संघर्षमय जीवन:
जीवनी में चरित नायक के चरित्र की विशेषताओं को स्पष्ट करने के लिए उसका परिवेश अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है. प्रस्तुत पुस्तक नामवर के जीवन के विविध संघर्षो को बड़ी सटीक ढंग से प्रस्तुत करती है. लेखक ने नामवर के गाँव के परिवेश का इतनी सरलता से वर्णन किया है कि पाठक स्वयं को उसी परिवेश में पाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि एक छवि आँखों के समक्ष उभर आई हो. ‘यह वही ‘जीयनपुर’ है, जिसे उस जमाने में ऊसर गाँव बोलते थे. इस गाँव को पास-पड़ोस के धोबी जानते थे, जिन्हें रेह की ज़रूरत पड़ती थी, कपड़े धोने के लिए. गिद्ध भी जानते थे, जिनके बैठने के लिए एक ही कतार में दस-पंद्रह ताड़ के पेड़ थे. देव भी जानता था. जाने क्या बात थी, जब आस-पास के सारे गाँव पानी में डूब कर त्राहि-त्राहि कर रहे थे, यह गाँव प्यासा-का-प्यासा रह जाता था. नाम ‘जीयनपुर’ और जीवन का पता नहीं. हो सकता है, जीवन की चाह में ही इसे ‘जीयनपुर’ नाम दिया गया हो, लेकिन यह ‘पुर’ नहीं ‘पुरवा’ था- किसी गाँव का पूरक. ना-मालूम एक छोटी-सी बस्ती.
यह उस समय के भारत के अधिकांश साधनहीन व पिछड़े हुए गाँवों की ही तरह था, जिसमें धार्मिक मान्यताएँ कहीं ‘संस्कृति’ के हवाले से और कहीं ‘आस्था’ के वेग से लोक में ख़ूब प्रचलित थीं. इस गाँव के उत्तर की दिशा में गाँव वालों का आराध्य तालाब पड़ता, जिसे ‘महादेव’ मान कर पूजा जाता. … दक्षिण की ओर एक बावली थी, जिसे अधिकतर पशुओं को पानी पिलाने के लिए उपयोग में लाया जाता. पश्चिम की ओर फैली ऊसर धरती पर ‘गाँवडीह’ अर्थात् ग्रामदेवता का पूज्य स्थान रहता. पूर्व की दिशा की ओर एक ताड़वन, जिसके नीचे एक अखाड़ा निरंतर चला करता. इसे पार ‘काली माई का औरा’ पड़ता, जिस पर अकसर गाँव की औरतें पूजा-अर्चना करने जाया करती थीं. ’
नामवर ने अपना बचपन इस गाँव के वातावरण में व्यतीत किया, जहाँ सुविधा के नाम पर कुछ नहीं था. गाँव के सरल स्वभाव के लोगों के बीच पला यह असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्तित्व बचपन से कठिन जीवन जीने का आदी था. अनेक कठिनाइयों से उभरकर खुद को तराशने और ज्ञान को विकसित करने का गुण हम ‘अनल पाखी’ के नामवर से सीख सकते हैं. बाद के दिनों में नामवर सिंह अपने जीवन-संघर्ष से जोड़कर इस गाँव को याद करते हैं कि, ‘अपने जीवन के बारे में मैं नहीं कह सकता यह सरल सपाट है. भले ही इसमें ऊँचे पहाड़ न हों, बड़ी गहरी घाटियाँ न हों. मैनें ज़िन्दगी में बहुत जोख़िम न उठाए हों. …जहाँ मैं पैदा हुआ, उस पूरे जवार में उससे छोटा कोई दूसरा गाँव नहीं था. …हमारे गाँव के पास गौरव की कोई चीज़ नहीं थी. छोटा-सा ऊसर गाँव. खपरैल और फूस के मकान. रहने वाले बहुत साधारण लोग. ’
नामवर का पुस्तक प्रेम अद्भुत था, बचपन में ‘हनुमान चालीसा’ के माध्यम से पहली बार जो पुस्तकों से परिचय हुआ, वह अंत समय तक छूट नहीं पाया. अंत समय तक भी कोई नई किताब दिखाई पड़ जाए तो उनके मन में वही ललक होती थी, जो बचपन में उस ‘हनुमान चालीसा’ के लिए हुई थी. उनका यह अगाध पुस्तक प्रेम, उनको निरंतर आगे पढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा. उनके इस प्रेम में उन्हें किसी भी प्रकार का कोई खलल ना-बर्दास्त था. जब परिवार ने उनकी शादी की बात चलाई तो उन्होंने मना कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि शादी के बाद उनका किताबों से रिश्ता टूट जाएगा. किन्तु परिवार ने एक न मानी और उनकी शादी करवा दी गयी, किन्तु कई वर्षों तक नामवर इस रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पाये. अपनी शादी के विषय में नामवर कहते हैं, ‘घर में तय हुआ कि मेरी शादी कर देनी चाहिए. मैं पढ़ना चाहता था और चूँकि मुझको शहर कि हवा लग चुकी थी, मैंने कहा, ‘मैं शादी नहीं करूँगा. ’ पिताजी सोचते थे कि कहीं वह मर जाएँ और इसकी शादी ही न हो. जल्दबाजी में उन्होंने मेरी शादी तय कर दी. मैं घर से भाग आया. लेकिन पकड़कर लाया गया. हाईस्कूल का इम्तिहान खत्म हुआ था- मेरी शादी कर दी गई. यू.पी. से लगा हुआ बिहार का बॉर्डर है, दुर्गावती नदी के किनारे बसा हुआ, गाँव मचखिया, वहीं मेरी शादी हो रही थी और मैं रो रहा था. बहुत दिनों तक इस शादी को मैंने स्वीकार नहीं किया…. ’
नामवर ने अपने जीवन में अधिकतर समय आर्थिक अभाव में गुज़ारा है, ऐसा नहीं था कि नामवर के पास आय का कोई साधन नहीं था किन्तु किस्मत ने उन्हें कभी स्थिर नहीं होने दिया. दो विश्वविद्यालयों से थोड़े समय की नौकरी के बाद निकालने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति सुधर नहीं पाई. उनके इस आर्थिक अभाव का अंत हुआ 1966 में, जब वे राजकमल प्रकाशन के सलाहाकार बने. उन्हें एक हज़ार रुपए वेतन दिया जाने लगा, किन्तु यह भी ज्यादा समय नहीं चला. राजकमल से मिलने वाले मासिक एक हज़ार रुपए की राशि को तीन सौ कर दिया गया. नामवर पूर्ण तरह आर्थिक रूप से सम्पन्न तब हुए, जब उन्हें नियमित रूप से जे.एन.यू. में नौकरी मिली. आर्थिक अभाव के हालातों को इस पुस्तक में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, ‘नौकरी छूटने से पहले भी नामवर सिंह के हालात कुछ ज़्यादा अच्छे नहीं थे. उन दिनों उनकी हालत यह थी कि उनके पास एक ही कुर्ता था, उसी को धो कर, सुखा कर, पहन कर वे विभाग आया करते थे. उन्हें तनख्वाह भी नहीं मिल रही थी. उनके पास फूटी कौड़ी तक न थी. घर से सहायता लेना उन्होंने पहले ही बंद कर दिया था. उन्होंने अपने खाने की व्यवस्था मेस में कर रखी थी. विभाग तक वे पैदल ही चलकर जाया करते थे. ’ इस प्रकार जीवनी में नामवर के आर्थिक संघर्ष को यथा प्रस्तुत किया गया है.
नामवर के जीवन में संघर्ष अधिक रहा है और सुख और ख़ुशी के पल कम. नामवर सिंह के लिए जीवन के कुछ सुखद पलों में एक था- बेटी गीता का जन्म और दूसरा बेटे विजय की शादी. बेटे विजय ने उनके 30 वर्षों के मित्र कवि केदारनाथ की बेटी को पसंद किया था, नामवर भी यही चाहते थे. बेटे की शादी के समय के खुशमिजाज़ नामवर के विषय में काशीनाथ लिखते हैं, ‘भैया की आँखों में आँसू देखे मैंने- जीवन में पहली बार और वह भी बेटे की शादी के समय. वे ख़ुशी के आँसू थे. …बेटे ने वह किया था जो उनके नसीब में नहीं था. विजय ने बेटी पसंद की थी कवि केदारनाथ जी की. उनके तीस साल पुराने मित्र और देखे भाले. दिल्ली में उनके पडोसी… .
उनकी दौड़-धूप, उछल-कूद और सक्रियता देख कर सारे बाराती चकित थे. इतनी दिलचस्पी उन्होंने घर की बेटियों की शादी में नहीं ली थी. वे रात भर मंडप में बैठे रहे. पहली बार विवाह की सारी विधियाँ सम्पन्न होते हुए देखीं, रात भार जाग कर. …कोई ठिकाना नहीं था उनकी ख़ुशी का. रिसेप्शन के दौरान चहकते फिर रहे थे यहाँ वहाँ. ’
यह सम्पूर्ण जीवनी नामवर के जीवन के सुखों-दुखों को व्यक्त करती, खुशियों-गमों को समेटती, पारिवारिक कलह को उजागर करती, दाम्पत्य जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करती जीवन के विभिन्न पक्षों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करती है. इतने विस्तृत वर्णन के बाद भी जीवनी में नामवर की बेटी संबंधी (शिक्षा, विवाह आदि) अधिक जानकारी न देकर सिर्फ यह बता कर छोड़ दिया गया है कि वह दिल्ली के किसी कॉलेज में प्रवक्ता है, थोड़ा असहज लगता है. इसका भी विस्तृत वर्णन किया जा सकता था.


