मनोचिकित्सक
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यह कई साल पहले की बात है. उन दिनों उस जेल में लगभग चार सौ कैदी थे. जेल की क्षमता के लगभग दोगुना. जेल शहर के बाहर के इलाके में थी और चारों तरफ खेत थे. सर्दियों में पीली सरसों और बरसात में धान की हरियाली के बीच वह ऊंची दीवारों वाली जेल किसी बिजूके जैसी लगती थी. बगल से एक पतला रास्ता गुजरता था जो किसी गांव की तरफ जाता था. जेल के फाटक के बाहर ही जेल के विभिन्न कर्मचारियों और अफसरों के घर थे जो पीले-कत्थई रंग से पुते हुए थे. जेल की दीवारें ऊंची थीं और दीवार के ठीक आगे बच्चे क्रिकेट खेलते दिखते थे. शहर में जेल के बारे में लोग कम ही बातें करते थे.
वह पूरे शहर को अपराधों की याद दिलाती थी जबकि शहर का जीवन बहुत सुस्त और निरापद जैसा था. बताते हैं कि दूसरे महायुद्ध के समय जेल के एक कैदी ने यहां पांच बड़े अफसरों को मार डाला था. उसके बाद कैदियों के लिए पुरानी बैरकें गिराकर नई बैरक बना दी गईं, हालांकि वे नई बैरकें बने हुए भी कई दशक गुजर चुके थे. जेल में ठूंस ठूंसकर भरे जाने के कारण गर्मी और ज्यादा सर्दी में कैदियों को काफी परेशानी होती थी. वे गालियां बकते रहते थे और आपसी रंजिशों के खूनखराबे से बचने के लिए गिरोह बनाते थे.
इसी जेल में कुछ कैदियों ने खुदकुशी कर ली थी. अखबारों में इसके बारे में समाचार छपे तो प्रदेश की राजधानी से कई अफसर आए और जांच समितियां बनीं. पर जांच समिति बनने के बाद भी जेल में आत्महत्याएं नहीं थमीं. उलटे समिति के एक सदस्य के बेटे ने किसी कारण से अपने घर में खुदकुशी कर ली थी. अफसरों ने खुदकुशी रोकने के उपायों के बारे में सोचना शुरू किया और कुछ विशेषज्ञों की मदद ली. दस में आठ कैदियों ने खुद के हाथ की नस काट ली थी और दो ने अपनी ही पैंट-कमीज को फंदा बनाकर फांसी लगा ली थी. काफी माथापच्ची के बाद विशेषज्ञों की सलाह पर जेल प्रशासन ने फैसला लिया कि मनोचिकित्सकों को वहां नियुक्त किया जाए. वह कैदियों को पीड़ा और अवसाद से बाहर निकलने में सहायता करेगा. उन्हें समझाएगा-बुझाएगा और किसी कैदी में खुदकुशी के पूर्वलक्षण दिखने पर रिपोर्ट तैयार करके देगा. इससे पहले जेल परिसर में पूजाघर बनाकर कैदियों को शांत रखने के उपाय नाकाम हो चुके थे.
जो पहला मनोचिकित्सक आया वह उम्र के मामले में जवानी की अंतिम सीढ़ी पर खड़ा एक उदास सा डाक्टर था. शक्ल पर एक हल्का सा सनकीपन था जिसे गौर से न देखा जाए तो वह स्पष्ट तौर पर नहीं दिखता था. पर वह चेहरे पर था अवश्य. जेल का जेलर लेकिन बहुत पारखी था. उसके बारे में मशहूर था कि वह दूर से देख लेता था कि कोई कैदी अपनी जेब में क्या छिपाकर ले जा रहा था. वह खुद भी अपनी निगाहों को एक्सरे मशीन समझता था और मजाक में दावा करता था कि अगर उसे एस्ट्रोनाट के साथ अंतरिक्ष में भेजा जाए तो वह केवल आंखों से देखकर पूरे ब्रह्मांड के रहस्यों का पता लगा लेगा. उसे देखकर पहले ही दिन जेलर ने कहा था-
‘आप खुद का इलाज भी कर लेते होंगे. जब रोग पता हो तो इलाज आसानी से हो जाता है.’
डॉक्टर को जेलर का व्यंग्य समझ में नहीं आया और पूछा- ‘मुझे कोई बीमारी नहीं है. मैं तो चंगा हूं.’
‘मेरे कहने के मतलब है कि डॉक्टरों को तो अपने शरीर और दिमाग के हर रोग को पहचानने के लिए दूसरे डाक्टर के पास नहीं जाना पड़ता होगा.’
‘मैं आज तक किसी डॉक्टर के पास नहीं गया. मैं अपने दादा और पिता की तरह स्वस्थ हूं. ईश्वर की देन है.’
जेलर को लगा कि डॉक्टर अभी नया आया है, इससे उलझने का कोई फायदा नहीं. जेलर को यह भी पता था कि दूसरों पर व्यंग्य करने की उसकी पुरानी आदत है. अपनी आदत को वह बेलगाम होने से रोकता था पर वह न चाहकर भी प्रकट हो जाती थी. उसने मुस्कराते हुए कहा- ‘ओके जेंटलमैन. आई मीन डॉक्टर साब.. आपके लिए कमरा भी तैयार कर लिया गया है जेल के भीतर ही. आप वहीं बैठकर कैदियों से बात कर सकते हैं.’ इसके बाद जेलर ने एक तीली से दांतों को खोदना और डाक्टर को घूरना शुरू कर दिया. उसे फिर से लगा कि डाक्टर के चेहरे को और गौर से देखें ताकि पता तो लगे कि उसके चेहरे में ऐसा क्या है जिससे वह सनकी सा, अर्धपागल नजर आ रहा है.
जेलर को यह भी लग रहा था कि हो सकता है कि उसका वहम ही हो और डॉक्टर पूरी तरह से स्वस्थ इंसान हो. पागलों के डाक्टर को वह गलतफहमी में पागल समझ रहा हो. वैसे ही जैसे बहुत से लोग मानते हैं कि जानवरों के डॉक्टर जानवरों जैसे होते हैं. उधर डॉक्टर को लगा कि जेलर बहुत शक्की किस्म का आदमी है. मन ही मन उसने सोचा कि वह जेलर के व्यवहार पर निगरानी रखेगा और साइकोथैरेपी में उसकी मदद कर देगा.

डॉक्टर को जेल से सूचनाएं मिल गईं कि यहां पिछले कुछ साल में बारह कैदियों ने आत्महत्याएं की हैं. उनमें से ज्यादातर कैदी किसी गंभीर अपराध जैसे हत्या, नाबालिग से बलात्कार और डकैती आदि मामलों में जेल में बंद थे. केवल एक ऐसा कैदी था जिसे शक के आधार पर गिरफ्तार किया गया था. वह ‘अंडरट्रायल’ था यानी उसका जुर्म साबित होना बाकी था. उसने भी खुद को फांसी लगाई थी. डॉक्टर को एक असिस्टेंट यानी सहायक भी प्रदान किया गया था. जेल के बारे में सारी सूचनाएं लेते समय उसे सहायक ने ही बताया-
‘साहब यहां पहले तो खूंखार अपराधी भी आते थे. वीआईपी लोग भी बंद किए जाते थे. पर अब वैसा नहीं है. अब सारे छोटे-मोटे अपराधी हैं जिनके यहां बंद होने से जेल को फायदा नहीं होता है.’
डाक्टर को सहायक पर हंसी आई.
उसने कहा-
‘अखबार में विज्ञापन निकालना चाहिए कि हमारी ही जेल को वीआईपी कैदियों से वंचित किया जा रहा है. यह अन्याय है.’
सहायक शर्मिंदा सा हुआ और बोला –
‘क्या साहब आप भी मजाक बनाते हैं! क्या कहीं ऐसा होता है!’
डॉक्टर ने उससे कहा कि वह रोज दस कैदियों से बात करेगा. उन्हें यहीं ऑफिस में लाया जा सकता है. सहायक ने इस बारे में औपचारिक अनुमति लेने के लिए पत्र तैयार कर जेलर के पास भिजवा दिया. जेलर ने अनुमति इस शर्त पर दी कि कोई भी कैदी आधे घंटे से ज्यादा उसके क्लिनिक में नहीं रहेगा. अगले दिन डाक्टर पूरी तैयारी के साथ काउंसलिग एंड साइकोथेरेपी वाले क्लिनिक में आकर बैठ गया. वहां पहले सामान्य रोगों की जांच-पड़ताल होती थी. उसी कमरे को अब उसे इस्तेमाल में लाना था. वहां से कैदियों की बैरकें पचास मीटर की दूरी पर स्थित थीं. डाक्टर ने कमरे में ताजे फूलों का गुलदस्ता तैयार करवाकर रखवाया. कमरे को और साफ करा दिया. उसने अपनी मनोचिकित्सा की पढ़ाई के दौरान सीखा था कि मनोरोगी अक्सर सफाई वाले हवादार स्थानों पर ही अपने भीतर की भावनाएं खुलकर व्यक्त करते हैं.
उसने सहायक से पूछा- ‘क्या सभी दस कैदियों को आज के लिए बोल दिया है?’
‘जी साहब.. आते ही होंगे.’ उसने जवाब दिया. उस दिन से डाक्टर का काम आरंभ हो गया. अक्सर ही पूरे दस कैदी नहीं आते थे. कभी चार तो कभी पांच कैदी आते. वह उनसे बात करता, उन्हें अपने बारे में बताने के लिए प्रेरित करता. कैदियों से आम बातचीत कर वह उनके बीच यह संदेश भेजना चाहता था कि उनकी दिमागी परेशानियों जैसे अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, तनाव, भय आदि के बारे में बात करने के लिए कोई आ गया है. अब वे अकेले बेसहारा नहीं हैं. डॉक्टर का काम देखने के लिए एक दिन जेलर भी आया था. वह साइड वाली कुर्सी पर बैठकर डॉक्टर की कैदियों से बात को सुनता रहा और फिर बोला-
‘आपका पेशा भी मजेदार है. बैठे-बैठे बातें करना. आप लोग दिमाग पर जोर देते हैं. आप लोगों की तरह अगर मैं दिमाग को समझने पर दिमाग लगाऊं तो कुछ कर ही न पाऊं.’
डॉक्टर ने उसे शांत होकर देखा और बोला-
‘आपका काम भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है.’
जेलर ने शायद उसकी बात सुनी नहीं और आगे बोलता गया-
‘चार साल पहले मैंने कैदियों के आपसी झगड़े में गोली चलाई थी. गोली चलाने के बाद सब ठीक हो गया था. अगर मैं गोली चलाने से पहले या उसके बाद दिमाग की स्टडी करने लगता तब तो हालत बिगड़ जाते.’
यह कहकर वह सहायक को डांटते हुए बोला-
‘डॉक्टर साब को परेशान मत करना. यहां पर डंडे से काम चलता है. वही इन क्रिमिनलों के दिमाग को ठंडा रखता है.’
डाक्टर को लगा कि जेलर उसे परेशान न करने का आदेश देकर वास्तव में यह जता रहा है कि उसका काम गैरजरूरी या फालतू की चीज है. डॉक्टर के लिए यह कोई नई चीज नहीं थी. अपने पेशे को लेकर उसने कई बार लोगों के उपहास का सामना किया था. लोगों ने अक्सर कहा था कि पागलों का इलाज क्या करना. वे तो पागल होते ही हैं. एक बार एक फारेस्ट एरिया में किसी वर्कशाप में गया था. वहां एक छोटी सी बच्ची को अकस्मात दौरा पड़ने की बीमारी थी. बच्ची का जब उसने इलाज शुरू किया तो उसका ही एक रिश्तेदार आकर जोर से उससे लड़ पड़ा और कहा- ‘यह दिमाग की रोगी लगती है आपको? यह बिलकुल ठीक है. नाटक कर रही. दिमाग तो इसकी मां ठीक कर देगी चार-छह थप्पड़ लगाकर.’
उस लिजलिजी शक्ल वाले रिश्तेदार को देख बच्ची क्यों भय से रोने लगी थी, यह उसे पता था. पर वह कुछ नहीं कर पाया. उसके घर वाले यह मानते थे कि बच्ची के रोने का समाधान पिटाई और डांट के पुराने नुस्खों में छिपा है.
जेलर की झिड़की के बाद वह सहायक अब उसकी मदद करने से कन्नी काटने लगा. डॉक्टर समझ गया कि उसे यहां अधिक दिन रहने नहीं दिया जाएगा. जेल के मैनुअल के अनुसार बहुत सारी चीजें वहां होनी चाहिए, पर वे उपलब्ध नहीं थीं. जेल भीतर से, खासतौर पर बैरकें गंदी थीं और वहां लगे पंखे खराब थे. बहुत अधिक कैदी बंद थे जिससे अक्सर वे आपस में लड़ते थे. खाने की क्वालिटी में भेदभाव किया जाता था. जो ऊपर से रिश्वत देता था, उसे अच्छा खाना मिलता था. बाकी को घटिया. जेलर को डर था कि कहीं मानसिक रोग का निदान कराने के नाम पर कैदी इन चीजों की शिकायत न करने लग जाएं. उसने डाक्टर से कहा था-
‘आपको पता नहीं है कितने चालाक हैं ये कैदी. नाटक करेंगे बीमारी का और आपको गलत-सलत जानकारी देने लगेंगे. फिर अपने को अस्पताल में भर्ती कराने की सिफारिश करवा लेंगे.’
डॉक्टर को ऐसी संभावनाओं के बारे में पता था. पर उसने जेलर के घमंड को बर्दाश्त करने के लिए ऐसा जताया जैसे वह उसकी हर बात ध्यान से सुन रहा है और अच्छी सलाहें देने के लिए कृतज्ञ है. जब जेलर जाने लगा तो उसने कहा –
‘थैंक यू. आप हमारा ख्याल रखना चाहते हैं, यह जानकर खुशी होती है.’
जेलर जाते-जाते रुक गया और उसके चेहरे को देखने लगा. उसे फिर एक सनकी आदमी का अक्स उसमें दिखा और पूछा-
‘आप क्या लेखक-वेखक भी हैं? मेरा मतलब कविता-कहानी भी लिखते हैं?’
डॉक्टर हंसा और बोला-
‘नहीं ऐसा तो नहीं है. हां मैं कुछ किताबें पढ़ता रहता हूं लेखकों की जिससे इंसान के दिमाग को समझने में मदद मिलती है. साहित्य भी हमारे पेशे में काम आता है.’
जेलर ने थोड़ा सख्त चेहरा बनाया और फिर बोला-
‘आप सेंसटिव लोगों की तरह क्यों बात करते हैं. मुझे भावुक लोगों से डर लगता है और उनका काम करने का तरीका अजीब लगता है. पता नहीं क्यों वे हर चीज को दिल से समझते हैं और समझने के बाद भी उसका कोई हल नहीं निकाल पाते हैं.’
डॉक्टर समझ चुका था कि जेलर पर हर सामने पड़ने वाली चीज को अपने अहं से दबाने की आदत है. इसलिए उसने एक मंजे हुए खिलाड़ी की तरह उसकी हर बात की भीतर से उपेक्षा तथा ऊपर से समर्थन करने वाला विकल्प चुना. मनोविज्ञान की भाषा में भय पैदा करने वाले के सामने ‘अवायडेंस थ्योरी’. जेलर के जाने के बाद डॉक्टर उठा और जेल के भीतर के मैदान में एक चक्कर लगाकर आ गया. कैदियों ही सब्जी उगाने का काम करते थे और कई जगह सब्जियां लगी थीं. जेल में एक बड़ा हाल था जिसे लोग फैक्ट्री कहते थे जहां सिलाई, बढ़ईगिरी, बिजली आदि के सामान तैयार होते थे. उसने सहायक को बुलाकर कुछ कैदियों को लाने को कहा और एक क्लिनिक की कुर्सी पर बैठकर अखबार पढ़ने लगा. थोड़ी देर बाद सहायक एक कैदी के साथ आया जो चेहरे से पढ़ा-लिखा लग रहा था. उसकी आंखें देखकर लगता था कि वह जीवन में नाउम्मीदी के जाल में बुरी तरफ फंस चुका है पर छटपटा नहीं रहा है. वह पीड़ा की उस अवस्था में है जब इंसान तड़पना भी बंद कर देता है. वह सब कुछ सहना सीख जाता है. डॉक्टर ने उसे सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और क्लिनिक के बाहर सहायक के पास आया और पूछा- ‘इसके बारे में कुछ जानते हो?’
‘नहीं मुझे कुछ नहीं बताया गया. बस यही बताया गया कि यह नंबरदार कैदी है और एक व्यक्ति पर जानलेवा हमले के केस में इसे सात साल की कैद की सजा मिली है.’
‘ओह. चलो कोई बात नहीं.’
सहायक को कुछ और याद आया और बोला-
‘यह भी पता चला है कि यह दो महीने पहले खुदकुशी का प्रयास कर चुका है. इसने फांसी लगानी चाही पर तभी कोई आ गया और इसका प्रयास विफल हो गया.’
यह बात सुनकर डॉक्टर गंभीर हो गया.
‘ठीक है तुम जाओ…’

यह कहकर वह वापस क्लिनिक के अंदर आया तो देखा कि वह कैदी स्थिर बैठा था. एकदम अचल, गंभीर. कैदी ने जेल के सफेद धारीदार वस्त्र पहन रखे थे. डाक्टर को समझ नहीं आया कि कहां से बात शुरू करे. उसने धीमे से पूछा- ‘कबसे हो यहां पर?’
कैदी ने उसे घूरा और कहा- ‘ढाई साल से. अभी और कई साल रहूंगा. भगवान ने जो लिखा है, भुगत लूंगा.’
‘तुमने क्यों मारने की कोशिश की थी अपने ही दोस्त को?’ कैदी के चेहरे पर दीनता आई और चुप रहा. डाक्टर ने सोचा कि उससे पुराने अतीत पर बात करना बेकार है. वह तनाव में आ जाएगा. उसने फिर पूछा- ‘तुम तो पढ़े लिखे हो. जेल में पुस्तकालय है. जाते हो?’ वह कैदी इस बार मुस्कराया और बोला-
‘किस तरीके से मरा जा सकता है, इस पर कोई किताब वहां नहीं है?’
‘यह तुम्हारा वहम है कि मरना हर मुसीबत का समाधान है. तुम जिंदा रहकर भी मुसीबतों को खत्म कर सकते हो.’
‘मैं जिंदा रहकर मुसीबतों को बढ़ा रहा हूं.’
‘मुसीबतों को खत्म करने के लिए जरूरी है कि जिंदगी को प्यार करो. प्यार.’
‘जिंदगी को प्यार करने में मुसीबतें ही बाधा पैदा करती हैं.’
‘तब तुम जिंदगी को मुसीबतों का विस्तार मानने के स्थान पर मुसीबतों को जिंदगी का हिस्सा समझ लो. तब तुम्हें अपनी जिंदगी मुसीबतों से ज्यादा बड़ी लगने लगेगी.’
‘पता कब चलता है कि मुसीबत किस जगह आकर जिंदगी से ज्यादा बड़ी हो चुकी है. अगर मैं आपको अभी बताऊं कि आपके शरीर में लाइलाज स्टेज फोर कैंसर है तो आप जिंदगी से प्यार करने की बात सोचेंगे?’
यह कहकर वह पागल की तरह जोर से हंस पड़ा. इतनी जोर से कि सहायक दौड़ा-दौड़ा कमरे में घुस आया और दोनों को देखने लगा. डॉक्टर ने उससे कहा कि वह बाहर ही प्रतीक्षा करे. सब ठीक है. ठहाका रुकने के बाद कैदी के मुंह से कुछ गालियां निकलनी लगीं. डाक्टर को पता था कि वह स्क्रिजोफ्रेनिया का शिकार है. ऐसे मरीजों आमतौर पर शांत होते हैं. पर उन्हें तब गुस्सा आता है जब उन्हें कोई समझाने की कोशिश करे या उनकी बात काटने लगे. ऐसे मरीज बस यह चाहते हैं कि उन्हें सुना जाए और उनके हर शब्द पर भरोसा किया जाए.
‘तुम अगर पूरी बात बताना चाहो तो मैं सुनूंगा.’ उसने बहुत कोमल स्वर में कहा. कैदी ने उसके चेहरे को टटोलती निगाहों से देखा. जैसे पता लगा रहा हो कि इस इंसान पर भरोसा किया जा सकता है अथवा नहीं. फिर वह सिर नीचे कर, बिना उसकी ओर देखे बोलने लगा-
‘मैंने उस आदमी को मारने की कोशिश नहीं की थी. उसी ने मेरे ऊपर फायर किया था. बदले में मैंने उसके ऊपर हमला किया जिसमें वह बुरी तरह जख्मी हो गया था.’
‘अच्छा..लेकिन क्यों हुआ यह सब?’
‘मैं बताता हूं. मैं कुछ साल पहले थियेटर में साथ काम करने वाली औरत से इश्क लड़ा बैठा था. वह औरत मेरे अलावा दो और मर्दों के साथ फंसी हुई थी. यह बात मैं जानता था पर मैंने इसे महत्व न दिया था. मेरा समय अच्छा कट रहा था. वह खुले मन की थी. अक्सर सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए कहती भी कि मुझे कम से कम सौ आदमियों को भोगकर मरना है.’ डॉक्टर को उसकी कहानी दिलचस्प लगी. वह ऊपर से डाक्टरी मुद्रा बनाए रखकर भीतर से गहरी जिज्ञासा से भर उठा. ‘फिर’?
‘उस बेवफा औरत ने शादी कर ली और उसके तीनों आशिक फिर भी उसके साथ बने रहे जिसमें मैं भी एक था. वह हम तीनों से यही कहती थी कि जब तक चल सके, हम सब उससे बारी-बारी मिलते रहेंगे. कभी पति के जाने के बाद उसके घर पर कभी हमारे घरों या दूसरे ठिकानों पर. शहर की एक सस्ती धर्मशाला तथा सस्ते होटल का मैंने खासतौर पर सहारा लिया था जहां शुद्ध शाकाहारी भोजन के कारण मीट-मछली पर पाबंदी थी पर बाकी हम कुछ भी कर सकते थे.’
‘ओह!’
कैदी के दिमाग में पता नहीं क्या आया और वह चुप हो गया. फिर बोला-
‘जाने दीजिए. मैं आपको बोर कर रहा हूं. आप तो केवल ड्यूटी की तरह मेरी बातें सुन रहे हैं. मैं आपको यह सब बताकर भी क्या करूंगा!’
यह कहते हुए उसकी आंखों में क्रोध के लाल डोरे से तैर रहे थे. डाक्टर समझ गया कि उसके ऊपर आवेश हावी हो रहा है. उसने उसे शांत कराते हुए कहा कि ‘हम सभी की जिंदगी में उतार चढ़ाव हैं, एक-दूसरे को सब बता देना ही पीड़ा से मुक्त करता है. आखिर हम सब भीतर से एक जैसे हैं.’
कैदी थोड़ा आश्वस्त हुआ और बोला- ‘जानते हैं वह औरत बहुत अच्छी थी! वह सभी के साथ एक जैसी वफादारी से इश्क को निभा रही थी. पर एक दिन जब मैं उससे उसी धर्मशाला के कमरे में मिला तो उसने मुझे गालियां दीं और मेरे ऊपर चिल्लाई. मेरे कपड़े फाड़ने लगी. वह शांत मिजाज और समझदार थी पर भड़क रही थी. मैंने पूछा तो उसने लगभग चीखते हुए कहा कि मैंने कुछ छिपाया है. मुझे भी गुस्सा आ गया पर गुस्से से ज्यादा हैरानी से भरा हुआ था. वह यह नहीं बता रही थी कि क्या छिपाया है. मैं समझ गया कि बाकी दो आशिकों या किसी और ने साजिश रची है. मैंने उसे समझाना चाहा पर वह उबलती रही.’
कैदी फिर चुप हो गया. डॉक्टर नहीं चाहता था कि वह उसे उकसाए और उसे बुरा लगे. उसने खुद भी चुप रहना ठीक समझा ताकि कैदी आगे की बात सहजता से शुरू कर सके.
‘उसने मुझे बेइज्जत किया. भद्दी गालियां बकीं और कभी न मिलने की बात कहकर चली गई. मैं सन्न, हक्काबक्का रह गया. मुझे नहीं पता था कि उसके मन में अचानक यह घृणा किसने भर दी. यह मेरे लिए अनूठी बात थी और बहुत सोचने पर भी समझ नहीं पा रहा था कि मेरा अपराध क्या है. मैंने उससे मिलने की कोशिश की पर उसने फिर मुझे गालियां बकीं और कहा कि मैंने उसके प्यार को गंदा कर दिया. उसे गंदा कर दिया. उसके शरीर को गंदा कर दिया. फिर एक दिन उसका पति मेरे पास आया और झगड़ने लगा. जब मैं झगड़े से बचने की कोशिश में मुड़कर जाने लगा तो मेरे ऊपर गोली चला दी. गोली मुझे नहीं लगी पर मैंने अपने बचाव में एक भारी छड़ से उसके ऊपर हमला कर दिया जिससे वह घायल हो गया. मुकदमा चला और मैं सात साल के लिए जेल में आ गया. वह आज भी पति के अलावा दो और मर्दों के साथ जीवन को मजे से काट रही. केवल मैं जेल की सजा काट रहा हूं. सब छिन गया मेरा. थियेटर, कैरियर, इश्क और सम्मान.. सब. अब जिंदगी तो है लेकिन उसमें कोई दिलचस्पी नहीं बची.’
यह कहते हुए उसकी शक्ल पर आर्द्रता छा गई, जैसे अभी अभी वह किसी फुहार के नीचे से आया है.
उसने पसीना भी पोंछा और सिर ऊपर उठाकर बोला- ‘फिर एक दिन मुझे पता चल गया. उसकी घृणा की वजह. उसे मुझसे मेरी जाति भी चाहिए थी. वह अभी भी दो गैरमर्दों के साथ प्रेम कर रही है और उनकी जाति से उसे शिकायत नहीं. लोग तो जाति से जुड़े आंदोलन-धरने, दूसरे झगड़ों-फसादों में जेल आते हैं. और मैं! मैं तो इसलिए अपने कई साल तबाह कर रहा हूं क्योंकि मेरी जाति इश्क करने लायक नहीं थी.’ यह कहकर वह भद्दे तरीके से हंसा और फिर बोला- ‘कैसी बदकिस्मती होती है मेरे जैसे लोगों की!’
क्लिनिक के परदे बहुत ही बेपरवाही से हिल रहे थे और दीवार पर लगे कैलेंडर के पन्ने भी थोड़ा खड़खड़ा रहे थे. मेज पर रखी घंटी लगता था बहुत समय से खामोश पड़ी थी. लगता था कि वह खामोश घंटी किसी लंबी नींद में है.
डॉक्टर ने पूछा- ‘तुम क्या उस औरत से घृणा करते हो?’
‘मैं उस औरत से चाहकर भी घृणा नहीं करता. जानते हैं क्यो?’ उसने आंखें झपकाकर पूछा.
‘वह औरत नहीं खुदा की सबसे हसीन करिश्मा है. मैंने उससे प्यारी औरत कहीं नहीं देखी. पर उसकी शादी ऐसे मर्द से हुई थी जो जाति महासभा का संचालक था और उसने ही उस औरत को वह सब सिखा दिया था. उसके साथ रहते-रहते वह उसके विचारों में ढल गई थी. अपने अवैध रिश्तों में भी उसके विचारों का पालन करने लगी थी. रात में जब उसके साथ सोती थी तो उसे यह अपराध बोध होता था कि वह पति के उसूलों और विचारों के विपरीत काम कर रही है. आप तो जानते ही हैं कि हमारे देश में औरतें एक खाली बर्तन हैं जिसमें उनके पति अपने विचार भरते हैं. इसीलिए उसे मुझसे नफरत हो गई. वह अपने पूरे शरीर का शुद्धिकरण करने की बात सोचने लगी. उसे पति को धोखा देने में शर्म नहीं आती. उसे इस बात पर शर्म आ रही थी कि वह पति के जीवन के सबसे बड़े मिशन यानी जाति को जगाने के मिशन के साथ धोखा कर रही थी.’
यह कहकर वह कैदी बोला- ‘डॉक्टर साब..एक सिगरेट पिला दो तो मैं आपका अहसानमंद रहूंगा. जेल की कैंटीन में भी इन दिनो खत्म हो चुकी है. यहां पैसों से जिसे जेल करेंसी कहते हैं, सब मिलता है.’
डाक्टर के पास ऐसे मनोरोगी आते रहते थे जो सिगरेट या चाय के शौकीन होते थे. इसलिए वह इन चीजों को तैयार रखता था. अलमारी खोलकर उसने सिगरेट की डिब्बी निकाली और एक सिगरेट उसकी ओर बढ़ा दी. उसने इत्मीनान से सिगरेट सुलगाई और फिर बोला- ‘आप मेरी फिक्र मत कीजिए. मैं आज भी सजा के गम में मरने की बात नहीं सोचता. मरने का ख्याल इसलिए आता है कि उसने मुझसे ऐसी नफरत दिखाई जिसकी मैं कल्पना नहीं करता था. यह बात सोचकर मुझपर जैसा डिप्रेशन हावी होता है, वह मुझे जीने लायक नहीं छोड़ता. उसने मेरी मोहब्बत पर कीचड़ फेंका है.’ आधे घंटे के बाद उस कैदी को एक सिपाही बुलाने आ गया. बैरक में कैदी को बंदी बनाने का वक्त हो चुका था. जाते हुए वह बोला-
‘जिंदगी से प्यार की बात अब धोखा लगती है. लोग प्यार में भी बहुत अक्ल लगाते हैं जिसके बारे में सोचकर भी दहशत होती है.’
डॉक्टर समझ गया कि कैदी के दिमाग का इलाज उसका डिप्रेशन दूर करने में छिपा है और इसके लिए जरूरी था कि अब उस औरत से मिला जाए जिसके कारण यह ऐसी हालत में पहुंचा.
अगले दिन उसने एक हफ्ते के लिए घर जाने का बहाना बनाकर जेल से छुट्टी ली. चलते वक्त जेलर ने कहा-
‘डॉक्टर साब, आप तो वैसे भी नाहक यहां इन बदमाशों, लुच्चे-लफंगों पर वक्त खराब कर रहे हैं. हम भी ऊपर का आदेश मानकर इनके दिमाग का इलाज कराने की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं.’
जेलर और डॉक्टर दो अलग ध्रुवों पर खड़े थे. एक अधिक से अधिक दंड देने में विश्वास करता था. दूसरा सुधार में. एक पीड़ा देने में समस्या का हल देखता था, दूसरा पीड़ा से मुक्ति दिलाने में.
कैदी के बताए पते पर डॉक्टर को पहुंचना था. वहां पहुंचने में उसे अड़तालीस घंटे लगे और उस औरत से सामना हुआ तब वह बाजार से लौटी थी. डॉक्टर ने अपना परिचय दिया और कैदी की पूरी कहानी बताकर उससे बात करने की मंशा जाहिर की. औरत बहुत खूबसूरत नहीं थी पर उसमें बला की कशिश थी. होठ बहुत पतले और नरम थे. उसे देखकर कोई भी सोच सकता था कि उसके साथ बिताने वाले पल कितने सुखद होंगे. उसने कैदी की खुदकुशी वाली बातों का भावपूर्ण जिक्र कर उसे बात करने के लिए तैयार कर लिया. घर के भीतर बिठाकर उसने चाय बनाई और फिर बोली- ‘आपकी बातें सुनकर मुझे धक्का लगा. मैं उससे बे इंतिहा प्यार करती थी. वह और मैं थियेटर में साथ में काम करते थे. उसी ने मुझे बड़े-बड़े निर्देशकों और कलाकारों से मिलवाया था. थियेटर में कई लोग मिले पर मैं धीरे धीरे उसे ही लेकर गंभीर होती चली गई.’
‘पर वह आपकी नफरत से बहुत दुःखी है. खासतौर पर उस धर्मशाला और अदालत में जो कुछ आपने कहा वह उससे बुरी तरह टूट गया.’
औरत ने हल्की सी सिसकी ली और बोली-
‘दरअसल मुझे उसकी जाति से शिकायत नहीं थी. मेरी तीन साल तक कोर्टशिप चली थी, हम दोनों ने बहुत कुछ पाया था एक दूसरे से. मैं सबकुछ जानती थी उसके बारे में. मामला यह था कि मेरी जिस इंसान से शादी हुई वह कट्टर किस्म का शख्स था. मैं यह जानती तो कभी शादी न करती. पर अब तो हो चुकी थी. बात-बात पर जाति को लेकर मरने-मारने की धमकी देता था. अपने गांव में उसने जाति सभा बना रखी थी और उसकी बैठकें वह घर में भी करता था. एक दिन थियेटर से जुड़े पुराने परिचित ने मेरे संबंधों के बारे में सारी पोल खोल दी. वह नाराज हो गया, घर का सामान फेंकना शुरू कर दिया. मुझे पीटा और जान से मारने की धमकी थी. फिर शांत होने पर कहा कि अब सब कुछ तभी ठीक हो सकता है जब मैं अपने उसी प्रेमी को बुरी तरह जलील करूं और अपनी जिंदगी से निकाल दूं. वह उस शख्स को अपमानित होते देखना चाहता था.’
‘देखिए मैं एक डॉक्टर हूं. क्या आप मुझे बताएंगी कि आपके दो और जो प्रेमी थे, उनके बारे में भी क्या आपके पति को मालूम चला था.’
डाक्टर ने उसे रोककर धीमे से पूछा.
औरत थोड़ा असहज लगी और उसे इस प्रश्न की उम्मीद न थी. वह मौन हो गई. जब डॉक्टर ने उसे फिर से कैदी के जीवन पर खुदकुशी के मंडराते खतरे की याद दिलाई तो किसी तरह उसने अपने को संभाला और बोली-
‘नहीं. मुझे लग गया था कि मेरे पति को कुछ नहीं पता उन दोनों के बारे में. इससे मुझे भी तसल्ली हुई. शायद जिस परिचित ने मेरे पति से तीन में केवल एक प्रेमी के बारे में शिकायत की थी, वह होशियार था. वह थियेटर की स्वच्छंद दुनिया से खुद भी जुड़ा था. उसे मेरे विवाहेतर संबंधों से शिकायत न थी. उसे भी केवल इस बात से शिकायत थी कि मैं जाति देखे बगैर एक शख्स के इश्क में हूं और वह मुझे व मेरे प्रेमी को इसके लिए सजा दिलाना चाहता था.’
डॉक्टर को जितनी भी जानकारियां मिल रही थीं, उससे उसकी आंखें फटी रह गईं.
‘मैंने पति की बात मानकर उसे आखिरी मुलाकात में खूब गालियां बकीं, उसे जलील किया, कपड़े तक फाड़े और फिर जाकर पति को सब बताया. लगा उसका गुस्सा शांत हो गया है. एक हफ्ते के बाद जब मैं अपने अन्य प्रेमी से मिलकर लौटी तो पता चला कि उसने उसके ऊपर गोली चला दी थी. उसके घर के बाहर. दोनों में हाथापाई हुई और पति घायल हुआ. अदालत में उलटा ही साबित हुआ कि हमला मेरे उस प्रेमी ने किया था और जानलेवा हमले में उसे सजा हो गई. मैं कुछ दिन काफी परेशान रही. पर मेरे बाकी दोनों प्रेमियों तथा पति ने धीरे-धीरे मुझे संभाल लिया. मैं खुशकिस्मत थी कि मैं हमेशा अच्छे पुरुषों से मुहब्बत की. उन्होंने मुझे कभी किसी मुश्किल में नहीं डाला. मैंने नार्मल जिंदगी जीने के लिए एक मनोचिकित्सक की शरण ली थी और उसने समझाया था कि मुझ अतीत को भूलना होगा. मेरा अतीत मेरी गलती नहीं बल्कि दूसरों की गलतियों के कारण कष्टप्रद बना. दूसरों की गलतियों की सजा मैं अपने वर्तमान को नहीं दे सकती.’
डॉक्टर ने कुछ और बातें पूछीं. फिर उसे लगा कि यह पूरा केस ऐसी गुत्थी है जो सभी के लिए सुलझ सकती है. पर कैदी के लिए यह न सुलझेगी. वह इसकी गांठों से कभी बाहर न आ पाएगा. बचपन में घर में पड़ी रस्सी की याद आने लगी जो बाल्टी को जकड़कर रखती थी. बाकी लोग रस्सी को दूर से सीधी-सरल वस्तु की तरह देखते थे. औरत के घर के बाहर जब निकला तो उसने देखा कि हर चीज बहुत शांत है. हर व्यक्ति किसी न किसी काम में डूबा है और शाम का खाना बनाने के लिए लोग सब्जियां खरीद रहे हैं. जीवन इतना सरल था कि उसमें किसी की खुदकुशी की संभावना के बारे में सोचना तक असंभव था.
जेल वापस आकर उसने सोचा कि वह कैदी से मिलकर सारी बातें बता देगा. पर जेल के दफ्तर के एक कर्मचारी ने बताया कि कैदी ने एक दिन पहले फिर खुदकुशी का प्रयास किया था. उसकी हालत गंभीर थी और उसे अस्पताल में भेज दिया गया है. शायद ही जीवित बचे. डॉक्टर को विश्वास न हुआ. पर उसे याद आया कि पिछली मुलाकात में उसने बार-बार जिंदगी को प्यार करने की थ्योरी को खारिज किया था. वह भी बहुत बुद्धिमानी के साथ, न कि किसी आवेश में. वह समझदारी से मरने की कोशिश कर रहा था. डॉक्टर अपने क्लिनिक तक चलकर गया और देखा कि वहां ताला पड़ा है. जेलर ने क्लिनिक की चाबी अपने दफ्तर में रखवा ली थी. बाहर बेंच पड़ी थी, डॉक्टर उसी पर सिर पकड़कर बैठ गया. उसे सिगरेट पीते हुए कैदी का चेहरा याद आया जो कहा रहा था-
‘मैं उस औरत से नफरत नहीं कर सकता. वह खुदा का सबसे हसीन करिश्मा थी मेरे लिए. उसी ने मुझसे नफरत की थी.’
थोड़ी देर बाद दूर से जेलर आता दिखा तो डाक्टर ने अपने को सामान्य व्यवहार के लिए तैयार कर लिया. वह प्रोफेशनल मनोचिकित्सक था और उसे अपने मरीजों के व्यवहार व कामों से प्रभावित नहीं दिखना था. जेलर ने जेब से चाबी निकाली और डाक्टर के हाथ में थमाते हुए कहा-
‘आपको तो मालूम पड़ ही गया होगा कि एक और सुसाइड केस हुआ है. मैं परेशान हो गया हूं इन लुच्चों से. अब एक और जांच समिति के साथ सिर खपाना होगा. नतीजा कुछ निकलना नहीं.’
डॉक्टर ने धीमे से कहा- ‘मैं कल सुबह आकर दूसरे कैदियों से बात करूंगा. काम तो जारी रखना होगा. आप क्लिनिक को खुला रखिएगा.’
यह कहकर उसने माथे से पसीना पोंछा और दरवाजे का ताला खोलकर अंदर चला गया.
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वैभव सिंह
4 सितम्बर 1974, उन्नाव (उ.प्र.)
उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली
प्रकाशित पुस्तकें: इतिहास और राष्ट्रवाद, शताब्दी का प्रतिपक्ष, भारतीय उपन्यास और आधुनिकता, भारत: एक आत्मसंघर्ष.अनुवाद: मार्क्सवाद और साहित्यालोचन (टेरी ईगलटन), भारतीयता की ओर (पवन वर्मा)
सम्पादन : अरुण कमल : सृजनात्मकता के आयाम
सम्मान : देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति आलोचना सम्मान, स्पन्दन आलोचना सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान (भोपाल)
सम्प्रति: अम्बेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली में अध्यापन
ई-मेल : vaibhv.newmail@gmail.com
बहुत ही रोचक कहानी है यह। समाज में जाति पर आधारित ऊंचनीच के भाव से प्रभावित मनुष्य के मन की परत दर परत उधेड़ती रचना के लिए साधुवाद।
हालांकि कहानी सिर्फ इतनी नहीं है।यह विस्तार से विश्लेषण की मांग करती है।
कहानी बहुत अच्छे प्लॉट पर तैयार की गई है। ये वो विषय है जिस पर न जाने कितने मनोचिकित्सक अपनी थीसिस जमा कर चुके होंगे। अपनी MD के दौरान मैं भी कई बार ऐसे कैदियों से रूबरू हुआ क्योंकि मनोरोग के अलावा उनमें प्रायः कई तरह के lung infections भी पाए जाते हैं। कई बार तो ये भयावह टीबी से ग्रसित होते हैं जो इन्हें जीवित कंकाल बनाकर छोड़ती है। ये बात भी कहना चाहूंगा कि मनोचिकित्सा और अन्य उपचार के पश्चात इनमें ऐसे सुधार भी कभी कभी देखने को मिले जो शायद रोगी के साथ साथ एक चिकित्सक के लिए बड़ा उपहार थे। एक मुरझाए पुष्प को खिलते हुए देखना शायद जीवन का सबसे बड़ा संतोष है, जो चिकित्सक की कठिन ज़िन्दगी का सबसे हसीन हिस्सा है। कहानी बेहद चुस्त दुरुस्त भावों और भाषा के साथ आगे बढ़ी और ख़त्म हुई। schizophrenia सबसे जटिल मनोरोगों में से है जो एक बड़ी और गहन मानसिक पीड़ा का सबसे वृहद कारण है। हमारे मनोचिकित्सा के चिकित्सक जोकि इस विषय के माने हुए धुरंधरों में आते हैं ,वो बताते थे कि ऐसा रोगी आत्महत्या के लिए सबसे पीड़ादायक रास्ते को चुनता है। उन्होंने एक रोगी के विषय में बताया था जो अपने सामने तमाम ढेर सारी मोमबत्तियां जलाता है और उन पर झुककर अपने सारे अंगों को जलाकर ख़त्म हो जाता है। ये सिहर जाने वाली घटना सुनकर मैं कई दिनों तक विचलित रहा। वास्तव में ऐसे मरीजों के मन में लगातार ये आवाज़ आती है कि मर जाओ, जल जाओ, कट जाओ और वो इन आवाज़ों से आवेश में आकर अपनी जान दे देते हैं।
ख़ैर इस बारे में कभी और विस्तार से बात रखूँगा। लेखक को बहुत बधाई इतनी रोचक कहानी लिखने के लिए, बस अंत थोड़ा खटकता है, वो अपनी अपनी बात हो सकती है। लेखक और अरुण सर को बहुत बधाई।
भाषा,कथानक और कथन-इस दृष्टि से कहानी को पढ़ते हुए तीनों का समग्र प्रभाव इसे किसी विदेशी कथाकार की कहानी जैसा प्रतीत कराता है।लगा कि हम मोपासां, ओ हेनरी या चेखव को पढ़ रहे हैं।दरअसल, हिन्दी कहानी की विषयवस्तु अभी भी एक दायरे में सिमटी स्टीरियो टाइप जैसी रही है। जीवन को एक व्यापक फलक पर देखने समझने की दृष्टि इस तरह की कहानियों में मिलती है जो निसंदेह हिन्दी साहित्य के क्षितिज को एक विस्तार देती है। इस विरल कथा-वस्तु के लिए वैभव जी को साधुवाद !
कहानी पढ़ ली, एक साँस में। कहानी की ताक़त। शीर्षक भी नया और मेरे लिए ख़ास, क्योंकि रोज़ १०-१२ घंटे यही करता हूँ, जेल की जगह क्लिनिक में।यह सच है कि जेल में एक मनोचिकित्सक की तैनाती अच्छे परिणाम दे सकती है, बशर्तें व्यवस्था इस हस्तक्षेप को मान दे। वैभव सिंह का जेलर क्रूर असहयोग का प्रतीक है। ऐसा नहीं होना चाहिए।
कहानी का अंत दुखी कर गया। यह आत्महत्या टाली जा सकती थी, और इसके लिए समाज , रोगी की स्थिति और जेलर को दोष देने से काम नहीं चलेगा। समझदार आलोचनात्मक ऑडिट कहानी में तैनात मनोचिकित्सक के जनक को भी कठघरे में खड़ा करेगा। यह इसलिए कि लेखक ने जिस मनोचिकित्सक की तैनाती जेल में की है वह एक अपने clinical psychologist या psychoanalyst की तरह व्यवहार करता है। यानी वह psychiatrist नहीं। psychiatrist होता तो Suicidal thought/intention/ attempt को गम्भीरता से लेते हुए विश्लेषण से बचता और चिकित्सकीय हस्तक्षेप करता। Electroconvulsive Therapy यहाँ सर्वश्रेष्ठ इलाज होता। सनद रहे कि यह प्रमाण आधारित भी है और Mental Health Care Act 2917 के अनुसार वैध भी। ऐसे मरीज़ के लिए indoor treatment का इंतज़ाम किया जाना चाहिए था।अगर ECT की सुविधा नहीं थी तो Anti depressant और Lithium शुरू करना चाहिए था, और वह भी कड़ी निगरानी में। मरीज़ आत्महत्या के साधनों तक न पहुँचे इसका इंतज़ाम किया जाना चाहिए था।
मान लेता हूँ कि लेखक ने psychotherapist जो दवाएँ नहीं लिख सकते या ECT नहीं दे सकते उन्हें ही मनोचिकित्सक माना हो, तब भी अर्ज़ करना चाहूँगा कि psychotherapist भी अपनी चिकित्सा विधि की सीमाओं से परिचित होते हैं और वे ऐसे केस को psychiatrist के पास इलाज के लिए रेफ़र करते हैं।
मानता हूँ कि कोई भी चिकित्सकीय हस्तक्षेप सदा सफल नहीं होता, मगर हस्तक्षेप हो तो।
वैसे भी कहानी का emphasis जाति और पुरुष सत्ता है। बेचारा मनोचिकित्सक तो एक साधन भर है।
आख़िरी बात डायग्नोसिस को लेकर। लेखक ने क़ैदी को एक जगह Schizophrenia का मरीज़ बताया है और दूसरी जगह depression का। कहानी में वर्णित पात्र में schizophrenia का कोई लक्षण नहीं दिखाया गया है। वह तो अपने संवाद में पूरी तरह insightful है। उसे अपने किए का बोध है और वह पूरी समझदारी के साथ जिज्ञासु भी है। उसकी हिंसा unprovoked नहीं थी, उसे हिंसा के लिए provoke किया गया था और जो हुआ था वह परिस्थिति जनित था।
schizophrenia एक गम्भीर मनोरोग है और उसके कारण मूलतः जैविक होते हैं। वैभव सिंह के पात्र को schizophrenic नहीं माना जा सकता। उसके व्यक्तित्व में एक आक्रामकता ज़रूर है जो अवसादग्रस्त होने के कारण self directed हो गया है।
नोट : किसी ख़ास अनुशासन से जुड़े लेखन के लिए थोड़ा रीसर्च ज़रूरी है।
Vinay Kumar सर जेल से इंपैथी एक मनोचिकित्सक के लिए भी मुश्किल है! 8 महीने जेल में रही हूं और जेल की दुनिया को करीब से देखा है! जेल में डालने के बाद पहला काम किया जाता है आपके अस्तित्व को पूरी तरह नकार दिया जाता है! वहां प्राइवेसी की बात असंभव! वहां तैनात डॉक्टर भी जेलर की ही तरह व्यवहार करते हैं. मनोचिकत्सक तो आमतौर पर होते ही नहीं. कोरोना काल में काम से कम लखनऊ जेल में सौ प्रतिशत बंदी अवसादग्रस्त थे! 95 प्रतिशत कैदी आमतौर गंभीर मानसिक अवसाद में रहते हैं! बाकी कहानी से लोगों का ध्यान तो आकर्षित हुआ है कम से कम इसके लिए वैभव जी को सलाम!
Vinay Kumar सर, इन बातों पर मैं भी सोचता रहा था। कोई रिपोर्टर पात्र होता तो भी कहानी यही रहती। मतलब मनोचिकित्सक का एक पात्र के रूप में होने से कहानी में कुछ भी बदलता नहीं। मुझे क्लीनिकल प्रैक्टिस की तो समझ नहीं पर शायद कोई भी मनोचिकित्सक ऐसे सफर कर किसी परिजन से मिलने भी नहीं जाएगा। वो इलाज शुरू करेगा।
Vinay Kumar आपका पाठ दुरुस्त है। इतनी ध्यान से पढ़ने के लिए धन्यवाद। आमतौर पर मैं आलोचना का स्वागत करता हूं, जवाब नहीं देता। पर आपके सवालों का जवाब देना जरूरी लग रहा। आपकी आपत्तियां उन अंतर्विरोधों से भरी हैं जो अक्सर साहित्य के अनुशासन को अपने ज्ञान से दबाने या उससे अपरिचित रहने या उस पर मनमर्जी का पाठ थोपने से पैदा होती हैं। आप स्वय॔ psychologist, psychiatrist और psyhcho-therapist के अंतर को मान कहानी में किसी एक की संभावना जता रहे हैं। फिर डाक्टर के किरदार पर सवाल क्यों? वह ‘talk therapy’ से भी जुड़ा चिकित्सक हो सकता है। भारत का तो नहीं पता जहां नीमहकीम मनोविद भरे पड़े हैं पर दुनिया मे psychotherapy के सैकड़ों स्कूल विकसित हुए हैं। फिर आपका मत है कि schizophrenia के मरीज में depression नहीं होता जो गलत है। स्किजोफ्रेनिया के अलग-अलग चरण हो सकते हैं और उसमें depressive symptom होना आम बात है। तीसरा आपको कैदी का व्यवहार ‘सामान्य’ लग रहा जबकि वह एबनार्मल है। चेतना पर भयावह दबाव लेकर जी रहा। साहित्य ‘between the lines’ की चीज है, मनोविज्ञान का शोधपत्र नहीं जिसमें हर बात, हर संकेत खोलकर बताना होता है। चौथा कहानी का अंत कैसे हो या कहानी में डाक्टर केवल एक जीवंत चरित्र के स्थान पर केवल psychological assessment या clinical therapy तक सीमित मुर्दा किरदार बना रहे, या यह यह करे वह करे, तो यह कहानी को अपनी सुविधा से rewrite करने की कोशिश है जिसमें कोई बुराई नहीं। जरूर करें, सब करते हैं। कहानी के मानवीय पक्ष की हत्या नहीं करनी है बस। मेरे सामने की बात है कि एक बार एक कृषिवैज्ञानिक ने किसान आत्महत्या पर लिखी कहानी पढ़ उसे गलत बताया और भारत सरकार से मिलने वाले बीज-खाद के महत्त्व के आधार पर कहानी का विवेचन कर अपना ‘विरेचन’ कर डाला था। साहित्य का भी अनुशासन और आंतरिक तंत्र होता है, उसके प्रति संवेदनशीलता रखने में कोई बुराई नहीं।