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Home » अशोक वाजपेयी की कविताएँ

अशोक वाजपेयी की कविताएँ

युद्धों की बर्बरता का प्रतिपक्ष कविता में है. महायुद्दों ने महाकाव्यों को जन्म दिया है. विश्वयुद्दों से तीखी झड़प अस्तित्ववादी दर्शन और उससे प्रभावित कलाएँ करती हैं. वर्तमान में युद्धों के रणक्षेत्र बदल गये हैं. युद्ध शुरू होते ही आख्यान उसे जीत लेते हैं. ध्वंस और धुआँ बचता है. विचार के प्रतिवाद की गुंजाइश तक नहीं छोड़ी गयी है. ऐसे में कविता अपनी स्मृति से अपना काम कर रही है. जो कहर बरपा है उसे देख और लिख रही है. वरिष्ठ कवि-लेखक अशोक वाजपेयी की इन नई कविताओं में दो कविताएँ इस समकालीन विध्वंस की राख से उठी हैं और कहती हैं- ‘यह लाचार मारे जाने का समय है’. अपनी सघनता और मार्मिकता में ‘यह मनुष्य का समय है’ कविता विचलित करती हैं. तीसरी कविता चित्रकार मनीष पुष्कले की विशाल कलाकृति ‘पक्षी किससे बोले’ को लेकर लिखी गयी है जो इन दिनों पेरिस के गिमे संग्रहालय में दिखायी जा रही है. यह कविता जैसे उस कलाकृति से होड़ ले रही हो कि उसे देखते हुए उसका देखा जाना भी देखा जाए. प्रस्तुत है

by arun dev
December 7, 2023
in कविता
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अशोक वाजपेयी की कविताएँ
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अशोक वाजपेयी की कविताएँ

 

यह मनुष्य का समय है

अभी खिड़की के बाहर धुआँ आया है
एक चिथड़े के साथ जो किसी बच्चे की देह का है,
अभी एक धमाके से हिले हैं खिड़की के काँच,
अभी एक अधजली स्त्री चीख़ती हुई भागी है
न जाने किस ओर,
यह धुएँ का, ध्वंस और धमाके का समय है-

यह लाचार मारे जाने का समय है,
सिर्फ़ कहीं होने-बसने के कारण,
यह समय है जब विलाप अट्टहास की तरह
छा जाते हैं, बादल की तरह
सब कुछ पर बरस रहे हैं.
यह घरघुसुआ समय है:
जो घर में छुपा-दुबका है उसे भी
घर समेत ध्वस्त करने का समय.

यह समय है पत्थर की तरह निर्मम निर्विकार,
यह समय है आग बरसाता हुआ,
यह समय है जो चीख़ों से, आँसुओं से नहीं भीगता-
यह समय है काल की काली गुहा में ग़ायब होता हुआ,
यह समय है जो बीतता नहीं लगता,
जो अन्तहीन है- खूँख़ार, दहाड़ता हुआ,
जो लोगों को और शायद अपने को
एक साथ नष्ट कर रहा है:
यह समय है विनाश के व्याकरण में बँधा,
मौत की इबारत, ध्वंस का विन्यास.
अनन्त के शिविर पर समय की चिथड़ी खूनरँगी पताका फहरा रही है.

जो मर रहे हैं निरपराध
उनके ईश्वर,
जो मार रहे हैं अकारण
उनके ईश्वर,
दोनों ही अपने दिव्य आसनों पर विजड़ित हैं:
उनकी बूढ़ी आँखों को दिखायी नहीं देता ध्वंस,
उनके बहराये कानों तक पहुँचती नहीं प्रार्थनाएँ, चीत्कार, जयघोष;
उन्हें सिर्फ़ अपने होने का लकवा मार गया है.
ईश्वर ने इस समय ग़ज़ा में न होने को
लाचार स्वीकार कर लिया है.

स्त्रियों और बच्चों के शरीरों के चिथड़े,
घुटनों से टूट कर पड़े पैरों, दुआ में उठने से पहले
तोड़ दिये गये हाथों, सभी को
इतिहास का कचरागाड़ियाँ बटोर रही हैं
ताकि बर्बरता की राहें साफ-सुथरी सुगम रहें.

कविता न राहत है, न बखान,
थोड़ी सी कायर गवाही भर.
कविता पनाहगाह है
जहाँ मृतक और घायल अगल-बगल लेटे हैं;
कविता क़ब्रगाह है
जिसका दरवाज़ा बर्बरता गाली बकते खोल रही है
जहाँ नामहीन असंख्य लोग मिट्टी में वापस जा रहे हैं.
जो मरता है मनुष्य है,
जो मारता है मनुष्य है,
जो यह मरना-मारना चुपचाप देखता है मनुष्य है,
यह मनुष्य होने, न होने, काफ़ी न होने का समय है-
पशुओं-पक्षियों-देवताओं से छीना गया
यह मनुष्य का समय है.

 

यह दीवाली

यह दीवाली अँधेरे के नाम लिखी जा रही है:

दिये जल रहे हैं
पर उनमें हाल ही में बहे खून की रोशनी धधक रही है
और अगरू गन्ध में चिराँयध घुली हुई है
समृद्धि की प्रार्थना जीने देने के अनुरोध से टकरा रही है
यह दीवाली रोशनी का दूसरा नाम नहीं है.

बढ़ते और न घटते अँधेरे में
कुछ लिखने के लिए रोशनी और रोशनाई चाहिये
अँधेरे में लिपि आड़ी टेढ़ी हो रही है
लिखने भर से रोशनी शायद ही आयेगी.

अपने से लड़ना हम भूल चुके हैं
और दूसरों को नष्ट करने का अद्भुत उत्साह है:
जो अपना अँधेरा दूर नहीं कर सकती वह कविता
दूसरों को अँधेरे से बाहर कैसे ला पायेगी?  

 

Manish Pushkale Art Work- ‘To whom the Bird should speak?’ 10’x150 ft, mixed media on canvas, 2023.

 

फिर भी, जगह और समय

प्रशस्त मार्ग अब दिखायी नहीं देते
कई पगडण्डियाँ हैं जिन पर हम भटक रहे हैं
विपुलता की धार और विपन्नता की धूल ने रास्ते गायब कर दिये हैं.

समय अकस्मात् है,
हम अकस्मात् हैं,
हमें अकस्मात् घेर रहा है.

अक्षर हैं पर उन्हें शब्द में समाहित होने की इच्छा नहीं है;
चिह्न हैं पर वे किसी आकार में घट जाने की प्रतीक्षा में नहीं हैं;
कुछ छूटा हुआ है पर वह फिर से किसी का हिस्सा नहीं बनना चाहता;
कुछ ज़ाहिर तो हो रहा है पर वह कुछ कहना नहीं चाहता.

बाहर उजाले की दरारें हैं,
अन्दर अँधेरे की सुरंग हैं,
हमारे वितान में उजाले-अँधेरे बुने हुए हैं,
हम दिगम्बर नहीं हैं हम छायाओं में लिपटे हुए हैं!

समय जैसे पुरानी दीवार का चूना-गारा झर जाता है झर गया है
हमारी जगह समयहीन है या कि जगह ही अब समय है!

यह रेखाओं का अभयारण्य है
जहाँ इतिहास अपनी दिशा खोकर बिलमता-भटकता है.

यहाँ दरवाज़े हैं –
खिड़कियाँ हैं –
आँगन हैं –
पर घर नही हैः यहाँ सब कुछ बेघर है जैसे राग बेघर होता है.

हम क्या खोज रहे हैं यह भूलकर सिर्फ़ खोज रहे हैं
और जो मिलता है वह हम खोज नहीं रहे हैं.

यह कहीं नहीं है, कहीं नहीं वहीं है, यह न कहीं है, न नहीं है, न वहीं है.

पहचान बची नहीं है
जो बचा है उससे कुछ पहचाना नहीं जा सकता.
हम नक़ाबपोश नहीं है पर हमारा चेहरा अक्षरों की धूल से धूमिल है-
दस्तक रंग है, रंग दरार है, दरार से उजाला आता है, उजाले की इबारत अधूरी है.

भूलभुलैया में हम फँसते नहीं हैं
चलते चले जाते हैं
जो शुरु में मोड़ पर दिखता है
वह आगे जाकर ओझल हो जाता है
पर ग़ायब नहीं होता.

हम जो देखते हैं वह दृश्य नहीं है:
वह प्राक्-स्मृति है
हमारे बहुत पहले से होने के, होते रहने के निशान और नक़्शे.
हम दृश्य नहीं हैः हमारा होना हम ही से छुपा हुआ है
हम दिखते-देखते हैं और फिर फिसलकर भटक जाते हैं
हम पगडण्डी हैं, हम पाँव हैं, हम शिराएँ हैं, हम हैं, हम नहीं हैं.

पुकार भटकती नहीं है
वह रोशनी की तरह सब कुछ पर छा जाती है-
कौन किसको पुकार रहा है?
किसके पास आवाज़ बची है?
किसके पास शब्द बचे हैं?

हम धूल हो सकते थे,
हम अक्षर हो सकते थे,
हम अँधेरे से बाहर उजाले में आ सकते थे,
हम भूलभुलैया का गीत गा सकते थे,
हम हो सकते थे,
हम होने से बचकर निकल सकते थे!

यह, फिर भी, जगह है-
यह, फिर भी, समय है-
यह, फिर भी, हम हैं-
यह फिर भी, हम नहीं हैं.


अशोक वाजपेयी ने छह दशकों से अधिक कविता, आलोचना, संस्कृतिकर्म, कलाप्रेम और संस्था निर्माण में बिताये हैं. उनकी  लगभग 50 पुस्तकें हैं जिनमें 17 कविता-संग्रह, 8 आलोचना पुस्तकें एवं संस्मरण, आत्मवृत्त और ‘कभी कभार’ स्तम्भ से निर्मित अनेक पुस्तकें हैं.  उन्होंने विश्व कविता और भारतीय कविता के हिन्दी अनुवाद के और अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, भारत भूषण अग्रवाल की प्रतिनिधि कविताओं के संचयन सम्पादित किये हैं और 5 मूर्धन्य पोलिश कवियों के हिन्दी अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित किये हैं। अशोक वाजपेयी को कविताओं के पुस्तकाकार अनुवाद अनेक भाषाओं में प्रकाशित हैं.

अनेक सम्मानों से विभूषित अशोक वाजपेयी ने भारत भवन भोपाल, महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, रज़ा फ़ाउण्डेशन आदि अनेक संस्थाओं की स्थापना और उनका संचालन किया है. उन्होंने साहित्य के अलावा हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, आधुनिक चित्रकला आदि पर हिन्दी और अंग्रेजी में लिखा है.

फ्रेंच और पोलिश सरकारों ने उन्हें अपने उच्च नागरिक सम्मानों से अलंकृत किया है.

दिल्ली में रहते हैं.
ashokvajpeyi12@gmail.com

Tags: 20232023 कविताअशोक वाजपेयीअशोक वाजपेयी की कविताएँगाजाफ़िलस्तीन
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Comments 18

  1. ममता कालिया says:
    2 years ago

    समय अकस्मात है,हम अकस्मात हैं,यही वर्तमान का सच है।यह रचना बहुत समर्थ लगी।

    Reply
  2. अरुण कमल says:
    2 years ago

    अशोक वाजपेयी की कविताएँ अपने समय,संसार और स्वयं की मर्मबेधी समीक्षा है।तीसरी कविता महाकाव्यात्मक आशयों और चिंताओं को पुंजीभूत करती है।तना हुआ स्वर और मितकथन आंतरिक उद्विग्नता का व्यंजक है।उम्र के साथ एक ख़ास परिपक्वता भी आती है,आग में तपने-पकने जैसी यंत्रणा के साथ।

    Reply
  3. रमेश अनुपम says:
    2 years ago

    अशोक वाजपेयी की ये तीनों कविताएं हमारे समय के लगातार विद्रूप और विपन्न होते जाने की प्रश्नकुल कविताएं हैं ,हमारे समय से जिरह करती हुई ये कविताएं युद्ध और अमानवीयता के खिलाफ बहुत कुछ कहना जानती हैं । हमारी लगभग कुंद होती चली जा रहीं संवेदना और करुणा को काफी हद तक खरोंचती हुई अशोक वाजपेयी की ये कविताएं हमारे समय का एक नया रूपक गढ़ती हैं ।
    उनकी भाषिक संरचना में हमारे समय की छटपटाहट और व्याकुल पुकार को अपने भीतर अंतर्निहित कर लेने की अद्भुत और गजब की शक्ति है, उनकी कविताओं का शिल्प भी इन कविताओं में अशोक जी के काव्यविवेक को और उनकी काव्यसंवेदना को एक नए रूप में प्रकट करने वाला है । इधर अशोक वाजपेयी की कविताएं जिस तरह सघन विचारों और एक गहरे प्रतिरोध के साथ मनुष्यता के पक्ष में निर्भीकता के साथ खड़ी हुई दिखाई दे रही हैं उस पर अलग से विचार किए जाने की जरूरत है । उन्हें अक्सर रूपवादी कवि के खाते में डालकर छुट्टी पा ली जाती है । यह हिंदी आलोचना की दरिद्रता को प्रकट करती है । जबकि मेरी राय में अशोक वाजपेयी एक महत्वपूर्ण कवि हैं जिनकी कविताओं को गंभीरता और ईमानदारी के साथ समझे जाने की आवश्यकता है । इन सुंदर और बेहद प्रभावशाली कविताओं के लिए अशोक वाजपेयी और समालोचन दोनों का आभार ।

    Reply
  4. Nilim kumar says:
    2 years ago

    Beautiful poem .

    Reply
  5. विजय कुमार says:
    2 years ago

    विनाश के व्याकरण को बताती स्तब्ध कर देने वाली कविताएं हैं

    Reply
  6. माताचरण मिश्र says:
    2 years ago

    अशोक वाजपेयी की कविता को प्रगतिशीलों ने कलावादी कह कर किनारे कर दिया है. उनका वास्तविक मूल्यांकन भावी पीढ़ी अवश्य करेगी. उन्होंने जब लोग चुक गए हैं वे अभी भी सक्रिय हैं….

    Reply
  7. Sharad Kokas says:
    2 years ago

    अशोक बाजपेई अभी भी सक्रिय है और नई तरह से लिख रहे हैं। उनकी कविताओं में समय दर्ज है अपने उत्सव में और अपनी वीभत्सता में भी ।

    Reply
  8. Dhruv shukla says:
    2 years ago

    अशोक वाजपेयी की ये अभी लिखी कविताएं बर्बरता के शब्द- चित्र हैं। इनमें निराशा की धुंध निर्भयता पर छायी-सी लगती है। पर कवि के निर्भय साहस का चेहरा भी तो दीख रहा है —- ‘कविता कायर गवाही’ नहीं, शायर गवाही है। ये कविताएं भी ऐसी ही गवाही दे रही हैं।

    Reply
  9. सुरेंद प्रजापति says:
    2 years ago

    अशोक वाजपेई की इन नई कविताओ में समय विभिन्न रुपको में दर्ज निराशा, विनाश, वीभत्सता, होने, नहीं होने में शामिल मार्मिक है।

    Reply
  10. विवेक निराला says:
    2 years ago

    अशोक जी की कविताएँ मनुष्यता के गाढ़े अँधेरे की कविताएँ हैं, इस वय में भी हस्तक्षेप करती कविताऐं। सभ्यता समीक्षा। फिर भी, जगह और समय तो हमारे समय का महाकाव्य है।

    Reply
  11. Dr Om Nishchal says:
    2 years ago

    अशोक वाजपेई की ये कविताएं अपने समय और देश देशांतर के युद्ध और युद्धोत्तर तनाव का साक्ष्य देने वाली कविताएं हैं। रोशनी के भीतर अंधेरे के सतत बढ़ते आक्रामक अतिक्रमण , युद्ध जन्य निर्ममता और निरंतर अपदस्थ और जमीदोज होती हुई मनुष्यता का निहितार्थ सामने वाली लाने वाली ये कविताएं उस समय लिखी जा रही हैं जब युद्ध भी बाजार के बशीभूत है और एक उद्योग की तरह विकसित होता जा रहा है ।

    दुनिया के कवियों ने युद्ध की विभीषिकाओं और विस्थापन की संकीर्णताओं से लोहा लिया है और मनुष्यता के पक्ष में आवाज उठाई है । अशोक वाजपेई अपने उत्तर जीवन में अपने कवि के दायित्व से और प्रतिबद्धता और प्रतिश्रुति के साथ डटे हैं । यह एक बड़ी बात है ।

    तीनों कविताएं मार्मिक और सत्यान्वेषी हैं तथा इस बात का सबूत हैं कि अभी भी सच पर अडिग रहने वाले कवि हमारे समाज में हैं जो आंखिन देखी कहने और रचने का साहस रखते हैं।
    –ओम निश्चल

    Reply
  12. DINESH PRIYAMAN says:
    2 years ago

    अशोक जी धीरे धीरे सौन्दर्यानुभूति के वाह्यांतर से बाहर निकल रहे हैं।यह हमारे जटिल होते समय का विरल दबाव ही है जिसमें जीवन का दैहिक आकर्षण मनुष्यता के संघर्षजनित विलाप में पर्यवसित होता नज़र आ रहा है,वह भी उनके कवि – जीवन के उत्तर काल में। सौंदर्य हो या संघर्ष, युद्ध हो या शांति समय की निरंतरता का हर क्षण जीवन को किसी न किसी तरह के तनाव से कभी मुक्त नहीं करता।फिर भी …..वर्तमान के युद्धोन्माद को सघनता से उकेरती तीनों रचनाएं सामयिक हैं।

    Reply
  13. मीनाक्षी जिजीविषा says:
    2 years ago

    एक नया कलेवर लिए अशोक वाजपाई जी की युद्ध के खिलाफ करुणा , आक्रोश, क्षोभ, और मानवता को झकझोरने वाली सशक्त कविताएं हैं ये। जो अशोक वाजपाई जी को केवल सौंदर्य और प्रेम, विलास का कवि कहते हैं , उनके लिए करारा जवाब हैं ये कविताएं। प्रिय कवि को बेहतरीन कविताएं के लिए बधाई।

    Reply
  14. Rajesh Joshi says:
    2 years ago

    ये कविताएं मन मस्तिष्क को झिंझोड देने वाली कविताएं हैं। ये अशोक जी के कवि स्वभाव का अतिक्रमण हैं। इनके बारे में ऐसे सारे कथन कम हैं।

    Reply
  15. Ashok Aatreya says:
    2 years ago

    अशोक वाजपेयी की ये कविताएं समूचे विश्व की वह कराह है जो हमारी सारी संस्कृतियों व सभ्यताओं को क्षण भर में आग धुएं व बारूद व मानव जिस्मों की सडांध व असमर्थता में बदल देती है। निरीहता की सारी हदों को पार करती ये सब कुछ के बावजूद एक आंतरिक प्रतिरोध को भी जन्म देती है। युद्ध किसी भी वजह से जायज नहीं लेकिन इसके लिए कविता भी एक हथियार तो है ही।

    Reply
  16. Leela dhar Mandloi says:
    2 years ago

    इन त्रासद स्थितियों हर वो कवि गुज़रेगा जो विश्व मानव की तरह सोचता है।
    इन कविताओं में सृष्टि की पक्षधरता और मनुष्य मात्र के मंगल की कामना है।ये अपनी तरह की तहों में प्रार्थनाएं भी है।अंधेरी राजनीति के विरुद्ध लोक चेतावनियों सा हस्तक्षेप है।

    Reply
  17. लीलाधर मण्डलोई says:
    2 years ago

    अशोक जी की सांस्कृतिक सक्रियता ही नहीं, उनके लिखे में,कहे में,कर्म में जो सृजनात्मक उर्जा है,वह महत्वपूर्ण है।असहमति के साथ,अपने विचारों के साथ,विरोधों के
    साथ भी लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था का जो एक विज़न
    है और आज़ाद अभिव्यक्ति का आयाम, उसे इग्नोर नहीं किया जा सकता।जो असहमतियां मेरी हो सकती हैं,वे कलाओं के लोकतंत्र में लाज़िमी हैं,अगर उनमें हैं तो अन्य में भी होंगी।
    परंतु एक बात तो है।और वो न हो तो क्या बचा सिवाय इसके कि आपकी बला है आपके गर्दन में।इधर की हो कि उधर की।अपनेआख़िरी वक़्त और इस समय आ गये वक़्त की उनकी और अपनी तहरीरों को पढ़ें और संघर्ष को कुछ और तेज़ करें,वे समानधर्मा जो इधर उधर के हैं और एकसा सोच रहे हैं।जिन्हें हम तलछट में अपनी तरह पाते हैं उनको साथ रखना चाहिए,मैं उनको शामिल कर रहा हूं।मैं उनका पहले हूं,वह मेरा समाज है,जिनके बारे यह समाज नहीं सोच रहा,यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
    वक़्त कठिन आन पड़ा है।कौन अपना है ,कौन नहीं ,ये शिनाख़्त ज़रूरी है।
    मैं ग़लत ही सही मैं अपनी तरह से सोचता हूं।
    इसका मतलब यह नहीं कि मैं उनकी तरह सोचता हूं।मैं ऐसा सोच रहा हूं और मैं समय की भयावह त्रासदी के ऐन सामने सोच रहा हूं, अपने अल्प अनुभव से समझ रहा हूं।यह वकालत नहीं है।मैं इस शब्द से नफ़रत करता हूं। मैं कल भी और आज भी अपने विचार के पांवों पर खड़ा हूं।यह दुनिया सुंदर बनी रहे,यही मेरा विचार, मेरी आस्था है।नासमझ लोग इस पर मेरी कुटम्मस करे,यह संभव है।सो शर्म की सी शर्त नामंजूर।
    और एक आज़ाद अपनी तरह का लोकतंत्र जिंदाबाद।
    भूलचूककनाचचूक।

    Reply
  18. Sanjeev buxy says:
    2 years ago

    अशोक बाजपेयी जी की बहुत ही सुन्दर कविताएँ पढ़ने को मिली ।वे अपने आपको कविताओं में माँजते रहते हैं ।कविताओं में नयापन है जो कि ध्यान खींचता है।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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