर, मानव जीवन की कूल–कंदराओं में गहरे और गहरे उतरना होता है. इतिहास के घूमते पहिए के नीचे लहूलुहान और बेवजह तबाह होते साधारण जीवन और कुंठित होती मानवीय भावनाएं, परस्पर संबंध यहां दर्ज होते हैं. साहित्यिक कृति में चूंकि यह इतिहास एक निर्वयक्ति संघटक की तरह नहीं बल्कि विविध पात्रों के निजी जीवन में ऐन उस घड़ी घट रहे के रूप में दर्ज होता है इसलिए उसमें मानवीय ऊष्मा होती है. वह जीता जागता, धड़कता सबाल्टर्न इतिहास रचता है. इस लिहाज़ से देखें तो अलका सरावगी का यह उपन्यास पैनी इतिहास दृष्टि और कल्पनाशीलता के साथ लिखा गया पूर्वी पाकिस्तान, बाद में बांग्लादेश बनने और वहाँ से विस्थापित हुए और वहीं आधे अधूरे छूट गए लोगों के जीवन का एक सबाल्टर्न दस्तावेज़ भी है.
एक व्यक्ति के लिए उस जगह से जहां वह और उसके पुरखे वर्षों, पीढ़ियों से रहते आए थे, विस्थापित होना कुछ वैसा ही है जैसे नदी किनारे लगे एक छतनार वृक्षों को जड़ समेत उखाड़ कर किसी सुदूर, सूखे इलाके की मिट्टी में फिर से रोपित कर दिया जाए. उपन्यास में जड़ों से उखड़ गए पात्रों के जब दुख में आंसू बहते हैं तब अपने बहते हुए आंसुओं मैं भी उन्हें अपने इलाके की असंख्य नदियां याद हो उठती हैं. उपन्यास में एक जगह एक पात्र ईस्ट बंगाल की असंख्य छोटी बड़ी जल धाराओं को याद करते हुए बहुत ही मार्मिक और काव्यात्मक रूप में कहता है कि वहाँ मानो हर इंसान के आंसुओं से बनी उसकी अपनी एक निजी नदी थी !
सहस्त्र धाराओं से सिंचित भूखंड से उजड़े लोगों को जब दंडकारण्य की लाल मुरम मिट्टी वाले इलाके में अपनी जड़े फिर से जमाने के लिए जमीने दी जाती हैं तो उन लोगों के साथ-साथ पाठक भी अपनी त्वचा, आंख, नाक और फेफड़े में जमा हुई सूखी लाल मिट्टी की परत को महसूस करता है. आर्थिक रुप से नष्ट होने के बाद फिर शून्य से शुरुवात करने की त्रासदी के साथ-साथ अपने चिर–परिचित परिवेश से बिछुड़ने की मनोवैज्ञानिक व्यथा से उबारना क्या संभव भी है? कितने लोग आर्थिक संत्रास को सह जाते हैं पर सूखी, निर्जल हवा के आदी नहीं हो पाते. परिवेश कितना जीता जागता यथार्थ है कि शब्दश: वही हमारे अंतर्मन को रचता है. एक गरीब, सामाजिक रूप से पिछड़ी जाति के युवक, श्यामा धोबी के लिए गोराई नदी का घाट दरअसल वह जगह, वह घाट है, जहां वह अपने जीवन को पछीट पछीट कर, उसे किंचित उजला करने का स्वप्न देख सकता है.
अलका सरावगी के उपन्यासों से परिचित पाठकों को इस उपन्यास को पढ़ते हुए इसके पात्रों – कुलभूषण बाबू, श्यामा, कार्तिक बाबू, अनिल मुखर्जी के साथ रात दिन सड़कों, घाटों, गलियों, बाजारों में खुले आसमान के नीचे भटकते हुए उनके तमाम पिछले किरदारों और उनका भी यूं सड़कों, बाजारों में भटकता जीवन याद हो उठेगा. उनके पात्र किन्हीं कमरों में बैठ कर पढ़ते लिखते, चिंतन मनन करते, नैतिक–अनैतिक की बौद्धिक बहसों में उतरते क़िरदार नहीं हैं. उनके पात्र ज़िंदगी के मेले– ठेले, हाट बाज़ार में भटकते, सौदा– सुल्फ पटाते, खरीदते, बेचते, पसीना– धूल पोंछते, फुटपाथों और सड़कों पर ही सतत मनन करते चलते हैं. पाठक उनके अंतर्मन में अनवरत चल रही ऊहापोह, संशय और उम्मीद की परस्पर विरोधी मनस्थितियों, रोज़ मर्रा के जीवन में पल पल पर प्रकट होने वाले सामाजिक, नैतिक प्रश्नों का साक्षात्कार करता है. यानी ये पात्र अपने जीवन और परिस्थितियों को लेकर लगातार चिंतनशील हैं, लगातार उसे भोग भी रहे हैं और देख भी रहे हैं किन्तु, यह देखना, विचारना भी ऐन जीवन के सार्वजनिक चौराहों, हाट– बाज़ार में ही हो रहा है. वे उन बिरली लेखिकाओं में से हैं जिनकी लिखने की मेज़– कुर्सी घर की चार दीवारी में नहीं, किसी सड़क के मोड़ पर, किसी व्यस्त दुकान के काउंटर के पीछे लगी हुई है!
चाहे वह ‘कलिकथा वाया बाईपास’ के किशोर बाबू हों या इस उपन्यास के कुलभूषण बाबू उर्फ़ गोपाल चंद्र दास का किरदार– उनकी ठेठ व्यापारिक पृष्ठभूमि, भाग दौड़ और दुनियादारी की समझ से भरी ज़िन्दगी के तमाम सूत्र अलका सरावगी के हाथ कैसे लग गए?! सुनते हैं कि उनके पहले उपन्यास को पढ़ कर हिंदी के कुछ दिग्गजों ने यह प्रश्न उठाया था कि इस उपन्यास में अलका सरावगी का स्वयं का ‘स्त्री’ मन कहाँ दर्ज हुआ है? अलका जी ने स्वयं ही इसका जवाब एक प्रतिप्रश्न के रूप में दिया था कि शरतचंद्र के उपन्यासों की नायिकाओं में क्या स्वयं शरतचंद्र का मन भी बिंबित नहीं होता?
यहाँ ब्रिटिश लेखिका जेनेट विंटरसन की अपनी पुस्तक में एक जगह लिखी बात याद आती है जिसमें वे कहती हैं, –
“साहित्य हमें यही बताता है कि हम एक अन्य कहानी हो सकते हैं. हम जो बंदी नहीं हैं, सीमित नहीं हैं, पूर्वनिर्धारित या भाग्य से बंधे सिर्फ़ एक जेंडर या उन्माद नहीं हैं.”
इससे मिलती जुलती बात अफ्रीकी अमेरिकन लेखिका टोनी मॉरिसन नोबेल पुरस्कार लेते समय दिए गए अपने वक्तव्य में कहती हैं जब वे हमसे गुज़ारिश करती हैं कि –
“तुम स्वयं अपनी कहानियां हो इसलिए उस सबको अनुभूत और कल्पित कर सकते हो कि कैसे पैसों के बिना भी मनुष्य हुआ जा सकता है, कि दूसरे पर शासन किए बिना मनुष्य होना कैसा होता है? तुम अपनी कथा खुद सिरज सकते हो.”
ज़ाहिर है साहित्यकार या कलाकार का मन किन्हीं विभाजित कोटियों में कैद हो कर काम नहीं करता बल्कि उसकी चेतना अन्य के घट में परकाया प्रवेश कर उसे अपना ही बना लेती है. एक सर्जक की इसी क्षमता का इस्तेमाल करते हुए अलका सरावगी विभाजन, विस्थापन सहते लोगों, जिनमें पुरुष और स्त्री दोनों हैं की व्यथा– कथा को अपनी कथा बना कर कहती हैं.
भौगोलिक विस्थापन की विभीषिका निश्चित ही इस उपन्यास के घटना क्रम का केंद्रीय सरोकार है. लेकिन एक बात जो अलका सरावगी के इस उपन्यास के संदर्भ में और भी अधिक महत्वपूर्ण है और वह है लेखक का सूक्ष्मता से इस बात को दर्ज करना कि कैसे एक स्तरीकृत, गैर बराबरी पर आधारित समाज में गोरा रंग, नाक–नक्श, पढ़ाई– लिखाई, चतुराई, दुनियादारी, अमीरी– गरीबी, जात–पात और ऐसे ही तमाम विभेद खड़े करने वाले मान दंड ही दुर्भाग्य से परिवार और समाज को परिचालित करते हैं. एक काला कुरूप व्यक्ति जो दुनियादारी के अमुक मापदंड पर खरा नहीं उतरता वह एक समृद्ध परिवार में जन्में होने के बावजूद अपने ही परिवार से सतत विस्थापित है. उसके तमाम क्रिया कलाप शक के दायरे में रहते हैं वह सबसे जुझारू, कर्मठ होने के बावजूद लगातार नाकारा साबित कर दिए जाने के लिए अभिशप्त है. एक वही है जो मां को बुखार आने या दर्द से कराहने को सुनता है, उनके पैर दब आता है, वही है जो पिता के अंतिम समय पर उन्हें शरणार्थी कैंप से ढूंढ निकालता है, वही है जो भाभी की महंगी सिल्क की साड़ी पर इस्त्री करता है, अपने भाइयों के कारोबार में नौकरों की तरह खटता है, अपमानित होता है यहां तक कि पिटता भी है. वही है जो कभी अपने मारवाड़ी, अमीर खानदान की पहचान को तो कभी अपनी मुफलिसी के दौर में बस कंडक्टरी के काम को, बंगाली स्त्री से अपने विवाह को छुपाने को मजबूर है.
उसका अमीर खानदानी परिवार उसे अपनी सहूलियत से दुत्कारता, पुचकारता है और अपने पुराने कबाड़ को उसे देकर उस पर रहमते करम भी फरमाता है. यदि वह घर के सदस्य की तरह हक से पेश आए तो किसी न किसी रूप में फ़ौरन उसे उसकी औकात दिखा दी जाती है और यदि वह एक स्वाभिमानी व्यक्ति की तरह अपने परिवार का नाम और इलाका बदलकर बस कंडक्टर का काम करें तब भी वह परिवार के नाम को बट्टा लगा रहा होता है. कुल मिलाकर वह हर हाल में सिरे से गलत है. उसे परिवार मोहल्ले समाज में सम्मानित व्यक्ति की जगह नहीं मिल सकती. यहां– अपने ही परिवार में, वह सदैव ‘विस्थापित’ है. यह है इस उपन्यास के चरित्र नायक कुलभूषण की प्रवंचना.
उसका बाल सखा और उपन्यास का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण किरदार श्यामा जो जाति से धोबी है, वह अपना देश नहीं छोड़ता, उसी की लिए कुर्बान हो जाता है लेकिन वह भी अपने और परायों के बीच एक साथ कभी सबसे विश्वसनीय और कभी संदिग्ध ठहराया जाता है. उसे अपनी कुरूपता के दंश से मुक्त हो जिंदगी जी पाने के लिए कभी किसी बाबा ने भूलने का मंत्र दिया था. इस भूलने के मंत्र का साझा उसने अपने मित्र कुलभूषण से भी किया था और जो ताउम्र उसके भी काम आता रहा.
घोर सामाजिक विषमता वाले समाज में सबसे निचली पायदान पर खड़े लोग आखिर जीवन जीने के लिए कुछ तो दांव– पेच निकालते ही हैं. ये दांव पेंच क्या होते हैं इस पर नृतत्वशास्त्री जेम्स स्कॉट की एक बहुत महत्वपूर्ण किताब है – ‘वेपन्स ऑफ़ द वीक’. इस पुस्तक में निरुपाय लोगों द्वारा अपने बचाव के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले जो ‘औजार’ गिनाए गए हैं उनमें ठकुर सुहाती करना भी एक है. किताब में इस बात को रेखांकित किया गया है कि जिसकी ठकुर सुहाती की जा रही है वह तो खुश होता है और उसे कही जा रही बातों के गलत होने का कोई शुबहा नहीं होता जबकि जो ठकुर सुहाती कर रहा है, वह पूरी तरह से जानता है कि वह सिर्फ दूसरे के अहम को पुष्ट करने के लिए मजबूरी में सब कुछ कह रहा है. यानी, उसे उस बात के झूठ या सिरे से गलत होने का पूरा पूरा अनुमान होता है और वह इस ज्ञान के साथ ही ऐसा कर रहा होता है. कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए उपन्यास के किरदार इस युक्ति का भी इस्तेमाल करते हैं पर इससे भी अधिक अपने साथ हुए हर अपमान से निपटने के लिए ‘भूलने’ की युक्ति या औजार या जिसे उपन्यास में ‘भूलने का बटन’ कहा गया है का इस्तेमाल करते हैं. यह ‘भूलना’ उनकी लाचारी है. इसके बिना वे जीयें तो जीयें कैसे? लगातार होते अपमान और नाइंसाफी से पार कैसे पाएं? और विशेषकर तब, जब अपमान और नाइंसाफी करनेवाले अपने सगे हों?
एक उपन्यास, एक साहित्यिक कृति के लिए यूं तो कोई भी भूमिका आनुषंगिक और तयशुदा नहीं होती. लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं होता कि वह हमारे जीवन में कोई भूमिका नहीं निभाते या उनकी उपयोगिता नहीं होती. बल्कि इसके उलट, अक्सर कोई साहित्यिक कृति का ही यह माद्दा होता है कि वह समाज के भीतर छिपकर बैठी ऐसी व्याधियों का खुलासा करती है जो अन्यथा सामाजिकता के ताने बाने के पीछे हमारी नजरों से ओझल बनी रहती हैं. ऐसे में व्याधि का निदान तो दूर, उसके अस्तित्व मात्र से बेखबर, भीतर से रुग्ण समाज अपने ही लोगों से बदला लेता रहता है.
अलका सरावगी का उपन्यास–‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ सिर्फ़ एक विस्थापित शरणार्थी की दुनिया में अपनी पहचान या नाम दर्ज कराने की जद्दोजहद ही नहीं है. बल्कि यह उपन्यास कहीं गहरे में हमारे पारिवारिक और सामाजिक ढांचे में हो रहे क्षरण को रेखांकित कर दर्ज करता है. हमारे समाज के उत्तरोत्तर दिखावटी, नकली होते जाते स्वरूप को इंगित करता है, जिनमें असल मानव मूल्यों की कोई अहमियत नहीं रह गई है. यह उपन्यास एक तरह से असल मानवीय मूल्यों को फिर से समाज में जगह देने की गुहार लगाता हैं ताकि श्यामा और कुलभूषण बाबू जैसे संवेदनशील किंतु सफलता या सौंदर्य के नकली पैमाने पर खरे न उतरने वाले किरदारों को अपने ही घर, अपने ही समाज में बहिष्कृत और विस्थापित न होना पड़े. उनका अपने परिवार में नाम दर्ज हो ताकि उनके आगे गोपाल दास बनने की मजबूरी ही ना खड़ी होती हो. उन्हें परिवार और समाज में अपनी जायज़ और उचित ठौर मिले.
शंपा शाह प्रसिद्ध शिल्पकार हैं, उनकी कृतियाँ देश-विदेश की अनके प्रदर्शनियों में शामिल हुईं हैं. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के सिरेमिक अनुभाग से संबद्ध रहीं हैं. लोक व आदिवासी कला तथा साहित्य आदि पर लिखती हैं. मारिओ वर्गास ल्योसा तथा चेखोव आदि का हिंदी में अनुवाद भी किया है. shampashah@gmail.com
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अद्भुत है शंपा का आकलन
बहुत अच्छा आलेख।