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समालोचन

Home » हठात् वृष्टि: अम्बर पाण्डेय

हठात् वृष्टि: अम्बर पाण्डेय

‘हठात् वृष्टि’ समालोचन पर अम्बर पाण्डेय की दसवीं कहानी है, केवल इन्हीं कहानियों के संकलन से उनका पहला कहानी-संग्रह तैयार हो सकता है. अम्बर पाण्डेय ने जहाँ हिंदी कहानी को समृद्ध किया है वहीं अपना मुहावरा भी विकसित किया है. अधिकतर वे इतिहास से पात्र और परिवेश चुनते हैं पर उसका मंतव्य समकालीन रहता है. भाषा में परिवेश के अनुसार मराठी, बांग्ला आदि का अधिकारपूर्वक प्रयोग मिलता है. प्रस्तुत कहानी का समय आज का है पर उसमें पुराने कोलकाता की यादें हैं, कई बहसतलब प्रसंग हैं और ‘हठात्' घटनाएँ बीच-बीच में घटित होती रहती हैं. कहानी आपको विचलित करेगी ऐसा मेरा विश्वास है.

by arun dev
September 9, 2022
in कथा
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हठात् वृष्टि: अम्बर पाण्डेय
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हठात् वृष्टि
अम्बर पाण्डेय

अमला शंकर की चौबीस जुलाई २०२० को मृत्यु के पश्चात् नदी गोस्वामी पिता के घर आ गई. कोलकाता में अब रहने का कोई कारण न था, उसे कोलकाता समुद्रतल पर पड़े बृहत जहाज़ के ध्वंसावशेष सा प्रतीत होने लगा था. ऐसा लगता था जैसे वर्षों से धूप ही नहीं निकली, बस से उतरकर चार क़दम दूर घर तक पहुँचते-पहुँचते हठात् वृष्टि से वह प्रतिदिन भीग जाती थी, ज्वर तो अनुभव नहीं होता था किन्तु ऐसा लगता देह का तापमान वह तो नहीं रहा जो पहले रहता था. हड्डियाँ दुखती और शरीर में एक क्लांति सी अनुभव होती थी. पिताजी फ़ोन पर बार-बार कहते, कोरोना के बाद शरीर निर्बल हो जाता है. तरह-तरह की जाँचें बतलाते, ऑनलाइन भुगतान कर देते और प्रतिदिन प्रातः काल कोई न कोई रक्त या मूत्र का नमूना लेने आ जाता. कोई रोग न निकलता, शरीर की प्रत्येक क्रिया सामान्य थी.

जीवन वृथा गया ऐसा नदी को लगने लगा था. आई तो वह थी सन् १९९९ में नृत्यांगना बनने और लिखने लगी अमला शंकर की जीवनी. इक्कीस वर्ष का समय किसी की जीवनी लिखने के लिए कम तो नहीं होता किन्तु कथा अनन्तरूप से चलती रही, घटनाओं पर घटनाएँ, संवाद, मनोस्थितियाँ, ऋतुचक्र लिखते-लिखते उसने बारह जिल्दें भर डाली और जीवनी तब भी अपूर्ण लगती थी. विवाह नहीं किया, पिता की इच्छा मानकर प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाएँ नहीं दी, संसार का भ्रमण नहीं किया, लगता था जैसे अमला शंकर की आत्मा में प्रवेश पाने के लिए उसने संसार का अपने जीवन में प्रवेश निषेध कर दिया था. अबला दास स्मृति पाठघर, कॉलेज स्ट्रीट में मैरीयन मेएर द्वारा लिखित पिना बाउश की जीवनी पढ़ते हुए उस दिन लगा कि जीवनी उसे पूरी कर लेना चाहिए, हो सकता है इस कार्य को पूर्ण करने के पश्चात् नया जीवन आरम्भ हो, इस पुस्तक को लेकर शहर-शहर वह घूमती फिरे, नए लोगों से उसकी भेंट हो, कुछ असम्भव नहीं तो कम से कम कुछ अकस्मात् तो घटित हो.

सामने पुस्तकों के शेल्फ में मढ़े काँच में उसने स्वयं को देखते हुए बांग्ला में कहा,

“नदी, अकस्मात् और असम्भव में अन्तर होता है, यह तू नहीं जानती क्या? और तू प्रतीक्षा किसकी कर रही है असम्भव की या अकस्मात् की? अकस्मात् की अकस्मात् की अकस्मात् की, जैसे हठात् वृष्टि की किन्तु अकस्मात् की कोई प्रतीक्षा कैसे कर सकता है? जिसकी प्रतीक्षा की जाती है वह अकस्मात् तो नहीं होता”.

उसने देखा उसके केश कैसे बंगालिनों से है बल्कि उनसे अधिक सुन्दर, कानों के पीछे लटें खोंस देने पर भी वह कितनी आकर्षक लगती है, उसके केश अभी तक धवल नहीं हुए यह भी तो चमत्कार ही है. उसने आँखें मींच ली और अपनी भौंहों के मध्य कुंकुम के एक बड़े से तिलक की कल्पना की, जैसा नर्तकियाँ बनाती है. सोचते-सोचते कब नींद लग गई, कितने दिनों से वह सोई न थी, सोती तो थी किन्तु स्वप्नों की शृंखला अविराम चलती रहती. स्वप्न क्या थे? अमला शंकर की छवियाँ, आवाज़ और गन्धों का मस्तिष्क में अबाध प्रवेश, उठापटक और फिर हठात् माथा पकड़कर उसका जाग जाना. एक तरुण की पुकार सुनकर जागी, “पाठघर बंद होने का समय हो गया. साढ़े छह बजने आया”,

तरुण के कण्ठ में मंद्र घोष था और नदी ने आँख उठाकर निहारा तो छवि मोहक थी. लगता था उसने दिनों से न दाढ़ी बनाई है न बाल कटवाए है, होंठों पर सिगरेट फूँकने के कारण स्थान-स्थान पर काले धब्बे पड़ गए थे, “अंतरिक्ष में कृष्ण विवर” उसके मुख से सहसा निकला. “जी? क्या कहा आपने?” तरुण ने पूछा. यह क्या हो गया था नदी को, ऐसी विवेकशून्य तो वह पहले न थी.

झोले में उसने अपनी किताबें भरी और हवाई चप्पलें पहनकर वह बाहर दालान में आ खड़ी हुई. पाठघर जर्जर भवन में बना हुआ था, इतालवी विला जैसे इस भवन में कक्षों की पंक्ति को लम्बे-लम्बे दालान घेरे हुए थे जहाँ स्थान-स्थान पर कचरा पड़ा रहता था, दीवारों पर पान की पीक, चूइंगगम, सिगरेट के ठूँठ और दारू की रीती बोतलें लुढ़कती रहती थी, वायु मूत्र की गन्ध से अवरुद्ध दालान के ऊपरी भाग में जैसे अटकी हुई रहती और यहीं आकर नदी को विश्राम की अनुभूति होती थी जैसे लू में भटकते किसी को वटवृक्ष के नीचे कुआँ मिल गया हो. दालान में चूंकि बल्ब अधिक न थे, यहाँ देर तक रुकना उचित न था फिर कोई न कोई हम्माल या बाबू यहाँ लघुशंका निवारण के लिए आ ही जाता था. तब भी उस दिन वह थोड़ी देर खड़ी रही, कहीं से जलते तम्बाकू की सुगन्ध आ रही थी, नदी को माथा धीमे-धीमे घूमता हुआ लगा, किसी स्तम्भ से टिककर वह खड़ी रही. तम्बाकू की सुगन्ध अब धुएँ में बदल गई तो उसने पलटकर देखा, पाठघर का वही सुदर्शन लाइब्रेरियन सिगरेट पी रहा था. वह उसे मिनट भर की देखती रही फिर पूछा, “माथा नहीं घूमता?”

सच में उसके कण्ठ में मेघों सा मंद्र घोष था, उसने उत्तर दिया, “न पियूँ तो माथा घूमता है”. नदी के वह किंचित निकट आया फिर दूर हो गया, “आपको तकलीफ़ होगी”. नदी को सिगरेट से कष्ट तो सम्भवतया नहीं था. उसे नलिन के संग अठारह की वय में सिगरेट पीने का स्मरण हो आया, कैसे माता पिता के लंच के पश्चात् पुनः कार्यालय जाते ही वे दोनों स्कूल के ही कपड़ों में सिगरेट पीने का अभ्यास करते थे. नलिन तो दूसरी बार में ही सिगरेट पीने लगा था किन्तु नदी को कभी ठीक से फूँकना नहीं आया. “नहीं कष्ट नहीं होता. माथा थोड़ा घूमता है पर वही अच्छा लगता है” नदी ने कहा और लाइब्रेरियन के थोड़ा सा निकट आ खड़ी हुई. “क्या नाम है आपका?” लाइब्रेरियन ने पूछा. “नदी गोस्वामी और आपका?” वायुमण्डल से धुएँ को खींचते हुए नदी ने उत्तर दिया. “हुसैन” लाइब्रेरियन ने कहा और दूसरी सिगरेट निकालने लगा, “पिएँगी?” नदी ने पीछे हटते हुए कहा,

“न, न. घर जाकर खाना बनाऊँगी और खाकर सो रहूँगी. सिगरेट तो मेरे लिए बीते युग की बात हो गई. भाई के संग पीती थी चुपके-चुपके”

सिगरेट जलाने को दियासलाई जब हुसैन ने सुलगाई तो उसका मुख अन्धकार में दीप्त हो उठा, पुरानी सिनेमा के नायकों की तरह. उसने देखा नदी उसे अनिमेष देख रही है, काले, खुले केश स्तनों पर पड़े है जिसके कारण स्तन और भी गोल और कठोर लगते है. आँखें कितनी निराश लगती थी इस स्त्री की जैसे किसी ऐसे दिवस का सायंकाल हो जब हमारा कोई अत्यन्त प्रिय हमें छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए विदेश चला जाए, जीवित रहे किन्तु मृतक की भाँति उपेक्षा से परिपूर्ण.

“मोमोज खाओगी, उस लैम्पपोस्ट के नीचे ठेले पर मिलते है. मेरे संग खाने में एतराज न हो अगर”

हुसैन ने कहा और आँखें नदी की पुतलियों पर टिका दी. ऐसे देखता है जैसे हृदय का सूक्ष्मतम स्फुरण भी पकड़ लेगा, नदी को लगा जैसे उसकी पुतलियों पर हुसैन ने आँखें टिकाकर उसे बंदी बना लिया है. “इसी को तो नज़रबंद होना कहते है” परिहास करके नदी ने पीछा छुड़ाना चाहा किन्तु वाक्य पूरा नहीं किया. वह मोमोज खाना चाहती तो थी हुसैन के संग, केवल संस्कारजन्य संकोच के कारण सीधे-सीधे हाँ नहीं कह पा रही थी, चाहती थी हुसैन उसका हाथ गहकर कहे, ‘दस मिनट पहले तुमसे मिला हूँ, मैं बदमाश लुच्चा हो सकता हूँ, अपराधी हो सकता हूँ किन्तु तब भी विश्वास करो तुम्हारा तो बिगाड़ न करूँगा’ किन्तु हुसैन ने एक शब्द नहीं कहा, केवल सिगरेट फूँकता दालान से बाहर की ओर चल पड़ा और उसके पीछे नदी चल पड़ी जैसे नदी समुद्र के पीछे चलती है. उसने स्वयं से कहा, यह २०२२ है नदी गोस्वामी, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का अविभाजित बंगाल नहीं जहाँ स्त्रियाँ सती हुआ करती थीं.

इतना सुंदर भी दिन हो सकता है इसकी कल्पना नदी ने कभी न थी. उसके लिए नृत्य सुंदर था, पुस्तकें सुंदर थी और सुंदर था अमला शंकर का जीवन, उसका स्वयं के जीवन की समग्र सुंदरता इन्हीं की सुंदरता से थी. आज उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उसके जीवन में कुछ सुंदर हो सकता है, सुंदरतम इसलिए कि वह अकस्मात् घटा था. भेंट के घण्टे भर में किसी से प्रेम हो जाए ऐसा तो नदी के जीवन में सम्भव नहीं था वह प्रथमदृष्टया अनुराग में विश्वास भी नहीं रखती थी किन्तु इस वय में किंचित छोटे युवक के प्रति उसमें भी कोमलता अचानक आ गई थी जैसे वर्षा के दिनों में अचानक दीवारों पर काई जम जाती थी. उसके प्रति नदी में तीव्र आकर्षण भी था और वात्सल्य भी उसमें घुला हुआ था. मोमोज ख़त्म करने के बाद काग़ज़ की तश्तरी घूरे में फेंककर जब नदी ने नज़र उठाई तो अपने झोले से एक काँच की बोतल का ढक्कन खोले हुसैन उसे हाथ धुलाने की मुद्रा में खड़ा था. वह हँस पड़ी.

उसके बाद हुसैन के साथ साइकिल से कॉलेज स्ट्रीट से उसके घर बेलियाघाट तक की यात्रा जिसमें नदी पूरे समय इस बात से भीत होती बैठी रही कि कहीं साइकिल से गिर न पड़े और कहीं बीच में हठात् वृष्टि न होने लगे. नदी के पिता भारतीय प्रशासनिक सेवा में थे, उच्च पद से सेवानिवृत्त हुए थे और उसके लिए एक निम्न मध्यवित्त मुसलमान के साथ साइकिल पर बैठकर कलकत्ते की यात्रा करना लगभग एक विप्लव था. विप्लव का आमुख ही हमारे वश में होता है परिणाम नहीं और विप्लव से अधिक विप्लवी सिद्ध हुआ आगे जो घटा. इस तरुण से मिलने के तीन घंटे के भीतर चालीस वर्षीय नदी, जो अब तक यह मानकर बैठी थी कि वह कुमारी ही देह त्यागेगी, अपना कौमार्य खो बैठी. वैसे भी नदी के लिए अपने कौमार्य का अब कोई महत्व शेष न था. उसने क्षणिक उत्सुकता की शांति के लिए इसे गँवा देना उचित समझा. अपनी इस उत्सुकता की शांति के लिए किसी वैज्ञानिक की तरह इस सीमा तक जाने पर उसे स्वयं पर गर्व हुआ. हुसैन के शरीर की दुर्गंध के घिरी हुई वह टांगें फैलाकर पड़ी हुई थी. हुसैन को वातानुकूलित कक्षों में रहने का अनुभव नहीं, वह कम्बल भींचता छत देख रहा था.

नदी को ऐसा लगा कि कुमारी के साहचर्य के कारण हुसैन में एक प्रकार की कोमलता आ गई है और इसलिए वह अपने घर नहीं लौट रहा किन्तु यह भ्रम था. नदी का शरीर पाकर हुसैन को उसकी उत्तेजना घर नहीं लौटने दे रही थी. एक बार, दो बार, तीसरी बार में नदी को पिंडलियों से लेकर नाभि तक जलन होने लगी और वह हुसैन को परे करके स्नानगृह में घुस गई. जब तक बाहर आई हुसैन खर्राटे भर रहा था. बत्ती बुझाकर देर तक सोचती रही कि वह हुसैन के निकट बिस्तर पर सोए या ज़मीन पर चादर बिछाकर सो जाए. कोमलता की आशा में वह हुसैन के निकट जाकर सो गई. उसे लगा था आज उसे नींद नहीं आएगी. इतनी बड़ी घटना होने के बाद जीवन में कुछ तो व्यतिक्रम होना चाहिए. व्यक्तिगत रूप से यदि यह घटना उसे नितांत महत्वहीन भी लगती है तब भी इसका अब भी कुछ तो सामाजिक महत्व शेष होगा किन्तु शरीर इतना श्लथ और आनंदातिरेक से शिथिल और हल्की-हल्की जलन के कारण खिन्न था कि उसे तुरंत नींद आ गई.

लगभग डेढ़ बजे मोबाइल की अनवरत घंटी से नदी जागी. हुसैन अब भी गहरी नींद में था. फ़ोन हुसैन का ही बज रहा था. नदी ने फ़ोन उठाया तो देखा कोई टुनिया का फ़ोन था. देर तक स्क्रीन देखती रही. फ़ोन बंद ही न होता था. बंद हुआ तो देखा बाईस बार टुनिया फ़ोन लगा चुकी थी. अठारह बार माँ और दो बार कोई नाज़ुकजहाँ. उसने हुसैन के माथे पर हाथ फेरा और उसे जगाने लगी.

“क्या हुआ?” हुसैन ने बैठते हुए कहा.

“अपने घर तो फ़ोन करो ज़रा. बहुत देर से वह फ़ोन लगा रहे है”, नदी ने हुसैन को फ़ोन पकड़ाते हुए कहा. हुसैन देर तक फ़ोन देखता रहा. कनपटियों पर स्वेद की रेखाएँ चमक रही थी. वातानुकूलित कक्ष से इतनी जल्दी अभ्यस्त होने का यह सम्भवतः प्रथम उदाहरण था. हुसैन फ़ोन बिस्तर के ख़ाली भाग पर फ़ोन फेंकते हुए नदी के बाल सूंघने लगा.

“पहले फ़ोन कर लो” नदी ने कहा और कम्बल में छिपा फ़ोन खोजने लगी.

“छोड़ो, मैं कोई रोज़-रोज़ ऐसे घर नहीं लौटता क्या! एक दिन अपने मन की मान भी ली तो यह लोग इतना परेशान हो रहे है” हुसैन ने कहा.

“प्रतिदिन नहीं करते इसलिए तो वे परेशान हो रहे है” नदी ने कहा.

“आज का दिन केवल अपने दिल की सुनूँगा” हुसैन ने कहा.

“कोई बहाना बना दो” नदी ने आग्रह किया,

“नाज़ुक के आगे कोई बहाना नहीं चलता” हुसैन ने कहा और नदी के बाएँ स्तन पर हाथ रख दिया.

“कर लो न प्लीज़ बात” नदी को हुसैन का स्पर्श अच्छा लग रहा था.

“बोला न नहीं करना, मादरचोद एक रात भी चैन से नहीं रहने देते. रँडियाँ साली” हुसैन की आवाज़ तेज हो गई.

नदी को यह उचित न लगा, अपने घर की स्त्रियों के लिए कोई ऐसे अपशब्द उचारे. क्या यह पुरुष विवाहित है? बहुवचन में गाली (“रंडियाँ साली”) कहने से क्या इसका अपनी एक से अधिक बहनों से तात्पर्य है? या अपनी माँ और पत्नी को रंडियाँ कह रहा है?

“तब आप अपने घर चले जाइए” नदी ने विनम्रता से किन्तु स्पष्ट शब्दों में कहा.

“तेरी माँ का भोसड़ा” कहकर हुसैन नदी के ऊपर कूदा और ब्रा से पकड़कर उसे हवा में उठाने का प्रयास करने लगा. ब्रा के हुक मज़बूत थे वे टूटे नहीं और उसकी पीठ से रक्त बहने लगा, आगे स्तन छिल गए. हुसैन ने नदी का पेटीकोट फाड़ दिया और पैर की उँगलियाँ पकड़कर नदी का पैर मोड़ दिया. उसे उलटा पटककर हुसैन ने नदी पर किसी सांड की तरह चढ़ गया.

सुबह आठ के आसपास हुसैन जा चुका था. पैर मोड़ देने के कारण नदी को चलने में बहुत पीड़ा हो रही थी और उसके गुदाद्वार से बहते रक्त से बिस्तर से स्नानगृह तक एक अरुण रेख नवीन रश्मियों में चमक रही थी. नदी को यह घाव इतने दुःख नहीं दे रहे थे जितना यह विचार कि मुसलमान होने के कारण हुसैन ने उसका बलात्कार किया है यह उसे पीड़ा दे रहा था. वह बार-बार खुद से कहती थी कि कोई हिंदू भी ऐसा कर सकता था.

दिनभर वह हिम शीतल जल में ग्लूकोज़ घोलकर पीती रही. रक्तस्राव रुक गया था. क्या उसे डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए? सम्भव है उस व्यक्ति को कोई गुप्तरोग हो? किन्तु यह तो तब सोचना था जब उसने स्वयं हुसैन को अपने गृह निमंत्रित किया था. किसी वैज्ञानिक की सी उत्सुकता से उसके नेत्र दीप्त थे. पुलिस थाने जाने का विचार उसने आते ही झटक दिया. कक्ष का तापमान सोलह डिग्री करके, पर्दे लगाकर वह सोचती रही. बलात् सम्भोग करना अन्तत: शरीर पर की है हिंसा ही तो है. इसे आत्मा या अस्मिता से पितृसत्ता जोड़ती है क्योंकि वह स्त्री पर सतत यह दबाव बनाती है कि केवल उसे जहाँ तहाँ सम्भोग नहीं करना है बल्कि स्वयं को बलात्कार से बचाना भी उसका ही एक कर्तव्य है. उसने स्वयं से कहा उस पर शारीरिक हिंसा मात्र हुई है किन्तु यह भी तो सकता है कि यह पुरुष एक बार किसी स्त्री पर इतनी हिंसा करने और उसका कोई दंड न पाकर उद्दण्ड हो जाए, अन्य स्त्रियाँ भी इसकी हिंसा की शिकार हो. नहीं, प्रत्येक स्त्री की रक्षा का दायित्व वह अपने कंधों पर नहीं ले सकती. कोई भी स्त्री नहीं ले सकती. दण्ड मात्र से समाज में परिवर्तन हो सकते तो भारतवर्ष में हिंदू पुनर्जागरण जैसी कोई क्रांति ही न होती. शिक्षा और संस्कृति से समाज में सुधार आता है, लाठियाँ भाँजने से नहीं. बार-बार कचहरी या कोतवाल के पास जाने की बात करनेवाली स्त्रियाँ समय के साथ स्वयं को हिंसा से, पितृसत्ता के आतंक से परिभाषित करने लगती है. उसका सबसे बड़ा अधिकार इस हिंसा के पश्चात् वह एफआईआर करवाए या न करवाए इसका निर्णय करने का है. एक रात्रि की घटना से नदी अपनी अस्मिता नहीं गढ़ सकती, सोचते-सोचते बिस्तर पर नदी ने बेध्यानी में मलत्याग कर दिया. रक्त मिश्रित तरल मल गद्दे तक रिसने लगा, नदी ने जल्दी से अपने सैनिटेरी नैप्किन निकाले और उनसे मल को सोखने का प्रयास करने लगी. उसने स्वयं को उस क्षण इतना असहाय अनुभव किया कि एकाएक रोने लगी. अब तक वह जो कारण और तर्क से विचार कर रही थी, स्वयं को बीती रात्रि एक नितांत अपरिचित मुसलमान पुरुष को घर लाने पर कोसने लगी. दुर्गन्ध से घर भर गया था.

हो सकता है हुसैन ने अपना नाम ग़लत बताया हो, उसका नाम गौतम भी तो सकता है. चादर धोते हुए वह सोचती रही. मुसलमानों में ख़तने की प्रथा है, वह खड़ी हुई उसने हाथ पोंछे और मैले बिस्तर के किनारे पड़े फ़ोन को उठाकर ख़तना किए गए शिश्न के चित्र गूगल पर ढूँढने लगी. हुसैन का ख़तना हुआ था या नहीं? फिर सर्च में लिखा, “difference between circumcised penis and Hindu male penis”, अनेक चित्र देखने पर भी उसे हुसैन का शिश्न कैसा था, यह ध्यान नहीं आया. पाठघर में नौकरी करनेवाला पुरुष अपना झूठा नाम बता सकता है भला! तो क्या एक निश्चित स्थान पर नौकरी करनेवाला पुरुष किसी भद्र स्त्री का यों बलात्कार भी कर सकता है? यदि वह किसी को जाकर यह कहे कि उसका ऐसे पुरुष ने बलात्कार किया है जिसे वह रात्रि को स्वयं अपने घर लाई थी और उस पुरुष से उसका नाममात्र को कोई पूर्व परिचय न था तो लोग उस पर हँसेंगे. जितनी दूरी हिंदू और मुसलमानों के मध्य बीते दिनों आ गई है उससे तो लोग उस पर और भी हँसेंगे. अकेली रहती हो और रात्रि को मुसलमान युवक घर ले आई! तुम इतनी निर्भय हो या वासना के वेग ने ऐसा बना दिया था? फिर बंगाल कोई भगवान शंकर के त्रिशूल पर तो नहीं बसा कि यहाँ दोनों धर्मों में बस भाईचारा हो, काशी भी क्या शिव जी के त्रिशूल से गिरकर भारतवर्ष के भूभाग पर ही आ नहीं गिरी है! You’ll be a laughing stock— नदी ने स्वयं से कहा और अपने वस्त्र निकालकर कचरा भरने के प्लास्टिक बैग में भर दिए, ऊष्म जल से वह घंटों स्नान करती रही, तब तक करती रही जब तक वह मूर्च्छित न हो गई. दूसरे दिन वह जागी, वह जीवित थी और जीना भी चाहती थी.

“दीदी, गद्दे में बड़ी बास है. बिलैया हग गई लगे है” तारकेश्वरी ने कहा. वह नदी के घर बर्तन माँजती थी. दिल्ली सब सामान जा चुका था. गद्दा और पलंग नदी नहीं ले जाना चाहती थी. अनेक प्रकार के पर्फ़्यूम, ड्रायर से देर तक सुखाने और कक्ष में दालचीनी की परिमलयुक्त मोमबत्तियाँ जलाने के बाद भी गद्दे से दुर्गन्ध आती रहती थी. “अरे मैया, मूता है किसी ने, पेशाब के दाग पड़े है. बिलैया के बस का नहीं इतना ज़्यादा मूतना”, तारकेश्वरी ने कहा, थी वह बंगाली किन्तु हुगली में भोजपुरीभाषियों के मध्य रहती आई थी.

 

दो)

पिताजी हवाईअड्डे लेने आए थे. गाड़ी में जब नदी आकर बैठी तब एक भद्र प्रौढ़ा खाजे के दो पूड़े पकड़े बैठी ड्राइवर से कुछ पूछ रही थी. अत्यंत सुरुचिपूर्ण सुवर्णाभूषण और भाल पर गोल तिलक लगाए वह परम सुन्दरी लग रही थी जैसे कार में दीपक जल रहा हो. पैंतालीस से अधिक और पचास से कम, नदी ने उसकी वय का अनुमान लगाया. इतने दिन बीते वह प्रथम बार कुछ स्वस्थ और सामान्य अनुभव कर रही थी. “थक गई? भूखी होगी. लो, थोड़ा खाजा खाती चलो” उस रमणीय प्रौढ़ा ने कहा. नदी की फ़्लाइट प्रातः सात बजे की थी, तीन बजे की वह जागी थी, रास्ते भर सोती आई, मुख धो, कुल्ला किए बिन खाने का मन किंचित न था किन्तु उस प्रौढ़ा को मना करने का मन भी न था. एक खाजा उठा लिया.

“यह प्रोफ़ेसर कामाख्या मिश्र है. दिल्ली विश्वविद्यालय में असमिया की विभागाध्यक्ष है” पिताजी ने आगे की सीट से पीछे मुड़कर कहा. “आप भी खाजा लीजिए न गोस्वामी जी. सिलाव का शुद्ध घी में बना खाजा है. आपके भैया को बिहार छोड़ कहीं का खाजा नहीं सुहाता”, प्रो. कामाख्या ने कहा, “तुम तो आज से मेरी बिटिया हुई. चलो मेरे घर चलो. इस नदी के घाट पर कुछ दिनों तक मैं भी विश्राम करना चाहती हूँ”. नदी इस प्राध्यापक के आशु-स्नेह पर आश्चर्यित थी किन्तु इतनी जल्दी उनके घर नहीं जाना चाहती थी. “मेरा बेटा हॉर्वर्ड में गणित पढ़ाता है, बेटी ब्याह के बाद बम्बई में रहती है. मैं तो निपट एकाकी हूँ. तुम चलोगी तो अच्छा ही लगेगा” प्रो कामाख्या ने अपना प्रस्ताव दोहराया, “फिर तब तक नलिन विलोचन को तुम्हारे पिताजी दूसरे घर भेजने की व्यवस्था कर लेंगे”. नलिन विलोचन- हठात् सुनकर नदी यह समझ नहीं पाई कि उसके भाई नलिन के विषय में प्रो कामाख्या बात कर रही  है. उसके भाई का पूरा नाम नलिन विलोचन गोस्वामी है, मात्र नलिन नहीं. यह वह जानती तो थी किन्तु भूल गई थी. इतने वर्ष हो गए, यह सब तो जैसे किसी बीते-विस्मृत युग की बातें लगती है— बचपन में वह सोचा करती थी कि क्यों माता पिता ने उसका नाम मात्र दो अक्षरों का रखा— नदी, और जुड़वे भाई के नाम पर पूरा शब्दकोश खर्च डाला, नाम रखा नलिन विलोचन गोस्वामी. उनका वश चलता तो नाम के आगे श्रीमंत भी लगा देते- श्रीमंत नलिन विलोचन गोस्वामी जी.

“पापा, नलिन दूसरे घर क्यों जाएगा” नदी ने अपने पिताजी के कंधे पर हाथ रखते गाड़ी की पिछली सीट से कहा, “क्या उसकी दशा और भी बिगड़ गई है?” पिताजी पलटे और देर तक प्रो. कामाख्या का मुख देखते रहे, फिर कहा, “इनके पति मिश्राजी ही नलिन का उपचार कर रहे है. उसके लिए भीड़ में रहना उचित नहीं है”. प्रो. कामाख्या ने इस संवाद से स्वयं को मुक्त रखने के लिए अपने मोबाइल में आँखें गड़ा दी. एकदम भ्रमर श्याम रंग का खिज़ाब चम्पकवर्णा स्त्री पर कितने नाटकीय रूप से सुंदर लगता है आज उसने प्रो कामाख्या को देखते हुए अनुभव किया. अत्यंत नाटकीय और हठात् दृष्टि पकड़ लेनेवाला और चमत्कारपूर्ण और सुंदर. “तब तो मुझे यहाँ न आना था” नदी ने कहा. “तब जाती भी कहाँ” नदी ने पुनः कहा, “नहीं पिताजी नलिन घर पर ही रहेगा और मैं भी वहीं रहूँगी. आपने माँ के पश्चात् अपना पूरा जीवन उसकी देखभाल में बिता दिया. कुछ दायित्व मेरा भी तो बनता है”.

“अब तेरा विवाह करना मात्र मेरा दायित्व है. बेटे के पीछे तुझ पर बिलकुल ध्यान नहीं दे सका” पिताजी ने कहा. “मैं ढूँढती हूँ नदी के लिए समुद्र, जिसका घर चाहे बड़ा हो न हो हृदय रत्नाकर की भाँति विशाल होना चाहिए” प्रो. कामाख्या ने कहा. कितना काव्यात्मक ढंग का बातें करने का, नदी सोचती रही. गाड़ी अरविंदो आश्रम के आगे से निकल रही थी और प्रो. कामाख्या माथा झुकाकर हाथ जोड़े उस दिशा में प्रणाम कर रही थी. उनकी बायीं कलाई में पुरातन सुवर्ण का एक ऐंठदार कंगन हल्का-हल्का चमक रहा था. नदी ने वहीं निश्चय किया, अमला शंकर के पश्चात् यह उसके द्वारा देखी गई दूसरी सुंदर स्त्री है. उसकी माँ से भी अधिक सुंदर जिसकी उसे कोई स्मृति नहीं है, जिसने प्रसवोत्तर अवसाद के कारण आत्महत्या कर ली थी (ऐसा पिताजी बताते है). यह प्रौढ़ा अपूर्व रमणीय थी और उसके जीवन में अविचारित रमणीय की भाँति अवतरित हुई थी.

दिल्ली सितम्बर में धूप और गर्मी से खिन्न शरद की प्रतीक्षा करती थी. लोधी गार्डन की सैर करने का पिताजी कई बार प्रस्ताव रखते किन्तु नदी नहीं जाती. समय काटने को कोई काम नहीं था और नलिन की देखभाल उसके वश की न थी. खिचड़ी दाढ़ी, धँसे हुए गालों और तीक्ष्ण दृष्टि के कारण नलिन की आँखें अंधकार में भी ऐसे चमकती थी जैसे अंतर में अग्नि धधक रही हो. दिनभर वह या तो अपने कमरे की दीवारों या अख़बारों पर कुछ लिखता रहता या व्यायाम करता. कई बार पूर्णतः निर्वस्त्र हो जाता, जब अपने कमरे से निकलता तो रज़्ज़ाक़ उसके पीछे तौलिया लेकर दौड़ता. उसकी मांसपेशियाँ कितनी सुंदर थी— “am I not muscular?” एक बार निर्वस्त्र वह नदी के सामने खड़ा हो गया और पूछने लगा. रज़्ज़ाक़ बड़े यत्नों और प्रार्थनाओं से उसे समझा-बुझाकर ले गया. रज़्ज़ाक़ बॉडीबिल्डर था और नलिन पर शारीरिक रूप से हावी होकर वही उसे नियंत्रित कर सकता था. पिताजी के वश की यह बात न थी. नलिन हालाँकि हिंसक नहीं था, अपशब्द नहीं कहता था किन्तु उससे प्रथम भेंट के पूर्वार्ध में ही पता लग जाता था कि वह मानसिक विकार से ग्रस्त है और उसकी कोई भी गतिविधि इतनी अप्रत्याशित हो सकती है कि आप उसके साथ सामान्य व्यवहार नहीं कर सकते. नदी के आने से उसके व्यक्तित्व में एक कोमलता आ गई है ऐसा पिताजी कहते थे, रज़्ज़ाक़ का भी मानना था कि नलिन भाई में नदी दीदी के आने के बाद कुछ परिवर्तन हुए थे जैसे उनकी निद्रा नियमित हो गई थी और भोजन की मेज़ पर वे शान्त रहते थे. रज़्ज़ाक़ के सम्मुख अपने जुड़वां भाई को यों निर्वस्त्र देखना नदी के लिए असहनीय था, रज़्ज़ाक़ और उसके मध्य तनाव उत्पन्न हो जाता -कामुक और भारी, नदी को लगता रज़्ज़ाक़ उसे नलिन को निर्वस्त्र देखते हुए देख रहा है. विक्षिप्त मनुष्य की अवसनता बहुत कामुक होती है. वह निर्भय होता है और अपने शरीर के आनंद से परिचित किन्तु इस आनंद को किसी को देने की उसमें क्षमता है इससे सर्वथा अनवगत और इस वजह से वह इतना उत्तेजक लगता है. बहुत दिनों तक नदी इस विषय पर विचार करती रही. निश्चय ही वह अपने जुड़वाँ भाई के विषय में किसी भी प्रकार का आपत्तिजनक विचार नहीं रखती थी, तीसरे अर्थात् रज़्ज़ाक़ की उपस्थिति से वह बहुत विचित्र स्थिति में स्वयं को अवश्य पाती. उसे हुसैन याद आ जाता था. हुसैन के संग बीती रात्रि की घटना को वह लगभग विस्मृत कर बैठी थी और अब नलिन को निर्वस्त्र देखकर उसे लगभग निश्चय हो गया था कि हुसैन हिंदू ही था, उसने स्वयं को जानबूझकर मुसलमान बताया था.

कोलकाता में जब तक थी उदय शंकर फ़ाउंडेशन से उसे सत्रह हज़ार रुपए प्रतिमास मिलते थे. उसके व्यय अधिक न थे, कोलकाता वैसे भी मितव्ययियों का स्वर्ग है. दिल्ली में पिताजी से रुपए माँगने में उसे संकोच हुआ हालाँकि पिताजी प्रतिमास उसके बैंक खाते में बीस हज़ार रुपए जमा कर देते थे किन्तु नदी को इससे ठेस पहुँचती थी. पिताजी पेन्शन के भरोसे थे, अनेक वर्षों पूर्व सेवानिवृत्त हो जाने के कारण पेन्शन भी कम मिलती थी. नलिन की देखभाल के लिए नौकर, ड्राइवर और घर सम्हालने के लिए एक नौकरानी का वेतन देने में ही उनकी दो तिहाई पेन्शन खर्च हो जाती थी. केंदुला सासन, उड़ीसा में उनके पुश्तैनी खेत थे जिसकी वार्षिक आमदनी से जैसे तैसे जीवन निभ रहा था.

प्रो. कामाख्या मिश्र माँ अन्नपूर्णा की भाँति कभी मिष्ठान तो कभी कोई खारा, स्वादु भोज्यपदार्थ लाती ही थी, उस दिन वे होटल मैरीयट की डेलीकटासन से बेक्ड कचौरियाँ और बकलावा ले आई. गोस्वामी जी के गृह खाने बनाने को नियुक्त मृदुला ने तुरंत अदरक की चाय चढ़ा दी, प्रो. कामाख्या ने कहा, “लो, पर्व हो गया. यह तो अतिथि पर्व हुआ. इसकी कोई तिथि निर्धारित थोड़े ही थी!” पिताजी खी खी खी हँसते रहे और एक के बाद कचौरी खाते जा रहे थे. पिताजी को इतना हँसते और इतना खाते नदी प्रथम बार ही देख रही थी अन्यथा पिताजी को उसने सदैव कुपित या खिन्न ही देखा था. प्रो. कामाख्या पर अपना हृदय खोले ऐसा अवसर आ ही नहीं पाता था. पिताजी सदैव प्रो. कामाख्या के निकट ही बने रहते थे. स्त्री संसर्ग से जीवन भर वंचित यह बूढ़ा मात्र प्रो कामाख्या की उपस्थिति से उल्लसित हो जाता था. “मैं सत्य कहती हूँ न नदी, देखो न तुम्हारे पिताजी केलूचरण महापात्र जैसे नहीं दिखते!” बकलावा उठाते हुए पिताजी को नदी ने टकटकी बाँधकर क्षणभर को देखा, “हाँ रे, दीदिआ, वैसे ही दुबले और गंजे”. प्रो. कामाख्या ने बकलावा की थाली उठाते हुए कहा, “और नयन-नासिका भी ज्यों की त्यों. मृदुला, यह मिठाई-कचौरियाँ नलिन को खिलाओ नहीं तो हम यहाँ बैठे बैठे सब खा जाएँगे”. नदी विस्मित प्रो कामाख्या को देखती रही, यह स्त्री घर में सबका का कैसे ध्यान रखती है. कहीं उसने अपने बूढ़े पिता और उनकी इस कुशल बांधवी की गृहस्थी में अनधिकार प्रवेश तो नहीं किया? इस स्त्री के निकट कितना तो कम समय है, विश्वविद्यालय का काम, पति और अपनी गृहस्थी की देखभाल और फिर संसारभर में घूमकर असमिया साहित्य पर भाषण देना, महीने में एकाध बार यह यहाँ आ पाती है और उसमें भी नदी अपने पिता और इसके मध्य बैठी रहे. कोलकाता में इतने लम्बे एकाकी प्रवास के पश्चात् नदी अपने पिता के लिए इतनी तो सदाशय बन गई थी किन्तु अपने भाई नलिन के प्रति? वह तो परम एकाकी था, दिनभर अपने कमरे में घुसा रहता था और पता नहीं कितना व्यायाम करता था और क्या क्या लिखता रहता था?

“अच्छा, बताइए मेरी पुस्तक मिली या नहीं?” प्रो.  कामाख्या ने खड़ी होते हुए कहा. संध्या हो गई थी, डॉक्टर साहब अर्थात् उनके पति ठीक नौ बजे घर पहुँच जाते थे. “कौन सी पुस्तक?” पिताजी ने पूछा. “शेमस हीनी की गवर्न्मेंट ऑफ़ टंग? उस दिन तो कह रहे थे कि आप हमारे लिए ढूँढ रखेंगे” प्रो. कामाख्या ने किसी नटखट बालिका सी लीला करते हुए कहा. नहीं, यह स्त्री पिताजी के प्रति वात्सल्य भाव रखती है. यदि यह प्रेम है तो ऐसा निष्पाप है जैसे रमाकांत रथ की कविता- श्रीराधा किन्तु कामना को भी तो पाप नहीं कहा जा सकता. यहाँ तो केवल एक दूसरे को पेड़ा-जलेबी खिलाने की कामना है और यदि उससे अधिक कोई कामना हुई तो क्या तू उसे धिक्कारेगी, नदी? नदी ने स्वयं से पूछा. पिता के विषय में वह इससे अधिक न सोच सकी. पिताजी पढ़ने के अपने कमरे में पुस्तक ढूँढने चले गए जहाँ इतनी पुस्तकें थी कि शेल्फ़ में अब रखने का स्थान शेष न था और फ़र्श पर ही पुस्तकों की ऊँची-ऊँची दीवारें बन गई थी. प्रो. कामाख्या और नदी बाहर लॉन में आ गई. सेवानिवृत्ति के समय मिले पैसों से पिताजी ने यह बंगला बनवाया था, बीस वर्ष पूर्व. उससे पूर्व वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को मिलनेवाले शासकीय बंगलों में ही रहते थे. नदी यहाँ कभी न रह पाई थी, वह पिताजी की सेवानिवृत्ति से पूर्व ही कलकत्ता चली आई थी.

यह घर भी शासकीय मकानों की तरह ही था- बाहर बहुत बड़ा लॉन था जिसमें घास तो नहीं थी, केले, पपीते, अमरूद और आम का एक निबिड़ कुंज उग आया था. उसे देखते हुए ही प्रो. कामाख्या ने नदी से पूछा, “कुछ कहना चाहती हो तो कहती क्यों नहीं नदी?” नदी उन्हें हतप्रभ देखती रही. क्या यह स्त्री हृदय को किसी शास्त्र की भाँति पढ़ना जानती? “मैं जानती हूँ अब नई नौकरी ढूँढूँ यह मेरी वय नहीं रही किन्तु काम करना चाहती हूँ. कुछ लिखा-पढ़ी का काज कहीं मिल जाए यदि…” अमरूद के वृक्ष पर फल कुतरते अज्ञात पक्षी को देखते हुए नदी ने कहा. इतने में पिताजी शेमस हीनी की पुस्तक गवर्न्मेंट ऑफ़ टंग हाथ में झुलाते आ गए, “पूरी स्टडी उलट पलट दी, मिली नहीं फिर याद आया मेरे पलंग की दराज में पड़ी है. उस दिन आपके लिए ढूँढी और फिर खुद ही पढ़ते-पढ़ते अपने कमरे में ले आया”. पुस्तक लेते हुए प्रो कामाख्या ने कहा, “न, आपको नहीं मिलेगी यह पुस्तक. फ़िलहाल मैं ले जा रही हूँ. मुझे अपने एक व्याख्यान में इसकी बड़ी आवश्यकता है”. पिताजी का मुख लज्जा से आरक्त हो गया, “अरे आपके लिए ही तो लाया हूँ.”

जैसे ही नदी अपने कक्ष में घुसी, प्रो. कामाख्या का फ़ोन आ गया, “हाँ, बेटी, तुमसे बात पूरी न हो सकी. कल आईआईसी चली आओ लंच के लिए. तुम्हें कुंकुम मिश्र से मिलवा देती हूँ. वे अपनी आत्मकथा लिख रही है. प्रेत लेखन करोगी?”

“प्रेत लेखन?” नदी ने चकित होकर पूछा, “कुंकुम मिश्र माने प्रसिद्ध ओडिसी नृत्यांगना जिन्हें इस वर्ष पद्मविभूषण मिला है?”

“हाँ, वही. प्रेत लेखन से मेरा अभिप्रेत ghost writing से है. रुपया अच्छा है. तुम्हारे लिए तो बाएँ हाथ का खेल है” प्रो. कामाख्या ने उत्तर दिया. मेघ गरज रहे थे और दूर कहीं मोर बोलते थे, नदी को कलकत्ता का अपना पूर्वार्ध स्मरण हो आया, तब वह कितनी प्रसन्न रहती थी, नवजीवन से भरपूर या सम्भवतः नवयौवन होता ही ऐसा है. उसने उत्तर दिया, “ठीक है ठीक डेढ़ बजे पहुँच जाऊँगी”.

हलधर रथ ने उस दिन इतनी बातें की कि नदी को कुंकुम मिश्र से अपनी भेंट की किंचित भी  स्मृति नहीं रही. हलधर रथ कवि था और उड़िया साहित्य में उसका युवावस्था में ही बहुत नाम हो गया था. दिखता भी हलधर अर्थात् कृषकों जैसा था- जलद श्याम वर्ण, दुबला और एकदम काले बाल, चश्मा लगाता था. न, न, नदी निर्णय नहीं ले पा रही थी कि हलधर रथ कृषकों जैसा दिखता था या बुद्धिजीवियों सा— चश्मा लगाए श्यामल अल्बेयर कमू जैसा. वय छत्तीस वर्ष और डेनिश दूतावास में कनिष्ठ लिपिक था, वेतन उत्तम था भले नौकरी छोटी थी किन्तु नदी उसके विषय में इतना विचार क्यों कर रही थी. हुसैन के संग घटी दुर्घटना के पश्चात् भी नदी को पुरुषों से घृणा अनुभव क्यों नहीं होती थी? भले वह विवाह न करना चाहती हो किन्तु प्रेम करना चाहती थी. जीवन के चालीसवें वर्ष में षोडशी सरीखा स्वप्न देखना, अतिरंजनाओं में जीना. नदी सोचती या तो वह बहुत अवसाद में है या उसके भीतर जो संकोच था वह वसन्त में ग्लेशियर की भाँति पिघल गया है अन्यथा वह प्रथम भेंट में हलधर से इतनी बात करती! यह हलधर का ही चमत्कार था कि उनकी बातचीत हिमालय की जलधारा सी बहती चली गई.

कुंकुम मिश्र की आत्मकथा का प्रेत-लेखन पहले हलधर कर रहा था किन्तु अब हलधर ने आत्मकथा को इतना विस्तृत कर दिया था कि नौकरी पर रहते यह कार्य शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण करना उसके लिए कठिन था और इस प्रकार नदी का इस कथा में प्रवेश हुआ. कुंकुम मिश्र को आत्मकथा में प्रतिबिम्बित होती अपनी छवि इतनी मोहक लग रही थी कि उन्होंने हलधर और नदी को मुंह-माँगा मूल्य देना तुरंत स्वीकार कर लिया हालाँकि दोनों शब्द-मुग्ध प्राणी थे और दोनों ने ही कोई बहुत बड़ी रक़म माँगी भी न थी. इस प्रकार प्रत्येक दूसरे दिवस के सांध्यकाल तो कभी-कभी प्रतिदिन नदी और हलधर की भेंट कुंकुम मिश्र की आत्मकथा पर बातें करने के लिए कनाट प्लेस के स्टारबक्स पर होती. हलधर लेखन के प्रति गम्भीर है, ऐसा नदी प्रथम भेंट में ही भाँप गई थी. उसकी उड़िया कविताएँ शास्त्रीय शैली में लिखी आधुनिक भावाबोध की कविता थी और गद्य सघन, दार्शनिक ग्रंथों की भाँति ऊबड़-खाबड़ था. उसने कुंकुम मिश्र की आत्मकथा को लेकर विशद नोट्स बनाए थे, उसी प्रकार के नोट्स जैसे नदी ने अमला शंकर की जीवनी के लिए पिछले बीस वर्षों में बनाए थे. नदी की विश्वास न होता था कि इतने कम समय में उसने एक भरपूर जिए जीवन का लेखाजोखा, लगभग बीस वर्षों का काल्पनिक रोज़नामचा कैसे तैयार कर किया! मात्र एक वर्ष में!

“कुंकुम मिश्र ग्रीनरूम के भीतर शृंगार कर रही है. उनका प्रेमी बिष्णु चट्टोपाध्याय उनकी चोटी में जातकुसुमों की वेणी गूँथ रहा है. इस केलि के कारण प्रदर्शन में देरी हो रही है. संस्कृति सचिव अरुणा देवीदयाल दो तीन बार साँकल बजाकर जाती है किंतु भीतर से कोई उत्तर नहीं आता. ओड़िसा की मुख्यमंत्री नंदिनी सत्पथी कार्यक्रम की मुख्य अतिथि है और समय पर ऑडिटॉरियम पहुँच चुकी है. बार-बार दरवाज़ा पीटने पर भी जब कुंकुम मिश्र द्वार नहीं खोलती, द्वार तोड़ने का आदेश होता है. शायद कुंकुम अंदर मूर्च्छित हो गई हो. अफ़सरों के ड्राइवर और चपरासी किवाड़ के पल्लों में लोहे का एक सरिया फँसाकर टेढ़ा करते है और चटकनी चर्र की ध्वनि हुए टन्न से भूमि पर गिर जाती है. बिष्णु चट्टोपाध्याय कुंकुम से परे हटकर उनके ऊपर एक उड़िया सूती साड़ी फेंककर बाहर निकल जाते है. यह प्रवाद उस युग में बहुत प्रसिद्ध था.”

हलधर स्टारबक्स के काउच में धँसा इस्प्रेसो का अपना प्याला धीमे धीमे पीते हुए हुए नदी को कुंकुम और बिष्णु की अब किंवदंती बन चुकी घटना सुना रहा था.

दिल्ली में शिशिर की संध्या थी, कैफ़े के भीतर भीड़, पीले बल्बों की ज्योति और ऊष्मा थी जैसे कहीं अग्नि सुलग रही हो. काँच से बाहर देखने पर बात करते प्रेमियों के मुख से धुआँ निकल रहा था, नदी ने देखा ऐसे में कोई चुम्बन ले तो चूमना धुएँ की अदलाबदली होगी रसों की नहीं, उसका विचार सोचते सोचते इतना गाढ़ा हो गया कि अचानक उसके मुँह से निकला, “वायवीय चुम्बन”, हलधर ने सुन लिया, उत्सुक हो गया, “क्या? क्या कह रही हो?”

नदी संकुचित हो गई, बात पलट दी, “बिष्णु चट्टोपाध्याय का क्या हुआ फिर? वह कहाँ है अभी? उनका इंटरव्यू करना चाहिए हमें?”

“बिष्णुदा, बिष्णु दा बीबीसी में थे. बहुत वर्षों तक लंदन में रहे अब यहीं नोएडा में रहते. उनके बेटे का नाम नहीं सुना? माघ चट्टोपाध्याय, प्रसिद्ध फ़ूड स्टार्टअप लोकलकू उसी की है” हलधर ने कहा और अपने आइफ़ोन में उसे लोकलकू ऐप दिखाने लगा जो भारत के प्रत्येक प्रदेश का ठेठ स्थानीय भोजन देश के महानगरों में उपलब्ध करता है. “दिल्ली में बिहार की सबसे ऑथेंटिक लिट्टी खाना है तो बताओ अभी ऑर्डर करते है”, हलधर ने प्रस्ताव दिया. क्या इसके जीवन में कोई स्त्री नहीं है? दिनभर तरह-तरह के ऐप से भोजन मँगाता रहता है. कोई इसका ध्यान रखनेवाला नहीं है क्या संसार में, नदी ने पूछना चाहा किन्तु पूछा नहीं. उसे देखती रही, कवियों की आँखें ऐसी दीप्त होती है या इसकी ही आँखें ऐसी चमकती है? नदी की स्मृति में वह संध्या पिताजी की स्टडी में लगे चित्रकार वीएस गायतोंडे की अमूर्त प्रिंट की तरह अपने अंतिम ब्यौरे तक अंकित है, उसी शाम स्टारबक्स से लगे फ़ैबइंडिया से हलधर ने उसे शॉल दिलाई थी.

मणिपुर या त्रिपुरा में बुनी शॉल, नदी ने जब ओढ़कर देखी तो मूल्य-पर्ची पढ़कर पाया बहुत महँगी है इसलिए बहाना बनाया “अरे यह तो डबलबेड के कम्बल बराबर है. इसे कहाँ सम्हालती फिरूँगी”. शॉल बहुत सुंदर थी, काले रंग पर लाल रंग के त्रिकोण बने हुए थे जैसे श्रीयंत्र में बनते है. “तुम्हें वह कॉलेज की लड़कियों की तरह स्टोल डालने की आदत है इसलिए शॉल लम्बी लग रही है, कितनी ग्रेसफ़ुल लग रही एकदम लेखिकाओं की तरह” हलधर ने कहा और पीले और लाल रंग की उसी प्रकार की शॉल खुद भी ओढ़ ली. नदी ने स्वयं को दर्पण में देखा तो सचमुच स्वयं को बहुत गरिमामयी पाया. हलधर बंगाली सिनेमा के नायकों की तरह लग रहा था, धँसे हुए गाल और काली घुंघराली दाढ़ी और उसपर इतनी भव्य शॉल. नदी को लगा उसके स्तनों में रक्त प्रवाह बढ़ गया है या उसकी हृदयगति बढ़ी हुई है. इस हठात् शारीरिक परिवर्तन से वह इतनी विकल हो गई कि कब हलधर ने उसके लिए शॉल ख़रीद ली उसे पता भी न लगा.

उसी दिन वहाँ से वे एम्पोरियम बिल्डिंग गए थे जहाँ हलधर रथ को अपने लिए बंगाल की बुनी धोती ख़रीदना थी, “उड़िया कवियों के एक सम्मेलन में पहनने हेतु”, सम्मेलन कोणार्क में  होना था. वहीं नदी गौड़देश में गढ़ी श्रीकृष्णचन्द्र की एक काले पाषाण की मूर्ति पर मोहित हो गई थी. हाथ में उठाकर जब मूर्ति का पृष्ठभाग देखा तो पढ़ा “₹११००० मात्र”. मूर्ति निर्वस्त्र थी और भगवान का लिंग और अंडकोश भी मूर्तिमान ने मनोयोग से बनाए थे. नदी ने मूर्ति रख दी किन्तु हलधर अब उसे मूर्ति भी दिलाने का आग्रह करने लगा. “असम्भव है. मैं आपसे इतने बहुमूल्य उपहार क्यों लूँगी” नदी ने चिढ़कर कहा. मूर्ति निश्चय ही महार्घ थी किन्तु बड़ी मोहिनी भी थी और उसे और-और देखने का मन करता था. “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, नदी”, हलधर ने कृष्ण की प्रतिमा हाथ में पकड़ते हुए नदी के कानों में धीमे से कहा. उसके पश्चात् नदी ने प्रतिवाद न किया. मूर्ति के ग्यारह हज़ार रुपए का भुगतान हलधर ने अपने डेबिट कार्ड से किया और नदी ने हलधर की धोती का मूल्य छह हज़ार रुपए अपने डेबिट कार्ड से.

कार में हलधर ने नदी की कलाई गह ली.

घर पहुँचे तो द्वार से ही नलिन के चिल्लाने की आवाज़ सुनकर नदी भीतर दौड़ी. नलिन पिताजी की स्टडी में पुस्तकों का एक ढेर लगाकर आग लगाने को उत्सुक था. आशा और रज़्ज़ाक़ उसे रोकने के प्रयास में नलिन के लात और घूँसे खा रहे थे, पिताजी दूर खड़े देख रहे थे. नदी ने भी नलिन को साधने के प्रयास में उसका दायाँ हाथ कस लिया, नलिन ने हाथ झटका. नदी की पकड़ इतनी दृढ़ थी कि वह अपनी उसके हाथ के संग झूम गई किन्तु पकड़ न छूटी. “नलिनी कहेगी तो मैं यह पोथियाँ नहीं जलाऊँगा. I’m not an arsonist” नलिन ने अत्यंत नाटकीय स्वर में घोषणा की. नदी की पकड़ एकाएक ढीली पड़ गई, “नलिनी कौन है?” अप्रतिभ उसने पूछा.

“तुम हो न नलिनी. मेरी नलिनी. मेरी प्रिय. मेरी बहन. My Mary Lamb” नलिन ने कहा और दियासलाई की डिबिया परे फेंक दी. गाड़ी पार्क करके तब तक हलधर भी भीतर आ चुका था. उसने केवल नलिन की बलिष्ठ पीठ देखी और कहा, “तुम्हारा भाई तो mma fighter लगता है नदी. नमस्कार, सर” उसने पिताजी को अचानक सम्मुख पाकर  किंचित हड़बड़ाते हुए प्रणाम किया. उस दिन इस परिवार के भावी दामाद के आगमन के अनुरूप तो परिवेश न था. पिताजी ने हलधर का परिचय लिया, उसकी कविताओं पर अनमने ढंग से बात भी करते रहे किन्तु रात्रि भोजन हेतु रुकने के लिए नहीं कहा. नदी जानती थी कि पिताजी का मन उस दिन अच्छा न था फिर भी आहत हुई किन्तु किसी से कुछ कहा नहीं. रात को बिस्तर पर बैठी-बैठी भगवान कृष्ण की प्रतिमा देखती रही— श्याम पूर्णत: निर्वस्त्र किन्तु अपूर्व रमणीय.

नलिन से नदी को भय लगता था. उसके कमरे के आगे से भी न निकलती. घर पर रहती तो कम से कम शब्द करती. दिन का भोजन करने के पश्चात् कनाटप्लेस के स्टारबक्स चली जाती, अमला शंकर और कुंकुम मिश्र की जीवनियों पर काम करती, चाय पीती और सबसे अधिक हलधर रथ की प्रतीक्षा करती. उस नववर्ष की पूर्वसंध्या कैफ़े में बहुत भीड़ थी, कोलाहल के कारण एक-एक शब्द सुनने के लिए संघर्ष करना पड़ता था. “पढ़ा तुमने अख़बार में ईदगाह मैदान के नीचे हिंदू देवी देवताओं की प्रतिमाएँ निकली है?” हलधर दक्षिणपंथी था,  इस्लाम के प्रति उसके विचार बहुत आलोचनात्मक थे. “यदि तुम्हारे घर के नीचे से देवी देवताओं की प्रतिमा मिल जाएगी तो क्या तुम उसे मंदिर बना दोगे, हलधर?” नदी ने कहा. हलधर ने ऐसा मुख बनाया जैसे कॉफ़ी बहुत कड़वी हो, घूँट भरा और कहा, “तुम जानती तो हो मुसलमान सबसे अधिक अपराध करते है, हत्या, डकैतियाँ, ठगी, बलात्कार किस में आगे नहीं! कारावासों में इनकी भीड़ लगी है”. “करेंगे नहीं उन्हें उचित शिक्षा, रोज़गार, उपचार क्या उपलब्ध है, बोलो?” नदी ने कहा किन्तु वाक्य पूर्ण करते-करते हलधर के मुख पर प्रकट भाव देखकर वह भयभीत हो गई. ऐसा ललाट तो नलिन का हो जाता है वह जब किसी बात पर कुपित होता है.

हलधर ने उत्तर नहीं दिया और जाकर दूसरी इस्प्रेसो के पैसे दे आया. दोनों मौन बैठे रहे. नदी को हठात् हुसैन की स्मरण हो आया. मन कषाय हो गया. इस झगड़े में पड़कर वह हलधर को दुःख क्यों दे! भीड़ का बहाना बनकर खड़ी हो गई, “चलो घर, आज तुम्हारे लिए भोजन बनाऊँगी”. हलधर का स्वर कितना कोमल हो गया, कहा, “अब बनाना आरम्भ करोगी तो क्या नववर्ष में खिलाओगी? ऑर्डर कर लेंगे”. बाहर तापमान चार डिग्री सेल्सियस से भी कम था, “यहाँ तो तुषार पड़ रहा है” नदी ने कहा. हलधर ने हँसते हुए उसे अपने निकट खींच लिया, उसके कोट के ट्वीड से नदी ने अपने गाल सटा लिए, “तो क्या तुम्हें हर महीने शॉल दिलाऊँगा. इसी से काम चलाओ” हलधर ने कहा. उसके वचनों और देह में कितनी ऊष्मा थी. उस रात्रि हलधर नदी को अपने घर ले आया. भोजन दोनों में से किसी ने नहीं मँगाया. अदरक की चाय और श्रूबेरी कुकीज़ खाते रहे. हलधर ने उसके केश पकड़े और नदी को दूसरे हाथ से निर्वस्त्र करने लगा. नदी स्वयं पर विस्मित थी कि उसे हुसैन द्वारा की गई हिंसा उस रात्रि याद नहीं नहीं आई, उसे कभी यह हलधर के प्रेम का चमत्कार लगा कभी ख़ुद की जिजीविषा. हलधर भी हठात् कई बार हिंसक हो उठा था किन्तु उससे नदी को कष्ट नहीं हुआ था. उसके पौरुष से वह मुग्ध ही अधिक थी. देर रात जब नदी की आँख खुली तो हलधर अपने फ़ोन से स्पीकर जोड़कर वीणा पर कोई राग सुन रहा था. “मुझे घर छोड़ आओ, पिताजी चिंता करते होंगे”. हलधर ने उसे अपनी जंघा पर बैठा लिया और उसके केश में अपनी अंगुलियों से कंघा करने लगा, “राग पूरा हो जाए तो छोड़ दूँगा. दो बज रहा है, कह देना नववर्ष के उत्सव में समय का ध्यान नहीं रहा”. नदी मौन संगीत सुनती रही फिर कहा, “मालकौंस”. “तुम्हारे कलकत्ते का एक बीनकार है. यूट्यूब पर इतने भव्य राग अपलोड करता है. डेढ़-डेढ़ घंटे तक बजाता रहता है रुद्रवीणा. कोई हुसैन कजलबाश है” हलधर ने नदी के स्तनों में अपना मुख घुसाते हुए कहा.

 

3)

उस रात्रि नदी सोई नहीं, पूरी रात, दूसरे दिन फिर दोपहर तक हुसैन के वीडियो यूट्यूब पर देखती रही. उसकी दशा कितनी विचित्र थी, उसने उस रात्रि की घटना के पश्चात् कभी हुसैन के ऑनलाइन फ़ुटप्रिंट ढूँढने का यत्न न किया था. यूट्यूब पर हुसैन के तीन हज़ार चालीस फ़ॉलोअर थे, ढेरों कमेंट थे और “sublime” किसी पाकिस्तानी स्त्री ने राग जोग के वीडियो के नीचे लिखा था. हलधर क्या मेरे संग हुई इस दुर्घटना को जानता है? इसे संसार में दो लोगों को छोड़ कोई नहीं जानता. अपराध भी एक विचित्र प्रकार की घनिष्ठता को जन्म देता है. अपने जीवन के सबसे मार्मिक क्षणों में अपराधी और उसका शिकार संग होते है. हो सकता है हलधर हुसैन के सम्पर्क में हो, दोनों बात करते हो और हुसैन ने हलधर को यह प्रसंग बतलाया हो. नहीं, यह सम्भव न था. हलधर कभी ऐसे व्यक्ति से सम्पर्क नहीं रख सकता. सम्भव है मेरे विषय में जानने के लिए रखता हो? हुसैन ने उसे मेरे विषय में सब कुछ बता दिया हो फिर हलधर ने उसे मेरा चित्र भेजकर पूछा हो, यही थी कि क्या? न, यह असम्भव है. कोई अपराधी इस प्रकार अपना अपराध स्वीकार नहीं कर सकता. नदी जड़ सी बैठी रही, भगवान कृष्ण की निर्वस्त्र मूर्ति निहारती रही. आठ बजे रात हलधर ने फ़ोन किया, “कहाँ हो? कोई समाचार ही नहीं. ग़ुस्सा हो मुझसे?”

दूसरे दिन जब दोपहर को कनाट प्लेस जाने की नदी निकल रही थी प्रो. कामाख्या अब अभी-अभी ड्रॉइंग रूम में प्रविष्ट हुई थी, हाँफ रही किन्तु बहुत हर्षित थी. हलधर रथ ने नदी से विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी. प्रो. कामाख्या पिताजी को बता रही थी कि हलधर के पिता बैंक में बाबू थे, निर्धन व्यक्ति रहे आए थे किन्तु कुलीन और विद्वान अन्यथा पुत्र उच्च्कोटि का कवि न होता हालाँकि हलधर डेनिश दूतावास में कनिष्ठ लिपिक है, प्रशासनिक सेवा में नहीं, साहित्य में उसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है. वह भविष्य में बहु-पुरस्कृत और सम्मानित हो रहेगा इसलिए यह सम्बंध शीघ्रातिशीघ्र कर देना चाहिए. पिताजी रज़्ज़ाक़ को रुपए देकर रसगुल्ले मँगवा रहे थे. नदी अपने फ़ोन पर हुसैन के वीडियो देख रही थी चूंकि एकांत न था इसलिए ध्वनि शून्य थी किन्तु रुद्रवीणा का नीरव विडियो देखते हुए भी उसे स्वर सुनाई देते थे. पिताजी और प्रो. कामाख्या के मध्य आभूषणों की बात चल रही थी, नदी देख रही थी कि क्रोशिये की मशीन पर बुनी पुरातन टोपी और कुचैले कापोत रंग के कुर्ते में हुसैन रुद्रवीणा पर बांग्लादेश का राष्ट्रगान बजा रहा है किन्तु वह सुन नहीं रही है केवल देख रही है. उसके ललाट से लेकर केशों तक स्वेदबिन्दुओं की एक लड़ी अन्त तक प्रकट हो गई है.

संगीत के सम्बंध में यूनानी दार्शनिक कहते है कि स्वर अपने स्थान पर स्थिर होता है, ताल के शब्द भी स्थिर होते है किन्तु जो गति हमें अनुभव होती है, जिस लय का हम अनुभव करने लगते है वह हमारी आत्मा होती है. संगीत से इस प्रकार आत्मा का साक्षात्कार होता है. जैसे सिनेमा में प्रत्येक दृश्य, दृश्य का प्रत्येक क्षण समय की एक निश्चित अवधि में स्थापित है किन्तु तब भी हमें गति का अनुभव होता है, समय बीत गया है ऐसा लगता है यह हमारी आत्मा का अचानक हमसे आमना-सामना हो जाना है. संसार की समस्त गम्भीर कलाएँ हमें अपनी आत्मा के संग अकेला छोड़ जाती है और हम विचलित हो जाते है, स्वयं के सम्मुख होना सरल नहीं है. यह अत्यंत दुसाध्य है. जिस क्षण हम स्वयं के साथ निपट एकाकी होते है उसी क्षण हम समय का भी अनुभव करते है अन्यथा जीवनभर हम अवधियों काटते रहते है- घड़ी पर प्रतिक्षण घटनेवाली अवधि. संगीत स्मरण स्वरूप है— ऐसा उसने अमला शंकर की जीवनी पर बनाए नोट्स में कहीं लिखा था किन्तु हुसैन के विडियो देखने के पीछे संगीत सुनना तो उद्देश्य नहीं. हुसैन कौन सा पंडित रविशंकर है!

कितने तो राग उसने रुद्रवीणा पर बजाकर यूट्यूब पर डाले थे. रिकॉर्डिंग निम्नकोटि की थी क्योंकि हुसैन का फ़ोन सम्भवतः चीनी है और वादन से पूर्व उसे हुसैन अपने समक्ष कहीं टिकाकर रख देता है. कई बार रिकॉर्डिंग मध्य में अचानक बंद हो जाती है तो कई बार पीछे वर्षा, कभी मेघगर्जना तो कभी ट्रैफ़िक के कोलाहल जैसे अनेक विघ्न रिकॉर्डिंग में होते है. एक रिकॉर्डिंग में कहीं से थाली पीटता हुआ एक निर्वस्त्र बालक आ गया है, हुसैन की संतान? सम्भवतया हुसैन की ही संतान हो क्योंकि रुद्रवीणा बजाते हुए बालक को देख उसके मुख पर स्मित की एक रेख खिंच आई थी. इस पुरुष ने, जो इतनी मृदुता से वीणा के तारों पर अंगुलियाँ फिराता है, कितने हिंसक ढंग से नदी को उस रात्रि बिस्तर पर पटक पटककर मारा था. इतने दिनों पश्चात भी उसका गुदाद्वार अब तक अपनी पूर्ववर्ती स्थिति में नहीं आ सका, कई बार अधिक चलने या भारी कामकाज करने पर रक्तस्राव होने लगता था. कभी-कभी हुसैन कजरी की करुण, कोमल धुनें बजाता और उसमें मल्हार का आलाप लगा देता, नदी कोलकाता के उन दिनों में स्वयं को पाती जब भर अपराह्न हठात् वृष्टि में फँसी वह मिठाइयों की दुकान से कैब की प्रतीक्षा किया करती थी. तब उसे चतुर्दिक कितना अंधकार अंधकार लगता था और अब वही दिवस कैसे छाँव से भरे दीखते है. वह कितनी एकाकी थी किन्तु कितनी पूर्ण. पुस्तकालयों में बैठी पढ़ती रहती थी और दिवस छिपे पश्चात् घर लौटती जहाँ पश्चिमी शास्त्रीय संगीत सुनती. उसका प्रिय शूबर्ट था.

कोलकाता में ही कजरी के मध्य मल्हार का आलाप ऐसे हठात् लिया जा सकता था, वहीं तो भर घाम में मछलियाँ ख़रीदकर आती स्त्री की कलफ़ दी गई ताँत निमिष मात्र में धारासार वर्षा में सराबोर हो सकती है, वही मिष्ठान का दोना पकड़े पुरुष में औचक ही बादल फट सकता है, वही विद्यालय की बस से कूदकर उतरते बच्चों के बस्ते में सबसे नीचे रखी नोटबुक का अंतिम पृष्ठ तक पूर्णतः भीग सकता था. इतने वर्षों में नदी को कोलकाता ने कोई ऐसा दिन तो नहीं दिया जो स्वर्ण से बना था, सब दिन एक समान थे और इसी कारण नितांत महत्वहीन, फीके और श्वेत-श्याम. कोई दारुण दुख आ पड़ा हो ऐसा दिन भी तो नहीं दिया, केवल हुसैन के संग बीती रात्रि ही ऐसी थी जब उसे अनुभव हुआ वह कितनी जीवित थी और इसलिए मारी जा सकती है. जीवित और मृत के मध्य भी एक जीवन होता है, शान्त और शीतल जैसे भूमिगत नदियाँ होती है, फ़्रांस में १९०६ में खोजी गई लबौइच नदी की भाँति हुसैन ने उसे २०२२ में खोजा था. स्त्रियों पर इतनी हिंसा पूरे संसार में हो रही है, कितनी बालिकाएँ और किशोरियाँ मारकर फेंक दी जाती है, कितने आंदोलन और कितनी लड़ाइयाँ इसके विरुद्ध हो रहे है और नदी हृदय से सभी के संग है. नदी को लगता है नदी का हृदय उसके स्वयं के संग नहीं है. रात्रियों को वह चौंककर जाग पड़ती है और उनके कानों में हुसैन की रुद्रवीणा बजती  है— रात्रि का राग विहाग.

एक बार स्टारबक्स में हॉट चाकलेट पीते-पीते हलधर ने उसे एक कविता सुनाई थी. कविता तो उसे विस्मृत हो गई किन्तु उसके पश्चात् हलधर से हुई बातें अब तक याद है. हलधर ने कहा था प्रेम कविता के विषय में कोई नहीं कह सकता कि यह होने पर ही प्रेम कविता होगी जैसे प्रेम के विषय में कोई नहीं सकता है कि प्रेम के लिए यह-यह पूर्वपेक्षाएँ है कि प्रेम निवेदन करनेवाले में अहंकार न हो, वह समर्पित हो या उसमें प्रेमपात्र के प्रति घृणा न हो. इन सबके होते भी किसी से प्रेम किया जा सकता है. नदी ने नहीं में माथा हिलाया था, “प्रेम निवेदन जिससे कर रहे हो उससे घृणा हो तो प्रेम कैसे होगा?” दोनों हो सकते है. अहंकार और स्वयं को, अपने प्रेम में महानतम मानना तो प्रेम का नैसर्गिक लक्षण है किन्तु मन में जिससे प्रेम हो उसके प्रति घृणा और प्रेम एक संग धारण किया जा सकता है. रुद्रवीणा पर बजती यह रागिनी जब इतनी जटिल है तब स्त्री के मन के विषय में, प्रेमी के हृदय के बारे में कोई नियमावली क्यों बनाएगा कि वह सरल हो या सीधी रेखा की भाँति एक ही दिशा में चलनेवाली हो.

जिस कोलकाता में उसे एक-एक दिन असह्य, हठात् वृष्टि के कारण धुँधला और मैला लगता है जैसे सब कुछ सड़ रहा हो, टूट टूटकर गिर रहा हो, भग्न जलपोत की भाँति जिसका केवल एक भाग जल के ऊपर हो, जहाँ नदी ने सदैव स्वयं को मृत पाया और जीवित भी, उसी कोलकाता से उसे प्रेम है. उस कोलकाता ने उसे किसी और नगर में रहने योग्य नहीं छोड़ा किन्तु इसमें कोलकाता से उसे कोलकाता में रहने योग्य भी नहीं छोड़ा, कहते है न Paris leaves you incapable of living in any other place including herself. और हुसैन, कोलकाता हुसैन का भी तो है. उसकी रुद्रवीणा का और उसके ख़तना किए गए लिंग का और उसकी हिंसा का भी. उस संध्या नदी चाहती थी हुसैन उसका हाथ गहकर कहे, ‘दस मिनट पहले तुमसे मिला हूँ, मैं बदमाश लुच्चा हो सकता हूँ, अपराधी हो सकता हूँ किन्तु तब भी विश्वास करो तुम्हारा तो बिगाड़ न करूँगा’ किन्तु हुसैन ने एक शब्द नहीं कहा था, केवल सिगरेट फूँकता दालान से बाहर की ओर चल पड़ा और उसके पीछे नदी चल पड़ी जैसे नदी समुद्र के पीछे चलती है. हुसैन ने झूठ नहीं कहा था और नदी ने विश्वास कर लिया था. उस रात्रि जब नदी अपने जीवन को लेकर भयभीत थी, वह सबसे अधिक वेध्य और सबसे अधिक निर्बल थी उस रात्रि उसके सबसे निकट हुसैन ही था. नदी चाहती थी कि वह हुसैन के निकट जाए और हुसैन उससे कहे कि उसे डरना नहीं चाहिए और वह उसे किंचित भी शारीरिक पीड़ा नहीं पहुँचाएगा और कि वह नदी से प्रेम करता है. जिससे प्रेम करते है उसे नष्ट नहीं करते किन्तु हलधर ने कहा था प्रेम कि कोई शर्त नहीं होती तब जिससे प्रेम करते है उसे नष्ट भी कर सकते है. हुसैन भले ही उसे नष्ट कर दे किन्तु एक बार तो हुसैन को यह कहना चाहिए कि वह उसे नष्ट नहीं कर सकता. उसे कोमलता से नदी की आँखों के आगे आती लट को उसके कान के पीछे खोंस देना चाहिए. यह सब कोलकाता में ही सम्भव है.

फ़ोन पर हुसैन के विडियो के ऊपर एक हरी पट्टी चमकी, नलिन ने उसे एक मेसेज भेजा था. नलिन को पिताजी ने स्मार्टफ़ोन नहीं दिलाया था, वह नोकिया का बहुत पुराना फ़ोन ही अपने पास रखता था. फ़ोन का उपयोग तो उसके निकट अधिक था नहीं, व्यायाम के विडियो वह अपने आइपैड पर देखता था. मेसेज खोलने पर उर्दू में कुछ लिखा था. गूगल करने पर परिणाम भी उर्दू में ही मिल रहे थे. नदी ने मेसेज हलधर को फ़ॉर्वर्ड करना चाहा कि कोई उर्दू जाननेवाला मित्र हो तो बता दे कि क्या लिखा है किन्तु रुक गई. नलिन ने पता नहीं क्या लिख भेजा हो. प्रो. कामाख्या को मेसेज फ़ॉर्वर्ड कर दिया. देर तक कोई उत्तर न आया. फिर प्रो. कामाख्या ने लिख भेजा कि वह उर्दू पढ़ना नहीं जानती. रात गए हलधर ने एक मेसेज लिखा भेजा—

मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से उधर होता काश के मकाँ अपना.

नदी ने उत्तर लिखा, “?”

हलधर ने लिखा, “अरे तुमने ही तो यह शेर प्रो. कामाख्या को लिखकर भेजा था कि पढ़कर बताए क्या लिखा है”.

नलिन घर छोड़कर कहाँ गया उसके बाद कभी पता न चला, हिंदी लेखक स्वदेश दीपक की तरह.
____

अम्बर पाण्डेय
कवि-कथाकार
‘कोलाहल की कविताएं’ के लिए २०१८ का अमर उजाला ‘थाप’ सम्मान तथा
२०२१ का हेमंत स्मृति कविता सम्मान प्राप्त
ammberpandey@gmail.com
Tags: 20222022 कथाअम्बर पाण्डेयनयी सदी की हिंदी कहानी
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Comments 19

  1. पुष्पा तिवारी says:
    3 years ago

    अंबर की सब कहानियां जो समालोचन में आईं हैं मैंने पढ़ी हैं ।अंबर चलते फिरते पढ़े जाने वाले लेखक नहीं हैं । समय निकाल कर गंभीरतापूर्वक पढ़ूंगी। मुझे उनकी कहानियां पसन्द है

    Reply
    • Amit says:
      3 years ago

      समसामयिक लेखन में पहली बार किसी की कहानी को इतनी गंभीरतापूर्वक पढ़ा, पढ़ा का कहानी ने स्वयं को पढ़वाया इसी तरह से, कहानी में नदी का पात्र मानो पढ़ने वाले को भी नदी में ही प्रवाहित कर रहा हो, हुसैन मानों नदी के मन का एक कोना हो काफ्का के शैतान को तरह और हलधार वो जिससे नदी स्वयं को बाहर देखना चाहती हो परंतु शैतान उसका पीछा न छोड़ते हों…

      Reply
  2. Seema Singh says:
    3 years ago

    कहानी इतनी दृश्यात्मक है कि जैसे हम नदी के साथ ही उसके पीछे खड़े हों …यह पहली प्रतिक्रिया है क्योंकि कहानी पुनः पाठ की माँग करती है । इत्मीनान से फिर पढ़ूँगी ।बहुत अच्छी कहानी आपको शुभकामनाएँ 💐

    Reply
  3. Deepak Singh says:
    3 years ago

    अद्भुत लेखन है आपका सर, कहानी जब पढ़नी शुरू की तो पढ़ता ही चला गया, अंत तक। आपकी भाषा में लय है, जिससे पाठक बिंधता ही चला जाता है। नदी गोस्वामी का चित्रण बेहद खूबसूरत बन पड़ा है। कहानी में कईं लेयर हैं, जिसकी परतें कहानी पढ़ने के बाद भी खुलती रहती हैं।
    मुझे लगता है, इस कहानी की अभी बहुत समीक्षा होनी बाकी है। बहुत बधाई सर।💐💐

    Reply
  4. Aishwarya Mohan Gahrana says:
    3 years ago

    कहानी के अंदर कहानी आँव-वात की तरह प्रायः रहतीं ही हैं| यदा कदा इस में सौन्दर्य भी मिलता है|
    अंबर के यहाँ उपकथाएँ नहीं होतीं, सहकथाएं होतीं हैं| वर्तमान का सबसे क्रूर विचार बीज अंबर के मस्तिष्क में अंकुरित होते हैं|
    मैं कहानी पढ़कर हृदय शांत करने का उपक्रम करना ही चाहता था, कि अंतिम एक वाक्य एक लंबी कथा कह गया| उफ़, कि आज रात नींद आए|

    Reply
  5. Rashmi Bhardwaj says:
    3 years ago

    बहुत दिनों बाद एक ऐसी कहानी पढ़ी है जो एकसाथ अपनी प्रांजल भाषा के कारण अपने प्रवाह में बहा ले जाती है और अपने कथ्य के कारण चौंका कर रोक भी लेती है, उद्वेलित करती है। कहानीकार ने अंत तक कहानी को पूरा खोला नहीं है इसलिए यह एक ओपन एंडेड कथा की तरह हमारे सामने आती है और कई बातों की ओर संकेत भर करती है जिन्हें ध्यान से नहीं पढ़ा जाए तो कथा सूत्र पकड़ से छूट सकता है। व्यक्ति मनोविज्ञान की कई सूक्ष्म परतें यहाँ हैं, एकाकी नदी का स्वभाव, रुद्र वीणा बजाने वाले हुसैन की हिंसा,नदी का उसके लिए विचित्र आकर्षण या ऑब्सेशसन, नलिन का अपनी बहन के लिए अनकहा लगाव, उसे मैरी लैम्ब बुलाना आदि।
    कथा में कई विचारोत्तेजक, बहसयोग्य प्रसंग भी हैं जैसे हुसैन का धर्म, स्त्री पर की गई शारीरिक हिंसा,नलिन का अपनी बहन के सामने बार बार नग्न होना आदि जिसे पूर्वग्रह रहित होकर नहीं पढ़ जाने पर कथा के जाल में उलझ जाने का ख़तरा भी भरपूर है।
    कहानी की सबसे अच्छी बात लगी इसका स्लाइस ऑफ़ लाइफ़ की तरह होना, जैसाकि जीवन होता है। इसका कुछ नाटकीय अंत नहीं हो सकता, इसका कोई आरम्भ तय नहीं होता। कथा भी नदी के जीवन के एक हिस्से को हमारे सामने ज्यों का त्यों रख देती है, as the life is…
    इस नयी कहन शैली के साथ अम्बर अपना ही एक शिल्प गढ़ रहे हैं जैसे एलेना फराण्टे, फिलिप रॉथ एलिस मुनरो आदि की कहानियों में हमें मिलता रहा है। हिंदी के लिए यह नया प्रयोग है। उन्हें शुभकामनाएं!
    इस तरह की पंक्तियाँ सुंदर होने के साथ संवेदनशील भी हैं और विचारोत्तेजक भी-
    केवल हुसैन के संग बीती रात्रि ही ऐसी थी जब उसे अनुभव हुआ वह कितनी जीवित थी और इसलिए मारी जा सकती है. जीवित और मृत के मध्य भी एक जीवन होता है, शान्त और शीतल जैसे भूमिगत नदियाँ होती है, फ़्रांस में १९०६ में खोजी गई लबौइच नदी की भाँति हुसैन ने उसे २०२२ में खोजा था. स्त्रियों पर इतनी हिंसा पूरे संसार में हो रही है, कितनी बालिकाएँ और किशोरियाँ मारकर फेंक दी जाती है, कितने आंदोलन और कितनी लड़ाइयाँ इसके विरुद्ध हो रहे है और नदी हृदय से सभी के संग है.

    Reply
  6. अशोक कुमार says:
    3 years ago

    अभी-अभी आपकी कहानी पढकर हटा हूँ. यह एक लम्बी कहानी है. विषय वस्तु पर बात करना मेरे लिए संभव नहीं है क्योंकि इतनी मेरी समझ नहीं है. मैं तो बस उस भाषा प्रवाह का कायल हो गया हूँ जिसमें कि यह कहानी बहती चली जाती है. जरूरी स्थान पर भाषा की कथित शालीनता का ख्याल रखे बैगैर विवरणों को ज्यों का त्यों रख देना जैसे रखा जाना चाहिए, इस कहानी को अनुभूति के उच्च स्तर पर लाकर रख देता है.
    कमाल

    Reply
  7. Bikash Gupta says:
    3 years ago

    इस कहानी का नशा बहुत दिन तक रहने वाला है, क्या शानदार रचा है, बहुत शुभकामनाएं, एक सांस में पढ गया 💙

    Reply
  8. हीरालाल नगर says:
    3 years ago

    बहुत दिनों बाद हिन्दी में एक विश्वस्तरीय रचना पढ़ी हालांकि यह भारतीय समाज के उच्च मध्यवर्ग के हालातों में एक स्त्री के संघर्ष और उसके प्रेम की अभीप्सा को बहुत गहरे से पकड़ती है। हिन्दी कहानी के सारे मानदंड को तोड़ती यह एक ऐसी विदग्ध रचना है, जो भारतीय समाज के अंदर-बाहर के विद्रूप को हठात् खोलकर रख देती है।
    न जाने यह कहानी मुझे बार-बार पढ़ने को प्रेरित करती है। आधुनिक हिन्दी कहानी में इतनी धधक तो होनी ही चाहिए कि वह आनेवाले कई वर्षों तक याद रहे। अम्बर पांडे का लेखन एक करिश्मे की तरह है। बधाई।

    Reply
  9. सविता पाठक says:
    3 years ago

    प्रेम की बहुत परतें होती हैं और नफरत की भी। नदी चालीस साल में भी एक अदद प्रेम नहीं कर पाती। भोजन बनाने और खिलाने को तत्पर ये समझदार युवती प्रेम और बलात्कार में अंतर नहीं कर पाती। उसकी सज़ा पर सोचना तो दूर की बात है पता नहीं ये मैरिटल रेप पर क्या सोचती होगी। खैर इन्होंने अपने कन्फ्यूज़न में अपनी वैचारिकी स्पष्ट कर दी। सदियों के श्रम और संघर्ष से हासिल चेतना को ये स्त्री शिक्षा नहीं मानती। इनकी पूरी छवि उस स्त्री की है जो हर समय इस कामना से भरी रहती है कि मोम की इस देह को कोई पिघला दे। नदी और उसका भाई दोनों ही खास किस्म की सेक्सुअल जटिलता से ग्रस्त हैं। दोनों का संबंध भी असामान्य है जिसकी फ्रायड के नज़र से व्याख्या हो सकती है लेकिन इन सबसे इतर बात कहानी के प्लॉट पर है। बहुत पहले एक फिल्म आयी थी जिसका गीत होशवालों को खबर क्या बेखूदी क्या चीज़ है अब भी याद है। अच्छे कलाकार, गीत, सुरीले संगीत से सजी फिल्म सरफरोश अपने मूल में नफरत और अविश्वास को बढावा देने वाली थी। ये कहानी मुझे सिर्फ उसकी याद दिला रही है । वह तब का समय था जब गुलाम अली के भारत आने का विरोध हो रहा था..यह आज सा समय है..
    इस कहानी के केन्द्र में स्त्रीद्वेष और नफरत नास्टेलजिया के शीरे में लिपटा है जो बहुत चिपचिपा लगा।

    Reply
  10. Bandana Prasad says:
    3 years ago

    इस कहानी को पढ़ने के बाद आज की कहानी पर भरोसा – सा जाग गया है . अंबर पांडेय का गद्य भी काव्यात्मक लगा . बहुत दिनों बाद आज दो कहानी को एक साथ पढ़ी . ( एक छोटी – सी संस्मरणात्मक कहानी लिखने के बाद ). पहली कहानी हंस में कुणाल सिंह की . इससे पहले कुणाल की किसी कहानी को ठहर कर मैं पूरा नही पढ़ी थी . दोनो कहानी में एक बिंदु पर मेरा मन जरूर अटका , वह है दक्षिण पंथियों द्वारा किए जा रहे भ्रामक रवैया , जिसे कुणाल की कहानी परत दर परत कलई खोलती नजर आती है . जबकि , अंबर पांडेय की यह कहानी शुरुआत में संकेत देती है जब नदी को खतना होने पर शक होता है लेकिन कहानी का अंत होते – होते वह संकेत – सूत्र पारे की भांति छिटक जाता है और मोहन राकेश के आषाढ़ का एक दिन की तरह मल्लिका के वेश्या बनने और हुसैन और हलधर की जान – पहचान के संकेत को छोड़ती हुई खत्म हो जाती है . बारिश का बिम्ब भी आषाढ़ का एक दिन का याद दिलाता है बार – बार . खैर अभी के लिए इतना ही . कहानी पठनीय है और बहुत सारे आयामों को समेटे हुई है . अंबर पांडेय जी
    और समालोचन को बधाई .🔅

    Reply
  11. Teji Grover says:
    3 years ago

    अम्बर का ही नहीं सभी का लेखन पूर्वग्रह रहित होकर पढ़े जाने की मांग करता है। अम्बर अपने देशकाल की व्याधियों से दूरी बनाकर नहीं लिखते, उनसे भिड़ते हैं, उन्हें छेड़ते हैं और उन्हें लेकर pavlovian प्रतिक्रियाओं का पूर्वानुमान भी अच्छे से लगा सकने में सक्षम हैं। ऐसे लेखक को politically incorrect होने के आरोप आजीवन झेलने पड़ते हैं। लेकिन यही तो चैलेंज है। यह भूमि इतनी कंटीली है कि कोई कोई ही इसपर चल पाता है।
    किसी सरकारी पत्रिका ने मेरी किसी कहानी से जमादारनी शब्द हटाकर सफ़ाई कर्मचारी कर दिया था, जैसे हर किरदार का सरकारी शब्दावली से वाकिफ़ होना ज़रूरी हो। गालियाँ भी एडिट कर दी गयी थीं। अम्बर तो provoke भी करते हैं और एक सजग लेखक की तरह पॉलिटिकली करेक्ट को ललकारते भी हैं।।
    एक बार टेबल टेनिस खेलते वक़्त मैं बारबार अपने कोच से शिकायत कर रही थी कि बॉल टूटी है, उसे बदल दिया जाए।
    कोच धीमे से बोले, सिस्टर, बॉल टूटी हुई नहीं है, उधर से स्पिन आ रही है।☺️

    Reply
  12. Ashutosh Dube says:
    3 years ago

    न इस कहानी को सरसरी तौर पर पढ़ कर अभ्यस्त आस्वाद न मिलने पर कोई कड़ा फ़ैसला दिया जा सकता है और न ही गदगद प्रशंसा में बह निकलने का यह कोई अवसर देती है। यह एक असहज करने वाली कहानी है जिसमें कुछ धारणाओं का बहसतलब प्रत्याख्यान है ; कुछ स्थापनाएँ भी हैं। बलात्कार को शारीरिक हिंसा से आगे आत्मा के घाव की तरह ट्रीट करने वाली मानसिकता किस तरह पितृसत्ता द्वारा पोषित धारणाओं को सबलता देती है, इस तरफ़ एक साहसिक ध्यानाकर्षण है जिसकी आसान और फौरी आलोचना सहज सम्भव है।
    अम्बर की कहानियों में मन्डेन दैनिकता का एक स्थायी बैकड्रॉप होता है जो घटनाओं के ‘हठातपन’ और नाटकीयता को इरादतन डायल्यूट करता है क्योंकि जीवन शायद ऐसा ही होता है। कहानी में अन्य संकेत भी हैं और इन सबकी एक सेक्शुअल अंडरटोन है।
    पहले पाठ में मुझे लगा कि जो कहानियाँ प्रधानतः किसी विचार की स्थापना के प्रयोजन से लिखी जाती हैं उनका कहानीपन कमोबेश प्रभावित होता है। कुछ जर्क्स भी हैं। कथाकार जब तब कुछ राजनीतिक संकेत भी देता रहता है जो इस कहानी का अतिरिक्त है और इससे बड़े स्पेस में शायद ठीक से निभे ; भाषा की भी दिक्कत मुझे लगी।
    लेकिन अम्बर की कविताएँ और कहानियाँ कई सावधान पाठ माँगती हैं। यह भी।

    Reply
  13. सबाहत आफ़रीन says:
    3 years ago

    कहानी पढ़ चुके हम मगर यूँ लग रहा जैसे कुछ सवाल घूम रहे हैं ज़ेहन मे, अव्वल तो ये कि एक कलाकार होकर हुसैन इस क़दर हिंसक कैसे हो उठा नदी के लिए, ये बात मुझे खल रही है। काश वो कोई लुच्चा लफ़ंगा या अपराधी रहा होता, उसकी वो हरकत भुलाए नही भूलती।
    नदी का किरदार ऐसा है जैसा आमतौर पे एक भावुक प्रेमिल स्त्री होती है, न जाने हलधर उसके लिए कैसा रहेगा…

    Reply
  14. Praxali Desai says:
    3 years ago

    बहुआयामी यह कहानी अलग है, आमतौर पर अम्बर मार्का भाषा जो होती है वह। इस कहानी में नही दिखेगी….एक कवि जब गद्य लिखता है तो कहानी में कई जगह कवि दिखता है….पर यहां थोड़ा खुला ,थोड़ा बंध सा….मानव मन का अवचेतन पर इस कहानी में अच्छा काम दिख रहा है,लेखक धर्म और मौजूदा दौर के सामाजिक राजनैतिक पहलू को स्पर्श कर जरा सा झकझोर देते है…फिर पाठको को सोचने छोड़ देते है….त्रासद शृंगार और जुगुप्सा रस को संतुलित रूप से रखने में कामयाब रहे है…..नदी नाम अनुसार अनेक अड़चनों के बाद बहती रहने की जीवट बनाएं रखती है। कहीं कही सभी पुरुषों चरित्रों के चित्रण में लेखक का अवचेतन तो दिखा ही है। कुल जमा यह की अम्बर की दूसरी कहानियों से बिल्कुल भिन्न…शायद लेखक अपनी बंधी बनाई रेखा से थोड़ा अलग नया प्रयोग करना चाह रहें है…बाकी यह कहानी बहुत सवाल और बहस पैदा कर रही है …धर्म ,परिवार शादी,स्त्रीविमर्श,सामाजिक ढ़ांचे में आए बदलाव,”काम” का मनोजगत (स्त्री और पुरुष ) दोनो के संदर्भ में….इस पर बहस करें… पर जिनका दिमाग बहुत संतुलित हो वही ….

    Reply
  15. Tewari Shiv Kishore says:
    3 years ago

    इस कहानी में असंगतियां दिख रही हैं – काल की, चरित्र की और विचार की। कुछ का उल्लेख करता हूं :
    1. ‘उसने स्वयं से कहा, यह 2022 है नदी गोस्वामी, ईश्वरचंद्र का अविभाजित बंगाल नहीं’। अर्थात घटनाक्रम 2022 में घटित होता है। दूसरी ओर “अमला शंकर की24 जुलाई 2020 को मृत्यु के पश्चात नदी गोस्वामी पिता के घर आ गई’। बीच के दो वर्षों में भी वह कलकत्ता में ही थी, पिता के घर नहीं, ऐसा बाद की बातों से लगता है।
    2. सितम्बर (2022) में नदी दिल्ली पिता के पास आती है। अर्थात कहानी के भाग 2-3 का समस्त घटनाक्रम सितम्बर के पहले हफ्ते में घटित होता है। इतनी सारी घटनाएं! भाई नलिन अन्त में घर छोड़कर भाग जाता है, शायद 7सितम्बर के आसपास।उसके बाद उसका पता नहीं चलता, ‘हिन्दी लेखक स्वदेश दीपक की तरह’। नैरेटर का बयान एक-दो दिन बाद ही शुरू होता है क्योंकि कहानी तो 9 सितम्बर को छ्प गई! दो दिन के अंदर यह कैसे पता चला कि वह फिर ढूंढ़कर नहीं मिला? कहानी भविष्य में खत्म होती है। भारी मुश्किल!
    3. रिटायर्ड गोस्वामी जी लगभग 80 साल के हैं क्योंकि 20 साल से पेंशन पा रहे हैं। उनकी मित्र कामाख्या मिश्र 45-50 साल की हैं । फिर भी अपने पति डा. मिश्र को वे गोस्वामी जी के ‘भैया’ बताती हैं। तो डाक्टर साहब कितने साल के हैं? 90-100?
    4. कामाख्या जी नदी को बेटी बुलाती हैं, नदी उन्हें दीदिया (दिदिया)।
    5. अब अधिक गंभीर असंगतियों पर चलते हैं। नदी 19 की कोमल वय से 40 की परिपक्व वय तक कोलकाता में रही है। भले वह कुमारी है, 21 साल एक महानगर में रहकर उसे इतना कांडज्ञान तो होना चाहिए कि जिससे दो-एक बार मुलाकात हो उसे ही घर बुलाए और अनजान आदमी की साइकिल पर बैठकर अपने बारे में उस आदमी को गलत संदेश न दे। चालीस साल की कुमारी को हठात् ऐसा यौन आवेग आ गया कि एक रात में बात संभोग से बलात्कार पर पहुंच गई! और यह प्रेमी भी कितना रोमांटिक है-
    ‘ “तब आप अपने घर चले जाइये”, नदी ने विनम्रता से किन्तु स्पष्ट शब्दों में कहा।
    “तेरी मां का भोसड़ा” कहकर हुसैन नदी के ऊपर कूद पड़ा।…उसकी पीठ से रक्त बहने लगा, आगे स्तन छिल गये। हुसैन ने नदी का पेटीकोट फाड़ दिया और पैर की उंगलियां मोड़कर नदी का पैर मोड़ दिया, उसे उल्टा पटककर …किसी सांड़ की तरह चढ़ गया।’
    इन रोमांटिक क्षणों की स्मृति में नदी कहानी के तीसरे भाग में घंटों हुसैन का वीडियो देख रही होती है।
    नायिका है या भैंस?
    6. अब रैशनेलाइजेशन देखिये- “किसी वैज्ञानिक की सी उत्सुकता से उसके नेत्र दीप्त थे। पुलिस थाने जाने का विचार उसने आते ही झटक दिया।… बलात्कार संभोग आखिर शरीर पर की हुई हिंसा ही तो है। इसे आत्मा या अस्मिता से पितृसत्ता जोड़ती है… बार बार कचहरी या कोतवाल के पास जाने की बात करने वाली स्त्रियां स्वयं को हिंसा से, पितृसत्ता के आतंक से परिभाषित करने लगती हैं…”
    अब इस भैंस की अविद्यमान अस्मिता या आत्मा पर बलात्कार हो तो यह थाने जाय। जो स्त्रियां इस कहानी पर निछावर हुई जा रही हैं वे समझ लें कि यही इस कहानी का केन्द्रीय कथ्य है। एकदम सेंट्रल थीम!

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  16. Neelakshi Singh says:
    3 years ago

    भाषा तरल है, जीवन से भरी। बरतने का अंदाज परिपक्व पर नया। विजुअल्स प्रभावी और उद्विग्न करने वाले। एकाध स्ट्रोक इधर उधर कुछ कम बेसी लगे हैं। अमला शंकर को नजदीक से और कुंकुम मिश्र को दूर से पढ़ चुकी नदी, ऐसा लगा कि खुद अपने मन को भी कुछ और शेड्स में पढ़वा ले जाएगी। ‘मालकौंस’ के नदी वर्जन को भी सुनने की चाह जागी। लेकिन इन सारे किंतु परन्तु के बुंदके के पार यह एक नए और सुंदर आस्वाद की कहानी है।

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  17. Manisha Kulshreshtha says:
    3 years ago

    अंबर यह कहानी मुझे भी बहुत पसंद आई। इसकी दृश्यात्मकता, भाषा और अनदेखे में खुलता वातायन, गझिन मनोविज्ञान। कोटेबल कोट्स भी क्या खूब हैं।
    एकाध जुगुप्साकारी दृश्य मुझे अखरे…वह लेखक की मनमानी के नाम।
    पर यह कहानी हिंदी कहानी का नया सोपान है। इसे दो-तीन बार पढ़ना होगा। आयरनी, विरोधाभास, जुगुप्सा, भीषण आंतरिक द्वंद्व, सकारात्मक खोल में अंतस की खोहों में छिपी नकारात्मकता, मूरिश डार्कनेस….इन संदर्भों में यह कहानी अंतरराष्ट्रीय पैमानों को छूती है।
    अंबर लिखे और हलचल न हो तो फिर अंबर का लिखा ही क्या!

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  18. Neeraj Kumar says:
    3 years ago

    नदी जैसा पात्र रचना, विशिष्ट है।कहानी वही है जिसमें वर्णित घटनाएँ सच लगें।Life is more dramatic than fiction.

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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