नागफनी में फूल |
मेरा और अनिल त्रिपाठी का घर अगल-बगल है. शहर के आख़िर में सरकारी कॉलोनी में पुराने तरीकों से बने हुए मकानों को ही हमने पिछले सात सालों से घर बनाया हुआ है. अनिल और मैं न सिर्फ पड़ोसी हैं बल्कि हमारे सरकारी दफ़्तर भी अगल-बगल हैं. मैं लेखा विभाग में हूं और वह लाइट मशीनरी विभाग में. मैं अपने घर में अकेला रहता हूं मेरी पत्नी दूसरे शहर के पास के एक गांव के ग्रामीण बैंक में मैनेजर है. छुट्टियों में कभी वह यहां आ जाती है कभी मैं वहां चला जाता हूं. वैसे मैं वहां कम ही जाता हूं. वह ही यहां आती है. यहां मिला सरकारी मकान ज्यादा बड़ा है और शहर में जरूरी खरीददारी भी हो जाती है. कई सालों से कोशिश में हूं कि उसका तबादला यहीं कहीं आसपास हो जाए पर कोशिश कभी कारगर हो ही नहीं पाती. शादी के पाँच साल हुए हैं और अभी से ही हम बागवान फ़िल्म का गाना ‘मैं यहां तू वहां’ गाकर अपनी शाम बिताते हैं. गनीमत हैं कि शादी के इन सालों में भी हमने दिमाग से काम लिया और अभी तक परिवार को बढ़ाया नहीं है.
मैं कभी-कभी सोचता हूं कि इस स्थिति में हमारे बच्चे होते तो कितनी बड़ी मुसीबत होती. बच्चे अपनी मां के साथ गांव में रह नहीं पाते. गांव में तो डॉक्टर मिलना तक दूभर होता है. और यहां अपने साथ मैं उन्हें रख नहीं पाता. शुरुआती सालों में बिना मां के बच्चों को पालने पर उनके मानसिक विकास पर बुरा असर भी पड़ सकता हैं. अम्मा ने तो जाने कितनी बार बोला है, बोला क्या बातों से कनमुर्री लगाई है कि जल्दी करो बच्चे-कच्चे और उन्हें आराम दो.
अपन का सिद्धांत ऐसा नहीं है. बच्चे बस पैदा करना थोड़े है उन्हें पालना भी तो है. और अभी तो उन्हें पालने में हज़ार दिक्कतें हैं. एक बार पत्नी का तबादला कहीं पास के गांव हो जाए फिर इस बारे में सोचेंगे. उसने एक दो बार इसरार भी किया कि सब बाते बनाते हैं कर लेते हैं. पर मैंने ही मना कर दिया. करियर को रफ़्तार देने का यही तो वक्त है. उसके सामने पूरा करियर है. तीन सालों में अपनी मेहनत के बलबूते मैनेजर बन गई है. मैं नहीं चाहता कि लोगों की बातों में आकर वह यह चुनाव करे.
ऐसा नहीं हैं कि मुझे बच्चे पसंद नहीं हैं. बल्कि बहुत पसंद हैं. अड़ोस-पड़ोस के बच्चे तो अपने घर से ज्यादा मेरे घर में बने रहते हैं. मेरे घर के बाहर बड़ी ख़ाली जगह है जैसा कि यहां बने हर सरकारी मकान में है. हर कोई उसे छोटे से गार्डन में बदल देता है, फूल सब्जियां वगैरह उगाने के लिए. मैंने ऐसा नहीं किया. बागवानी मेरे बस की बात नहीं. बस बरामदे में अमरूद के दो तीन पुराने पेड़ लगे हुए हैं. समय-समय पर इसे साफ जरूर करवाता रहता हूं ताकि घास फूस बड़े न हो जाएँ और कोई ज़हरीला जानवर उसमें आ कर न बस जाए. बच्चों ने मेरे बरामदे को अपना खेल का मैदान बना लिया है. कॉलोनी में जो मैदान हैं वहां बड़े उम्र के बच्चों का कब्ज़ा रहता हैं. इसलिए छोटे उम्र के बच्चे यहीं खेलते हैं. दिन भर अमरूद तोड़ने की जुगत लगाते हैं. कभी कोई खेल खेलते कभी कोई. मेरा मन भी लगा रहता हैं.
जिस दिन मुझे कुछ अच्छा खाने का मन होता तो मैं उन सबके लिए बनाता हूं. ऐसे अकेले-अकेले कुछ खाने की आदत नहीं है तो बनाना भी नहीं पुसाता. कभी-कभी अनिल और दीदी को भी बुला लेता हूं. अनिल त्रिपाठी की शादी को सात साल हो गए हैं. अनिल की बीवी को मैं दीदी कहता हूं. दरअसल मेरी बहन की जहां ससुराल हैं उसी जगह उनकी भी बड़ी बहन की ससुराल हैं. इस लिहाज़ से वो दोनों बहनें हुईं और हम दोनों भाई बहन.
नई जगहों में अजनबियों को अपना बनाने की ये युक्ति सदियों से चली आ रही हैं. मेरी दादी तो इसमें कमाल की माहिर थीं. बाज़ दफा सफ़र में भी किसी सहयात्री से गांव शहर के नाते रिश्ता निकाल ही लेती थीं.
“अरे तुम फलां गांव की हो? मेरी ननद की ननद वहीं तो ब्याही रही. अरे तुम तो हमारी ननद बरोबर निकली फिर तो”.
कई बार हम शर्मिंदा भी होते पर सफ़र बड़ा खुशनुमा हो जाता. कोई घर से लाई आलू पूड़ी खिलाता तो कोई सिंघाड़े के सेव. दादी से थोड़ा सा ही सही ये गुण मुझमें भी आया है. मैं रिश्ते नाते तो नहीं बना पाता पर सफ़र में मुंह बंद किए मुझे रहना पसंद नहीं. सफ़र ही तो होता है जब आप नए-नए लोगों से मिलते हो. उनकी ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं से रूबरू होते हो. जीवन को ज्यादा करीब से समझने की कोशिश करते हो. इसलिए फ्लाइट मुझे पसंद नहीं आती. ट्रेन में भी असली मज़ा तो स्लीपर या फिर जनरल के डब्बों में आता हैं. जनरल में थोड़ा कष्ट जरूर है पर अगर आपको बैठने भर की सीट मिल गई तो सफ़र कब खत्म हो जाएगा पता ही नहीं चलेगा. कहीं से बस एक राजनीतिक टिप्पणी की देर है फिर देखो. क्या कमाल की बहसें होती हैं. कोई भी एक बात और अभी तक जो सीट पाने के लिए झगड़ रहे थे वो ऐसे हँस-हँस के बाते करेंगे कि जैसे जन्मों के बिछड़े दोस्त हों. अब तो खैर जनरल में भी सफ़र न के बराबर होता हैं.
बहरहाल मैं अनिल को अनिल ही कहता हूं. वह कभी-कभी मज़ाक में मुझे ‘साले’ कहकर जरूर बुला लेता है. अनिल के बच्चे भी मुझे मामा ही कहते हैं. मुझे भी अंकल की जगह मामा सुन कर ज्यादा अच्छा लगता है. इसके दो कारण हैं. अव्वल तो मामा में अंकल की बजाय ज्यादा अपनापन हैं दूसरा अंकल सुनना आपको दस साल ज्यादा बूढ़ा महसूस करवाता है. अनिल की बड़ी लड़की रिद्धि पांच साल की है और छोटा लड़का व्योम तीन साल का. जब चाहे तब मेरे घर में घुसे आते हैं. रिद्धि तो ख़ासकर. और अधिकार इतना कि कभी-कभी मुझे लगने लगता है घर उनका है और मैं कोई अजनबी जो घुसा चला आया हूं. बड़ी प्यारी है रिद्धि एक दिन लगभग अपने हमउम्र से लड़के को साथ ले आई और किसी आदेश जैसे मुझसे बोली
” मामा ये हसन है. मेरा नया दोस्त. आज से ये अपने साथ खेलेगा. जाओ मामा इसके लिए अमरूद तो तोड़ दो”
कहकर वह उसका हाथ पकड़ कर आंगन के उस कोने ले गई जहां उसके बाकी दोस्त खड़े थे.
मैंने उस लड़के को पहली बार देखा था. पता किया तो मालूम हुआ कि अनिल के विभाग में नया चौकीदार आया है मुहम्मद कादिर, उसी का बेटा हैं यह. पहले तो मैं भी चिंता में पड़ गया. मुसलमान. मुझे कोई परेशानी नहीं है लेकिन दीदी को पता चला तो कहीं गुस्सा न करें. पर मेरी चिंता उस दिन छू हो गई जब व्योम के चौथे जन्मदिन पर खुद दीदी ने ही हसन को बुलवाया.
“छोटा बच्चा ही तो है. इतने छोटे बच्चे से क्या भेदभाव करें. शांत लड़का है चुपचाप खेलता रहता है. तो बुला लिया.”
दीदी नाश्ते की प्लेट लगाते हुए बोली. मेरी चिंता दूर हुई सच कहूं तो खुशी भी हुई. लिविंग रूम में रिद्धि अपने दोस्तों को अपने खिलौने दिखाने में मशगूल थी, हसन भी उसके बगल से ही बैठा था. मैंने बच्चों को देखा एक निष्कलंकता मेरे भीतर भी मंदिर के जलते धूप की खुशबू की तरह फैल गई.
दो)
सुबह के आठ बज रहे हैं. मेरी ट्रेन आठ बजे की ही थी पर पंद्रह मिनट लेट है. इस बार पत्नी यहां नहीं आ पाई. कह रही थी गांव में किसी घर में शादी है तो वे सब आने ही नहीं दे रहे उलटा कहला भेजा है कि अपने पतिदेव को भी यहीं बुलाओ. तो पतिदेव जा रहें हैं अपनी देवी जी के पास. यहां से ट्रेन का तीन घंटे का सफ़र है और वहां से आगे बस में पैंतालीस मिनट. ट्रेन का सफ़र तो ठीक है, बस का सफ़र मुझे थोड़ा तकलीफदेह लगता है. इस बार सामान भी थोड़ा ज्यादा ही है. देवी जी ने सख़्त हिदायत दी है कि थोड़े गर्म कपड़े रख लेना रात में ठंड बढ़ जाती है यहां. ऊपर से कुछ उनके इस्तेमाल का जरूरी समान भी ले कर जा रहा हूं.
अगले महीने भी शायद व्यस्त रहेगी वह, शहर आना नहीं हो पाएगा. मुझे भी अगले महीने काम के सिलसिले में भोपाल जाना है.
शादी के पांच साल में भी उस से मिलने जाने पर एक उत्साह भरी बैचनी तैर ही जाती हैं. वैसी ही बेचैनी जैसी शुरुआती समय में होती थी. या बिल्कुल वैसी जैसी पहली मुलाकात में हुई थी. प्रेम विवाह नहीं था हमारा. किसी परिचित ने हमारे घर में उसके बारे में बताया था. इत्तफाक ऐसा कि हम तो न जा सके उनके घर बल्कि उन्हें ही सपरिवार हमारे घर आना पड़ा. सीधे शब्दों में बोलूं तो लड़की आई थी लड़का देखने. सच कहूं तो मुझे तो पहली नज़र में ही पसंद आ गई थी वह पर मुझे इसका ज़रा सा भी इमकान नहीं था कि वह मुझे पसंद ही करेगी. एक तो वह मैंथ, साइंस की स्टूडेंट थी और मैं कॉमर्स का. हम कॉमर्स वालों का कॉन्फिडेंस वैसे भी कम ही हो जाता है. बड़े शहरों का तो नहीं पता लेकिन छोटे शहरों में कॉमर्स का विद्यार्थी होने का मतलब ही है कि महाशय पढ़ने में कमज़ोर थे और दसवीं में अस्सी प्रतिशत से ऊपर नहीं ला सके.
दूसरा मुझे लगा रूप रंग में भी मैं उसकी तुलना में कहीं नहीं ठहरता. उसने घर से कहलवा भेजा था कि एक मुलाकात में तो वह ज़िन्दगी का इतना बड़ा फैसला लेने से रही. उसे लड़के को ज्यादा अच्छे से जानना है, तब ही वह कुछ कहेगी. मेरे मन में उसके प्रति आकर्षण और ‘रिजेक्ट’ हो जाने का भय और भी ज्यादा बढ़ गया. पर सच कहूं तो भगवान ने लाज रख ली मेरी. उसने हां कर दिया. मैं कई दिनों तक सोचता रहा कि ऐसा क्या देखा उसने मुझमें जो मुझसे शादी करने के लिए तैयार हो गई. बाद में उसने बताया था कि मेरे घर की छत में हुई पहली मुलाकात में जब कुछ पल के लिए हम दोनों की नज़रें टकराई तब ही सारा खेल बिगड़ गया वरना तो वह घर से सोच कर ही आई थी कि वह ना ही कहेगी.
दो घड़ी की नज़रों के मिलन ने हमारे मिलन का रास्ता तय कर दिया. आज भी उस पल को बिलकुल उसी तरह जी पाता हूं मैं. दूरी प्रेम में ताज़गी को जिलाए रखती है शायद. हम एक साथ एक शहर में रह रहे होते तो हमारे बीच जाने कैसा रिश्ता आकार लेता. पर फिर मुझे लगता हैं कि प्रेम की सबसे उच्चतम परिणति तो वही है जहां भौतिक दूरी होने न होने का भेद ही मिट जाए. वैसे फ़ोन में तो हमारी रोज़ ही बात होती है, वीडियो कॉल भी हो ही जाता है लेकिन एक शहर में होने का एहसास आपके अंतर्मन को संतुष्टि से भर देता हैं.
लगभग चार घंटे के सफ़र को तय करके मैं यहां पहुंच गया हूं. इस गांव की तासीर में शहरियत ने घुसपैठ कर रखी है. मुख्य बाज़ार में लगभग सारा कुछ पक्का ही बन गया है. हां अंदर की तरफ़ के घरों में गांव की वह कच्ची रंगत बाकी है. पत्नी का बैंक मुख्य बाज़ार के आखिर में है लेकिन घर थोड़ा अंदर जा कर है. किराए से लिए हुए दो कमरे और एक किचन. हालांकि घर पक्का है पर बस्ती कच्ची ही है. मैंने उस से कहां भी कि तुमने यहां घर क्यों लिया. मुख्य बाज़ार में ले सकती थी पर उसके विचार कुछ अलहदा ही होते हैं.
“गांव में रहकर मैं शहर को अपने साथ दिन भर नहीं लादे रहना चाहती. देखो तो सामने तालाब दिख रहा हैं, कमल से सजा हुआ. वो हरियाली से पटे हुए खेत हैं. सुबह शाम गायों का झुण्ड अपनी गले में पड़ी घंटियों को बजाते निकलता हैं. यहां शांति हैं. संगीत हैं. सुंदरता हैं. जीवन हैं.”
उसने कहा.
मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया था तब. बस उसकी ओर देख कर हँस दिया.
पत्थर की पाटियो से बनी सड़क से चल कर मैं यहां इस घर पर आ गया. पत्नी अभी बैंक में ही है. दूसरी चाबी मेरे पास हैं. घर के अंदर जाते ही एक जानी पहचानी सी खुशबू समा गई. लगा सफ़र की थकान उतर गई. किचन में उसने मेरे लिए पराठे बना रखें हैं. मैंने सामान कमरे में रखा, अपने बैग से तौलिया निकाली और नहाने के लिए बाथरूम की तरफ़ चला गया. बाथरूम शहरी रवायत से उलट कमरों से सटा हुआ न होकर थोड़ी दूर है. बीच में बड़ा सा आंगन हैं जिसके एक कोने में कुआँ हैं. कुआँ अब तो साल के दस महीने सूखा ही रहता है, उसी के बगल से ट्यूबवेल की मोटर लगी है. पीछे एक कमरा हैं, बंद रहता है. उसके बाद एक छोटा दरवाज़ा घर के पीछे खुलता हैं जहां पर एक खेतनुमा बगिया है जिसमें अलग-अलग किस्म की सब्जियां लगी हुईं हैं. मकान में पत्नी अकेले ही रहती है. मकान के मालिक शहर जा कर बस गए हैं. बगिया में सब्जियों की खेती देखने के लिए एक औरत आ जाती है. पति ट्रक चलाता था उसका, एक्सीडेंट में मारा गया. मेरी पत्नी ने ही घर के मालिक से सिफारिश की थी कि पीछे की छूटी जमीन इसे दे दें. वह उसमें सब्जियां लगा कर बेच आया करेगी, उसका घर चलता रहेगा. मकान मालिक मान गए. ऐसे ही कितने काम करती रहती है वह यहां. तभी तो गांव में अलग ही सम्मान है उसका.
मैं नहाकर आ गया था. पराठे तो रखे ही थे, सोचा इनके आने के बाद साथ में ही खाया जायेगा तो मैंने चावल और दाल का कुकर भी चढ़ा दिया. रसोई में लौकी रखी थी सो उसे छीलने लगा तभी पत्नी जी आ गईं. मुझे देख कर मुसकुरा दीं.
“थके होगे. छोड़ दो तुम, मैं बना दूंगी.”
उसने अपने कंधे में लटका बैग उतारते हुए कहां
“अजी अब तो सारी थकान दूर हो गई.” मैंने मुसकुराते हुए उत्तर दिया. वह मेरे और करीब आ गई. हमारी नज़रें मिलीं, फूल ने फूल को देखा. हाथ सटे, समुद्र की लहरें चट्टानों से टकराई. मैंने अपने होंठ उसके नर्म होंठों पर रख दिए, हवाएं तन्वंगी नदी के बदन में सरसरी फैलाने लगीं. कुछ देर हम यूं ही रहे एक दूसरे के दिलों से अपनी-अपनी पहचान पाते. कुकर की सीटी एकदम से बोल पड़ी.
रात हो चुकी थी. सन्नाटा चारों ओर पसरा हुआ था. अंधेरा चढ़ रहा था. हम दोनों एक दूसरे के अगल-बगल लेटे थे. मौन था पर सब कुछ कह कर चुक जाने वाला मौन. आंखें मुंदी थीं पर एक उजास आत्मा में अंकुरित हो गया था. हमारी सांसों के आरोह-अवरोह में राग मधुवंती में दो संगतकार जैसे जुगलबंदी कर रहें हों. हमारे हृदय की आकाशगंगा में हमारी भावनाओं के असंख्य तारे दैदीप्यमान थे. उसने ही मौन को गति देते हुए कहा-
“मुझे लगता हैं अब सही समय हैं अपने रिश्ते को नया आयाम देने का”
“पर तुम्हारा ….” मैंने पलट कर उसकी ओर सिर करते हुए कहा
“हमने दूरियों की सारी हदें लांघ ली हैं. कहीं भी रहना अब मुझे अकेला नहीं करता. तुम मुझे हमेशा घेरे रहते हो. यह घिराव मुझे ज्यादा विनम्र, ज्यादा सजीव बना कर रखता है. जैसे मैं किसी बरगद की छांव में हूं और फिर अगले ही पल मैं स्वयं एक बरगद हूं. स्नेह, ममता, प्रेम, लालसा इसी बरगद की सघन शाखाएं हैं. मुझे लगता हैं अब इस अगाध छाया में मातृत्व का नन्हा पौधा रोपा जाए, तुम यह न सोचो कि मैं यह लोगों के कारण कहती हूं. नहीं. मेरे और तुम्हारे बीच अब लोग नहीं रह सकते. कोई नहीं रह सकता. और यही सही समय है जब कोई तीसरा हमारे बीच आकर हमारे द्वैत को ज्यादा प्रगाढ़ करे.”
मेरी आंखें खुल गईं. आँसू का एक दाना मेरी आँखों के कोने अटक गया. उसने उसी चमकते अंधेरे में किसी मैना की तरह उसे चुग लिया.
तीन)
पिछले दो तीन माह ज्यादा व्यस्त रहा. पहले पत्नी के पास गांव में हफ्ते भर रुका फिर अचानक ही घर जाना पड़ गया. तीन दिन बाद लौटा तो अनिल और दीदी बच्चों समेत अपने गांव गए हुए थे. उनके वापस लौटने से पहले ही मेरा भोपाल का दौरा तय हो गया था. वहां भी अपेक्षा से अधिक समय लग गया. इस भाग दौड़ में मेरे घर के आंगन में खेलने वाले बच्चों ने शायद कोई और ठिकाना ढूंढ लिया. मुझे भी सुध न रही उनकी खोज ख़बर लेने की. व्यस्तता कुछ ऐसी थी कि दीदी और अनिल के लौट आने पर भी एक भी दिन मिलने न जा सका. आज रविवार था. व्यस्तताओं के चंगुल से छूटा था. सोचा बगल में हो आता हूं. और तो कोई नहीं पर रिद्धि मेरे इन व्यस्तताओं के कारण बहुत गुस्सा होगी. बचाव में मैं फ्रिज में रखी कुछ चॉकलेट साथ लेता गया. दीदी बाहर बैठी चावल फटक रहीं थीं. व्योम बगल से बैठ कर अपनी खिलौने का पुर्जा निकालने की कोशिश में था. अनिल बाहर गया हुआ था. मैंने जाकर दीदी के चरण छूए और वहीं बिछी चटाई में पैर मोड़ कर बैठ गया. व्योम को चॉकलेट दिखाया तो वह मेरी तरफ़ लपक पड़ा. मैंने उसे अपनी गोद में बैठा लिया. कुछ इधर उधर की बाते हुई. फिर मैंने पूछा
“गांव क्यों जाना हुआ था दीदी”
“अरे बस इसके दादा जी के दोस्त सरपंच का चुनाव लड़ रहे थे तो जाना पड़ा”
“वोट डालने” मैंने विस्मय मिश्रित मुस्कान से पूछा
“हां” दीदी थोड़ा खीझते हुए बोली “कॉल कर-कर परेशान किया था. गाड़ी तक भेजने को तैयार थे. कहते हैं दो वोट भी कीमती होते हैं. घर के लोग हो, आ जाओ. जाना पड़ा”
“यह भी खूब रही” मैंने हंसते हुए बोला. दीदी फिर अपने काम में व्यस्त हो गई.
“रिद्धि नहीं दिख रही दीदी. अनिल के साथ ही गई है क्या बाहर?” मैंने फिर पूछा
“अरे नहीं! अंदर होगी मैडम. टीवी देख रही होंगी या मोबाइल चला रही होंगी. गांव से सीख कर आ गई है यह नया शगल. मैं तो यहां मोबाइल छूने ही नहीं देती थी. पर वहां पा गई अपने चाचा का. बस अब दिन भर मोबाइल या टीवी.” दीदी मुंह बनाते हुए बोलीं
मैं उठ कर अंदर गया तो रिद्धि मोबाइल में कुछ देख रही थी.
“दोस्त ने घर आना क्यों बंद किया हुआ है?” मैंने उसके मोबाइल के ऊपर चॉकलेट रखते हुए कहा
उसने मोबाइल रख दिया और चॉकलेट लेते हुए बोली
“तुम थे कहां मामा? जब से तो ताला बंद था घर में. जाओ न मामी के पास ही रहो. अब तुम्हें हमने अपनी टीम से निकाल दिया. तुम मामी के साथ ही टीम बनाओ”
उसने अपने नन्हे से चेहरे को नाटकीय अंदाज में मोड़ते हुए कहा
मेरी हँसी छूट गई. “हट पगली. ऐसे कैसे निकाल दोगी मुझे टीम से. आज सबको लेकर आना. व्हाइट सॉस पास्ता बनाऊंगा चीज़ डाल कर”
“और कोल्ड ड्रिंक भी”
“दीदी पिट्टी लगाएंगी कोल्ड ड्रिंक्स लाया तो”
मैंने धीरे से बोला
“तुम रहने दो फिर मामा, डरपोक कहीं के. आशू चाचू तो मम्मी से बिल्कुल नहीं डरते. उन्होंने तो खूब कोल्ड ड्रिंक्स पिलाई मुझे.”
मुझे जाने क्यों यह बचकानी सी तुलना बुरी लगी. मैंने उसे कोल्ड ड्रिंक्स पिलाने का भी वादा किया. वह हँसी और फिर बाहर जा कर व्योम के साथ खेलने लगी.
रिद्धि अपनी पूरी पलटन के साथ धमा चौकड़ी कर रही थी. मैं अमरूद के पेड़ के नीचे कुर्सी डाले बैठा एक किताब पढ़ रहा था. सूरज डूबने को था. मैंने गौर किया कि उसकी पलटन में आज हसन गायब हैं. लगा शायद कहीं बाहर गया होगा. मुझे अचानक याद आया कि रसोई में पास्ता उबालने को रखा था. मैं रसोई की तरफ़ तेज़ कदमों से भागा. गनीमत थी कि सही समय पर आ गया वरना पास्ता उबल कर हलवा बन जाता.
मैंने गैस बंद की. चौराहे वाली मस्जिद से अज़ान की आवाज़ सुनाई देने लगी थी. मैं वापस बाहर आ गया. सामने एक अजीब ही नज़ारा था. रिद्धि अपने कानों में उंगली डाल कर खड़ी थी और बाकी बच्चों को भी कान बंद करने को कह रही थी. मुझे लगा, कोई नया खेला ईजाद किया है. मैं उसे छेड़ने की मंशा से उसके पास गया. मैं कुछ बोलता उस से पहले ही वह बोल पड़ी
“अरे मामा जल्दी से अपना कान बंद कर लो. जल्दी करो जल्दी.”
“पर हुआ क्या?” मैंने अपने कानों को हाथ से ढकते हुए पूछा
“अरे बस अभी ढके रहो” उसने अपने हाथों पर कुछ ज्यादा जोर डालते हुए बोला. मैं यूं ही खड़ा रहा. मुझे इसका राज़ जानना था पर जानता था कि बच्चा बन कर ही इनके मन के कोने में पहुंचा जा सकता हैं. अचानक उसने सबको कान खोलने का इशारा किया.
“अब तो बता दे कौन सा खेल था यह.” मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में लेते हुए पूछा.
“अरे मामा तुम तो कित्ते बुद्धू हो. खेल नहीं था. वह आवाज़ आ रही थी न इसलिए हमने कान बंद किए थे.”
“आवाज़! कैसी आवाज़?” मैंने चौंकते हुए पूछा
“अरे वह जो आ नहीं रही थी, मुसलमानों की आवाज़.”
रिद्धि अभी-अभी खत्म हुई अज़ान के बारे में बात कर रही थी. सुन कर मेरे बदन में एक करंट सा दौड़ गया. मैंने ख़ुद को यकीन दिलाने की एवज में उससे फिर पूछा
“यह अज़ान की आवाज़? तुम्हें किसने बोला ऐसा”
“अरे मामा तुम तो सच्ची बुद्धू हो. आशू चाचा कहते हैं कि ये लोग माइक लगा कर चिल्लाते रहते हैं. इनकी आवाज़ सुनने से पाप हो जाता है. वह मोबाइल में भी दिखा रहे थे कि मुसलमान बहुत खतरनाक होते हैं.”
रिद्धि यह कह कर हाथ छुड़ा कर भाग गई. मैं वहां ही खड़ा रहा जड़, स्तब्ध. अनिमेष उसका भागना देखता रहा. सूरज डूब रहा था, अंधेरा हो रहा था.
बच्चे खेल खा के अपने-अपने घर जा चुके थे. पर मैं अभी वहीं ठहरा था. उसी जगह पर जब रिद्धि ने अपने मुंह से बोला था ‘मुसलमान’. क्या यही कारण हैं कि हसन उसके साथ खेलने नहीं आया था? मुसलमान खतरनाक होते हैं. आशू चाचा कहते हैं. उफ वह छोटी बच्ची. अभी उसकी उम्र ही क्या है? इस उम्र में उसने यह सब कैसे सीख लिया. रात भर यही ख्याल किसी दु:स्वप्न की तरह दिमाग़ में घूमता रहा. मैंने तय किया कि दीदी या अनिल से इस बारे में बात जरूर करूंगा.
दूसरे दिन सुबह मैं बड़ा बेसब्र हो रहा था. एक भार-सा सीने में रखा हुआ था जिसे मैं जल्दी-से-जल्दी उतारना चाहता था. पर सुबह ऐसा कोई मौका नहीं लगा कि बात की जा सके. दीदी रिद्धि को बस में बैठाते हुए दिखीं जरूर पर बात नहीं हो सकी. अनिल दफ़्तर जल्दी चला गया था. मैं बेचैनी में चला जा रहा था. रास्ते में मुझे हसन मिल गया. मैंने उसे अपने पास बुलाया.
“आप खेलने क्यों नहीं आए कल शाम को.?” मैंने हसन का गाल खींचते हुए पूछा
“रिद्धि मुझे अपने साथ नहीं खिलाती.” उसने मासूम सी आवाज़ में उत्तर दिया
“क्यों?” मैंने पूछा
“कहती हैं तुम गंदे हो. तुम्हारे साथ कोई नहीं खेलेगा. जबकि मैं तो बेईमानी भी नहीं करता.” वह हल्का रूआंसा हो गया.
“कोई नहीं अब से आना, रिद्धि तुम्हें खिलाएगी. मैं बात करूंगा उससे.”
मैंने उसके गाल में प्यार की थपकी दी और आगे बढ़ गया. न जाने यह आश्वासन मैंने हसन को दिया था या ख़ुद को. रिद्धि हसन के साथ खेलेगी. हसन रिद्धि के साथ खेलेगा. क्या सच में ऐसा हो पाएगा. नहीं ऐसा होगा. मैं रिद्धि को समझाऊंगा. दीदी से बोलूंगा कि उसे समझाएं. अनिल से बोलूंगा कि आशू से बात करे बल्कि कड़े शब्दों में चेतावनी दे कि इतने छोटे बच्चों के मन में यह क्या ऊलजलूल भर रहा है. हां बिल्कुल यह बहुत ही जरूरी है. इस उम्र में बच्चों के मन साफ़ होने चाहिए. उसमें धर्म, जात, वर्ग, लिंग की मिलावट करना सही नहीं. मैं दोनों से बात करूंगा. मैं रिद्धि को समझाऊंगा.
दिन भर दफ़्तर में काम में मन नहीं लगा. जैसे लंबी बुखार के बाद मुंह में कसैला स्वाद रहा आता हैं वैसा ही कसैलापन मेरे ज़ेहन में टिका हुआ था. शाम को सारे बच्चे आए, हसन भी आया पर रिद्धि नहीं आई. अनिल और दीदी उन्हें लेकर बाज़ार गए हुए थे. जाने कैसी बेसब्री थी अंदर कि रिद्धि आए और उसे बैठाकर उसके मन में उग आए जालों को साफ़ कर दूं. रात में यही सोचता हुआ जल्दी सो गया. सुबह पत्नी के कॉल से आंख खुली. इस उहापोह में मैं बीती रात उसे कॉल करना ही भूल गया था.
मैंने कॉल उठाया लगा वह नाराज़ होगी लेकिन वह मेरे उम्मीद के उलट खुश थी.
“वी आर एक्सपेक्टिंग” उस चहकती आवाज़ में ये तीन शब्द आए. मैं पहले पहल कुछ समझ नहीं पाया और फिर अचानक जैसे शांत कमरे में किसी ने सितार की सुरीली तारों को छेड़ दिया हो. उसकी आवाज़ संगीत की तरह मेरे कानों में फैल गई. न जाने कैसी खुशी थी कैसा रोमांच था. अब तक किताबों में पढ़ा था कि मातृत्व सृजन का सुख देता है. वही सुख मैंने अपने अन्दर महसूस की, एक पिता की तरह, एक पुरुष की तरह. मेरी आंखें भीग आईं, उसकी आवाज़ में मेरी आंखों की नमी उतर आई. हम बस सरापा भीगे जा रहे थे, आने वाली बारिश की कल्पना में. घंटे भर बात करने के बाद मैं जल्दी-जल्दी तैयार हुआ और भाग कर अनिल के घर गया. उन्हें यह ख़बर सुनाई. दीदी और अनिल ने मुझे बधाई दी और उलटा मुझे ही रात के खाने में बुला लिया. मैं अम्मा को भी ये ख़बर ख़ुद बताना चाहता था पर एक खट्टमिठी सी झिझक उतर आई. मैंने बहन को कॉल किया और उसे बताया. फिर तो पूरे दिन फ़ोन पर फ़ोन आए और बधाइयों का ताता लगा रहा. मन का बच्चा चाह रहा था कि कोई जादू की छड़ी मिल जाए और मैं आने वाले समय को फ़ास्ट फॉरवर्ड कर दूं. और दूसरी तरफ़ पिता चाह रहा था की हरेक पल बिल्कुल सावधानी से बीते ताकि आने वाले की आमद तपती गर्मी के बाद की तेज़ बरसात की तरह हो.
रात को तय समय में अनिल के यहां पहुंच गया. दीदी मेरी पत्नी से ही वीडियो कॉल पर बात कर रही थी. साथ ही वह खीर बना रही थी. जाते ही रिद्धि और व्योम मेरे पास आ गए. उन्हें देख कर ओस मेरे अंतस में बरस पड़ी. इतना स्नेह तो इन बच्चों को देख कर पहले कभी नहीं उमड़ा था. मैं उन्हें प्यार पुचकार से खिलाने में लगा रहा.
दीदी ने खाना लगा दिया था. कमरे में हम सब आकर बैठ गए थे. अनिल ने टीवी चालू कर दी थी और न्यूज़ चैनल लगा रखा था. एंकर पाकिस्तान के हिंदूओं पर अपना विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा था. मुझे ताज्जुब हुआ कि अनिल के साथ-साथ रिद्धि भी न्यूज़ चैनल बड़े ध्यान से देख रही है. मुझे अचानक पिछले दिन की घटना याद आई. सच तो यह हैं कि अपनी खुशी में उस बात की तीव्रता को मैं भूल चुका था पर इस बारे में बात करना मुझे अपनी नैतिक जिम्मेदारी सा लगा. मैं कहने ही वाला था कि अनिल ख़ुद बोल पड़ा
“अरे तुझे पता हैं गांव में चुनाव था और बाबा के एक दोस्त सरपंच के लिए खड़े थे”
“हां दीदी ने बताया था.” मैंने कौर तोड़ते हुए बोला
“हां यार. अच्छा हुआ गए. विरोध में एक मुसलमान खड़ा था. वह जीत जाता तो मेरा गांव भी कैराना बन जाता. आशू तो जी जान से लगा रहा.”
“कैराना??” मैंने विस्मय में पूछा
“अरे तुझे कैराना का नहीं पता. यूपी में हैं. इन मुल्लों ने उसे भी कश्मीर बनाने की कोशिश की थी. मुझे भी नहीं पता था. कुछ दिन पहले ही न्यूज़ चैनल में देखा था. मेरे गांव में भी इन कटुओं की तादाद ज्यादा हैं न. पर सरपंच हमारा ही बना”
मैं चुप रहा पर अनिल बोलता जा रहा था.
“यार तुम कितना भी कुछ कर लो ये मुल्ले साले होते ही नहीं हैं भरोसे के लायक. तुमसे मीठी-मीठी बाते करेंगे और मौका मिलते ही तुम्हारी गर्दन काट लेंगे. मुझे तो लगता है जैसे पाकिस्तान में हिंदूओं को मार-मार कर भगाया है न इन लोगों ने, हिंदुस्तान से इन्हें भी मार-मार कर भगा देना चाहिए. या मरे या फिर जाए ये पाकिस्तान जाएं.”
अनिल ने बड़ी ही सहजता से बोल दी जैसे यह कितनी सामान्य बात हो. जैसे हम मौसम के बारे में चर्चा कर रहें हों या ग्लोबल वार्मिंग के बारे में. मैं वहीं था, दीदी वहीं थीं रिद्धि और व्योम वहीं थे और यह बात हुई. एक पूरी कौम को मारकर भगाने की बात, सामूहिक हत्याओं की बात, बिल्कुल वैसे जैसे दाल में नमक ज्यादा होने की बात हो रही हो.
मैंने दीदी की तरफ़ देखा वह व्योम को खाना खिलाने में व्यस्त थी. रिद्धि न्यूज़ चैनल में आने वाले विजुअल्स देख रही थी. एंकर पाकिस्तान से होते हुए ज़िहाद की अलग-अलग किस्मों पर आ गया था. बहुत देर तक मेरा निवाला हाथ में रखा रहा. उसे मुंह में रखने की ताक़त ही नहीं बची थी. कहां मैं रिद्धि को समझाने की बात करने वाला था और कहां, मुझे याद आया कि मैं पिता बनने वाला हूं. आठ नौ महीने के बाद एक नन्हीं जान इस दुनिया में आएगी. कैसी दुनिया में? जहां हत्याओं को सामान्य घटना की तरह बरता जा रहा हो? वह भी पांच साल की उम्र में सीख जायेगा कि कौन हिन्दू हैं कौन मुसलमान. मैं नहीं सिखाऊंगा पर बच्चों को हाथ पकड़ कर सिखाया नहीं जाता. रिद्धि को किसी स्कूल में नहीं सिखाया गया कि मुसलमान गंदे होते हैं. कि हसन गंदा हैं. मेरे बच्चे को भी कोई नहीं सिखाएगा लेकिन फिर भी वह सीख जायेगा. आने वाले भविष्य के जो उपवन अपनी कल्पनाओं में हमने संजोए थे उसमें मुझे नागफनी के पौधे उगे दिख रहे थे और दिख रहा था कि एक नन्हा फूल इन्हीं नागफनी के असंख्य कांटों के बीच अटका पड़ा है.
अचानक मुझे लगा नागफनी का एक काँटा मेरे गले में आ गया है. निवाला मेरे हलक में अटक गया. खांसी का तेज़ दौरा आया. पानी का गिलास उठाया. घूंट-घूंट गाढ़े अंधेरे की तरह वह काँटा मेरे अंदर उतर रहा था. बाहर का अंधकार और गाढ़ा हो गया था.
अमन सोनी |
पढ़ा, और यह सब सोचता रहा। हालात पर रोना नहीं आता अब। कुंद हो गए हैं हम। घृणा हमारा धर्म कर्तव्य बन बन गया है।
यही सब सुनियोजित सरस्वती शिशु मंदिरों के माध्यम से भी चल रहा है,जो अब समूचे समाज में ब्याप्त हो चुका है,यह कहानी कम, बास्तविकता अधिक है|बहुत बहुत धन्यवाद,
1992 की घटना के बाद से यह बात आम होती गई है और इस समय तो चरम पर है।
अमन सोनी मेरे लिए एकदम ताज़ा नाम है किसी खूबसूरत फूल की तरह। किस आकर्षण में पढ़ता चला गया इसे, कुछ पता न चला। अमन क्या लिखते हैं-कविता, कहानी या कथेतर गद्य, आप बेहतर जानते हैं, लेकिन मुझे उनके इस लिखे में सब कुछ तो है- कविता की तरुणाई, कहानी का फ़साना और कथेतर गद्य की महक। पंक्तियों के बीच प्रेम ऐसे सिंझा हुआ है जैसे बेर में बिरचुन।
रिद्धि और हसन की दूरी हिंदू-मुस्लिम के गणित को समझा ही देती हैं। आगे क्या समझना। रही-सही कसर सरपंच के चुनाव पूरी कर देते हैं। प्रेम का बैनामा जिस अंदाज में दर्ज करते हैं अमन। उससे दिल भर आता है।
बहरहाल, भाषा अपने ज़द से बाहर निकलने नहीं देती।
यह कहानी एक साफ सुथरी भाषा में सहज ढ़ंग से यह बतला जाती कि धार्मिक भेद भाव और नफरत से अब समाज का कोई कोना अछूता नहीं बच सका है। स्वयं प्रकाश ने अपनी कहानी पार्टीशन में जिस खतरे को पचास साल पहले महसूस किया था, अब वह किस तरह एक महामारी का रूप ले चुका है, यह आजादी के अमृत काल की सबसे घृणित सौगात है। कथाकार को हृदय से धन्यवाद!
गहरे उद्वेलित करने वाली कहानी .समय लगातार हिंसक होता जा रहा है- यह कहने की अपेक्षा यह कहना ज़रूरी है कि ऐसे में हम क्या कर रहे हैं ? ये सब रोकने की दिशा में कुछ कर भी रहे हैं ? हमारी पीढ़ी तो बच – बचा कर फिसल भी लेगी लेकिन अगलो पीढ़ी इस ज़हर से कैसे बचेगी ?
बहुत महत्वपूर्ण सवाल और चिंता ज़ाहिर करने वाली कहानी .
कहानी अपनी सहज भाषा, शैली और कहन से दिल को छूती है।शुरू से अंत तक पाठक को कथा बाँधे रखती है। यही महत्वपूर्ण है।कथाकार एवं समालोचन को साधुवाद!
पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा। पढ़ते समय अपने बचपन की स्मृतियों में खोता चला गया। कुछ ऐसी भावनाएं मन में आ ही जाती है। माहौल ही कुछ ऐसा है।
बहुत बहुत आभार मित्र😊👍
कहानी की शुरुआत में ही एक पात्र के नाम के साथ उसका सरनेम देकर लेखक ने कहानी की दिशा और तेवर बता दिए थे । अनावश्यक विस्तार और शिल्पगत शिथिलता से कहानी प्रवाह अवरुद्ध होता है । लेखक को भाव, विचार और शिल्प पर और अधिक अध्ययन व परिश्रम करने की आवश्यकता है ।