स्मरण: बंसी कौल
रंग ‘विदूषक’ यायावर निकल गया अपनी अंतिम यात्रा पर
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छह फरवरी को 9 बजते-बजते सुबह बेहद मनहूस साबित हो गयी, जब समाज माध्यम पर फैलती हुई खबर पहुँची कि बंसी कौल नहीं रहे. फिर तो जैसे शाम होते ही हर घर, कॉलोनी, सड़क आदि पर एक-एक करके बिजली के ट्यूब-बल्व जलने लगते हैं और देखते-देखते पूरा परिवेश चौंधिआया-सा उठता है, उसी तरह चमकने लगे मोबाइल…उभरने लगीं तरह-तरह की ढेरों इबारतें, जिन्हें देख-देख के मन इतना अवसाद से भरता रहा कि सोशल मीडिया की असंख्य संवेदनाएं जैसे काटने दौड़ती रहीं और मोबाइल की हर आह में एक ही स्वर सुनायी पड़ता रहा– ‘क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी क्या करूँ’….!
पिछले छह महीने से हम सब (लगभग पूरे थियेटर जगत) को उनकी गम्भीर बीमारी का पता था. ऐसे जिन्दादिल व पुख़्ता जीवट वाले शख़्स को ही वह असाध्य रोग होना था– मस्तिष्क और लीवर में कैंसर!! अच्छा इलाज़ मिला और लाखों की दुआएं भी…. बंसी भाई मौत से भी भिड़े वैसे ही, जैसे जीवन भर अपनी रूपांकन-कला (डिज़ाइनिंग) और अपने ढंग के विदूषकत्व वाले थियेटर कर्म के जरिए दुनिया और समाज से दो-दो हाथ करते रहे…! लेकिन इससे होनी को कुछ दिन टाला भर जा सकता था– रोका नहीं जा सकता था, और वही हुआ- आख़िर वह घड़ी आयी, जब किसी की परवाह न करने वाला व दुनिया के हर विषय पर अपनी निश्चित राय रखने वाला, जगत् और जिन्दगी को हस्तामलक की भाँति देखने-समझने वाला वह यायावर रंग-विदूषक संसार से अलविदा करके अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़ा.
बंसी भाई के ऐसे ही निश्चित विचार से पड़ा था- मेरा पहला साबका, वह पिछली शताब्दी के अंतिम दशक का कोई शुरुआती वर्ष रहा होगा, जब ‘पृथ्वी थियेटर’ में हो रहे किसी नाट्योत्सव में शामिल होने शायद मैं गोवा से आया था. दिन में सभागार के मंच पर कोई गोष्ठी चल रही थी. वह जमाना बहस-मुबाहिसों का था. आमने-सामने के बेबाक संवादों का था. तब आज जैसा सोशल मीडिया का इकतरफा हवाई फायर न था कि घर बैठे कुछ का कुछ लिख मारा और मिले, तो बगल से निकल गये या दिखावे के गले मिल लिये. और पाँच कदम का फासला हुआ नहीं कि लग गये जड़ खोदने में…!
एकबार मैंने मुम्बई-थियेटर पर व्यावसायिकता के प्रकोप की तोहमत लगायी थी और मुसकुराते हुए बंसी भाई का फिक़रा आया था–
अगर ऐसा है, तो त्रिपाठीजी इसमें आप का भी बराबर का योगदान है, क्योंकि नाट्य-समीक्षा भी नाट्य-कर्म है. इसलिए किसी भी नाट्य-प्रवृत्ति के चलने या रुकने में उसकी भी जिम्मेदारी उतनी ही है!
और मैं हतप्रभ रह गया था, क्योंकि तब तक मैं नाटक वालों के बीच बाहरी और बाहर वालों के बीच नाटक वाला ही बनकर रहने का द्वैत जीता था.
और उस एक क्षण में वह द्वैत व गुरूर तार-तार हो गया. रत्नावली की फटकार ‘अस्थि चर्ममय देह मम तामे ऐसी प्रीति’ पर जैसे तुलसी को परम ज्ञान हुआ था और लोकगीत के शब्दों में ‘तू माता मोरी ग्यान की माता, अच्छा ग्यान दियो री’ कहके वे आसक्त गृही से संत हो गये थे; उसी तरह मैं अपनी साहित्य-संहिता के मुताबिक वाले ‘अनासक्त समीक्षक’ से ‘आसक्त थियेटर विवेचक’ हो गया था– इश्क़ तो थिएटर से था ही, तभी मुझे पता चला था कि वे मुझे नाम-काम दोनो से जानते हैं, फिर तो चाय के दौरान शुरू हुई गुफ्तगू कभी रुकी नहीं, बल्कि अपनी व्यापकता में सघन से सघनतर होती गयी, और मीडिया में दर्ज़ है, पिछले दिनों बनारस से हुए ऑन लाइन आयोजन के अपने समापन भाषण के बाद प्रश्नोत्तर के दौरान मेरे दूसरे सवाल के जवाब के बाद कहा हुआ उनका वाक्य– ‘त्रिपाठीजी के साथ बहस करना अच्छा लगता है– यह बहस चलती रहेगी’. तब किसे पता था कि चर्चा के तहत मुझसे मुखातिब यह उनका आख़िरी वाक्य होगा– इसके बाद तो सिर्फ फोन पर दो-एक बार हालचाल हुए.
उस सत्र के बाद उस नाट्योत्सव के शेष नाटक हमने अगल-बगल बैठ के ही देखे थे और नाटक शुरू होने के पहले और बाद में भी खूब घुट-घुट के मिले थे. उन्हें पीछे की पंक्ति के बायें कोने में बैठना भाता था और मुझे मध्य खण्ड में आगे से दूसरी पंक्ति में बाये किनारे पर बैठना सुहाता था. वह लगभग मेरी स्थायी जगह थी, जिसे छोड़कर मैं तब हमेशा उनके साथ पीछे बैठने लगा, जब भी कभी-कभार वे मुम्बई में होते और नाटक देखने का कार्यक्रम बनता. नाटक देखते वे गिद्ध दृष्टि से और इसीलिए वे वह देख लेते थे, जो मैं क्या कोई न देख सकता था– ‘मैं देखउं तुम नाहीं गीधहिं दृष्टि अपार’. और इसका लाभ व मज़ा शो के बाद की चाय या सुरा-पान की बैठक में मिलता, क्योंकि नाटक के दौरान वे एक शब्द न बोलते– नाट्य-संहिता को यूँ निभाते गोया– ‘मैंने जज़बात निभाये हैं उसूलों की जगह’…!!
क्या विचित्र संयोग है कि उस यायावर से पहली भेंट यदि मेरे कर्म-स्थल मुम्बई में हुई थी, तो जिन्दगी की आखिरी भेंट मेरे गृह नगर आज़मगढ में ही हुई, जब प्रिय अभिषेक पण्डित के बुलावे पर वे ‘सूत्रधार’ के नाट्योत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में भी आये थे और अपने नाटक ‘सौदागर’ का मंचन भी कराया था, जो बंसी कौल की पहचान कायम करने वाले नाटकों (सिग्नेचर वर्क्स) में से एक है. मैंने शायद उसका शो वहाँ तीसरी बार देखा था. मुख्य मकसद तो आसपास पहुँचने पर हमारे मिलने के अनकहे कौल का था, जिसे मुम्बई-बनारस के अलावा जब भी जहाँ आते, मिलने आकर वही निभाते, उनके संसाधन भी होते और सामर्थ्य भी होती. लेकिन अपने गाँव-शहर के नाते यहाँ साधन मेरे भी थे और अपने नगर के उत्सव में तो मैं स्थायी आगत हूँ ही– जब भी बनारस या घर रहूँ. इस बार जाने की स्थिति न थी, पर बंसी भाई के मोह में शाम को नाटक देखने और मिलकर चले आने भर के लिए गया. लेकिन नाटक के बाद जब खाने-पीने पर बातें शुरू हुईं, तो समाँ कुछ ऐसा बँधा और रंग कुछ ऐसा जमा कि कब रात का एक बज गया, पता ही न चला. हाँ, यह पता जरूर चला कि आज़मगढ शहर मेरा भले हो, उसके इतिहास-भूगोल के बारे में तो मुझे बंसी भाई से ही सीखना पड़ेगा– ऐसी थी उनकी यायावरी और जीवन-जगत में उनकी व्यापक पैठ, फिर तो उसी होटल में रात बिताके सुबह की चाय और नाश्ता उनके कमरे में करके ही आ सका. उसके बाद कोरोना आयेगा, तालेबन्दी होगी, मिलना और आयोजन आदि आभासी हो जायेंगे तथा बातें दूरभाषी ही रह जायेंगी…, यह सब भला कौन जानता था…!!
इन दोनों मुलाकातों के बीच हुई भेटें उंगलियों पर गिने जाने जितनी ही हैं. भौतिक दूरियां इसका कारण थीं, कुछेक बार भोपाल-जबलपुर, आदि जगहों पर भी नाट्य-आयोजनों एवं सरकरी समितियों की बैठकों में मिल पाने के अवसर बने. लेकिन उन्हीं के साथ के सम्बन्ध इस बात के प्रमाण भी बने कि आपसी सलूक व साझेदारियां मिलन की मात्रा या बारम्बारता से न तय होतीं, न उसकी मोहताज होतीं. इसके प्रमाण में आज मैं वो नहीं कहूँगा, जो हमेशा कहता हूँ– ‘तेरी इक नज़र बस, काफी है उम्र भर के लिए’. आज तो वो कहूँगा कि दुकान पर चन्द बार के सवाल ‘तेरी कुड़माई हो गयी’? के जवाब ‘धत’ में ऐसा क्या बन-बस गया था कि लहना ने उस अनाम सरदारिन के कहे को निभाने में अपनी जान दे दी और मरते हुए यह सन्देश – ‘उससे कहना कि मैंने वो किया, जो ‘उसने कहा था’ भेज के इतने सुकून से प्राण त्यागे थे कि ‘अचल भये जिमि जिव हरि पाई’ हो गया!!
लेकिन जितनी मुलाकातें हो पायीं, उनकी तासीर अकूत हैं और उनका श्रेय जाता है– बंसी दा की यायावरी को, जिसके चलते वे ‘नार-नदी-नद डाँकत कै बनि के हिरना बिरना चलि अइहैं’ की तरह आ जाते थे मुम्बई-पूना-बनारस-आज़मगढ, आदि शहरों में, जहाँ मैं रहता, और फोन करके बुला लेते थे– मुम्बई में हुए, तो मैं लेके घर भी आ जाता था.
इसी क्रम में पृथ्वी वाली भेंट के बाद दूसरी मुलाकात पूना में हुई– तब मैं रीडर होकर पूना चला गया था. उनके बताने की जरूरत न थी. वहाँ के बड़े ख़ास रंगोत्सव में आ रहे थे और शहर में रहते हुए ‘जनसत्ता’ के लिए मुझे वहाँ होना ही था. ‘तुक्के पे तुक्का’ लेकर आये थे, जिसे वहाँ पहली बार देखना यादगार अनुभव था और मराठी के अफाट नाट्यप्रेमी दर्शकों का कहना ही क्या!
वहाँ की परम्परा में रात को मंचित नाटक के निर्देशक से दूसरे दिन खुली बातचीत होती थी, जिसमें दो-ढाई सौ लोग तो जुटते रहे होंगे और एक से एक सवाल होते थे. मुझे ठीक से याद है कि दो दिग्गजों- बंसी कौल और हबीब तनवीर- से बात एक साथ हुई थी. संयोजन कर रहे थे मराठी के प्रसिद्ध नाटककार महेश एलकुंचवार. दोनो ने बड़ी सादगी व संजीदगी से जवाब दिये थे. जनता गदगद थी और गाने की फ़रमाइश हो गयी थी. बंसी दा ने सौ इसरार के बाद भी खुद न गाके अपने समूह के किसी बच्चे से गवा दिया, जिसे आयोजकों ने उत्तर प्रांतों की सभ्यता समझ लिया. तो हबीब साहब से फरमाइश के साथ समूह के किसी से भी गवाने का विकल्प दिया जाने लगा, और हबीब साहब तो हबीब साहब थे- ज़ोर देकर कहा– तक़ाज़ा तो मुझसे हुआ है, मैं ही गाऊँगा. वे अपना ‘लाला शोहरत राय’ लेकर आये थे. उस बार कार्यक्रमों की गहमागहमी में अपनी निजी बैठक न हो पायी- यहाँ-वहाँ खड़े-खड़े कुछ औपचारिक बातें ही हुईं, लेकिन मन में कुछ रसाया अलबत्ता, उस मजमे में बंसी दा की नाट्य-यात्रा की झलक मिली, जिसमें पूर्व की अपनी जानकारी को मिलाकर कहूँ तो.
23 अप्रैल, 1949 को श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) के कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में जन्मे बंसी कौल ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली से स्नातक होकर वहीं पढ़ाने से जिन्दगी की शुरुआत की. 1973 में रानावि, रंगमंडल के और 1981-82 में ‘श्रीराम सेंटर’ के निदेशक बने. लेकिन इन सबको छोड़कर 1984 में भोपाल में ‘रंग विदूषक’ नाम से अपना रंगमण्डल बनाया और घर भी. वहाँ के ‘भारत भवन’ के, अभ्यागत निदेशक (विजिटिंग डिरेक्टर) रहे, रंगमण्डल की चयन समिति में रहे और देश की बहुतेरी चयन समितियों में रहे, लेकिन टिक कर रहे नहीं वहाँ भी- कहीं भी, घर तो दिल्ली में भी बनाया– ‘सतीसर’ अपार्टमेण्ट, द्वारका, जहाँ से उनकी शवयात्रा निकली और जहाँ रह रही हैं उनकी चिर संगिनी अंजना पुरी– अपनी भींगी आँखों, काँपते हाथों से उन्हें विदा करके, यानी कोई शहर, कोई संस्थान, कोई पद– यहाँ तक कि उनकी ख़ूबसूरत जन्म स्थली भी, उन्हें बाँधकर रख न पायी, वे बँधकर रहने वाले थे ही नहीं. तभी तो स्व. ओमपुरी उन्हें ‘विश्व नागरिक’ कह गये.
जीवन ही नहीं, कला में भी बंसी दा किसी ख़ास शैली, बने-बनाये ढाँचे या कलारूप से बँधकर नहीं चले. रानावि के प्रशिक्षण को भी सीधे नहीं अपनाया. देश-विदेश का बहुत कुछ देखा-पढ़ा-समझा, पर उन सबके परे जाते रहे. बुनियादी और अंतिम रूप से भारतीय लोक उनकी नाट्य व रूपायन, दोनों ही प्रमुख कलाओं का अजस्र स्रोत रहा. पिछले दिनों बनारस से आयोजित एक आभासी आयोजन ‘कलाओं में लोक’ में हम ‘दश रूपक’ के अपने सुमित…आदि बच्चों के साथ रहे…. इसकी तैयारी के दौरान बंसी दा के इस स्रोत की प्रक्रिया को देखने-सुनने-जानने का प्रत्यक्ष अवसर मिला. उन्होंने भारतीय लोक में चलते अखाड़े, खेले जाते तरह-तरह के ग्रामीण खेल, भिन्न-भिन्न प्रांतों में प्रचलित कथा वाचन-गायन की ढेरों लोक शैलियों, अनेक नृत्यरूपों… नटों के करतबों…आदि सबकुछ को मिलाकर एक नयी रंग शैली रची, जिसे उन्हीं के दिये नाम से ‘विदूषक शैली’ ही कह सकते हैं, जिसे समीक्षक ‘थियेटर ऑफ लॉफ्टर’ भी कहते हैं.
और आज ‘कहानी के रंगमंच’ एवं आपसी संयोजकत्व (कोऑर्डिनेशन) के अभाव युग में जब थियेटर एकपात्री-दोपात्री के पीछे भाग रहा है, बंसीजी का सार ज़ोर सामूहिकता पर होता है. शैली के साथ ही वे किसी ख़ास तरह के सभागार, आदि की आलीशानी सुविधाओं से भी बँधे नहीं रहे– उसके मोहताज़ नहीं रहे. बल्कि झोपडों-टीलों, बरामदों-चौबारों, बगीचों-मैदानों, आदि गैर पारम्परिक स्थलों पर भी मंच खड़ा करके एक से एक प्रयोग करते रहे, कुल मिलाकर उनका कला कर्म नित-नूतन प्रयोगों की खान रहा है.
लेकिन कहना होगा कि वे बँधे नहीं किसी से, तो टूटे भी नहीं किसी से, कहीं से, जोड़े रहे सबको और जुड़े रहे सारी दुनिया से– ‘विदूषक’ के माध्यम से अपने अलग तरह के इकले रंगकर्म के जरिए, अपनी अनुपम रूपांकन कला (डिज़ाइन आर्ट) के ज़रिए और अपने विचारों-व्याख्यानों के जरिए. पूरे देश में हजारों की तादाद में फैले हैं उनके शिष्य-सहकर्मी-रंग मित्र, कलासाथी. उनकी साँसों में बसता था रंगकर्म, संवादों से बरसता था साहित्य और पेंसिल-कूँची से सिरज उठती थी एक नयी दुनिया. जैसे कामदेव के हाथों में रहता है हमेशा उनका अस्त्र– एक फूल, बंसीदा के हाथों में रहते कागज़-पेंसिल– उनके अहर्निश के चिर संगी, जो उतार लेते थे मन में उठते संवादों को, रेखाओं में उकेर लेते थे दिमाग में उभरते दृश्यों और संरचनाओं को.
इस सब सोचों-प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप वे छोड़ गये हैं हिन्दी, पंजाबी, तमिल, सिंहली, उर्दू, बुन्देलखण्डी, बघेली आदि भाषाओं में लगभग सौ नाटक, जिनमें कुछ प्रतिनिधि नाम लिये जा सकते है– आला अफसर, अग्निलीक, दशकुमार चरितम्, शर्विलक, मृच्छ्कटिकम्, पंचरात्रम्, अरण्याधिपति टण्टयामामा, अन्धायुग, तुक्के पर तुक्का, वतन का राग, कहन कबीर, सौदागर, वेणी संहार, जिन्दगी और जोंक…आदि.
अब इस यात्रा को यहीं विराम देकर पुन: मुम्बई चलें, क्योंकि हुआ यूँ कि चार सालों बाद पूना से मेरा तबादला मुम्बई हो गया. इसके लिए हमारे रंगमित्रों ने बहुत सदिच्छाएँ की थीं– ख़ासकर दिनेश ठाकुर और केके रैना-इला अरुण आदि ने. आने पर उनकी प्रसन्नताएं स्वागतादि के रूपों में भी सामने आयीं. मैं भी बहुत उत्साह में था और एक जमावड़ा (गैदरिंग) करने के लिहाज से अपनी युनिवर्सिटी (एसएनडीटी) में ‘नाटक और रंगमंच’ पर एक द्विदिवसीय परिसंवाद आयोजित कर दिया, जिससे विभाग का नाम भी अलग तरह से रोशन होता, क्योंकि हमारे विश्वविद्यालयों में प्राय: ऐसा कुछ नहीं होता. देवेन्द्रराज अंकुर, भारत रत्न भार्गव, असग़र वजाहत, राजेन्द्र गुप्त, दिनेश ठाकुर, वामन केन्द्रे, केके रैना, नीना गुप्ता, कुलदीप सिंह, विजय कुमार…आदि का आना तय हो गया था. बंसी दा से फोन पर लगातार बात चल रही थी. वे हरचन्द आना चाह रहे थे, पर जम्मू वगैरह में कहीं बड़े आयोजन (इवेण्ट) के मंच-रूपायन (सेट डिज़ाइन) में व्यस्त थे. बता दूँ कि इस क्षेत्र में भी बंसी दा एक बड़ा नाम है. इसका अन्दाज़ा देश-विदेश में हुए बड़े-बड़े नामचीन आयोजनों (इवेण्ट्स) के मंच अभिकल्पक के रूप में किये उनके चन्द कामों की फेहरिस्त से हो जायेगा, ‘कॉमन वेल्थ गेम्स’ एवं ‘आईपीएल’ के उद्घाटन समारोह के मंच; ‘अपना-अपना उत्सव’ (1086-87), खजुराहो नृत्य महोत्सव (1980), अंतरराष्ट्रीय कठपुतली महोत्सव (1990), नेशनल गेम्स एवं युवा महोत्सव (2001), गणतंत्र दिवस समारोह, दिल्ली (2002), प्रशांत एशियाई पर्यटक असोसिएशन (2002), महाभारत उत्सव, हरियाणा (2000)… आदि. इसी प्रकार विदेशों में हुए भारत महोत्सवों में तैयार किये गये उनके शानदार मंच- फ्रांस (1984), स्विट्जरलैण्ड (1985), रूस (1988 एवं 2012), चीन (1994), थाइलैण्ड (1916), एवं एडिनबर्ग मेला (2000-2001), पुस्तक मेला, जर्मनी (2008)…आदि.
बहरहाल, वहाँ काम पूरा होने की स्थिति साफ नहीं हो रही थी. यूजीसी के बजट में मेरे पास बहुत पैसे भी न थे, जिसके चलते आर्थिक पक्ष पर मैं खुलके कुछ कह न पा रहा था. लेकिन संगोष्ठी शुरू होने के एक सप्ताह पहले एक रात उनका फोन आया– मैंने टिकिट करा लिया है, पहुंच रहा हूँ, और हमारी खुशी का ठिकाना न रहा. आने पर पता चला कि मुम्बई से लगभग दस सालों बाहर रहके जिस तरह मैं परेशान था और यह आयोजन विश्वविद्यालय के लिए बेहद उपयोगी होने के साथ ही मित्रों को जुटाकर जश्न करने का निहित माध्यम बन रहा था, उसी तरह काफी दिनों से नाक तक काम में डूबे बंसी दा को भी राहत की तलाश थी, जो उनके चेहरे पर ‘हर इक बेज़ा तकल्लुफ से बगावत का इरादा है’ बन कर मूर्तिमान हो रही थी.
बंसीजी और असगरजी के ठहरने की उत्तम व्यवस्था अपने आईएएस मित्र सतीश त्रिपाठी के माध्यम से चर्चगेट स्टेशन के ठीक पास हमारे विश्वविद्यालय से चलके पहुँच जाने जितनी दूरी पर स्थित सरकारी विश्रामालय में ही हो गयी थी. अंकुरजी और भार्गवजी तो एनएसडी रंगमंडल के नाट्योत्सव के लिए मुम्बई पधारे थे, जहाँ से हमने उन्हें लोक लिया था. शेष लोग मुम्बई के ही थे. सो, उनके आने-जाने–रहने की व्यवस्था व खर्च से हम मुक्त थे. असगरजी का व्याख्यान पहले सत्र में ही था– अंकुरजी के उद्घाटन-भाषण के बाद. दोपहर का भोजन करके उन्होंने दिल्ली के लिए राजधानी पकड़ ली थी. इस प्रकार कुल मिलाकर पहले दिन की शाम बंसी दा विश्रामालय में रहने वाले अकेले प्राणी रहे गये, तो दिन का सेमिनार पूरा करके उनके दोहाँस के बहाने हम सब चहलकदमी करते हुए बंसी दा को पहुँचाने विश्रामगृह तक चले गये. नीचे स्थित मशहूर होटल ‘सत्कार’ में चाय, आदि के लिए बैठने से जो बातें शुरू हुईं, वे खत्म होने का नाम न ले रही थीं. इसी बीच दूसरे दिन सेमिनार पूरा होने के बाद उनके एक लम्बे अनौपचारिक साक्षात्कार की बात भी तय हो गयी. फिर हम कमरे में गये और उन्हें खिलाके निकले, तो रात के 12 बज रहे थे…, पर यह मुम्बई के लिए आम बात होती है.
दूसरे दिन के आखिरी सत्र में बंसी दा का अध्यक्षीय भाषण था, लेकिन हर सत्र में वे गोया ‘फुल टाइम’ श्रोता बनकर अपनी आदत के मुताबिक एकदम पीछे ऐसे दत्तचित्त होकर बैठे रहते कि एम.ए. का कोई छात्र भी क्या बैठता! उनके सत्र का विषय नाटकों की मंचीय प्रस्तुति के आयाम पर था, जिसमें उन्हें अपनी थियेटर-शैली के सन्दर्भ में बोलना था. इन 25 सालों में उन्हें मंच से बोलते हुए मैंने बहुत बार सुना है. उनका बोलना बहुत समृद्धिशाली होता. इतनी विविध जानकारियों से भरा होता, जिनका इकट्ठे कहीं और मिलना असम्भव. और वे जानकारियाँ शुष्क सूचनाएं बनकर नहीं, विषय के ऐतिहासिक क्रम में उदाहरण के रूप में आतीं. उनके अपनी आँखों देखे अहवाल से जीवंत व निजी अनुभवों में पगी होतीं. उनके मौलिक विश्लेषणों से प्रासंगिक व रोचक होकर व्यक्त होते हुए सहजता से हृदयंगम होती रहतीं. नाटक वाले होकर और उनमें देह की गति व संचालन पर आधारित अभिनय की घोषित-पोषित प्रमुखता के बावजूद मंचों से बोलते हुए भावानुसार हस्त-मुद्राओं के अलावा अंग-संचालन की कोई क्रिया बिल्कुल नहीं होती. आपसी बातों में अवश्य वे अपनी थाप रखने की विविध अदाएं अपनाते, लेकिन समुदाय को सम्बोधित करते हुए नितांत शांत-स्थिर रहना उनके समृद्ध विचारों के साथ खूब फ़बता, यह उस मुकाम के परिणाम में भी बना होगा, जब बंसी कौल ने 1974 में रानावि के प्रशिक्षण से निकलने के बाद उसी संस्थान में अध्यापक के रूप में अपने कामकाजी जीवन (कैरियर) की शुरुआत की थी. उसे तो उन्होंने जल्दी ही छोड़ भी दिया था, लेकिन उससे बनी-निखरी वक्तृता का सुपरिणाम यह भी रहा कि व्याख्याता के रूप में भी उन्होंने देश के अलावा कई विदेश-यात्राएं कीं, जिनमें संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर लन्दन, फ्रांस, इटली, ग्रीस, चेकोस्लावाकिया, हालैण्ड-पोलैण्ड व श्रीलंका-सिंगापुर आदि प्रमुख हैं.
उनके भाषण के साथ आयोजन पूरा हुआ और अब वह ख़ास बात यात्रा-व्यय व मानदेय की, जिसने मुझे बहुत मुतासिर किया, धन-राशि बताने में आज भी शर्म आ रही है– तब तो पानी-पानी ही हो गया था, जब उनकी विमान-यात्रा का खर्च ही हमारे प्रति विशेषज्ञ के लिए नियत बजट के तीन गुना से ज्यादा था. वहाँ पूरी मण्डली जुटी थी. टिकिट देखते ही मेरे चेहरे पर उड़ती हवाइयों से उन्होंने जान लिया और बाहर निकलकर टहलने लगे. दो-चार मिनट बाद ऐसे बाहर बुलाया– जैसे कोई ख़ास बात याद आ गयी हो, पास जाने पर कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले– यार, चिंता मत करो, विश्वविद्यालयों के बजट का पता है मुझे. तुम्हारा जो भी बजट है, दे दो. मैं पैसे के लिए थोड़े आया हूँ. काम से ऊब चुका था, तुम मित्रों के साथ तफरीह करने आ गया और सचमुच बहुत मजा आ रहा है, और सिगरेट निकालते हुए गेट से बाहर हो गये. लौट के कमरे में आये और मैंने बन्द लिफाफा पकड़ाया, पर हाय रे कार्यालयीन मजबूरी कि ऐसे व्यकित के सामने भी प्राप्ति रसीद रखनी पड़ी- दस्तख़त के लिए, पता नहीं उस पर लिखी राशि उन्होंने देखी या नहीं, पर बिना खोले लिफाफे को जेब के हवाले कर लिया. मन में सवाल के साथ हूक उठी– क्या कोई प्रोफेसर ऐसा कभी करता…!
मण्डली बाहर निकली. ‘सत्कार’ की चाय-वाय के बाद उन्होंने जो कहा, उसमें जिस बंसी कौल के दर्शन हुए, उसका कोई सानी नहीं. विश्रामालय छोड़कर कहीं मालाड-कान्दीवली से दूर किसी डोंगरी पर रहने वाले अपने शिष्यों के पास जाने की मंशा उन्होंने बतायी और कहा कि साक्षात्कार अभी यहीं कर लो. हम हतप्रभ भी और उनके संवेदनात्मक सरोकार पर नतमस्तक भी. मैंने प्रस्ताव रखा कि मेरे घर के लिए उसी दिशा में चलना है. वहाँ चलकर ये लोग बात करेंगे, तब तक खाना बन जायेगा और खा-खिला के आपको हम डोंगरी पहुँचा आयेंगे. लेकिन उनका मन और गहरे था. वे खाना उन बच्चों के साथ खाना चाह रहे थे, जो अपनी कला के बल स्थापित होने के लिए संघर्षरत (स्ट्रगलर) थे. उनके साथ रात बिताकर उन्हें समझना, उन्हें ढाढस देना और शायद उनका वैचारिक-आर्थिक मार्गदर्शन करना चाह रहे थे. सो, वही हुआ. वही पहली बार उनका मेरे घर आना हुआ, जिसके बाद भी ‘पृथ्वी’ से करीब होने के चलते एकाध बार आने की याद है. चाय-पान के साथ लगभग दो घण्टे बातचीत चली. और दस बज रहे थे, जब उन्हें लेकर हम निकले. किसी तरह सूचना पहुँच गयी थी. डोंगरी के नीचे सडक पर 5-6 बच्चे मिले और उन्हें पाकर बंसी दा की खुशी के क्या कहने, विदा करके आते हुए हम तय नहीं कर पा रहे थे कि बच्चों के भाग्य को बखानें या बंसी दा के उच्छल भाव को– साहू को सराहौं कि सरहौं छ्त्रसाल कौ…गुरु: प्रदेयाधिकनीsस्पृहोर्थी, नृपोर्थिकामादधिकप्रदश्च…!
अब चलें बनारस, क्योंकि सेवामुक्ति के बाद मैं ज्यादा बनारस रहने लगा हूँ. और इस दौरान भी उनका बनारस आना एक बार ही हुआ– एनएसडी की बनारस शाखा में व्याख्यान के लिए. दिल्ली से चलने के पहले ही फोन आ गया और पहली ही शाम मैं पहुँच भी गया. थोड़ी ही देर में शहर के बुद्धिजीवियों-कलाकारों की अग्रणी पंक्ति में शुमार व्योमेशजी शुक्ल आ पहुँचे– सदल-बल और गंगाजल-राम(दाल)दाना के साथ- बंसी दा के दीवानों की कमी नहीं– इस शहर में हम जैसे दीवाने हजारों हैं…! शुक्लजी की हेला से कबीरचौरा मठ की परिक्रमा व महंतजी का चायातिथ्य भी ग्रहण करने का संयोग बना. बंसी दा ने महंतजी से पूरे उत्साह-उत्कण्ठा के साथ बातें कीं और कमरे में आने के बाद बिल्कुल निर्लिप्त-से लगे. उनका यह ‘पद्मपत्रमिवाम्भसा’ रूप पहली बार देखा. दूसरे दिन के अपने व्याख्यान में भी साग्रह बुला लिया और मैं आ भी गया– उनके ज्ञानमय-कलात्मक भाषण का मोह तो था ही, जो बख़ूबी फलीभूत हुआ. लेकिन क्या कहें बंसी दा के मूड को– मुझे भी बोलने के लिए अचानक उकसवा दिया. ना-ना करते जब मैंने बोलना शुरू किया, तो अपनी आदतन कुछ लम्बा भी होने लगा, जो वहाँ के संयोजक रतिशंकर त्रिपाठी को अनकुसा भी गया और उनके धन्यवाद-ज्ञापन में टुपुक भी आया. आयोजन के बाद बनारस के एक प्रियतर स्थल ‘बैंक्वेट उर्फ़ दालबाटी’ में सुस्वादु भोजन हुआ, जो व्योमेशजी एवं संतति व उनके नाट्यसमूह के साथ बेहद गुलज़ार रहा. आतिथेय फिर बंसी दा बने.
विदा लेते हुए मैंने गुज़ारिश की थी कि अगली बार थोड़ा पहले बतायें, ताकि हम ‘रंगशीर्ष’ के लिए कोई उपक्रम कर पायें– उसे आपके सानिध्य की कृतार्थता मिले. उन्होंने गर्मजोशी से कहा था– आना हो, का क्या मतलब? इसी के लिए आयेंगे और हमसे पूछिए मत– जब चाहे, रखके मुझे फोन कर दीजिए, इसके आगे की कथा सर्व विदित कोरोना-कथा है…, जिसमें फोन तो बहुत हुए, घण्टों-घण्टों बातें हुईं, जिनके परिणामस्वरूप उनके मार्गदर्शन व सांस्थानिक सहयोग से तीन-तीन आभासी आयोजन हुए, और उसी दौरान इस असाध्य रोग का पता भी चला…, जिसके आगे किसी की कुछ न चली, लेकिन बंसी दा की बावत उल्लेख्य यह नहीं कि ‘किसी की कुछ न चली’, वरन यह है कि आखिरी दम तक वे वही बने रहे– ‘न दैन्यं, न पलायनम्’, जिस पर बिल्कुल खरा उतरता है फिराक़ साहब का यह शेर –
उनके बज़्मे तरब में हयात बिकती थी, उम्मीदवारों में कल मौत भी नज़र आयी !
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सत्यदेव त्रिपाठी |