थ्री ऑफ़ अस |
‘जो याद रखता है, उसे हम आविष्कारक मान सकते हैं.’
ओसिप मेंदल्स्ताम
यह भी एक अजीब वाकया है कि बूढ़े होने के साथ-साथ जब हमारी याददाश्त कमज़ोर पड़ने लगती है तो स्मृतियाँ पहले से कहीं अधिक प्रबल हो उठती हैं. आँखों के सामने हमें वे तमाम चित्र देखते हैं, जिनके बारे में इससे पहले हमने सोचा तक नहीं होता. वे भूले बिसरे चेहरे याद आते हैं, जिनसे हमारे अतीत या निजी इतिहास का ताना-बाना रचा है. हमारा चंचल मन फिर-फिर उन पुरानी स्मृतियों की ओर लौटता है, किसी प्रूफरीडर की तरह उसकी गलतियों पर निशान लगा, उन्हें सुधारने की कोशिश में, जैसे कि उस ज़िन्दगी का कोई नया संस्करण छपकर आने वाला हो! अंततः उम्र हमेशा बहुत छोटी पड़ जाती है और उसमें अपनी स्मृतियों को ढाल बना दरअसल हम अपनी अवश्यम्भावी मृत्यु से लड़ रहे होते हैं. और इसका विपरीत भी सच है कि मनुष्य का स्मृति-विहीन होना एक तरह से उसके अपनी मृत्यु से हार मान लेने के समान है!
एक सृजक का सबसे बेशकीमती सामान उसकी स्मृतियाँ होती हैं जिन्हें किसी वैताल की तरह पेड़ की डाल से नीचे उतार वह हर बार उनसे एक नयी कथा ढूंढ निकालता है. एक बेहद कठिन कारावास में आखिरकार दम तोड़ने वाले रूसी कवि और गद्यकार ओसिप मेंदाल्स्ताम इस तलाश को आविष्कार की संज्ञा देते हैं.
मेरे लिए कल्पना कर पाना भी कठिन था कि ऐसी संश्लिष्ट सोच को कोई फिल्मकार सिनेमा का विषय बना सकता है, लेकिन निर्देशक अविनाश अरुण ढावरे की हिंदी फिल्म ‘थ्री ऑफ़ अस’ ने मेरी इस धारणा को एक सिरे से खारिज कर दिया. ‘थ्री ऑफ़ अस’ स्मृतियों में रची-बसी, बेहद सादे नाम वाली एक असाधारण फिल्म है, जिसमें स्मृतियों के त्रिकोण पर दिखते हैं तीन पात्र- dementia, स्मृति क्षरण की कगार पर खड़ी एक स्त्री, जो विस्मृति के जंगल में डूब जाने से पहले फिर से उस अतीत में लौटना चाहती है, जिसने उसके वर्तमान को निर्धारित किया है और इन स्मृतियों से अनभिज्ञ एक पति, जो पहली बार उन्हें छूकर चमत्कृत होता और कहीं अवचेतन में उनसे ईर्ष्या भी करता है और बचपन में छूटा एक अन्तरंग साथी जो आज वह नहीं है जो वह बनना चाहता था, लेकिन स्त्री की उपस्थिति जिसे फिर से उसी सांझे अतीत में लौटने पर मजबूर करती है!
फिल्म में एक चौथा और संभवतः उतना ही महत्वपूर्ण किरदार उस अन्तरंग साथी की पत्नी का है, जो इस खेल को बहुत नज़दीक से घटित देख अपने पति के व्यक्तित्व को परखने और किसी दार्शनिक की तरह मंद-मंद मुस्करा, उसे कुछ और समझने की कोशिश करती है.
स्मृतियों और हादसों का यह खेल सिर्फ इन चार पात्रों का वैयक्तिक विलास नहीं—बल्कि हमारे अपने क्रूर, अमानवीय जीवन से स्मृतियों के क्रमशः छूटते चले जाने की दुखद कथा है जिसे फिल्मकार अविनाश अरुण की चमत्कारी फोटोग्राफी, ओंकार अच्युत बर्वे की कहानी-पटकथा, अरुण ग्रोवर तथा शोएब जुल्फ़ी नज़ीर के संवाद तथा शेफाली शाह, जयदीप अहलावत, स्वानंद किरकिरे और कादम्बरी कदम का सजीव चरित्र-चित्रण एक अविस्मरणीय फिल्म बना देते हैं.
फिल्म में कोई खलनायक नहीं है और न ही बचपन के अन्तरंग निश्छल रिश्तों से आगे लगाव का कोई ऐसा सूत्र, जिसे शारीरिक प्रेम की संज्ञा दी जा सके, क्योंकि तब तो यह कहानी कहीं और ही भटक जाती. बल्कि शुरू में स्त्री की उस पुरानी अंतरंगता को स्वीकार करने से शंकित वह मित्र कहता भी है कि ‘बचपन में तो सभी दोस्त होते हैं!’ लेकिन स्त्री उसे इतनी आसानी से छोड़ने वाली नहीं है. काम का बहाना बनाकर स्त्री का पति जब उसे बचपन के मित्र के साथ अकेला छोड़ता है तो हम तह-दर-तह उन दोनों के बीच मित्रता की गांठों को एक-एक-कर खुलते और उनके नीचे फैले बचपन के अनंत आकाश को कुछ और बड़ा और समृद्ध होता देखते हैं.
मुझे याद हो आया, कोलकाता में अपने से बड़ी, बचपन की एक अन्तरंग मित्र से 60 वर्ष बाद मिलने पर कैसे सारी शिष्टता को दरकिनार कर, मैं उसके कंधे पर सिर रख अपने आपको फूट-फूटकर रोने से रोक नहीं पाया था और सामने खड़े उस मित्र के अपरिचित पति और मेरी पत्नी कुछ कौतूहल, कुछ विस्मय से इस मिलन को देखते रह गए थे. मैंने कल्पना नहीं की थी कि अविनाश अरुण मेरे जीवन के इस नितांत निजी क्षण को एक दिन यूं परदे पर सार्वजनिक कर देंगे!
यह कठिन जीवन हमारे बचपन के सुनहरी, नैसर्गिक क्षणों को किस निर्ममता से नष्ट कर देता है, यह मुझे उस उस दिन मालूम हुआ था!
‘थ्री ऑफ़ अस’ फिल्म मुखर रूप से यूं तो क्रमशः dementia या स्मृति क्षरण की ओर बढ़ती एक स्त्री की कहानी है, लेकिन किसी न किसी रूप में क्या हम सब इसी व्यापक बीमारी के शिकार नहीं हैं? क्या हम सब के चारों ओर उद्देश्यहीन ज़िन्दगी का वह कोलाहल नहीं है, जिसे झेलते हुए हमारे लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को सुन पाना अब असंभव होता जा रहा है? देखा जाए तो वह बीमार स्त्री हम सबसे कहीं बेहतर स्थिति में है, क्योंकि अभी बचपन की उन निर्णायक स्मृतियों को वह सुन और छूकर महसूस कर सकती है. उन यादों का चुम्बक ही उसे उस सुदूर गाँव या कस्बे तक खींच लाया है, जहां से आगे ज़िन्दगी ने उसे एक क्रूर कोलाहल में धकेल दिया था. विस्मृति के अन्धकार में डूबने से पहले वह उन स्मृतियों को अनश्वरता में बदल देना चाहती है—किसी भी तरह, अपने ‘लैपटॉप’ की ‘पासवर्ड’ से सुरक्षित किसी फाइल में, या पति द्वारा सुझाई ‘गूगल’ या ‘क्लाउड मेमोरी’ के ज़रिए या किसी भी दूसरे तरीके से! लेकिन यदि वह ‘पासवर्ड’ ही भूल गयी तो फिर क्या होगा? क्या सभी कुछ तब विस्मृति की किसी अँधेरी गुफा में समा नहीं जाएगा? जीवन से हारे हुए पराजितों की इस अनंत भीड़ में, जीने की उद्दाम लालसा लिए, dementia से ग्रस्त वह स्त्री हम सबसे कहीं अधिक संवेदनशील और जीवित नज़र आती है.

(दो)
स्त्री- शैलजा पाटनकर (शेफाली शाह) मैरिज कोर्ट में फॅमिली सलाहकार है जिसे डॉक्टरों ने dementia से ग्रस्त पाया है. लोगों के बीच होते हुए भी कभी-कभी वह अचानक अनुपस्थित हो जाती है और याद रखने की गहरी आवश्यकता के चलते जीवन से जुड़े ज़रूरी कामों को डायरी में लिखकर याद रखती है. उसके परिवार में एक धैर्यवान और समझदार पति—दीपंकर देसाई (स्वानंद किरकिरे) है जो हर संभव तरीके से स्त्री का ख़याल रखता है, और एक नौजवान बेटा, जो कहीं दूर आई आई टी में पढ़ रहा है. एक शाम स्त्री जब अचानक अपने पति से हफ्ते भर की छुट्टी लेकर उसके साथ कोंकण के वेंगुर्ला चलने की गुजारिश करती है तो उसे ज़ाहिर तौर पर आश्चर्य होता है क्योंकि उसे पता भी नहीं था कि स्त्री ने स्कूल-कालीन जीवन के चार वर्ष वेंगुर्ला में गुज़ारे हैं, जहां उसके पिता तब पोस्टिंग पर थे. जीवन के इस छोटे से कालखंड को पति से न बांटने की एक वजह यह भी है कि वह समय एक दुखद दुर्घटना में बहन की मृत्यु से जुड़ा है, जिसके लिए स्त्री आज तक अपने-आपको माफ़ नहीं कर पायी है.
स्त्री के साथ हम वेंगुर्ला पहुँचते हैं, जहां अरुण अविनाश ढावरे का कैमरा हमें कोंकण का वह अनछुआ सौन्दर्य दिखाता है, जिसे इससे पहले किसी फिल्म में हमने शायद ही कभी देखा हो. सोई उदास गलियाँ, पुराने जर्जर मकान और उन मकानों में छिपा स्त्री का बचपन! फिल्म देखते हुए किसी अंतर्दृष्टि की तरह मैं अपने बचपन के उन विस्मृत इलाकों में लौटा, जहां छः दशकों के बाद मैं गाँव लौटा था, जहां घर के कोने में पीपल का एक पेड़ था जो रात के समय मुझे डराता था. फिल्म में पीपल की जगह स्मृतियों का एक कुआं है– शायद उस पेड़ से भी कहीं अधिक त्रासद, जिस तक जाने से भी स्त्री डरती है, लेकिन अंततः जिसकी कगार तक आ, नीचे झाँकने से वह अपने आपको रोक नहीं पाती, शायद अतीत में दबे उन प्रेतों को मारने की नाकाम कोशिश में!

“कुछ गोपनीय कहानियां ऐसी भी होती हैं, मन की परछाइयों में छिपी, किसी जीवाणु की तरह हिलती-डुलती, जो वक्त के साथ भयावह सूंड़ें उगा चुकने के बाद परजीवी तत्वों से ढँक जाती हैं और उनका डरावना अहसास रह-रहकर हमें सालता रहता है … स्मृति के इन प्रेतों को मारने के लिए कभी-कभी उन्हें कहानी की शक्ल में सुनाना ज़रूरी हो जाता है…”
(इसाबेल एलिंदे)
शायद स्मृतियों के ऐसे ही किसी अभियान में स्त्री वेंगुर्ला आयी है—एक अभिशप्त कातिल की तरह मौक़ा-ए-वारदात पर फिर से लौटने से मजबूर! इसी अतीत में है बचपन का अन्तरंग साथी– प्रदीप कामत (जयदीप अहलावत), जिसकी स्त्री से अभिन्न जोड़ी को ‘मोगैम्बो’ और ‘डागा’ जैसे मजाहिया नामों से जाना जाता था. लेकिन इस बीच बहुत समय गुज़र चुका है और हवा में बचपन की वह स्वतःस्फूर्त खुशबू कब की खो चुकी है. कई अनुत्तरित सवाल हैं उन दोनों के मन में, और शायद उत्तरों की तलाश में ही वे इस तरह 28 वर्षों के बाद फिर से मिले हैं. अन्तरंग मित्र को मालूम नहीं कि स्त्री एक दिन अपने आप से घबरा, उसे बताए बगैर, अचानक क्यों चली गयी थी. शायद उसके पीछे पिछवाड़े का वह मनहूस कुआं और उससे जुड़ी वह दुर्घटना थी…
और अन्तरंग साथी के पास भी स्मृतियों की शक्ल में अपने हिस्से के प्रेत हैं, जिन्हें वह याद नहीं करना चाहता, लेकिन स्त्री की उपस्थिति उसके भीतर दबे हुए तमाम सवालों को फिर से जीवित करती चली जाती है.
शराब से धुत्त एक पिता का अपने परिवार के सदस्यों को पीटना और फिर अचानक घर छोड़कर चले जाना, कभी वापस न आने के लिए, और पुत्र का बार-बार अपने-आपसे प्रश्न करना कि पिता ने आखिर ऐसा क्यों किया, तथा लम्बे समय तक इस उम्मीद में जीना कि एक दिन वह पिता को ढूंढकर उनके जीवन की उस पहेली को सुलझा लेगा!
हमें याद आती है जोआओ ग्विमारेज़ रोसा की ब्राजील-पुर्तगाली कहानी ‘नदी का तीसरा किनारा’, जिसमें पिता अपने परिवार को छोड़ अकेले एक नाव में रहने के लिए घर से निकल जाता है, कभी वापस न आने के लिए, अपने पीछे एक अचंभित और निराश पुत्र को पीछे छोड़, जो प्रतिभावान होने के बावजूद सारी महत्वाकांक्षाओं के बेमानीपन को महसूस करते हुए वहां से भाग खड़ा होता है. ‘थ्री ऑफ़ अस’ में लगभग वही पिता और पुत्र हैं, वही पिता का पलायन, वही पुत्र का किसी परछाईं की तरह अपने पिता का पीछा करना और अंततः आई.आई. टी. जाने सहित अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं को ठुकरा, एक बैंक की नीरस और कुंद कर देने वाली नौकरी क़ुबूल कर लेना!
पिता के इस पलायन ने अन्तरंग मित्र को तमाम पुरुषों को संदेह की निगाह से देखना भी सिखला दिया है और उसकी सबसे निकट मित्र अब उसकी पत्नी ही रह गयी है! लेकिन स्त्री से पुनः मिलने के बाद उसे महसूस होता है कि तमाम लोगों में एक दीपंकर देसाई पर भरोसा किया जा सकता है; संभवतः सिर्फ इस बिना पर, कि वह पुरुष बचपन की उस ‘मोगाम्बो’ स्त्री का पति है! स्त्री और अन्तरंग मित्र के बीच की यह गहरी विश्वसनीयता आखिर क्या है, जिसमें स्त्री की वापसी उस अन्तरंग मित्र को पराजय के गर्त से निकाल, बरसों बाद फिर से कविता रचने की प्रेरणा देती है? अँधेरे से निकल रौशनी में आने पर स्त्री और अन्तरंग मित्र, दोनों के जीवन रहस्य क्या हमें लगभग एक जैसे दिखाई नहीं देते?

‘All our inner secrets are the same…’ –
इस्राइली लेखक एमोस ओज़ एक जगह कहते हैं!
अन्तरंग मित्र के घर में दो बच्चियों के साथ उसकी पत्नी है, सारिका कामत (कादम्बरी कदम) जिससे वह जीवन की तमाम दूसरी स्थितियों की तरह स्त्री से होने वाली मुलाकात को भी बांटता है. उदार भाव से पत्नी उसे बचपन की मित्र स्त्री से मिलने की सलाह तो देती है, लेकिन यह अत्यंत भुरभुरी ज़मीन है, जिसपर पति को जाने की इजाज़त देने के बदले उसे उपहार की शक्ल में पति का अतिरिक्त प्यार और विश्वास चाहिए. वह जानती और संभवतः डरती है, क्योंकि स्त्री और अन्तरंग मित्र के बीच के कुछ सूत्र, पति-पत्नी के अटूट संबंधों से भी आगे निकल जाने की क्षमता रखते हैं.
दूसरी तरफ इन्हीं के एक विस्तार में स्त्री का पति स्वीकार करता है कि उसने अपनी पत्नी को इतना खुश पहले कभी नहीं देखा है! लेकिन इस ईर्ष्या में कहीं भी दुर्भावना या बदला लेने की भावना नहीं है, क्योंकि इसी के कुछ समय बाद हम उसे बहुत निजता के साथ उसी स्त्री के बालों में तेल लगाता देखते हैं! रिश्तों के बीच का यह विरल ताप सिनेमा में मुश्किल ही देखने को मिलता है !
‘थ्री ऑफ़ अस’ में ऐसे अनेक चित्र हैं जिनकी सार्वभौमिकता हमें अपने खुद के अतीत में झाँकने और उसकी स्मृतियों को सुरक्षित रखने की वजह देती है—उसे बदल न सकने की कठोर, दर्दनाक हकीकत के बावजूद! बरसों बाद अपने स्कूल की कक्षा के डेस्क पर खुदे निशानों से स्त्री जान लेती है कि यह सातवीं नहीं, आठवीं कक्षा है! अतीत के इस सुनहरे सपने में तिल्लाना नृत्य का अभ्यास इतने वर्षों बाद भी उसी तरह फिर से हू-ब-हू जीवंत हो उठता है, लेकिन इस बार dementia और स्मृति-क्षरण का दौरा उसे बीच में ही तोड़ देता है और थकी स्त्री हार मान एक ओर खड़ी हो जाती है! इसके अगले क्षण ही हम इस समूचे दृश्य को बहुत गौर से देखते अन्तरंग मित्र के नज़रिए से देखते हैं, किसी संयुक्त पराजय के छू लेने वाले भाव की तरह! एक ‘जायंट व्हील’, जिसपर चढ़ने से भी हमें डर लगता है, लेकिन जिसपर सवार हो, ज़मीन से कई फीट की ऊंचाई पर पहुँच, हम वह सब कहने का साहस दिखा पाते है, जो ज़मीन पर हमारी स्मृतियों के अँधेरे में कहीं दबा हुआ और विस्मृत था.
स्त्री के सामने इन स्मृतियों को बेपर्दा करते हुए भी अन्तरंग मित्र जानता है कि अब वह पहले का बचपन वाला ‘डागा’ या कि पिता के घर छोड़कर चले जाने से पहले का आशावान और उत्साही पुरुष नहीं रहा और न ही स्त्री अब पहले वाली जांबाज़ ‘मोगाम्बो’ ही बची है. लेकिन फिर भी कोंकण के उस बिसरे हुए कस्बे में उस मनहूस कुँए के भीतर झांकती स्त्री की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है कि स्मृतियाँ बेशकीमती होती हैं, जिन्हें जीवन की किताब से प्रूफ की गलतियां निकालने की जगह कुछ और पल जीने और याद रखने का रोमांचकारी आविष्कार भी बनाया जा सकता है! स्त्री का अपनी स्मृतियों को ज्यों-का-त्यों, किसी खूबसूरत तस्वीर की तरह बचे हुए जीवन के लिए सुरक्षित बचा लेने का यह अभियान ही इस फिल्म की खूबसूरत, अप्राप्य प्राण शक्ति है –फिल्मकार के शब्दों में इसका ‘उद्गम’ और इसकी सार्वभौमिकता– जिसमें अनायास ही रह-रहकर मुझे मेंदल्स्ताम, एलिंदे, रोसा, ओज़ और इन सबके साथ अपने प्रिय फैज़ अहमद फैज़ भी दिखाई देते रहे, जीवन के किसी ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह संगत और मानीखेज़-
याद की राहगुज़र जिस पे इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते चलते
ख़त्म हो जाए जो दो चार क़दम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्त-ए-फ़रामोशी का
जिससे आगे न कोई मैं हूँ न कोई तुम हो
साँस थामे हैं निगाहें कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ गुज़र जाओ या मुड़ कर देखो
गरचे वाक़िफ़ हैं निगाहें कि ये सब धोका है …
याँ कोई मोड़ कोई दश्त कोई घात नहीं
जिसके पर्दे में मिरा माह-ए-रवाँ डूब सके
तुमसे चलती रहे ये राह, यूँही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं.
‘समय सीमान्त’, ‘प्रत्यक्षदर्शी’, ‘जुस्तजू-ए-निहां उर्फ़ रूणियाबास की अन्तर्कथा’ (उपन्यास); ‘रक्तजीवी’, ‘शहादतनामा’, ‘सिद्धार्थ का लौटना’ (कहानी-संग्रह); ‘जंगल में खुलने वाली खिड़की’ (नाटक); ‘रास्ते बन्द हैं’ (नाट्य रूपान्तर); ‘सोचो साथ क्या जाएगा’ (विश्व साहित्य संचयन); ‘विज्ञान’, ‘संस्कृति एवं टेक्नोलॉजी’ आदि पुस्तकें प्रकाशित. स्वतंत्र लेखन. |
एनिमल के दौर में थ्री ऑफ अस सिनेमा के लिए एक उम्मीद है, और इस पर लिखा तो क्या ही कमाल है!
लेख कुछ परतों को ज़रूर खोलता है, हालांकि मैं कुछ और तार्किक विश्लेषण की उम्मीद कर रहा था। फिल्म बेशक ही बहुत अच्छी है, लेकिन उसके काफ़ी सूत्र बिखरे हुए भी हैं। जैसे बहन की मृत्यु जो कि एक तरह से शहर और प्रेम को छोड़ने का कारण बन जाता है। अगर यह इतना महत्त्वपूर्ण था कि उन्हें शहर तक छोड़ना पड़ा, तब कोई और इसका ज़िक्र क्यों नहीं करता. पात्र अपने बहन की अपने हाथों हुई मृत्यु के ट्रॉमा को खुद कैसे झेलती है? जयदीप अहलावत की यह बात बहुत महत्वपूर्ण है — किस तरह वह महिला उसे जिलाती तो है, पर जिस साड़ी को वह काढ़ने लगता है, वह क्यों उसे तोहफ़े में इस स्त्री को नहीं देता? बल्कि अपनी पत्नी को देता है। वह फिर प्रेम के प्रचंड आवेग से दूर हो जाता है। क्या यह भी संकेत उसी तरफ़ नहीं कि किस तरह जीवन को जीते हुए, हम जीवन जीने से कितना घबरा जाते हैं। शायद कोई क्षण (यहां विस्मृति) ही वह बिंदु बन जाता है जब हम अचानक जीवन जीने पर मजबूर हो जाते हैं।
इस अंक को पढ़ लिया है । पीपल और कुएँ को रात में देखना डरावना अनुभव उन सभी के जीवन में घटित होता है जिनका बचपन गाँव में बीता था । शायद ऐसे कुछ गाँव बचे हों जिन में पीपल और कुआँ दोनों हों । मैंने अपने बचपने में ननिहाल में कुआँ, एक दम नज़दीक पीपल और तालाब देखा था । गाँव में एक अलग जगह पर तालाब और बरगद का वृक्ष ।
बहरहाल थ्री ऑफ़ अस पर । जितेंद्र जी भाटिया ने फ़िल्म की ख़ूबसूरत व्याख्या की है । एक कवि की पंक्तियों, दूसरे इज़राइली कवि तथा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक नज़्म को उद्धृत किया है ।
जितेंद्र भाटिया पढ़ कर मुझे जनसत्ता अख़बार के आरंभ के दिनों में कार्यरत जितेंद्र भाटिया की याद आती है । मैंने तब लैंडलाइन फ़ोन से अख़बार के नोएडा कार्यालय में फ़ोन किया । तब संपादकीय कार्यालय में भाटिया जी तथा एक अन्य शख़्स से बात की थी ।
स्वानंद किरकिरे का एक उदार पति के रूप में चित्रण है । मोहब्बत में ताक़त है कि यह स्मृति क्षरण में से स्मरण का अंकुरण कर सकती है ।
आज की जोखिम भरी [ख़ासकर सियासी गलियारों में] ज़िंदगी में उदारता का उदय होना अच्छे चित्रपट को चित्रित करना है । सभी को मुबारकबाद । एल के अडवाणी की रथ यात्रा के दौरान जय श्री राम के नारे से उपजी आक्रामकता के दिनों से ही राम राम कहने की आदत है । जबकि हमारे माता-पिता राम राम कहते थे ।
अविनाश अरुण धावरे की फिल्म ’थ्री ऑफ अस’ पर जितेंद्र भाटिया की यह समीक्षा हमारे भीतर खुशबू की तरह देर तक मंडराती रहती है । फिल्म के प्रति जितेंद्र भाटिया का रोमांस मुझे हमेशा रोमांचित करता रहा है । फिल्म देखने और उसके भीतर प्रविष्ट होने का उनका अपना एक अलग अंदाज है। वे फिल्म के एक एक कोने में फैले हुए प्रकाश और अंधेरे को जिस तरह अपनी काव्यात्मक भाषा में पिरोते चले जाते हैं वह हमें भी फिल्म के आस्वादन में अपने साथ शरीक हो जाने के लिए बाध्य कर देती है । इस फिल्म की देखने की ललक अब जाग उठी है । इतनी सुन्दर और प्रभावशाली समीक्षा के लिए जितेंद्र भाटिया जी को बधाई । समलोचन तो वैसे भी हमारे समय की एक जरूरी प्लेटफार्म की तरह है । बधाई
मैं फ़िल्म नहीं देख पाई हूँ पर यह सुस्वादु समीक्षा फ़िल्मों पर लिखने का एक नया वितान रच रही है।
मुझे अच्छा लगा जिस तरह से चौथे किरदार को समझा गया। साथ ही यह भी दर्ज किया गया कि पहले नम्बर का किरदार डिमेंशिया है।
जितेन्द्र भाटिया का यह भावपूर्ण आलेख पढ़कर मन से जुड़े कई सवालों ने घेरा और कला की बारीक़ ताकत को समझा. डिमेंशिया जैसी मनःस्थिति को एक सामानांतर कलारूप के बरक्स देखना बहुत मूल्यवान अहसास है और खासकर अगर वॉ जितेन्द्र जैसे समर्थ लेखक की कलम से सामने आया हो तो उसका महत्व बढ़ जाता ही है. अतीत, स्मृति और अंतरंगता; इन विषयों पर संसार भर के कला-रूपों में खूब लिखा-दर्शाया गया है और एक दौर में तो यह भावनाशील व्यक्तियों का प्रिय विषय रहा है. मैं अभी फिल्म तो नहीं देख पाया लेकिन इस समीक्षा की जिस बात ने आकर्षित किया वह ये कि इसमें कोई खलनायक नहीं है और फिल्म का वितान नास्टैल्जिया की तरह नहीं उभरा है और कहानी के केंद्र में स्मृति और अतीत हैं, यहाँ तक कि सारे किरदार भी इन्हीं मनोभावों के प्रतिरूप हैं, (मानवीकरण नहीं). बाकी कला की बारीकियाँ तो फिल्म देखने के बाद ही समझ में आएँगी. मगर समीक्षाकार ने अपनी विधा के जरिये जो चित्र खींचा है, वह फिल्म को देखने और किरदारों के अभिनय को महसूस करने के लिए मजबूर तो करता ही है. ऐसी रचनाएँ पढ़कर लेखन के प्रति आस्था जागती है.
फिल्म जिसे हम देख नहीं पाते। अक्सर होता भी यही है कि हम कोई फ़िल्म देख ही नहीं पाते। इस स्थिति में फ़िल्म समीक्षक उसके सामने फिल्म के दृश्यों को साकार करता चलता है। जितेन्द्र भाटिया जी यह काम बखूबी किया। कहानी जटिल किसी की उलझी हुई जिंदगी की तरह। यहां ओस का यह कथन प्रासंगिक लगता कि भीतर की चीजें मनुष्यों के भीतर एक जैसी होती है।
हीरालाल नागर
जितेंद्र भाटिया के पास अच्छी फिल्मों तक पहुँचने और देखने की आँख है. वे जितनी बारीकी से शहरों की बाबत बात करते हैं, उतनी ही बारीकी और कलात्मकता से फिल्मों के बारे में भी. आत्मसात करने के बाद ही हमें कला की बारीक ताकत समझ में आती है. अतीत और स्मृतियाँ उनके बहुत भीतर रहती हैं , जो इस फिल्म का भी केंद्र बिंदु हैं. फिल्म में पकड़ने के लिए बहुत कुछ है, चाहे वह किरदार के मनोभाव हों या कैमरा से लिए गए द्रश्य. सबकुछ मनोभावों के अनुरूप. जितेंद्र जी ने सब उकेर दिया है पर कहीं न कहीं लगता है, इसे और खोला जाना चाहिए था, जैसे बहिन की मृत्यु की बात. जीवन एक उबाऊ प्रोसेस हो जाए अगर ये स्मृतियाँ हमें छोड़ जाएं. उसी से घबराकर ही नायिका अपने भीतर लौटी है. जितेंद्र जी से और न जाने कितनी फिल्मों की समीक्षा की उम्मीद है.
जितेंद्र जी ने फ़िल्म के लगभग हर महत्वपूर्ण पक्ष को उसकी व्यापकता और बहुआयामिता में रख दिया है। उसे एक साहित्यिक संस्पर्श देते हुए।
अभी हाल ही में यह फिल्म देखी है। बहुत ही सुन्दर लिखा है जितेंद्र जी ने। आज उनकी आँख से भी इस फिल्म को फिर से देख लिया। ग्रेट सर।