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Home » अन्विति: राजेन्द्र दानी

अन्विति: राजेन्द्र दानी

कथाकार राजेन्द्र दानी के दस कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं, वर्षों से वह हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पहल’ से जुड़े रहे. उनकी प्रस्तुत नयी कहानी ‘अन्विति’ स्मृति और अकेलेपन के बीच अपना गंतव्य तय करती है. प्रस्तुत है.

by arun dev
September 12, 2022
in कथा
A A
अन्विति: राजेन्द्र दानी
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अन्विति

राजेन्द्र दानी

उन दिनों उसके जाने के बाद का पहला जाड़ा शुरू हो रहा था. निकलता नहीं तो पता नहीं चलता था. पर लम्बे अनुभव ने बताया था कि हर मौसम की एक शुरुआती सुगंध होती है. वह कुछ-कुछ आने लगी थी. गई बरसात से घुल कर आसमान और नीला होने लगता है इन दिनों. मैं निकला नहीं तो कह सहीं सकता. निकलने से खुद को रोके रह सकता था, पर वह तो खिड़कियों से, या जहां से भी जगह मिले, आती थी. हवा के साथ ही सुगंध ने घर में कदम रखे होंगे. मैंने उसकी अगवानी की. पर उसने मुझे विचलित कर दिया. बेचैनी सी होने लगी. पर सच में मैं उस बेचैनी को कई दिनों तक समझ न सका. कारणों को ढूंढ़ता रहा. हर तरह की गति मेरी मंद है सिवाय आयु को छोड़कर. वह बढ़ रही हे. फिक्र थी पहले पर अब नहीं.

रुचि -अरुचि का प्रश्न नहीं था, हिम्मत का भी नहीं. कुछ पहले से थी और उसके जाने के बाद आदत ने पूरी तरह घेर लिया था. खुशियों से मैं काफी पहले मुक्त हो चुका था. उसके रहते-रहते ही.

जाने के कुछ दिनों पहले ही तो उसने कहा था- ‘‘खुश भी रहा करो कभी.’’ उसकी चिंता उसके उलाहनों में होती थी. वह बहुत समझकर कहती थी, और मैं उसकी समझ को समझकर ही खुद समझता था. यह हम लोगों का परस्पर अन्वय था. बहुत जल्दी नहीं मिलता यह. यह चालीस वर्षीय प्यार की अन्विति थी. मैं उसकी ओर देखकर भी नहीं देख पाया और व्यस्ततावश वह हट गई सामने से. मैं मुसकुराया. पर दुख है वह नहीं देख पाई कि मैं खुश हुआ हूं. वह इस तरह ही सदा खुश करती रही थी. वह तो मेरी जीवन साथी थी, मैं स्त्रियों में कभी भी रूढ़िगत रहस्यमयता को नहीं ढूंढ़ता था. जटिलता तो रही होगी. जटिलता को न खोल पाओ तो वह रहस्यमय हो जाती है.

उसने कर्तव्यबोध से कहा होगा इसीलिए कि उसके पास अवकाश नहीं रहा होगा. मैं खुश हो रहा हूं यह जताने के लिए उसे आवाज़ भी लगाई कि- ‘‘सुनो!’’

मेरी आवाज़ ने उसका भरसक पीछा किया पर पराजित वापिस आ गई. तब भी मैं काफी देर खुश रहा. वह मेरी आखिरी मुस्कुराहट और आखिरी खुशी थी सम्भवतः मैंने कहा था कि आघात की तैयारी नहीं थी और वह अभी तक रहस्यमय, संक्रमण की चपेट में आकर चली गई. सब कुछ से, सब कुछ संभव नहीं होता. मैं भी संभव नहीं कर सका.

तब से ही दीवारों के बीच रहा आता हूं. वे बोलती नहीं पर शायद मुझे सुनती रही हैं. अपनी उपस्थिति के अलावा किसी भी तरह के दखल का प्रयास नहीं किया उन्होंने. साथ-साथ रहना हम लोग इतने अंतराल में सीख चुके थे.

कैसी उलट बात है कि अबकी इस सुगंध ने मेरे भीतर उमस भर दी. अजीब-अनजानी घबराहट. यह मेरे और सुगंध के आत्मीय अन्तर-संबंध से हुआ होगा शायद.

मैंने धकेला नहीं खुद को और बाहर निकल आया. यह स्वतः स्फूर्ति थी. बहुत दिनों से तालों की रुकी हुई जरूरतों को पूरा करके मैं अपनी स्कूटर से बाहर आ गया. कम प्रकाश की अभ्यस्त हो चुकी आंखें बहुत देर तक चौंधियाती रहीं. झपकती पलकें रुकती नहीं थीं.

मैं यादों को समेटे रखता था. और उस वक्त भी उन्हें लेते आया था. मैं खुली हुई जगहों को जैसे भूल चुका था. स्कूटर चल रही थी और मेरी सांसों में सुगंध समा रही थी. वह भी चाहती रही होगी कि मैं भरपूर उसे ग्रहण करूं. जाना-देखा हुआ इर्दगिर्द भी अजनबी लग रहा था. पर बीती बारिशों ने सब कुछ धोकर रख दिया था. इसलिए सब कुछ साफ-सुथरा था, जो पहले नहीं रहा होगा. था कोई नहीं तो किसके सामने खुश होता. बहरहाल सुगंध ने तो इसे जरूर देख लिया होगा. मैं चौड़ी सड़कों पर बेवजह, बेझिझक स्कूटर दौड़ा रहा था. मेरे शहर की खूबसूरती का मैं कायल रहा हूं. मैं रफ्तार में रहते हुए भी यह देखता-सोचता रहा. अब तो इस शहर का चेहरा पहले जैसा नहीं रहा. हरे-भरे पेड़ और हमारी पराधीनता के दौर में ब्रिटिश लोगों द्वारा बनाई इमारतें और रिहायशी बंगले यहां की शान हुआ करते थे. लम्बे दौर तक रह सकने वाली चीजों को दफन करती आधुनिकता का चेहरा सभी चेहरों को मिटा रहा था. जो इनके प्रतिरोध में थे वे ओझल हो चुके थे. वैसे भी ओझल हो चुके समूचे परिदृश्य में ही ऐतिहासिक घटनाएं छिपी रहती थीं.

पर भी जो कुछ था इर्दगिर्द वह मेरा स्वागत करता लग रहा था. मैंने पहचाना और समझा इसे तब-तब, जब-जब हवा ने तेज झोंके मेरे चेहरे पर लगाये. कभी प्रत्यक्ष से तो थोड़ी दूर पहले बीती स्मृतियों से मैं बार-बार कट रहा था तो जुड़ भी रहा था. यही सोचकर कि घर से लगभग दस किलोमीटर दूर तक आ गये मुझको दीवारें याद कर रही होंगी. उनमें भय की व्याप्ति हो रही होगी कि मैं लौटूंगा कि नहीं? मेरे लम्बे समय से उनके प्रति हो गये लगाव की वजह से यह बहुत स्वाभाविक है.

लम्बे समय बाद देख रही दृष्टि अब तृप्त होती लग रही थी. सुबह 7 बजे निकला था, आठ बजने को थे. सूरज चढ़ रहा था. देखा और सोचा कि इस एक घंटे में क्या मिला कि बार-बार लौटूं? इसी तरह बाहर आके लौटने के लिए!

कुछ भी नहीं सूझा. मैंने यू टर्न लिया लौटने के लिए. एक फर्लांग बाद दो किलोमीटर लम्बा फ्लाईओवर था जिसे आते वक्त मैं पार करते हुए आया था. वह पास आ रहा था, उसे लौटते हुए भी पार करना था. ऐसी किसी जगह को पार करना सुखकर होता है, तो मेरे लिए भी था. जब स्कूटर मेरी उस पर दुबारा चढ़ रही थी तो मैं निश्चित ही मुसकुरा रहा होऊंगा, क्योंकि चढ़ते ही हवा का एक जोरदार थपेड़ा मेरे चेहरे पर आकर तभी लगा. ऐसे में मुस्कुराहट बढ़ी होगी.

और बढ़ जायेगी, बिल्कुल पता नहीं था. फ्लाईओवर के चन्द कदम पहले एक पान ठेला दिखा. याद आया कि मैं सिगरेट पीना भूल चुका था. मैं पास जाकर रुक गया. स्कूटर के साइड स्टैंड के सहारे उसे खड़ा किया और ठेले वाले से एक सिगरेट देने कहा. उसने मुझे बहुत गौर से देखा. वह पहचानता रहा होगा पर मैं उसे नहीं- ‘‘कई सालों बाद दिखे बाबूजी !’’

मैंने क्षणांश में उसे देखा भर. उसी की माचिस लेकर सिगरेट जलाई. दिये पर कितने पैसे याद नहीं. ठीक ही दिये होंगे क्योंकि उसने कोई आपत्ति नहीं जताई. मैं स्कूटर तक लौटा और उस पर बैठकर चल पड़ा. मुझे याद नहीं रहा कि मैं कुछ भूल गया हूं.

दूसरे तीसरे पल स्कूटर फ्लाईओवर पर चढ़ रही थी. जो नीचे से नहीं दिखता था वह सब फ्लाईओवर के ऊपर से दिख रहा था. शहर दूर तक दिख रहा था और उसकी हरियाली भी. अब इस शहर में भी गगनचुम्बी इमारतें बनने लगीं थीं जो हरेपन को धकियाने पर आमादा थीं. दूसरे नहीं पर मैं इनसे दुखी रहता था. मैंने तब सब देखा और खुद से कहा- ‘‘अब तो स्थायी दुख है मेरे साथ.’’

जब मैं अपने घर की ओर जाने वाले रास्ते की ओर फ्लाईओवर से उतर रहा था तो अपने साथ जुड़ी सारी बातों को भी अपनी नियति मान चुका था. खुलेपन का उस वक्त शोर बढ़ रहा था, पर मेरे लिए नहीं. लौट रहा था इसलिए धीमी रफ्तार में था.

अचानक एक बीस बाईस साल की स्कूटी चला रही लड़की ने मुझे क्रास किया और मुझे कुछ कहते हुए आगे बढ़ गई. मुझे उसका कहा, समझ नहीं आया. वह शायद इसे समझ गई इसलिए आगे जाकर रुक गई. मैं उस तक पहुंचा तो उसने कहा- ‘‘अंकल आपका साइड स्टैंड गिरा हुआ है, उठा दीजिए, नहीं तो एक्सीडेन्ट हो जायेगा.’’

मैं रुक गया उसके पीछे ही. वह सड़क पर एक पैर टिकाये हुए मुझे देखती रही फिर आगे बढ़ गई. पर मुझे न जाने क्यों लगा जैसे मैं मुसकुरा रहा था और वह देख नहीं पाई  पर वह गई नहीं थी. भ्रम था शायद !

वह तभी राहत से आगे बढ़ी जब वह समझ गई कि उसके कहे को मैं समझ चुका हूं क्योंकि मैंने एक पैर से साइड स्टैंड को ऊपर कर दिया था. सड़क सुनसान जैसी ही थी. मैंने चारों ओर देखा और महसूस किया कि सुगंध तीव्रता से बढ़ रही है.

सोचिए, उसे मैंने आवाज़ भी दी ठीक वैसे ही- ‘‘सुनो.’’ पर आवाज़ वापिस आ गई ठीक वैसे ही.

पर पता नहीं क्यों और कैसे समुद्र पार बसी मेरी बेटी की अचानक सघन रूप से मुझे याद सताने लगी. मैं अभी भी रुका था. और चारों ओर न जाने कैसे मुझे अपनी बेटी ही बेटी दिख रही थी. फिर मैंने उसे अपनी दीवारों को हटाते हुए भी देखा. मैं बार-बार निकलने के लिए घर की ओर बढ़ रहा था.

________

राजेन्द्र दानी
5 नवम्बर 1953, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़).

दस कहानी-संग्रह क्रमशः ‘‘दूसरा कदम’’, ‘‘उनका जीवन’’, ‘‘संक्रमण’’, ‘‘कछुए की तरह’’, ‘‘नेपथ्य का अंधेरा’’, ‘‘महानगर’’, ‘‘एकत्र’’, ‘‘मेमोरी फुल’’, ‘‘भूलने का रास्ता’’ और ‘पारगमन’. ‘‘लड़ाई’’ कहानी पर आस्ट्रिया में फिल्म निर्माण.
दो उपन्यास प्रकाशित.

म.प्र. साहित्य अकादमी के अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार, गायत्री कथा सम्मान तथा म.प्र. लेखक संघ से सम्मानित. म.प्र. राज्य विद्युत मंडल ने सेवावधि में विशिष्ट हिंदी सेवा सम्मान से विभूषित किया.

‘पहल’ में संपादन सहयोग.

सम्पर्क-
प्लाट नं. 15, के.जी. बोस नगर
गढ़ा, जबबलपुर- 482 003

Tags: 20222022 कथाराजेन्द्र दानी
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Comments 13

  1. कैलाश बनवासी says:
    3 years ago

    जीवनसाथी बिछड़ जाने के बाद अकेलेपन से जूझना कैसा दुष्कर, अवसादित कर देने वाला होता है, उस पीड़ा का अहसास बहुत घनीभूत होकर कराती है यह कहानी। मुझे वह हिस्सा बहुत महत्वपूर्ण लगा है जहां घर की दीवारों के बारे में लेखक लिख रहा है –अपनी उपस्थिति के अलावा और कोई दखल नहीं देती ये, या ये कि घर की दीवारें मेरा रास्ता देखती होंगी…
    अच्छा लगा कि राजेंद्र भाई लिख रहे हैं और उस गहन दुःख के साथ खुशी बटोरने की कोशिश भी जारी है, क्योंकि जीवन चलने का नाम…

    Reply
  2. चंद्रकला त्रिपाठी says:
    3 years ago

    पढ़ लिया। राजेन्द्र दानी के कहन में द्वन्द्व ,जो कथा की खुराक होते हैं बड़ी शाइस्तगी से आते हैं। कहानी भाव अभाव की सूक्ष्मता बरतना चाहती है और बार बार मनुष्य की कंडीशनिंग वाली नियति के इशारों की अनदेखी करती है।
    एक कोमल सम आया है इसमें।

    Reply
  3. Dr om Nishchal says:
    3 years ago

    यह कहानी जैसे कविता के कुछ अमूर्त बिंबों से बनी हो। सुगंध दीवार और पूरे परिदृश्य के अकेलेपन में होने और उससे मुक्त होने के जतन को सहेजती और नियति को अवलोकती यह कहानी अवचेतन की उठापटक है। इस अनुभव को काफी हद तक पकड़ा है उन्होने। मुझे इसे पढ़ते हुए सूर्यभानु गुप्त की एक कविता मेरे भीतर उमगती रही।

    “शाम के वक्त कभी घर में अकेले न रहो.”

    Reply
  4. Rohini Aggarwal says:
    3 years ago

    मार्मिक कहानी .
    नॉस्टेलजिया है, पर जिजीविषा का आवेग उससे ज्यादा. स्मृतियों को ताकत बना कर आगे चलना दरअसल अपनी दृष्टि को साफ और कदमों को मजबूत करना है.
    अवसाद का इलाज दवाएं नहीं, पलायन नहीं, स्थितियों के आर-पार देखने की बेधक दृष्टि है जो हर सांस के साथ गतिशील रहना चाहती है, और हर सांस बिस्तर पर निढाल पड़े रह कर कराह बनने का पुरज़ोर विरोध करती है.

    यह कहानी अपनी आंतरिक लय में मानसिक उपचार के लिए ललकते व्यक्ति की सकारात्मक अंत:शक्ति की कहानी है.

    छोटी सी कहानी में कलात्मक उत्कर्ष कैसे हवा के झोंके की मानिंद तैर जाता है, यह कहानी इसकी भी साक्षी है. सभ्यता के आधुनिकीकरण का नया अध्याय लिखते समय आज नगर फ्लाइओवरों के कंधे पर चढ़ कर झूमने लगे हैं. फ्लाइओवर दो समयों को अलगाते हैं तो उन्हें जोड़ते भी हैं. दानी जी कहानी में पुल को महज लोकेल नहीं बनाते, विकट जीवन-स्थितियों के आर-पार देखने का संवेदनात्मक विवेक बना कर नई जीवन-स्थितियों से जुड़ जाने की नैसर्गिक मानवीय इच्छा का भी प्रतीक बनाते हैं.

    कहानी में आशा की कोमल मर्मर ध्वनियां हैं. आज के हताश रुग्ण समय में इसी की तो सबसे ज्यादा जरूरत है.

    Reply
  5. Aishwarya Mohan Gahrana says:
    3 years ago

    शांत अनवरत बहती अमूर्त सुगंध सी मंथर बहती हुई कहानी, पहले पहल सिर्फ बांधती है, फिर चुपचाप अंतिम वाक्य के साथ मन में चुपचाप उतर जाती है|

    Reply
  6. Ila Singh says:
    3 years ago

    अकेलेपन से आई रिक्तता समय ही भरता है ,यह कहानी फिर से एक बार सत्यापित करती है।
    किसतरह अचानक पत्नी के गुजर जाने पर पति के जीवन का खालीपन, अकेलापन, रिक्तता बोध इतना बढ़ जाता है कि वह समय से कटकर रह जाता है ,लेकिन समय अपनी चाल से बीतता ही है। समय करवट लेता है मौसमों के बदलने से भी ।
    लम्बा अनुभव पहचान करा लेता है आगत मौसम की ।बदलते मौसम की आहट ,वातावरण में फैली सुगंध,साफ ,खुला ,नीला आसमान जैसे तैयार कर देता है बाहर की दुनिया से एकबार फिर साक्षात्कार के लिए।बाहरी दुनिया से मिलने में ही कथा शीर्षक का सूत्र मिल जाता है मानो …।बहुत ही अच्छी कहानी।

    Reply
  7. नेहल शाह says:
    3 years ago

    Rajendra Dani सर की कहानी अन्विति में नायक का स्वयं के साथ संबंध का बहुत मार्मिक चित्रण है।

    इसे कहानी कहते हुए यदि जीवन जीने की दृष्टि कहें तो और भी उचित होगा। ऐसी कहानी वही लिख सकता है जिसने अपने अकेलेपन को भरपूर जिया हो।

    जीवन को प्रतिदिन जीना होता है, उसके लिए प्रयत्न करना होता है, और स्वयं को उसके लिए प्रेरित करते रहना होता है। इस कहानी का नायक भी अपने अकेलेपन से बाहर निकल कर जीवन की तलाश में अपने स्कूटर से निकल पड़ता है।

    जिजीविषा की सबसे बड़ी आधारशिला है प्रेम, जो इस कहानी में सुनो! बनकर आती है, सुगंध बनकर आती है, और हर बार मुस्कराने को प्रेरित करती है।

    इस कहानी में ये भी देखने मिला कि जो सुगंध पहले नायक को रोमांच से भर रही थी वही कहीं जाकर ऊब में बदलती दिखी। यह ऊब नायक के जीवन में उसके साथ पल रहे अवसाद का उल्लेख करती है।

    पुल जीवन के अतीत से वर्तमान को बंधता दिखता है और जीवन की यात्र को याद करते हुए नायक के चेहरे पर मुस्कुराहट छोड़ जाता है।

    कहानी में कुछ किरदारों का ज़िक्र जैसे- सिगरेट वाला जो इतनी शांति से पैसे रख लेता है कि नायक को याद भी नहीं रहता कि उसने उसे कितने पैसे दिए हैं, यह दर्शाता है कि कई लोग आपके साथ इसी तरह शांति से जुड़े रहते हैं जो भले ही आपको महत्वहीन लगें किन्तु आपको जीवित रखने में उनका भरपूर योगदान है।

    इसी प्रकार वह लड़की जो स्कूटी से निकलते हुए स्टैंड ऊपर करने को कह देती है, और नायक की मुस्कुराहट का कारण बनती है।

    कहानी का नायक अंत में अपनी बेटी को अपने आसपास की दीवार हटाते हूए स्वप्न में देखता है और अवसाद के जीवन से बाहर आने का संकेत देता है।

    जीवन के लिए भरपूर स्थान है अन्विति में।

    दानी सर को बहुत बधाई!

    Arun Dev जी का शुक्रिया इस कहनी को साझा करने के लिए।

    Reply
  8. प्रिया वर्मा says:
    3 years ago

    इस कहानी में पत्नी के चले जाने के पीछे, दूर कहीं बेटी के बसे होने की तुष्टि, एक पिता की आँख से किसी अनजान लड़की को देखकर बेटी को ही देखती है। मनोवैज्ञानिक कहानी है। कल्पना और यथार्थ के बीच इस तरह की अन्विति वाकई होती है।
    इस तरह की शैली में मैंने कई परिचित लोगों को जीते हुए भी देखा है पर किसी एक सुबह के दृश्य में इस तरह शब्दबद्ध होते (शायद) पहली दफ़े पढ़ा है। भावुक करती पँक्तियों में रसे-बसे दृश्यों में मैंने स्वयं को दर्शक के रूप में पाया। मानो सब सामने घट रहा हो, एक टेलीफिल्म की तरह।
    कहानी के मूल भाव की बहुत स्पष्ट व्यंजना तो इसके शीर्षक से ही हो रही है ‘अन्विति’। कहानी के भीतर सूक्तिपरकता से बाकायदा सतर्क रहकर लेखक ने पाठक को स्वतंत्र रखा है।
    मुझ जैसे पाठक को बहुत कलात्मक या सामाजिक कहानियाँ अधिक प्रभावित नहीं कर पातीं जब तक वे दैनिक जीवन के सरोकारों से न जुड़ती हों। कहानी जब सोच समझ के कौशल में ढालकर लिखी जा रही हो तो पढ़ते ही स्पष्ट हो जाता है, फिर वह कहानी कम, नाटक या एकांकी अधिक लग रही होती है। एक सुबह के दृश्य का ब्यौरा देती और भावनाओं को विस्तार देती हुई कहानी है जो स्मृति और आज के बीच एक संतुलित समागम है। शुक्रिया समालोचन। लेखक राजेन्द्र दानी जी को बधाई।

    Reply
  9. प्रिया वर्मा says:
    3 years ago

    इस कहानी में पत्नी के चले जाने के पीछे, दूर कहीं बेटी के बसे होने की तुष्टि, एक पिता की आँख से किसी अनजान लड़की को देखकर बेटी को ही देखती है। मनोवैज्ञानिक कहानी है। कल्पना और यथार्थ के बीच इस तरह की अन्विति वाकई होती है।
    इस तरह की शैली में मैंने कई परिचित लोगों को जीते हुए भी देखा है पर किसी एक सुबह के दृश्य में इस तरह शब्दबद्ध होते (शायद) पहली दफ़े पढ़ा है। भावुक करती पँक्तियों में रसे-बसे दृश्यों में मैंने स्वयं को दर्शक के रूप में पाया। मानो सब सामने घट रहा हो, एक टेलीफिल्म की तरह।
    कहानी के मूल भाव की बहुत स्पष्ट व्यंजना तो इसके शीर्षक से ही हो रही है ‘अन्विति’। कहानी के भीतर सूक्तिपरकता से बाकायदा सतर्क रहकर लेखक ने पाठक को स्वतंत्र रखा है।
    मुझ जैसे पाठक को बहुत कलात्मक या सामाजिक कहानियाँ अधिक प्रभावित नहीं कर पातीं जब तक वे दैनिक जीवन के सरोकारों से न जुड़ती हों। कहानी जब सोच समझ के कौशल में ढालकर लिखी जा रही हो तो पढ़ते ही स्पष्ट हो जाता है, फिर वह कहानी कम, नाटक या एकांकी अधिक लग रही होती है। एक सुबह के दृश्य का ब्यौरा देती और भावनाओं को विस्तार देती हुई कहानी है जो स्मृति और आज के बीच एक संतुलित समागम है। शुक्रिया समालोचन। लेखक राजेन्द्र दानी जी को बधाई।

    Reply
  10. कौशलेंद्र सिंह says:
    3 years ago

    क्या कहानी है! कैसे कहूँ, इतनी भावपूर्ण संवेदनशील पात्र की अभिव्यक्ति। वास्तव में कहानियाँ यूँ ही छोटे और गहरे अनुभवों से लिखी जाती हैं जो सीधे हृदय में उतर आती हैं।
    कहानियाँ जब जीवन से जुड़ी होती हैं तभी साकार लगती हैं , अंतस की गीली रेत पर पदचिन्ह छोड़ जाती हैं। बहुत बढ़िया, बहुत बधाई🙏🙏

    Reply
  11. मनीष वैद्य says:
    3 years ago

    ‘अन्विति’ व्यक्ति के द्वंद्व और उसकी मनोदशाओं को बेहतरीन रूप से व्यक्त करती है। यह नैराश्य और अकेलेपन से जूझते व्यक्ति की जिजीविषा को बड़े ही सांकेतिक तरह से हमारे सामने लगती है। दानी जी की कहानियाँ इस तरह की ख़ासियतों के लिए पहचानी जाती है। इसमें सुगंध और दीवारें दो ख़ास रूपक हैं, जो कहानी के दायरे को दूर तक ले जाते हैं। इसमें बदलता-बनता एक शहर है, उसके दो हिस्सों को आसमान में जोड़ता एक पुल है। मुझे यह पुल समय के दो ध्रुवों को जोड़ने वाला पुल भी लगता है। बेटी के रूप में नई पीढ़ी है और पत्नी के रूप में एक पीढ़ी पहले की जनरेशन। मनोविज्ञान की बारीक पड़ताल करती यह कहानी मानीखेज बन पड़ी है। बधाई दानी जी, आभार समालोचन

    Reply
  12. Anonymous says:
    3 years ago

    प्रेम की सघन अनुभूति की कहानी जिसमें विकलता के साथ काव्य सम्वेदना बखूबी दर्ज है ।

    Reply
  13. Pragya Pande says:
    3 months ago

    अन्विति में जीवन के प्रति उदासीनता और जिजीविषा की ओर बढ़ने के द्वंद को राजेंद्र जी ने बहुत सहजता से संप्रेषित किया है। कहानी बहुत संवेदना और कोमलता से प्रकृति, सुगंध और पत्नी से बिछोह की पीड़ा को दर्ज करती है। बिना लाउड हुए, मन में गहरे छुपे भावों की सुंदर सहज अभिव्यक्ति भीतर तक छू जाती है। छोटे छोटे सरल वाक्य कहन को बहुत प्रभावी बनाते हैं। बार बार बाहर निकलने के लिए घर की ओर बढ़ना जिजीविषा से भरा है। राजेंद्र जी को बहुत बधाई।

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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