मेरा नाम सत्येंद्र हैअमन सोनी |
मेरा नाम सत्येंद्र है और प्यार से सब मुझे सत्तू कहते हैं. असल में यह बस एक जुमला है वरना लोग मुझे नफ़रत, गुस्से, हिकारत या बिना इन सब के भी सत्तू ही कहते है. मुझे खुद अपना नाम सत्येंद्र होने पर यकीन नहीं होता. यकीन दिलाने के लिए कभी-कभी मैं बार-बार सत्येंद्र, सत्येंद्र रटता रहता हूं. यह एक अजीब आदत है पर मुझे उतनी अजीब नहीं लगती. यह बिल्कुल अपने गाल में उभरे मस्से को बार-बार छू कर देखना जैसा है कि कहीं वह मस्सा गायब तो नहीं हो गया.
मैं अपना नाम बार-बार रटता हूं और देखता हूं कि सत्येंद्र बोलने पर मुझे मेरा चेहरा दिख रहा है या नहीं? अपना नाम होना अपने घर होने जैसी ही शांति देता है. हालाँकि मेरा एक घर है, इसी शहर में, थोड़ी दूर. पूरे पैंतालीस मिनट लगते है घर पहुंचने में. कोई अगर गाड़ी से गया तो हो सकता है उसे कम वक्त लगे लेकिन मुझे तो पैंतालीस मिनट लगते है. मेरे पास घड़ी नहीं है फिर भी मैं जानता हूं की पैंतालीस मिनट ही लगते हैं. मुझे पता है पैंतालीस मिनट कैसे लगते है. मुझे अब यह भी पता है की एक घंटा कैसा लगता है या एक दिन कैसा लगता है या एक साल कैसा लगता है या जिन्दगी कैसी लगती है.
मैं एक साल से घर नहीं गया हूं. अम्मा कभी-कभार मुझे देखने आ जाती है. पहले समझाती, रोती, चिरौरी करती थी कि घर चल, घर चल. अब बस दूर से देख कर रो लेती है. ऐसा नहीं है कि मैं घर नहीं जाना चाहता, घर तो अच्छा ही लगता है. घर में मां है दो छोटे भाई हैं और एक बहन है. पर घर में मेरा बाप भी है. अच्छा आदमी है, पर दारू बहुत पीता है. दारू पी कर वह मेरा बाप नहीं रहता मेरी मां का आदमी बस रहता है. दारू पी कर वह उसे उसके नाम से नहीं बुलाता, गालियां देकर बुलाता है. कभी-कभी उसे पीटता भी है. ये कभी-कभी हर दूसरे दिन आ जाता है. मां पिटते हुए चिल्लाती है, रोती है, गालियां देती है. उसका रोना सुन कर बहन भी रोती है जबकि मेरे बाप ने उससे कभी तेज आवाज में बात तक नहीं की. मेरा सबसे छोटा भाई अभी तीन साल का है, वह भी रोता है. मैं नहीं रोता, मेरी मां मेरे बाप की औरत है. बाहर सब कहते कि अपनी औरत पर मर्द का अधिकार है फिर चाहे वह उसे मारे या प्यार करे. मेरी बहन और भाई को ये बात नहीं पता शायद. मैं बड़ा था तो मुझे पता चल गई. पर मुझे उसे मारता हुआ देखना अच्छा नहीं लगता था. कभी अच्छा नहीं लगता था. मैंने तय किया है कि मैं अपनी औरत को नहीं मारूंगा. मुझे रात में भी घर में रहना अच्छा नहीं लगता था. कभी-कभी रात में भी मां रोती थी. रात में मां और बाप तो सोते थे…एक दूसरे के अगल-बगल. रात में उसे शायद अलग तरह से पीटता हो. पता नहीं. रात की धीमी चीखें ज्यादा बेबस लगती थीं इसलिए ज्यादा चुभती थीं ये पता है.
मेरा नाम सत्येंद्र है और सब मुझे सत्तू बुलाते है. ये सत्तू नाम मुझे मेरे स्कूल में ही मिला था घर में नहीं. घर में मां मुझे बड़के बुलाती थी और बाप ‘अबे साले चूतीया’. स्कूल में सब सत्तू बुलाते थे. मैं घर के पास के सरकारी स्कूल में जाता था. वह सड़क के बाई ओर ठहरा हुआ स्कूल था. वह हमेशा सड़क के उसी ओर ठहरा रहता था. मेरे घर जैसी वे सड़कें भी नहीं बदलती थीं. यह बात मुझे स्कूल के बारे में सबसे अच्छी लगती थी. वहाँ बहुत सारे कमरे थे. गिनती के पूरे दस तो रहें ही होंगे. मुझे दीवाल पर पुता सरस्वती देवी का चित्र बहुत अच्छा लगता था. कितनी सुंदर लगती थीं- ये देवी. सफेद कपड़ा पहने- गोरी-गोरी. देवियां गोरी होती होंगी. मेरी मां और बहन तो काली हैं. वो देवी नहीं हैं. स्कूल की ज्यादातर मैडम गोरी थीं. मैडमों के अलावा काम करने वाली बाकी औरतें गोरी नहीं थीं . वो सब भी देवी नहीं थी.
स्कूल के सामने एक हैंडपंप लगा था. वही पर मेरी मनछुल से दोस्ती हुई. मैं उसे मनछुल ही कहता था क्योंकि सब उसे मनछुल कहते थे. उसका सही नाम मनोज था . उसके बाप की पंचर की दुकान थी, मेरा बाप रिक्शा चलाता था. इस तरह से हमारी दोस्ती में खानदानी दोस्ती का गुण था. मनछुल मुझसे ज्यादा होशियार था, छुट्टा गालियां देता था, उसने मुझे भी कई गालियां सिखाई थीं. मैं एक दिन कुछ गालियों के मतलब पूछना चाह रहा था जो मेरा बाप मेरी मां को देता था. उसने कहा ये तो ज्यादा बड़ी वाली गालियां हैं, अगली क्लास तक शायद मतलब समझ आ जाए. मैं उसे अपनी मां के पिटने का पूरा ब्यौरा भी देता था.
वह हमेशा कहता उसे मेरी मां को पिटते हुए देखना है. उसने मां को पिटते हुए कभी नहीं देखा होगा, उसकी मां नहीं थी. उसके घर में मां नहीं होने के कारण उसका बाप उसे पीटता था. उसका बाप जब उसे पीटता तब भी उसकी मां को ही गालियां देता, हो सकता है जब वह उसको पीटता हो तो उसकी मां को पीट रहा होता हो. वह देखना चाहता था कि मेरी मां की पिटाई उसकी पिटाई जैसी है या नहीं. तभी वह जान पाएगा कि उसके घर में भी रोज़ वह पिटता है या उसकी मरी हुई मां पिटती है.
मनछुल को मैं कभी घर नहीं ले जा सका लेकिन अब मैं और मनछुल साथ रहते है. साथ में कइयों को पिटते हुए देखते है और साथ में पिटते भी हैं. हम घर छोड़ कर आ गए थे. पर हमने रात में घर नहीं छोड़ा, दिन में छोड़ कर आए थे. हालांकि जिस गली में मेरा घर था वहां दिन में भी रात जैसा अंधेरा रहता था. मेरे साथ एक और लड़का रहता है- करीम उसने रात में घर छोड़ा था, वह दिन में घर नहीं छोड़ पाया. मां चाहती थी कि मैं पढ़ूं लिखूं इसलिये उसने मुझे स्कूल भेजा था. मेरा बाप कहता जानवरों के शिकार सीखने के लिए कोई स्कूल नहीं होता इसलिए उसने मुझे ईट भट्टा भेजा. मुझे कभी नहीं लगा कि मैं या मेरे मुहल्ले में रहने वाले सारे लोग शिकार करने वाले जानवर हैं. पर हम सिर्फ शिकार होने वाले जानवर भी नहीं. हम कहीं बीच में आते होंगे.
भट्टे में मैं कच्ची ईंट ढो कर आग तक ले जाता. मैंने तब जाना आग नर्म मुलायम मिट्टी को भी बहुत सख़्त कर देती है. इतनी सख़्त कि उनके किसी का सिर भी फोड़ा जा सकता है. मुझे सौ रुपए दिहाड़ी मिलती थी. मुझे लगता था सौ रुपए बहुत ज्यादा होते हैं . पर बाद में पता चला ये तो बहुत कम होते हैं. ये बात मुझे कहां पता थी, मनछुल ने ही बताई. मनछुल को पता थी क्योंकि उसकी बड़े लोगों से दोस्ती थी. सब कहते थे वह अपनी उम्र से ज्यादा बड़ा है, मैं भी अब अपनी उम्र से ज्यादा बड़ा हो रहा हूं. वह अपने बाप की पिटाई से तंग आ गया था, उसने धीरे-धीरे घर जाना छोड़ दिया था. इसलिए वह जल्दी बड़ा हो गया था. मैंने घर जाना एक दम से छोड़ा. मां ने मुझे एक दिन खूब पीटा. उस दिन मुझे लगा मां मुझे नहीं मार रही अपने ऊपर के सारे चाटे मुझे दे रही है. वह मेरी मां के चाटे नहीं थे शायद मेरे बाप के रहे होंगे या फिर किसी और के. उस दिन के बाद मैंने घर छोड़ दिया. वह बहुत रोई होगी पर उसने मुझे ढूंढा नहीं. या ढूंढा होगा तो मैं मिला नहीं. बाद में किसी ने उसे मेरा पता बताया होगा. आठ महीने बाद जब वह मुझे मिली तो उसके गोद में एक और छोटा बचा था. मेरा तीसरा भाई. मैंने उसे गौर से देखा था. उसके गाल में भी एक छोटा सा मस्सा था.
घर छोड़ कर एक बात समझ आने लगी. अकेले रहना आसान होता है. जब तब भूख नहीं लगती. ये भूख तो कैसी भी हो सकती है. हम अकेले कहां रहते थे, कुल मिला कर पांच लोग थे. मैं, मनछुल, करीम, नंदू और ताशी. पर हम अकेले ही रहते थे. हमारा अकेला पांच का अकेला था. नंदू मुझे ईट भट्ठे में मिला था. हम में से सबसे ज्यादा अकेला होने का अनुभव उसके पास था. वह पैदा होने के बाद से ही अकेला था. उसने ही पहली बार मुझे बीड़ी पिलाई थी, और सिगरेट भी. वो पाउच नही खाता था. वो उसे लीचड़ता कहता था. इस मामले में उसके विचार किसी बाबा सन्यासी जैसे ऊंचे थे. ताशी को उसके भैया ने निकाल दिया था. सब कहते वह झक्की है. इस तरह वह एक अलग किस्म का अकेला था. दिमाग वाले अकेलों के बीच कम दिमाग वाला अकेला. करीम अपने घर वालों के बारे में कुछ नहीं बताता था. हम सब जब अपने-अपने हिस्से के विलेन बनाते थे तब भी उसके पास बताने को कोई आदमी नहीं होता था. और इसलिए वह हमारे बीच का सबसे बड़ा अकेला है इस पर सब एक मत थे. हालांकि इस पर चर्चा कभी नहीं हुई. उसे देख कर मुझे मेरी मां याद आ जाती थी. तब मैं रुआसा हो जाता था. पर मैं रोता नहीं था. कोई नहीं रोता था. हम हँसते थे, हँसना ही हमारा रोना था. कोई हमें गाली देता तो हम हँसते थे. कोई हमें दुत्कार देता तो हम हँसते थे. पीटे जाने पर रोना पड़ता था. ये स्वभाव से ज्यादा रणनीति थी. पिटने के बाद हम हँसते थे, गालियां दे दे कर हँसते थे. ये भी स्वभाव से ज्यादा रणनीति थी.
मनछुल हमारा लीडर था, क्योंकि उसे बड़े लोगों की बाते जल्दी समझ आती थी. उसने हमें बताया कि स्टेशन से पीछे तरफ खाली ट्रेन खड़ी रहती है हमें वही रहना चाहिए. वही पटरियों के बीच हम रहने लग गए थे. उसने ही पहली बार चोरी की थी. काफी पैसे मिले थे उस मोबाइल को बेच कर. उसने ही हमें चोरी करना सिखाया था. वह ही हमें पटरियों के पीछे एक ऐसी जगह ले गया जहां आदमी और औरत….. मैंने पहली बार एक आदमी और औरत को नंगा देखा था. ताशी वहां अक्सर जाने लगा था. उसे बिना कपड़ो के इंसान ज्यादा अच्छे लगते थे. नंगे लोग एक साथ खूबसूरत भी होते है और बदसूरत भी. इसी चक्कर में वह एक बार पिटा भी था. कभी-कभी मेरा भी मन करता था. लेकिन मुझे वह आवाज़ें बर्दाश्त नहीं होती थीं.
मुझे कभी-कभी लगता मैं वापस घर चला जाऊं. रात में ऐसा ज्यादा लगने लगता. जब हम खुले आसमान के नीचे लेटे रहते और तारे देखा करते. सुबह होते ही ये ख्याल चला जाता. यहां हम आज़ाद थे. आज़ादी अपने आप में एक कैद होती है. इसी बीच हमारे हाथ एक कमाल की चीज़ लगी. मनछुल ने ही पहली बार हमें सुलोसन का स्वाद चखाया था. उसने बोला ये सारे डर का इलाज है. पहली बार जब मैंने अपनी शर्ट में डाल कर उसे सूंघा उसके बाद मुझे दो दिन तक कुछ याद नहीं रहा. लेकिन उसकी बात सच थी. उस दिन के बाद से मुझे भूख से डर नहीं लगता था. मौत से डर नहीं लगता था. डर से डर नहीं लगता था. हर मर्ज़ की दवा था ये. जब वो हमारे नथुनों से होता हुआ हमारे फेफड़ों में भरता हमें लगता हम ही इस दुनिया के राजा हैं. फिर कोई भी कमी नहीं रहती. जिन चीजों से डर लगता उन पर तरस आने लगता. अब सिर्फ एक चीज से डर लगता था, हमें किसी दिन यह न मिला तो?
चोरी में हम सब का हाथ सध गया था. हमने स्टेशन में चोरी करनी शुरू की थी. वहां पकड़े जाने का ज्यादा खतरा था. हम ट्रेन में जाने लगे. पहले हम पांचों एक ही ट्रेन में साथ चढ़ते थे. इसमें भी ख़तरा था. नंदू एक दिन पुलिस के हत्थे चढ़ गया. खूब पिटा. मैंने सुना था पुलिस पकड़ कर जेल में डाल देती है. मनछुल ने बताया अठारह साल से कम उमर के बच्चों की जेल अलग होती है. हम कई दिनों बाद उस दिन डर गए थे. रात तक नंदू अड्डे पर आ गया. वह बहुत थका था. उसके फटे हुए कपड़े और भी फट गए थे. वह लगभग नंगा था. पुलिस ने उसे पीट कर छोड़ दिया था. उस रात हम फिर हँसने बैठे. पर हम में से सिर्फ चार हँस रहे थे. नंदू नहीं हँस रहा था. शायद वह डर रहा था. मुझे भी उसे देख कर डर लगने लगा. मैंने सुलोसन फिर से सूंघा. डर अभी भी नहीं गया . मुझे और डर लगने लगा. मैंने पूरी ट्यूब खाली कर दी. मैं नशे से फिर अचेत हो गया, पर इस बार सिर्फ सुबह तक के लिए.
इस घटना के बाद हम अलग-अलग जाने लगे. अलग-अलग जाने में फसने का ख़तरा कम था. ऐसा हमें लगता था. ताशी को इसमें दिक्कत हो गई. वो चोरी नहीं कर पाता था. क्योंकि वो दिमागदार नही था झक्की था. दिमागदार लोग अच्छे से चोरी कर लेते है इसलिए दिमागदार होते हैं. झक्की लोग अच्छे से चोरी नहीं कर पाते इसलिए झक्की होते है. उसने भीख मांगना शुरू कर दिया. वह ट्रेन के डब्बे में झाड़ू लगाता और भीख मांगता. एक दो बार मैं भी ताशी के साथ हो लिया था. मनछुल भी. सिर्फ भीख मांगने. कुछ केवल भीख देते थे, कुछ केवल दुत्कारते थे, कुछ भीख से पहले ज्ञान देते थे बाद में भीख. मनछुल को भीख मांगना इसलिए नहीं पुसाता था. वह कहता
“साले सब हमको नाली के कीड़े समझते हैं. हम पर दया दिखाते हैं ताकि अपनी नज़रों में खुद को ऊंचा साबित कर पाए. पर असलियत में सब कीड़े है. कीचड़ में धसे,रेंगते, कुलबुलाते नाली के कीड़े. बस हमारी और उनकी नालियां अलग-अलग हैं.”
मनछुल की बात किसी न किसी गाली से ही खत्म होती थी. मुझे अब गालियों के मतलब समझ में आने लगे थे. मुझे अब मनछुल की सारी बातें समझ में ज्यादा आने लगी थी. हम शहर के सबसे पिछवाड़े की नाली थे. हर मोहल्ला किसी दूसरे मोहल्ले के पिछवाड़े बहती नाली था. शहर में नालियां बनी थीं, नालियों में शहर बसे थे.
उसके बाद से उसका मन चोरी में ही रमता. उसमें रोज़ रोज़ जाने की झंझट नहीं है. लेकिन उसमें एक झंझट था. चुराए समान को बेचना मुश्किल होता जा रहा था. उसका भी तोड़ मनछुल ने ही निकाला था. तभी तो वह हमारा लीडर था. वह आस-पास के गांवों और कस्बों में भी सामान बेच आता था. वह कहीं भी उतर जाता और कभी भी बेच आता था. उसने चलती ट्रेन से उतरने का कमाल का हुनर सीख लिया था. ट्रेन बस ज़रा सी धीमी होनी चाहिए और वह सेकेंडों में उतर सकता था . हमें ये हुनर नहीं आया था. हम सब उसकी शागिर्दी में थे.
ऐसा नहीं है यहां बस हम होते थे. और भी कई छोटे-बड़े गुट थे. कई में काफ़ी बड़े लड़के तक थे. कई में लड़कियां भी थी. ज्यादातर ट्रेन और स्टेशन से ही कमाते थे. कुछ पटरियों में कचरा बीनते थे. कुछ भीख मांगते थे. कुछ मेरी तरह सब कर लेते थे. उन्हें किसी चीज़ का गुरेज़ न था. स्कूल में एक दफा पढ़ा था सरकार एक व्यवस्था है जो नियम बनाती है और लागू करती है. छठवीं में पढ़ा था शायद. हमारी दुनिया की भी एक सरकार थी- भूख . भूख ने ही अलग-अलग लोगों के अलग- अलग वक्त पर काम करने के नियम बना दिए थे. यहां तक कि ट्रेनें भी बाट ली गईं थी. इस से सब को कुछ न कुछ मिल जाता था. हम एक दूसरे के साथ खेलते भी थे और लड़ते भी थे. माचिस के डिब्बियों को इकट्ठा कर के उनके कवर को फाड़ लेते थे. वही हमारे पत्ते थे. उस से ही जुआ खेला जाता था. आसान सा नियम था, सब बिना देखे अपने- अपने पत्ते डालते थे. जिसने दूसरे वाले जैसा पत्ता डाल दिया सारे पत्ते उसके. करीम इस में बड़ा तेज है. जाने कैसे वह सबको हरा देता है. मेरे सर पर भी करीम के बारह पत्ते उधार है.
मेरा नाम सत्येंद्र है और सब मुझे सत्तू बुलाते हैं. मेरी खुराक बढ़ गई है या फिर माल नकली आता है इन दिनों. वो बात ही नहीं रहती. एक बार का असर तो यूं ही खत्म हो जाता. मेरी ट्यूब खत्म हो गई है. मुझे रोना आ रहा है, मुंह सुखा जा रहा है, पसीना आ रहा है, सांस, हवा खत्म हो गई है क्या?
ये सांस क्यूँ नहीं आ रही. मैं मर जाऊंगा ? कहां है, कहां है मेरा रुमाल. कहां है मेरी सारी ट्यूबें, ये सब खत्म हो रही है. मैं मर जाऊंगा. नहीं नहीं मैं नहीं मर सकता. अम्मा, ए रे अम्मा, मैं मर जाऊंगा. पैसा, दस रुपए ही मिल जाए तो शायद. ऐ बाबू दस रुपए दे दो कुछ खाया नहीं है. ओ भैया पांच रुपए ही दे दो मेरी बहन बीमार है, माई कुछ खाने को दे दो तीन दिन से कुछ नहीं खाया. नहीं तुम मुझे पैसे दे दो बिस्कुट का पैकेट नहीं, भगवान कसम नशा नहीं करूंगा, अम्मा की कसम नहीं लूंगा सुलोसन. नहीं माई पहले करता था अब छोड़ दिया. दे दे न माई पांच रुपए ही दे दे. भूख से मर जाऊंगा. कितने हुए पंद्रह. साले कैसे भूखे नंगे है. दस पांच रुपए दे नहीं सकते. मेरा काम चल जाएगा. ए भाई एक सुलोसन देना. अरे नहीं नशा करने को नहीं मांग रहा पंक्चर की दुकान खोली है. सच में. नहीं देना तो मत दे. ये ज्यादा ज्ञान न पेल. साले तेरी मां की. रूमाल कहाँ है मेरी. ये रही. आह! जान में जान आई. ये तो एक ही ट्यूब है. रात का क्या होगा?
रात हो गई है. मैं एक ट्रेन में चढ़ गया हूं. मैं रात में नहीं चढ़ता. मुझसे रात में चोरी नहीं की जाती. रात में मुझे सोना पसंद है. पर आज नहीं. आज मुझे नींद नहीं आएगी. एक अजीब सी घबराहट हो रही. छाती में अजीब सा भार है. कोई चुभती सी आवाज़ कानों को लगातार खाए जा रही है. ट्यूब भी आधी खत्म हो चुकी है. कुछ हाथ लगा तो ठीक नहीं तो भीख ही मांग लूंगा. ये ट्रेन कहा जा रही है नहीं पता. पहले कभी इस ट्रेन में नहीं चढ़ा. ये वक्त नहीं ठीक थोड़ी और रात हो जाए. अभी तो सब जाग रहे हैं. इस डिब्बे में ये आदमी अकेला है शायद. सिर के नीचे ही अपना बैग रखा है. बैग भी ज्यादा बड़ा नहीं है. कुछ तो होगा ही. कुछ तो काम का निकल ही आएगा. मैं दरवाजे के पास ही लेटा हूं. उसकी सीट भी दरवाज़े से ज्यादा दूर नहीं है. अभी लेट जाता हूं यहां ही. जागता रहूंगा तो कोई शक कर लेगा.
ज्यादातर लोग सो गए हैं. जिन्हें सीट नहीं मिली वह भी ऊंघ रहे है. लेकिन अभी नहीं. मनछुल कहता है आधी रात के बाद नींद बहुत पक्की होती है. जाने आज घबराहट क्यों हो रही है. दिन के उजाले में भी कभी इतनी घबराहट नहीं होती. कितनी बार जेब काटी है मैंने. कभी डर नहीं लगा. थोड़ा सुलोसन सूंघ लेता हूं. नहीं ! अभी सूंघा तो खुशबू फैलेगी. थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा. वह आदमी अभी भी करवट बदल रहा है. पक्की नींद नहीं लगी लगता है. अरे ये तो जाग गया. इसी तरफ आ रहा है. लगता है मूतने जा रहा है. यही सही मौका है. लेकिन ट्रेन की रफ्तार बहुत तेज है. अभी तो भाग नहीं पाऊंगा. नहीं किसी सीट के नीचे छुप जाऊंगा. फिर ट्रेन थोड़ा धीमी होगी तो भाग लूंगा. हां वह चला गया. जाता हूं.
बैग उठा लिया है. वह आदमी तो बाहर निकल आया. इतनी जल्दी? यहीं इसी सीट के नीचे घुस जाता हूं. वो कुछ चिल्ला रहा है. लगता है उसने देख लिया. बहुत डर लग रहा है. दिल की आवाज़ कितनी साफ सुनाई दे रही है. मैं सीट के नीचे पड़ा हूं. अंधेरा है चारों ओर. शायद उसने मुझे नहीं देखा. ओह! कोई सीट के पास आ कर खड़ा हुआ. एक हाथ मेरी शर्ट को पकड़ लिया है. मुझे बाहर खींच रहा है. मैं पकड़ा गया!! एक जोरदार चांटा मेरे गाल में पड़ता है. मेरे आंखों में आंसू भर आए है. मेरे हाथ की उंगलियां कंपकंपा रही है, सीने में सांस नहीं आ रही है. उस आदमी ने मेरे हाथ से अपना बैग छुड़ा लिया है. मुझे कॉलर से पकड़ के बाहर खींच लिया है. ट्रेन के बाकी लोग भी जाग गए हैं. लाइटें चालू हो गईं है. उसने मुझे गाली दी, एक और चांटा अभी-अभी हाल में पड़ा है. मैं रो रहा हूं. ये स्वभावगत है या रणनीति अभी कुछ समझ नहीं आ रहा. एक दूसरा आदमी आया है, उसने मुझे पीटने से रोक दिया है.
“इसे पुलिस के हवाले करो” वह कह रहा है
उस आदमी ने मुझे मरना बंद कर दिया है. मैं अभी भी रो रहा हूं. मैं उन लोगों के पैर पकड़ रहा हूं. माफी मांग रहा हूं. उन सब ने मुझे कोने में बैठ जाने को कहा है. एक दूसरा आदमी मुझसे सवाल जवाब कर रहा है.
“कहां रहते हो? महतारी बाप क्या करते हैं?”
मुझे समझ नहीं आता मैं क्या जवाब दूं. मैं उसके पैरों में गिर जाता हूं. वह मुझे दुत्कार देता है. डिब्बे में चहल पहल शुरू हो गई है. कुछ मुझे घूर रहे हैं, कुछ गलियां दे रहे हैं, कुछ इस बात पर सलाह मशविरा कर रहे है कि मेरे साथ क्या करना चाहिए.
“अरे आर पी एफ होगी ट्रेन में उनके हवाले कीजिए” एक कह रहा है
“नहीं है अंकल, देख आया स्लीपर के सारे डिब्बे.” एक लड़का कहता है
“अब तो अगले स्टेशन में ही होगा कुछ”
“पुलिस भी क्या करेगी पीट कर छोड़ देगी”
“उसके अलावा कर ही क्या सकते है. शायद एसी कोच में हो आर पी एफ”
“इनके मां बाप भी, पैदा कर लेंगे फिर खिलाते नहीं बनेगा तो भेज देंगे चोरी करने”
ये सुन कर मुझे मेरी मां याद आ गई उसके बाद मेरी बहन, मेरे भाई. और फिर मनछुल और फिर करीम, ताशी और नंदू. अचानक याद आया नंदू भी उस दिन पकड़ा गया था. अभी एक ठहरा हुआ डर लग रहा था ये सोच कर एक अलग तूफान उठ गया है. पुलिस ने मुझे नहीं छोड़ा तो. वो जेल कैसी होगी. वहां क्या होगा. समय इसी डर में जकड़ा बीत रहा है. मैंने ट्रेन के डिब्बे में फिर से देखा. ज्यादातर फिर से सो गए हैं. दो तीन आदमी जगे है जिसमें वह भी है जिसका बैग मैंने चुराया था. उसके चेहरे पर संतोष है. वह मुझे देखता है तो उसके चेहरे पर गुस्सा तैर जाता है. इस वक्त मुझे उसका चेहरा मेरे बाप जैसा लगने लगा है. एक लड़का जो कुछ देर पहले यहीं था एक खाकी वर्दी वाले आदमी के साथ यहां आते दिखता है. मेरी घबराहट बहुत बढ़ गई है. उस आदमी के हाथ में एक बड़ी सी बंदूक है. अब मैं पुलिस से पकड़ा जाऊंगा. मेरे दिमाग़ में एक साथ कई तरह की आवाज़ गूंज रही हैं. वह नजदीक आ रहा है. ट्रेन की रफ्तार बहुत तेज़ है और मेरे धड़कनों की भी. मेरे पैर ख़ुद ब ख़ुद दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ते है. अगले दस सेकंड में मैं ट्रेन से कूद जाता हूं. वो सारे एक स्वर में चिल्ला उठते हैं. हवा में लटके हुए ही उनकी आवाज़ कानों में पड़ती है फिर ट्रेन की आवाज़ में घुल कर दूर चली जाती हैं. मेरे पैर लड़खड़ा गए है. अभी-अभी मेरे सिर से कुछ टकराया है. मेरे पूरे बदन में एक झन्नाहट तैर गई है.
मैं पटरियों के बीच लेटा हूं. माथे से खून की एक धार निकल रही है. कंधे खून से सन गए है. पीठ और कोहनियों में जलन हो रही है. पैरों पर जोर नहीं पड़ रहा. कानों में फिर से वो चुभती सी आवाज़ गूंजने लगी है. बेचैनी बढ़ गई है. मैं अपने पेंट की जेब में हाथ डालता हूं. ट्यूब अभी भी सही सलामत है. अपनी खून भरी शर्ट में ट्यूब पूरी खाली कर दिया हूं. एक गहरी सांस ली है. एक तीखी महक मेरे फेफड़ों से होती हुई मेरे दिमाग में भर गई है.
आंखों के सामने अम्मा का चेहरा घूम रहा है. मुझे अपनी मां कितनी सुंदर लग रही है, किसी देवी जैसी. कानों में उसकी आवाज़ गूंज रही है “ऐ बड़के, जरा हेन आ तो”. अम्मा बुला रही है. दूर एक पीली रोशनी के पीछे वो जा रही है. वो कही गायब होती जा रही है. मेरे आंखों के आगे अंधेरा सा छा रहा है. सब कुछ धुंधला रहा है. मुझे मेरा नाम याद नहीं आ रहा. मेरा नाम क्या है. मैं जोर दे कर याद करने की कोशिश कर रहा हूं. मुझे कुछ याद नहीं आ रहा. मुझे महसूस होना बंद हो रहा है. मैं मैं मम्म.
अमन सोनी केमिकल इंजीनियर |
बहुत ही मार्मिक कथा। एक बच्चे के अपराधी बनते जाने में इस व्यवस्था का हाथ सबसे अधिक होता है।बहुत बारीकी से यह कथा उन कारणों की पड़ताल करती है जो इसके लिए जिम्मेदार हैं।नवोदित युवा कथाकार को बधाई एवं समालोचन को भी।
मेरे प्रिय मित्र तुम एक अच्छे लेखक हो ये कहानी इस बात को प्रमाणित करती है तुम्हारे भविष्य के लिए शुभकामनाएं। ये कहानी बहुत ही मार्मिक है
बढ़िया कहानी
सुंदर भाषा सामर्थ्यवान भी हो। वह केवल भाषिक जादू तक सीमित न रहे बल्कि कथ्य को गतिशील रखे। वह पीड़ा और द्वंद्व का भार वहन कर सके। इस तरह सोचने पर भी मुझे यह कहानी अच्छी लगी। विषय की नवीनता भी है। यह सुनिश्चित प्रारूपों का अनुसरण नहीं करती।
इस नये कथाकार को बधाई। और शुभकामनाएँ ।
मार्मिक कहानी
एक मासूम बच्चे का धीरे धीरे अपराध के जंगल में खो जाना। अच्छी कहानी। अमन सोनी को शुभकामनाएं।
अच्छा और सुगठित कथ्य। कहीं भी ठहरने नहीं दिया, पर दिमाग़ के पर्दे पर कितने ही दृश्य तैरने लगे। एकाधिक पँक्तियाँ ठक़् से कहीं लगीं, मानो समाज की ठोकर हों। और इतना ज़रूर कहूँगी कि कहानियाँ सच्ची होती हैं, इसलिए ही चोट कर देती हैं। चोट भी जाने किस जगह लगती है, पता नहीं। बस दर्द का अहसास होता है। जैसा इस कहानी को पढ़ कर हुआ।
एक बच्चे के मनोभावों और आवाज़ के पैटर्न को उकेरने में लेखक सफल हुए हैं। वही इस कहानी को खास बनाता है
Phenomenal!!
शहरों/ कस्बों और महानगरों के हाशिए पर झुग्गियों/ बस्तियों में बिखरता बचपन/ नशे और अपराध के काले अंधेरे का एक बड़ा सच धड़क रहा है इस कहानी में। व्यवस्था का सबसे निचला हिस्सा जब छोड़ दिया जाता है तो पीढ़ियां ऐसे ही अपराध/ भटकाव और अंधेरे भविष्य में समा जाती है। स्कूलों सहित किशोरों में सॉल्यूशन का नशा यह इस दौर का यथार्थ है। भाषा/ शिल्प कहानी को रोचक बनाते हैं। एक हल्के विस्तार की और आवश्यकता थी। अक्सर ऐसे यथार्थ की नियतियां एक अलग दुनिया भी रचती हैं जहां यह कहानी एक नया दृश्य और समाज रच सकती थी। पहली कहानी अमन को लेकर आश्वस्त कर रही है। वे एक संभावनाशील कथाकार हैं। उन्हें शुभकामनाएं। समालोचन को फिर बधाई। यह ई साहित्यिक मैगजीन सृजन और रचना के संसार को लगातार समृद्ध और हरा भरा कर रही है। अगली कहानी का इंतजार रहेगा अमन।
कहानी तो मार्मिक है ही ,कुछ पंक्तियाँ तो निश्चित रूप से अलहदा चमक रखती है। जैसे -आजादी भी अपने आप में कैद है। किसी भी कथा या कविता में कुछ विलक्षणता नहीं हो तो वह अपना प्रभाव तत्क्षण खो देती है। अमन में संभावनाएं हैं। शुभकामनायें।
अमन सोनी की यह पहली कहानी भविष्य के एक सामर्थ्यवान कथाकार की ओर संकेत करती है। उनकी अगली कहानियों की प्रतीक्षा रहेगी। इस कहानी के लिए उन्हें बधाई और शुभकामनाएं।
अमन सोनी बच्चों को अपराध की दुनिया मैं जाने की कहानी बता (“लिख रहे” शब्द युग्म नहीं लिख रहा) रहे हैं । कैनवास की तरह दृश्य मेरे सामने है ।
घर के हालात बच्चों को बेघर कर देते हैं । इसमें पिता की पति के रूप क्रूर उपस्थिति ज़िम्मेदार है । असंख्य सत्येन्द्र इधर-उधर भटक रहे हैं । ऐसे बच्चों की हज़ारों टोलियाँ हैं । कहानी की बजाय यह सच्ची कथा है । गालियाँ, नशा, नशे के लिये चोरी, नशे के लिये भूख का बहाना समाज में व्याप्त सच्चाई है । यह बाल-अपराध की कहानी झकझोर रही है । कथ्य में साधारण शब्दों की जादूगरी असाधारण है । न भूलने वाला ज़िंदा मंज़र है
Proud of you aman bhai…..