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Home » वैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा: अंचित

वैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा: अंचित

प्रभात प्रणीत के उपन्यास ‘वैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा’ को इसी वर्ष राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. समीक्षा कर रहें हैं अंचित.

by arun dev
December 19, 2023
in समीक्षा
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वैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा: अंचित
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वैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा
इतिहास का पाठ और राजनीति की दिशा
अंचित
prabhat praneet_

भारतीय समाज की अंतर्रचना ऐसी है कि पौराणिक, ऐतिहासिक और मिथकीय कथात्मक तीनों एक दूसरे में मिश्रित होते रहते हैं और लोक-निर्माण इसी अंतर्संवाद से होता है. सभ्यता के इतिहास में किसी सत्ता केंद्र ने (भी) किसी रूप में इनमें स्पष्ट विभाजन करने की कोशिश नहीं की है बल्कि इसका इस्तेमाल ही किया है और मिथ्या-चेतना का उत्पादन करने में प्रयोग भी. इसलिए मुख्यधारा में जो भी विमर्श निर्माण हुए, उनका कोई भी अन्वेषण बिना इस बात को स्वीकार किए गये, निकाला नहीं जा सकता है.

पश्चिमी दुनिया और वहाँ की ज्ञान परम्परा की तुलना में उपमहाद्वीपीय संस्कृति कुछ इस तरह से यहाँ तक पहुँची है और इसी तरह इसका प्रसार भी हुआ है. अभी के समय में संभवत: आधुनिक इतिहास में सबसे अधिक इस तरह का लेखन हो रहा है जहाँ इस्लाम-पूर्व तथा-कथित ऐतिहासिक और पौराणिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में नये, अधकचरे लेखन के ज़रिये राजनीतिक मतलब साधे जा रहे हैं. ज़ाहिर है इसका एक बाज़ार भी बन गया है. गल्प और इतिहास के बीच की रेखा को लगातार महीन करने की कोशिश तो हो ही रही है. जो नवीनतम युवा पीढ़ी है उसको यही घालमेल धर्म, संस्कृति आदि परिभाषाओं के ज़रिये दिया जा रहा है और इतिहास या मिथ भी जिन द्वन्दों के ज़रिये अपनी क्लिष्टता को प्राप्त करता है उनको समाप्त भी किया जा रहा है.

उत्तरआधुनिकता का ध्वंस ऐसे ही उपस्थित होता है. यह बहुत पुरानी बात है कि कला की सिद्धि बिना ख़तरे उठाये संभव नहीं है.  ऐसे  समय में यह ख़तरा उठाते हुए एक ऐसा विषय चुनना जिसको कई तरीक़े से सरलीकृत किया जा सकता है और उसके कुपाठ किए जा सकते हैं, बहुत हिम्मत का काम है और एक नया उपन्यासकार होते हुए प्रभात प्रणीत की पहली सफलता यही है कि वे ऐसा विषय उठाते हैं और उसका सफलतापूर्वक, साफ़गोई के साथ निर्वाह करते हैं. सबसे पहले यही बहादुरी, उपन्यास की ओर आकृष्ट करती है और उसकी गंभीरता रेखांकित करती है. सजग रूप से लेखक इस बात को उपन्यास शुरू होने से पहले इस तरह कहता है,

“वैशालीनामा उपन्यास है, इतिहास नहीं. लेखक की कल्पना ही इसमें पल्लवित हुई है. इसमें संदेह नहीं कि इस कथा की प्रेरणाभूमि पौराणिक है”.

यह इसलिए कोई साधारण बात नहीं है क्योंकि यह लेखक की पक्षधरता का स्पष्ट निर्धारण करती है और उन पाठों के ख़तरे से बचाती है, जिनसे चारों ओर से वर्तमान साहित्य घिर गया है. यही एक बात भी उपन्यास पर गंभीर दृष्टि की माँग करती है और उसको सतही और संस्कृति-उद्योग की एक वस्तु होने से बचाती है.

दूसरी बात यह है कि, इन दिनों इतिहास को देखने का एक प्रचलन चला है जिसमें इतिहास वह दीवार बन गया है जिसकी ओट में वर्तमान के गुनाह छिपा दिए जाते हैं.  प्रभात इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं. उपन्यास की शुरुआत में उसी भूमिका में वे उपन्यास के उद्देश्य के बारे में कहते हैं कि,

“इसका उद्देश्य मानव समाज के उज्ज्वल वर्तमान और उज्ज्वलतर भविष्य के लिए प्रासंगिक मूल्यों का आह्वान करना है”.

किसी भी सजग लेखक का यही काम है कि वह लगातार समाज की विकास प्रक्रिया में समतामूलक मूल्यों की निर्माण प्रक्रिया में योगदान दे क्योंकि उसका प्रतिरोध यही है, यहीं से लेखक के मुक्ति के स्वप्न की कल्पना को खिलना है. एक नया लेखक जब इस तरह से खुलकर अपना पक्ष सामने रखता है, वह एक द्वंदात्मक उम्मीद सामने रखता है. आगे इसको कितना फलित होना है, इसकी प्रत्याशा भी सुखद है.

उपन्यास का केंद्र एक ऐसी कथा को लिए हुए है जिसके स्रोत की चर्चा कहीं एक-आध पंक्ति में किसी बहुत पुराने टेक्स्ट में मिले तो मिले, हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में तो कहीं नहीं है. अन्य भाषाओं और विषयों में भी यह कथा शायद ही कहीं आयी है. फिर वैशाली पर लिखना भी एक कठिन काम है क्योंकि वैशाली पर हिन्दी में कई उपन्यास हैं और जहाँ तक क्लासिकी की बात है, आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने जो वैशाली-केंद्रित उपन्यास के संदर्भ में जो परिमाण स्थापित किए हैं, वे संपूर्णता लिए हुए हैं और इसलिए जितनी कोशिशें हुई हों, वह ऊँचाई फिर छूई न जा सकी है. शायद ही कभी छुई जा सकेगी. शास्त्री जी का काम ही मानक बन सकता है क्योंकि किसी कृति को देखने का एक तरीक़ा यह भी है कि उसको किसी क्लासिक के समक्ष रख कर देखा जाये. लेकिन एक बात जो यहाँ अलग है वह यह है कि उपन्यास के केंद्र में तो वैशाली है और उसके बनने की एक कहानी भी लेकिन यह महात्मा बुद्ध की कहानी नहीं है. यह किसी नगरवधू की कहानी नहीं है, न आम के बगीचों की, न केले के पेड़ों की.

वैशाली की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में वर्ण-व्यवस्था आधारित समाज से संबंधित इतिहास, शोषण की एक ऐसी गाथा है जिसको अभी और स्वरों की ज़रूरत है और जिसका अधिकांश बड़ी पुस्तकों में भी फ़ुटनोट की तरह भी नहीं आया है. चूँकि प्रभात अंधकार में रहे एक बहुत बड़े पक्ष की ओर कदम बढ़ा रहे हैं इसलिए यहाँ मगध उस तरह नहीं जैसे हिन्दी में पहले आया है, इसलिए वैशाली उस तरह नहीं जैसे पहले आयी है. इसलिए कहा जा सकता है कि जो बना है, वह प्रभावित भी नहीं है और जो है उससे उत्पादित भी नहीं और इसलिए परंपरा में कुछ जोड़ता है, उसमें ज़रूरी सुधार करता है, उसको थोड़ा और नया करता है और उसके गठन को थोड़ा विस्तार देता है. इन अतिरेकों में बात नहीं होनी चाहिए, लेकिन इस कथा प्रसंग का अभी तक छिपा रह जाना और वैशाली के संदर्भ में इन संघर्षों का स्पष्ट रूप से मौजूद न होना भी इन उद्यमों के लिए प्रेरित करता है.

कोई भी कथा पहले उसके उत्पादन की ऐतिहासिकता को केंद्र में रखकर पढ़ी जानी चाहिए और इससे जुड़ी बात यह कि यही ऐतिहासिकता उसकी प्रासंगिकता तय करेगी. “वैशालीनामा” को कैसे देखना है, इसके मूल में यही दो प्रश्न हैं. इन प्रश्नों का अन्वेषण और इसमें मौजूद ऐतिहासिकता की परिभाषा, कृति की राजनीति को तय करेगी.

न सिर्फ़ उपन्यास की कथा पहले नहीं सुनी गई है, पुराने समय में अवस्थित होते हुए भी, उपन्यास के सारे प्रसंग और सभी विमर्श, वर्तमान समय में प्रासंगिक हैं और उन्हीं समस्याओं और अंतर्विरोधों का अन्वेषण करते हैं जिनसे हमारा समाज अभी भी ग्रसित है और जूझ रहा है. भारतीय समाज की क्लिष्ट मूल संरचना इस उपन्यास में कठघरे में है और किताब सामंतवादी समाज के निर्माण के केंद्र में रहे सभी कारकों को समझने, उनसे बहस करने और उनका समकालीन प्रभाव देखने की कोशिश करती है. बहुत बुनियादी बात है कि संपत्ति-स्वामित्व को मार्क्स एवं अन्य दार्शनिकों ने शोषण के सबसे बड़े कारणों में से माना है और सामंती समाज में स्वामित्व का अर्थ ही भू-स्वामित्व के रूप में आया है. न सिर्फ़ वैशाली के ज़रिये, जाति-व्यवस्था से ग्रसित समाज का एक चित्र उपन्यास प्रस्तुत करता है, बल्कि उस समाज की रूढ़ि, उसका ज़हर किस तरह अभी के समाज में भी पैबस्त है, और बहुत थोड़ा बदला है, इसके पक्ष में भी तर्क करता है. केंद्र में जाति प्रथा संबंधित बहस है और दूसरे-तीसरे अध्याय से ही कथानक इस प्रश्न को लेकर आगे बढ़ता है- ऋग्वेदीय मत, ब्राह्मणवादी मत, और अंत में इसके ख़िलाफ़ एक मनुष्य का आधारभूत हक़, तीनों की प्रस्तुति उपन्यास को एक बड़ा फ़लक देती है और एक वैज्ञानिकता प्रदान करती है. प्रभात प्रणीत का मूल प्रश्न यही है –

“शक्ति, संसाधन को केवल कुछ वर्गों तक सीमित रखना और बाकी वर्गों को इससे वंचित रखना किस तरह से तर्क संगत है?”

सिर्फ़ यही एक प्रश्न मानव-सभ्यता के इतिहास को संपूर्णता से परिभाषित कर सकता है. राज्य-प्रशासन, सैन्य-प्रशिक्षण, शक्ति में निहित नैतिकता की विश्वसनीयता और सत्ता-संरचनाओं की नाड़ियों में लहू की तरह फैला हुआ षड्यंत्र बहुत ही विस्तार से आते हैं और लेखक इस बात का श्रेय ले सकता है कि उसने इन विषयों पर अपने मत, किसी व्याख्यान के ज़रिये प्रस्तुत नहीं किए बल्कि उनको मूल कथा में ही इस तरह गुथा है कि इन प्रश्नों से जूझना उसके पात्रों के जीवन उद्देश्य से अलग नहीं है और उनके यथार्थ पर गहरा असर डालता है. एक नये लेखक के लिये यह बहुत बड़ी चुनौती थी कि वह कहानी की प्रमुखता को बरकरार रखे और उसे बोझिल और आख्यानात्मक होने से बचाए. प्रभात इसका निर्वाह कर लेते हैं.

प्रतिरोध के भी परिमाण समझने पड़ते हैं और उसकी सीमा और उसके महत् के बारे में बहुत सोचना पड़ता है. इतिहास का विकास निर्द्वंद प्रक्रिया नहीं है और यह विकास किसी एकपक्षीय अन्वेषण से सही अभिव्यक्त नहीं हो सकता. लेखक या किसी किताब की पक्षधरता को पहले इन परिमाणों के ज़रिये ठीक से देखना होगा. यह बात क्रांति पर भी लागू होती है. सही क्रांति, संरचना को तोड़ने में नहीं, उसकी जगह एक बेहतर संरचना को स्थापित करने में है और इस प्रक्रिया के बारे में यही तयशुदा है. फिर यह भी समझना ज़रूरी है कि प्रतिरोध की मुख्यधारा जो सत्ता से लड़ती है उसको भी अनेक बार कोर्स-करेक्शन की ज़रूरत पड़ती है और यह अंतर्धारा उपन्यास में सत्यरथ के पात्र के ज़रिये दिखाई देती है.

युवराज नाभाग और सुप्रभा के संघर्ष अपनी जगह हैं और उनकी क्रांतिकारिता पर कोई संशय शायद ही किसी गुणी पाठक को हो लेकिन सत्यरथ के किरदार को ख़ास देखने की ज़रूरत है जिसकी यात्रा एक नैसर्गिक अराजकता से शुरू तो होती है लेकिन बेहतरी के लिए निरन्तर संघर्ष के संकल्प और उसके प्रति चेतना निर्माण की प्राप्ति में समाप्त होती है. बढ़िया साहित्य, हमेशा आगे की ओर इंगित करता है और उसकी श्रेष्ठता को देखने का एक तरीक़ा यह भी हो सकता है कि यह देख जाये कि वह समय से किस तरह से संवाद करता है. तो वर्ण-व्यवस्था से जूझने का, उसका भौतिक और वैचारिक असर समझने और ख़त्म करने का आधार और योजना क्या हो सकती है इसकी ओर एक इशारा उपन्यास करता है.

सत्यरथ यह विभाजन समझता है और इस विभाजन से पैदा हुई सीमाएँ भी. उसको चेतना के विकसित होने से पहले होने वाले प्रतिरोध की ज़रूरत और उसकी विकृति दोनों का सही अंदाज़ा है और स्वीकार है. यही द्वन्द्व न सिर्फ़ उसके उपाय को वैज्ञानिक बनाता है बल्कि व्यवहारिक भी बनाता है और आगे का मार्ग प्रशस्त करता है. चेतना-निर्माण का रास्ता साफ़ करता हुआ सत्यरथ कहता है,

“हमारा संसार तब बदलेगा जब हम जागृत होंगे, हम अपना युद्ध स्वयं संचालित करेंगे, उस संसार वाले हमें भी मिटायेंगे किंतु हम इसी तरह मिटते, मिटते अपने संसार को जागृत कर चुके होंगे और एक समय आएगा जब हम जीतेंगे और जब जीतेंगे तो यह पूरा संसार हमारा होगा. किंतु तब तक अपना युद्ध स्वयं हमें ही जारी रखना होगा”.

अंत में, यह सोचने वाली बात है कि नया कई बार अधैर्य से भी चिन्हित होता है और अधैर्य, अतिरिक्त की ओर लेकर जाता है.  उपन्यास की सफलता सिर्फ़ उसके विमर्श की सार्थकता से तो तय हो सकती है लेकिन प्रभात की यात्रा को नज़दीक से देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि उनके लेखन का सबसे मज़बूत पक्ष उनकी ‘स्टोरी टेलिंग’ है और पठनीयता के मामले में अतिरिक्त भी कुछ नहीं, बोझिल भी कुछ नहीं.

यह उपन्यास ख़ुद को पढ़वा लेता है क्योंकि इसकी भाषा क्लासिकी और आधुनिकता के बीच एक संतुलन हासिल करने में कामयाब हो जाती है. यह कहा जाना चाहिए कि कई संदर्भों में प्रभात ने एक साथ अपना दावा पेश किया है और हिन्दी-उपन्यास की समृद्ध परंपरा से संवाद करते हुए उसी ज़मीन पर नया कुछ उगाया है. यह ख़ुद में छोटी बात नहीं है. वर्तमान समय में एक प्रवृति यह भी है कि ग़लत को उँगली दिखा कर ग़लत कहने की “मूर्खता” से लोग फ़िलहाल अनेक वजहों से बच रहे हैं और प्रक्रिया से अधिक ‘इवेंट’ को पेश करने की फेटिश में फँसे हुए हैं.

प्रक्रिया से इतर इवेंट की ओर जाना न सिर्फ़ दृष्टि को सीमित करता है, समस्या को उसकी ऐतिहासिकता से अलग करते हुए समाधान को भी वैज्ञानिकता और क्रांतिकारिता से अलग करता है. ऐसे में, द्वंदात्मकता और तार्किक समाधान का आग्रह, एक ऐसी ईमानदारी से बना है जो अनुकरणीय है और अनूठा है. क्या समानता की चाहत ही लोकतांत्रिकता के लिए प्रथम शर्त नहीं है? क्या ये आग्रह ही किसी लेखक के सही अर्थों में समकालीन और प्रासंगिक होने की शर्त नहीं है? क्या किसी किताब की महानता का प्रथम बीज यहीं नहीं है?

वैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा यहाँ से प्राप्त करें.

अंचित
1990

दो कविता संग्रह प्रकाशित– ‘साथ-असाथ’ और ‘शहर पढ़ते हुए’
anchitthepoet@gmail.com

Tags: 2023अंचितप्रभात प्रणीतवैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा
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Comments 2

  1. Sunil Kumar Singh says:
    1 year ago

    इस समीक्षा पर मेरी अपनी समझ है कि यह इस पुस्तक को न सिर्फ पढ़ने को प्रेरित करती है बल्कि इसे पढ़ने की एक दिशा देती है।आजकल प्राय:
    जब ऐतिहासिक विषयों पर उपन्यास लिखी जाती है उसे प्राय:ऐतिहासिक दस्तावेज समझ लेते हैं।यह लेख में इस बात की विस्तारपूर्वक चर्चा कर पाठकों को सचेत कर आपकी सार्थक पहल है।सटीक समीक्षा के लिए साधुवाद।लेखक को बधाई।

    Reply
  2. Farid Khan says:
    1 year ago

    यह समीक्षा निरंतर यह बता कर उपन्यास पढ़ने को उकसा रही है कि इसमें वर्तमान की झलक है. अगर इसमें वर्त्तमान की झलक है तो स्पष्ट है कि यह उपन्यास आज की राजनीति से भी टकराती है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है. बहुत बहुत शुक्रिया अंचित इस उपन्यास से परिचय करवाने के लिए.

    Reply

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