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Home » आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा: गरिमा श्रीवास्तव

आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा: गरिमा श्रीवास्तव

राजनीति जब नफ़रत में सन जाती है तब हिटलर पैदा होता है, आउशवित्ज़ घटित होते हैं जहाँ मनुष्यता अपने निम्न स्तर पर गिर जाती है. गरिमा श्रीवास्तव गम्भीर अध्येता हैं, युद्धों में स्त्री की दुर्दशा पर लिखती रहीं हैं. इधर उनका पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ है- ‘आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा’. यह हिस्सा वहीं से लिया गया है.

by arun dev
December 7, 2022
in कथा
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आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा: गरिमा श्रीवास्तव
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नो अंडरवियर !

आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा
गरिमा श्रीवास्तव

अभी कल ही तो संग्रहालय की तस्वीरें देखते हुए एक मोटे कपड़े की, हाथ की सिली ब्रेसियर दिखी, नीचे लिखा था-

“इस ब्रेसियर को लीना बेर्सीएन  ने फटे कपड़ों के टुकड़ों से जुलाई 1944 में स्टफ़्फ़्होग कैंप में  सिला और लगातार सात महीने पहनती रही.

लीना बेर्सीएन 1910 में अंड लिथुआनिया  में जन्मी थी 1941 में उसे यहूदी घेटो में उसकी 14 साल की बेटी के साथ रखा गया, 1944 में बेटी को आश्वीत्ज़  ले जाकर मार डाला गया और घेटो को खत्म कर दिया गया. लीना बच गयी, लेकिन उसका पति दचाऊ के यातना शिविर में मारा गया.

लीना ने पुराने कैनवास के टुकड़े और लीरें इकट्ठी कर यह ब्रेसियर बनाई. युद्ध समाप्ति के बाद वह मेक्सिको चली गयी.”

आउशवित्ज़ के संग्रहालय में जहां कैदियों के कपड़े प्रदर्शित किए गए हैं, उनमें स्त्री–पुरुष के सभी तरह के कपड़े हैं- अंत:वस्त्र यानी अंडरवियर छोड़कर.

इस तरफ मेरा ध्यान नहीं जाता यदि लीना बेर्सिएन की सिली ब्रा की तस्वीर पर नज़र नहीं पड़ती.  अंडरवियर को हम अक्सर शरीर की बाहरी संरचना से जोड़कर देखते हैं, लेकिन इसका मानवीय पक्ष तो हमारी आँखों से ओझल ही रहता है जब तक कि इस छोटे से वस्त्र के टुकड़े से हम महरूम नहीं कर दिये जाते.

आश्वित्स और बिर्कार्नेयु में लाये जाने वाले कैदियों के वस्त्र छीन लिए जाते थे उन्हें गंजा और नंगा कर दिया जाता था, यानी कि एक ही झटके में उनकी निजी अस्मिता छिन्न-भिन्न कर  पशु के समकक्ष खड़ा कर दिया जाना– मनुष्य की मर्यादा से हीन, वे प्राकृतिक आदिम  अवस्था में पहुंचा दिये जाते थे. आउशवित्ज़  में रह चुकी एक दर्जिन शेरलाट डेल्बो ने लिखा था–“आउशवित्ज़  में उसकी अपनी पहचान छीन ली गयी– उसके लंबे बाल और सभी कपड़े”

बंदूक की नोक पर पूर्णत: नग्न कर दिया आदमी प्रतिरोध की क्षमता खो देता है. ट्रेन–लारी से उतार कर विभिन्न देशों के कैदी जिनकी जरूरत थी द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भवन–निर्माण कार्य से लेकर रसायन बनाने के लिए सस्ते श्रमिक के तौर पर, उनके स्वास्थ्य, उम्र कद–काठी, नस्ल, लिंग के आधार पर पंक्तिबद्ध करने में बहुत देरी लगती.

वस्त्रहीन व्यक्ति अपनी लज्जा ढंकने  के लिए अपनी बची ताकत झोंक देगा,बड़ी ही आसानी से उससे वह करवाया जा सकता है जो वस्त्रावृत  व्यक्ति से करवाना सहज  संभव नहीं है.

आदमी–औरतों को नग्न करने से तीन उद्देश्य एकबारगी ही सध जाते  होंगे- सबसे पहला, सदमा–कि अब आप यातना शिविर में आ गए हैं, भूल जाइए कि  अतीत में आपकी  सामाजिक पहचान क्या थी. दूसरे, उन वस्त्रों को इकट्ठा करके बमबारी से तबाह हो रही  जर्मनी की जनता में  बतौर  चैरिटी(दान)  वितरण के लिए भेजना. तीसरा, उन कपड़ों की  छुपी हुई जेबों  से जवाहरात और करेंसी की लूट जो नात्सी संगठन को आर्थिक मदद देती. मुझे लगता है कि जिन लोगों को सेलेक्शन के दौरान गैस–चेम्बर के हवाले कर देने का फैसला किया जाता होगा वहाँ भी नितांत निर्वस्त्र मनुष्य की मृत देह को जलाना या गाड़ दिया जाना आसान होता होगा.

बहुत-सी तस्वीरें हैं भूखे नंगे कैदियों की, एक के ऊपर एक पड़ी नग्न लाशों की. युद्धोपरांत जर्मन सरकार के एक दस्तावेज़ में दर्ज है कि अकेले आउशवित्ज़ शिविर  से 89000 स्त्री-अंत:वस्त्र के जोड़े (सेट )जर्मनी को भेजे गए.

स्त्री की जरूरतों के बारे में हम कितना कम जानते हैं– कितना मुश्किल होता होगा बिना ब्रेसियर ,बिना अंडरवियर के स्त्रियों का जीवन! तेज़ चलना, झुकना, दौड़ना मुश्किल होता है उन औरतों के लिए जिनके स्तन भारी होते हैं. कामकाज के दौरान ब्रेसियर स्त्री के शरीर को बांधे रखने के लिए अनिवार्य होती है. जिन्हें कैदी बना कर निरंतर श्रम करवाया जाता था उन्हें अंडरवियर मुहैया करवाना भी ज़रूरी था. ऐसा नहीं था कि तब तक ब्रेसियर प्रचलन में नहीं आई थी.

मनुष्य ने जबसे परिधानित होना शुरू किया, ब्रेसियर या कंचुकी तो तभी से अस्तित्व में रही है. 1914 में पहली ब्रेसियर के बनने के पहले क्रोचेट विक्टोरियन काल से ही  पहने जाते थे, चूंकि क्रोचेट धातु के तारों से बनता था, वह स्त्रियॉं की कमर और पीठ को पतला दिखाकर छाती को कसने के काम में आता था, जिसे लंबे समय तक लगातार पहनने से रीढ़ की हड्डी में दर्द होता था, इसके पहनने से स्त्रियों का शरीर सुगठित और आकर्षक दीखता था.

प्रथम  विश्वयुद्ध  के दौरान जब सैन्य-सामग्री के लिए लचीली धातुओं की कमी पड़ी तो क्रोचेट बनाने पर रोक लगा दी गयी. अमेरिका के ‘वार इंडस्ट्री बोर्ड’ ने औरतों से कहा कि वे क्रोचेट खरीदना बंद कर दें. परिणामस्वरूप कपड़े  और इलास्टिक से बनी ब्रेसियर का आविष्कार हुआ. जब कारेस्से क्रोसबाय ने कपड़े और रिबन से बनी ब्रेसियर का पेटेंट वॉर्नर ब्रदर को बेच दिया तब जाकर  धातु के शिकंजे से स्त्री को मुक्ति मिली.

मैंने कहीं पढ़ा था कि द्वितीय विश्वयुद्ध में बड़े पैमाने पर कारखानों में काम करने वाली अमेरिकी स्त्रियों ने कहा था कि “हम कॉफ़ी बनाते-बनाते थक गयी हैं अब हमें पॉलिसी भी बनाने दी जाए.” इन्हीं औरतों का ये भी कहना था कि कारखानों को स्त्रियों की ज़रूरत है और स्त्रियों को ब्रा की. इसी मांग का नतीजा था कि सूती, नायलोन, रेशमी कपड़ों और लेस पर सरकार ने सब्सिडी दी .

सोचती हूँ उधर अमेरिका में औरतों की जरूरतों का इतना ध्यान रखा जा रहा था, कई चिकित्सक भी जुड़े हुए थे जिन्होंने  औरतों की  इस मांग को बेहद औचित्यपूर्ण बताया क्योंकि शरीर  को आगे झूलने से रोकने, छाती और कंधे के बीच संतुलन, रीढ़ को सीधा रखने के लिए ब्रेसियर ज़रूरी है. साथ  ही स्त्रियाँ  सही नाप की ब्रेसियर  द्वारा अपने–आप को बेहतर महसूस कर सकती हैं .यह आत्मविश्वास के संचार का मसला भी है .

पिछले सौ वर्षों में इस क्षेत्र  में क्रांति आ गयी है, लेकिन उन औरतों पर क्या गुजरती होगी, जिन्हें  हल्के और भारी श्रम करने पड़ते होंगे ब्रेसियर के बगैर ?

शरीर से बाहर आने वाला खून हर महीने पोंछने के लिए किसी तरह के सेनीटरी पैड की सुविधा उन्हें नहीं थी, नतीजतन वे पुराने कपड़ों की लीरों  को ही इस्तेमाल करती थीं.

ऐसा नहीं था कि आश्वित्स  में वस्त्र–सिलाई का कारख़ाना नहीं था, जहां कैदियों के कपड़े इकट्ठे करके जांच होती थी उसे ‘कनाडा’ कहते थे, इन कारखानों में सब तरह के कपड़े सिले जाते थे, जो सैनिकों और जर्मन जनता के इस्तेमाल के लिए होते थे . कैंप के संगीत बैंड की सदस्य रही  फ़ानिया फ़ेलोन ने लिखा था–

“ब्रा, तौलिया, टूथब्रश जैसी चीजें हम भूल चुके थे .एक यहूदी औरत ने मौत का खतरा उठाते हुए फटे बोरे से ब्रा जैसी कोई चीज़ सिली थी.”

शिविर की सभी औरतें ब्रेसियर से महरूम हों ऐसा भी नहीं था, कभी-कभी जो बंदी  एस.एस. के अफसरों की नज़र पर चढ़ जातीं उनकी किस्मत में लेसदार ब्रेसियर भी  होती,ये बात दूसरी थी कि उनके शरीर को कई तरह से अपमानित भी किया जाता और वे दूसरे अफसरों के कमरों में भी पहुंचाई जातीं.

एस.एस.के संपर्क में आने के पहले उन्हें भली–भांति कीटाणुमुक्त किया जाता. इन कारखानों के कैदियों का काम होता गार्ड्स के कपड़े भी धोना और कोयले की  इस्तरी करना, बर्फीली ठंड पड़ती थी जिससे बचने के लिए कुछ कैदियों ने मिल कर मोर्टार बैग के मजबूत कागज़ से  लंबे जांघिये सिले. कपड़े के अभाव में ये जांघिये उनके बड़े काम के थे. वे देर से गीले होते थे और कमर के हिस्से को ठण्ड से सुरक्षित भी रखते थे .लेकिन एस.एस. के अधिकारियों को कैदियों की यह ‘अय्याशी’ बर्दाश्त नहीं हुई. ऐसी चीज़ें ज़ब्त करके कैदियों को बतौर सज़ा चाबुक से पीटा गया.

 

“अभिरूप!

गरिमा श्रीवास्तव

हालाँकि  मुझे नहीं मालूम कि जो  मेल मैं लिख रही हूँ  और उन्हें ड्राफ़्ट फोल्डर में रखती जा रही हूँ, कभी इन्हें तुम्हारे पते पर  भेज भी पाऊँगी कि नहीं. या ये सभी मेल हमेशा की तरह अन्सेंड ही रह जायेंगे. कहा हुआ सुनने वाले के पास पहुंचेगा ही नहीं .! शायद एक पुरुष कभी भी समझ नहीं सकता स्त्री की निर्वस्त्रता का दर्द एक लड़की का स्त्री में बदलना, उसके भीतर आने वाले भावात्मक और शारीरिक परिवर्तन इन अन्तः वस्त्रों से कैसे जुड़े होते हैं- कोई कह पाएगा क्या, साहित्य भरा पड़ा है स्त्री के हमेशा ढंके रहने वाले अंगों के सौंदर्य के वर्णनों से, न जाने कितनी कविताएँ, कितना गद्य लिखा जा चुका है सृष्टि के आदिकाल से, या यों कहें कि मनुष्य ने सभ्य होना शुरू किया तो सबसे पहले पत्तियों से अपनी लज्जा ढँकी. तरह-तरह  के वस्त्र-आभूषण बने इन अंगों को ढंकने और उनकी रहस्यात्मकता को बनाए रखने के लिए. शरीर में आते जैविक परिवर्तन के साथ लड़की सीख जाती है खुद को ढंकना, अच्छी तरह लपेटना, उसे ढंकना है अपना आंतरिक सौंदर्य जिसकी खोज और प्राप्ति वही करेगा जो सुयोग्य होगा. अपने विकसित होते बदन को वह खुद भी देखने से सकुचाती है, उसके किशोर स्वप्न में होता है प्रेमी या पति जो उसे सम्मान दे, प्रेम में शरीर के उन रहस्यों को प्रदान करना चाहती है उपहार स्वरूप. बशर्ते आपमें  ग्रहण करने की योग्यता हो.  इसीलिए स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा कम हिंसक होती हैं. वे बड़ी तन्मयता से, बिना बोले उस नर्म और ताकतवर हाथ के लिए आजीवन प्रतीक्षा करती हैं, जो इस आंतरिक सौंदर्य पर रीझ जाये. सभ्यता कितनी भी आधुनिक हो जाये स्त्री की अपनी मूल प्रकृति यही है, देश और काल कोई भी हो. कोई स्त्री पहला आंतरिक स्पर्श भूल नहीं पाती,क्योंकि उस  वसंत के लिए कई  तृषित ऋतुओं को पार करना होता है.

जिस पुरुष के आगे खुलती है उसपर वह, उस क्षण पूरा विश्वास कर रही होती है . तुम कहोगे अभिरूप! कि उनका क्या जो बहुतों की अंकशायिनी होती हैं ?

ब्रेसियर का हुक पहली बार खोलने जैसी बात को तुम कैसे लोगे जानती नहीं, क्योंकि वह स्मृति तो  प्रत्येक स्त्री के अवचेतन की चिरस्थाई सम्पदा होती है, शरीर के गोपन अंग उसे माँ बनाते हैं, देखा है तुमने संतान को दूध चुंघाती स्त्री अपने अधखुलेपन में भी सबसे सुंदर लगती है, आत्मविश्वास से प्रज्वलित.

पुरुष एक सीमा के बाद लजाना बंद कर देता है, उसकी नग्नता में भी पौरुष है, जबकि स्त्री अपने इन कपड़ों को छुपा कर धोती-सुखाती  है, ज्यों उसका सार्वजनिक प्रदर्शन उसे बाज़ार की चीज़ बना देता है . मेरा अनुमान है यातना पाकर मर चुके लोगों के सम्मान को बचाने के लिए ही म्यूज़ियम में इन वस्त्रों को प्रदर्शित नहीं किया गया है. ठीक ही तो है, जिनके शरीर को जीते जी मनुष्य के सम्मान से हीन कर दिया गया, उन्हें कम से कम मरने के बाद तो सम्मान मिले.”
__
यह उपन्यास यहाँ से प्राप्त किया जा सकता है.

 

गरिमा श्रीवास्तव
प्रोफ़ेसर,
भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली. 

ईमेल: garima@mail.jnu.ac.in  मोबाइल. 8985708041

Tags: 20222022 कथाHolocaust and underwearआउशवित्ज़आउशवित्ज़ एक प्रेमकथागरिमा श्रीवास्तवब्रा की कहानीस्त्री और युद्धहिटलर
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Comments 9

  1. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    यह आलेख उस यंत्रणा शिविर की अमानवीयता को स्त्री संदर्भ में हमारे समक्ष रखता है। इससे उपन्यास के कथ्य और उसकी अंतर्वस्तु का अंदाज हो जाता है।उम्मीद है,कथा की बुनावट भी रोचक होगी।गरिमा जी को बधाई!

    Reply
  2. Manohar Chamoli says:
    3 years ago

    एक सांस में पढ़ गया ! अधोवस्त्र से जुड़ी यह कथा – व्यथा जो सच है पता नहीं थी ! गरिमा जी को सलाम !

    Reply
  3. Farid Khan says:
    3 years ago

    इस ढंग से कभी सोचा ही नहीं था. गरिमा जी ने बिल्कुल नए अर्थ के साथ दुनिया देखने को प्रेरित किया है. उनका बहुत बहुत शुक्रिया. उपन्यास ज़रूर पढ़ा जाएगा.

    Reply
  4. Kamlnand Jha says:
    3 years ago

    ख़ौफ़ज़दा लमहों से गुजरती स्त्रियों की कथा। गरिमा जी को बहुत बहुत बधाई, इस शानदार उपन्यास के लिए।

    Reply
  5. Dr. Khushboo singh says:
    3 years ago

    सर्वथा नए और अनदेखे को देख लेने की विलक्षण दृष्टि है लेखिका के पास। ऐसे यातनापूर्ण परिवेश में प्रेम कथा की सर्जना को पढ़ने के लिए उत्सुक हूं।
    बधाई हो मैम 💐

    Reply
  6. Naresh Saxena says:
    3 years ago

    ऐतिहासिक। स्तब्ध करदेने वाली। डरावनी और मर्मस्पर्शी।
    प्राप्त करने केलिये क्या करना होगा।

    Reply
  7. आमिर हमज़ा says:
    3 years ago

    हम हमेशा यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि युद्ध में, युद्ध के बाद सबसे अधिक प्रताड़ना महिलाओं के हिस्से ही आती है। लेकिन इस प्रताड़ना से पैदा हुए महिलाओं के तन और मन के ज़ख़्मों को कभी महसूस नहीं कर पाते। दूसरी आलमी जंग के दौरान तरह-तरह से नाज़ियों द्वारा ढहाए गए ज़ुल्म की एक तवील फ़ेहरिस्त है। गरिमा श्रीवास्तव मैम ने महिलाओं पर नाज़ियों के ज़ुल्म के जिस पहलू पर लिखा है, यह हिन्दी अदब में बहुत नया है। यह उपन्यास हिन्दी के सन्नाटे में एक आवाज़ की मानिन्द है, आवाज़ मज़लूमों की, बेकसूरों की…। प्रस्तुत उपन्यास का यह छोटा सा अंश बहुत बेचैन करने वाला है। बहुत-बहुत बधाई मैम।

    Reply
  8. डॉ. सुमीता says:
    3 years ago

    स्तब्धकारी तथ्य! युद्ध-यातनाओं की सच्चाइयों को प्रामाणिकता के साथ हमारे बीच लाने के इस गम्भीर कार्य के लिए गरिमा जी का हार्दिक धन्यवाद।

    Reply
  9. Hemant Deolekar says:
    11 months ago

    उस भयावह इतिहास का यह इतना मर्मांतक हिस्सा मेरे अनुभव और जानकारी में बिल्कुल नहीं था। आदरणीया गरिमा जी का आभार कि अपनी औपन्यासिक कृति के ज़रिये इतना पीड़ाजनक और कठोर सत्य हम तक पहुंचाया।
    उपन्यास ज़रूर पढ़ूँगा, साझा करूँगा। समालोचन के प्रति भी आभार

    Reply

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