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Home » तीज-त्योहार हिंदी साहित्य में कहाँ हैं ? अपूर्वानंद

तीज-त्योहार हिंदी साहित्य में कहाँ हैं ? अपूर्वानंद

होली हो, दीवाली हो या कृष्ण जन्माष्टमी आगरा के 18 वीं सदी के कवि नज़ीर अकबराबादी की लिखी कविताएँ ही आख़िरकार हमारी मदद करती हैं. ईद पर उर्दू में बहुत कुछ लिखा मिल जाता है. हिंदी साहित्य में इन त्योहारों को लेकर इतनी उदासीनता क्यों है और इसका कारण क्या है? आलोचक अपूर्वानंद ने इसके लगभग सभी आयामों को अपने इस आलेख में समेटा है. प्रस्तुत है.

by arun dev
May 7, 2022
in आलेख
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तीज-त्योहार हिंदी साहित्य में कहाँ हैं ? अपूर्वानंद
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तीज-त्योहार हिंदी साहित्य में कहाँ हैं ?

अपूर्वानंद

ईद मुबारक
हमको,
तुमको,
एक-दूसरे की बाँहों में
बँध जाने की
ईद मुबारक.

बँधे-बँधे,
रह एक वृंत पर,
खोल-खोल कर प्रिय पंखुरियाँ
कमल-कमल-सा
खिल जाने की,
रूप-रंग से मुसकाने की
हमको,
तुमको
ईद मुबारक.

और
जगत के
इस जीवन के
खारे पानी के सागर में
खिले कमल की नाव चलाने,
हँसी-खुशी से
तर जाने की,
हमको,
तुमको
ईद मुबारक.

और
समर के
उन शूरों को
अनबुझ ज्वाला की आशीषें,
बाहर बिजली की आशीषें
और हमारे दिल से निकली –
सूरज, चाँद,
सितारों वाली
हमदर्दी की प्यारी प्यारी
ईद मुबारक.

हमको,
तुमको
सब को अपनी
मीठी-मीठी
ईद-मुबारक.

ईद के मौके पर हिंदी रचना की खोज के क्रम में अध्यापक मित्र तरुण कुमार ने केदारनाथ अग्रवाल की यह कविता भेजी. अंदाज पुराना लग सकता है. कुछ को इसमें तुकबंदी की शिकायत भी हो सकती है. लेकिन इस कविता में जिस निर्दोष, निश्छल सद्भाव की अभिव्यक्ति हुई है, वह क्यों हमें अजनबी लगने लगा है? सूरज, चाँद, सितारोंवाली हमदर्दी की मीठी ईद पर मन में यह उत्साह सहज ही क्यों नहीं जगता?

जन्माष्टमी हो, होली या दीवाली, प्रायः सार्वजनिक रूप से ऐसी ग़ज़लें, नज्में या पंक्तियाँ उद्दृत की जाती हैं जो मुसलमान लेखकों की हैं और इन पवित्र हिंदू अवसरों की महिमा गाती हैं. ईद बीत गई. मैं एक कविता, एक कहानी की तलाश कर रहा हूँ, हिंदी की जो ईद के उल्लास को व्यक्त कर पाती हो. प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ को छोड़कर. मुश्किल हुई. तरुणजी ने यह एक कविता भेजी.

कह सकते हैं कि मेरी खोज में एक तरह की संकीर्णता थी. मैं हिंदी के हिंदू लेखकों में ऐसी रचना की तलाश कर रहा था. प्रेमचंद में भी अगर ‘ईदगाह’ को छोड़ दें तो ऐसे पर्व-त्योहारों का वर्णन नहीं के बराबर है. सिर्फ मुसलमानों के पर्वों की ही बात क्यों करें, ईसाइयों, पारसियों, बौद्धों, जैनों या आदिवासियों के पर्वों का वर्णन भी नहीं के बराबर मिलता है.

क्या इससे जागरूक हिंदू समाज में, क्योंकि लेखक तो दूसरों के मुकाबले अधिक जाग्रत है ही, व्याप्त उस उदासीनता का पता चलता है जो उसकी अपने से अलग, दूसरे समाजों को लेकर है? या क्या यह कह सकते हैं कि उदासीनता नहीं उसकी विवशता है. हमारे जीवन एक दूसरे से इतने कटे हुए, अलग-अलग दायरों में कैद हैं कि एक दूसरे के बारे में जानने का अवसर ही नहीं मिलता? यह अपनी इच्छा-अनिच्छा से परे है. हम उसी दुनिया के बारे में लिख सकते हैं जिसमें हम रहते या जानते हैं. क्या लेखक पर यह अतिरिक्त जिम्मेदारी डाली जा सकती है कि वह नए समाजों के बारे में जानकारी इकट्ठा करे और फिर उनके विषय में लिखे? जैसा अमृतलाल नागर किया करते थे?

आलोचक, अध्यापक मित्र गोपेश्वर सिंह इस ईद पर अपने गाँव में थे. हिंदुओं, मुसलमानों की ज़िंदगियाँ हमेशा ही इतनी बँटी हुई नहीं थीं. उन्होंने अपने उन दिनों को याद किया जब जीवन साझा था:

“गाँव में हूँ और आज ईद है. लगभग 40-45 वर्षों बाद यह संयोग बना है.
बचपन से लेकर कालेज के दिनों तक के आसपास के गाँवों-कस्बों के हमारे अनगिनत दोस्त याद आ रहे हैं. नूर हसन, मो. वकील, पेशकार, तफ्फजुल, खालिद, रहमान, शाहिद, खुर्शीद समेत दर्जनों दोस्तों के घर हम सेवइयाँ खाने जाते थे. उनकी माँएँ तरह-तरह की स्वादिष्ट सेवइयाँ खिलातीं. हम ख़ूब खाते. अपनी क्षमता से दोगुना खा लेते. फ़िर भी मन नहीं भरता. हमारे पिता जी और चाचा लोग मुसलमानों के घर का बना नहीं खाते थे. उनके लिए उनके मुसलमान दोस्तों के यहाँ से सूखी सेवइयाँ, सूखे मेवे, चीनी आदि चीज़ें आती थीं. तब सेवई बनाने की विधि हमारे घर की औरतों को मालूम नहीं थी. हमारे घरों में बढ़िया सेवई नहीं बन पाती थी (अब तो सेवई भी हमारे भोजन का एक ज़रूरी आईटम है). हमारे घरों से ईद के रोज़ सभी हिंदू परिवारों से अपने मुसलमान दोस्तों के यहाँ दूध जाता था. और उधर से सेवई के साथ दूसरी सामग्री आती थी. होली के दिन हम हिन्दू परिवारों के यहाँ से भी भर भर कठौते पुए पकवान मुसलमान दोस्तों के यहाँ जाते थे.

बड़े बुजुर्ग लोग मुसलमान दोस्तों के यहाँ भोजन नहीं करते थे, हलवाई का बनाया खाते थे लेकिन हम स्कूल-कालेज के छात्रों के ऊपर कोई पाबंदी नहीं थी.‌ हमारे मुसलमान दोस्तों की माँ-चाचियाँ हमारी भी माँ-चाची थीं. हमारे घर की औरतें भी मुसलमान दोस्तों की अम्मा-चाची थीं. हम जब एक-दूसरे घर जाते, वे अपने बच्चों की तरह ही हमें खिलाती थीं और घर परिवार का हाल समाचार लेती-देती थीं.”

इसमें छुआ छूत है और प्रेमचंद इसकी जड़ हिंदू समाज के जातिवाद में देखते हैं. फिर भी गाँव में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आत्मीयता या एक दूसरे एक पवित्र अवसरों को लेकर लिहाज था. हिंदुओं को मुसलमानों के पर्व और मुसलमानों को हिंदुओं के त्योहार का खयाल था. वह खैर से गुजरे सिर्फ यह नहीं, वह सहल हो सके, इसके लिए दूसरा पक्ष अपनी तरफ से कोशिश भी करता था.

गोपेशजी के बाद सुलभजी (हृषीकेश सुलभ) से बात हुई तो उन्होंने भी अपने गाँव को याद किया. होली में कोई मुसलमान अपनी गाय का थन नहीं छूता था क्योंकि हिंदुओं को ज्यादा दूध की दरकार थी. वे पहले दुह लें! यही ईद में हिंदू करते थे. मुसलमान सेवई बनाते हैं. सो उन्हें दूध चाहिए. पहले वे दुह लें. ऐसी ही साझा यादें ताजिया को लेकर भी हैं. हिंदू भी उसमें गतका खेलते थे. एक ने गोपेशजी को लिखा, हम भी ‘हसा-हुस्सै’ करते खूब मातम करते. यह तो होश आने पर मालूम हुआ कि वे हसन और हुसैन थे.

हिंदुओं और मुसलमानों के बीच राह-रस्म बावजूद छुआछूत के, और वह भी हिंदुओं की तरफ से, चली आती थी. अमृतलाल नागर ने अपने बचपन की यों याद की है:

“तीज-त्योहारों में हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ दिखलाई पड़ते थे….. मुहर्रम के दस दिनों में हमारे यहाँ ख़ास तौर पर आशूरे के दिन बड़ी चहल-पहल रहती थी. ताजियों के जुलूस चूँकि सामने से ही निकलते थे, इसलिए देखने के वास्ते बड़े घरों की मुस्लिम महिलाएँ हमारे यहाँ आमंत्रित की जाती थीं. …पर्दा इतना सख्त की डोलियाँ और फीनस जीने पर चढ़कर ऊपर आती थीं. …मेरी दादी और माँ हाथ जोड़कर बेगमात का स्वागत करतीं और उनकी तरफ से सलाम पेश होते थे. मुहर्रम में एक और चीज़ बना करती थी जिसे गोटा कहा जाता था. उसमें गरी के लच्छे और धनिए के दानों की तो याद है बाक़ी और क्या-क्या पड़ता था, सो भूल गया. होली पर मुसलमान भी होली मिलने आते थे. हमें उनसे रुपए मिलते थे.”

ये गुजरे ज़माने की यादें हैं. लेकिन अभी हाल में प्रकाशित हृषीकेश सुलभ के उपन्यास ‘दाता पीर’ को पढ़कर लगता है कि इस दूरी को पाटा जा सकता है. यह उपन्यास मुसलमान समाज के भी उस तबके की ज़िंदगी पर लिखा गया है जो हमारी आपकी निगाह में आ पाए, इसकी संभावना बहुत कम है. कब्र खोदनेवालों या पशुओं के चमड़े का कारोबार करनेवालों को हम कितना जानते हैं? सुलभजी ने इस समाज में भी औरतों की ज़िंदगी को देखने की कोशिश की है. सारा राय के नए कहानी संग्रह में भी कई कहानियों में मुसलमान पात्रों और उनकी जिंदगियों को विषय बनाया गया है. राकेश कायस्थ के असाधारण उपन्यास ‘रामभक्त रंगबाज’ के केंद्र में भी मुसलमान चरित्र और जीवन स्थितियाँ हैं. लेकिन संख्या और परिमाण के लिहाज से यह बहुत कम है. और यह तब जब हिंदी का साहित्यिक संसार प्रायः धर्मनिरपेक्ष है. उसकी दृष्टि पर संकीर्णता का आरोप नहीं लगाया जा सकता. फिर इस अनुपस्थिति या कहें अल्प उपस्थिति का कारण क्या हो सकता है?

वही, जो सुलभजी ने अफ़सोस करते हुए कहा, पारस्परिक जीवनानुभवों की कमी. अगर आप एक दूसरे के घर नहीं गए, हरनी-मरनी में साथ नहीं रहे, तजुर्बे कैसे मिलेंगे? साथ रोए-हँसे नहीं, झगड़ा-दोस्ती नहीं की, साथ बेमतलब, यों ही वक्त नहीं गुजारा तो एक दूसरे की ज़िंदगी का पता कैसे चलेगा?

‘पंच परमेश्वर’ का जिक्र अक्सर एक नीतिकथा के रूप में होता रहा है. कहानी उससे कहीं ज़्यादा है.साझा हिंदू-मुसलमान जीवन का मतलब क्या होता है, वह उन दोनों के बचपन की कहानी से मालूम होता है:

“इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे, और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे. अलगू ने गुरू जी की बहुत सेवा की थी, खूब प्याले धोये. उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी. अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे. उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था. वह कहते थे कि विद्या पढ़ने ने नहीं आती; जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से. बस, गुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए. अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेना कि विद्योपार्जन में मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी, तो कैसे आती?”

गुरुजी की कृपादृष्टि का मतलब उनका सोंटा. जुम्मन ने अपने पिता जुमराती शेख के सोंटे से विद्या पाई, अलगू उसके बावजूद अगर अशिक्षित रह गए तो यह उनका नसीब था:उनके पिता के मुताबिक़.

या साझा ज़िंदगी के मायने वह हैं जो हमारे दोस्त अली जावेद के स्कूल की उस याद से मालूम होते हैं जिसमें नन्हें से मौलवी साहब उछल उछलकर लक्ष्मण-परशुराम संवाद सस्वर पढ़ाते थे और अगर कोई मानस पढ़ते वक्त चूक करे तो उनका सोंटा उसकी खबर लेता.

मुझे अपने बचपन के खेल की याद है जिसमें ‘आबे जमजम के पानी’ से नहाने पर ही किसी को अपने गोल में शामिल किया जाता था. मुसलमानबहुल मोहल्ले के इस खेल में कभी हमें यह ख्याल न आया कि गंगाजल की जगह ‘आबे जमजम’ क्यों! या अम्मी का सुनाया वह किस्सा: गोश्त लाने को भेजे गए बेटे ने जब झोला भर गोश्त लाकर अम्मी को थमाया तो उनका माथा ठनका. इतने कम पैसे में इतना सारा! मालूम हुआ, ‘बड़े’ का है. सस्ता जो हुआ करता था! फेंककर बेटे को स्नान करा के शुद्ध किया गया.

अगर ऐसे अनुभव नहीं हैं आपके पास तो न आप कविता लिख सकते है, न कहानी. कहानी या कविता धर्मनिरपेक्ष आग्रह के कारण अगर लिखी जाएगी तो बेजान होगी. नोंक पलक दुरुस्त करके ज़िंदगी को पेश करना रचनाकार का काम नहीं. ‘दाता पीर’ में मुसलमान धोखेबाज भी है, क्रूर भी. धोखा देता भी है, धोखा खाता भी है. उदार भी है, चतुर भी. झूठ भी बोलता है, छल-छन्द भी करता है. असल बात है ज़िंदगी में लेखक की दिलचस्पी और भागीदारी.

राजनीति दुरुस्त होने के बावजूद प्रायः देखा जाता है कि अपने रिश्तों में कोई विविधता नहीं है. विचार तो है, व्यवहार नहीं. फिर किस्से कहाँ से आएँ?

कहा जा सकता है कि मुसलमान हिंदुओं के बारे में कहीं ज्यादा जानते हैं. स्वाभाविक भी है. आखिर एक हिंदू वातावरण ने उन्हें घेर रखा है. राम, कृष्ण, सीता आदि की कहानियाँ उन्हें ज़रूर मालूम होंगी. कितने हिंदू कर्बला का किस्सा जानते हैं, कहना कठिन है. हालाँकि प्रेमचंद ने ‘कर्बला’ नाटक ही लिखा है और मैथिलीशरण गुप्त ने ‘काबा और कर्बला’ काव्य की रचना की है.

हिंदुओं की संख्या सार्वजनिक स्थलों में और हर जगह अधिक होने के कारण मुसलमानों से उनका आचार-व्यवहार भी अधिक होगा. जबकि एक हिंदू चाहे तो पूरा जीवन बिना एक मुसलमान से सीधे लेन देन के गुजार दे सकता है. उसे किसी बात की कमी महसूस न होगी. एक वक्त था जब मुसलमान मनिहारिनें और मनिहार हमारे मोहल्लों की फेरी लगाया करते थे. हमारी माँएँ और बहनें उनसे अपनी पसंद के झुमकों, बिंदियों, चूड़ियों आदि की फरमाइश किया करती थीं. अब मुसलमान चूड़ी बेचनेवाले को हिंदुओं की गली में आवाज़ लगाने के पहले सौ बार सोच लेना चाहिए. इंदौर में तस्लीम ने हिंदू गली में चूड़ी बेचने की कीमत हिंदुओं से मार खाकर, एक झूठे मुकदमे में महीनों जेल में गुजारकर चुकाई. हम जगह-जगह हिंदुत्ववादी नेताओं और गिरोहों को हिंदू औरतों और मर्दों को शपथ दिलाते देख रहे हैं कि वे किसी मुसलमान की दूकान से कुछ भी नहीं खरीदेंगे. गुजरात में एक मुसलमान के होटल के उद्घाटन के पहले उस इलाके के हिंदू जमा हो गए और उसे बंद करने की माँग करने लगे. कर्नाटक में हिंदू त्योहारों पर मंदिरों के आसपास मुसलमान दुकानों, ठेलों को जबरन हटा दिया गया. दिल्ली के उत्तम नगर में मुसलमान फलवालों पर हमला किया गया. यानी वे सारे मौके खत्म किए जा रहे हैं जिनमें हिंदू वास्तविक मुसलमान से मिल सकते हैं. उससे दो चार बात कर सकते हैं,भले ही मोल तोल करते हुए.

ऐसी साझा जगहें या अवसर जितने कम होते जाएँगे, दूरियाँ उतनी बढ़ती जाएँगी. हिंदू और मुसलमान एक दूसरे से असली जीवन के कारोबार में नहीं मिलेंगे तो वे उनके भीतर के व्यक्ति को या मनुष्य को कैसे पहचानेंगे? फिर उन्हें यह कैसे मालूम होगा कि हर मुसलमान अलग-अलग है, हर किसी की अपनी खासियत है. फिर दोनों एक दूसरे के लिए अवधारणा या अफवाह से अधिक कुछ न होंगे.

इस दूरी के कारण ही हिंदू के लिए भगवा ध्वज तो धार्मिक चिह्न होगा लेकिन हरा झंडा उसे पाकिस्तानी झंडा मालूम देगा. भगवा तो स्वाभाविक रूप से भारतीय है लेकिन चाँद सितारे वाला हरा झंडा भारतीय नहीं है!

जीवन में शिरकत हो तभी आप फणीश्वरनाथ रेणु की तरह ‘रसूल मिसतिरी’ की कहानी कह सकते हैं. और उस कहानी में रसूल मियाँ के गँवारू शहर में और भी नाम हैं जो रसूल की तरह के हों:

“बहुत कम अर्से में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गए हैं. आशा से अधिक और शायद आवश्यकता के भी अधिक.
…..
गफूर मियाँ का चमड़े का गोदाम ‘तस्वीर-महल’ हो गया है. … खलीफा फरीद की फटफटानेवाली फटीचर सिंगर मशीन और उनकी कैंची की काट-छाँट के दिन लद गए हैं. माडर्नकट-फिट’ के लत्तू मास्टर का ज़माना है.
…
लेकिन सदर रोड में-उस पुराने बरगद के बगल में रसूल मिस्त्री की मरम्मत की दूकान को तो जैसे ज़माने की हवा लगी ही नहीं.”

रेणु रसूल मिस्त्री की उस दूकान का किस्सा तो सुनाते ही हैं, उसके बेटे रहीम, रहीम की अम्माँ और रसूल की बीवी, जो अपने पोते करीम के लिए ‘खित खित बुढ़िया’ है और उसकी पतोहू की कहानी भी कहते हैं. हमारा लेखक रसूल मियाँ के घर की झाँकी भर नहीं देता.

जैसे रेणुजी के रसूल मिस्त्री वैसे अमृतलाल नागर के हाजी कुल्फीवाले और नज़ीर मियाँ के किस्से. आप जब तक अपने चरित्रों, पात्रों के जीवन में शामिल न हों, उनका मज़ा न लें,किस्सा बावजूद आपकी सदिच्छा और सदाशयता के सच्चा न होगा.

‘हाजी कुल्फ़ीवाला’ की शुरुआत ही देखिए. ज़ुबान से ही वह दिलचस्पी झलकती है,

“एक है चौक नखास का इलाक़ा और एक हैं हाजी मियाँ बुलाकी कुल्फ़ीवाले. पिचासी-छियासी बरस की उमर है; दोहरा थका बदन है. पट्टेदार बाल, गलमुच्छे और आदाब अर्ज करते हुए उनके हाथ उठाने के अंदाज में वह लखनऊ मिल जाता है जो आम तौर पर अब खुद लखनऊ को देखना नसीब नहीं होता.”

हाजी साहब की तरह ही ‘नज़ीर मियाँ’ से मिलिए:

“पहले तस्लीम करता हूँ उस रब्बुल-आलमीन अलख-निरंजन को … हज़ार बार सिजदे उस साईं सिरजनहार के नाम की जिसने …माशूक की कनखियों-जैसी आड़े-तिरछे बिछ्लनेवाली वाली बड़ी नाज़ो-अदावाली चंचल, शोख, पतली कमर बल खाए कि तस्वीर खैंचती हुई जलपरी-सी गोमती नदी बनाई, उसके किनारे शहर लखनऊ बसाया, उसमें बाज़ार नखास आबाद किया और नखास में नज़ीर मियाँ को बेलगाम छोड़ दिया कि जिनका सिन सत्तर की ढैयाँ छू रहा है और दिल अब भी सत्रह की अंगनाई में ही गिल्ली-डंडा खेलता है.”

हिंदू कवियों के रचना संसार में मुसलमान चरित्र को खोज करने पर शायद ही कोई हो जो केदारनाथ सिंह के नूर मियाँ की याद न करे! लेकिन उसके बाद रास्ता बिलकुल खाली नज़र आता है.

दो)

इस प्रश्न से अलग यह भी विचारणीय है कि हम अगर ईद की कविता न होने की शिकायत कर रहे हैं तो क्या हिंदी में दीवाली और होली पर ही कविताएँ हैं? अन्य पर्व-त्योहारों पर? हँसी-खुशी के ऐसे जो साझा मौके जीवन में आते हैं क्या हमारी कविता में उनके लिए जगह है? खोजना शुरू किया तो वैसे ही निराशा हुई जैसी तब हुई थी जब ईद पर खोजने से एकाध ही हाथ लगी थी. इसका अर्थ यह है कि साहित्य ने जीवन के साझा उल्लास के अवसरों को बहिष्कृत कर दिया है. क्या इसलिए कि ऐसे हर अवसर में कुछ न कुछ स्पर्श धर्म का रहा है? क्या हम राजनीतिक रूप से अतिरिक्त सावधानी के शिकार हो गए? पूर्वा अपने ब्लॉग ‘मनमाफिक’ के लिए ऐसी रचनाओं की तलाश में प्रायः निराश हो जाया करती हैं. क्या जीवन में उल्लास नहीं रह गया? फिर ये त्योहार क्यों लुप्त हो गए साहित्य से?

कारण मात्र धर्मनिरपेक्षता नहीं रही होगी. वे लेखक भी, जो धर्मनिरपेक्षता के आलोचक हैं, जैसे निर्मल वर्मा, उनके साहित्य में भी ऐसा कोई अवसर नहीं है जिसे वे कथात्मक अनुभव में बदल सकें. धर्म से मिलने के लिए निर्मलजी को कुंभ की यात्रा करनी पड़ी. जाहिर है, वह उनके अपने जीवन में न था. या जो जन का धर्म है, जो बिना उसके सार्वजनिक अनुभव के समझा नहीं जा सकता, निर्मलजी जैसे भारतीयता और धार्मिकता के आग्रह के बावजूद उससे दूर हैं. इस आग्रह के कारण धर्मनिरपेक्ष लोगों पर आक्रमण किया जा सकता है, धार्मिक भारतीय जन की कथा नहीं कही जा सकती. उसके लिए कुछ और करना पड़ेगा.

अगर हम जन जीवन की कथा कहते हैं, उसकी कविता रचते हैं तो उस जीवन के उल्लास के अवसर हमारी निगाह से ओझल क्योंकर हो गए? क्या हमारा साहित्य कुछ अधिक गुरु गंभीर हो गया? क्या वह हँसना रोना भूल गया? क्या विचार उस पर इतना हावी हो गया कि जीवन, जैसा वह है, उससे ढँक गया?

राजनीतिक रूप से सतर्क निगाह क्या आसमान के बदलते रंगों को देख पाती है? अगर ऐसा होता तो हिंदी के पाठकों के बीच अल्पज्ञात लेकिन सक्षम कवि रामजीवन शर्मा ‘जीवन’ की तरह होली का स्वागत उनकी उछाह के साथ कर पाते:

“गिरि, भूमि, गगन
हैं मस्त, मगन
सरिता, सर, वन
कानन,कण-कण
हर्षित होकर
इस ऋतुपति पर करते
अपने को न्योछावर
….
पूआ खाकर
बाहर आकर
मुँह बा-बाकर
फगुआ गाकर
फगुनी पाँड़े
सगुनी पाँड़े
गिरते चलते
हैं इठलाकर
सब एक आज
ब्राहमण नाई
कैसी सुंदर
होली आई!”

जीवनजी की ज़िंदगी में जैसे होली, फागुन है, वैसे ही मुहर्रम भी. ‘मुहर्रम’ कविता पढ़िए:

“समय पर हरेक साल साल आता मुहर्रम
जो सोए हैं, उनको जगाता मुहर्रम
हैं यादें बहुत-सी दिलाता मुहर्रम
मुसीबत से जूझो सीखाता मुहर्रम
…
नज़ारे बहुत-से दिखाता मुहर्रम
है गाता मुहर्रम बजाता मुहर्रम
पाजामा है,कुर्ता है, है शेरवानी
न धोती से रखता है नाता मुहर्रम
देहाती मिठाई है, लाई है, मूढ़ी
गरीबों के मुँह भी मिठाता है मुहर्रम”

और ताजिया:

“मकाँ कागजों का उठाता उठाता मुहर्रम
नई सृष्टि का है विधाता
मजारों पै मजमा जमाता मुहर्रम
है सड़कों की रौनक बढ़ाता मुहर्रम
रहा है,रहेगा य’ सुख दुख हमेशा
कहानी यही है सुनाता मुहर्रम”

ताजिया के लिए कागजों का मकान कितना आत्मीय और मधुर है! होली वाली कविता की मस्ती देखिए. यह राजनीतिक रूप से सावधान कवि नहीं है जो यह लिख रहा हो, यह आयासपूर्वक लिखना संभव नहीं. जब तक आपके जीवन में यह सब कुछ रचा बसा न हो, मुहर्रम पर ऐसी कविता लिखना मुमकिन नहीं.

जैसा हमने पहले ही कहा, शिकायत इससे शुरू हुई थी कि हिंदी में हिंदू रचनाकारों को ईद जैसे मौकों ने क्यों काव्यात्मक प्रेरणा नहीं दी. लेकिन थोड़ा सोचने पर लगा कि सिर्फ ईद नहीं, होली, विजया, सरहुल, ओणम, इनमें से शायद ही कोई कविता का विषय बन पाता हो. यह भी हमें ठीक ठीक नहीं मालूम कि उर्दू, बांग्ला, मराठी, कन्नड़, तमिल, अंग्रेज़ी, असमी, खासी या मिज़ो, आदि में भी क्या हिंदी जैसी ही हालत है. अगर यही स्थिति है तो क्या हम जन के पक्ष में लेकिन उसके जीवन से विरत,मात्र जन की अवधारणा की कविताएँ कर रहे हैं? यह भी स्पष्ट है कि ऐसा साहित्य किसी धर्मनिरपेक्षता या सामजिक सद्भाव के आग्रह या उसके कर्तव्यवश नहीं लिखा जा सकता. वह उस जीवन में हिस्सेदारी के बिना संभव नहीं.

अपूर्वानंद
सीवान, बिहार

हिंदी और अंग्रेजी दोनों में शिक्षा, संस्कृति, सांप्रदायिकता, हिंसा और मानवाधिकारों के मुद्दों पर भारतीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कॉलम लिखते हैं. द इंडियन एक्सप्रेस और द वायर के नियमित स्तंभकार हैं.

सुंदर का स्वप्न (2001), साहित्य का एकांत (2008), The Idea of a University (2018), Education at the Crossroads (2018), यह प्रेमचंद हैं (2021) आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं.
 katyayani.apoorv@gmail.com

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Comments 8

  1. कौशलेंद्र says:
    9 months ago

    बहुत बढ़िया आलेख। वास्तव में हमारे त्योहार अपनी चमक खोते जा रहे हैं।

    Reply
  2. सुजीत कुमार सिंह says:
    9 months ago

    अपूर्वानन्द जी ने एक रोचक विषय की तरफ़ ध्यान आकृष्ट कराया है। उनकी चिन्ता वाज़िब है। लेकिन हिन्दी साहित्य में जो भारतेन्दु युग है या द्विवेदी या छायावादयुग है — इन युगों में त्योहारों पर ख़ूब कविताएँ आदि लिखी गयीं। किसी पत्रिका का मार्च अंक उठाइए – होली पर तमाम सामग्री मिलेगी। अक्टूबर अंक देखिये तो विजयादशमी पर सामग्री और इसी तरह दीवाली पर अनेक सामग्री। गांधी युग में हिन्दू मुस्लिम एकता से संबंधित तमाम लेख, कविता, कहानी आदि मिल जायेंगे।

    ‘लोकरंग-4’ में होली पर एक मार्मिक कविता भोजपुरी में छपी है। यह कविता1928 की है।

    इस विषय पर सुचिंतित ढंग से शोध करने की आवश्यकता है।

    बढ़िया लेख। बधाई!

    Reply
  3. प्रिया वर्मा says:
    9 months ago

    इस तरह के लेख को मात्र वाहवाही में या दो शब्द की प्रशंसा कहकर आगे बढ़ जाना संभव नहीं है। अगर यह लेख अपने गिरेबां में झाँकने को बाध्य कर रहा हो, अगर चुप्पी पसर गई हो इसे पढ़कर, अगर लगा हो कि कहाँ किस मोड़ तक हिन्दू मुस्लिम सौहार्द्र के रास्ते पर हम नँगे पाँव चल रहे थे, और कहाँ से तपती हुई ज़मीन ने हमें चप्पल पहना दी और हमसे ज़मीन की सच्चाई छूट गई, तब ही यह लेख अपने मर्म तक सिद्ध होता है। इसे पढ़कर बहुत कुछ याद आने लग गया, हालांकि मेरे पास स्कूल कॉलेज के साथ के अनुभव के अतिरिक्त की याद है भी नहीं, पूरी सच्चाई से स्वीकार कर रही हूँ। यह कारण है जो मुझे रोकता है इस विषय पर कुछ भी कहने से। पर इतने ईमानदार लेख पर टिप्पणी लिखने से रोकना भी कठिन था मेरे लिए।

    Reply
  4. रवि रंजन says:
    9 months ago

    अपने समय की संस्कृति का आकलन करते इस सुचिंतित आलेख के लिए अपूर्वानंद जी को मुबारकबाद और इसके प्रकाशन हेतु अरुण जी तथा समलोचन की पूरी टीम को साधुवाद।
    हमारे देखते-देखते पिछले कुछ दशकों में भारतीय समाज सामंती समाज से पूंजीवादी समाज में तेज़ी से बदला है।यह प्रक्रिया ऐतिहासिक प्रक्रिया का अंग है पर नब्बे के दशक में तथाकथित ‘मनमोहनॉमिक्स’ के तहत उदारीकरण के बाद इसमें तेज़ी आई है। यह अलग बात है कि भारत में पूंजीवाद यूरोप जैसा नहीं है।
    नगरीकरण की प्रक्रिया भी अपने यहां यूरोप की तरह योजनाबद्ध नहीं है।संजीव ने बहुत पहले ‘महानगरों के सागर में गांवों के द्वीप’ शीर्षक कथा-रिपोतार्ज में कुछ अद्भुत चित्र उकेरे हैं कि कैसे महानगरों में रोजी-रोटी कमाते निचले तबके के लोग लोकगीत या भजन गाते हैं।मौरिशस के भारतवंशी ही नहीं, यूरोप में लगभग बस गए प्रवासी भारतीय समुदाय जिस गर्मजोशी और परिष्कृत ढंग से तीज त्योहार मनाता है, वह तो भारत के भीतर दुर्लभ है। हालांकि सारा कार्यक्रम अंग्रेज़ी में सम्पन्न होता हैं।
    अब हमारे गांवों में कॉन्वेंट स्कूल खुल गए हैं और पुरानी पीढी की स्त्रियों के बाद शादी-विवाह तक में गीत गानेवाली औरतें न के बराबर हैं।
    होली, दिवाली महानगरों की गेटेड कम्युनिटी में मनाई जाती है,पर फगुआ गाना अब बीते दिनों की बात है।गांव में भी अब लोग फगुआ नहीं गाते।भांग-ढांडई की जगह शराब का प्रचलन बढ़ा है।
    सामूहिकता को वैयक्तिकता ने लगभग अपदस्थ कर दिया है।
    मिलकर ईद या होली मनाने के बजाय लोग वाट्सएप्प और अन्य माध्यमों के द्वारा शुभकामना संदेश भेजकर छुट्टी पा लेते हैं।ईद की नमाज़ की पाबंदी अगर न होती ति शायद मुस्लिम समुदाय के उच्चमध्यवर्गीय लोग भी आपस में ईद के दिन भी कम मिलते।
    ऐसे में साझा संस्कृति या पर्व-त्योहार पर बेहतर साहित्य सृजन असंभव प्रतीत होता है।

    Reply
  5. दया शंकर शरण says:
    9 months ago

    धार्मिक उत्सवों की पृष्ठभूमि पर साहित्य से कविता-कहानियाँ लगभग नदारद हैं-खासकर हिन्दी साहित्य में, वास्तव में यह एक विचारणीय प्रश्न है। अपूर्वानंद का यह सुचिंतित आलेख इसी महत्वपूर्ण विषय पर केंद्रित है।अन्य भारतीय भाषाओ में क्या स्थिति है, इसकी चर्चा अगर आलेख में होती,तो और अच्छा होता। बांग्ला में दुर्गा पूजा की पृष्ठभूमि पर अनेक बड़े लेखकों की कहानी-कविताएँ मैंने हिन्दी में अनुदित पढ़ी हैं।मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दी साहित्य अपनी परंपरा और जड़ों से कटकर जब से विचारधारा के अतिशय आग्रहों का शिकार हुआ, तब से धर्म और उससे जुड़ी तमाम चीजें अछूत होती गयीं।हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास-वाणभट्ट की आत्मकथा, के बाद साहित्य में हमारी जातीय परंपरा का विकास अवरूद्ध सा दीखता है। अंततः हमें यह समझ लेना चाहिए कि विचारधारा और दर्शन से जीवन-दृष्टि बड़ी होती है।गेटे का यह कथन कि सारे वाद पीले पड़ गये हैं लेकिन जीवन का वृक्ष अब भी हरा है, गौरतलब है। अपूर्वानंद एवं समालोचन को साधुवाद !

    Reply
  6. M P haridev says:
    9 months ago

    अपूर्वानंद जी को सुनना और पढ़ना ज्ञान के सागर में डुबकी लगाने जैसा है । मुसलमानों के त्योहारों, रीति रिवाजों के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती । वर्तमान दौर एकांगी समाज की परिणति चाहता है ।
    इंद्रधनुष का अर्थ है कि संसार अनेक रंगों से मिलकर बना है । हम क्यों बदरंग होते जा रहे हैं । हमारी हिन्दी उर्दू के शब्दों के बिना नीरस है । मुर्ग़ा, तरबूज़, फ़ालसे, क़ुल्फ़ी, फ़ालूदा वग़ैरह के लिये हिन्दी भाषा में कितने विकल्प ढूँढोगे ।

    Reply
  7. Farid Khan फ़रीद ख़ान says:
    9 months ago

    पटना में, हम लोग, चुन्नी लाल बांके को मुसलमान ही मानते थे. कहने का मतलब यह कि वह कभी हमसे अलग नहीं लगे जबकि हमें मालूम था कि वे मुसलमान नहीं थे. चुन्नी लाल बांके मुहर्रम के रोज़ पटना सिटी से अपना अखाड़ा लेकर, रिक्शे पर खड़े हो कर, तलवार नचाते हुए, माईक पर केंद्र सरकार को गरियाते हुए ताज़िया लेकर आते थे. उनकी राजनीतिक बातों को लोग बड़ी गंभीरता से सुनते थे. वे जेपी आन्दोलन से जुड़े हुए थे. उनके इंतज़ार में पूरा जन समूह पत्थर की मस्जिद चौराहे पर और छतों पर इकठ्ठा रहता था. चुन्नी लाल के अखाड़े के बाद भीड़ उखड़ जाती थी.

    आज अपूर्वानंद जी का यह आलेख पढ़ कर बरबस चुन्नी लाल बांके की याद आ गई.

    कवि वीरेन डंगवाल ने “नैनीताल में दीवाली” एक सुंदर कविता लिखी हुई है. इस कविता के अलावा मुझे कोई दूसरी रचना (इस आलेख में जिनका ज़िक्र हुआ है उनके अतिरक्त) फ़िलहाल याद नहीं आ रही है.

    बिल्कुल नए तरह के सवाल के लिए लेखक का आभार.

    Reply
  8. बसंत कुमार चौधरी says:
    9 months ago

    अपूर्वानंद मुख्यत: एक राजनीतिक सहकर्मी है , ज्यादा सही होगा कांग्रेसी वामपंथी लिबरल इलीट हैं। इस आलोचना में भी राजनीति छिपी है जो इन्हें इनके उठाए सवाल की गहराई में नहीं पहुंचने दे रही है ,शायद इनका पार्टी लाइन और खास उद्देश्य से साहित्य सृजन से इनमें गहराई में डुबकी लगाने की क्षमता बनने ही नहीं दिया। सबसे पहले उन्हें यह जानना चाहिए कि धर्म हिंदुओं के लिए जूनून नहीं , जेहाद नहीं है बल्कि एक साधारण आम व्यवहार और रीति रिवाज है। 1970 के पहले तो दशहरा ,छठ में बहुत तेज आवाज में लाउडस्पीकर भी नहीं बजाया जाता था, मुख्यत महिलाएं और बच्चे ही ज्यादा उल्लासित होते थे। हिंदुओं के बड़े प्रबुद्ध लोग पर्व त्योहार को बहुत गंभीरता से नहीं लेते थे,या पर्व त्योहार को बचकानी सांस्कृतिक उत्सव मानते थे। जितना खुस एक ईशाई एक्समस में होता है , नववर्ष में होता है ,हिंदु समाज उनकी नकल में जो उत्साहित होने का दिखावा करें, हंगामा करें, डीजे बजाने लेकिन खुशी उसके अंतःकरण से निकला संगीत नहीं होता । आज तो त्योहारों में प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा है , लाउडस्पीकर की तेज आवाज , स्पर्धा में खुशी उल्लास का दिखावा करना ।

    अपूर्वानंद जी ,आप बहुत विद्वान हैं युवा भी हैं , मेरा साहित्यिक अध्ययन बहुत कम है , आपके इतना योग्य भी नहीं , परंतु एक बार अवश्य कहूंगा आजके आप हिंदी साहित्यकारों को फ्रेंच, रुसी ( खासकर वोल्टायर ,चेखोव जैसों) साहित्यकारों की अथाह गहराई , अंत वस्तुनिष्टता का अनुभव करना चाहिए। धन्यवाद

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