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Home » अमृत राय जन्मशताब्दी वर्ष: रमेश अनुपम

अमृत राय जन्मशताब्दी वर्ष: रमेश अनुपम

महान पिता के पुत्र के समक्ष कुछ अतिरिक्त चुनौतियाँ रहती हैं, उसे हर समय पिता से मापा जाता है. अमृत राय ने केवल ‘कलम का सिपाही’ भर लिखा होता तो भी उन्हें प्रासंगिक रखने के लिए यह पर्याप्त था, वह तो संपादक, कथाकार, अनुवादक, और आलोचक भी थे. उनका यह जन्मशताब्दी वर्ष है. जिस तरह से उन्हें याद किया जाना चाहिए वैसी कोई तैयारी दिख नहीं रही है, यह क्षोभ का विषय है. रमेश अनुपम अपने इस आलेख में अमृत राय को याद कर रहें हैं.

by arun dev
August 30, 2021
in आलेख
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अमृत राय जन्मशताब्दी वर्ष: रमेश अनुपम
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3 सितंबर, 1921 – 14 अगस्त, 1996
वह गर्व भरा मदमाता जीवन
अमृत राय जन्मशताब्दी वर्ष

रमेश अनुपम

हिंदी साहित्य जितना इन दिनों विस्मृति का शिकार है, शायद इतना वह कभी नहीं रहा है. विस्मृति ही क्यों, एक तरह से आत्मश्लाघा से भी इन दिनों वह लबालब भरा हुआ है. यही वजह है कि हिंदी साहित्य ने अपने अमृत तुल्य अमृत को ही न केवल भुला दिया है, वरन उनके इस जन्मशताब्दी वर्ष में भी उन्हें ठीक से स्मरण नहीं कर पा रहा है. देश की अन्य साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाएं  या पत्रिकाएं उन्हें अपनी स्मृति में जगह देने की कोई कोशिश कर रही हों, ऐसा भी कहीं कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है.

अब तो यह जन्म शताब्दी वर्ष भी बीतने की ओर है, पर साहित्यिक मठाधीशों का ध्यान अब भी अमृत राय जैसे अपने इस महान पुरखे की ओर नहीं गया है. इस समय सब अपनी-अपनी ढफली और अपना-अपना राग में मस्त हैं. अमृत राय न रिश्ते में किसी के पिता लगते हैं, न चाचा, न ससुर, सो उनकी ओर ध्यान भला क्यों जाएगा. उन्हें पता है कि जन्म शताब्दी वर्ष मना लेने से उनका कुछ होना जाना नहीं हैं.  सो बेहतर तो यही है कि इससे बच निकला जाए. अमृत राय की  जन्म शताब्दी वर्ष से दूर रहने में ही जैसे सबकी भलाई है.

हिंदी साहित्य की रात-दिन डुगडुगी बजाने वाले, रात-दिन हिंदी साहित्य की ऊंह-आह करने वाले प्रचंड वीरों को भी अमृत राय से भला क्या लेना देना हो सकता है? उनकी साहित्यिक हैसियत न इससे कोई बढ़ने वाली है और न घटने वाली. तो बेहतर यही है कि अमृत राय जैसे लेखक की ओर से ही पीठ फेर ली जाए और उनके जन्म शताब्दी वर्ष की कहीं कोई चर्चा ही न की जाए.

वैसे भी कृष्ण बलदेव वैद और अमका-ढमका के सामने अमृत राय की हैसियत ही क्या है ? ये कौन है अमृत राय ? हिंदी साहित्य या प्रगतिशील लेखक संगठन में क्या उनका कोई योगदान भी है ?

हां विजय राय जी को हमें सलाम करना चाहिए, जो  पिछले वर्ष से ही अमृत राय के जन्म शताब्दी वर्ष पर “लमही” का एक विशेष अंक निकालने की तैयारी में जुटे हुए हैं. विजय राय जी के कारण  संभवतः  कुछ दिनों में अमृत राय जी पर केंद्रित जन्म शताब्दी विशेषांक हम सबके हाथों में हो.

विजय राय जी और “लमही” को छोड़कर बाकी जगह अंधेरा ही  कुछ अधिक दिखाई दे रहा है. अंधेरा तो हिंदी साहित्य में वैसे भी कोई कम नहीं है. साहित्यिक पत्रिकाएं और संगठन जिनके हाथों में हैं उनकी दृष्टि पर ही परदा पड़ा हुआ है, तो कोई क्या करे. मुक्तिबोध का ‘अंधेरे में’ हिंदी साहित्य में घनघोर रूप से पसरा हुआ है, डोमा जी उस्ताद इधर सब जगह हावी है.

तो हिंदी साहित्य में यह मान ही लिया जाना चाहिए कि यह दौर एक अंधेरी काली सुरंग से बाहर निकलकर खुले आसमान में अपने सितारों को नजर भर देखने और उसे अपने हृदय में टांक लेने का नहीं है.

पर कुछ अलग फितरत वाले लोग भी साहित्य में हमेशा होते आएं हैं जो निर्गुनिया कबीर की तरह मस्त होकर यह गुनगुनाना हरगिज नहीं छोड़ते हैं “हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या.”

ऐसे ही लोग अमृत राय के लिए बेकरार होंगे. हिंदी साहित्य का मान वह, अभिमान वह, “कलम का सिपाही”  वह, “आदिविद्रोही”  वह, “अग्निदीक्षा” में तपा निखरा वह,  मुंशी प्रेमचन्द का अमृत वह, जिसने हिंदी साहित्य से लिया बहुत कम और दिया बहुत ज्यादा वह.

ऐसे ही अमृत तुल्य अमृतराय का यह जन्मशताब्दी वर्ष अपनी-अपनी तरह से, अपने-अपने साधनों से कुछ लोग जरूर मनाएंगे.

उनकी किताबों को पढ़ना, उन्हें याद करना भी एक तरह से जन्म शताब्दी वर्ष मनाना ही होगा.

अमृत राय ने खूब लिखा है, खूब जिया है. सत्यजीत राय और बांग्ला कवि सुभाष मुखोपाध्याय उनके घनिष्ट मित्र रहे हैं.

हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू तथा बांग्ला में उनका असाधारण अधिकार रहा है. उन्होंने 7 उपन्यास, 12 कहानी संग्रह,  5 आलोचना ग्रंथ सहित हावर्ड फास्ट के कालजयी उपन्यास  “स्पार्टकस” का हिंदी में अनुवाद किया है, जुलियच फूचिक की अमर कृति “नोट्स फ्रॉम द गैलोज” को हिंदी में  “फांसी के तख्ते से” के नाम से अनुवाद किया है. निकोलोई आस्त्रोवस्की के सुप्रसिद्ध उपन्यास “हाउ द स्टील वाज टेंपर्ड” का हिंदी अनुवाद “अग्निदीक्षा” के नाम से किया है.

ये वे किताबें हैं जिन्हें मैं अपने जीवन में कभी भूला नहीं सकूंगा. यह सब अगर अपने युवा दिनों में नहीं पढ़ता तो शायद मैं आज किसी लायक नहीं रहता.

अमृत राय ने बर्टोल्ट ब्रेख्त और शेक्सपियर को भी हिंदी में प्रस्तुत किया.

प्रेमचंद की जीवनी को उन्होंने जिस तरह से “कलम का सिपाही” में चित्रित किया है, वह अद्भुत है. अमृत राय ने हिंदी और उर्दू को लेकर अंग्रेजी में एक ग्रंथ की रचना “A House Divided” नाम से भी की है. उनके खाते में एक संस्मरण और एक यात्रावृतांत भी है और न जाने कितना कुछ.

अमृत राय का समूचा लेखन और जीवन हिंदी साहित्य के लिए गर्व का विषय है. उनका मौलिक लेखन से इतर ढेर सारे महत्वपूर्ण अनुवाद , ‘नई कहानी’ जैसी खूबसूरत पत्रिका, कम्युनिस्ट पार्टी को समर्पित उनका जीवन , सब कुछ जैसे  ‘वह गर्व भरा मदमाता जीवन ‘ हो, जिसे केवल अमृत राय जैसे लेखक ही जी सकते थे.

ऐसे महान और हिंदी के सिरमौर लेखक अमृत राय का जन्म शताब्दी वर्ष पूरे देश में न मनाकर हिंदी साहित्य ने अपनी दरिद्रता और संकुचित दृष्टि का ही परिचय दिया है.

इस अंधेरे दौर में अमृत राय का रचनाकर्म ही हमारे भीतर रोशनी भर सकता है, जिसकी आज सबसे अधिक जरूरत है.

अमृत राय को पढ़ते हुए यह जानना बेहद दिलचस्प हो सकता है कि वे विदेशी भाषा की बहुमूल्य कृतियों का अनुवाद करते हुए , ‘बीज’ या ‘धुंआ’ जैसे उपन्यास लिखते हुए , ‘नई कहानी’ जैसी अपने समय की सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका का संपादन करते हुए, प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम करते हुए भी विमर्श तथा आलोचना के क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे. साहित्य और राजनीति के गंभीर सवालों से जब तब टकराते रहे.

अमृत राय  ने सन 1939 से लेकर सन 1947 तक तेरह प्रमुख विदेशी कहानियों का अनुवाद किया. ये सब चीनी, रसियन, फ्रेंच, जर्मनी, अंग्रेजी भाषा से चुनी गई विशिष्ट कहानियां थी. अमृत राय की यह किताब “नूतन आलोक” नाम से हंस प्रकाशन इलाहाबाद से फरवरी 1947 में प्रकाशित हुई.

इस किताब के अंत में “कहानियां पढ़ चुकने पर” नाम से एक लंबी टिप्पणी लिखी गई है. यह टिप्पणी एक तरह से इस किताब की जान है.

फरवरी 1947 में जब यह किताब प्रकाशित हुई तब तक देश स्वतंत्र नहीं हुआ था, देश पांच माह बाद स्वतंत्र हुआ, लेकिन अमृत राय  ने अपनी इस किताब के अंत में जो टिप्पणी लिखी है, वह कई मायने में अद्भुत और प्रासंगिक जान पड़ती है.

उन्होंने अपनी इस टिप्पणी में लिखा है :

“पहली बात तो यह कि हिटलर का अंत हो जाने पर भी फासिज्म का अंत नहीं हुआ है. ऐसी दशा में जनता का फासिस्म विरोधी संग्राम न रुका है और न रुक सकता है. साम्राज्यवादी समाचार पत्रों तक से यह बात साफ है कि जर्मनी में और दूसरी जगहों पर फासिज्म को फिर से जिलाने के लिए ब्रिटिश और अमेरिकन साम्राज्य की ओर से अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्रों का जाल बिछाया जा रहा है. जिन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों में फासिज्म का जन्म होता है वह काफी हद तक अब भी वर्तमान हैं. इसलिए कहा जा सकता है कि इन कहानियों की रचना के मूल में अगर किसी तात्कालिक आवश्यकता की प्रेरणा थी तो वह तात्कालिक आवश्यकता आज भी है अंतर केवल इतना है कि राक्षस का चोला दूसरा है और वह कुछ भिन्न रूप धर कर आया है. ”

फरवरी 1947 में अमृत राय जिस फासिज्म की चिंता कर रहे थे वह कोई रूमानी या काल्पनिक चिंता नहीं थी. उनकी यह चिंता कि हिटलर का अंत हो जाने पर भी फासिज्म का अंत नहीं हुआ है और फासिज्म को फिर से जिलाने के लिए और अमेरिकन साम्राज्यवाद की ओर से अंतरराष्ट्रीय षडयंत्रों का जाल बिछाया जा रहा है, एक भविष्यदृष्टा लेखक और राजनैतिक कार्यकर्ता की वाजिब चिंता मानी जानी चाहिए.

अमृत राय कम्युनिस्ट पार्टी के घोषित सदस्य थे. सन 1950 में जब ‘डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स’ के अंतर्गत देश में कम्युनिस्टों की गिरफ्तारी हो रही थी, तब अमृत राय भी गिरफ्तार किए गए उन्हें बनारस की जेल में रखा गया.

इसलिए जब अमृत राय जैसे बेहद सजग और सचेत लेखक  जिस समय फासीवाद को लेकर अपनी चिंता प्रकट कर रहे थे, उस समय सबको यह दूर की कौड़ी जैसा ही कुछ लगा होगा.

महादेवी वर्मा के साथ अमृत राय: चित्र विजय राय के सौजन्य से

पिछले तीन चार दशकों से जो कुछ भी दुनिया में हो रहा है, वह आखिर क्या है? भारत में इस समय के दौर को हम किस दौर के रूप में याद करना चाहेंगे ?  अमृत राय के शब्दों में कहें तो ‘राक्षस का चोला दूसरा है और वह कुछ भिन्न रूप धरकर आया है.’ धर्म और मजहब के नाम पर नफरत का जहर फैलाकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाने वाली भाजपा ने मॉबलिंचिंग से लेकर, शिक्षा संस्थानों को नष्ट करना, देश के बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार कर जेल में बंद कर देना, कश्मीर से 370 हटाकर वहां के नेताओं को नजरबंद कर देना, यू.ए.पी.ए.  जैसे काले कानून के तहत नौजवानों को गिरफ्तार कर जेल भेज देना, कलबुर्गी, पनसारे, गौरी लंकेश, दाभोलकर जैसे लोगों की हत्या, क्या यह सब चीख-चीख कर देश में फासीवाद  के आगमन की गवाही नहीं दे रहा है.

अमृत राय इसलिए बड़े लेखक नहीं हैं कि वे प्रेमचंद के सुपुत्र थे, बल्कि वे अपनी महान  रचनाओं, अनुवादों के लिए जाने जानेवाले, मार्क्सवाद के प्रति अटूट आस्था के लिए कीमत चुकाने वाले, फासिज्म की खिलाफत करने  का साहस रखने वाले हिंदी के  बड़े और महान लेखक हैं.

अमृत राय ने केवल उन्हीं विदेशी कहानियों या उपन्यास का हिंदी में अनुवाद किया जिसमें वे मनुष्य का अदम्य साहस और स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद और फासिज्म के खिलाफ संघर्ष की झलक देखते थे. वे अनुवाद करने के लिए अनुवाद नहीं करते थे बल्कि हिंदी समाज को जागृत करने के लिए, उसे वैश्विक संघर्ष और स्वप्न से जोड़ने के लिए, चुन-चुन कर ऐसी कृतियों का अनुवाद करते थे. इसलिए हावर्ड फॉस्ट उनके  सर्वाधिक प्रिय लेखक थे.

दोनों का जीवन भी काफी कुछ मिलता-जुलता सा था. अमेरिकन लेखक हावर्ड फॉस्ट 29 वर्ष की उम्र में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने. सन 1950 में ही उन्हें भी गैर अमेरिकन गतिविधियों में भाग लेने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया और तीन महीनों तक जेल में रखा गया.

अमृत राय के लिए ऐसे ही लेखक उनके आदर्श हो सकते थे जो ‘स्पार्टकस’, ‘माई ग्लोरियस ब्रदर्स’ , ‘द पैशन ऑफ सेको एंड  वेंजेंटी’ जैसे उपन्यास लिख सकने का सामर्थ्य रख सके और अपनी राजनीतिक विचारधारा की कीमत भी चुका सके.

जूलियस फूचिक, निकोलोई आस्त्रोवस्की और बर्टोल्ट ब्रेख्त जैसे लेखक भी इसलिए उन्हें प्रिय थे.

बहरहाल अमृत राय जैसे लेखक को उनके जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर भी याद नहीं किया जाना हिंदी समाज की दरिद्रता का द्योतक तो है ही, हमारे महारथियों के पतन का भी कम द्योतक नहीं है, जिन्होंने अमृत राय के महत्व को समझने की कभी कोई कोशिश ही नहीं की.

खेला बंगाल के चुनाव में ही नहीं चलता है, हिंदी साहित्य में भी खूब चलता है और खूब चल रहा है.

___________

 

रमेश अनुपम
1952rameshanupam@gmail.com

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Comments 14

  1. राहुल द्विवेदी says:
    4 years ago

    बढ़िया आलेख । जिन महान कृतित्व को हिंदी पट्टी हाशिये पर रख भूल जाती है , उन लोगों को तहेदिल से याद करने और लोगों का ध्यान आकृष्ट कराने हेतु समालोचन का आभार ..

    Reply
  2. मनोज मोहन says:
    4 years ago

    आपने बहुत अच्छा लिखा है और वाजिब चिंता जाहिर की है. अमृतराय पर विजय राय जी लमही का विशेषांक निकाल रहे हैं और विमल (अरविंद) कुमार भी स्त्री दर्पण पर एक कार्यक्रम कर रहे हैं, इसकी सूचना है. श्रीपतराय पर भी लमही ने विशेषांक निकाला था. इन दोनों भाइयों ने शालीनता के साथ हिंदी और हिंदी समाज के लिए काम किया है.. संयोग है कि इधर अमृतराय को पढ़ने का मौक़ा मिला है. एक तटस्थ प्रगतिशील नज़रिया जो अमृत जी में रहा है, वह एक सिरे से बाक़ी प्गगतिशीलों में नहीं रहा. प्रगतिशील आलोचना का काफ़ी हिस्सा व्यक्तिगत रागद्वेष के कारण लिखा गया है. अमृतराय पर तटस्थता के साथ विचार होना चाहिए.

    Reply
  3. Deepak Sharma says:
    4 years ago

    Congratulations Arun Dev ji and Ramesh Anupam ji for commemorating Amrit Rai,a great biographer and thinker.
    It was heartening to follow the mention of Vijai Rai ji.
    Please accept my warm regards and best wishes.
    Deepak Sharma

    Reply
  4. योगेश द्विवेदी says:
    4 years ago

    एक बार फिर कुछ एसा जो मुझे याद दिलाता है कि मै समालोचन का प्रशंसक क्यूं हूं । अमर राय अनूदित अग्निदीक्षा अपने बचपन में अनेकों बार पढ़ा है मेरे किशोर में में भी पावेल कोर्चागिन बनाने की लालसा जागी है तो इसके लिए मात्र निकोलाई आस्ट्रोवस्की ही नहीं अमृत राय का जीवंत अनुवाद भी श्रेय का पात्र है। वाकई महान पिता के सुयोग्य पुत्र से परिचित कराने के लिए रमेश अनुपम का साधुवाद बेहतरीन आलेख ।
    समालोचन 👍

    Reply
  5. हरीश त्रिवेदी says:
    4 years ago

    महत्वपूर्ण लेख और आकलन, जिसमें आपका आक्रोश भी झलकता है और विवेक भी। “कलम का सिपाही ” पचास साल बाद भी हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ जीवनी बनी हुई है और प्रेमचन्द की अनेक लुप्त या लगभग अज्ञात कृतियों का संग्रह और प्रकाशन करके अमृत राय ने उनकी छवि और प्रतिष्ठा में नये आयाम जोड़े।

    “लमही” का अमृत राय पर विशेषांक 300 पृष्ठों से भी अधिक का आ रहा है जिस पर विजय राय जी को बधाई । और भी बहुत कुछ आना चाहिए।

    हरीश त्रिवेदी

    Reply
  6. अरुण कमल says:
    4 years ago

    रमेश जी का लेख ज़रूरी और महत्वपूर्ण है ।उनको बधाई और आपको आभार ।अरुण कमल

    Reply
  7. कैलाश बनवासी says:
    4 years ago

    अमृत राय के जन्म शताब्दी वर्ष पर उन्हें स्मरण न किया जाना आज की साहित्यिक बिरादरी में आए बड़े विचलन की गवाही है। अनुपम जी ने उनकी प्रासंगिकता को सही रेखांकित किया है। उन्हें और समालोचन को शुभकामनाएं

    Reply
  8. Sharmila Bohra Jalan says:
    4 years ago

    इस लेख के आलोक में यह जानने को मिला कि अमृतराय के जीवन का मर्म लेखन कर्म रहा है l वे
    आदर्श पाठक भी रहे हैंl अमृतराय का अध्ययन- लेखन कक्ष बहुत समृद्ध रहा है l
    अन्य भारतीय भाषाओं से संवाद और रिश्ता बनाया है l लेखन, संपादन किया, लिखना पढ़ना कितना आनंद देता है, यह सिखाया,
    महादेवी वर्मा के साथ उनकी अद्भुत तस्वीर है.
    अमृतराय के प्रसंग में प्रेमचंद के नाती (दौहित्र) अमृत राय के भांजे लेखक प्रबोध कुमार श्रीवास्तव को याद कर रही हूँ. उनका बांग्ला साहित्य से
    आत्मीय और गहरा रिश्ता था l बांग्ला से दो पुस्तक- ‘आलो आंधारि’, ‘ईषत रूपांतरण’ का अनुवाद किया.वह अंग्रेजी साहित्य के गहरे पाठक थे. उन्होंने जो लिखा उसमें अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी भाषा के पाठक होने की संवेदना का बड़ा हाथ थाl
    रमेश अनुपम जी को धन्यवाद.

    Reply
  9. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    अमृत राय को याद करते हुए रमेश अनुपम ने भारतीय साहित्य समाज की कृतघ्नता को आड़े हाथों लिया है।यह अक्षरश: सत्य है कि इस समय पूरा भारतीय समाज और उसमें भी विशेषकर हिन्दी समाज एक स्मृतिहीन समय में जी रहा है।बहुत दूर की छोड़िए हमारे जेहन से एक-दो दशक पीछे की स्मृतियाँ भी गायब हैं।उन्होंने समाज से जितना कुछ लिया उससे बहुत ज्यादा कुछ दिया, इसमें कोई शक नहीं। सन् 1942-43 के आसपास बनारस में रहकर वह कम्युनिस्ट पार्टी के बतौर होल टाइमर ‘लोकयुद्ध’ अखबार और पार्टी का पर्चा वगैरह उदय प्रताप काॅलेज के हाॅस्टल में छात्रों को पहुँचाया करते थे और क्लास भी लेते थे, यह बात नामवर सिंह ने अपने संस्मरण में कभी कही थी अपने छात्र-जीवन के दिनों को याद करते हुए।

    Reply
  10. Sanjeev buxy says:
    4 years ago

    अमृत राय जी पर रमेश अनुपम का यह लेख बहुत ही जरूरी लेख है जो उन्होंने बहुत भीतर से लिखा है उनके भीतर जो आक्रोश है वह स्वाभाविक है आज सचमुच हम सब ने मिलकर अमृतराय जैसे शख्सियत को भुला दिया है उन्हें आज नई पीढ़ी को यानी हम सबको पढ़ना चाहिए उनके किए गए अनुवाद को जरूर ही पढ़ना चाहिए इसकी उपलब्धता आज होनी चाहिए रमेश अनुपम को यह लेख लिखने के लिए साधुवाद

    Reply
  11. अमिताभ मिश्र says:
    4 years ago

    अमृत राय को याद करना बहुत ज़रूरी है और यह काम आपने किया । बहुत बहुत धन्यवाद। अद्भुत गद्यकार, अनुवादक ।

    Reply
  12. Sheela Rohekar says:
    4 years ago

    बहुत अच्छा आलेख। अमृत राय के योगदान को पूरी तरह से जिस तरह उकेरा गया है यह प्रशंसनीय है। उनका समग्र लेखन किसी गंभीर शोध का विषय है। रमेश अनुपम जी को ऐसे उत्कृष्ट आलेख के लिए बधाई।

    Reply
  13. Urvashi says:
    4 years ago

    महत्वपूर्ण आलेख

    Reply
  14. Rajwanti Mann says:
    4 years ago

    हिंदी समाज जिस विस्मृति और आत्मश्लाघा के जिस दौर से गुजर रहा है ऐसे समय में रमेश अनुपम का यह जरूरी और महत्वपूर्ण आलेख न सिर्फ अमृत राय जी के हिंदी अवदान पर प्रकाश डालता है बल्कि वर्तमान हिंदी परिदृश्य को भी आईना दिखाता है । इसके लिए रमेश अनुपम और समालोचना दोनों बधाई के पात्र हैं ।

    Reply

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