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Home » अंचित की सात कविताएं

अंचित की सात कविताएं

‘वही जो अदाकारा थी, जो नर्तकी थी, और कवि भी /वही तुम्हारी मृत्यु थी.’  अंचित की ये कविताएँ उनकी पूर्व की कविताओं की ही तरह लचीली हैं. भाषा में वह लोच है जो अकथ को कह सके या कहने की कोशिश कर सके. प्रेम का स्वाद और दंश दोनों लगभग साथ-साथ चलते हैं.  फरवरी जिसे बंसत होना होता है, में अंचित की कुछ कविताएँ. 

by arun dev
February 13, 2021
in कविता
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अंचित की सात कविताएं
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अंचित की कविताएँ

एम. जे. के लिए कविताएँ: एक बरस बाद

 

 

1.

 

रात्रि-गीत

 

कुम्हलाए खेत में

पड़ जाती हैं दरारें

 

प्यास से बिलबिलाया कुत्ता

गर्मी की दोपहर को भटकता है

 

भींगे कपड़े से पेट बाँधकर

भूख रोकता है मज़दूर

 

ऐंठते हैं अंगूठे और घुटने

नशे की चाह में

 

स्मृति से जूझना हृदय का सिर फोड़ना

पसलियों पर अपना सर पटक कर

 

एम.जे. आधी रात टल गयी सुनवाई के इंतज़ार में

काटी हुई सजा की तरह है

 

ऐसे में जो व्यतीत होता है

उससे बेहतर है मृत्यु.

 

 

2.

 

विस्मृति

 

एक जैसी दो सड़कों पर

देखते बाएँ-दाएँ,

अलग-अलग,

दूर-दूर,

झेलते-खेलते ,

चल रहे हैं हम दोनों

 

क्या जितनी भी कड़ियाँ थीं, सब टूट गयीं?

क्या बर्बाद हो गया सब, जो बर्बाद करने की चाह थी?

 

वही कविताएँ, वही किताबें, वहीं जगहें

वही क़समें, वही नज़्में, वही देखना जैसे

स्त्री और पुरुष प्रेम में देखते एक दूसरे को-

वही अपूर्णता चाहना, जो सब चाहते हैं.

 

अगर सब इतना ही साधारण था, एम. जे.

तो ठहरा क्यों नहीं-

 

जैसे ओस ठहरती है तड़के बसंत में फूल पर

भोर का सपना ठहरता है आँख पर,

तब तक जब तक कोई छू नहीं देता.

 

मर जाते हैं सौ कायर तो एक कवि पैदा होता है.

 

 

3.

 

अनर्गल प्रलाप

 

ख़तों और तस्वीरों से बाहर निकलो

भूल गए गीत फिर स्मृति को मत दो

 

जो फूल गंध को प्रिय था, और सूख गया

जिन वक्षों का स्वाद जीभ पर था और अब नहीं है

जिस दृष्टि के बिना तुम होते नहीं थे

जिसके बिना गिद्ध की तरह तुम्हारी देह से मांस नोचता है विरह

जिस देह के बिना तुमको नींद मयस्सर नहीं

जिस देह के बिना तुम्हारे भाग्य से अब कोमलता जाती रही-

 

खंड खंड हो चले अब दो जीवन, कोई

पुकार उठी और शून्य में विलीन हो गयी-

 

कोई भी प्रसंग भूले भी ना आए स्वप्न में

ना मिले कोई भी चिन्ह कितने भी उजाले में

हास्य की आख़िरी ध्वनि भी पास ना ठहरने पाए

अभिनय के असफल सर्गों में भी उसका विष दिखाई ना दे

 

भूल गए हो उसका नाम

कह दो अनाम से.

 

 

 

4.

 

छांव के दिन

 

तुमने मुझे

जो दे सकती थी

बिना अवरोध दिया-

 

और मैं अपना दिया सब वापस ले लूँगा.

 

मैं तुम्हें भूल जाऊँगा

मैं तुम्हें भूल जाऊँगा

मैं तुम्हें भूल जाऊँगा

 

तुम अपनी देह में

मेरा ख़ालीपन धरे अकेली

रहोगी

 

मूसलाधार बारिशों के स्वप्न थे

और सूरज के अपने प्रयोजन

 

दग्ध रातों की लकीर पर चलने का समय आ गया है

छांव के थे इतने ही दिन।

 

 

5.

 

यूथेनेसिया

 

एक लड़की इसीलिए छोड़ गयी  क्योंकि

हम एक ही लड़की को चूमना चाहते थे

 

एक लड़की  इसीलिए रूठ गयी  क्योंकि

मुझे बाजरे के रंग की लड़कियाँ पसंद थीं

 

पीठ पर  निशान हैं,

गर्दन पर नीलापन है,

हृदय पर दाग हैं,

दुःख, कल्पना से उतरते हुए.

 

शामें रोते हुए बिताओ

और रातें कविता के कोठे पर.

 

एक लड़की ने एक दिन कहा कि वह मुझसे प्रेम करती है

फिर वह मुझे छोड़ कर चली गयी – स्मृति रही

 

एक लड़की गाहे बगाहे, बरसात के मौसम में,

निर्जनता में, मुझे देह के बदले होंठ देती थी- स्वाद रहा

 

एक लड़की ने कहा उसे  ज़्यादा नहीं चाहिए था,

सिर्फ़ एक ज़िंदगी, पूरी छोटी सी- तलब रही

 

वही जो अदाकारा थी, जो नर्तकी थी, और कवि भी 

वही तुम्हारी मृत्यु थी.

 

वही प्रेम छलता है जो नहीं छलता है.

 

( Courtesy: Ben Wagner Photography) 

 

6.

 

प्रेमिका के बाद

 

अपनी छाती पर

उसके दांतों के निशान लिए घूमता रहा –

इतराता, भरा हुआ जीवन से.

 

वह अपनी जेब में मेरी गंध से भरे रूमाल रखती

और मुझे ऐसे देखती जैसे किसान तूफ़ान के पहले

लहलहाते खेत देखता है.

 

उसने मेरे साथ रहने के जतन नहीं किए होंगे,

मैं नहीं मानता.

 

अंत में वह प्रेम से ही हारी होगी,

यह कह देने की नहीं, समझने की बात है.

 

नहीं बताया बहुत कुछ उस पुरुष के बारे में,

वह जिसको सौंप दी गयी-

इसमें दया नहीं थी, प्रेम था.

 

सिर्फ़ यही एक बात है

जो जीने नहीं देती. 

 

7.

 

सॉनेट

दिन भर तुम्हारी याद में

 

सूरज का हर मिनट बेचैनी की तरह कट रहा है

और रात हर मिनट जूझती है लिए हत्या की लालसा

जिन खिड़कियों से अब कोई गंध-आवाज़ नहीं आती है

उसके बाहर तुम्हारे लिए झांकती थी मेरी प्रत्याशा

 

मेरी उम्र में सबसे अधिक है अकेलेपन का अब हिस्सा

और यह थोड़ी भी हैरत नहीं कि पहले मेरी पूरी उम्र तुम्हारी थी

जिन गमलों में मुझे फूल लगाने थे वहाँ है अब निराशा

और यह थोड़ी भी हैरत नहीं कि उनसे तुम्हारी नज़र बिछड़ जानी थी

 

कविता और क्या है, अगर सब कुछ तुम्हारे लिए नहीं,

मेरी प्रेयसी ,और अब कैसे इनमें तुम्हारा नाम भरूँ

तुम्हारे चुम्बनों का होना नहीं, तुम्हारे विरह में बिलखना नहीं,

कैसे छोड़ दूँ तुम्हारी याद भी और किसी और से प्रेम भी करूँ

 

सच है, जो चाहिए होता है, वही छूट जाता है

लेकिन यह भी कि वह कब दिल से उतरता है.

_______________

अंचित
27.01.1990
दो कविता संग्रह प्रकाशित – “साथ-असाथ” और “शहर पढ़ते हुए”
Tags: अंचित
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