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Home » मार्खेज़: मंगलवार दोपहर का आराम: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

मार्खेज़: मंगलवार दोपहर का आराम: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने कहानी के सन्दर्भ में ‘आइसबर्ग तकनीक’ का ज़िक्र करते हुए कहा था कि उसका आठवां हिस्सा ही नुमाया होना चाहिए, कहानी का बड़ा हिस्सा पाठकों को ख़ुद समझने के लिए कथाकार को छोड़ देना चाहिए. १९६२ में लिखी गयी गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़ की कहानी ‘Tuesday Siesta’ ऐसी ही कहानी है. इसका अनुवाद कथाकार-अनुवादक सुशांत सुप्रिय ने किया है. प्रस्तुत है.

by arun dev
December 6, 2022
in अनुवाद
A A
मार्खेज़: मंगलवार दोपहर का आराम: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय
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रेलगाड़ी रेतीले पत्थरों वाली काँपती सुरंग में से निकली और अनंत विस्तार वाले समतल बाग़ानों को पार करने लगी. वातावरण में नमी थी हालाँकि उन्हें अब अपने चेहरों पर समुद्री हवा महसूस नहीं हो रही थी. धुएँ का एक दमघोंटू ग़ुबार खिड़की के रास्ते डिब्बे में घुस आया. पटरी के समानांतर मौजूद पतली सड़क पर केले के हरे गुच्छों से लदी बैलगाड़ियाँ आ-जा रही थीं. सड़क के उस पार जहाँ खेती नहीं हुई थी, वहाँ अजीब अंतराल पर लाल ईंटों से बने भवन और दफ़्तर थे जिनमें बिजली से चलने वाले पंखे थे. यहीं कुर्सियों और सफ़ेद मेज़ों से भरे बरामदों और छतों वाले घर थे जो धूल से भरे खजूर के पेड़ों और गुलाब की झाड़ियों के इर्दगिर्द स्थित थे. सुबह के ग्यारह बजे थे और वातावरण में अभी गर्मी शुरू नहीं हुई थी.

“बेहतर होगा, तुम खिड़की बंद कर दो,”  महिला ने कहा. “तुम्हारे बाल कालिख से भर जाएंगे.”

लड़की ने खिड़की बंद करनी चाही, किंतु शटर में ज़ंग लगे होने के कारण वह उसे हिला भी न सकी.

तीसरे दर्ज़े के उस डिब्बे में यात्रियों के रूप में केवल वे ही थे. चूंकि इंजन से निकलने वाला धुआँ खिड़की के रास्ते लगातार डिब्बे में आता रहा, लड़की अपनी सीट से उठी और उसने वह एकमात्र चीज़ अपने और खिड़की के बीच रख दी, जो उसके पास मौजूद थी- प्लास्टिक का एक बड़ा थैला, जिसमें खाने-पीने की चीज़ें थीं और अख़बार से लिपटा फूलों का एक बड़ा गुलदस्ता था. वह खिड़की के उल्टी दिशा वाली सीट पर बैठ गई. उसके सामने उसकी माँ बैठी थी. वे दोनों मातमी कपड़े पहन कर गंभीर मुद्रा में बैठे हुए थे.

लड़की की उम्र महज़ बारह साल की थी और वह पहली बार रेल-यात्रा कर रही थी. उस महिला की उम्र बहुत ज़्यादा थी, जिससे लगता था कि वह उस लड़की की माँ नहीं हो सकती थी. वृद्धावस्था की वजह से उसकी पलकों पर नीले रंग की नसें उभरी हुई थीं. अपनी छोटी, मुलायम देह पर उसने पादरियों वाला वस्त्र पहना हुआ था. अपनी तनी हुई पीठ को उसने पूरी तरह से गाड़ी की सीट से लगाया हुआ था और अपने दोनों हाथों से उसने अपनी गोद में चमड़े का एक कटा-फटा ज़नाना थैला पकड़ा हुआ था. उसके चेहरे पर एक ईमानदार शांति थी जिससे पता चलता था कि वह ग़रीबी की अभ्यस्त थी.

बारह बजते-बजते गर्मी बढ़ गई थी. पानी भरने के लिए रेलगाड़ी एक ऐसे वीरान स्टेशन पर रुकी जहाँ कोई शहर नहीं था. बाहर बाग़ानों की रहस्यमयी चुप्पी में परछाइयाँ साफ़-सुथरी लग रही थीं. लेकिन गाड़ी के डिब्बे में बंद रुकी हुई हवा असंशोधित चमड़े की गंध से बोझिल थी. रेलगाड़ी ने रफ़्तार नहीं पकड़ी. वह एक जैसे लगने वाले दो शहरों में रुकी जहाँ चमकदार रंगों से रंगे लकड़ी के घर मौजूद थे. महिला का सिर हिला और फिर वह नींद के आग़ोश में चली गई. लड़की ने अपने पैरों से जूते उतार लिए. फिर वह फूलों के गुच्छे को पानी में डालने के लिए डिब्बे में मौजूद हाथ-मुँह धोने वाली जगह पर चली गई.

जब वह अपनी जगह पर वापस आई तो उसकी माँ खाना खाने के लिए तैयार दिखी. उसने खाने के लिए लड़की को पनीर का एक टुकड़ा, मक्के से बना आधा मालपुआ और एक बिस्कुट दिया. अपने खाने के लिए भी उस महिला ने उन्हीं चीज़ों का उतना ही बड़ा हिस्सा प्लास्टिक की एक थैली में से निकाला. जब वे दोनों खा रही थीं,  रेलगाड़ी ने धीमी गति से लोहे का एक पुल और पहले गुज़रे शहरों जैसा एक शहर पार किया. इस शहर के चौक पर भीड़ मौजूद थी. वहाँ एक संगीत-मंडली बेहद गर्मी में कुछ लोकप्रिय गीतों की सुरीली धुनें बजा रही थी. शहर के दूसरी ओर बागानों के अंत में सूखे से दरकी ज़मीन वाला मैदान था.

महिला ने खाना खाना बंद कर दिया.

“अपने जूते पहन लो,”  उसने कहा.

लड़की ने बाहर देखा. उसे सुनसान मैदान के अलावा कुछ नहीं दिखा. रेलगाड़ी धीरे-धीरे दोबारा रफ़्तार पकड़ने लगी. पर उसने अंतिम बिस्कुट थैले में डाला और जल्दी से अपने जूते पहन लिए. महिला ने उसे एक कंघी दी.

“अपने बाल सँवार लो,” वह बोली.

जब लड़की अपने बाल सँवार रही थी उसी समय रेलगाड़ी सीटी बजाने लगी. महिला ने अपने गर्दन पर लगे पसीने को पोंछा और अपनी उँगलियों से चेहरे पर आ गए तैलीय चिपचिपेपन को हटाया जब लड़की ने बाल सँवारना बंद किया उस समय रेलगाड़ी किसी शहर के बाहरी इलाक़े में बने मकानों के सामने से गुज़र रही थी. यह शहर पहले गुज़रे शहरों से बड़ा किंतु ज़्यादा उदास लग रहा था.

“अगर कुछ करना चाहती हो तो अभी कर लो,”  महिला ने लड़की से कहा. “बाद में यदि तुम्हें प्यास लगे तो भी कहीं पानी मत पीना. और सुनो, बिल्कुल मत रोना.”

लड़की ने स्वीकृति में अपना सिर हिलाया. खिड़की में से रेलगाड़ी की सीटी और पुराने डिब्बों की गड़गड़ाहट की आवाज़ों के साथ गरम, सूखी हवा डिब्बे के अंदर आई. महिला ने शेष बचा खाना प्लास्टिक के छोटे थैले में डाला और फिर उसे बड़े थैले में डाल लिया. एक पल के लिए अगस्त के उस चमकीले मंगलवार के दिन उस शहर का पूरा दृश्य जैसे रेलगाड़ी की खिड़की में कौंधा. लड़की फूलों को गीले अख़बार में समेट कर अपनी माँ को घूरती हुई खिड़की से कुछ दूर हो कर बैठ गई. बदले में माँ ने उसे एक ख़ुशनुमा मुस्कान दी. रेलगाड़ी ने सीटी बजाई और उसकी गति धीमी हो गई. एक पल के बाद वह रुक गई.

स्टेशन पर कोई नहीं था. सड़क के दूसरी ओर बादाम के पेड़ों की छाया में पूल-हॉल का द्वार खुला हुआ था. पूरे शहर में बहुत गर्मी थी. महिला और लड़की रेलगाड़ी से उतर गए. उन्होंने चल कर पूरा स्टेशन पार किया. प्लेटफ़ार्म पर लगे खड़ंजों के बीच में से घास उग आई थी. वे दोनों चल कर सड़क के छायादार तरफ आ गए.

दिन के लगभग दो बज रहे थे. उस समय उनींदे शहर के लोग आराम कर रहे थे. शहर की सभी दुकानों, दफ़्तरों और विद्यालय को दिन के ग्यारह बजे बंद कर दिया गया था. वे सभी चार बजे से थोड़ा पहले दोबारा खुलने वाले थे जब रेलगाड़ी के वापस लौटने का समय होता था. केवल स्टेशन के दूसरी ओर स्थित होटल, उसका शराबखाना, पूल-हॉल और चौक के एक ओर स्थित टेलीग्राफ़ दफ़्तर ही खुले हुए थे. केले के बाग़ानों के किनारे बने मकानों की तर्ज़ पर शहर के अधिकांश मकानों के दरवाज़े भीतर से बंद थे और उनकी खिड़कियों में पर्दे लगे हुए थे. कुछ मकानों में इतनी गर्मी थी कि उनमें रहने वाले लोग छायादार आँगनों में बैठ कर दोपहर का भोजन कर रहे थे. गर्मी से बेहाल कुछ दूसरे लोग तो सड़क के किनारे उगे बादाम के छायादार पेड़ों की छाँव में स्थित मकानों की दीवार के साथ ही कुर्सी टिका कर आराम कर रहे थे.

बादाम के पेड़ों की छाया में चलते हुए और बिना किसी के आराम में विघ्न डाले वह महिला और लड़की शहर में प्रवेश कर गए. वे दोनों सीधे गिरजाघर से जुड़े प्रशासनिक भवन में पहुँचे.

महिला ने द्वार पर लगी धातु की झंझरी को अपनी उँगलियों के नाखूनों से दो बार खरोंचा. भीतर से बिजली से चलने वाले पंखे के चलने की आवाज़ आ रही थी. उन्होंने कदमों की आहट नहीं सुनी. न ही वे दरवाज़े के खुलने की हल्की-सी आवाज़ ही सुन पाए. तभी धातु की झंझरी के ठीक बग़ल से सावधानी से बोली गई एक आवाज़ आई , “ कौन है ?” महिला ने भीतर झांक कर देखना चाहा.

“मुझे पादरी की सेवा चाहिए.”

“वे अभी सो रहे हैं.”

“यह एक आपात स्थिति है.” महिला ने बल देकर कहा. उसकी आवाज़ में शांत दृढ़ता थी.

द्वार थोड़ा-सा और खुला और एक मोटी वृद्धा सामने दिखाई दी. उसकी त्वचा पीले रंग की थी और उसके बाल इस्पात के रंग के थे. उसके मोटे चश्मे के पीछे से झांकती उसकी आँखें बेहद छोटी थीं.

“अंदर आ जाइए,”  उसने कहा और दरवाज़ा पूरी तरह खोल दिया.

वे एक कमरे में घुसे जहाँ फूलों की पुरानी गंध रची-बसी थी. वृद्धा उन्हें लकड़ी की कुर्सियों के पास ले गई और उसने उन्हें बैठने का संकेत दिया. लड़की बैठ गई किंतु उसकी माँ खुद में खोई हुई वहीं खड़ी रही. उसने दोनों हाथों से अपना थैला पकड़ रखा था. पंखे के चलने की आवाज़ के अलावा वहाँ अन्य कोई आवाज़ नहीं आ रही थी.

वृद्धा कमरे के दूर स्थित दरवाज़े के सामने दोबारा नज़र आई.

“वे कह रहे हैं कि आप तीन बजे के बाद आएँ, “उसने धीमी आवाज़ में कहा. “वे अभी पाँच मिनट पहले ही आराम करने गए हैं.”

“हमारी रेलगाड़ी साढ़े तीन पर चली जाती है,”  महिला ने कहा.

वह एक संक्षिप्त किंतु आत्मविश्वास से भरा उत्तर था. उसकी आवाज़ सुखद और अंतर्निहित अर्थों से भरी थी. यह सुनकर वृद्धा ने पहली बार मुस्कान दी.

“ठीक है,”  उसने कहा.

जब कमरे के दूर वाले कोने में स्थित दरवाज़ा दोबारा बंद हो गया तो महिला अपनी बेटी की बग़ल वाली कुर्सी पर बैठ गई. सँकरी बैठक साफ़-सुथरी थी किंतु सस्तेपन का आभास दे रही थी. कमरे को दो हिस्से में बाँटने वाले लकड़ी के विभाजन के दूसरी ओर एक साधारण मेज रखी हुई थी जिस पर आवरण पड़ा हुआ था. मेज पर रखे एक गुलदान के बग़ल में एक बहुत पुराना टाइप-राइटर पड़ा हुआ था. गिरजाघर के प्रशासनिक दस्तावेज उसके बग़ल में रखे हुए थे. आप देख सकते थे कि इस दफ़्तर की चीज़ों को एक अविवाहित महिला ने बेहद क़रीने से रखा हुआ था.

तभी कमरे के दूसरे कोने में स्थित दरवाज़ा खुला और इस बार वहाँ पादरी नज़र आया. वह अपने रुमाल से अपने चश्मे के शीशे साफ़ कर रहा था. जब उसने अपना चश्मा पहना तब जा कर यह विदित हुआ कि वह उस वृद्धा का भाई था जिसने दरवाज़ा खोला था.

“मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ ?”  उसने पूछा.

“मुझे क़ब्रिस्तान के द्वार की चाभी चाहिए.”

बैठी हुई लड़की की गोद में फूल पड़े हुए थे और उसने अपने पाँव एक-दूसरे पर रखे हुए थे. पादरी ने पहले लड़की को देखा, फिर महिला को देखा और फिर उसने खिड़की की जाली के भीतर से बिना बादलों वाले चमकीले आकाश की ओर देखा.

“इतनी गर्मी में ?”  वह बोला. “आप सूर्यास्त होने की प्रतीक्षा कर सकती थीं.”

महिला ने चुपचाप अपना सिर हिलाया. पादरी लकड़ी के विभाजन के दूसरी ओर चला गया और उसने अलमारी में से आवरण में लिपटी एक नोटबुक, लकड़ी की कलम और दवात निकाली. वह मेज के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया. उसके सिर के ग़ायब बालों के एवज़ में उसके हाथों पर ज़रूरत से ज़्यादा बाल मौजूद थे.

“आप कौन-सी कब्र पर जाएँगी ?” उसने पूछा.

“कार्लोस सेंतेनो की कब्र पर,” महिला ने जवाब दिया.

“कौन ?”

“कार्लोस सेंतेनो.”

पादरी अब भी कुछ नहीं समझ पाया.

“वही चोर जिसे यहाँ पिछले हफ़्ते मार दिया गया था.”

महिला उसी स्वर में बोली. “मैं उसकी माँ हूँ.”

पादरी ने महिला को ध्यान से देखा. वह भी शांत आत्म-संयम के साथ पादरी को देखती रही. पादरी शरमा गया. वह सिर झुका कर कुछ लिखने लगा. पृष्ठ भर लेने के बाद उसने महिला से अपना परिचय देने के लिए कहा. महिला ने बिना झिझके विस्तार से सारी जानकारी दी, जैसे वह पढ़ कर बोल रही हो. पादरी के माथे पर पसीना आ गया. लड़की ने अपने बाएँ जूते का फ़ीता खोल कर अपनी एड़ी बाहर निकाल ली और उसे कुर्सी पर टिका लिया. फिर उसने अपनी दाईं एड़ी के साथ यही प्रक्रिया दोहराई.

यह सब पिछले हफ़्ते के सोमवार को सुबह तीन बजे यहाँ से कुछ ही भवन-समूह दूर शुरू हुआ था. फुटकर चीज़ों से भरे एक घर में एक अकेली विधवा रेबेका रहती थी. बाहर बारिश हो रही थी जब उस विधवा ने ऐसी आवाज़ सुनी जैसे कोई मुख्य दरवाज़े को जबरदस्ती खोल कर भीतर घुसना चाह रहा हो. वह चौंक कर उठी और उसने अलमारी में से ढूँढ़ कर पुराने ज़माने की एक रिवाल्वर निकाल ली जिसे कर्नल औरेलिएनो बुएंदिया के ज़माने के बाद किसी ने नहीं चलाया था. वह बत्ती जलाए बिना बैठक में पहुँची. उसने आवाज़ से प्रभावित होकर निशाना नहीं साधा, बल्कि अट्ठाईस बरस के अकेलेपन के भय ने इसमें उसकी मदद की. जो भी हो, उस ने अपने दोनों हाथों से रिवाल्वर पकड़ कर दरवाज़े के सटीक बिंदु पर निशाना साधा, अपनी आँखें बंद कीं और गोली चला दी. जीवन में पहली बार उसने रिवाल्वर से गोली चलाई थी. धाँय की आवाज़ के बाद उसे केवल धातु की जस्ती, नलीदार छत पर बारिश की बूँदों के गिरने की आवाज़ ही सुनाई दी. फिर उसे सीमेंट के बरामदे पर किसी के धप्प् से गिरने की आवाज़ सुनाई दी. और अंत में उसे एक धीमी, सुखद किंतु थकी हुई आवाज़ सुनाई दी , “ओ, माँ !” सुबह उन्हें मकान के सामने एक व्यक्ति की लाश मिली जिसकी नाक गोली लगने से क्षत-विक्षत हो गई थी. उसने रंगीन धारियों वाली एक क़मीज़ और एक ऐसी पैंट पहन रखी थी जिसमें बेल्ट की जगह रस्सी का प्रयोग किया गया था. वह नंगे पैर था. पूरे शहर में कोई उस व्यक्ति को नहीं जानता था.

“यानी उस आदमी का नाम कार्लोस सेंतेनो था, “ लिखना बंद करके पादरी ने कहा.

“सेंतेनो अयाला,” महिला ने कहा. “वह मेरा एकमात्र बेटा था.”

पुजारी अलमारी तक गया. दो ज़ंग लगी चाभियाँ अलमारी के दरवाज़े के अंदरूनी हिस्से से लटकी थीं. लड़की ने कल्पना की कि वे संत पीटर की चाभियाँ थीं. लड़की की माँ भी ऐसी ही कल्पना करती यदि वह लड़की की उम्र की होती. यहाँ तक कि पादरी ने भी किसी न किसी समय ऐसी ही कल्पना की होगी. पादरी ने उन्हें निकाला, अपनी खुली नोटबुक पर रखा और उँगली से अपने लिखे पन्ने की एक जगह पर इशारा करते हुए महिला से कहा, “वहाँ हस्ताक्षर कीजिए.”

महिला ने अपना थैला बग़ल में दबा कर जल्दी से उस जगह पर अपना नाम लिख दिया. लड़की ने फूल उठाए और चलते हुए कमरे के विभाजन के पास आ कर वह अपनी माँ को ध्यान से देखने लगी. पादरी ने आह भरी.

“क्या तुमने कभी अपने बेटे को सही रास्ते पर लाने की कोशिश नहीं की ?”

हस्ताक्षर करना ख़त्म करके महिला ने जवाब दिया , “वह बहुत अच्छा लड़का था.”

पादरी ने पहले महिला को देखा,  फिर लड़की की ओर देखा और फिर पवित्र आश्चर्य से महसूस किया कि वे दोनों रोने वाले नहीं थे.

महिला ने उसी स्वर में कहना जारी रखा , “मैंने उसे बताया था कि किसी के खाने की ज़रूरी चीज़ कभी मत चुराना और उसने हमेशा मेरी बात मानी. दूसरी ओर जब वह पहले मुक्केबाज़ी करता था तो मुक्केबाज़ी के मुक़ाबले में घायल होने के बाद वह तीन-तीन दिनों तक थक-हार कर बिस्तर पर पड़ा रहता था.”

“उसके सारे दाँत निकलवाने पड़ गए थे,”  लड़की ने बीच में कहा.

“बिल्कुल सही,” महिला बोली. “उन दिनों मेरे खाने के हर कौर में मेरे बेटे को शनिवार रात में पड़े मुक्कों की पीड़ा का स्वाद होता.”

“ईश्वर की मर्ज़ी गूढ़ और रहस्यपूर्ण होती है,”  पादरी बोला.

किंतु उसने यह बात बिना किसी दृढ़ विश्वास के कही. आंशिक रूप से इसलिए क्योंकि अनुभव ने उसे संशयी और अविश्वासी बना दिया था और इसलिए भी क्योंकि वह गर्मी से पीड़ित था. उसने सुझाव दिया कि माँ-बेटी- दोनों अपने सिर ढँक लें ताकि वे लू लगने से बच सकें. उनींदीं अवस्था में जम्हाई लेते हुए पादरी ने उन्हें कार्लोस सेंटेनो की कब्र का रास्ता बताया. जब वे वापस लौटें तो उन्हें दरवाज़ा खटखटाना नहीं पड़े. वे चाभी को दरवाज़े के नीचे से भीतर सरका दें और यदि वे चाहें, तो उसी जगह पर गिरजाघर के लिए कुछ धन-राशि छोड़ जाएँ. महिला ने पादरी के दिशा-निर्देशों को ध्यान से सुना लेकिन उसने बिना मुसकुराए पादरी को धन्यवाद दिया.

बाहर का दरवाज़ा खोलने से पहले ही पादरी ने इस बात पर ध्यान दे दिया था कि कोई बाहर से भीतर झाँककर देख रहा था. उसकी नाक लोहे की जाली से चिपकी हुई थी. बाहर बच्चों का एक झुंड था. जब दरवाज़ा पूरी तरह खुला तो बच्चे तितर-बितर हो गए. आम तौर पर दिन के इस समय सड़क पर कोई नहीं होता था. अब वहाँ न केवल बच्चे थे बल्कि बादाम के पेड़ के नीचे लोगों के झुंड मौजूद थे. पादरी ने गर्मी से भभकती सड़क पर एक भरपूर निगाह डाली और फिर वह सारा माजरा समझ गया. उसने धीरे से दरवाज़ा दोबारा बंद कर दिया.

“ज़रा रुकिए,” उसने बिना महिला को देखे हुए कहा. अपने कपड़ों पर काली जैकेट पहने तथा कंधों पर खुले बाल लिए उसकी बहन कमरे के दूर वाले दरवाज़े के पास नज़र आई. उसने चुपचाप पादरी की ओर देखा.

“क्या हुआ ?” पादरी ने पूछा.

“लोगों को पता चल गया है.” उसकी बहन बुदबुदाई.

“ बेहतर होगा कि आप लोग आँगन वाले दरवाज़े से बाहर जाएँ.”  पादरी ने कहा.

“वहाँ का भी वही हाल है.” उसकी बहन बोली. “सब लोग खिड़कियों से झाँक रहे हैं.”

ऐसा लगा जैसे महिला ने तब तक कुछ नहीं समझा था. उसने लोहे की जाली के भीतर से बाहर देखना चाहा. फिर उसने फूलों का गुलदस्ता लड़की के हाथ से ले लिया और वह दरवाज़े की ओर बढ़ी. लड़की उसके पीछे चल दी.

“सूर्यास्त तक इंतज़ार कर लीजिए,” पादरी बोला. “आप प्रचंड धूप और गर्मी नहीं सह पाएंगी,”  कमरे के दूसरे कोने में मौजूद पादरी की बहन ने बिना हिले-डुले कहा. “रुकिए, मैं आप लोगों को छतरी देती हूँ.”

“शुक्रिया, “ महिला बोली. “हम ऐसे ही ठीक हैं.” उसने लड़की का हाथ पकड़ा और दोनों बाहर सड़क पर निकल गए.

(स्पेनिश से Gregory Rabassa और J S Bernstein के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)

सुशांत सुप्रिय
(जन्म : 28 मार्च, 1968) 

सात कथा-संग्रह, तीन काव्य-संग्रह तथा सात अनूदित कथा-संग्रह प्रकाशित.
अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ‘इन गाँधीज़ कंट्री’ प्रकाशित, अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ‘ द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ‘ प्रकाशनाधीन 

संप्रति: लोक सभा सचिवालय , नई दिल्ली में अधिकारी.पता: A-5001,
गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम
ग़ाज़ियाबाद – 201014 (उ. प्र.)/ई-मेल : sushant1968@gmail.com

Tags: 20222022 अनुवादTuesday Siestaमंगलवार दोपहर का आराममार्खेज़सुशांत सुप्रिय
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Comments 8

  1. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    2 months ago

    क्या मज़ाक है यह? आज मंगलवार दोपहर का आराम खराब करने का इंतजाम कर दिया आपने; पाठक पढ़ता रहे और दोपहर भर गुनता रहे| 😊

    Reply
  2. वंदना देव शुक्ल says:
    2 months ago

    एक एक दृश्य कितना सूक्ष्मता से वर्णित है। मारखेज की कहानियों की इस विशेषता के साथ यह भी कि वो अंत का निर्णय पाठकों पर छोड़ते हैं । एक अच्छे अनुवाद के लिए सुशांत सुप्रिय जी को बधाई

    Reply
  3. Bhupender Chawla says:
    2 months ago

    सघन अनुभूतियों की कहानी

    Reply
  4. धनजंय वर्मा says:
    2 months ago

    एक अच्छी कहानी के अच्छे अनुवाद के लिए बधाई और धन्यवाद

    Reply
  5. नरेंद्र मोहन says:
    2 months ago

    इस कहानी का एक अनुवाद मैं भी कर चुका हूं पचास साल पहले। यह अनुवाद ‘सारिका में प्रकाशित हुआ था। शायद साल 1973 था। मारकेस का हिंदी में अनुवाद सब से पहले मैंने ही किया था। दिल्ली में उन से व्यक्तिगत परिचय भी प्राप्त किया था लगभग चालीस साल पहले।

    Reply
  6. Navneet Bedar says:
    2 months ago

    बेहद शालीन और गहरी कहानी। केरल के लेखक ओ विजयन की एक कहानी समुद्र तट पर याद आ गई।

    Reply
  7. सुरेंद प्रजापति says:
    2 months ago

    एक अच्छी कहानी। बहुत ही बारीकी से बुना गया शिल्प

    Reply
  8. Dr.D.K.Shrivastava says:
    2 months ago

    बेहद संवेदनशील एवं प्रभावशाली कहानी …

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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